सोमवार, 31 जनवरी 2011

अंध-आस्था से लेस सांप्रदायिकता ही कट्टरवाद की जननी है.....

         ईश्वर का नाम लेने में न तो कोई बुराई है और न ही किसी का अनिष्ट होने कि कोई संभावना है.मानव सभ्यता के विभिन्न दौर में प्राकृतिक आपदाओं और वैयक्तिक कष्टों से निज़ात पाने या संघर्ष क्षमता हासिल करने कि चेष्टा में प्रबुद्ध मानवों ने वैज्ञानिक आविष्कारों कि तरह ही मानसिक ,चारित्रिक ,सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक उन्नोंयन में महारत हासिल कि है .यह कार्य हर युग में , हर देश में ,हर द्वीप में और हर कबीले या मानव समूह में अनवरत चलता रहा है .कोई देश विशेष,समाज विशेष,जाति विशेष या सम्प्रदाय विशेष जब ओरों कि बनिस्पत अपनी रेखा को - दर्शन या मजहब के मद्देनजर बढ़ा दिखाने के फेर में असत्याचरण करते हुए ,प्रभुत्व का इस्तमाल करते हुए आक्रामक हो जाये तो समझो कि वो धरम या मजहब छुई -मुई भर है ,उसका कोई सत्यान्वेषण संभव नहीं,उसके मानने वालों का कोई नैतिक या चारित्रिक उत्थान संभव नहीं ,ऐसी कौम को मानवीयता के इतिहास में सदैव संदेह का सामना करना पड़ता है ,कई अग्नि परीक्षाएं भी उसके स्खलन को रोक नहीं पातीं .
         भारत दुनिया का एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्रात्मक -धर्मनिरपेक्ष -गणतंत्र है ;जहाँ सभी धर्मों ,सभी जातियों ,और सभी विचारधाराओं को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है ,हालाँकि भारतीय संविधान कि प्रस्तावना में ही उसके नीति निर्देशक सिद्धांतों कि महानता स्पष्ट उद्घोषित होती है 'हम भारत के जन गण यह संकल्पित करते हैं कि हम सर्व प्रभुत्व सम्पन्न ,लोकतंत्रात्मक ,धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादी गणतंत्र कि स्थापना हेतु बचन बध्ध होंगे ......."हालाँकि तीसरा संकल्प याने समाजवाद अभी भी दूर कि कौड़ी है ,अभी तो पहले दो सिद्धांत याने लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता ही डांवाडोल होते नजर आ रहे हैं इसके लिए  सिर्फ सत्ता ही जिम्मेदार हो ऐसी बात नहीं ,जनता के वे हिस्से जिनके हितों का ताना -बाना भृष्ट आचरण से जुड़ गया वे भी इस इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं. बहुसंख्यक सम्प्रदायवादी जितने जिम्मेदार हैं ;अल्पसंख्यक सम्प्रदायवादी -कट्टरपंथी भी उतने ही जिम्मेदार हैं .विदेशीशत्रु  जितने जिम्मेदार हैं आंतरिक तथाकथित अंध राष्ट्रीयतावादी भी उतन्रे  ही जिम्मेदार हैं .
          देश कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिक राजनीत में यदि ढपोरशंखियों को सर माथे लिए जायेगा और विकाश कि -धर्म निरपेक्षता कि .समाजवाद कि बात करने वालों को हासिये पर धकेला जायेगा तो संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों कि बखत ही क्या रहेगी?अल्पसंख्यक समूह कि उदारवादी कतारों को हासिये पर धकेला जायेगा तो कट्टरपंथ हावी होगा ही फिर उससे से  जूझने के लिए उदारचेता समदृष्टि उभय हितेषी कौन बचेगा ?
       पहले अयोध्या काण्ड  फिर गोधरा काण्ड उसके उपरान्त गुजरात कांड ,मुंबई काण्ड ,मालेगांव .अजमेर .हैदरावाद और समझौता एक्सप्रेस से लेकर अब स्वामी असीमानंद कि अपराध स्वीकारोक्ति के निहतार्थ हैं कि अल्पसंख्यकों को उदारवादी ट्रेक पर चल पड़ना चाहिए किन्तु हतभाग्य ऐसा हो नहीं पा रहा है .कतिपय उच्च शिक्षित उदारमना  हिन्दू खुलकर अल्पसंख्यकों का पक्ष पोषण करते रहते हैं ,वाम जनतांत्रिक कतारों में सदैव अल्पसंख्यकों के हितों की पेरवी के लिए शिद्दत से काम होता रहा है कांग्रेस ,समाजवादी पार्टी ,बहुजन समाज पार्टी ही नहीं बल्कि भाजपा भी सिकंदर वख्त से मुख्तार अंसारी तक यह जताने के लिए जी जान से जुटी रही की वह अल्पसंख्यक विरोधी नहीं .आर एस एस ने भी बाज मर्तवा जाहिर किया की हिंदुत्व का मतलब ये नहीं वो नहीं -मतलब देश में छोटे भाई की तरह रहो तुम भी खुश हम भी खुश .हालाँकि सत्ता के लिए जब ये गंगा जमुनी मार्ग जमीन पर नहीं बन सका तो रथारूढ़ होकर ,हाथ में त्रिशूल लेकर हिन्दू जनता के सामने राम लला के नाम पर छाती कूटकर जल्द बाज़ी में 'दोउ गंवाँ बैठे ...माया ...मिली  न राम ....इसी तरह अल्पसंख्यकों की उदारवादी कतारों को परे हटाते हुए  इस्लामिक कट्टरपंथी भी  बिना आगा पीछा सोचे भारत राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष और लोकतान्त्रिक स्वरूप को विच्छेदित करने में लगे हैं.
      दारुल -उलूम -देवबंद के कुलाधिपति या वाईस चांसलर मौलाना गुलाम मोहम्मद वास्तन्वतीके जबरिया इस्तीफे से साफ़ है कि भारत में कट्टरपंथी इस्लामिक ताकतें विवेक और सद्भाव कि आवाजों को मुखर नहीं होने देना चाहतीं . इसमें किसी को भी शक नहीं कि गुजरात के २००२ में हुए दुखांत दंगों में मुस्लिम समुदाय के निर्दोष लोगों को जान माल का भारी नुक्सान हुआ था किन्तु क्या निर्दोष हिन्दुओं  को भी इसी तरह कि बीभत्स तस्वीर का सामना नहीं करना पड़ा था ?साम्प्रदायिक दंगों कि आग में अधिकांश मजदूर और वेरोजगार ही क्यों मारे गए ?क्या यह सर्वहारा वर्ग को साम्प्रदायिक आधार पर विखंडित करने कि पूंजीवादी -साम्राज्यवादी कुचाल नहीं ?किंतुं इन नर संहारों में सबसे ज्यादा छति धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत कि हुई इसके वावजूद यदि मौलाना वास्तान्वती इस गंगा जमुनी एकता को पुख्ता करने के लिए मुसलमानों से गुजारिश करते हैं कि अतीत की कालिमा को भूलो आगे बढ़ो तो इसमें ऐसा क्या गजब हो गया कि उन्हें त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया गया . मौलाना वास्तान्वती सिर्फ इस्लामी आलिम ही नहीं वे एम् वी ए भी हैं और गुजरात खास तौर से सूरत उनकी कर्म भूमि भी रही है वे गुजरात या शेष भारत में मुस्लिमों के साथ तथाकथित भेद भाव की अवधारणा से परे प्रोग्रेसिव विचा रों  के हामी हैं .उनकी यह समझ भी है कि क्षेत्रीय और भाषाई कारणों से देश के मुसलमान सार्वदेशिक तौर पर एक सी सोच नहीं रखते .अर्थात यह जरुरी नहीं कि  यु पी या बिहार का मुस्लिम  चीजों को जिस नज़र से देखता है गुजरात का मुस्लिम भी वही नजरिया धारण करे.हो सकता है कि गुजराती मुसलमानों के जख्म अभी भी न भरे हों किन्तु मानव जीवन यात्रा में जो सकारात्मकता जरुरी है वो जनाब वास्तान्व्ती ने व्यक्त कि थी .अब दारुल उलूम की मजलिसे शूरा ने उन्हें मनाने का फैसला तो किया किन्तु कट्टरपंथी छात्र समूह की हरकतों से एक महान विद्वान् एक सर्वश्रेष्ठ उलेमा इस्तीफ़ा वापिस लेने को तैयार नहीं .उनके पदारूढ़ होने से देवबंद में शिक्षा के नए द्ववार खुलने ,देश में इस्लामी तालीम को रोजगार मूलक बनाने और रोशन ख़याल हमवतनो की आवाज बुलंद होने के सपने साकार करने की उम्मीदें बनी थीं कट्टरपंथियों की हरकतों से ये अधुनातन कपाट बंद होते से लग रहे हैं  .आज जबकि दुनिया भर में इस्लामी कट्टरवाद और इस्लामिक उदारवाद के बीच जंग छिड़ी है तब देश और दुनिया के उदारवादी आवाम की एकजुटता सहिष्णुता और उदारवाद की पक्षधरता जरुरी है .उसके पूर्व भारत में बहुसंख्यक कट्टरवाद पर तगड़ी लगाम जरुरी है और वास्तन्वती जैसे इस्लामिक शिक्षा शाश्त्रियों को भरपूर सहयोग तथा समर्थन जरुरी है .यह एक के बस का काम नहीं सभी की थोड़ी थोड़ी आहुति जरुरी है .....
    श्रीराम तिवारी

रविवार, 30 जनवरी 2011

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का अंतिम दिवस...

