बुधवार, 26 अप्रैल 2023

मैं शस्त्रधारियों में राम हूं।

 कृष्ण कहते हैं, पवित्र करने वालों में मैं वायु हूं। और शस्त्रधारियों में #राम हूं।

यह बहुत प्यारा प्रतीक है।
राम के हाथ में शस्त्र बहुत कट्राडिक्टरी है। राम जैसे आदमी के हाथ में शस्त्र होने नहीं चाहिए। राम का चित्र आप थोड़ा खयाल करें। राम के शरीर का थोड़ा खयाल करें। राम की आंखों का थोड़ा खयाल करें। राम के व्यक्तित्व का थोड़ा खयाल करें। शस्त्रों से कोई संबंध नहीं जुड़ता।
राम, शस्त्रों के साथ, बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। न तो राम के मन में #हिंसा है, न राम के मन में प्रतिस्पर्धा है, न राम के मन में ईर्ष्या है। न राम किसी को दुख पहुंचाना चाहते हैं, न किसी को पीड़ा देना चाहते हैं। फिर उनके हाथ में शस्त्र हैं। उनके हाथ में एक कमल का फूल होता, तो समझ में आता। उनके हाथ में शस्त्र, बिलकुल समझ में नहीं आते।
जब भी मैं राम का चित्र देखता हूं और उनके कंधे में लटका हुआ धनुष देखता हूं और उनके कंधे पर बंधे हुए तीर देखता हूं तो राम के शरीर से उनका कोई भी संबंध नहीं मालूम पड़ता। राम का शरीर एक कवि का, एक काव्य का, एक काव्य की प्रतिमा मालूम होती है। राम की आंखें प्रेम की आंखें मालूम होती हैं। राम पैर भी रखते हैं, तो ऐसा रखते हैं कि किसी को चोट न लग जाए। राम का सारा व्यक्तित्व फूल जैसा है। और कंधे पर बंधे हुए ये तीर, और हाथ में लिए हुए ये धनुष—बाण, ये कुछ समझ में नहीं आते! इनका कोई मेल नहीं है, इनकी कोई संगति नहीं है।
राक्षस के हाथ में, #रावण के हाथ में शस्त्र सार्थक मालूम होते हैं, संगत मालूम होते हैं। वहां गणित ठीक बैठता है। #महावीर के हाथ में तीर का न होना, तलवार का न होना संगत मालूम होता है। गणित वहां भी ठीक है। महावीर हैं या #बुद्ध हैं, उनके हाथ में कुछ भी नहीं है, कोई शस्त्र नहीं है। रावण के हाथ में शस्त्र हैं, सारा शरीर शस्त्रों से ढंका है, यह भी ठीक है।
राम कुछ अनूठे हैं। ये आदमी बुद्ध जैसे और इनके हाथ में शस्त्र रावण जैसे, यह बड़ा #विरोधाभासी है। और कृष्ण को यही प्रतीक मिलता है कि शस्त्रधारियों में मैं राम हूं! बहुत शस्त्रधारी हुए हैं। शस्त्रधारियों की कोई कमी नहीं है। राम को क्यों चुना होगा? जानकर चुना है, बहुत विचार से चुना है, बहुत हिसाब से चुना है। शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में। इसे थोड़ा समझेंगे। थोड़ी बारीक है और बात थोड़ी कठिन मालूम पड़ेगी।
