रविवार, 30 सितंबर 2012

Best wishes and greeting on BSNLDay.Let us dedicate ourself for a better service to the people .save BSNL!Save Nation ! All the efforts  of intire workers of BSNL to survive this  govt undertakeing  PSU i.e take care and serv the interest of Nation.
                                                                                       shriram tiwari  

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

    विदेशी पूँजी निवेश को भारत की जनता  कभी मंजूर नहीं करेगी।



आज  का राष्ट्रव्यापी बंद भविष्य  के लिए   कई  अर्थों में दूरगामी नतीजों का कारक सावित  होगा।भाजपा,सपा,वामपंथ तो मैदान में थे ही किन्तु तृणमूल ,शिव् सेना तथा बीजद को छोड़ बाकी सम्पूर्ण विपक्ष आज 20 सितम्बर -2012 को इस एतिहासिक 'भारत बंद' के लिए  सड़कों पर उतर आया था।इस बंद में जहां भाजपा और वामपंथ ने सरकार की अद्द्तन आर्थिक घोषणाओं के बरक्स संघर्ष छेड़ा वहीँ मुलायम ,ममता,मायावती इत्यादि  ने अपनी -अपनी राजनीतिक  आकांक्षाओं  के मद्देनजर इस परिदृश्य में भूमिका अदा की।

                                यह सर्वविदित है की भारतीय राजनीति  में ये गठबंधन सरकारों की मजबूरियों का दौर है।
इस दौर का श्री गणेश तभी हो चूका था जब केंद्र की नरसिम्हाराव सरकार ने डॉ मनमोहनसिंह को वित्त मंत्री बनाया और देश पर विश्व बैंक ,अंतर्राष्ट्रीय  मुद्रा कोष तथा वर्ल्ड  ट्रेड  आर्गेनाइजेसन  की शर्तों को लादने की  छूट  दे दी। 1992 से 1999 तक केंद्र में राजनैतिक  अस्थिरता के दौर  में  इन नीतियों को लागू नहीं करने दिया गया।इसमें तत्कालीन गठबंधन सरकारों पर वाम के विरोध का असर  था।  किन्तु वैकल्पिक नीतियों का भी कोई  खास रूप आकार नहीं बन पा  रहा था।बाद में जब 1999 में भाजपा नीति  एनडीए  सरकार सत्ता में आई तो उसने  कांग्रेस को सेकड़ों मील पीछे छोड़ दिया।  एनडीए  ने इतने आक्रमक और निर्मम तरीके से इन मनमोहनी आर्थिक नीतियों को लागू किया  की उनके सरपरस्त  दत्तोपंत ठेंगडी  जैसे आर्थिक विचारक  इस अकल्पनीय भाजपाई  कायाकल्प  को सहन नहीं कर पाए और असमय ही  देव  लोक प्रस्थान कर गए। कांग्रेस ने और मनमोहन ने तो नीतियों का खुलासा अपने चुनावी घोषणा  पत्र  में भी किया था कि  वे यदि सत्ता में आये तो नई आर्थिक नीतियों-विदेशी पूँजी निवेश,श्रम कानून संसोधन,सरकारी संस्थानों का निजीकरन और आयात नीति को सुगम बनायेंगे। किन्तु भाजपा और उसके अलाइंस पार्टनर्स ने इन नीतियों का विपक्ष में रहते हुए तब लगातार विरोध किया था। जैसा कि  भाजपा ने आज 20 सितम्बर को किया है।उनसे तब उम्मीद थी की इन विनाशकारी आर्थिक सुझावों को रद्दी की टोकरी के हवाले कर देश और जनता के हित में 'जन-कल्याणकारी ' नीतियों को लागु करेंगे किन्तु  अटल सरकार ने सत्ता में आते ही 'सब कुछ बदल डालूँगा ' की तर्ज़ पर तमाम सरकारी उपक्रमों ,जमीनों,खानों,संसाधनों और सेवाओं को ओने -पाने दामों पर अपने वित्तीय पोषकों के हवाले करना  शुरू कर दिया।अटल सरकार ने अपने 6 साल के  इतिहास में 'इंडिया शाइनिंग और फील गुड' का तमगा अपने गले में लटकाया तो जनता ने भी उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया।जो भाजपा और एनडीए आज 'विदेशी निवेश और  आर्थिक सुधारों के खिलाफ भारत बंद में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है उसी ने अपने कार्यकाल [1999-2004] में अरुण शौरी जैसा  एक धाकड़  विनिवेश[?] मंत्री और प्रमोद  महाजन जैसा  एक  संसाधन [बेचो] लूटो मंत्री बना रखा था।  आगे क्या गारंटी है कि  एनडीए या भाजपा सत्ता में आये तो वे मनमोहन सिंह या विश्व बैंक की नीतियों पर नहीं चलेंगे! तो फिर वे किस नीति पर चलेंगे? क्योंकि दुनिया में अभी तक तो दो ही आर्थिक नीतियाँ वजूद में है।  एक-पूंजीवादी,आर्थिक उदारीकरण की नीति।दो-समाजवादी या साम्यवादी ,जनकल्याण की नीति। भाजपा की अपनी कोई आर्थिक नीति नहीं।दरसल वो तो  साम्प्रदायिक राजनीती के हिमालय से अवतरित होकर हिंदुत्व के  अश्वमेध पर सवार होकर दिग्विजय पर निकली थी   किन्तु उसके अश्व को आर्थिक चिंतन की कंगाली के कपिल ने  अपनी अश्वशाला में बाँध रखा है। अब उसे एक आर्थिक नीति के भागीरथ की दरकार है जो उसके सगर् पुत्रों को तार सके!

