बुधवार, 22 जून 2016

१००% एफडीआई की कीमत पर भी भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिली - बहुत नाइंसाफी है !

तोरण का किला फतह करने में छत्रपति शिवाजी के बहुत  ही विश्वसनीय साथी और वीर सेनानी तानाजी वीर गति को प्राप्त हुए ! शिवाजी को जब यह सूचना दी गयी तो उनकी प्रतिक्रिया थी- ''गढ़ आला पर सिंह गेला'' ! मोदी जी को यदि एनएसजी अभियान में रंचमात्र भी सफलता मिल जाती तो कहा जा सकता था कि 'एनएसजी' तो  मिला किन्तु भारत एफडीआई के चंगुल में फंसा '! दुर्भाग्य से अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की  इतनी बड़ी क़ुरबानी देने के बाद ,१००% एफडीआई के लिए भारतीय बाजार पूर्णरूपेण खोल देने के बाद भी यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिली, तो कहना पडेगा कि ' राष्ट्रीय स्वाभिमान का सिंह तो गया ही ,एनएसजी का गढ़ भी नहीं मिला ' ! भारत के साथ इतनी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक  ट्रेजडी हो जाने के बाद सत्तासीन नेतत्व तो शुतरमुर्ग वाली बचाव की मुद्रा में आ गया । लेकिन कांग्रेस सहित तमाम पूँजीवादी विपक्ष के चेहरे पर तत्सम्बन्धित आक्रोश का नामोंनिशांन तक नहीं है। कहीं कोई आंदोलन नहीं !कोई प्रतिरोध नहीं ! कहीं कोई सवाल नहीं ! कांग्रेस के कुछ भूतपूर्व मंत्री और सत्ता के भूतपूर्व 'हितग्राही' खुद ही अपने बचाव की जुगत में हैं,इसीलिये सत्तारूढ़ नेतत्व की असरकारक आलोचना उनके बूते की बात नहीं ! अतः मोदी जी के लिए अभी 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोई-भावै मनहिं करो तुम सोई' वाली कहावत चरितार्थ  हो रही है।

हजार ठोकरें खाने के बाद कोई गब्दू इंसान यदि 'ठाकुर' [आत्मविश्वासी] बन जाता है ,इस स्थति को सहज परिणीति अथवा गनीमत समझा जाता है ! जैसे कि 'यह  तो होना ही था' इसमें कोई अनहोनी बात नहीं । और बहुत कुछ लुटाने के बाद भी यदि किसी नेता या कौम का विवेक जागृत हो जाए तो उसे शहादत या बहादुरी का तमगा मिल ही जाता है ! यह इतिहास सिद्ध है कि कोई जिन्दा कौम अथवा राष्ट्र निरंतर गलतफहमी में रहने वाले नेतत्व का ज्यादा दिनों तक भार वहन नहीं करते । वर्तमान मोदी सरकार के दो वर्ष पूर्ण होने पर विगत जून-२०१६ के अंतिम सप्ताह में पीएम मोदी जी ने अपने दो साल के कार्यकाल का आकलन करते हुए शायद खुद ही महसूस किया  कि वे घरेलु और विदेश नीति के मोर्चे पर  बहरहाल  कुछ खास नहीं कर पाये हैं । अपनी दो सालाना अवधि का निराशाजनक प्रदर्शन छुपाने की असफल चेष्टा और उसके रिपोर्टकार्ड को मीडिया प्रेरित प्रोपेगेंडा की चमक से अपडेट करने की फितरत में केंद्र सरकार के प्रवक्ताओं ने आनन-फानन ऐलान किया कि मानसून अच्छा आने वाला है ! आमीन ! याने   हर खास और आम को सूचित किया जाता है कि महँगाई  खुद -ब -खुद रुक जाएगी । एनएसजी की  सदस्यता ना  सही अच्छे दिन तो उसके बिना भी आ जाएँगे   !

विदेश नीति के  मोर्चे पर हमारी विदेश मंत्री श्रीमती  सुषमा स्वराज ने विगत दो साल में दो महत्वपूर्ण -नेक काम किये हैं ! एक- गीता नामक गूंगी लड़की को पाकिस्तान से भारत लाकर इंदौर में नजर बंद करवाया और दूसरा सोनू नामक लड़के को बँगला देश से भारत लाकर उसके रिस्तेदारों तक पहुँचाया। भारतीय विदेश मंत्री का नाम  बहरहाल अभी तो मीडिया में सिर्फ इन मामलों तक  ही सीमित है। कभी-कभार ललित मोदी काण्ड इत्यादि में जरूर उनका नामोल्लेख  होता रहा है।  इसके अलावा विदेश मंत्रालय के बाकी सारे काम 'वन मेन आर्मी ' के रूप में हमारे डायनमिक प्रधान मंत्री श्री मोदी जी खुद ही देख रहे हैं।  मोदी जी के कूटनीतिक प्रयासों की तात्कालिक असफलता को यदि 'जो हुआ ठीक हुआ' की कहावत के रूप में सकारात्मक ढंग से लिया जाए तो ही उनके   प्रयास काबिले तारीफ़ माने जा सकते हैं। अन्यथा हकीकत में तो असफलता की दो खास वजह  हैं। पहली यह कि वे खुद 'एकला चलो रे' के मुरीद रहे हैं। दूसरी उनकी अमेरिका इत्यादि में 'आत्मघाती गोल' वाली भाषण शैली ।

विदेशी दौरों के दरम्यान मोदी जी के भाषणों की प्रतिक्रिया में 'मोदी-मोदी' के नारे  खूब सुनाई दिए । लेकिन उससे उनके समकालीन वैश्विक नेता खुश क्यों होने लगे ?  चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग को उनसे ईर्षा क्यों नहीं होगी ? ब्राजील,आयरलैंड और न्यूजीलैंड के नेताओं को मोदी जी की लोकप्रियता से क्या फायदा ? हर कोई ओबामा या नवाज शरीफ जैसा नहीं हो सकता। इसीलिये दुनिया का हर कोई देश या उसका नेता  मोदी जी की हाँ में हाँ  मिलाने को तैयार नहीं। यही कारण है कि मोदी जी को विदेश नीति के मोर्चे पर काबिले ऐ गौर सफलता  नहीं मिल पाई । ऐंसा महसूस किया जा रहा है कि अपनी वैदेशिक असफलताओं से मोदी जी को यह इल्हाम हो चुका है कि भारत के पूर्ववर्ती पीएम या विदेश मंत्री सौ फीसदी नाकारा नहीं थे । शायद उन्हें यह भी एहसास हो गया होगा कि विदेश नीति के मामले में पहले वाली सरकारों और प्रधान मंत्रियों का अवदान भी कुछ कम नहीं था। वेशक चाहा तो पहले वालों ने भी बहुत कुछ था  और प्रयास भी बहुत किये किन्तु  भारत विरोधी कुटिल वैश्विक राजनीति ने उन्हें भी सफलता से महरूम ही रखा  ! इतिहास अपने आपको दुहरा रहा है , विदेश नीति के मोर्चे पर  अति -उत्साही मोदी जी को भी असफलता ही हाथ लग रही है।

मोदी सरकार को न केवल एनएसजी की असफलता का अफसोस है बल्कि पाकिस्तान और आईएस प्रेरित आतंकवाद पर भी उनका कोई काबू नहीं है। कोई   उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं हो पाने का मोदी जी को निजी तौर पर अफ़सोस अवश्य होगा।  वे पाकिस्तान से दाऊद ,हाफिज सईद,जैस-अलकायदा के  आतंकियों को भारत लाने और दण्डित करने में  असमर्थ रहे हैं । वे 'दुख्तराने हिन्द' और कश्मीर में भारत विरोधी कार्यवाहियाँ रोकने में भी असमर्थ रहे हैं । डॉ मनमोहनसिंह के समय जब एक बार दो भारतीय सैनिकों को रात के अँधेरे में आतंकियों द्वारा धोखे से मार दिया गया था -तो  गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंह गर्जना के साथ कहा था, कि 'ये कायर सरकार है ,हम होते तो अंदर तक घुसकर मारते'! अब सत्ता में आने के बाद वेशक मोदी जी पाकिस्तान के अंदर तो हो आये ,लेकिन चाय पी और दुआ सलाम कर वापिस आ गए ! दुनिया जानती है कि चीन ने उसकी रणनीति के तहत पाकिस्तान को और वहाँ पनाह लेने वाले  भारत विरोधी आतंकियों को अभय दान दे रखा है।  वह अपने परम्परागत प्रतिद्व्न्दी भारत को ताकतवर क्यों होने देगा ? इस तथ्य के वावजूद ,मोदी जी ओवर कांफीडेंस के वशीभूत होकर  'एनएसजी' पर चीन के विरोध को द्रवीभूत करने के लिए , चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग से मिलने खुद उज्वेगिस्तान जा पहुँचे ! उन्होंने अरुण जेटली जी को बीजिंग भेजा ताकि द्विपक्षीय आर्थिक मसलों के बहाने चीन को  'एनएसजी' के लिए भारत के राह में अड़ंगा नहीं लगाने के लिए राजी किया जा सके। उन्होंने विदेश सचिव जयशंकर को एनएसजी की महत्वपूर्ण मीटिंग में शामिल होने सियोल भेजा। लेकिन हत् भाग्य सब जगह हाँथ पैर मारने के वावजूद मोदी जी को असफलता ही हाथ लगी । लेकिन यह असफलता भारत की नहीं है। भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकताओं में एफडीआई नहीं था ,किन्तु मोदी जी ने एनएसजी जैसी निरर्थक संस्था के लिए भारत के सम्प्रभु स्वाभिमान को ही दाँव पर लगा दिया। इसके वावजूद  भी मोदी सरकार के ये  प्रयास सराहे जा सकते थे ,यदि इस एनएसजी कीसदस्यता मिल गयी होती। लेकिन इस  असफलता की बड़ी भारी कीमत- १००% एफडीआई के रूप में अग्रिम  चुका दी गयी ,यह नितांत आत्मघाती -राष्ट्रघाती कदम है।

अपने वैदेशिक सघन प्रयास  विफल होने के बाद प्रधान मंत्री जी ने तमाम आलोचनाओं से देश और दुनिया का ध्यान डाइवर्ट करने के लिए कुछ तात्कालिक कदम उठाये हैुं । सबसे पहले उन्होंने पूना शहर से देश के चुनिंदा नगरों के 'स्मार्ट सिटी अभियान' का शुभारम्भ किया। उसके तुरंत बाद उन्होंने 'टाइम्स नाऊ ' के अर्णव गोस्वामी को एक संतुलित इंटरव्यू दिया। जिसमें उन्होंने विदेश नीति की असफलताओं पर चतुराई से पर्दा डालते हुए ,भाजपा के बड़बोले नेताओं की वाग्मिता पर अनायास स्प्ष्टीकरण दे डाला । उन्होंने रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन का बचाव किया। इशारों-इशारों में सुब्र्मण्यम स्वामी जैसे 'उन्मुक्त'नेताओं से अपनी असहमति  जताई । विपक्ष की पृत्याशित आलोचना से बचते हुए मोदी जी ने 'सबका साथ सबका विकास' वाला नजरिया पुनः दुहराया । ठीक इसी नाजुक वक्त पर वित्तमंत्री जेटली के मार्फत केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन आयोग की विलम्बित रिपोर्ट को भी केविनेट में पारित कर दिया । केंद्रीय कर्मचारी भले ही नाखुश हों ,आंदोलन -हड़ताल करें या देश की जनता महँगाई ,सूखा, अव्यवस्था,आतंक और कालेधन जैसे सवालों मुद्दे  पर हाय तौबा मचाती रहे , किन्तु मोदी जी ने इस विपरीत वातावरण को बहरहाल यू टर्न देने में सफलता अवश्य प्राप्त की है। इसी दौरान ओबामा जी की असीम अनुकम्पा से अमेरिकी लॉबी ने
भारत को अंतर्राष्ट्रीय मिसाइल टेक्नालॉजी कंट्रोल याने 'एमटीसीआर' में शामिल किये जाने की सूचना आनन-फानन मीडिया में चलावाई । गोकी एफडीआई के बदले 'एनएसजी' न सही एमटीसीआर तो दे ही दिया है।इससे  भारत के सत्तारूढ़ नेतत्व की जान में जान आई है। क्योंकि विगत दो साल की उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए मुँह दिखाने लायक कुछ नहीं था ,अब कुछ तो अवश्य हासिल हुआ है। सर्वविदित है कि अमेरिका और चीन पाकिस्तान के मित्र कदापि नहीं हैं. दरसल ये महाशक्तियाँ पाकिस्तान की ओट में भारत को आगे बढ़ने से रोकने में निरंतर प्रयासरत  हैं । यदि भारत चाहता तो उसे एनएसजी में प्रवेश ४० साल पहले ही मिल जाता ,किन्तु अमेरिका और चीन की मंशा -भारत को घेरे रखने और पाकिस्तान के बराबर रखने की है। यह  भारत के सामने हमेशा से ही सबसे बड़ी चुनौती रही है।  