            "आज नई दिल्ली में शाम के पांच बजकर सत्रह मिनिट पर , राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या हो गई " उनका हत्यारा एक हिन्दू है ' वह एक ब्राम्हण  है ' उसका नाम नाथूराम गोडसे है ' स्थान बिरला हॉउस ..........ये आल इंडिया रेडिओ है ........{पार्श्व में शोक धुन }......
           उस वैश्विक शोक काल में तत्कालीन सूचना और संचार माध्यमों ने जिस नेकनीयती और मानवीयता के साथ सच्चे राष्ट्रवाद का परिचय दिया वह भारत के परिवर्ती-सूचना और संचार माध्यमों  का दिक्दर्शन करने  का प्रश्थान बिंदु है. यदि गाँधी जी का हत्यारा कोई अंग्रेज या मुस्लिम होता तो भारतीय उपमहादीप की धरती रक्तरंजित हो चुकी होती. तमाम आशंकाओं के बरक्स आल इण्डिया  रेडिओ और अखवारों की तात्कालिक  भूमिका के परिणाम स्वरूप देश एक और महाविभीशिका  से बच गया .........
               लेरी कार्लिस और डोमनिक लेपियर द्वारा १९७५मे  लिखी पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाइट'  में भारतीय स्वाधीनता संग्राम  की आद्योपांत कहानी का वर्णन है ...इसमें गांधी जी की हत्या का विषद और प्रमाणिक वर्णन भी है .....
   मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन का अंतिम दिन -की दिन चर्या में सूर्योदय से पहले लगभग ०३.३० बजे उनका जागना और ईश्वर आराधना .दोपहर के आराम के बाद वे १०-१२ प्रतीक्षारत आगंतुको से मिले ,बातचीत की .अंतिम मुलाकाती के साथ चर्चा उनके लिए घोर मानसिक वेदना दायक रही .वे अंतिम मुलाकाती थे सरदार वल्लव भाई पटेल . उन दिनों पंडित जी और पटेल के बीच नीतिगत मतभेद चरम पर थे . पटेल तो संभवत: नेहरु  मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के मूड में थे ; लेकिन गांधीजी उन्हें समझा रहे थे कि यह देश हित में नहीं होगा .
          गांधीजी ने समझाया कि नवोदित स्वाधीन भारत के लिए यह उचित होगा कि तमाम मसलों पर हम तीनो -याने गांधीजी .नेहरूजी और पटेल सर्वसम्मत राय बनाए जाने कि अनवरत कोशिश करेंगे .आपसी मतभेदों में वैयक्तिक अहम् को परे रखते हुए देश को विश्व मानचित्र पर पहचान दिलाएंगे .पटेल से बातचीत करते समय गांधीजी कि निगाह अपने चरखे और सूत पर ही टिकी थी .जब बातचीत में तल्खी आने लगी तो मनु और आभा जो श्रोता द्वय थीं ,वे नर्वस होने लगीं ,लगभग ग़मगीन वातावरण में उन दोनों ने गांधीजी को इस गंभीर वार्ता से न चाहते हुए भी टोकते हुए याद दिलाया कि प्रार्थना का समय याने पांच बजकर दस मिनिट हो चुके हैं .
       पटेल से बातचीत स्थगित  करते हुए गांधीजी बोले 'अभी मुझे जाने दो. ईश्वर कि प्रार्थना-सभा में जाने का वक्त हो चला है ' आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर गाँधी जी अपने जीवन कि अंतिम पद यात्रा पर चल पड़े ,जो बिरला हॉउस  के उनके कमरे से प्रारंभ हुई और उसी बिरला हॉउस  के बगीचे में समाप्त होने को थी .....
    अपनी मण्डली सहित गांधीजी उस प्रार्थना सभा में पहुंचे जो लॉन  के मध्य थी और जहाँ .नियमित श्रद्धालुओं कि भीड़ उनका इंतज़ार कर रही थी और उन्हीं  के बीच हत्यारे भी खड़े थे .गांधीजी ने सभी उपस्थित जनों के अभिवादानार्थ  नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ..... करकरे कि आँखें नाथूराम गोडसे पर टिकी थीं ...जिसने जेब से पिस्तौल निकालकर दोनों हथेलियों के दरम्यान छिपा लिया .....जब गांधीजी ३-४ कदम फासले पर रह गए तो नाथूराम दो कदम आगे आकर बीच रास्ते में  खड़ा हो गया ...उसने नमस्कार कि मुद्रा में हाथ जोड़े ,वह धीमें -धीमें अपनी कमर मोड़कर झुका और बोला "नमस्ते गाँधी 'देखने वालों ने समझा कि कोई भल-मानुष है जो गांधीजी के चरणों में नमन करना चाहता है ...मनु ने कहा भाई बापू को देर हो रही है प्रार्थना में ..जरा रास्ता दो ...उसी क्षण नाथूराम ने अपने बाएं हाथ से मनु को धक्का दिया ...उसके दायें हाथ में पिस्तौल चमक उठी .उसने तीन बार घोडा दवाया ...प्रार्थना  स्थल पर तीन धमाके सुने गए ...महात्मा जी कि मृत देह को बिरला भवन के अंदर ले जाया गया,  आनन् -फानन लार्ड  माउन्ट बेटन, सरदार पटेल, पंडित नेहरु और अन्य हस्तियाँ उस शोक संतृप्त माहोल के बीच पहुंचे ...जहां श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए अंतिम ब्रिटिश प्रतिनिधि ने ये उदगार व्यक्त किये .....'महात्मा गाँधी को ...इतिहास में वो सम्मान मिले जो बुद्ध ,ईसा को प्राप्त हुआ ....
    श्रीराम तिवारी

शनिवार, 29 जनवरी 2011

भाजपाई अश्वमेध का घोड़ा- कर्नाटक में क़ैद...

   माननीय राज्यपाल {कर्णाटक}हंसराज भारद्वाज देश के उन बचे-खुचे कांग्रेसियों में से हैं जो न केवल विधि विशेषग्य अपितु केंद्र राज्य संबंधों के प्रखर अध्येता भी रहे हैं ; उन्होंने जब कर्णाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री येदुरप्पा के खिलाफ आपराधिक मुकद्दमें की अनुमति दी तो कर्णाटक में गुंडों ने आसमान सर पर उठा लिया.
      उम्मीद की जा सकती थी कि- जिस तरह विगत ६-७ साल पहले मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल भाई महावीर जी ने जब ठीक इसी तरह का निर्णय तब तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ  दिया तो मध्यप्रदेश में पत्ता भी नहीं खड़का . कोई सड़क पर नहीं आया ,किसी ने बस या रेल नहीं रोकी और न किसी ने उन्हें जलाया, कर्णाटक में भी यदि भाजपा कानून-सम्मत  प्रजातान्त्रिक तौर तरीके से पेश आती तो भारतीय लोकतंत्र को दक्षिण भारत में एक राष्ट्रीय पार्टी के होने से और ज्यादा बल मिलता किन्तु यह उसका नौसीखियापन ही माना जायेगा कि जैसे-तैसे आजादी के ६४ साल बाद दक्षिण के ४-५  राज्यों में से एक प्रमुख राज्य कर्णाटक में अवसर तो मिला किन्तु अपने भृष्ट और दबंगी  आचरण ने सब कुछ तार-तार करके रख दिया है .येदुरप्पा सरकार ने पहले तो अपनी ही पार्टी भाजपा के आलाकमान को कई बार लज्जित किया और अब राज्यपाल के सम्मानित पद समेत कर्णाटक की आम जनता को एड्डियों-रेड्डीयों के पैरों तले कुचलने को को आतुर हो रही है .
        किसी भी सरकार का पहला कर्तव्य  यह होता है कि- जान-माल की हिफाजत करना; क़ानून पर अमल करना, किन्तु जिस तीव्रता से कर्नाटक सरकार ने केंद्र और राज्यपाल पर आक्रामक तेवर दिखाए, देश भर में दुष्प्रचार किया  और भाजपा कार्यकर्ताओं ने कर्णाटक में  बसें जलाकार ,रेलें रोककर दुकाने लूटकर कोहराम मचाया वह शासन  नहीं -अराजकता है .आप सत्ता में हैं और देश के खिलाफ काम करेंगे ,जनता को परेशान करेंगे और भू-माफियाओं की चाकरी करेंगे तो यह अपराध की कोटि में आता है और देश को मौजूदा दौर के अनेकानेक संकटों में इजाफा करेंगे तो आपको सत्ता से हटाना भी जनता को आता है .
        जब स्वयम येदुरप्पा जी अपने सगे सम्बन्धियों को दी गई जमीने वापिस लौटाने और भू-माफिया से किनारा करने का वादा कर चुके थे तो पूरे कर्णाटक में सिर्फ इस वजह से की राज्यपाल ने मुकद्दमें की अनुमति क्यों दी ?
 पूरे राज्य में अव्यवस्था फैलाना कौनसी राष्ट्रभक्ति है ? पहले भी लालूप्रसाद यादव , ए आर अंतुले ,जयललिता ,और अन्य के खिलाफ भी ऐसे ही मामले पेश हुए हैं फिर इस रेड्डी आतंक से चारित्रिक स्खलन क्यों? यदि हंसराज भारद्वाज ने अनुमति देकर कोई अनीति की है तो यह किसने कहा की आप मौखिक  और संवैधानिक विरोध नहीं करें ? आप यदि देशभक्ति से सराबोर  हैं तो क़ानून के अस्त्र  में यकीन क्यों नहीं करते ? मानव-अधिकार कार्यकर्ता विनायक सेन को सजा होने पर जब इन पंक्तियों के लेखक समेत अनेक प्रजतान्त्र-वादियों   ने अपना आक्रोश वेब मीडिया और अन्य माध्यमों से देश और दुनिया के समक्ष रखा तो देश की दक्षिण पंथी कतारों को यह नितांत अहिंसक और बौद्धिक प्रतिवाद भी नाकाबिले बर्दाश्त  था. अब आपके सामने एक साफ़ सुथरी अवस्था में क़ानून सम्मत रास्ता है तो आप उसी राह में स्वयम रोड़े अटका रहे हैं ,बसें जला रहे हैं ,अंट-शंट बयानवाजी कर रहे हैं.
               हाल ही में कर्नाटक के स्थानीय निकाय के चुनावों में भाजपा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा ; कर्णाटक भाजपा अब पूरी तरह से एड्डी -रेड्डी के हाथों में जा चुकी है .अब भाजपाई अश्वमेध का घोडा आंध्र ,तमिलनाडु ,या केरल की ओर बढ़ने के बजाय खनन+भू-माफियों  की नांद का गन्दा पानी पीकर मरणासन्न हो चला है .भाजपा की सरकार ने चंद-स्वार्थियों की खातिर जनता के प्रति तमाम जिम्मेदारियों को जमींदोज कर दिया है.गडकरी जी, आडवानी जी ,सुषमा जी  और अनंत जी सब पर येदुरप्पा अकेले ही भारी हैं ;येदुरप्पा पर रेड्डी बंधू भारी हैं ...इन बंधुओं की महिमा न्यारी है .वे धन बल से भाजपा हाईकमान को अपने कब्जे में ले चुके हैं .
         भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व और संघ-परिवार सोचतें हैं कि वे जोड़ रहे  हैं हकीकत ये है कि सब मिलकर   अंदर से  फाड़  रहे हैं .भाजपा चाहती तो  है की अमर-अकबर-अन्थोनी  सबका प्यार उसे मिले पर सत्ता में आने पर उसकी कारगुजारी अवाम के खिलाफ हुआ करती है .उसके नेतृत्व  में नासमझी और कच्चापन साफ़ झलकता है
    भाजपा का पूरा चाल -चेहरा -और चरित्र बदल चुका है ,विचारों कि जगह गुंडा-गिरदी ने ले ली है .नेता और कार्यकर्त्ता विवेकहीन ही नहीं अपितु बातचीत कि बजाय हाथा-पाई पर उतारू होने लगे हैं ..उसका आचरण और रुझान लोकतंत्र .के खिलाफ और फासीवाद कि ओर धीरे -धीरे बढ़ रहा है ..देश कि जनता को आने वाले दिनों में भी महंगाई बढाने वाली भ्रष्ट कांग्रेस के हाथों लुटते रहने की नियति सी वन चुकी है .विपक्ष सभी जगह खंड-खंड हो रहा है .भाजपा बंगलौर से आगे बढ़ने के बजाय भू-माफियाओं, खनन-माफियाओं  की देहरी पर सूर्यास्त का इन्तजार कर रही है ....
          श्रीराम तिवारी
           

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

एक कांदा दो रोटी -कविता........