शस्त्र खतरनाक है रावण के हाथ में, क्योंकि रावण के भीतर सिवाय हिंसा के और कुछ भी नहीं है। और हिंसा के हाथ में शस्त्र का होना, जैसे कोई आग में पेट्रोल डालता हो। यह हम समझ जाएंगे। यह हमारी समझ में आ जाएगा। इस दुनिया की पीड़ा ही यही है कि गलत लोगों के हाथ में ताकत है। गलत आदमी उत्सुक भी होता है शक्ति पाने के लिए बहुत।
बेकन ने कहा है, पावर करप्ट्स एंड करप्ट्स एब्सोल्यूटली। #शक्ति लोगों को #व्यभिचारी बना देती है और पूर्ण रूप से व्यभिचारी बना देती है। बेकन की यह बात ठीक है। लेकिन बेकन ने इसका जो कारण दिया है, वह ठीक नहीं है। बेकन सोचता है कि जिनके हाथ में भी शक्ति आ जाती है, शक्ति के कारण वे करप्ट हो जाते हैं। यह बात गलत है। वे करप्ट हो जाते हैं, यह तथ्य है; लेकिन शक्ति के कारण करप्ट हो जाते हैं, यह गलत है। क्योंकि हमने राम के हाथ में भी शक्ति देखी है और करप्शन नहीं देखा, व्यभिचार नहीं देखा, शक्ति का कोई व्यभिचार नहीं देखा।
तब बात कुछ और है। तथ्य तो ठीक है कि हम देखते हैं कि जिनके हाथ में शक्ति आती है, वे व्यभिचारी हो जाते हैं। लेकिन इसका कारण शक्ति नहीं है। इसका बुनियादी कारण यह है कि व्यभिचारी ही शक्ति के प्रति आकर्षित होते हैं। लेकिन कमजोर आदमी अपने व्यभिचार को प्रकट नहीं कर पाता, जब शक्ति हाथ में आती है, तब वह प्रकट कर पाता है। शक्ति के कारण व्यभिचार पैदा नहीं होता, प्रकट होता है।
आप कमजोर हैं, आपके भीतर हिंसा है, दूसरा आदमी मजबूत है, आप हिंसा नहीं कर पाते। फिर एक बंदूक आपके हाथ में दे दी जाए, अब दूसरा आदमी कमजोर' हो गया, अब आप ताकतवर हैं, अब हिंसा होगी।
#चरित्र की असली परीक्षा तभी है, जब शक्ति पास में हो। जिनके पास शक्ति नहीं है, उनके चरित्र का कोई भरोसा नहीं है। उनका चरित्र केवल कमजोरी हो सकती है।
इसलिए इस दुनिया में जितने चरित्रवान लोग दिखाई पड़ते हैं, निन्यानबे प्रतिशत तो कमजोरी की वजह से चरित्रवान होते हैं। इसलिए इतने चरित्रवान भी दिखाई पड़ते हैं, इतनी चरित्र की बात भी होती है और दुनिया रोज चरित्रहीनता में उतरती जाती है।
कमजोर आदमी को ताकत दो और उसका चरित्र बह जाएगा। सबसे पहली जो दुर्घटना होगी, वह चरित्र की हत्या हो जाएगी। कमजोर आदमी को किसी तरह की ताकत दो— धन दो, पद दो, राजनीति की कोई सत्ता दो— सारा चरित्र बह जाएगा।
हम इस मुल्क में भलीभांति जानते हैं। जिनको आजादी के पहले हमने चरित्रवान समझा था, ठीक आजादी के बाद एक रात में उनके चरित्र बह गए। जो सेवक की तरह बिलकुल भोले— भाले मालूम पड़ते थे, वे सत्ताधिकारी की तरह ठीक चंगेज और तैमूर के वंशज सिद्ध होते हैं। क्या हो जाता है रातभर में? क्या शक्ति लोगों को नष्ट कर देती है?