दुनिया के ४८ देश जिसके सदस्य पहले से ही हैं उस गुमनाम सी अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'एनएसजी' [न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप] में शामिल होने के लिए भारत को  एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। जिस वक्त ताशकंद में मोदी जी को चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग टका सा जबाब दे रहे थे । ठीक उसी वक्त सियोल में आधा दर्जन देशों ने भारतीय विदेश सचिव एस जयशंकर को 'एनपीटी'[परमाणु अप्रसार संधि ] पर भारत के हस्ताक्षर नहीं होने के बहाने एनएसजी से महरूम करते हुए टका सा जबाब दे  रहे थे । वैसे भी यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल भी जाती है तो उससे भारत की शान में कोई चार चाँद नहीं लगने वाले थे। लेकिन बड़ी डींगे मारने के उपरान्त सदस्यता नहीं मिली तो भारत की  भद पिटना स्वाभाविक है। हर देशभक्त भारतीय का ठगा हुआ महसूस करना स्वाभाविक है । क्योंकि मोदी जी ने एनएसजी की सदस्यता की खातिर १००% एफडीआई  स्वीकार कर बहुत बड़ी कीमत जो अदा की है। इसके लिए उन्होंने संसद या जनता -जनार्दन से कभी कोई कोई सहमति भी नहीं ली । उन्होंने तो अपनी विदेश मंत्री सुषमा जी को भी अपनी विदेस यात्राओं में साथ नहीं रखा। सवाल उठना चाहिए कि क्या यह तौर तरीका लोकतांत्रिक है ?  वैसे भी एनएसजी के बहाने १००%एफडीआई भारत के लिए बहुत बड़ा आघात है।  बहुत खेदजनक है कि सब कुछ लुटाने के वावजूद भी  सफलता कोसों दूर है। अर्थात 'हनोज दिल्ली दूरस्थ '! पौरुष का आभासी शोरगुल और राष्ट्रीय शर्मिंदगी  भारत को  मुँह चिड़ा रही है ।

इसी दरम्यान  ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश जनता का जनमत संगृह लिया है ,कि ग्रेट ब्रिटेन को 'यूरोपियन संघ' में रहना है या नहीं ! वहाँ की ५२% जनता का मत है कि यूरोपियन यूनियन छोड़ दिया जाए। ४८% जनता का मत है कि यूरोपियन यूनियन को न छोड़ा जाए। यह तय है कि अपनी निजी राय के विपरीत ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून बहुमत जनता का ही साथ देंगे। वे तो प्रधान मंत्री पद  छोड़ने  को तैयार हैं। यही शुद्ध लोकतंत्रात्मक आचरण है। भारत के प्रधान मंत्री को कम से कम अपनी केविनेट या संसद से ही राय ले लेना चाहिए थी ,कि 'एनएसजी' में शामिल होने के लिए १००% एफडीआई किया जाए या नहीं ! अतीत में आस्ट्रेलिया ,ब्राजील,स्पेन ,तुर्की ,फ़्रांस, इटली जैसे देशों की सरकारों ने भी वहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत  इसी  तरह जनतांत्रिक जनादेश प्राप्त कर नीतिगत फैसला लिये हैं । किन्तु यह भारत का दुर्भाग्य है कि व्यक्तिवादी सोच और अधिनायकवादी -आत्ममुग्धता से पीड़ित होने के कारण अपरिपक्व नेतत्व संसद की सहमति या जनता के जनादेश की  परवाह नहीं करते । यहाँ तो हालात यह हैं कि शायद विदेश मंत्री को भी कोई तवज्जो नहीं दी जाती  । सम्भवतः इसलिए मोदी सरकार को विदेश नीति के मोर्चे पर अपने दो साल के कार्यकाल में कहीं भी सफलता नहीं मिल पाई है। उलटे  इस दौर में भारत  के शत्रुओं की तादाद  बढ़तीं जा रही है। और भारत लगभग मित्रविहीन सा होता जा रहा है।   

हो सकता कि चीन,पाकिस्तान ,नेपाल ,श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश किसी ईर्षा -द्वेष के कारण भारत से बैर भाव रखते हों ,किन्तु ब्राजील,आस्ट्रिया,तुर्की और आयरलैंड  जैसे दूर दराज के देश यदि एनएसजी प्रवेश में भारत का रास्ता रोक रहे हैं,तो प्रधानमंत्री मोदीजी को अपनी असफलताओं से कुछ तो सबक सीखना ही चाहिए ! उन्हें यह भी समझना चाहिए कि विपक्ष में रहकर किसी नेता या सरकार की आलोचना करना बहुत आसान है ,किन्तु खुद सत्ता में आते हैं तो  खेल के माप दंड  ही बदल जाते हैं। दूसरे जो काम नहीं कर सके ,यदि वह काम आप खुद  नहीं कर पाते तो बहुत शर्मिंगी महसूस हुआ करते हैं। अब मोदी जी को चाहिए कि कम -से -कम अपने पूर्ववर्ती बयानों का विहंगावलोकन ही कर डालें ! अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की कठिनाइयों को महसूस करें । और यह भी उचित होगा कि वे कृतज्ञभाव से अपने व्यक्तित्व और कृतित्व का परिमार्जन करते हुए कुछ प्रायश्चित भी करें। स्मरण रहे कि वे जिस एनएसजी की मेंबरशिप के लिये बेहद बैचेन हैं उसकी स्थापना से [१९७५] लेकर अब तक भारत की सभी सरकारों ने  इसी  तरह खूब बहुत पापड़ वेले हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले वाले नेताओं ने इतना प्रचार या ढपोरशंख नहीं बजाया।

दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी ,किन्तु भारत की वैश्विक स्थिति अब भी एक मजबूर और गुलाम राष्ट्र जैसी ही है। मोदी जी के प्रयासों का परिणाम है कि देश को उग्र उदारीकरण माँद में धकेल दिया गया है। बावजूद  इसके अभी तक तो चीन-पाकिस्तान ही भारत के आड़े आ रहे थे ,लेकिन अब तो ब्राजील, तुर्की, न्यूजीलैंड और आस्ट्रिया जैसे पुछल्ले देश भी भारत की मुखालफत करने लगे हैं। वे भारत को परमाणु अप्रसार संधि का मतलब समझा रहे  हैं। अर्थात अब भारत की औकात यह है कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे ,दुबे बनकर  वापिस आ गए। भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ताशकंद में शी जिन पिंग के साथ मीटिंग में क्या पाया और भारतीय विदेश सचिव इस जयशंकर ने सियोल में सम्पन्न ताजा एनएसजी की मीटिंग में क्या हासिल किया यही इस विमर्श की वस्तु स्थिति  को  अनुभूत  करेगा ।

 भारत  के नीति -निर्माता  विगत चालीस  साल से प्रयासरत  हैं कि भारत को न केवल एनएसजी में उचित स्थान मिले बल्कि उसकी विशाल आबादी के  मद्देनजर , विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक  देश के नाते ,उसे सुरक्षा परिषद में भी सम्मानजनक स्थान मिले ! किन्तु अभी तक इन दोनों ही मुद्दों पर किसी भी पार्टी की सरकार को कोई भी सफलता नहीं मिली। जिन लोगों की स्मरण शक्ति बेहतर है और जो ऐटॉमिक पॉवर संबंधी अन्तर्राष्टीय मामलों को समझने की कूबत रखते हैं ,वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के ताकतवर समूह 'एनएसजी' याने  'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' की स्थापना ही भारत को नाथने के उद्देश्य से हुई  थी। जो लोग इस विषय में ज्यादा नहीं जानते उन्हें यह जानकर अचरज होगा कि जिस 'एनएसजी' में शामिल होने के लिए श्रीमान मोदी जी सघन प्रयासरत रहे हैं ,बेहद आतुर रहे हैं ,व्याकुल  रहे हैं,उस एनएसजी का गठन १९७५ में भारत को घेरने के मकसद से ही हुआ था। वर्तमान में एनएसजी का महत्व या मकसद चाहे जो हो, किन्तु इसकी स्थापना के वक्त इसका उद्देश्य  भारत जैसे सम्प्रभु - विकासशील देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय परमाणविक नाकेबंदी करने में ही निहित था।  इस विषय में  मोदी सरकार की समझ और नीति पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है कि इस एक वाक्य से प्रतिध्वनित होगी कि 'एनएसजी में शामिल होने के उनके सरोकार क्या हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यूह रचना क्या है ? 

जिस एनएसजी में शामिल होने के लिए मोदी जी दुनिया के तमाम देशों को साधने में जुटे हुए हैं ,जिसमें शामिल होने के लिए मैराथान  वैदेशिक यात्राएँ कर रहे हैं ,जिस एनएसजी की खातिर WTO /WB/IMF  और अमेरिका की शर्तों पर भारत  की अर्थ व्यवस्था को उदारीकरण के दलदल में धकेल रहे हैं, उस एनएसजी में शामिल होने के लिए भारत को पाकिस्तान और चीन ने ही ४० साल से रोक रखा है। वास्तव में इस 'एनएसजी' का गठन भारत को घेरने के लिए  ही हुआ था । और इस स्थिति के लिए कुछ हद तक  भारत  की ढुलमुल  सुरक्षा नीति एवं करप्ट राजनीति भी जिम्मेदार है । जब भारत ने सर्वप्रथम १८ मई १९७४  को पोखरण में अपना पहला परमाणु विस्फोट किया था, तब  भले ही भारत के परमाणु वैज्ञानिकों ने और तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इसकी  सफलता में 'स्माइलिंग बुद्धा ' देखा हो ,किन्तु अमेरिकी -चीनी हथियारों  से लेस पाकपरस्त आतंकियों द्वारा भारत बर्बादी के मंसूबे देखकर तो बुद्ध भी अब केवल इतिहास और दर्शन की किताबो में ही मुस्करा रहे हैं । महात्मा बुद्ध की मुस्कराहट को तो पाक पोषित  तालिबानियों ने तभी छीन लिया था , जब  अफगानिस्तान के बामियान की पहाड़ियों से बुद्ध की विशाल  पुरातन प्रतिमाओं को ध्वस्त कर  दिया गया था। पंचशील ,शांति ,अहिंसा और मानवीय मूल्यों को तभी दक्षिण एसिया से  बेदखल कर दिया गया था  ! इन कारणों से जाहिर है कि भारत -पाकिस्तान,भारत-चीन के आपसी रिस्ते सामान्य नहीं हैं और इनके अंदरूनी हालात बताते हैं  कि बुद्ध के मुस्कराने लायक अभी दक्षिण एसिया में कुछ भी नहीं हैं। इतिहास में भले ही 'बुद्ध मुस्कराते' रहे हों !