         फूल  अनगिन  खिलें वो चमन चाहिए,
         शोर काफी हुआ कुछ अमन चाहिए .
         प्यार करुना की क्यारीं बना वाग्वाँ,
          बम बारूद के थर नहीं चाहिए ..
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         सब्ज पत्तीं  भी हों लाली फूलों पै हो ,
        ज़र्रा -ज़र्रा  शहादत असर चाहिए .
         खंतियाँ खोद जिनकी जवानी खटी,
        एक कांदा -दो रोटी उन्हें चाहिए ..
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        मस्त सत्ता के मद चूर हो बेखबर ,
        चीर हरता -दुशाशन नहीं चाहिए .
        बैरी अंदर घुसे बैरी बाहर खड़े ,
        जिनको सोता हुआ न वतन चाहिए ...
             श्रीराम तिवारी
       

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

असीमानंद से स्वामी असीमानंद तक की यात्रा का एक पड़ाव ;

      विगत दिनों जब राजस्थान एस टी ऍफ़ और सी बी आइ ने मालेगांव बलोस्ट ,अजमेर बलोस्ट ,मक्का मसजिद और समझौता एक्सप्रेस के कथित आरोपियों के खिलाफ वांछित सबूतों को  अपने -अपने ट्रेक  पर तेजी से तलाशना शुरूं किया और तत पश्चात संघ से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं के नाम; वातावरण में प्रतिध्वनित होने लगे ;तो संघ परिवार -भाजपा ,वी एच पी ,तथा शिवसेना ने इसे हिंदुत्व के खिलाफ साजिश करार दिया था .उनके पक्ष का मीडिया और संत समाजों की कतारों से भी ऐसी ही आक्रामक प्रतिक्रिया निरंतर आती रही हैं ;;जब  इस साम्प्रदायिक हिंसात्मक नर संहार के एक अहम सूत्रधार{असीमानंद }ने  अपनी स्वीकारोक्ति न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दी तो एक बारगी मेरे मन में भी यह प्रश्न उठा कि यह स्वीकारोक्ति बेजा दवाव में ही सम्पन्न हुई है ....
       उधर देश और दुनिया कि वाम जनतांत्रिक कतारों ने समवेत स्वर में जो -जो आरोप ,जिन -जिन पर लगाए थे वे सभी आज सच सावित हो रहे हैं .आज देश के तमाम सहिष्णु हिन्दू जनों  का सर झुका हुआ है ;मात्र उन वेशर्मों को छोड़कर जो प्रतिहिंसात्म्कता की दावाग्नि में अपने विवेक और शील को स्वःहा  कर चुके हैं .उन्हें तो ये एहसास भी नहीं कि -दोनों दीन से गए .....जिन मुस्लिम कट्टरपंथियों को सारा  संसार और समस्त प्रगतिशील अमन पसंद मुसलिम  जगत नापसंद कर्ता था ;वे अब सहानुभूति के पात्र हो रहे हैं ,और जिन सहिष्णु हिन्दुओं ने "अहिंसा परमोधर्मः "या मानस कि जात सब एकु पह्चान्वो ....या सर्वे भवन्तु सुखिनः कहा वे बमुश्किल आधा दर्जन दिग्भ्रमित कट्टर हिंदुत्व वादियों कि नालायकी से सारे सभ्य संसार के सामने शर्मिंदा हैं .
              यत्र -तत्र धमाकों और हिन्दू युवक युवतियों के मस्तिष्क को प्रदूषित करते रहने वाले असीमानंद {स्वामी?}
महाराज यदि इस तरह सच का सामना करेंगे तो शंका होना स्वाभाविक है ;खास तौर पर जब कि पुलिस अभी ऐसी कोई विधा का अनुसन्धान नहीं कर सकी कि पाकिस्तानी आतंकवादी कसाब से सर्व विदित सच ही कबूल कर सके .
   सी बी आई कि भी सीमायें हैं ;आयुषी तलवार के हत्यारे चिन्हित नहीं कर पाने के कारण या अप्रकट कारणों से अन्य अनेक प्रकरणों कि विवेचना में राजनेतिक दवाव परिलक्षित हुआ पाया गया.अब असीमानंद कीस्वीकारोक्ति के पीछे कोई थर्ड डिग्री टार्चर या प्रलोभन की गुंजायश नहीं बची .
     यह बिलकुल शीशे की तरह पारदर्शी हो चुका है कि पुलिस के हथ्थ्ये चढ़ने और हैदरावाद जेल में असीमानंद को एक निर्दोष मुस्लिम कैदी के संपर्क में आने से सच बोलने की प्रेरणा मिली. किशोर वय कैदी कलीम खान ने असीमानंद को इल्हाम से रूबरू कराया .यह स्मरणीय है कि कलीम को पुलिस ने उन्ही कांडों कि आशंका के आधार पर पकड़ा था जो स्वयम असीमानंद ने पूरे किये थे .हालाकिं कलीम निर्द्सोश था और उसकी जिन्दगी लगभग तबाह हो चुकी है.असीमनद को जेल में गरम पानी लाकर सेवा करने वाले लडके से जेल में आने कि वजह पूंछी तो पता चला कि मालेगांव बलोस्ट ,अजमेर शरीफ बलोस्ट मक्का मस्जिद और समझोता एक्सप्रेश को अंजाम देने वाले असीमानान्दों कि कलि करतूतों कि सजा वे लोग भुगत रहे हैं जो धरम से मुस्लिम हैं बाकी उनका कसूर भी इतना ही था कि वे इस्लाम को मानने वालों के घरों में पैदा हुए .असीमानंद ने भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रपतियों को पत्र भी लिख मारे हैं ,उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति को  तो  कुछ सलाह इत्यादि भी दी डाली है. मिलने का समय भी माँगा है और इस्लामिक जेहादियों के बरक्स कुछ दिशा निर्देश भी दिए हैं ..ये सारे फंडे उन्होंने अपने दम पर किये हैं ; भाजपा  या संघ -दिग्विजय या राहुल  भले ही अपने -अपने लक्ष्य से प्रेरित होकर आपस में अग्नि वमन कर रहें हों किन्तु मुझे नहीं लगता कि असीमानंद जैसे अन्य २-४ और दिग्भ्रमित भगवा आतंकियों ने शायद ही -मालेगांव ,समझोता ,अजमेर और मक्का मस्जिद ब्लोस्टों के लिए श्री मोहन भागवत,अशोक सिंघल,प्रवीण तोगड़िया या लाल क्रष्ण आडवानी से आज्ञा ली होगी. यह विशुश्द्ध प्रतिक्रियात्मक विध्वंस थे जो  भारत में  इस्लामिक आतंक द्वारा संपन्न रक्तरंजित तांडव के  खिलाफ एक  रिहर्सल भर थी . यह इस्लाम  के नाम पर कि गई हिंसा का मूर्ख हिंद्त्व वादियों का हिंसक जवाब था हालाँकि इस्लामिक आतंक दुनिया भर में अलग -अलग कारणों सेभले ही फैला हो किन्तु भारत में यह ६ दिसंबर १९९२ के बाद तेजी से फैला और  इसके लिए वे लोग ही जिम्मेदार हैं जो हिंदुत्व का रथ लेकर विवादस्पद ढांचा ढहानेअयोध्या पहुंचे थे  . स्वामी असीमानंद ने किसी दवाब या धोंस में आकर नहीं बल्कि मानवीय मूल्यों में बची खुची आस्था के कारण उसके सकारात्मक आवेग को स्वीकार कर पुलिस और क़ानून के समक्ष यह अपराध स्वीकार किया है .      कलिंग युद्द उपरान्त लाशों के ढेर देखकर जो इल्हाम अशोक को हुआ था वही वेदना जेलों में बंद सेकड़ों बेकसूरों को .निर्दोष कलीमों को देखकर असीमानंद को हुई और अब वे वास्तव में अपने अपराधों के लिए कोई और सजा भुगते  यह असीमानंद की जाग्रत आत्मा को मंजूर नहीं;इसीलिये शायद अब उन्हें" स्वामी" असीमानंद कहे जाने पर मेरे मन में कोई संकोच नहीं  .हिन्दुओं को बरगलाने वाले .साम्प्रदायिकता को सत्ता कि सीढ़ी वनाने वाले हतप्रभ न हों .ये तो भारतीय जन -गण के द्वंदात्मक संघर्षों  की सनातन प्रक्रिया है ,जिसमें -दया ,क्षमा ,अहिंसा करुना और सहिष्णुता को सम्मानित करते हुए वीरता  को हर बार कसौटी पर कसे जाने और चमकदार होते रहने का 'सत्य 'रहता है ..यही भारत की आत्मा है.यही भारत के अमरत्व की गौरव गाथा का मूल मन्त्र है .जो लोग इस प्रकरण में सी बी आई के दुरूपयोग की बात कर रहे थे .कांग्रेस ,राहुल और दिग्विजय सिंह पर व्यर्थ भिनक  रहे थे और वामपंथियों की धर्मनिरपेक्षता पर मुस्लिम परस्ती का आरोप लगा रहे थे ,छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण जैसे शब्दों के व्यंग बाण चला रहे थे वे सभी ओउंधे मुंह रौरव नरकगामी हो चुके हैं  स्वामी असीमानंद से उन्हें कोई रियायत नहीं मिलने जा रही है ,असीमानंद ने इक्वालिया वयान जिन परिश्थितियों में दिया है उसमें  कट्टर साम्प्रदायिकता का बीभत्स चेहरा बेनकाब हो चुका है.भारत का सभ्य समाज ,भारत की धर्म निरपेक्षता ,अजर अमर है ...बाबाओं ,महंतों ,संतों ,गुरुओं ,मठ्धीशों,इमामों मौलानाओं को हिंसात्मक गतिविधियों से परे अपने -अपने धरम में यथार्थ रमण करना चाहिए राजनीत और धर्म की मिलावट से निर्दोष कलीम की जिन्दगी बर्वाद हो सकती है और गुनाहगार को सत्ता शरणम गच्छामि .........
          श्रीराम तिवारी

शनिवार, 15 जनवरी 2011

२-जी स्केंम और भारत संचार निगम लिमिटेड की फ़ज़ीहत...