नहीं, लोग कमजोरी की वजह से केवल चरित्रवान थे। हाथ में ताकत आती है और सब चरित्र खो जाता है। परीक्षा शक्ति के बाद ही पता चलती है।
निश्चित ही, शक्ति पाने के लिए कमजोर लोग उत्सुक होते हैं। होते ही वे हैं। मनसविद कहते हैं कि जिनके भीतर इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है, जिनके भीतर हीनता का भाव है, वे ही लोग पदों की तरफ आकर्षित होते हैं। इसलिए अगर इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित लोगों को देखना है, तो किसी भी देश की राजधानी में वे मिल जाएंगे। सब वहां मिल जाएंगे इकट्ठे।
जिनके भी मन में यह भय है कि मैं क्षुद्र हूं मैं कुछ भी नहीं हूं वे किसी पद पर बैठकर अपने और दूसरों के सामने सिद्ध करना चाहते हैं कि मैं कुछ हूं। नोबडी वांट्स टु बी नोबडी। कोई नहीं पसंद करता कि मैं कोई भी नहीं हूं। हर एक के भीतर खयाल है कि मैं कुछ हूं। कुछ हूं लेकिन यह किसको कहूं कैसे कहूं जब तक कि हाथ में ताकत न हो। हाथ में ताकत हो, तो कहूं कि मैं कुछ हूं। सिर्फ वे ही लोग ताकत की दौड़ से बच सकते हैं, जो बिना कहे भीतर हीनता की ग्रंथि से मुक्त हो जाते हैं। जिनके भीतर हीन होने का भाव ही तिरोहित हो जाता है, वे ही लोग दूसरे से श्रेष्ठ होने की कोशिश बंद कर देते हैं!
यह बड़े मजे की बात है। इस जगत में श्रेष्ठ लोग ही श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करते। हीन लोग श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हैं।
राम के हाथ में शस्त्र गलत आदमी के हाथ में शस्त्र हैं। गलत इसलिए कह रहा हूं कि रावण के हाथ में तो ठीक आदमी के हाथ में हैं। रावण की आत्मा और शस्त्रों के बीच सेतु है, संबंध है, एक हार्मनी है, एक संगीत है। राम और शस्त्र के बीच कोई सेतु नहीं है। एक खाई है, अलंध्य खाई है, अनब्रिजेबल गैप है। वही राम की खूबी भी है। शस्त्र हैं और राम हैं, और उन दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है। रावण के हाथ में ठीक मालूम पड़ते हैं शस्त्र, लेकिन खतरनाक हैं। क्योंकि जब भीतर हिंसा हो और शस्त्र हाथ में हों, तो हिंसा गुणित होती चली जाएगी, मल्टीप्लाइड हो जाएगी।
पिछले महायुद्ध में फ्रांस पर जब हमला हुआ, तो फ्रांस की एक पहाड़ी पूरी तरह ध्वस्त हो गई। और युद्ध के बाद जब उस पहाड़ी में खुदाई की जा रही थी, तो एक बहुत हैरानी की घटना घटी। उस पहाड़ी में खुदाई करते वक्त आधुनिक युग के बमों के पड़े हुए शेल एक गुफा में उपलब्ध हुए हैं, जो पत्थरों में छिद गए थे। और वहीं पच्चीस हजार वर्ष पुराने पत्थर के औजार भी उस गुफा में पड़े थे। वे दोनों एक साथ उपलब्ध हुए। पच्चीस हजार साल पुराना पत्थर का औजार और आधुनिक युग के बम की खोल, वे दोनों एक साथ एक ही गुफा में उपलब्ध हुईं।