१९७१ में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के समय 'सोवियत संघ ' और 'बांगला देश मुक्ति वाहिनी ' के सहयोग से भारतीय फौजों ने  पाकिस्तान के लाखों फौजियों को बंदी बनाया था। तब सोवियत वीटो के सामने असहाय अमेरिका भी बंगाल की खाड़ी  से  अपना सातवां बेडा वापिस ले भागा था। इस महाविजय के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को और ज्यादा गतिमान बनाया। 'अटॉमिक एनर्जी कमीशन 'और भाभा रिसर्च अटॉमिक सेंटर और यूरेनियम सम्वर्धन संसथान को मजबूती प्रदान की। लेकिन भारत को पाकिस्तान पर मिली जीत की ख़ुशी और परमाणविक कार्यक्रम की मुस्कराहट ज्यादा देर नहीं टिक सकी । हालांकि सोवियत संघ [अब रूस] और उसके सहयोगी देशों - 'लेफ्ट खेमें' ने भारत का भरपूर साथ दिया ,किन्तु इन गिने -चुने देशों को छोड़कर भारत की यह सफलता अन्य मुल्कों -अमरीका ,ब्रिटेन,जापान,फ़्रांस ,चीन  को कतई रास नहीं आयी। इन सभी परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों ने भारत पर परमाणविक होड़ का आरोप लगाकर उसे घेरने की कूटनीतिक चाल चली। उन्होंने भारत पर अनेक आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए और  दुनिया में परमाणु प्रसार रोकने का तर्क देते हुए इन  विकसित देशों ने इस अमोघ अस्त्र याने  एनएसजी' का गठन किया ।

एनएसजी के गठन के तुरंत बाद जब १९७५ में इसकी पहली बैठक हुई  तब भारत पर  चौतरफा प्रतिबंध उसकी विषय सूची का प्रथम बिंदु था। शुरुआत में अमेरिका,कनाडा,जर्मनी,ब्रिटेन,फ़्रांस और जापान इत्यादि देश ही इसमें शामिल हुए ,लेकिन बाद में जब भारत ने स्प्ष्टीकरण दिया और अन्तर्राष्टीय कूटनीतिक लाबिंग की तब उसे कुछ रियायत दी गयी। परिणामस्वरूप कुछ अन्य परमाणु प्रसार वाले देश भी एनएसजी की निगरानी में लाये गए. औरतभी सोवियत संघ , चीन और आस्ट्रेलिया इत्यादि देश भी  इस एनएसजी में शामिल हो गए । लेकिन भारत को तब भी सुरक्षा परिषद की तरह ही इस मंच से भी अलग रख गया।

 अमेरिकी समर्थक वैश्विक परमाणु लॉबी के प्रतिबंधात्मक  हमलों ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिराजी को भारत में अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने पर मजबूर कर दिया था । उसी समय सीआईए ने भी भारत में अपना दायरा बढ़ा लिया था । सीआईए के एजेंट भारत की संसद में भी घुस गए। बहुत साल बाद एक अमेरिकी पत्रकार सेमूर हर्ष ने इस रहस्य को उद्घाटित किया था कि अमेरिका की शह  पर इंदिरा गांधी  की सत्ता को चुनौती देने के लिए न केवल भारतीय नेताओं को घूस दी गयी ,बल्कि खालिस्तानियों ,तालिबानियों ,जेहादियों ,ईसाई मिशनरीज और भारत के कुछ हिंदुत्ववादियों को भी ऐन-केन प्रकारेण मदद दी गयी। कुल मिलकर सभी का मकसद एक था 'इंदिरा शासन' से मुक्ति।  सेमूर हर्ष ने यह भी बताया था कि इसमें कौन कौन भारतीय नेता -सीआईए और पेंटागन के एजेंट थे। उसने मोरारजी देसाइ ,जे पी आंदोलन ,जार्ज फर्नाडीज और अन्य कुछ  नेताओं और साम्प्रदायिक संगठनों के नाम भी उजागर किये थे। मोरारजी भाई ने तो पत्रकार सेमूर हर्ष के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दायर किया था , किन्तु मोरारजी यह मुकदमा हार गए। याने सीआईए के एजेंट घोषित होकर इस जहाँ से कूच कर गए ।

१९७१ के भारत - पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान  का समर्थन करने पर अमेरिका ने भी भारत से  बुरी तरह मात खाई थी, उसकी काट के लिए किसिंगर और सीआईए ने भारत में अपने अनगिनत एजेंट बनाये थे।  वे विपक्ष में घुसकर देश में अराजकता  फैलाने लगे और उसी दौरान  इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह फैसला आया ,जिसमें  इंदिराजी का चुनाव ही अवैध घोषित कर दिया गया । हालांकि इंदिराजी ने  सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा जीत लिया ,किन्तु जनता को यह सब रास नहीं आया। आंदोलन उग्र हो उठे। तब सिद्धार्थ शंकर राय ,संजय गांधी जैसे अपरिपक्व लोगों की सलाह पर  इंदिरा जी ने पूरे भारत में आपातकाल  ही लगा दिया । इससे उनकी पाकिस्तान विजय का  शौर्य ,पोखरण परमाणु विस्फोट का  भारतीय स्वाभिमान और अटल बिहारी द्वारा दिया गया सम्मान  'दुर्गा का अवतार' सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया। चुनाव में उनकी हार हुई और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी। याने अमेरिका ने जो चाहा वो भारत में हो गया ।  अमेरिका के समर्थक  नेता और दल भारत की सत्ता में तो आ गए किन्तु लाख कोशिशों के वावजूद  वे अमेरिका से एनएसजी में समर्थन या सुरक्षा परिषद में वीटो पावर नहीं पा सके। दोहरी सदस्य्ता के मुद्दे पर जनता पार्टी के नेता आपस में लड़ बैठे और ढाई साल में ही सत्ता से रुखसत  भी हो गए।  कांग्रेस याने इंदिराजी  फिर सत्ता में आ गयीं।

यह सुविदित है कि पोखरण परमाणु विस्फोट से महज २-३ साल पहले  ही इंदिराजी के ही नेतत्व में भारतीय  फौजों ने तत्कालीन पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले थे. पोखरण परमाणु विस्फोट के कारण भारत के परमाणु शक्ति सम्पन्न हो जाने से, पाकिस्तान की फौज और कठमुल्लों के सीने पर साँप लौटने लगे थे । परिणामस्वरूप सऊदी अरब की खैरात पाकर जनाब जुल्फीकार भुट्टों के नेतत्व में पाकिस्तान के कुख्यात वैज्ञानिकों ने अमेरिका एवं जर्मनी से ततसंबंधी पुर्जे और संवर्धित यूरेनियम चुराकर , चोरी-चपाटी से पाकिस्तान को भी  परमाणु सम्पन्न बना दिया । लेकिन पाकिस्तान ने कभी यह जाहिर नहीं किया। अपनी हेकड़ी दिखाने के लिए १९९८ में एनडीए की अटल सरकार ने  जब पहले [इंदिरा युग के ] से ही तैयार रखे एक-दो परमाणु बम पोखरण में विस्फोट करवा दिए,  तो पाकिस्तान ने भी मौका लपक लिया। उसने  भारतीय  विस्फोट  का बहाना बनाकर  उसके जबाब में आठ-बिस्फोट एक साथ कर डाले। इससे भारत सहित सारी दुनिया चौंक गयी । और  इस तरह दक्षिण एसिया के दो नंगे-भूंखे देश अपने-अपने देशों की अवाम की दयनीय हालात पर गौर फरमाने के बजाय परमाणु बम की होड़ में जुट गए।अब वे एनएसजी के बहाने अमेरिकन साम्राजयवाद के नव उपनिवेश हैं।

अतीत में अमेरिका ने पाकिस्तान को तो भरपूर  आर्थिक मदद दी  है। यह सिलसिला अभी भी जारी है। लेकिन भारत को 'आर्थिक प्रतिबंधों 'की जंजीर में जकडे रखा है । अमेरिका से अड़ंगेबाजी में छूट पाने की कुछ कोशिश अटल जी ने  की थी। उनके बाद जब डॉ मनमोहनसिंह प्रधान मंत्री बने तब अमेरिका द्वारा दिखावे के लिए और अपनी घरेलु आर्थिक मन्दी [२००८] से निजात पाने के लिए भारत को आर्थिक मोर्चे पर कुछ रियायत दी गयी । लेकिन उसमें भी घाटा केवल भारत को ही हुआ। ठीक उसी तरह अब मोदी जी के प्रयासों  को सुअवसर मानकर अमेरिका  दिखावे के लिए  भारत को एनएसजी में समर्थन का कर रहा है  ,किन्तु दूसरी ओर वह  अपने शागिर्द पाकिस्तान को भारत के विरुध्द हर किस्म की इमदाद से लेस कर द्विपक्षीय मामलों को उलझा रहा है. यही वजह है कि  वह तमाम आतंकी घटनाओं में पाक परस्त आतंक को देखकर भी अनदेखी किये जा रहा है। आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका के दोहरे मापदंड। हैं जब उस पर आतंक का अटैक  हुआ तो फैसला खुद कर लिया और पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार दिया। पाक प्रेरित आतंकवाद से भारत लगभग ७० साल से पीड़ित है,भारत को पाक्सितान में घुसने और दाऊद या हाफिज सईद को पकड़कर भारतीय कानून के समक्ष लाने की भी छूट नहीं है। इसके उलट अमेरिका और चीन हर किस्म की इमदाद और छूट दे पाकिस्तान को दे रहे हैं ।हमारे सभी राजनैतिक दल आपस में कुकरहाव करते रहते हैं।

यही वजह है कि अंदर से खोखला हो चुका पाकिस्तान भी भारत की नाक में दम किये जा रहा है। पाकिस्तानी आतंकियों और उसकी बर्बर फौज के शत्रुतापूर्ण तेवर से भारत -पाकिस्तान के मध्य अविश्वास यथावत बरक़रार हैं। उधर चीन भी भारत की हर बात पर ना -नुकर किये जा रहा है। इन हालात में मोदी जी तो क्या  स्वयं विधाता भी  भारत को एनएसजी में शामिल नहीं करा सकते ! फिर भी यदि मोदी जी यह कर पाते हैं तो बाकई वे भारत के लिए ''सौभाग्यशाली '' सावित होंगे !  वैसे भी मोदी सरकार ने अमेरिका को खुश करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। यही कारण है कि विगत अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी कांग्रेस में उनके लिए  ७२ बार तालियाँ पिटीं , और समस्त सीनेटर्स द्वारा नौ बार कोर्निश की गई ! इस से गदगद मोदी जी ने वतन लौटते ही  आनन -फानन खुदरा क्षेत्र में ,कृषि क्षेत्र में  और रक्षा क्षेत्र में सौ फीसदी [१००%] एफडीआई को मंजूरी भी दे दी है। लेकिन इतनी बड़ी क़ुरबानी देने के बाद भी भारत की एनएसजी [न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप ]में यदि प्रवेश की बाधाएं यथावत मौजूद हैं।और यदि पाकिस्तान या चीन के विरोध का बहाना किया जाता है तो १००% FDI  का क्या मतलब ? मोदी जी की सफलता के दावे का क्या अर्थ रह जाता है ?कहीं यह कोरी कूटनीतिक कलाबाजी और जुमलेबाजी तो नहीं है ? 