    संसद के शीत कालीन सत्र {२०१०] का सुचारू रूप से या कामकाजी द्रष्टि  से नहीं चल पाना तो निस्संदेह  देश के लिए अशुभ है ही; किन्तु जिन मुद्दों पर ये सब राजनीति की जा रही है, वे यक्ष प्रश्न मुंह बाए अभी भी यथावत खड़े हैं. उस तरफ जनता का ध्यानाकर्षण होना चाहिए .
१-केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के प्रति सरकार की उपेक्षा  और उन पर एम् एन सी की गिद्ध द्रष्टि.
२-सार्वजानिक उपक्रमों से देश की आवाम की जरूरतें पूरी करने के बजाय निजी क्षेत्र पर निर्भरता
3.-वायदा बाजार और सट्टे बाजारी के आगे सरकार का आत्म समर्पण .
४- जिंसों के उत्पादन या आयात -निर्यात का मांग और आपूर्ति में  तादात्म्यता का अभाव .
५-जन कल्याणकारी राज्य की जगह मुनाफेबाजी  की पतनशील -भृष्ट व्यवस्था की  ओर प्रस्थान.
         इस दौर की एल पी जी नीति के दुष्परिणाम स्वरूप    केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की बर्बादी  का एक जीवंत उदाहरण है- भारत का दूर संचार विभाग. आजादी के पूर्व से ही पोस्ट एंड टेलेग्राफ नाम से मशहूर सेवा क्षेत्र का बेहतरीन सरकारी विभाग इतिहास में दिल्ली की तरह तीन बार लूटा -पीटा गया. दिल्ली के लुटने -पिटने से बाकी देश को भले ही कोई फर्क नहीं पड़ा हो ,या बाद में असर हुआ हो किन्तु पी एंड टी के विखंडन से जो कुछ हुआ उसका सीधा सम्बन्ध तेलगी कांड और २-जी स्पेक्ट्रम काण्ड से तो है ही इसके अलावा देश की सुरक्षा को भी आघात पहुंचा है .
              पोस्ट एंड टेलीग्राफ को क्रमशः  पोस्टल और टेलिकॉम सर्विस में हुए पहले विभाजन {१९८४}उपरांत दोनों ही नव पृथक विभागों के सामने अंतर-राष्ट्रीय मानक सेवाओं के लक्ष्य रख दिए गए
एशियाड -१९८३ ,नई दिल्ली में जब सम्पन्न हुए तो दुनिया भर से भारत आये तत्कालीन मीडिया -प्रतिनिधियों ने समवेत स्वर में भारत की तत्कालीन  टेलिकॉम सर्विसेस की मुक्त कंठ से सराहना की थी. उस समय के अन्य सरकारी विभागों में आयकर विभाग और टेलिकॉम विभाग ही ऐसे थे जो लाभ में थे. बाकी सभी बेहद दबाव में घाटे की ओर फिसल रहे थे ;तभी सोवियत संघ का पराभव और अमेरिका नीत एक ध्रुवीय वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबाव  में भारत को अपने राजकोषीय घाटे की रोक थाम के लिए जनकल्याण-कारी गतिविधियों  पर अंकुश लगाने ,धर्मादा बंद करने ,सरकारी क्षेत्र के घाटे वाले विभागों को निजी क्षेत्र में देने की नीति आनन्-फानन में बनाई गई .
                ६०-७० के दशकों में ,नेहरु -इंदिरा युग में जो  राष्ट्रीयकरण और जन -कल्याण के लिए सरकार पर जनता का संगठित  दबाव था; वहीं ८०-९० के दशकों में देश की जनता को मंडल -कमंडल में बाँट देने से जन-आन्दोलन जात और धरम में बँट गया  ,विनाशकारी नीतियों से लोहा लेने के लिए सिर्फ मुठ्ठी भर लाल झंडे वाले ही थे . मार्गरेट थेचर , रोनाल्ड रीगन, गोर्बाचेव और  येल्तसिन द्वारा  परिभाषित नई आर्थिक उदारीकरण की नीति को भारत में लागू करने की जिम्मेदारी को तब के वित्तमंत्री और अब के {वर्तमान } प्रधान मंत्री ने बखूबी निभाया .  इन्होने धुरपत में शानदार लाभप्रद दूर संचार विभाग को विभाग ही नहीं रहने दिया बल्कि निगमीकरण प्रस्तावित कर १९९२ में सत्ता से बाहर हो गए .बाद के वर्षों में जब एन डी ए को देश को लूटने का मौका मिला तो प्रमोद महाजन ,पासवान ,शौरी ने इसके तीन टुकड़े कर डाले .एक टाटा को बीच दिया विदेश संचार निगम लगभग फ्री में और एक को महानगर टेलीफोन  निगम को विनिवेश की राह बेमौत मरने और भारत संचार निगम लिमिटेड को राजा -राडिया समेत  देश और दुनिया के घाघ  लुटेरों से लुटने -पिटने को छोड़ दिया .
              अटलजी के नेत्रत्व में एन डी ए सरकार ने सिर्फ बेईमान पूंजीपतियों को ही सेलफोन और जी  एस एम् के क्षेत्र में पहले तो सस्ते लाइसेंस जारी किये  और बाद में लोकल लूप के मामले में रिलाइंस की चोरी पकड़ी जाने पर उसे पुरस्कृत करते हुए  रेवेन्यु शेयर का षड्यंत्रपूर्ण फार्मूला इजाद किया, सरकारी क्षेत्र के विशालतम उपक्रम- भारत संचार निगम को जी  एस एम्  में तब लाइसेंस मिला जब यु पी ए प्रथम की सत्ता आई वरना भाजपा वालों ने तो इस सरकारी उपक्रम का तिया-पांचा ही कर दिया था ,नीरा रादिया ने भारती ,रिलाइंस और टाटा जैसे कार्पोरेट जगत की लाबिंग तो २००२ में ही प्रारंभ कर दी थी  थी ;ये  टेप-वैप यु पी ए -२ के जमाने के हैं जो करूणानिधि की तीन बीबियों से उत्पन्न ओलादों के कुकरहाव का परिणाम है .
             कनिमोझी ,ए राजा और इनके संबंधों से आहत दयानिधि ,अझागिरी सबके सब इसकी जानकारी प्रकारांतर से प्रधान मंत्री श्री मनमोहन सिंह जी को पहले ही दे चुके थे. गठबंधन धर्मं निभाने के चक्कर में वे चुप रहे और २-जी ,३-जी पर भारत संचार निगम लिमिटेड {पूर्ववर्ती दूर संचार विभाग } क्षत विक्षत होता रहा .उलटे इस दुधारू निगम को विस्तार और मेंटेनेंस के संसाधनों से महरूम कर गौ ह्त्या जैसा महापाप इन पूर्वर्ती सभी संचार मंत्रियों ,डाट सचिवों और टेलिकॉम रेगुलाट्री अथौर्टी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड के महाभ्रष्ट  अध्यक्षों ने किया है .सरकारी क्षेत्र याने देश की जनता के उपक्रमों की कीमत पर अम्बानी ,भारती ,बिरला ,टाटा और राजा राडियाजैसे भ्रष्टों  को तो
उपकृत किया ही साथ ही ; देश की जनता को सस्ती सेवाएँ दिलाने के लिए मशहूर केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों की सम्पदा देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथ ओने-पाने दाम बेचने की कोशिश करने में असफल रहे इस सिस्टम की प्रत्येक  हरकत से प्रधान मंत्री जी या तो वाकिफ थे या वे जानबूझकर झूंठ बोल रहे हैं कि उन्हें इस सब की जान कारी ही नहीं थी ,यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि भारत संचार निगम का मेघा टेंडर २००९ क्यों रद्द हुआ ,यदि उन्हें जानकारी नहीं थी कि ग्रामीण क्षेत्रों में लैंड लाइन  नहीं होने के बावजूद यु एस ओ फंड से इन सभी बाजार के खुर्राट खिलाड़ियों को फंडिंग कि गई या कि उन्हें मालूम ही  नहीं था कि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों के क्रांतिकारी  श्रम संगठनों ने वे तमाम खुलासे जो आज संसद नहीं चल पाने के लिए कारण बन चुके हैं वे २००८ में ही पोस्कार्ड केम्पेन के मार्फ़त माननीय प्रधानमंत्री जी के समक्ष प्रस्तुत कर दिए थे .अब पी ए सी हो या जे पी सी कोई मतलब नहीं रह जाता यदि केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को पूर्वत रादियाओं या पूंजीपतियों के भरोसे छोड़ा जाता है.
   कारवाँ गुजर गया .गुबार देखते रहे ...
  मर गया मरीज ,हम बुखार देखते रहे ...
      श्रीराम तिवारी 
       

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

चूँकि भारत विभाजित है इसलिए इंडिया इज़ शाइनिंग...

   आम तौर पर    भारत को हिंदी में भारत और अंग्रेजी में इंडिया कहते हैं; जहाँ तक लिखने  का सवाल है ,तो अंग्रेजी में भारत और हिंदी में इंडिया  भी धडल्ले से लिखा जाता है ;कोई संवैधानिक प्रतिबन्ध नहीं है ; जो जी में आये लिखो, किन्तु भारत राष्ट्र का शब्दार्थ दोनों में ही द्वैत का पृथक्करण दर्शाने लगा  है . इसमें कोई शक नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में कुर्बानियों  ;बलिदानों;और क्रांतिकारी संघर्षों के दौरान इंडिया और भारत में हलकी सी दरार पड़ने लगी थी . इंडिया वाला हिस्सा तो आम तौर पर बड़े जमींदारों ,शहरी पूंजीपतियों और उन दलाल  नेताओं कि गिरफ्त में था जो ब्रिटिश साम्राज्य के पदारविन्दों को सम्मान से नवाजते थे. इसमें पाकिस्तान को रूप -आकार  और दर्शन की उटोपिया को जमीनी हकीकत में  बदलने बाले  कुटिल कलंकी भी शामिल थे .आम तौर पर इंडिया का बंटवारा  हो गया और  भारत का सिर्फ उतना भाग ही पाकिस्तान में जा सका जो क्रांतिकारियों की विरासत का हकदार नहीं था, शेष बचा इंडिया और भारत विगत ६४ वर्षों में भी एक नहीं हो पाए बल्कि दोनों के बीच दूरी या खाई बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है. वर्तमान पूंजीवादी राजनैतिक -आर्थिक -सामाजिक व्यवस्था ने दोनों का रूप-रंग और आकार पानी की लकीर से नहीं ;बालू की लकीर से भी नहीं अपितु पत्थर की लकीर से रेखांकित कर के रख छोड़ा है. आंतरिक द्वंदात्मकता के बीज भी इसी में विद्यमान हैं और आपस की खाई पाटने के सूत्र भी इसी में निहित हैं .
                           संयुक राष्ट्र संघ के तहत यूनेस्को की रिपोर्ट हो या यु पी ए  {१] की अर्जुनसेन गुप्ता रिपोर्ट हो या तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट हो,  सभी का निचोड़ यह है की भारत में गरीबी रेखा के नीचे आने वालों की संख्या बढ़ी है और औसतन   प्रति-व्यक्ति क्रय क्षमता घटी है जिसमें देश की ७७%आबादी आती है और इसके हिस्से में मात्र २०% सम्पदा ही बची है. इस आबादी के श्रम से ही देश ने लगातार तरक्की की है ,दुनिया में प्रतिष्ठा प्राप्त की है ,अनेक कुर्बानियों  देकर देश के दुश्मनों से रक्षा  की है ,यही  प्रजातंत्र की बुनियाद है, इसी का नाम भारत है और सत्ता प्रतिष्ठान के शिखर पर निरंतर चल रहे चौसर के खेल में इंडिया के हाथों पराजित होते रहने को अभिशप्त है, जो लोक विख्यात उस कथा का बुद्धिहीन छोटे भाई जैसा है जो जीवन भर एकमात्र  गाय के बटवारे में अगला भाग याने गौ माता के आहार की जिम्मेदारी भर उठाता  रहता है और दूसरा  चालाक भाई  गाय के पिछले हिस्से याने दूध उत्पादन पर कब्ज़ा कर मौज करता रहता  है-  इसी का  नाम इंडिया  है .
             इंडिया में- टाटा होता ,अम्बानी होता ,प्लेन होता ,बंगला होता गाड़ी होता .बैंक में करोड़ों रुपया होता,शेयर मार्केट होता .पूँजी निवेश होता, इलिम भी होता -फिलिम भी होता ,रिश्वत होता,लाबिंग होता,राजा होता, राडिया होता [होती ?} कब्जे में सरकार और क़ानून होता , इसमें बड़ा- बड़ा संत ,बड़ा- बड़ा बाबा लोग होता , बड़ा- बड़ा एन जी ओ  होता, बड़ा- बड़ा किसान होता ,बड़ा- बड़ा  क्रिकेटर होता ,बड़ा -बड़ा अधिकारी होता और बड़ा -बड़ा घपला होता .
       भारत में लगातार महंगाई बढ़ती, रोजगार घटते ,मशीनों से हाथ कटते .सड़कों पर एक्सीडेंट होते बिना  दवा के लोग बेमौत  मरते, भूख  -कुपोषण-अशिक्षा की  प्रचंड आंधी में गरीबों के झोपड़े उड़ते . ये भारत के ही लोग है जो इंडिया के सुख  साम्राज्य निर्माता होते .ये निर्धन भारत  -भूमि -भोजन -रोजगार के मुद्दों पर इंसानी बदमाशी को कभी भी समझ न पाए सो तथाकथित  ईश्वर और अल्लाह की मर्जी बताने बाले नजूमियों के झुण्ड -मीडिया ,मठ, मंदिर और महात्माओं के रूप में इफरात से पाले जाते हैं  .इसीलिये तमाम शक्तियों को धारण करने वाला इंडिया ,शाइनिंग होता इंडिया ,दुनिया के टॉप -१० पूंजीपतियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका इंडिया भी भारत की बदरंग तस्वीर के साए से भी डरता है .
                        भारत में सूखा या शीत लहर की चपेट में  किसानो की फसलें बर्बाद होने ,गरीब किसानो  के द्वारा  आत्महत्या करने पर एक प्रदेश का मंत्री कहता है की ये तो तुम्हारे पूर्व जन्मों के पापों का परिणाम है .महंगाई के प्रश्न पर केंद्र का खाद्य मंत्री कहता है की प्याज और सब्जियों के भाव आगामी फसल के आने तक और बढ़ेंगे ,उनका ये भी एक बेतुका  तर्क है की वर्तमान में मावठा या बारिश  होने से फसलें ख़राब हुईं हैं, ये मंत्री महोदय वास्तव में व्यक्तिगत रूप से भी जमाखोरों,  कालाबाजारियों और मुनाफाखोरों के खेर्ख्वाह रहेहैं    .पूंजीवादी नव्य उदारवादी और भारत विरोधी नीतियों पर अंकुश लगा पाने के लिए बेहतर ,कारगर ,अनवरत संघर्ष चला सकें .ऐसे जन -संगठनों ,श्रम -संगठनों  की भारत में कोई कमी नहीं ;किन्तु देश की आम जनता आपस में बुरी तरह -जातिवाद; साम्प्रदायिकतावाद ;भाषावाद और क्षेत्रवाद में बँटी होने से इंडिया वास्तव में चेन से सो रहा है और भारत का चीत्कार ईश्वर को भी सुनाई नहीं दे रहा है
        श्रीराम तिवारी

सोमवार, 10 जनवरी 2011

जन्मदिन की शुभ कामनाएँ... चिरंजीव प्रवीण को....

happy   ...birth day .....09...01...11...
.........