                   दरसल  डॉ मनमोहन सिंह  जिन आर्थिक सुधारों   पर अति विश्वाश के सिंड्रोम से पीड़ित हैं  भाजपा और  एनडीए भी उन विषाणुओं से असम्प्रक्त नहीं है। दोनों का चिंतन ,दिशा और दशा एक जैसी है।फर्क सिर्फ इतना भर है  कि  जहां भाजपा  साम्प्रदायिकता के अभिशाप से ग्रस्त है वहीँ कांग्रेस भृष्टाचार के गर्त में आकंठ डूबी हुई है। क्षेत्रीय दलों में मुलायम ,माया,लालू,पासवान, ममता  शिवसेना,अकाली और नेशनल कांफ्रेंस ,द्रुमुक अना द्रुमुक,सबके सब घोर अवसरवादी  जातिवादी ,भाषावादी,क्षेत्रीयतावादी  और परिवारवादी हैं इन दलों को आर्थिक उदारीकरण ,विनिवेश या  आर्थिक सुधार की चिड़िया   से क्या लेना -देना? सबके सब अपने निहित स्वार्थों की  हांडी उसी चूल्हे पर चढाने को आतुर हैं जिस पर अतीत में  कभी यूपीए की  कभी एनडीए की  तो कभी तीसरे मोर्चे की  चढ़ चुकी है। देश में केवल वामपंथ को केंद्र में सत्ता नसीब नहीं हुई जबकि उनके पास शानदार वैकल्पिक आर्थिक नीति मौजूद है।  वास्तव में 20 सितम्बर -2012 को भाजपा और एनडीए ने कोई वैकल्पिक आर्थिक नीति के लिए भारत बंद में शिरकत नहीं की  बल्कि यूपीए सरकार पर उसके गठबंधन दलों की  निहित स्वार्थजन्य बदनीयतों की प्रत्याषा  के बरक्स कांग्रेश को सत्ता से  बाहर कर खुद सत्ता में विराजने की विपक्षी  आकांक्षा का प्रदर्शन  भर किया है। जिन मुद्दों पर ये भारत बंद किया गया उस पर देश का मजदूर आन्दोलन विगत 20 साल से लगातार संघर्ष ,हड़ताल और बंद करता आ रहा है। इसी साल 28 फरवरी को देश की तमाम श्रमिक संघों ने एकजुट हड़ताल की थी। इन्हीं मुद्दों पर वामपंथ ने यूपी ऐ प्रथम के समय कांग्रेस की मनमानी नहीं चलने दी थी। बाहर से समर्थन की शर्तों का उलंघन किये जाने पर वामपंथ  को भले ही  चुनावी क्षेत्र में  पराभव का सामना करना पड़ा हो  किन्तु आज उन्ही की नीतियों पर एनडीए और देश के अन्य राजनीतक ग्रुपों को पुनर्विचार करना   पड़ रहा है। क्योंकि पूंजीवाद का विकल्प पूंजीवाद नहीं हो सकता .पूंजीवाद का विकल्प केवल और केवल साम्यवाद या समाजवाद ही हो सकता है।
           