  मान लो कि मोदी जी एनएसजी की प्रविष्टि के लिए चीन को मना  लेते हैं ।तब  उनके पास पाकिस्तान की चुनौती का तोड़ क्या  है ? नवाज शरीफ की वहाँ चलती नहीं ,सेना ,कठमुल्ले और आतंकी एकजुट होकर भारत की बर्बादी मंसूबे बनाते रहते हैं,अभी अभी  सरताज अजीज ने खुद  ही पाकिस्तान असेम्ब्ली में फरमाया है कि ''हम भारत का एनएसजी में प्रवेश रोकने में कामयाब रहे,इंशाअल्लाह पाकिस्तान को एनएसजी में शामिल किया जाएगा। '' !जनाब सरताज अजीज कोरी गॅप नहीं हाँक रहे हैं ,उन्होंने छोटे-बड़े ५o इस्लामिक देशों को और खास तौर से चीन को अपने पक्ष में पहले ही कर लिया है। अब यह भारतीय नेतत्व की असफलता का ही प्रमाण होगा ,यदि भारत को एनएसजी की मेम्बरशिप से वंचित रखा जाता है ! बड़े अचरज की बात है कि  पाकिस्तान ने परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत  नहीं किये , उसने १००% एफडीआई को भी  मंजूर नहीं  किया ,फिर भी वह एनएसजी का दावा कर रहा है । भारत शतप्रतिशत  एफडीआई खोलने ,किसानों की आजीविका और खुदरा व्यापारियों का बिजनेस  दाँव पर लगाने के बाद भी एनएसजी से कोसों दूर है! यह नकारात्मक और शर्मनाक परिदृश्य न सिर्फ भारत की गरिमा के खिलाफ है अपितु मोदी सरकार की सेहत के लिए भी अच्छा नहीं है ! यदि विश्व मंच पर भारत पाकिस्तान से पिछड़ता तो यह न केवल भारत के लिए दुखद होगा ,बल्कि दक्षिण एशिया के लिए और विश्व शांति  के लिए भी यह वेहद  खतरनाक होगा ! श्रीराम तिवारी  

सोमवार, 20 जून 2016

निन्दक नियरे राखिये ,,,,कह गए दास कबीर ![ A Article by Shriram Tiwari ]

 वेशक  जो व्यक्ति ,संस्था ,समाज या राष्ट्र 'सत्पथगामी ' है ,सर्वजनहिताय - सर्वजन सुखाय का पक्षधर है , ईर्षावश उसकी आलोचना या निंदा करना महापाप है ! किन्तु निहित स्वार्थवश किसी अन्यायी -अत्याचारी व्यक्ति ,बर्बर समाज या दुष्ट राष्ट्र की निंदा -आलोचना से बचना सरासर बेईमानी है। इसी तरह अतीत की  कुछ अवैज्ञानिक और निरर्थक अवधारणाओं का जुआ सनातन काल तक अपने काँधे पर आँख मूंदकर ढोते रहना और मुँह से चीं भी न करना मानसिक   गुलामी की निशानी है। या हद दर्जे की कायराना हरकत है। मान लो कि आप निहायत ही शरीफ और ईमानदार अहिंसक इंसान हैं ,आप विनम्र और दयावान हैं लेकिन  यदि कोई पागल कुत्ता आपको  सरे राह काटने दौड़ता है तो उसे हड़काने में कोई बुराई नहीं। इसी तरह यदि कोई दवंग व्यक्ति ,बर्बर समाज , दुष्ट राष्ट्र किसी अन्य सज्जन व्यक्ति ,सभ्य समाज या अहिंसावादी देश को सताता है ,तो न केवल उसकी आलोचना होनी चाहिए बल्कि उसका प्रतिकार भी 'सठे साठ्यम्' की तर्ज पर होना चाहिए ! चाणक्य और न्यूटन  के नियम  भी यही कहते हैं।  

मानव  स्वभावतः एक सामाजिक प्राणी है। वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चिंतनशील -मननशील रहा है। मनुष्यमात्र की वैचारिक प्रणालियाँ उतनी ही पुरातन हैं जितनी कि  मानवीय सभ्यता और सृष्टि। सुख की कामना लिए हुए , ज्ञात-अज्ञात भय दुःख-क्लेश से बचने की तमन्ना लिए हुए  तथा जिजीविषा को अक्षुण बनाये रखने के मनोरथ लिए हुए, मानव जाति ने समय-समय पर विवेक बुद्धि और अनुभवजन्य ज्ञान को  प्रकृति के नियमों के समानांतर स्थापित कर लिया।   इसी तारतम्य में भाषा विज्ञान की खोज हुई और उसके 'सुसंस्कृत' रूप में मानवीय जीवन के सांसारिक ,आध्यात्मिक और वैज्ञानिक सूत्र निर्धारित किये गए । कालान्तर में अपने इसी उन्नत ज्ञान -विज्ञान के अनुभवों से मनुष्य ने एक ओर तो अन्य प्राणियों पर विजय हासिल की और दूसरी ओर प्राकृतिक की शक्तिओं को काबू करने की जुगत में भी वह जुटा रहा।

मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान का चरम,उसके अथक प्रयासों द्वारा समय-समय पर स्थापित दर्शन,विज्ञान ,कला ,अध्यात्म ,चिकित्सा ,रक्षा और साहित्य के रूप में प्रकट होता रहा। भारतीय उपमहाद्वीप में मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का चरम 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया' के रूप में एवं 'एकम सद विप्रः वहुधा वन्दन्ति' के रूप में -संसार के समक्ष प्रकाशित हुआ । आम तौर पर यह माना जाता है कि पूर्व वैदिक सभ्यता के उदयकाल से लेकर उपनिषद काल तक की  बौद्धिक यात्रा में और तब की ज्ञात दुनिया में केवल आस्तिक दर्शनों -सांख्य,योग,वैशेषिक,न्याय,मीमांसा,और वेदांत का ही इकतरफा बोलवाला रहा होगा।  किन्तु जब तत्वद्रष्टा मनीषियों,आचार्यों और ऋषियों ने 'द्वैत सिद्धांत' पेश किया। बाद में जब ''मुण्डे -मुण्डे-मतिर्भिन्ना ''का सिद्धांत लोकप्रिय हुआ तब भारतीय उपमहाद्वीप में  चार्वाक,जैन,बौद्ध इत्यादि नास्तिक मत अस्तित्व में आये। कालांतर में जब वाद-प्रतिवाद - संवाद तथा कार्य-कारण के सिद्धांत को विज्ञान सम्मत माना गया तब आस्तिक -नास्तिक दर्शन बराबर हो गए। ये सब अपने-अपने ढंग से प्राणी मात्र की  संवेदनाओं ,जागतिक घटनाओं, मानवीय विचारों और जीवन पद्धतियों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे ! जो आस्तिक थे वे आँख मीचकर अपने पूर्वजों के प्रत्येक अक्षर को 'परम सत्य 'मानकर चले ,और जो नास्तिक थे उन्होंने पृकृति -पुरुष ,पदार्थ और चेतना को आलोच्य नजर से देखा। वास्तव में 'आलोचना' शब्द  का जन्म इसी वैज्ञानिक दृष्टि से चीजों को देखने से हुआ है।



सभ्यताओं के उदयकाल से ही अधिकांश सभ्य संसार में 'आलोचना' का क्षेत्र बहुत व्यापक और समृद्ध रहा है। इस आलोचना का अस्तित्व - व्यक्ति बनाम व्यक्ति ,संस्था बनाम संस्था ,राष्ट्र बनाम राष्ट्र और विचार बनाम विचार के रूप में हजारों सालों से दुनिया की तमाम सभ्यताओं में शिद्द्त से मौजूद रहा है। जिन सभ्यताओं में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों - क्षमा,दया,शान्ति,भ्रातत्व,अहिंसा और अपरिग्रह इत्यादि  का बोलवाला  रहा है उनमें शांतिपूर्वक ढंग से शास्त्रार्थ ,वाद-प्रतिवाद और सम्वाद के रूप में वैज्ञानिक तार्किकता एवं सैद्धांतिक समीक्षा के रूप में सकारात्मक  'आलोचना' को सम्मानजनक स्थान प्राप्त रहा है । आधुनिक युग की लोकतांत्रिक दुनिया में इस उत्कृष्ट मानवीय  परम्परा को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार' या विचार की अभिव्यक्ति के अधिकार से जाना जाता  है।

लेकिन जिन सभ्यताओं में मानवीय मूल्यों का  अभाव था वे कबीलाई - बर्बर बहशी समाज और राष्ट्र दुनिया के इतिहास में रक्तरंजित संघर्ष  के लिए सदैव कुख्यात रहे हैं। दुर्भाग्य से उन पशुवत अमानवीय परम्पराओं के  निकृष्ट उत्तराधिकारी अब भी इस धरती क हर हिस्से पर कोहराम मचाने में जुटे हैं। धर्मान्धता से पीड़ित कुछ विवेकहीन लोगों को आधुनिक लोकततंत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी व्यवस्थाओं के उदय और उसके उच्च्तर विज्ञानवादी मूल्य 'आलोचना' से बहुत एलर्जी  है? वे भूल जाते हैं कि  सामन्तयुगीन और मध्ययुगीन दुनिया में भी यह  'आलोचना ' नामक बौद्धिक  परम्परा सिरमौर रही है। वह  न केवल राजनीति में बल्कि भाववादी अथवा अध्यात्मवाद के क्षेत्र में भी विद्वानों की भी हमसफर रही है । हालाँकि अतीत में  एक बहुत बड़ा प्रतिगामी वर्ग हुआ करता था जो  'आलोचना' को परनिंदा की श्रेणी में रखकर उसे अपावन और नकारात्मक  मानता था। भारतीय परम्परा का दकियानूसी घोर संकीर्णतावादी वर्ग इस तार्किक 'आलोचना'  को चार्वाकों ,नास्तिकों ,सांख्यकों ,जैनों -बौद्धों और कबीरपंथियों  का नैतिक बिचलन मानकर उससे परे रहने पर बल देता था। और उसी निस्पृह रहने में  ही अपना आत्म कल्याण या 'मुक्ति' देखता था । इस वर्ग के 'भेड़ चाल वाले'और कूप मण्डूक व्यक्ति या समाज  इस वैज्ञानिक युग में भी बहुतायत से पाये जाते हैं। ये धुर अविवेकी तत्व ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैज्ञानिक 'आलोचना'के परम शत्रु हैं।  

मानव इतिहास में ऐंसा कोई भी धर्म-मजहब ,पंथ ,दर्शन या  विचार नहीं है ,जिसने अपने आपको स्थापित कराने में या ओरों पर थोपने के लिए शक्ति का इस्तेमाल न किया हो ! भारत के वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषियों -मुनियों  ,बौध्दों,जैनों और वैष्णवों में भले ही 'अहिंसा परमो धर्मः' का जाप किया जाता रहा हो, किन्तु उनके कट्टर अनुयायी - संरक्षक शासकों और चक्रवर्ती सम्राटों ने अपने[अ ] धर्म के लिए अपने सहोदर भ्राताओं का खून बहाने में परहेज नहीं किया। भले ही बाद में अनगिनत लाशों को देखने के बाद किसी राजा या सेनापति कोआत्म ग्लानि हो गयी हो और वह अहिंसावादी' हो गया हो ! भारत और यूनान में बहुत सभ्य तरीके से पक्ष-विपक्ष के मध्य ,विद्वान गुरुओं और उनके शिष्यों के मध्य ,प्रश्नोत्तर अथवा शास्त्रार्थ के रूप में आलोचनात्मक मत व्यक्त करने का इतिहास आष्चर्यजनक रूप से बहुत पुराना  है ।किन्तु आलोचना अथवा 'मतखण्डन'को भाववादी पुष्टिवादियों -परम्परावादियों  और स्वार्थी शासकों ने कभी पसंद नहीं किया।