प्रिय पुत्र ,डॉ प्रवीण तिवारी के जन्म दिन पर काव्यानुशीलन....



गहन वन उतंग श्रंग , धरा-गगन -तलातल .

दुआएं सभी कीं तूँ ,लेकर चलाचल ..

जीवन का हर क्षण ,उल्लास से भरा रहे .

शूरों सा सीना ,फौलाद सा बना रहे ..

त्याग और परिश्रम की, राहें चलाचल .

सत्य शील -साहस के मित्र तूँ बनाचल .

जीवन की राहों में ,उमंगता भरी रहे .

शुभकामना -सद्भावना -सुख शांति बनी रहे ..

......... पापा                                                                                     _श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

यू पी ए प्रथम का स्वर्ण-युग बनाम यू पी ए द्वितीय का अंध-युग

        सयुंक्त  प्रगतिशील गठबंधन सरकार का दूसरा कार्यकाल पूरा होगा या नहीं इसके बारे में भविष्यवाणी  करना जोखिम भरा होगा .वतनपरस्तों की सदिच्छा है कि सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व  में यु पी ए  द्वितीय  भी अपना कार्यकाल पूरा करे ,जिनकी याददाश्त  अच्छी है वे जानते हैं कि  संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले {२००४-२००९}कार्यकाल में बेशक  अनेक खामियों के वाबजूद कुछ ऐसी उपलब्धियां अवश्य थीं जिनके कारण कांग्रेस नीत यु पी ये सरकार पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल रही . जिस वामपंथ ने महंगाई, भ्रष्टाचार  और वन -टू -थ्री ,एटमी करार पर तथाकथित जनांदोलन कि दरकार के चलते यु पी ए  प्रथम का साथ छोड़ दिया था ,उसे उसके ही जनाधार वाले क्षेत्रों में आम जनता ने सर-आँखों पर नहीं लिया,  ऐसा क्यों हुआ ?  वामपंथ ने वर्तमान संसद में अपनी आधी सीटें खो देने के बावजूद , अपनी  तमाम तार्किक आत्म-आलोचनाओं  के बावजूद ,देश कि जनता और अपने ही समर्थकों को उस चूक से अवगत नहीं कराया जो उनसे हुई थी .
                       २००४ में जब कांग्रेस नीत गठबंधन सत्ता में आया तब उसकी हालत ये थी कि श्रीमती सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनाए जाने कि चर्चा मात्र से बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज धढ़ाम से जमीन पर ओंधे मुह गिर रहा था.
उधर वैकल्पिक प्रधानमंत्री जी का नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस  पूरी दौलत दांव  पर लगा देने पर भी उन्हें खरीद पाने में असफल रहा जिनकी गिनती से संसद में बहुमत तय होता है .माकपा ,भाकपा ,आर एस पी ,फारवर्ड ब्लाक के रूप में वामपंथ को कुल जमा ६२ सांसद प्राप्त  हुए थे और वाम कि यह एतिहासिक उपस्थिति थी. वाम कि इस विजय ने ही एन डी ए   को सत्ता से दूर रखने का महता  कार्य किया था.यही वो असल कारण था कि आडवानी जी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह  गए और कांग्रेस जो १९९६ से २००४ तक सत्ताच्युत  थी वो पुनः सत्तासीन होने में कामयाब हो गई. कांग्रेस  के इस पुनर्जीवन में वाम कि भूमिका एतिहासिक रही थी. देश और दुनिया को यह  तो याद रहा कि सोनिया गाँधी ने तत्कालीन जन-मानसिकता का सही मूल्यांकन करते हुए प्रधानमंत्री पद स्वयम न ग्रहण करते हुए सरदार मनमोहनसिंह को इस उत्तरदायित्व हेतु नामित किया था , किन्तु यह विस्मृत कर दिया गया  कि इस सत्ता हस्तांतरण में वाम कि भूमिका कहाँ तक थी ? वामपंथ ने न केवल वाम का अपितु सपा ,बसपा  , नायडू  चौटाला और द्रुमुक इत्यादि का समर्थन भी यु पी ये प्रथम के पक्ष में जुटाने का प्रयास किया  था ,लगभग गैर- एन डी ये- के  ४०० सांसद तब सोनिया गाँधी ,स्व. हरकिशन सिंह सुरजीत एवं सरदार मनमोहन सिंह के   साथ फोटो खिचवाना चाहते थे.
              आजकल महंगाई पर विपक्ष और जनता का आक्रोश तो चरम पर है ही किन्तु  सरकार के कुछ ईमानदार मंत्री  तक इस भीषण महंगाई पर व्यथित हैं   यु पी ये द्वितीय  कि तरह ही यु पी ये प्रथम के दौरान या यों कहें कि उससे पूर्व एन डी ए के दौरान भी बेतहाशा महंगाई बढ़ती रही है, अर्थशास्त्रियों  और विद्वानों  ने इस विषय पर बड़े -बड़े ग्रन्थ  लिखे हैं ,यह मुद्दा मांग ,आपूर्ती, क्रय-शक्ति , जनसंख्या ,उत्पादन ,वितरण और क़ानून एवं सुशासन  इत्यादि से जुडा हुआ है, चूँकि  इस आलेख कि  विषय-वस्तू महंगाई नहीं है; अतः इसे अर्थशास्त्रियों के हवाले छोड़ते हुए मैं  सिर्फ उस मुद्दे की पड़ताल करना चाहता हूँ कि  वामपंथ ने किस आधार पर और वैज्ञानिकता कि किस  कसौटी पर एन डी ए  से ज्यादा यु पी ए  को तवज्जो दी थी -२००४ में .ये भी मेरी उत्कंठा का विषय है की जब बंगाल , केरल , त्रिपुरा .की तीन वामपंथी सरकारों को सीधे-सीधे भाजपा से कोई खतरा नहीं अपितु कांग्रेस और उसके अलाइंस से ही था तो कांग्रेस की केंद्र में सरकार बनवाकर  क्या हासिल किया ?
                 यु पी ए  प्रथम की शानदार पारी के लिए सबसे अच्छी बेटिंग  किसने की थी ? बिना  सत्ता में शामिल हुए ही वामपंथ ने  देश के गरीबों ,बेरोजगारों ,संगठित क्षेत्र के कामगारों ,असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अनेक नेमतें बख्शी थीं .राष्ट्रीय {अब महात्मा गाँधी }ग्रामीण रोजगार योजना, खेतिहर किसानों ,भूमिहीन किसानों  के लिए अन्यान्य योजनायें ,आधारभूत राष्ट्रीय संरचनाओं के लिए योजना आयोग से समर्थन ,केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में विदेशी निवेश का रोका जाना ,केन्द्रीय प्रत्याभूत निगमों को देशी विदेशी निजी पूंजीपतियों के हाथों में जाने से रोकना, बीमार  सार्वजानिक उपक्रमों को जीवन्तता प्रदान करना ,सरकारी क्षेत्र के बैंक ,बीमा  ,दूर-संचार को बाजार गत स्पर्धा में बनाये रखना ताकि मूल्यों पर नियंत्रण बना  रहे  तथा और भी अनेक जन-हितैषी  काम हैं जो वामपंथ ने देश हित में किये थे जैसे की देश को अमेरिकी खेमे में जाने से रोकना {विकिलीक्स के खुलासे में प्रकाश करात को अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने किस शब्द से नवाजा उसका उल्लेख भी सभ्यता के दायरे में नहीं आता }. ईराक ,ईरान ,अफगानिस्तान में भारतीय हितों के अनुरूप गुट निरपेक्ष विदेश नीति तथा भयानक अमेरिकी आर्थिक मंदी के चंगुल से देश को बचाना इत्यादि .
             २८ जुलाई २००८ को एन डी  ए  के कुछ सांसदों को खरीदकर जब यु पी ए  प्रथम ने अपना बहुमत जुटाया
 और वामपंथ को मजबूरी में उसको बाहर से दिए गए  समर्थन का उपहास  किया  , तो सत्ता के चारों पिल्लरों की ताकत के बल पर बहुमत साबित  करने के  मद में चूर नेता ने कहा - अब हमें वाम की जरुरत नहीं , अब हम टोका टोकी से मुक्त हैं ,अब हम आजाद हैं देश में निजीकरण ,उदारीकरण और ठेकाकरण के लिए; आर्थिक सुधार के नाम पर ,२-जी स्पेक्ट्रम घोटालों के लिए ;कामनवेल्थ घोटाले के लिए ,आदर्श सोसायटी  घोटाले के लिए  अब हम स्वतंत्र हैं  अमरीका से  वन टू थ्री एटमी करार {जो अभी भी फाइलों  में धूल खा  रहा है } करने के लिए .वगैरह ...वगैरह ..लेकिन यु पी ए  का बाहर से समर्थन और वक्त-वक्त पर उसी के खिलाफ विभिन्न मुद्दों पर असहमति और आंदोलनों को देश के मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया था .क्या यह सच नहीं कि वाम के निरंतर दबाव  कि बदौलत ही यु पी ए  प्रथम का चाल-चलन इतना ठीक ठाक माना गया कि देश की जनता ने   उसे २००९ में यु पी ए  द्वितीय के रूप में पुनः केद्रीय सत्ता में प्रतिष्ठित किया .लेकिन आज देश के हालत देखकर, महंगाई देखकर, देश के अंदर और बाहर चौतरफा संकट देखकर स्वयम चिदम्बरम और प्रणव मुखर्जी पस्त हैं .
            लगता  है  कि यु पी ए  प्रथम के समय उसे वामपंथ द्वारा दिए गए शक्तिवर्धक टोनिक्स का असर अब ख़त्म होने लगा है और धीरे-धीरे अलाइंस भी छिन्न भिन्न होने को है ,उधर आंध्र में सरकार अब गई कि तब गई .तेलांगना का अलग राज्य आन्दोलन ,देश में फैला नक्सलवाद ,आतंकवाद ,पडोसी राष्ट्रों कि बदमाशियां ,भयानक भुखमरी ,किसान आत्म-हत्या ,महंगाई और भृष्टाचार के रोजनामचों के बोझ तले दब चुकी सरकार को भाजपा और वामपंथ ने संसद में और संसद के बाहर बुरी तरह घेर रखा है ऐसे में भी  इस यु पी ए द्वितीय  का टिका रहना आश्चर्यजनक सत्य है .क्या देश नए सिरे से राजनैतिक  ध्रुवीकरण  के लिए तैयार है ?
         श्रीराम तिवारी

बुधवार, 5 जनवरी 2011

दिग्विजयसिंग के निशाने पर संघ ही क्यों ?