                                     वामपंथ के नारे और वामपंथ के तेवर चुराकर ममता बनर्जी  भले ही उस बन्दर की  तरह नक़ल करती रहतीं हैं  जिसने नाइ की नकल कर उस्तरे से अपना गला काट लिया  था किन्तु देश और दुनिया जानती है की न केवल विदेशी पूँजी निवेश अपितु समग्र आर्थिक सुधारों का वादा उन्होंने श्रीमती हिलेरी क्लिंटन से खुद रूबरू होकर किया है।वे अस्थिर ता की मूर्ती है,दिखावे का विरोध करतीं हैं . राष्ट्रपति का चुनाव हो उपराष्ट्रपति का चुनाव हो रेल मंत्रालय में अपने चहेते को बिठाने का सवाल हो या बंगाल को कोई विशेष आर्थिक पैकेज का सवाल हो हर प्रकरण में एक ही बात परिलक्षित हुई की  ममता पक्की राजनीतक  ब्लैक मेलर  हैं।उन्हें खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश ,आर्थिक सुधार या देश की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों से कोई वास्ता नहीं।  प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को डराकर अपना उल्लू सीधा करते -करते ममता भूल गई की मनमोहन सिंह को अब इस दौर में  उनकी तो क्या पूरे देश की जनता की  भी  परवाह नहीं है। क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ' स्टेंडर्ड  एंड पुअर्स ' ने 2-3 बार लगातार निवेश के लिए भारत की रेटिंग घटा दी है। विगत 10 साल से  अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूँजी  के लिए निवेश का आकर्षक ठिकाना रहे भारत का दर्ज़ा उसने 'स्थिर' से घटाकर 'नकारात्मक' कर दिया है।अब इस एजेंसी ने भारत की रेटिंग और घटाकर बी-बी-बी [-] कर दी है। यह  रेटिंग लिस्ट में सबसे निचली हैसियत इन्द्राज है। इसके बाद सिर्फ 'कबाड़'का दर्जा शेष बचा है।
                   भारत की रेटिंग गिराए जाने का यह फैसला पिछले दिनों जब वाशिंगटन में  प्रतिध्वनित हुआ तो भारत के     वित्त  सलाहकार ने ' गठबंधन सरकार की वजह' बताया। उन्होंने आर्थिक सुधारों की  गति तेज होने  और आर्थिक वृद्धि दर बढ़ने  की सम्भावना 2014 के आम चुनावों के बाद बताकर न केवल   मनमोहन सरकार   को रुसवा किया  बल्कि  पूरे देश को इस स्थिति में ला दिया की आज  इसी मुद्दे पर पूरा  देश आंदोलित हो रहा है।
                                          स्वभाविक है कि  भारत के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार तत्परता से ' डेमेज कंट्रोल' में जुट गए और आनन् फानन डीज़ल में  सब्सिडी  घटाने,सार्वजनिक उपक्रमों में देशी -विदेशी पूँजी निवेश को छूट देने,खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश करने  की घोषणाएं कर दीं। आर्थिक सुधारों पर मनमोहन सरकार से 'कड़े फेसले' लेने की अपेक्षा रखने वाला अमेरिका और लन्दन का मीडिया  आज बेहद खुश है क्योंकि आंशिक ही सही उनके आर्थिक संकट का बोझ कुछ हद तक भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्था  पर डाले जाने का रास्ता कुछ तो साफ़ हुआ।