पच्चीस हजार साल पहले आदमी पत्थर से मार रहा था, आदमी यही था। पच्चीस हजार साल बाद यह बमों से मार रहा है, आदमी वही है। विकास आदमी का जरा नहीं हुआ, लेकिन पत्थर के औजार से एटम बम तक विकास हो गया! आदमी वही है।
इसलिए लोग कहते हैं कि मनुष्यता विकसित हो रही है, वह जरा संदिग्ध बात है। अस्त्र—शस्त्र विकसित हो रहे हैं, यह निस्संदिग्ध बात है। मनुष्यता विकसित होती नहीं दिखाई पड़ती। एवोल्यूशन, विकास, वस्तुओं का हो रहा है।
पच्चीस हजार साल पहले जिस आदमी ने पत्थर के औजार से किसी की हत्या की होगी और पच्चीस हजार साल बाद जिसने बम से हत्या की, इनके हत्या करने का पैमाना बड़ा हो गया। पत्थर के औजार से आप एकाध को मार सकते थे, एटम से आप लाखों को एक साथ मार सकते हैं। एक हाइड्रोजन बम कोई एक करोड़ आदमियों को एक साथ मार सकता है। और अभी जमीन पर पचास हजार हाइड्रोजन बम तैयार हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि तैयारी जरूरत से ज्यादा हो गई। वे कहते हैं कि हमारे पास इतने बम हैं अब, जितने आदमी नहीं हैं मारने को! एक—एक आदमी को सात—सात बार मारना पड़े, तो हमारे पास इंतजाम है। हालांकि एक आदमी एक ही दफे में मर जाता है! लेकिन राजनीतिश बहुत हिसाब लगाते हैं! कोई बच जाए एक दफा, दुबारा, तिबारा, तो हम सात बार मार सकते हैं एक आदमी को। इक्कीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम है अभी, आबादी कोई तीन, साढ़े तीन अरब है। इक्कीस अरब आदमियों को मारने का इंतजाम है। और यह इंतजाम रोज बढ़ता जाता है। आदमी विकसित हुआ नहीं मालूम पड़ता, लेकिन ताकत विकसित हुई मालूम पड़ती है।
हिंसा हो भीतर, वैमनस्य हो भीतर, प्रतिस्पर्धा हो भीतर, शत्रुता हो भीतर, तो अस्त्र—शस्त्र घातक हैं। यह तो हमारी समझ में आ जाएगा। एक तरफ रावण है, जिससे शस्त्रों का मेल है, यह खतरनाक है। दूसरी तरफ बुद्ध और महावीर हैं। ये भी बिलकुल गणित के फार्मूले की तरह साफ हैं। जैसे ये आदमी हैं, इनके पास वैसा ही सब कुछ है; इनके पास कोई अस्त्र—शस्त्र नहीं है। भीतर प्रेम है, हाथ में तलवार नहीं है।
ये आदमी अपने लिए खतरनाक नहीं हैं, किसी के लिए खतरनाक नहीं हैं। लेकिन नकारात्मक रूप से समाज के लिए ये भी खतरनाक हो सकते हैं। नकारात्मक रूप से! क्योंकि इसका मतलब यह हुआ कि बुरे आदमी के हाथ में ताकत रहेगी और अच्छा आदमी ताकत को छोड़ता चला जाएगा। जाने—अनजाने यह बुरे आदमी को मजबूत करना है। महावीर की कोई इच्छा नहीं है, बुद्ध की कोई इच्छा नहीं है कि बुरा आदमी मजबूत हो जाए। लेकिन बुद्ध और महावीर का शस्त्र छोड़ देना, बुरे आदमी को मजबूत करने का कारण तो बनेगा ही। अच्छा आदमी मैदान छोड़ देगा, बुरा आदमी ताकतवर हो जाएगा।