भारतीय संस्कृत,पाली,अपभ्रूंस और द्रविड़ वांग्मय में ,वैदिक मन्त्रों की रचना में  ,श्रुतिओं के आविर्भाव में ,संहिताओं के सम्पादन में ,आरण्यकों की स्थापना और वेदांत दर्शन मीमांसा में ,उपनिषदों के कालजयी  सृजन में तार्किक आलोचनाओं और बौद्धिक विमर्शों का उल्लेखनीय स्थान रहा है। इस कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त  ही उक्त बौद्धिक -आध्यात्मिक सम्पदा का अंतिम प्रकाशन सम्भव हुआ करता था। अष्टावक्र -जनक संवाद,याज्ञवल्क्य -भारद्वाज सम्वाद, शुकदेव-परीक्षित सम्वाद से लेकर आदि शकराचार्य और मंडन मिश्र के संवाद में और सुकरात -प्लेटो -अरस्तु संवाद में वह आलोचनात्मक विमर्श प्रतिध्वनित हो रहा है ,जो आधुनिक विश्व को साहित्यिक आलोचना -प्रत्यालोचना और समालोचना  में वाद-प्रतिवाद और संवाद का अनुशीलन सिखाता है। आधुनिक दौर की लोकतान्त्रिक तौर  तरीके वाली अहिंसक 'आलोचना' की तरह ही  सामन्ती दौर में भी ततकालीन प्रबुद्ध वर्ग - राजनीति ,अर्थशास्त्र और प्रकृति विज्ञान गणित ,चिकित्सा के विषयों को व्यापक जन -आलोचना के उपरान्त ही संहिताबद्द किया करता था! अपवाद हर दौर में रहे हैं जब इंसानी शाब्दिक आलोचना का जबाब तलवार से दिया गया ।  इस अमानवीय बर्बरता  के निशान  दुनिया के हर कोने में ,हर सभ्यता में,हर राजनैतिक व्यवस्था में और हर धर्म-मजहब में अब भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। गनीमत है कि लोकतान्त्रिक राजनीति में 'आलोचना' की 'आलोचना'  सहज स्वीकार्य है। जबकि धर्मान्धता प्रेरित सभ्यताओं के संघर्ष ने ,अधिनायकवादी सर्वसत्तावाद  और हिंसक समाजों ने जायज और वैज्ञानिक आलोचना पर पहरेदार बिठा रखे हैं ।    

विश्व के सम्पूर्ण क्रांतिकारी जन -आन्दोलनों का और  सर्वहारा क्रांतियों का इतिहास हमें सिखाता है कि क्रांतिकारी कतारों में आलोचना का स्वरूप कैसा हो ?इस नजरिए से आलोचना का स्वरूप विज्ञानसम्मत और तार्किक होना  बहुत जरुरी है ! किसी भी व्यक्ति ,विचार,सिद्दांत या घटनाक्रम की आलोचना में यदि न्याय की पक्षधरता और अन्याय की मुख़ालफ़त निहित है तो वह परम  पुनीत कर्म है। किन्तु यदि उसमें 'सत्यमेव जयते ' का मंतव्य  भी शामिल कर लिया जाए तो सोने में सुहागा होगा !  सामाजिक,आर्थिक और दार्शनिक  रूप से सचेत प्रबुद्ध वर्ग के तर्कवादियों को ,प्रगतिशील -रोशनख्याल बुद्धिजीवियों और -विचारकों को उन मजहबी भाववादियों की तरह मिथ्यावादी नहीं होना चाहिये जो धर्मान्धता ,संकीर्णतावाद और अतिशयोक्ति वाद की गटर में आकंठ डूबे हैं।

 शोषण की व्यवस्था को पालने-पोषण वाली पाखंडी - आडंबरी और  धर्मांध -भाववादी भाषा का आलोचनात्मक  तार्किक जबाब  न तो कोरी क्रांतिकारी लफ्फाजी दे सकती है  और न ही  सुई पटक सन्नाटा उसका जबाब हो सकता है । बल्कि जनता की भाषा में उसकी अभिरुचियों के अनुरूप उसके सनातन 'वर्गशत्रु ' की आलोचना प्रस्तुत करते हुए  इस पतनशील व्यवस्था को बदलने की क्रांतिकारी सोच को  अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए।  वैसे भी न्याय की
   
 प्रायः आम सहमति है कि हिंदी साहित्य के ' आलोचना सम्राट ' आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना ,प्रत्यालोचना एवम समालोचना को केवल साहित्य तक ही सीमित रखा है। और  उनके समकालीन या परिवर्ती हिन्दी साहित्यकार एवं 'साहित्य-आलोचक गण' भी केवल भाषाई तूँ -तूँ ,मैँ -मैं  से ही अपनी बौद्धिक जठराग्नि शांत करने में लगे रहे । जबकि अधिकांश गैर हिन्दी भाषी साहित्य -अंग्रेजी ,मलयालम ,बांग्ला ,कन्नड ,मराठी ,तमिल, उर्दू ,पंजाबी में  और विशेष तौर से  'प्रगतिशील धारा के साहित्य' में साहित्य से इतर भी आलोचना ,समालोचना और प्रत्यालोचना को वापरा गया है। वस्तुतः व्यापकरुप से गैर हिन्दी क्षेत्र में तो यथार्थपरक वैज्ञानिक आलोचना और समालोचना को राजनीति ,साइंस,धर्म-मजहब और दर्शन पर सफलतापूर्वक महिमा मण्डित किया गया है। जबकि विगत एक शताब्दी के हिन्दी साहित्य सृजन में और मौजूदा दौर के हिन्दी मीडिया में विशुद्ध 'कलावादी 'अर्थात 'कला -कला  के लिए' आधारित दक्षिणपंथी आलोचनात्मक सामग्री  ही उपलब्ध है।

भूमंडलीकरण ,उदारीकरण और तकनीकी समृद्धिकरण की व्यापक भूमिका ने  अनजाने ही आलोचना ,समालोचना और प्रत्यालोचना  को मानवीय मूल्यों से वंचित करते हुए उसे कोरा नीरस ,अमानवीय और वितण्डावादी बना डाला है। चूँकि साधन सम्पन्न वर्ग को दक्षिणपंथी, यथास्थतिवादी और पूँजीवादी खेमें  का वरद हस्त सहज ही उपलब्ध रहा है ,इसलिए  हर किस्म की अमानवीय आलोचना और अप्रिय अभिव्यक्ति  के प्रति इस एलीट क्लास की अभिरुचियों को संकीर्णता के पंख लग गए। जबकि संघर्षशील शोषित -दमित वर्गों के सचेत प्रगतिशील सृजनहार -बुद्धिजीवी गण हर किस्म की प्रतिगामी अप्रिय स्थितियों के कारण आलोचना-समालोचना और प्रत्यालोचना से विमुख होते चले गए। साहित्य से इतर जन संघर्षों के केंद्रीय विमर्श में वामपंथी चिंतक ,लेखक और कवि अपनी आलोचना को वैज्ञानिक और तार्किक रूप से धारदार बनाने के बजाय वाम संकीर्णतावाद के शिकार होते चले गए।  यही वजह है कि हिन्दी क्षेत्र राजनैतिक क्षितिज पर वे क्रांतिकारी सृजन का परचम फहराने में विफल  रहे।

 दुनिया के किसी भी मुल्क में यदि लोकतान्त्रिक व्यवस्था  है तो उसमें पक्ष--विपक्ष का होना  भी नितांत आवष्यक है। यदि दुनिया का कोई मुल्क भारत जैसा  बहु धर्मी बहु भाषी,बहु विध संस्कृति वाला और वैचारिक बहुलतावादी है तो वहाँ बहुकोणीय द्व्न्दात्मक्ता होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इस हालत में 'अभिव्यक्ति की आजादी' को अक्षुण रखते हुए ,एक दूसरे की स्वस्थ और सार्थक आलोचना तो जायज है ,लेकिन इस दव्न्दात्मकता के बहाने भारत राष्ट्र के सनातन शत्रु वर्ग की अनदेखी करना आत्मघाती गोल सिद्ध होगा।अभिव्यक्ति की आजादी के बरक्स या आलोचना के अधिकार के तहत  भारत को चौतरफा बर्बाद करने में जुटे बाहर -भीतर के मजहबी - आतंकी और सर्वहारा के शोषक वर्ग को खाद पानी देना मुनासिब नहीं है। न केवल राजनीति में अपितु साहित्य  - कला और क्रांति कारी आंदोलनों में  भी 'आलोचना' का स्वरूप वैज्ञानिकता से युक्त और तार्किक होना  चाहिए   -श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 14 जून 2016

इस 'बदलाव' की असल तासीर का अंतिम फैसला तो देश की आवाम ही करेगी !

इलाहाबाद में संगम स्नान के बाद  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपनी पार्टी [भाजपा] की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को ,उसमें शामिल प्रतिनिधिजनों - समर्थक जन समूह को सम्बोधित किया तो वे भावुकता में बहुत कुछ ऐंसा  बोल गए जो उन्हें शोभा नहीं देता। इस तरह की निम्नतर शब्दावली का प्रयोग दुनिया के किसी भी राष्ट्रनेता के मुँह से शायद ही कभी सुना गया हो । उनके इस भाषण का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत है ''मैं उत्तरप्रदेश [बनारस]का सांसद होने के नाते इस प्रदेश का कर्जदार  हूँ ,यहाँ के कर्ज का मोल चुकता करुंगा। विकास के लिए असम की तरह भाजपा की सरकार यहाँ भी लाइए। पांच साल में हम [मोदी सरकार ] उत्तरप्रदेश को देश का सर्वश्रेष्ठ प्रदेश बनाएंगे। यदि इस बीच कोई  नुकसान [काण्ड] हुआ तो आप [यूपी की जनता]लात मारकर मुझे [सत्ता से ]निकाल देना !" प्रस्तुत गद्यांश में कोष्ठक वाले शब्द मोदी जी के नहीं हैं ,वाक्यांश सुगम बनाने के लिए ये शब्द मैंने प्रयुक्त किये हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सवा सौ करोड़ आबादी के प्रधान मंत्री को यह सड़क छाप भाषा शोभनीय नहीं है। किन्तु  मुझे लगता है कि भारत जैसे विराट देश की जनता को तो यही भाषा पसन्द है।  'लात मारकर सत्ता से बाहर करने' की बात कहकर मोदी जी ने किसी को गाली नहीं दी ,बल्कि लोकतंत्र की ताकत का लोहा ही माना है। उन्होंने जनादेश को सम्मान दिया है। उनकी इस वाग्मिता से यह तो तय हो गया कि मोदी जी से लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं।  फासिज्म के कोई संकेत उनके मस्तिष्क में नहीं हैं।  ये बात जुदा है कि भारत के एलीट क्लास को यह भाषा पसन्द नहीं आएगी। किन्तु देश के अधिकांश अशिक्षित ,ग्रामीण और मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के लोग इसी भाषा में जीते मरते हैं। यही वजह है की अनगढ़ बोलू मोदी जी तो सत्ता में हैं और नफासत पसंद अजीम शख्सियत के लोग उनके सामने अभी फिलहाल तो बौने नजर आ रहे हैं।