                                                           हालांकि  यूपीए के विगत आठ साल ओर एनडीए के 6 साल इन्ही पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को समर्पित रहे हैं। फिर भी कभी वामपंथ ने कभी गठबंधन सहयोगियों ने अपने बलबूते उन विनाशकारी नीतियों को पूरी तरह लागू नहीं  होने दिया। किन्तु  फिर भी प्रकारांतर से नव-उदारवादी नीतियों को लागू करने का नतीजा यह हुआ कि  कुछ अमीर लोग और ज्यादा बड़े अमीर होते चले गए।गरीब और ज्यादा गरीब होता चला गया।  मोंटेकसिंह या चिदम्बरम हों या स्वयम मनमोहनसिंह सभी को यह तो स्वीकार है कि  देश में विकाश की गंगा बह रही है किन्तु उन्हें यह स्वीकार नहीं कि  देश की अधिसंख्य जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और देश की संपदा देशी विदेशी पूंजीपतियों के  उदार में समां गई है।
     इससे देश को फर्क पड़ता है कि  मुखेश अम्बानी ने 27 मंजिला भवन बनवाया  किन्तु करोड़ों हैं जिनके पास न तो  जमीन है,न मकान है,न रोजी-रोटी का साधन है और न ही 'हो रहा भारत निर्माण ,भारत के इस निर्माण में"उनका कोई हक है। जबसे उदारीकरण की नीति लागू हुई तबसे अब तक 20 सालों में देश में 250000 किसान आत्म हत्या  कर चुके हैं . सरकार द्वारा अपनाई जा रही और देशी विदेशी सरमायेदारों द्वारा जबरिया थोपी जा रही आर्थिक नीतियों के कारण भ्रष्टाचार परवान चढ़ा है। पूंजीपति वर्ग और बड़े जोत की जमीनों के मालिक सत्तसीन वर्ग के वित्त पोषक होने से सरकार उनके  मार्ग की बाधाएं हटाने  के लिए तत्पर है।इसी वजह से आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ते रहते हैं किन्तु सरकार मूक दृष्टा बनी रहती है। मेहनतकश  जनता की वास्तविक जीवन की समस्याओं का कोई समाधान निकाले बगैर सिर्फ विदेशी मीडिया या विदेशी पूँजी के अवाव में वर्तमान सरकार  एलपीजी सिलेंडरों में कटोती ,सब्सिडी में कटोती,डीजल के भावों में वृद्धि तो कर ही चुकी है अब खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश की छुट देकर अपने  सत्ताच्युत होने का इंतज़ाम का रही है।
 देश का प्रबुद्ध वर्ग जानता है कि  राजकोषीय घटा तो बहाना है असल में इन आर्थिक सुधारों से जितनी वित्तीय स्थति  में  सुधार का अनुमान लगाया जा रहा है उससे लाखों करोड़ों गुना तो पूंजीपतियों को सेकड़ों बार छुट दी जा चुकी है अब जबकि आर्थिक सुधारों के मसीहा को विदेशी आकाओं ने ललकारा तो 'सिघ इज किंग ' होने को उतावले हो रहे हैं।
  