दुनिया में जितनी #बुराई है, उसमें सिर्फ बुरे लोगों का हाथ होता, तो भी ठीक था, उसमें अच्छे लोगों का हाथ भी है। यह बात मैं कह रहा हूं थोड़ी समझनी कठिन मालूम पड़ेगी। क्योंकि अच्छे आदमी का सीधा हाथ नहीं है, अच्छे आदमी का हाथ परोक्ष है, इनडायरेक्ट है। अच्छा आदमी छोड्कर चल देता है। अच्छा आदमी लड़ाई के मैदान से हट जाता है। अच्छा आदमी, जहां भी संघर्ष है, वहां से दूर हो जाता है। बुरे आदमी ही शेष रह जाते हैं। और बुरे आदमी ताकत पर पहुंच जाते हैं, तो पूरे समाज को बुरा करने का कारण होते हैं।
इसलिए #कृष्ण राम को चुन रहे हैं, यह बहुत सोचकर कही गई बात है। राम दोहरे हैं, आदमी बुद्ध जैसे और शक्ति रावण जैसी।
और शायद दुनिया अच्छी न हो सकेगी, जब तक अच्छे आदमी और बुरे आदमी की ताकत के बीच ऐसा कोई संबंध स्थापित न हो। तब तक शायद दुनिया अच्छी नहीं हो सकेगी। अच्छे आदमी सदा पैसिफिस्ट होंगे, शांतिवादी होंगे, हट जाएंगे। बुरे आदमी हमेशा हमलावर होंगे, लड़ने को तैयार रहेंगे। अच्छे आदमी प्रार्थना—पूजा करते रहेंगे, बुरे आदमी ताकत को बढ़ाए चले जाएंगे। अच्छे आदमी एक कोने में पड़े रहेंगे, बुरे आदमी सारी दुनिया को रौंद डालेंगे।
थोड़ा हम सोचें, राम जैसा आदमी सारी पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। एक अनूठा आयाम है राम का। एक अलग ही डायमेंशन है। क्राइस्ट, बुद्ध, महावीर खोजे जा सकते हैं। रावण, या हिटलर, या नेपोलियन, या सिकंदर खोजे जा सकते हैं। राम बहुत अनूठा जोड़ हैं। आदमी बुद्ध जैसे, हाथ में ताकत रावण जैसी।
कृष्ण कहते हैं, शस्त्रधारियों में मैं राम हूं।

सरकार द्वार मन्दिर नियंत्रण का इतिहास और भविष्य..

कल परशुराम जयंती के उपलक्ष्य पर शिवराज मामा ने मन्दिरों को सरकारी नियंत्रण (मैनेजमेंट) से मुक्त करने का फैसला किया। साथ ही ब्राहम्ण कंट्रोल बोर्ड भी बनाने की बात कही जो ब्राह्मण धर्म और संस्कृति को बचाने का काम करेंगे। इसके अलावा जमीन को अबसे पुजारी बेच सकेगा नाकि कलेक्टर और सभी पुजारियों को 5000 रुपये महीना भत्ता भी दिया जाएगा तथा पुजारी वेलफेयर फंड भी बनेगा।

लेकिन मन्दिरों से जो टैक्स लगा राजस्व सरकार को मिलता है उसपर अभी क्लियर नही है कि वो रहेगा या नहीं। शिवराज चौहान के साथ बाबा बागेश्वर धाम भी इस घोषणा के समय मौजदू थे।
1817 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सबसे पहले मन्दिरों पर कब्जा करना शुरू किया था। 1857 की क्रांति के बाद जब अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को टेकओवर किया तो 1863 में नया एक्ट बनाकर अंग्रेजो ने इसे अपने अधीन कर लिया। 1857 की क्रांति देखने के बाद अंग्रेजो ने समझ लिया था कि हिन्दू को कमजोर करना ही पड़ेगा और इसके लिये मैकॉले जो पहले अंग्रेजी शिक्षा पर काम कर हिन्दू शिक्षा पद्धति खत्म कर रहा था, उसे लॉ कमिश्नर बना ये काम भी दिया गया कि हिन्दू को तोड़ने को कानून बनाओ।