समझदार लोगों का अभिमत है कि ज्यादा बोलने में  खतरे भी  ज्यादा होते हैं। मोदी जी का स्वभाव है कि वे इस बाचालता के खतरों से खेलते रहे हैं। जब कभी जहाँ -कहीं ,ज्यादा भीड़ दिखी कि वे  पंच -सरपंच या पार्षद स्तर से भी नीचे गली-मोहल्ले के छुटभैये नेताओं की मानिंद , कुछ ऐंसे अल्फाज बोलने लग जाते हैं कि  बाद में उनके विरोधियों को  मोदी जी के बौद्धिक ज्ञान की  किरकिरी करने का भरपूर मौका मिल जाता है। अभी तक तो लोग मोदी जी को केवल अच्छे दिनों के लिए कोस रहे थे ,कालाधन वापसी के लिए व्यंग कर रहे थे ,बिहार में सवा लाख करोड़ न्यौछावर देने के लिए मोदी जी को जुमलेबाज बता रहे थे ,अब ''लात मारकर निकाल देना' जैसे मुहावरे पर सारे संसार के 'मोदी विरोधी' उनका उपहास कर रहे हैं। लेकिन मैं इस मामले में मोदी जी के साथ हूँ ! इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा या 'संघ परिवार' का समर्थन करने जा रहा हूँ। मुझे तो मोदी जी के 'लात मारकर निकाल देना' वाले मुहावरे  में कोई गलत बात नहीं दिखती। बल्कि उनके श्री मुख्य से देश की बहुमत जनता की संवेदनात्मक अनुगूंज  ही सुनाई पड़ रही है। उन्होंने तो लोक भाषा याने विशुद्ध हिन्दी  के मृतप्राय मुहावरे को जीवनदान दिया है। किसी को नहीं भूलना चाहिए कि इसी भाषा के प्रयोग की ताकत से ही मोदी जी 'एक मामूली चायवाले' से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधान मंत्री बने हैं। वस्तुतः यही  मोदी जी की वास्तविक शख्सियत भी  है। वेशक मोदी जी  कोई बहुत बड़े काइयाँ किस्म के इंटलेक्चुवल्स नहीं हैं ,किन्तु निसंदेह वे बहुत विनम्र हैं। मोदी जी ने सहज स्वभाववश , कृतज्ञता वश यूपी की जनता को उसी की भाषा में 'कोई नुक्सान' नहीं होने देने का बचन दिया है। बचन भंग होने की दशा में वे जनता की लात खाने [चुनावी हार] याने  सत्ता से बाहर होने ने को तैयार हैं।

चूँकि यूपी विधान सभा चुनाव में मोदी जी की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है ,वे अभी-अभी पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में असम के अलावा कहीं भी सफल  नहीं हो सके हैं ,इसलिए यूपी का चुनावी रणांगण उन्हें वीरोचित उत्साह के लिए ललकार रहा है। चूँकि यूपी की जनता पर जातिवाद और साम्प्रदायिकता की  राजनीति हावी है ,इसलिए इस माया -मुलायम -मोहजाल से यूपी की जनता को बाहर निकालना बहुत जरुरी है। चूँकि कांग्रेस अभी भी अस्त-व्यस्त और पस्त है और यूपी में वामपंथ को माया -मुलायम ने आगे बढ़ने से रोक  रखा है। इसलिए वामपंथ को अभी तो वहाँ बहुत लंबा संघर्ष और इंतज़ार करना ही  होगा। लेकिन तब तक यूपी की जनता परिवर्तन का इंतजार नहीं कर सकती। उसे यदि विकल्प में भाजपा उपलब्ध है ,मोदी जैसा 'बनारसी बाबू' वाली छवि का नेता यूपी की जनता से लात खाने को भी तैयार है तो यूपी में मोदी के विजय रथ को कोई कैसे रोक सकता है ? 

हालांकि मोदी जी को अति बाचालता के खतरे से अवश्य बचना चाहिए। उन्हें अपनी दो साल की या पांच साल की उपलब्धियों का ज्यादा बखान नहीं करना चाहिए। वैसे भी नियमानुसार किसी भी जन निर्वाचित लोकप्रिय सरकार के लिए  संवैधानिक रूप से पांच साल का कार्यकाल उपलब्ध है। अतएव उसे अपना 'राजधर्म' भूलकर ,अनावश्यक वितण्डावाद में नहीं पड़ना चाहिए ! उसे अपनी नीति -रीति और उपलब्धियों का रोज-रोज बखान करने की भी जरूरत नहीं है ।  किसी भी बेहतरीन सरकार के लिए, उसके द्वारा पांच साल काम कर चुकने के बाद, इसकी उसे  जरूरत भी नहीं पड़ेगी,कि वह जनता के बीच अपनी आभासी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने में  कीमती वक्त जाया करे और जनता का अरबों रुपया भी बर्बाद करे ! चूँकि  'पब्लिक सब जानती है'!अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा तो वे  ही पीटते हैं ,जिन्हे खुद पर भरोसा नहीं  हो। और अपने साथियों के सत्ता संचालन पर शक -सुबहा हो । जन असंतोष की आशंका उन्ही को हुआ करती है ,जिन्हे अपने राजनैतिक दर्प  'रणकौशल ' पर भरोसा नहीं हो। प्रचार की जरुरत उन्ही को है जो सत्ता मिल जाने के बाद  तथाकथित जुमलों के ढपोरशंख ही बजाते रहे हों ! जो जनता को झूंठे चुनावी - वादों भाषणों ,जुमलों तथा शिलान्यासों में भरमाते  रहे हैं । जब कोई राजनेता या पार्टी आम जनता को बार-बार अपनी उपलब्धियां गिनाए , प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक तथा सोशल मीडिया पर धुआँधार  प्रचार करे कि -जो कुछ किया हमने किया ,जो नहीं हो सका उसके लिए विपक्ष जिम्मेदार है। और सारे गुनाहों के लिए पूर्ववर्ती सरकारें ही  जिम्मेदार हैं। हमें तो अभी दो साल ही हुए हैं ,अतः हे मूढ़मति मतदाता बंधुओं -हमें  लात मारकर सत्ता से मत उखाड़ फेंकना। क्योंकि  'हमसे बढ़कर  दूसरा  कोई नहीं '! इस तरह  की सोच वाले  अहंकारी -पाखंडी नेता और पूँजीवादी दल अपराध बोध से पीड़ित हुआ करते हैं !इस तरह की आत्मभक्ति जैसी हरकतों पर  'चोर की दाड़ी में तिनका' वाली कहावत चरितार्थ हुआ करती है। 

 केंद्र में वर्तमान एनडीए  सरकार के दो साल पूरे होने पर इन दिनों एक जुमला ,इलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट  और सोशल मीडिया पर पूरी आक्रामकता के साथ प्रचारित किया जा रहा है कि ''मेरा देश बदल रहा है ,,,"! यद्द्पि इस तरह के नीरस नारों  में छन्द शास्त्र की  काव्यात्मकता और  कलात्मकता नदारद है। आवष्यक तुकबन्दी और 'विचार' का ही  नितांत अभाव है। भाजपाइयों की यह दिक्क्त है कि कला ,साहित्य,संगीत,और  वैज्ञानिकता से उन्हें एलर्जी है। वरना इतने साथी जुमले -नारे पेश करने से तो बाज आते ! फिर भी मान लेते हैं कि 'मेरा देश बदल रहा है ' वाले जुमले में कुछ खास बात है। यह खासियत 'बदल रहा' क्रिया के व्यापक अर्थ में ही है। चुँकि किसी भी चीज में बदलाव दो प्रकार का हो सकता है, एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। 'मेरा देश बदल रहा है ' इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि देश बदल रहा है। देश के प्रधान मंत्री बदल गए ,वित्त मंत्री बदल गए , मंदिर निर्माण -धारा -३७० ,समान सिविल कोड और आरक्षण में युक्तियुक्तकरण के नारे बदल गए ! और इसीलिये  कुछ लोगों के भाग खुल गए और कुछ के नसीब बदल गए !

बदलाव तो निरंतर हो रहा है,दिख भी रहा है। लेकिन नकारात्मक बदलाव हो रहा है या सकारात्मक -यह फैसला स्वयं सत्ता के स्टेक होल्डर्स नहीं कर सकते। यह स्वाभाविक है कि  सत्ता में बैठे नेताओं को और उनके पिछलग्गुओं को देश में केवल सकारात्मक बदलाव ही नजर आ रहा है। जबकि विपक्ष को और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को विनाशकारी बदलाव ही दिखाई दे रहा है ! मुझे तो दोनों किस्म के बदलाव दिख रहे हैं। लगता है कुछ तो अच्छा हो रहा है , और वेशक बुरा कुछ ज्यादा ही हो रहा है। लेकिन इस 'बदलाव' की असल तासीर का अंतिम फैसला तो पांच साल बाद ही होगा और वह देश की जनता ही करेगी !अतएव तब तक केंद्र -राज्यों की सरकारों को केवल और केवल अपने 'राजधर्म'का पालन करना चाहिए और रोज-रोज काल्पनिक सफलताओं के जुमले पेश करने से बाज आना चाहिए !

अच्छे दिन आये हैं या नहीं ,मेरा देश बदल रहा है या नहीं ,यह आगामी २०१९ के लोक सभा चुनाव में ही पता चलेगा।  तब यह भी पता चलेगा कि यदि 'अचे दिन आये हैं ' तो किसके ? और मेरा देश बदल रहा है ' तो उसका लाभ किसे हो रहा है ? स्वाभाविक है कि  जिन्हे लाभ हो रहा है ,उनके अच्छे दिन आये हैं। जिनका काम धंधा चौपट हुआ ,जिनकी खेती-बड़ी बर्बाद हुई , जिनके पास रोजगार नहीं ,मकान नहीं ,पानी -बिजली नहीं ,शिक्षा -स्वास्थ्य नहीं और जिन्हे  ठेकेदारी गुलाम पृथा ने  दयनीय स्थिति में धकेल दिया है ,काम के घंटे बढ़ा दिए ,मजूरी घटा दी और प्राकृतिक आपदाओं के कारण जो घोर कष्ट मय जीवन जी  रहे हैं ,उनके 'मन की बात ' भी खुलनी चाहिए कि उनके कैसे दिन आये हैं ?सत्ता पक्ष को शायद जनता की विवेकशीलता पर भरोसा नहीं ,इसलिए 'राज-काज' छोड़कर रोज -रोज उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटे जा रहे हैं। यदि आप कर्मठ हैं ,आप महान  उद्धारक हैं ,तो डर  किस बात का ,जनता पर यकीन कीजिये ,उसे ही तय करने दीजिये कि  आपका सच क्या है ? और जनता का सच क्या है ?

२००४ में जब केंद्र में अटल  बिहारी सरकार थी तब भी इसी तर्ज पर ''शाइनिंग इंडिया' और फीलगुड जैसे जुमले उछाले गए थे। लेकिन आम चुनाव में देश की जनता ने भाजपा और एनडीए गठबंधन की सरकार को सत्ता से खदेड़कर यूपीए की  मनमोहन सरकार को सत्ता सौंप दी थी। जनता ने 'पी एम इन वेटिंग' श्री आडवाणी जी  को और भाजपा नेताओं को सूचित किया  था कि  'न तो उन्हें फीलगुड हो रहा है और न ही उन्हें 'इण्डिया शाइनिंग ' दिख रहा है।'बहुत सम्भव है कि आगामी लोक सभा चुनाव -२०१९ में भी भारत की जनता का बहुमत कुछ ऐंसा ही बदलाव कर डाले। राजनीति में बहुत कुछ सम्भव है। और वैसे भी मोदी जी का आभामंडल अटल बिहारी बाजपेई के समक्ष कितना बौना है यह बताने की जरूरत  किसी को नहीं।

'मेरा देश बदल रहा है ' यह जताने की वैसे भी जरुरत नहीं ,क्योंकि राजनैतिक क्षितिज में  बहुत बड़ा बदलाव तो मई-२०१४ में ही हो चुका था। जब बदनाम यूपीए सरकार को उखाड़कर  देश की जनता ने  मोदी सरकार को सत्ता सौंप दी। लेकिन जिस बदलाव का वादा सत्ता में आने के लिए एनडीए द्वारा किया गया था ,उस बदलाव का अनुभव शायद जनता को नहीं हो रहा है। इसीलिये मोदी सरकार ने यह फैसला लिया है कि  देश और दुनिया में हर इंसान को झिंझोड़कर बताया जाए कि  'मेरा देश बदल रहा है !