      श्रीराम तिवारी 

बुधवार, 12 सितंबर 2012

भारत में खाद्यान्न भण्डारण : एक चुनौती

 इस साल  भारत  में खाद्यान्न उत्पादन में और खास  तौर  से गेंहूँ  के उत्पादन में रिकार्ड बृद्धि हुई है।गोदाम ठसाठस भरे हैं,निजी और सरकारी अन्न  भंडारों  में जगह नहीं बची . कुछ अनाज -गेंहूँ कतिपय राज्यों में खुले में सड़  रहा है।इस अनाज को वाले-वाले भृष्ट अधिकारी बाज़ार में भी  ठिकाने लगा रहे हैं। भंडारण की माकूल व्यवस्था का आभाव और ऍफ़ सी आई इत्यादि निगमों की 'राम भरोसे' वाली मानसिकता के कारण गेंहूँ का एक बड़ा हिस्सा 'अन्न  का  कुन्न ' हो रहा है। दूसरी ओर देश में लाखों लोग दिन भर  मेह्नत  करने के बाद एक वक्त का भरपेट भोजन याने 'मानक आहार' पाने में असमर्थ हैं।सत्ता सीन नेतृत्व तो अपने समर्थक  घटक दलों और कॉरपोरेट  घरानों के बीच चकरघिन्नी हो रहा है। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी सिर्फ विपक्ष होने का स्वांग भर रही है। वामपंथी दलों ओर   श्रम संगठनों  ने अवश्य इस ओर ध्यान आकर्षित किया है किन्तु उन्हें मीडिया का सहयोग नहीं मिला और उनके आन्दोलन' नक्कारखाने में तूती ' की आवाज बनकर रह गए।
                  बाज मर्तवा सुप्रीम कोर्ट ने जरुर इस ओर कार्यपालिका और व्यवस्थापिका का ध्यान आकर्षण किया किन्तु किसी के कान में जू नहीं रेंगी।अभी भी देश का पूंजीवादी विपक्ष और मीडिया उन  काल्पनिक मुद्दों को हवा दे रहा है जिनका वास्तविकता और सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहीं।कहीं कार्टून बनाने  ,कहीं  सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने, कहीं कोलगेट  काण्ड पर संसद न चलने देने  ,  कभी  जंतर-मंतर और रामलीला मैदान पर अपनी अपनी बाजीगरी दिखाकर   भृष्टाचार और कालेधन पर रात-दिन बकवास करने वाले स्वनामधन्य [अ]नेता  भी अन्न  भण्डारण ,उचित सार्वजनिक वितरण व्यवस्था , मूल्य नियंत्रण  और सुखा बाढ़ की समस्याओं पर एक शब्द नहीं बोलते। इसीलिए  यह कहावत वन गई है की ' ये देश चल रहा भगवान् भरोसे' खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन और भुखमरी दोनों ही  यदि दुनिया में कहीं एक साथ हैं तो वो मुल्क है  भारत।
                              इस साल भारत की   उपरोक्त तस्वीर को अब हम अपने पड़ोसी चीन के साथ विजन करके देखते हैं। चीन ही क्यों लगभग सारी दुनिया में सुखा -बाढ़ जनित खाद्यान संकट मुह बाए खड़ा है। वैश्विक
स्तर  पर अनाजों का उत्पादन न केवल घटा है बल्कि स्थिति नाज़ुक बनी हुई है।चीन ने लगभग 5 दशक तक महंगाई  को लगातार काबू में रखा। अपनी विशाल आबादी और श्रम शक्ति को न केवल  राजनैतिक रूप से परिपक्व किया , बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से हर क्षेत्र में असमानता और गैर-बराबरी को ध्वस्त करते हुए चीन ने खेल जगत ,संचार सूचना प्रोदौगिकी तथा सेन्य क्षेत्र में विश्व कीर्तिमान स्थापित किये हैं। हाल के दिनों में आई  भूकंप,बाढ़ सुखा इत्यादि प्राकृतिक आपदाओं ने चीन को भी  पूंजीवादी  बीमारियों  ने आ घेरा है।
दुनिया भर में बढ़ रहीं अनाज की कीमतों और चीन में घटे खाद्यान उत्पादन ने महंगाई का दामन  थाम  लिया है। भले ही अभी महंगाई दर 2% के आसपास है किन्तु आखिर मौत ने घर तो देख ही लिया है। चीन को अपने साम्यवादी ढाँचे में घुसपेठ कर रही पूंजीवादी 'यूनियन कार्वईड ' के हमले से सावधान रहना चाहिए। वर्ना साम्यवादी लाल क्रांति [1940-47] के पूर्व  के चीन से बदतर हालातों के लिए तैय्यार रहना चाहिए।
     भारत  को विदेशी  ताकतों के गुलाम रहने की परम्पराओं  की वेशुमार बीमारियाँ घेरे हुए हैं। कुछ आज़ादी के बाद नेताओं अफसरों  के हरामीपन ने देश की तस्वीर बदरंग कर दी है  ऐंसे  में आजू बाजू के देशों में भुखमरी या    राजनेतिक उथलपुथल  का होना भारत की सेहत के लिए ठीक नहीं। भारत को अपनी खाद्यान्न व्यवस्था पर प्रथमिकता और  दूरदर्शिता  के आधार पर ध्यान केन्द्रित कर अन्न के प्रत्येक कण की कद्र करनी चाहिए।
   क्योंकि 'अन्न ही इश्वर है' अन्न ,जल और प्राण वायु तो भारत में  प्रकृति ने  सहज ही  उपलब्ध  करा रखे हैं। केवल एक काम बाकी था और  उसे  करने का हक   कुदरत ने हम देशवासियों के लिए  दिया था।जो हम अभी तक नहीं कर पाए।10 सह्श्त्र वर्षों में भी . हम उतना भी नहीं कर सके जो चीन ने कर दिखाया। आज एक तरफ भारत है जहां अनाज खुले आसमान के नीचे बारिस में सड़  रहा है और 70 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा से नीचे है।दूसरी ओर चीन है जहां प्रुकृतिजन्य  खाद्यान्न कासंकट है किन्तु कोई भूंखा नही सोयेगा और अन्न  का एक दानाभी   बेकार नहीं जाने दिया जाएगा। 
      
  श्रीराम तिवारी
  

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

  It is  true if you are not happy being singal, then you will never  be happy  in any relationship!get your own life  first ,then try to share it with some one .......