उसने सबसे पहले 1860 का इंडियन पीनल एक्ट बनाया जो IPC आज भी चलती है जिसमें 1935 का आयरिश पीनल कोड भी मिला दिया गया था। इसके बाद 1862 का पुलिस एक्ट आया जो भी आजतक चलता है जिसमें पुलिस सरकार की नौकर होती है और सरकारों के लिए काम करती है जनता के लिए नहीं।
और फिर 1863 में आया हिन्दुओ का रिलीजस एंडोमेंट एक्ट जिससे मन्दिरों पर नए सिरे से कब्जा शुरू हो गया जो 1817 से ही चल रहा था।
हमारे मन्दिर जो गुरुकुल, गौशाला, वेदशाला, विवाहशाला, योगशाला, व्यायामशाला, आयुर्वेदशाला, मंडी (बाजार), धर्म प्रचार प्रसार आदि का काम करते थे, वो सब बन्द हो गए। इसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा आ गयी और हम धर्म से विमुख होते चले गए। हमारी गायें कटनी शुरू हो गयी। हमारे शास्त्र बर्बाद होने लगे। हमारी चिकित्सा खत्म हो गयी। हमारे अखाड़े खत्म हो गए। हमारे बाजार (व्यवसाय) जहां से धन उत्पन्न होता था वो खत्म हो गया जिससे हमारा धर्म प्रचार प्रसार का कार्य भी रुक गया। यहां तक कि गरीबो के भोजन का प्रबंधन रुक गया और गरीब बेटियों के विवाह की व्यवस्था तक रुक गयी।
जब अंग्रेजो ने इसका लाभ देखा तो 1925 में अंग्रेजो ने सभी धर्मों का सरकारी नियंत्रण कर लिया लेकिन भारी विरोध होने पर 1927 में इसे वापिस ले लिया गया और सिर्फ मन्दिरों का कब्जा जारी रखा। यहां तक कि 1925 में अंग्रेजो ने सिक्खों के गुरुद्वारों का अधिकार SGPC को दे दिया जो उन्होंने 1920 में बनाई थी। वही SGPC जो आज भी गुरुद्वारे नियंत्रण करती है और खलिस्तानी पालती है जो कहते हैं कि ये इंडिया नहीं पंजाब है। आखिर इसी मकसद से तो उसे अंग्रेज बनाकर गए थे।
1947 के बाद नेहरू ने न सिर्फ इसे चालू रखा बल्कि राज्यो को और ज्यादा पावर दे दी। 1951 में पहली बार तमिलनाडु सरकार ने मन्दिरों पर कब्जा शुरू किया। उसके फंड और मेजमेंट में अपने लोग बिठा दिए जो कमिश्नर रैंक के थे। इसका विरोध होने पर कोर्ट ने जब इसपर रोक लगाने को कहा तो 1959 नया कानून लाया गया जिसमें कहा गया कि हम सिर्फ ये देखेंगे कि मन्दिरों को मिलने वाले फंड का दुरुपयोग न हो जबकि ऐसा कुछ नही हुआ और आज तो वहां नेताओ तक ने मैनेजमेंट के नाम पर मन्दिरों की हजारो एकड़ जमीन कब्जा रखी है और उसे व्यावसायिक रूप से चला पैसा बना रहे हैं।
फिर दक्षिण के राज्यो से शुरू होकर ये अन्य राज्यो में भी शुरू हो गया। वहां भी नेताओं का ऐसा ही कब्जाऊ खेल चल रहा है।
आज देश के अंदर 9 लाख मन्दिरों में से 4 लाख मन्दिर सरकारी नियंत्रण में हैं। अधिकतर मन्दिर दक्षिण के ही हैं क्योंकि जब 1863 में मैकॉले ने इसे बनाया तो उसने पाया था कि नार्थ के मंदिर तो सब मुगलों ने तहस नहस कर दिए लेकिन दक्षिण के मंदिर अभी भी बचे हैं जहां से धन संपदा बहुत मिल सकती है।