    .अतीत के खंडहरों में से मलबा  निकालकर कुछ भोले-भाले  हिन्दू अपने हिंदुत्व को पुनह प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, वे अल्पसंख्यकों के इतिहास में से ऐसी नजीरें ढूड़ते फिरते हैं जो हिन्दू समाज को कोंचती हों .अतीत के अपमान ,पराजयों , धोखा आदि  याद करा के हमारे ये संघी भाई यदि हिन्दुओं को इसलिए एकजुट कर रहे हैं, या तथाकथित देशभक्ति और अनुशासन  का पाठ पढ़ा रहे हैं की  उन्हें आइन्दा गुलामी की मार न झेलनी पड़े तथा उनको अन्तरराष्ट्रीय जगत में वही सम्मान हासिल हो जो सेमेटिक ,नार्मन सुमेरु और चीनी सभ्यताओं-ईसाइयों ,मुस्लिमों, यहूदियों और कान्फुसियासों को ;उनके  उत्तराधिकारियों को प्राप्त है, तो किसी को क्या एतराज  हो सकता है ? दरसल यहाँ तक किसी को भी कोई  एतराज  होना भी नहीं चाहिए .संभवत इस सीमा रेखा तक असहमति की संभावनाएं शून्य हैं ,फिर संघ परिवार पर चौतरफा आक्रमण के निहितार्थ क्या हैं ?
                 मानव   सभ्यता के उदयकाल से ही -कबीलाई समाजों में और  दास और सामंत्कालीन  युग में रूपांतरण की प्रक्रिया का समाज शास्त्रियों  ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विहंगम सिंहावलोकन किया है .इस आलेख के विमर्श में उन घटनाओं का स्मरण स्वाभाविक है जिनसे भारतीय उपमहाद्वीप  के सरोकार परिलक्षित होते हैं .भारत की आजादी के लिए १८५७ से १९०६तक .{मुस्लिम लीग की स्थापना तक  }भारत के हिन्दू -मुस्लिमों ने हमकदम होकर ब्रिटिश साम्राज्य शाही से संघर्ष किया .मुस्लिम लीग वास्तव में कांग्रेस की तत्कालीन   हिंदूवादी बहुलता और साम्प्रदायिक अनुगूंज की प्रतिध्वनी मात्र थी .मुस्लिम लीगी अंग्रेज भक्ति और खिलाफत आन्दोलन में गांधीजी और कांग्रेस द्वारा  खिलाफत आन्दोलन का तहेदिल से स्वागत एवं भागीदारी ने हिन्दू समाज को बैचेन कर दिया था . पेशवाई  हिदुत्व के केथोड और स्वाधीनता के एनोड के बीच अशिक्षित  भारतीय हिन्दू जनता का तेजी से आयनीकरण हुआ .परिणामस्वरूप डॉ मुंजे की प्रेरणा से श्री हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ की स्थापना की .
          यह सर्व विदित इतिहास है, किन्तु इसका संक्षिप्त  जिक्र किये बिना   हम आज के दौर की - वर्गीय वैमनस्यता के सूत्रों को नहीं पकड़ सकते .आजादी के तुरंत बाद से ७० के दशक तक  पंडित नेहरु ने जरा जरुरत से ज्यादा ही धर्मनिरपेक्षता या सर्व धर्म सम- भाव के गीत गुनगुनाये ,हालाँकि वे १९१९ के खिलाफत आन्दोलन के सिपाही भी रहे थे अतः स्वाधीन  भारतीय प्रजातंत्र को एक नई वैज्ञानिक और धर्म निरपेक्ष-समाजवादी  द्रष्टि  का शानदार नेतृत्व -पंडित नेहरु के रूप में उपलब्ध था .किन्तु एक ओर तो उनकी नास्तिकता से कट्टरपंथी  हिन्दू जनसंघ की ओर खिचते चले गए तो दूसरी ओर  महंगाई ,बेरोजगारी से परेशान मजदूर किसान कभी साम्यवाद के लाल झंडे के नीचे और कभी क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों की भोगलिप्सा का वोट बैंक बनते रहे .फलस्वरूप  कांग्रेस कमजोर होती चली गई .कभी सिंडीकेट और कभी इंदिरा कांग्रेस के खेमों में बटती चली गई .पाकिस्तान को १९७१ में सबक सिखाने .बंगला देश बनवाने  और अटल महाराज जी द्व्रारा देवी दुर्गा का अवतार निरुपित होने के वावजूद इंदिरा जी इलाहावाद हाई कोर्ट में अपने  चुनाव को  संवैधानिक रूप से जीता हुआ साबित  करने में विफल रहीं .
          उन्होंने आपातकाल लगाया ,संघ ने कुछ दिनों बाद  आपातकाल और संजय गाँधी के काले कारनामों को तस्दीक करना शुरू कर दिया लेकिन यह प्रेम एक पक्षीय ही था कांग्रेस और उसके नेतृत्व   ने पंडित नेहरु की ही तरह राष्ट्रीय स्वयम  सेवक संघ से दूरी बनाए रखी और वास्तव में उसके मूल में मुस्लिम वोट की दरकार भी निहित थी किन्तु कांग्रेस के किसी भी नेता ने {इंदिराजी को छोड़कर }कभी भी खुलकर संघ का विरोध नहीं किया क्योंकि वे जानते थे की बिना  मुस्लिम वोट के चुनाव जीतना मुश्किल है तो बिना   हिन्दू वोट के सत्ता में पहुंचना मुश्किल .
        यही वजह है की संघ ने जयप्रकाश नारायण  जैसे अर्ध-क्रांतीकारी को अपना सहयोग देकर कांग्रेस की इकन्नी कर दी और बाद में दुहरी सदस्यता की बहस में उलझे धर्म निरपेक्ष नेताओं को धत्ता  बताकर  १९८० में भाजपा के रूप में पुनह राजनैतिक  वापसी  का मार्ग प्रशस्त  किया .१९८४ के लोकसभा चुनाव में २ सीटों को सुशोभित करने वाली भाजपा ने बाद में वी पी सिंग  के मंडल की काट स्वरूप कमंडल हाथ में ले लिया और श्री आडवानी जी ने रथ यात्राओं के दौरान त्रिशूल घुमाये ,बाबरी मस्जिद ढहाई ,जय जय सियाराम की सारे देश में धूम मचाई तब दिल्ली में सत्ता की गद्दी पाई और अटल जी के नेत्रत्व में एन डी ये की सरकार ने चाहे कुछ और किया हो या न किया हो किन्तु देश भर में संघ की शाखाओं का विस्तार करने में हर तरह की तन -मन धन  से मदद अवश्य की .
     परिणाम स्वरूप पहले चरण में तो प्रान्तों के चुनाव में तेजी से कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रप धराशायी   होने लगे और संघ की अनुषंगी भाजपा के कंगूरे पर कागा बैठने लगे, किन्तु सोनिया गाँधी के नेतृत्व  में कांग्रेस में जान आ जाने से  उसके अधिकांश प्रान्त हस्तगत कर लिए हैं ;किन्तु गुजरात छत्तीसगढ़  और मध्यप्रदेश में अभी भी भाजपा डटी है और अब संघ और भाजपा को इस बात का गुमान है की हिन्दू जनता को किया वादा पूरा नहीं कर सके और दिल्ली की गद्दी से उतार दिए गए . रहीम कवि कह गए हैं की  रहिमन हांड़ी काठ की चढ़े न दूजी बार " सो किस्सा कोताह ये है की संघ परिवार के निशाने पर सोनिया जी राहुल जी और मनमोहनसिंग जी हैं .इसीलिये संघ के समर्थक मर्यादा छोड़ अल्ल-वल्लवक् रहेँ हैं .
       उधर क्षेत्रीय क्षत्रपों में सबसे महाबली क्षत्रप दिग्गी राजा को लगता है की उनकी ईमानदारी ,काबिलियत ,उच्च शिक्षा ,व्यक्तिगत श्रेष्ठता के वावजूद संघ  ने उन्हें मध्प्रदेश में रुसवा किया .चूँकि अकेले भाजपा में दम नहीं था  की दिग्विजय सिंह को परास्त कर सकें सो साध्वी उमा भारती को आगे करके उग्र हिन्दू वादी नारेवाजी के बरक्स संघपरिवार  ने उन्हें मध्यप्रदेश की सत्ता से पदावनत किया ..अश्वतथामा ..मरो ...हतो...नरो ...व ...कुंजरो .व ...की तर्ज पर ..साम्प्रदायिकता  ने मैदान मार लिया ,मंदिर -मस्जिद के नाम पर ,हिंदुत्व के नाम पर सत्ता हस्तांतरण तो हुआ, माया तो मिली पर भाजपा और संघ परिवार को राम {मंदिर ] नहीं मिले .अतः इस बिडम्बना के बहाने दिग्विजय सिंह जी को भाजपा और संघ पर हल्ला बोलने का शानदार अवसर मिला तो क्यों चुकें ? बेशक छ दिसंबर १९९२ के पूर्व भी dwand tha  लेकिन अयोध्या में विवादस्पद ढांचा गिराए जाने के बाद हिन्दू-मुस्लिम में दुराव और धर्म-निरपेक्षता को भारी क्षति हुई है. इसके बाद के दौर में जो हिंसक आतंकवादी गतिविधियाँ (इस्लामिक आतंकवाद सहित ) विगत १८ वर्षों में हुईं हैं उसके लिए अडवानी जी की रथयात्रा और अयोध्या में विवादास्पद ढांचा गिराए जाने की घटना जिम्मेदार है. यदि दिग्विजय सिंग ऐसा आरोप लगाते  हैं  तो क्या गलत है ?  संघ का काम काज फ़ैल चुका है , उसमें समाज के घाघ और चालू लोग जो पहले कांग्रेस का काडर हुआ करते थे बहुतायत से घुस गए हैं .जब कांग्रेस की सत्ता आयेगी तो फिर झंडा बदल लेंगे .इन्ही में से कुछ असामाजिक तत्व ,अपने अनाड़ीपन के कारण गोधरा में हिन्दू कार  सेवकों को मरवाने ,जिन्दा जलवाने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं ,इन्ही में से कुछ मालेगांव ,अजमेर शरीफ या मक्का मस्जिद में अवांछित हरकत के लिए  जिम्मेदार हो सकते हैं .लेकिन फिर भी यह संघ के रूप में आकर  विराटता के सापेक्ष इतना भयानक स्वरूप नहीं की उसको अल कायदा या किसी खतरनाक अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संघठन से उसकी तुलना की जाये .चूँकि संघ से जुड़े लोगों पर अंगुलियाँ उठ रहीं हैं सो संघ भी आत्म चिंतन में जुट गया है किन्तु बदनामी के दाग आसानी से कहाँ छूटते ? इधर संघ रुपी कर्ण के रथ का पहिया लहू लुहान कीचड में धसा है ,उधर दिगविजय सिंह रुपी अर्जुन को धर्मनिरपेक्षता का कृष्ण संघ पर हमले के लिए उकसा रहा है .और वे जो भी आरोप लगाते हैं उसके प्रमाण भी जेब में रखते हैं .
        श्रीराम तिवारी
         

      

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

विनायक सेन को राजद्रोही साबित करने के चक्कर में मानव-अधिकारों पर हमला.