देश अर्थात परिवर्तन तो इस ज्ञात बृह्माण्ड का शास्वत और अटल सिद्धांत है। किन्तु यह बदलाव चाहे नैसर्गिक हो या मानवीय ,वह किसी एक नेता या पार्टी का मुँहताज नहीं है। मुर्गा बाँग दे या न दे , भोर का तारा  उदित हो न हो ,लेकिन सुबह तो होकर रहेगी ! कोई चाहे या न चाहे ,ये धरती ,चाँद -तारे ,ये सूरज यहाँ तक कि ये बृह्माण्ड भी प्रतिपल बदल  रहे हैं । दुनिया का हर मुल्क ,हर महासागर ,हरेक वन -पर्वत ,नदियां  बदल रहीं हैं। जाहिर है कि सभ्यताएं -संस्कृतियाँ भी बदल रहीं हैं। और कोई चाहे न चाहे हर इंसान ,हर चेतन-अचेतन तत्व नित्य ही  बदल रहा है।  श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 9 जून 2016

भृष्ट नेताओं की औकात नहीं कि 'फिदायीन'का मुकाबला कर सकें।

 यकीनन मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर देश के अच्छे दिन आये हैं। जिन्हें यकीन न हो वो अमेरिकन सीनेटर्स से पूंछ तांछ कर तसल्ली कर लें। जिसे अच्छे दिनों  के आगाज पर एतबार न हो उसे मालूम हो कि अभी -अभी अमेरिकी कांग्रेस मे मोदी जी के भाषण पर ७२ बार तालियाँ बजाई गई ! और ९ बार सभी सीनेटर्स ने खड़े होकर भारतीय प्रधान मंत्री का तहेदिल से इस्तकबाल किया ! बकौल मोदी जी ''भारतीय अर्थव्यवस्था कुलाँचे  भरते हुए आसमान छूने वाली है,,,हम [भारत +अमेरिका] मिलकर आतंकवाद से लड़ेंगे !,,'आतंकवाद को पालने -पोषण वाले ही हमें शान्ति का पाठ पढ़ाते हैं' ,,वगैरह ,,वगैरह  !

कोई माने या न माने मैं  तो मोदी जी के अधिकांश भाषण से मैं गदगद  हूँ। सिर्फ उनके एक वाक्य से सहमत नहीं हूँ कि ''भारतीय अर्थ व्यवस्था उछाल पर है और हमारा विदेशी मुद्रा भण्डार लबालब है।''मैं यदि मैं  मोदी जी की इस सूचना से सहमत  होता हूँ तो 'रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को भी इस उपलब्धि का श्रेय देना पड़ेगा। चूँकि सुब्रमण्य स्वामी जैसा महानतम विद्वान जब रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन को 'नालायक'कह चुका है ,तो मेरी औकात नहीं कि मैं योगियों ,स्वामियों.बाबाओं -शंकराचार्यों  की किसी बात का खंडन कर सकूँ। ये बात जुदा है कि प्रकारांतर से मोदी जी ने रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन की  बौद्धिक क्षमता का लोहा को मान लिया है! किन्तु कोणार्क सूर्य मंदिर की मूर्तियों को दो हजार साल पुरानी बताकर मोदी जी ने अपनी  जग हँसाई करा ली है । और तत् विषयक उनकी अज्ञानता पर विश्व पुरातत्ववेत्ताओं ने मोदी जी की जो हंसी उड़ाई है वो मुझे बहुत खल रही है। काश   मोदी जी की टीम में कोई एक- आध पड़ा लिखा प्रगतिशील धर्मनिपेक्ष बुद्धिजीवी भी होता !

अमेरिकी सीनेटर्स के मिजाज और भारतीय कार्पोरेट्स परस्त मीडिया द्वारा स्थापित छवि से भारत के मध्यम वर्गीय  हिन्दुओं को तो बहरहाल यह अनुभूति करनी चाहिए कि वह सुखमय जीवन यापन कर रही है। भारत की पैटी बुर्जुवा आवाम सुख-चैन से सो रही है। फ़िक्र सिर्फ इतनी है कि जब देश की अवाम के अच्छे दिन आये हैं तो भाजपा वाले अपनी दो साल की उपलब्धियों को लेकर ढपोरशंख क्यों बजा रहे हैं ? झांझ -मँजीरा  बजा -बजाकर सुखी और सम्पन्न जनता की नींद हराम क्यों कर रहे हैं ?मोदी जी की प्रेरणा से  पूँजी  नियंत्रित मीडिया और उसके भाट -चारण दरवारी गण देश भर में उपलब्धियों का उदयगान क्यों गा रहे हैं ? अच्छे दिनों के आगाज रुपी सूरज को  चुनावी प्रचार का दिया क्यों दिखा रहे हैं ? क्या सरकार और उसके पालतू मीडिया को खुद अपने ही उस सर्वे पर भरोसा नहीं ,जिसमें बताया गया  है कि देश की ६८% जनता मोदी सरकार के कामकाज से खुश है। इसका मतलब यह भी है कि देश के ६८ % लोग तो मानते ही हैं कि उनके अच्छे दिन आये हैं !याने जनता खुद मान रही है कि 'दुःख भरे दिन बीते रे भैया ,,अब सुख आयो रे ,,,,,!देश बदल रहा है ,,,और अच्छे दिन आये हैं !

मेरे मित्रों,परिचितों और शुभचिंतकों में कुछ आध्यात्मिक किस्म के भाववादी उच्च शिक्षित प्राणी भी हैं ,वे हमेशा 'संतोषं  परम सुखं'का मन्त्र जाप करते रहते हैं। उनका कहना है कि  हमें दुनिया की फ़िक्र में दुबले नहीं होना चाहिए। उनके मतानुसार कार्य कारण का सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति के कर्म और सुख-दुःख तय करता है। उनके मतानुसार विचार अनुभूति बनाम अवचेतन मन की शक्ति के संकेंद्रण तथा मन की सकारात्मकता पर जोर देकर हम बड़ी से बड़ी उपलब्धि  वैयक्तिक तौर से भी हासिल कर सकते हैं. और दैहिक-दैविक -भौतिक दुखों से छुटकारा पा सकते हैं। ये अध्यात्मवाद के प्रचण्ड तत्ववेत्ता और आत्मतत्व के  महाज्ञानी  विद्वान लोग मोदी सरकार की आलोचना पसंद नहीं करते। सरकार की प्रतिगामी पॉलिसी या विनाशकारी प्रोग्राम से उनका कोई वास्ता नहीं। वे तो केवल साक्षी भाव  से तमाम कोलाहल ,तमाम जागतिक व्यवहार से परे अपनी अतीन्द्रिय शक्ति के काल्पनिक छलावे में मग्न हैं । उनका कहना है कि गरीबी-अमीरी,अच्छे -बुरे दिन ये सब मानव मन की 'विचार तरंगों' की आवृत्ति का विकार  मात्र है। यह तो व्यक्ति की सोच पर निर्भर  है कि वह क्या देखना चाहता है ? एक उद्भट विद्वान का तो यह भी कहना है कि सरकार या शासन की आलोचना करने से 'नकारात्मक ऊर्जा' का उत्सृजन होता है ,जिससे मनुष्य शारीरिक, मानसिक और सांसारिक व्याधियों का शिकार  भी हो जाया करता है।

 उपरोक्त 'तत्वज्ञान' का लब्बोलुआब यह है कि तमाम 'नकली राष्ट्रवादी सत्तारूढ़ नेता सुखासन में बैठकर अपनी आँख मीच लें ! वे देश की आवाम के दुखों-कष्टों को भूल जाएँ। राष्ट्र पर छाये संकट से  निष्पृह हो जाएँ। यदि कोई सीमाओं पर तैनात है तो उसे देश को राम भरोसे छोड़कर  'योगनिद्रा' में लीन रहने के लिखित आदेश दिए जाएँ !देश में यदि अफसर -बाबू और दल्ले लोग रिश्वत की कमाई से गुलछर्रे उड़ा रहे हों ,तो इसे मोहमाया समझकर आप भूल जाएँ। आपके  देश में या समस्त भूमण्डल पर क्या हो रहा है ,इससे आपको कुछ लेना -देना  नहीं है। सीमाओं पर दुश्मन घात लगाए बैठाहै ,उसे बुरा स्वप्न समझकर भूल जाएँ। पाकिस्तानपरस्त आतंकियों की काली करतूतको  भगवान  भरोसे छोड़कर आपको 'निर्विचार' हो जानाहै। यदि देशका युवा वर्ग ,देशका बहुजन समाज-और मेहनतकश लोग वास्तविक जन संघर्षों में यकीन न करके आतंकवाद,फासिज्म ,मक्कारी और आपराधिक प्रवृति की नाली में कूंदें तो मत रोको उन्हें अपनी मौत मरने दो। आप तो  अपने नासिका रंध्र से गहरी सांस लेकर भ्रामरी या भस्त्रिका प्राणायाम करते हुए अपने 'अष्टचक्र 'का सन्धान करें। अपने अवचेतन मन की शक्ति कोसुप्त रखें और मानसिक 'सुगंध' महसूस कराते रहें। आप  फीलगुड महसूस करें कि 'अच्छे दिन आये हैं'यह  सुदर्शन क्रियादिन में तीन बार करें। यही विपष्यना है ,यही ध्यान-धारणा और समाधि है। इस  क्रियायोग को निरंतर करते हुए आप अपने मनोमय कोष में ''अच्छे दिनों 'का एहसास कीजिये !  इसी तन्द्रा में रहकर आप अपने तमाम दुखों को मनोमय कोष से बाहर कीजिये। अपने आपको आनंदमय कोष में ले जाइये । इसी में आपका कल्याण है।

भले ही देश की सीमाओं पर फौजियों को ही जिन्दा जलाया जा रहा हो,भले ही मानव स्वास्थ्य सेवाओं के बरक्स हमारे देश की दयनीय स्थिति -विश्व सूची में १४९ वें स्थान हो। भले ही भारतमें चारों ओर हाहाकार मचा हो सूखा -पड़ा हो ,मेंहँगाई -बेकारी हो ,हत्या बलात्कार या व्यापम हो ,कालाधन हो ,शिक्षा-स्वास्थ्य  सेवाओं में भृष्टाचार हो, यह सब देशके बदमाश बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील जनताकी 'नकारात्मक सोच' है। देशमें नकली मुद्रा चलाने वाले ,धर्म-मजहबके बहाने देशमें दंगे कराने वाले तथा चुनावमें जीतनेके लिए जनताको जातिवाद -सम्प्रदायवाद के खूंटे से बाँधने वाले भृष्ट नेताओं की औकात नहीं कि 'फिदायीन'का मुकाबला कर सकें।

जो लोग दुश्मन से लड़ नहीं सकते उनसे निवेदन है कि कमसे कम सीमाओं पर चोकसी तो ठीक से करें ताकि दुश्मन बिना बाधा के अंदर न आ सकेँ। यदि आ भी जाए तो ''राष्ट्रवादियों'को तो बताओ ताकि वक्त रहते वे कुछ  नहीं तो कमसेकम  हनुमान चालीसा अवश्य पढ़ना ही शुरूं कर दें!  कोई यज्ञ-वग्य शुरूं कर दें ताकि दुश्मन उस यज्ञ के  धुएँ से ही डर जाए। हालाँकि रियो ओलम्पिक में मेडल के लिए भारत में कई जगह यज्ञ किये गए किन्तु बात बनी नहीं। लेकिन कश्मीर के पत्थरबाजों को शान्त करने के लिए,पाकिस्तान को 'माँजने 'के लिए यह सब टोटके काम नहीं आयँगे। उसके लिए तो विराट 'नरमेध'यज्ञ ही अंतिम विकल्प है । जो इससे सहमत नहीं उससे निवेदन है कि जनाब आप - 'संतोषम परम सुखं' महसूस कीजिये ! क्योंकि अच्छे दिन आये हैं !  श्रीराम तिवारी !