आज भारत मे 35 कानून अलग अलग राज्यों में हैं जो मन्दिरों पर नियंत्रण करते हैं। सालाना 1 लाख करोड़ का कलेक्शन मन्दिरों से सरकार को होता है जिससे सरकार फिर अन्य काम (सड़क वगैहरा) से लेकर मौलानाओ पादरियों की सैलरी तक दे रही है।
इसके उलट मस्जिद चर्च गुरद्वारे आज भी फ्री हैं। वहां भी भले ही कब्जा है लेकिन वो उन लोगो के ही अपनो का है, सरकार का नहीं। न सरकार उनसे कोई कलेक्शन लेती है जैसा मन्दिरों से लिया जाता है।
संविधान कहता है कि भारत की संस्कृति (हिन्द) की रक्षा होगी जबकि आजादी के बाद भी हुआ इसका उल्टा और हमारे मन्दिर जो गुरुकुल, गौशाला, वेदशाला, विवाहशाला, योगशाला, व्यायामशाला, आयुर्वेदशाला, मंडी (बाजार), धर्म प्रचार प्रसार आदि का काम करते थे, वो फिर से शुरु नही हो सके। जो 1 लाख करोड़ सरकार लेती है वो पैसा इन कामो में लगाया जा सकता था।
हालांकि कोर्ट में इसकी सुनवाई चल रही है लेकिन तमिलनाडु सरकार ही विरोध करने आ गयी जो देश की सबसे पहली कब्जा करने वाली सरकार थी और आज उनके नेता मन्दिरों की जमीनों पर बैठे हैं।
हालांकि कोर्ट से भी क्या उम्मीद करनी कि वो संविधान का पालन करते हुए हिन्दू संस्कृति की पुनर्स्थापना कराने में मदद करेगा क्योंकि ये तो हिन्दू संस्कृति को बर्बाद करने के नए नए तरीके जो ला रहा है जैसे वो नल्ला मैरिज (सेम सेक्स मैरिज)।
आज केंद्र से ज्यादा पॉवर राज्यो के पास चले गयी है। केंद्र अगर कानून खत्म भी कर दे तो राज्यो के अपने कानून हैं जिनमे केंद्र दखल नही दे सकता। दूसरा जब राज्य के नेता ही मन्दिरों पर कब्जा किये हैं और राज्य राजस्व खा अपनी सेक्युलर राजनीति कर रहे हैं तो कितने राज्य इसे मानेंगे ये भी सवाल है।
इसके बाद दूसरा सवाल ये है कि मंदिर मुक्त होने के बाद उनका संचालन कौन करेगा? क्या जो पुजारी वहां होंगे उनको कोई भी सरकार मैनेज नही कर सकती? या अपने लोग वहां नही बिठा सकती? इसके अलावा ये भी कि जैसे वक्फ या चर्च के नाम पर कुछ चुनिंदा लोग ही सारी जमीन खा रखे हैं और आम मुस्लिम ईसाई का भला ये आजतक न कर सके, ऐसा ही हिन्दुओ के साथ तो नही होगा? जबकि हिन्दू सोच रहा है कि इससे पुराना समय लौट आएगा जैसा ऊपर बताया था।
और फिर कहीं हिन्दू भी मुस्लिमो और ईसाइयो की तरह इन कब्जा वालो का गुलाम तो नही बनेगा जो हिन्दुओ को कंट्रोल करेंगे और नेता इन कब्जे वालों को हिन्दुओ के वोट के लिए जैसा मुस्लिम वोट या ईसाई वोट के लिए होता है और मुस्लिम-ईसाई अपने आका। (फलाना मौलाना, फलाना पादरी) के कहने पर देता है, ऐसा ही हिन्दुओ का कोई रहनुमा तो नही बन जायेगा?
इसलिए सवाल तो सरकारी नियंत्रण से मुक्ति के बाद भी हैं कि इनसब पर तब कौन नजर रखेगा?
