जीवनसाथी :-
‘सुभाष जी, पिछले चार सालों से मैं आपके पास आ रहा हूं लेकिन घुसपैठिया निकला नहीं।’ कबीर के स्वर में मायूसी की हल्की सी झलक थी।
‘भाषा सुधारो कबीर। मैं डॉक्टर हूं कोई पुलिसवाला नहीं।’ सुभाष मुस्कुराए- ‘तुम मरीज हो। जिसने तुम्हारे शरीर पर कब्जा किया है वह घुसपैठिया नहीं एक रोग है।’
‘जानता हूं।’ कबीर हंसा- ‘तंग आ चुका हूं इससे। आपकी और मेरी लाख कोशिशों के बावजूद यह जा नहीं रहा। कुछ करिए न !’
‘देखो कबीर, न चाहने पर भी कुछ ऐसे रोग हमारे शरीर में साथ रहने आ जाते हैं जो कैंसर की तरह लाइलाज नहीं होते लेकिन पूरी तरह से ठीक भी नहीं होते।’ डॉक्टर सुभाष बोले- ‘इन बीमारियों के साथ रहना सीखना पड़ता है। तुम्हारा रोग भी कुछ ऐसा ही है।’
‘तो क्या करूं?’ कबीर चिढ़ को छिपाते हुए बोला।
‘ऐसे रोगों को ताकत देनेवाले क्रियाकलापों से बचो।’ सुभाष समझाने लगे- ‘उसे कमजोर करने और हराने के लिए खुद की लाइफ़स्टाइल को मेरी यानी डॉक्टर की सलाह के अनुरूप बदलो और बीमारी को शरीर में एक तरफ चुपचाप पड़े रहने के लिए मजबूर कर दो। उसे अपने विचारों पर हावी न होने देना।’
‘ऐसा कब तक?’ कबीर ने पूछ लिया।
‘जब तक मेडिकल साइंस इन रोगों का इलाज नहीं ढूँढ लेता।’ डॉक्टर सुभाष ने निर्लिप्त भाव से उत्तर दिया और दवाइयाँ लिखने लगे।
कबीर की निजता का सम्मान करते हुए बीमारी के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है। परंतु आप तो समझ ही गए होंगे। है न?
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