रविवार, 5 जून 2016

सीडीएमए सिम बंद होने से डब्बा हो रहे हैं रिलायंस मोबाइल, 4 जी के लिये नये मोबाइल खरीदने पर ग्राहकों का डबल नुकसान 4 जी नेट की तकनीक लेकर आ रहे रिलायंस कम्यूनिकेशन ने मोबाइल मार्केट में हलचल मचा रखी है लेकिन उससे भी ज्यादा परेशान उसके वे ग्राहक हो रहे हैं जो अभी तक रिलायंस सीडीएमए सेवा का उपयोग कर रहे थे । कम्पनी अपने 50 लाख से ज्यादा सीडीएमए ग्राहकों की सिम को 4 जी में अपग्रेड कर रही है । इसके चलते इसके ग्राहकों को जहाँ नया मोबायल खरीदना पड़ रहा है वहीं उनके पुराने सीडीएमए मोबाइल डब्बों में तब्दील हो रहे हैं । इन मोबाइल में कोई भी जीएसएम सिम प्रयोग में नहीं लायी सकती है । ग्राहकों के सामने दूसरी कम्पनियों की सीडीएमए सेवा उपयोग के भी ज्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं । अभी टाटा इंडिकाॅम, एमटीएस के साथ कहीं-कहीं बीएसएनएल, एमटीएनएल ही सीडीएमए सेवा दे रहे हैं, इनमें भी जल्द ही इस सेवा के बंद होने के आसार हैं। बाकि रिलायंस के बहुत सारे मोबाइल में केवल रिलायंस की ही सिम प्रयोग में लायी जा सकती है । एैसे में सीडीएमए सिम आॅपरेट कर रहे यह रिलायंस मोबाइल केवल ई-कचरा बनकर रह जायें तो कोई आश्चर्य नहीं है । कम्पनी ने नहीं किया किसी योजना का खुलासा- रिलायंस ने सीडीएमए सेवा बंद करने के चलते बेकार हुये मोबाइल सेट्स को लेकर अभी किसी योजना का खुलासा नहीं किया है । फिलहाल इसमें ग्राहकों का भारी नुकसान हो रहा है । उन्हें ना चाहते हुये भी दूसरा जीएसएम मोबाइल खरीदना पड़ रहा है । अपुष्ट सूत्रों का कहना है कि कम्पनी किसी एैक्सचैंज आॅफर के तहत अपने सीडीएमए मोबाइल को लेकर अपने ग्राहकों को राहत दे सकती है । बीएसएनएल ने बदले हैं अपने सीडीएमए सेट्स हाॅल ही में झारखण्ड में बीएसएनएल ने अपनी सीडीएमए सेवा बंद करने से पहले अपने ग्राहकों के मोबाइल फोन मुफ्त में बदलकर दिये हैं । जानकारों का कहना है कि इन बेकार सेटों का उचित प्रकार से नष्ट होना पर्यावरण हित में जरूरी है । प्रयोग में ना आने के चलते यह ई-प्रदूषण बढ़ाने में सहायक होगें । कम्पनी ही इनका उचित निपटान कर सकती है । उपभोक्ता पूछ रहे हैं पुराने फोन का क्या करें ? एक बैवसाईट पर रिलायंस सेवा के बारे में लिखी अपनी पीड़ा में मुंबई के एक कस्टमर ने कहा कि रिलायंस के अपने बेसिक फोन पर भी सीडीएमए सेवा बंद करने से उसका फोन डिब्बा बन गया है । कम्पनी 1800 रूपये में नया फोन दे रही है अब वह इस फोन का क्या करे । उसके नुकसान की भरपाई कौन करेगा । एक उपभोक्ता का प्रश्न था कि किसी सेवा को बन्द करने के चलते relianceहोने वाली असुविधा व नुकसान के लिये क्या कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं है । हमने केवल रिलायंस के लिये छः माह पहले महंगा एचसीटी का सीडीएम मोबायल सेट खरीदा है अब यह सिम बंद होने से वह कूड़ा बन जायेगा । एैसे में इस फोन का क्या करें । ई-कचरे से बचना जरूरी- संयुक्त राष्ट की संस्था ग्लोबल ई-वेस्ट माॅनीटर 2014 के अनुसार भारत ई-कचरा पैदा करने वाला विश्व में पाँचवा सबसे बड़ा देश है । 2015 के आकड़ों के अनुसार भारत में इलैक्ट्रानिक्स एवं इलैक्ट्रीकल्स आदि का 17 लाख टन ई-कचरा निकला था । इसमें 5 प्रतिशत कम्पयूटर उपकरण एवं मोबाइल आदि का ई-कचरा शामिल था । रिलायंस के माजूदा कनैक्शन ग्राहक संख्या 11 करोड़ के करीब है । उसमें सबसे पुराने जुड़े हुये सीडीएमए ग्राहक 50 लाख से ज्यादा हैं । एैसे में 50 लाख से ज्यादा मोबायल सैट ई-कचरा बन जायगें । उचित निपटान ना होने से यह पर्यावरण के लिये नुकसानदेय साबित हो सकते हैं । गौरतलब है कि इनमें सिलीकॉन, केडमियम, सीसा, क्रोमियम, पारा व निकल जैसी भारी धातुओं का उपयोग किया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरण में असावधानी व लापरवाही से इस कचरे को फेंका जाता है, तो इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं। इनके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित होते हैं। कैंसर, तंत्रिका व स्नायु तंत्र पर भी असर हो सकता है।


4 जी नेट की तकनीक लेकर आ रहे रिलायंस कम्यूनिकेशन ने मोबाइल मार्केट में हलचल मचा रखी है लेकिन उससे भी ज्यादा परेशान उसके वे ग्राहक हो रहे हैं जो अभी तक रिलायंस सीडीएमए सेवा का उपयोग कर रहे थे । कम्पनी अपने 50 लाख से ज्यादा सीडीएमए ग्राहकों की सिम को 4 जी में अपग्रेड कर रही है । इसके चलते इसके ग्राहकों को जहाँ नया मोबायल खरीदना पड़ रहा है वहीं उनके पुराने सीडीएमए मोबाइल डब्बों में तब्दील हो रहे हैं । इन मोबाइल में कोई भी जीएसएम सिम प्रयोग में नहीं लायी सकती है । ग्राहकों के सामने दूसरी कम्पनियों की सीडीएमए सेवा उपयोग के भी ज्यादा विकल्प मौजूद नहीं हैं । अभी टाटा इंडिकाॅम, एमटीएस के साथ कहीं-कहीं बीएसएनएल, एमटीएनएल ही सीडीएमए सेवा दे रहे हैं, इनमें भी जल्द ही इस सेवा के बंद होने के आसार हैं। बाकि रिलायंस के बहुत सारे मोबाइल में केवल रिलायंस की ही सिम प्रयोग में लायी जा सकती है । एैसे में सीडीएमए सिम आॅपरेट कर रहे यह रिलायंस मोबाइल केवल ई-कचरा बनकर रह जायें तो कोई आश्चर्य नहीं है ।
कम्पनी ने नहीं किया किसी योजना का खुलासा-
रिलायंस ने सीडीएमए सेवा बंद करने के चलते बेकार हुये मोबाइल सेट्स को लेकर अभी किसी योजना का खुलासा नहीं किया है । फिलहाल इसमें ग्राहकों का भारी नुकसान हो रहा है । उन्हें ना चाहते हुये भी दूसरा जीएसएम मोबाइल खरीदना पड़ रहा है । अपुष्ट सूत्रों का कहना है कि कम्पनी किसी एैक्सचैंज आॅफर के तहत अपने सीडीएमए मोबाइल को लेकर अपने ग्राहकों को राहत दे सकती है ।
बीएसएनएल ने बदले हैं अपने सीडीएमए सेट्स
हाॅल ही में झारखण्ड में बीएसएनएल ने अपनी सीडीएमए सेवा बंद करने से पहले अपने ग्राहकों के मोबाइल फोन मुफ्त में बदलकर दिये हैं । जानकारों का कहना है कि इन बेकार सेटों का उचित प्रकार से नष्ट होना पर्यावरण हित में जरूरी है । प्रयोग में ना आने के चलते यह ई-प्रदूषण बढ़ाने में सहायक होगें । कम्पनी ही इनका उचित निपटान कर सकती है ।
उपभोक्ता पूछ रहे हैं पुराने फोन का क्या करें ?
एक बैवसाईट पर रिलायंस सेवा के बारे में लिखी अपनी पीड़ा में मुंबई के एक कस्टमर ने कहा कि रिलायंस के अपने बेसिक फोन पर भी सीडीएमए सेवा बंद करने से उसका फोन डिब्बा बन गया है । कम्पनी 1800 रूपये में नया फोन दे रही है अब वह इस फोन का क्या करे । उसके नुकसान की भरपाई कौन करेगा । एक उपभोक्ता का प्रश्न था कि किसी सेवा को बन्द करने के चलते relianceहोने वाली असुविधा व नुकसान के लिये क्या कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं है । हमने केवल रिलायंस के लिये छः माह पहले महंगा एचसीटी का सीडीएम मोबायल सेट खरीदा है अब यह सिम बंद होने से वह कूड़ा बन जायेगा । एैसे में इस फोन का क्या करें ।
ई-कचरे से बचना जरूरी-
संयुक्त राष्ट की संस्था ग्लोबल ई-वेस्ट माॅनीटर 2014 के अनुसार भारत ई-कचरा पैदा करने वाला विश्व में पाँचवा सबसे बड़ा देश है । 2015 के आकड़ों के अनुसार भारत में इलैक्ट्रानिक्स एवं इलैक्ट्रीकल्स आदि का 17 लाख टन ई-कचरा निकला था । इसमें 5 प्रतिशत कम्पयूटर उपकरण एवं मोबाइल आदि का ई-कचरा शामिल था ।
रिलायंस के माजूदा कनैक्शन ग्राहक संख्या 11 करोड़ के करीब है । उसमें सबसे पुराने जुड़े हुये सीडीएमए ग्राहक 50 लाख से ज्यादा हैं । एैसे में 50 लाख से ज्यादा मोबायल सैट ई-कचरा बन जायगें । उचित निपटान ना होने से यह पर्यावरण के लिये नुकसानदेय साबित हो सकते हैं । गौरतलब है कि इनमें सिलीकॉन, केडमियम, सीसा, क्रोमियम, पारा व निकल जैसी भारी धातुओं का उपयोग किया जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरण में असावधानी व लापरवाही से इस कचरे को फेंका जाता है, तो इनसे निकलने वाले रेडिएशन शरीर के लिए घातक होते हैं। इनके प्रभाव से मानव शरीर के महत्वपूर्ण अंग प्रभावित होते हैं। कैंसर, तंत्रिका व स्नायु तंत्र पर भी असर हो सकता है।