या फिर ये बेहतर है कि सभी धर्मों के मंदिर मस्जिद चर्च गुरद्वारे पर सरकार कब्जा कर दे और इनका मैनेजमेंट वही देखें, सिर्फ अकेले मन्दिरों का नहीं। और 35 की जगह भी सिर्फ 1 कानून हो जो पूरे देश मे लागू हो। अवैध कब्जा भी वापिस छीन लिया जाए और एक्सपर्ट कमेटी बिठा दी जाए जो अपने अपने धार्मिक स्थलों की निगरानी करेगी कि क्या बेचना है, क्या खरीदना है, कब्जा नही होने देना है और रख रखाव कैसे करना है।
साथ ही सभी से सरकार अपने लिए 5 या 10% राजस्व लेती रहे जो फिर वो धर्म मजहब पर न खर्च करे क्योंकि बाकी का राजस्व का पैसा सब अपने अपने धर्म-मजहबो पर खर्च खुद कर लेंगे जिसमे धर्मस्थल के रख रखाव, नया धर्म स्थल, त्योहार मनाने आदि का खर्चा, सैलरी आदि आ ही जायेगी, जिसके लिए भी अपने अपने धर्म-मजहब वाले एक विशेष समिति बनाएं जो धर्म-मजहब का क्या क्या कार्य करना है उसके दिशा निर्देश तय करें।
लेकिन इसमें एक अड़ंगा आएगा कि फिर न मस्जिद-चर्च वाले अपने पैसो से हिन्दुओ का धर्मान्तरण करा पाएंगे और न हिन्दू उन पैसो से घर वापसी क्योंकि धर्मान्तरण कानून (जो अलग से आएगा) सबपर रोक लगा देगा कि पैसो के बल पर धर्मान्तरण-घरवापसी अपराध है। हालांकि बाकी के काम जो ऊपर बताए थे वो हो सकेंगे, फिर वो धर्म प्रचार भी क्यों न हो क्योंकि प्रचार करना अपराध नही है, लालच या डराना अपराध है।
लेकिन इन सबके लिए भी केंद्र, राज्य, कोर्ट और गैर हिन्दू मजहब वाले एक साथ आने चाहिए, जो होने से रहा क्योंकि बहुतों का बहुत कुछ छीन जाएगा। 1925 में अंग्रेजो को तक विरोध झेलना पड़ा। ऊपर से धर्मान्तरण, कब्जा, राजनीतिक पावर, नेतागिरी जैसी चीजों की भी बलि देनी होगी।
अब यदि ये बलि देने की इच्छा हो तो फिर ये मसला राज्यों से होते हुए केंद्र और सुप्रीम कोर्ट तक आ सकता है।
वरना उल्टा भी चलें तो कोर्ट में केस पड़ा ही है, कोर्ट केंद्र से जवाब मांगेगा, फिर केंद्र राज्यो को भी पार्टी बनाने को कहेगा, राज्य भी यदि माने तो फिर यदि फैसला वो आया जिसकी बात हो रही है तो फिर इन गैर हिन्दू कब्जाधारियों को भी सड़क पर मैनेज करना पड़ेगा क्योंकि प्यार से तो ये भी मानेंगे नहीं और भीड़तंत्र की शक्ति जरूर दिखाएंगे।
बाकी, आप क्या सोचते हैं?
अखंड भारत सनातन संस्कृति
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ज़िन्दगी का ये सफ़र,बहुत जदोजहद भरा है *आहत*

 कौन जाने कि ये कौन सा दर्द है जो घटता ही नहीं,

होता जाता है बेजा असहनीय मरहम लगाने के बाद !
डाल पर जब तक खिले हैं फूल महका करेंगे खूब,
लेकिन ख़ुशबू दे न सकेंगे ये कल मुरझाने के बाद !
प से होता है पानी, भ से होती है भयंकर भूख अंकल,
मजलूम भूखे बच्चे ने कहा थोड़ा सा हकलाने के बाद !
ज़िन्दगी का ये सफ़र,बहुत जदोजहद भरा है *आहत*,
करोड़ों हैं बेरोजगार शेष, लाखों भूखे मर जाने के बाद !
रास्ता काँटों भरा है,मुश्किल में है धरती और मानवता,
भीख पर जिंदा है भीड़,अच्छे दिन आ जाने के बाद!