  विनायक सेन को काल्पनिक आरोपों की जद में आजीवन कारावास की सजा  के समर्थन और विरोध के स्वर केवल भारत ही नहीं ,वरन यूरोप ,अमेरिका  में भी सुने जा रहे हैं .इस फैसले के विरोध  में दुनिया भर के लोकतान्त्रिक ,जनवादी ,धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी शामिल हैं ,वे जुलुस ,नुक्कड़ नाटक ,रैली और सेमिनारों के मार्फ़त श्री विनायक सेन की बेगुनाही पर अलख जगा रहेँ हैं और इस फैसले के समर्थन में वे लोग उछल-कूद  कर रहे हैं जो स्वयम हिंदुत्व के नाम की गई हिंसात्मक गतिविधियों में फंसे अपने भगनी भ्राताओं की आपराधिक हिसा पर देश की धर्मनिरपेक्ष कतारों के असहयोग से नाराज थे .ये समां कुछ ऐसा ही है जैसा कि शहीद भगतसिंह -सुखदेव -राजगुरु कि शहादत के दरम्यान हुआ था, उस समय गुलाम भारत की अधिसंख्य जनता-जनार्दन ने भगत सिंह और उनके क्रन्तिकारी  साथियों के पक्ष में सिंह गर्जना की थी और उस समय की ब्रिटिश सत्ता के चाटुकारों-पूंजीपतियों , पोंगा-पंथियों  ने भगतसिंह जैसे महान शहीदों को तत्काल फाँसी दिए जाने की पेशकश की थी .इस दक्षिणपंथी सत्तामुखापेक्षी धारा के समकालिक जीवाणुओं ने भी निर्दोष क्रांतीकारी विनायक सेन को जल्द से जल्द सूली पर चढ़वाने का अभियान चला रखा है इनके पूर्वजों को जिस तरह भगत सिंह इत्यादि को फाँसी पर चढ़वाने में सफलता मिल गई थी वैसी , आज के उत्तर-आधुनिक दौर में विनायक सेन को फाँसी पर चढ़वाने में उनके आधुनिक उत्तराधिकारियों को नहीं मिल सकी है. इसीलिए वे  जहर उगल रहे हैं , विनायक सेन के वहाने सम्पूर्ण गैर साम्प्रदायिक जनवादी आवाम को गरिया रहे हैं .
             चूँकि जिस प्रकार तमाम विपरीत धारणाओं, अंध-विश्वासों,  कुटिल-मंशाओं और संकीर्णताओं के वावजूद  कट्टरवादी -साम्प्रदायिकता के रक्ताम्बुज   महासागरों के बीच सत्यनिष्ठ -ईमानदार व्यक्ति  हरीतिका के  टापू की तरह हो सकते हैं, उसी तरह कट्टर-उग्र वामपंथ की कतारों में भी कुछ ऐसे सत्पुरुष हो सकते हैं जो न केवल सर्वहारा अपितु सम्पूर्ण मानव मात्र के हितैषी  हो सकते हैं ,क्या विनायक सेन ऐसे ही  एक अपवाद नहीं हैं ?
          विगत नवम्बर में और कई  मर्तबा  पहले भी मैंने प्रवक्ता .कॉम पर नक्सलवाद के खिलाफ ,माओ वादियों के खिलाफ शिद्दत से लिखा था , जो मेरे ब्लॉग www .janwadi .blogspot .com  पर उपलब्ध है , पश्चिम बंगाल हो या आंध्र या बिहार सब जगह उग्र वाम पंथ और संसदीय लोकतंत्रात्मक आस्था वाले वाम पंथ में लगातार संघर्ष चलता रहा है किन्तु माकपा इत्यादि के अहिंसावाद ने बन्दुक वाले माओवादिओं के हाथों बहुत  कुछ खोया है , अब तो लगता है की  अहिंसक क्रांति  की मुख्य धारा का  लोप हो जायेगा और उसकी जगह पर ये नक्सलवादी, माओवादी अपना वर्ग संघर्ष अपने तौर तरीके से जारी रखेंगे जब  तक की उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं हो जाता देश के कुछ चुनिन्दा वाम वुद्धिजीवी भी आज हतप्रभ हैं की किस ओर जाएँ ? विनायक सेन प्रकरण ने विचारधाराओं  को एतिहासिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है . इस प्रकरण की सही और अद्द्तन तहकीकात के वाद यह स्वयम सिद्ध होता है की विनायक सेन निर्दोष हैं ,और जब विनायक सेन निर्दोष हैं तो उनसे किसे क्या खतरा हो सकता है?राजद्रोह की परिभाषा यदि यही है; जो विनायक सेन पर तामील हुई है; तो भारत में कोई देशभक्त नहीं बचता ..
             मैं न तो नक्सलवाद और न ही  माओवाद का समर्थक हूँ और न कोई मानव अधिकार आयोग का एक्टिविस्ट ;डॉ विनायक सेन के बारे में उतना ही जानता हूँ जितना प्रेस और मीडिया ने अब तक बताया.जब किसी व्यक्ति को कोई ट्रायल कोर्ट राजद्रोह का अपराधी घोषित करे , और आजीवन कारावास की सजा सुनाये ;तो जिज्ञासा स्वाभाविक ही सचाई के मूल तक पहुंचा देती है. पता चला की डॉ विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच काफी काम किया है .उन्हें राष्ट्रीय -अंतर राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है .वे पीपुल्स यूनियंस फॉर सिविल लिबर्टीज {पी यु सी एल ] के प्रमुख की हैसियत से मानव अधिकारों के लिए निरंतर कार्यशील रहे .उन्होंने नक्सलवादियों के खिलाफ खड़े किये गए "सलवा जुडूम' जैसे संगठनों की ज्यादतियों का प्रबल विरोध किया .छत्तीसगढ़ स्टेट गवर्नमेंट और पुलिस की उन पर निरंतर वक्र द्रष्टि  रही है .
                मई २००७ में उन्हें जेल में बंद तथाकथित नक्सलवादी नेता नारायण सान्याल का सन्देश लाने -ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था .उन्हें लगभग दो साल बाद २००९ में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी .उस समय भी उनकी गिरफ्तारी ने वैचारिक आधार पर देश को दो धडों में बाँट दिया था .एक तरफ वे लोग थे जो उनसे नक्सली सहिष्णुता के लिए नफ़रत करते थे; दूसरी ओर वे लोग थे जो मानव अधिकार ,प्रजातंत्र और शोषण विहीन समाज के तरफदार होने से स्वाभाविक रूप से विनायक सेन के  पक्ष में खड़े थे .इनमे से अनेकों का मानना था की विनायक सेन को बलात फसाया जा रहा है .उस समय उनके समर्थन में बहुत कम लोग थे ;क्योंकि उस वक्त तक नक्सलवादियों और आदिवासियों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं में भेद करने की पुलिसिया मनाही थी .नक्सलवाद और मानव अधिकारवाद के उत्प्रेरकों  में फर्क करने में छत्तीसगढ़ पुलिस  की असफलता के परिणाम स्वरूप उस वक्त सच्चाई के पक्ष में खड़ा हो पाना बेहद खतरों से भरा हुआ अग्नि-पथ था .इस दौर में जबकि सही व्यक्ति या विचार के समर्थन में खड़ा होना जोखिम भरा है तब विनायक सेन का अपराध बस इतना सा था की वे नारायण सान्याल से जेल में जाकर क्यों मिले ?
          भारत की किसी भी जेल के बाहर वे सपरिजन -घंटों ,हफ़्तों ,महीनो ,इस बात का इन्तजार करते हैं कि उन्हें उनके जेल में बंद सजायफ्ता  सपरिजन से चंद मिनिटों कि मुलाकात का अवसर मिलेगा ,मेल मुलाकात का यह सिलसिला आजीवन चलता रहता है किन्तु किसी भी आगन्तुक मित्र -बंधू बांधव को आज तक किसी ट्रायल कोर्ट ने सिर्फ इस बिना  पर कि आप एक कैदी से क्यों मिलते हैं ? आजीवन कारावास तो नहीं दिया होगा .बेशक नारायण सान्याल कोई बलात्कारी ,हत्यारे या लुटेरे भी नहीं हैं और उनसे मिलने उनकी कानूनी मदद करने के आरोपी विनायक सेन भी कोई खूंखार -दुर्दांत दस्यु नहीं हैं .  उनका अपराध बस इतना सा ही है कि आज जब हर शख्स डरा-सहमा हुआ है ,तब विनायक महोदय आप निर्भीक सिंह कि मानिंद सीना तानकर क्यों चलते हो ?
     क़ानून को इन कसौटियों और तथ्यों से परहेज करना पड़ता है सो सबूत और गवाहों कि दरकार हुआ करती है और इस प्रकरण के केंद्र में विमर्श का असली मुद्दा यही है कि इस छत्तीसगढ़िया न्याय को यथावत स्वीकृत करें या लोकतंत्र कि विराट परिधि में पुन: परिभाषित करने कि सुप्रीम कोर्ट से मनुहार करें अधिकांश देशवासियों का मंतव्य यही है ; बेशक कुछ लोग व्यक्तिश विनायक सेन नामक बहुचर्चित मानव अधिकार कार्यकर्त्ता को इस झूंठे आरोप और अन्यायपूर्ण फैसले से मुक्त करना -बचाना चाहते  होंगे. कुछ लोग इस प्रकरण में जबरन अपनी मुंडी घुसेड रहे हैं और चाहते हैं कि विनायक सेन के बहाने उनके अपने मर्कट वानरों कि गुस्ताखियाँ  पर पर्दा डाला जा सके जबकि उनका इस प्रकरण से दूर का भी लेना देना नहीं है. संभवतः  वे रमण सरकार कि असफलता को ढकने कि कोशिश कर रहे हैं ..
           छतीसगढ़ पुलिस  ने विनायक सेन के खिलाफ जो मामला बनाया  और ट्रायल कोर्ट ने फैसला दिया वह न्याय के बुनियादी मानकों पर खरा नहीं उतरता .पुलिस  के अनुसार पीयूष गुहा नामक एक व्यक्ति को ६ मई -२००७ को रायपुर रेलवे स्टेशन के निकट गिरफ्तार किया गया था जिसके पास प्रतिबंधित माओवादी  पम्फलेट ,एक मोबाइल ,४९ हजार रूपये और नारायण सान्याल द्वारा लिखित ३ पत्र मिले जो डॉ विनायक सेन ने पीयूष गुहा को दिए थे .पीयूष गुहा भी कोई खूंखार आतंकवादी या डान नहीं बल्कि एक मामूली तेंदूपत्ता व्यापारी  है जो नक्सलवादियों के आतंक से निज़ात पाने के लिए स्वयम  नक्सल विरोधी सरकारी कामों का प्रशंसक  था .
      डॉ विनायक सेन को भारतीय दंड संहिता कि धारा १२४ अ  {राजद्रोह }और १२४ बी {षड्यंत्र ]तथा सी एस पी एस एक्ट और गैर कानूनी गतिविधि  निरोधक अधिनियम कि विभिन्न धाराओं के तहत सुनाई गई सजा पर एक प्रसिद्द  वकील वी कृष्ण अनंत का कहना है कि "१८६० कि मूल भारतीय दंड संहिता में १२४ -अ थी ही नहीं  इसे तो अंग्रेजों ने बाद में जब देश में स्वाधीनता आन्दोलन जोर पकड़ने लगा तो अभिव्यक्ति कि आजादी को दबाने  के लिए १८९७ में  बालगंगाधर तिलक और कुछ साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी को जेल में बंद करने ,जनता  कि मौलिक अभिव्यक्ति कुचलने के लिए तत्कालीन  वायसराय द्वारा अमल में लाइ गई "
       भारत के पूर्व मुख्य-न्यायधीश न्यायमूर्ति श्री वी पी सिन्हा ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में १९६२ में फैसला दिया था कि धारा १२४-अ के तहत किसी को भी तभी सजा दी जानी चाहिए जब किसी व्यक्ति द्वारा लिखित या मौखिक रूप से लगातार ऐसा कुछ लिखा जा रहा हो जिससे क़ानून और व्यवस्था भंग होने का स्थाई भाव हो .जैसे कि वर्तमान गुर्जर आन्दोलन के कारण विगत दिनों देश को अरबों कि हानी हुई ,रेलें २-२ दिन तक लेट चल रहीं या रद्द ही कर दी गई ,आम जानता को परेशानी हुई सो अलग .सरकार किरोड़ीसिंह बैसला  को हाथ लगाकर देखे .यह न्याय का मखौल  ही है कि एक जेंटलमेन पढ़ा  लिखा आदमी जो देश और समाज का नव निर्माण करना चाहता है, मानवतावादी है , वो सींकचों के अंदर है ;और जिन्हें सींकचों के अंदर होना चाहिए वे देश को चर रहे हैं .
                    कुछ लोग उग्र वाम से भयभीत हैं ,होना भी चाहिए, वह किसी भी क्रांती का रक्तरंजित रास्ता हो भारत कि जनता को मंजूर नहीं,  यह गौतम -महावीर -गाँधी का देश है. जाहिर है यहाँ पर वही विचार टिकेगा जो बहुमत को मंजूर होगा .नक्सलियों को न तो बहुमत प्राप्त है और न कभी होगा .वे यदि बन्दूक के बल पर सत्ता हासिल करना चाहते हैं तो उनको इस देश कि बहुमत जनता का सहयोग कभी नहीं मिलेगा भले ही वो कितने ही जोर से इन्कलाब  का नारा लगायें .यहाँ यह भी प्रासंगिक है कि देश के करोड़ों दीन-दुखी शोषित जन अपने शांतिपूर्ण संघर्षों को भी इन्कलाब -जिंदाबाद से अभिव्यक्त करते हैं ...भगत सिंह ने भी फाँसी के तख्ते से इसी नारे के मार्फ़त अपना सन्देश राष्ट्र को प्रेषित किया था ... यदि विनायक सेन ने भी कभी ये नारा लगाया हो तो उसकी सजा आजीवन कारावास कैसे हो सकती है और यह भी संभव है कि इस तरह के फैसलों से हमारे देश में संवाद का वह रास्ता बंद हो सकता है जो लाल देंगा जैसे विद्रोहियों के लिए खोला गया और जो आज कश्मीरी अलगाववादियों के लिए भी गाहे बगाहे टटोला जाता है सत्ता से असहमत नागरिक समाज ऐसे रास्ते खोलने में अपनी छोटी -मोटी भूमिका यदा -कदा  अदा किया करता है, डॉ विनायक सेन उसी नागरिक समाज के सम्मानित सदस्य हैं .
                  श्रीराम तिवारी -संयोजक -जन -काव्य -भारती
             .
         

सोमवार, 3 जनवरी 2011

माननीय प्रधानमंत्री जी, भारत में ग़रीबों का चीत्कार सुने...

     लगभग १५० साल पूर्व महान अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और दार्शनिक  कार्ल मार्क्स ने अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ  "दास कैपिटल " में एक स्थापना दी थी ,कि "यदि  लाभ समुचित है तो पूँजी {कैपिटल } साहसी हो उठती है ,यदि १०% लाभ कि सम्भावना हो तो पूँजी कहीं भी मुहँ  मारने से नहीं हिचकिचाती, यदि लाभ २०% सम्भावित हो तो पूँजी उद्दाम हो उठती  है, लाभ यदि ५०% हो तो पूँजी दुस्साहसी हो जाती है, और लाभ यदि १००% होने कि सम्भावना हो तो पूँजी हर किस्म के क़ानून -नियम -कायदों और नैतिकता को पैरों कुचलने को मचलने लगती है "
         विगत नवम्बर -२०१० में इस बात कि देश और दुनिया में धूम रही कि 'भारत एक ऐसा अमीर देश है जिसमें ७६% जनता के पास स्थाई आजीविका नहीं और ३३% निर्धनतम लोगों के पास वैश्विक मानक जीवन स्तर नहीं . फोर्व्ज मैगजीन के अनुसार डालर अरबपतियों {एक अरब अमरीकी डालर से ऊपर यानि ४६०० करोड़ रूपये के लगभग }कि संख्या २००९ में सिर्फ ९ थी लेकिन २०१० के अंत तक बढ़ते -बढ़ते यह संख्या ५६ हो गई .पढ़ सुनकर कुछ उसी तरह का आनंदातिरेक  भी हुआ कि, ईश्वर का शुक्रिया - मेरे भारत कि नाक ऊँची हुई और दुनिया के टॉप -१० में भारत के एक -दो नहीं तीन -तीन नौनिहाल  इस वैश्विक सूची में प्रतिष्ठित हैं .अंतर-राष्ट्रीय भूंख सूचकांक में भले ही हम पाकिस्तान ,चीन भूटान और श्रीलंका से भी बदतर हों{सूची में भारत ६७ वें स्थान पर पाकिस्तान ६४ श्रीलंका ५६ और चीन ९ वें स्थान पर है } किन्तु मेरे महान पूंजीवादी  प्रजातंत्र  की बलिहारी कि हमारा एक -एक पूंजीपति  ही इन राष्ट्रों {चीन को छोड़कर ]को खरीदकर जेब में रखने कि क्षमता रखता है .जय भारत ...जय हिंद ...जय अम्बानी ,जय टाटा .जय बिडला .जय भारती ...प्राइवेट सेक्टर -जिन्दावाद ...नंगी- भूंखी ठण्ड से ठिठुरती ,महंगाई से जूझती .जातिवाद के नाम पर आरक्षण के लिए रेल की पटरियां उखाड़टी ,दवा के अभाव में -साधनों के अभाव में पाखंडी बाबाओं की चौखट पर नाक रगडती ,प्रजातंत्र के चारों पिल्लरों का बोझ उठाती,राजनीति में सिर्फ वोटर की हैसियत रखने वाली कोटि -कोटि जनता .....वाद ....
            अक्सर यह प्रचारित किया जाता है की आर्थिक सुधार या उदारीकरण की नीतियां तो इसी गरीब -मेहनत कश जनता के हितार्थ है .आर्थिक सुधारों का मतलब निजी क्षेत्र को भरपूर लूट का अधिकार याने बकरी और बाघ की स्पर्धा ,अब ये तो अति सामान्य मूढमति भी जानता है की इस संघर्ष में बकरी को ही हलाल होना है .इसमें किसी को संदेह नहीं कि अर्थ व्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है ;मेरा मंतव्य ये है कि इसका लाभ सिर्फ चंद लोगों को ही मिल रहा है .जो संगठित हैं ,जिनके वोट बैंक हैं ,जब वे भी अपने हिस्से के लिए जमीन आसमान एक किये दे रहे हैं तो असंगठित क्षेत्र के १८ करोड़ लोगों का जीवन संघर्ष पूर्ण रूपेण अहिसक होगा इसकी क्या गारंटी है ?
           १९९१ से भारत में जिस अर्थ-नीति को अनुप्रयुक्त  किया जाता रहा उसके तथाकथित राम बाण औशधि सावित होने में स्वयम वे लोग आशंकित हैं जो इस अर्थ-नीति के आयात कर्ता  हैं .वैश्वीकरण -उदारीकरण -निजीकरण से देश को और देश कि जनता को कितना क्या मिला ये तो विगत माह अंतर राष्ट्रीय खाद्द्य नीति शोध -संस्थान कि रिपोर्ट से जाहिर हो चुका है जिसमें कहा गया है कि "भारत में ऊँची आर्थिक वृद्धि दर से गरीबी में कोई कमी नहीं आई है " इसमें ये भी कहा गया है कि भारत में पर्याप्त खाद्द्यान्न होने के वावजूद देश में बेहद गरीबी और जीवन स्तर में गिरावट दर्ज कि गई .इससे से ये भी जाहिर हुआ कि आबादी  के विराट हिस्से कि औसत  आय का स्तर इतना नीचे है कि अन्न  के भंडार भरे पड़े है ,गेहूं कई जगह सड़ रहा है .सब्जियां निर्यात हो रहीं हैं किन्तु देश कि निम्न वित्त भोगी जनता कि क्रय-शक्ति से ये चीजें दूर होते जा रही हैं ,और सर्वहारा वर्ग कि क्रय शक्ति का आकलन तो अर्जुन सेनगुप्ता से लेकर मोंटेकसिंह अहलूवालिया तक और सुरेश तेंदुलकर से लेकर प्रणव मुखर्जी को मालूम है किन्तु श्रीमती  सोनिया गाँधी ,श्री राहुल गाँधी और प्रधान मंत्री मनमोहनसिंह जी को मालुम है कि नहीं ये मुझे नहीं मालूम .
        कहीं ऐसा न हो  कि २-G ,३-G ,के बाद ४-G  का भांडा फूटे या भृष्टाचार का कोई और कीर्तीमान बने तो पी एम् महोदय कहें की "ये भ्रष्टाचार मेरी जानकारी में नहीं हुआ ,या की में निर्दोष हूँ "
 इस बात को सारा देश जानता है की प्रधानमंत्री जी आप वाकई ईमानदार हैं किन्तु ऐसा कैसे हो सकता है की रादियाएं, बरखायें, अबलायें आपके अधीनस्थों  और निजी क्षेत्र के सम्राटों के बीच लोबिंग करती रहें और आपको पता ही न चले .जो बात प्रेस को मालूम ,विपक्ष को मालूम विदेशी जासूसों को मालूम वो चीज राजा  के बारे में हो या स्पेक्ट्रम के बारे में हो या १-२-३-एटमी   करार पर .संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सीट के सवाल पर  हिलेरी क्लिंटन पकिस्तान में  हमारा मजाक उड़ाती रहे ये विकिलीक्स को मालूम पर आपको नहीं मालूम ऐसा कैसे हो सकता ? यदि ऐसा वास्तव में है तो आप अपनी अंतरात्मा से पूंछे की आपको क्या करना चाहिए ? 
श्रीराम तिवारी         

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नूतन वर्ष २०११ का स्वागत गान...

आगत का सम्मान करें हम ,


वीत चुका वो जाने दो .

नया सवेरा नई रौशनी ,

नई किरण को आने दो ..

संघर्षों से सीखा जिसने ,

बलिदानों से उसका नाता .

मानवता पर जिसको अपने ,

प्राण न्योछावर करना आता ..

धीर -वीर -गंभीर जवानी ,

राजनीत में आने दो .

नया सवेरा नई रौशनी ,

नई किरण को आने दो ..



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पर्यावरण प्रदूषण भारी,

कठिन आणविक संकट जारी .

धरा माफिया खनन लुटेरे ,

लूट रहे सब खेती बारी ..

देश हमारा -नीति विदेशी ,

सेंत -मेंत क्यों आने दो .

जात -धरम की सियासतों पै ,

गिद्धों को मंडराने दो ..

नई कोंपलें नवल मंजरी ,

नई कोयल को गाने दो .

नया सवेरा नई रौशनी ,

नई किरण को आने दो ....



श्रीराम तिवारी