गुरुवार, 30 अगस्त 2018

जबतक आपके घरमें,मोहल्लेमें,शहरमें,प्रदेश में,देशमें और दुनियामें कोई माकूल व्यवस्था कल्याणकारी-राज्य स्थापित न हो जाए,कोई न्यायप्रिय-अमनपसन्द वातावरण स्थिर न हो जाए या जब तक कोई बेहतर सकारात्मक सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक क्रांति न हो जाए ; तब तक प्रत्येक व्यक्ति की सेहत के लिए यह उचित है कि अपनेसभी परम्परागत मानवीय मूल्यों और नैतिक मापदंडों का अनुशरण अवश्य करे।क्योंकि ऐंसा करते हुए ही मानवीय जीवन की द्वंदात्मक संघर्ष यात्रा जारी रखी जासकती है।जिस तरह क्रांति के बावजूद सोवियत संघ(रूस)चीन ने पूंजीवाद को धीरे धीरे नियंत्रित करते हुये साम्यवाद को तरजीह दी उसी तरह बाकी दुनिया के सर्वहारा वर्ग को भी अपने पुरातन भाववादी आदर्शवाद कमतर करते हुये वैज्ञानिक और तार्किक भौतिकवाद को तरजीह देना होगी!
चाहे दलितवादी हो,चाहे सवर्णवादी हो,चाहे माओवादी या क्रांतिकारी हो,लेकिन यदि वह हिंसा का समर्थक है,तो मैं उसके साथ नहीं हूँ!
मेरा यकीन है कि तलवार पर मेरी कलम ही भारी है!मैंने कभी भी हिंसा को सही नही माना,क्योंकि हिंसक संघर्ष में हमेशा वही मारा जाता है जो वंचित है,कमजोर है!मेरा मकसद औरों की तरह कमजोरों को भड़काकर हिंसक संघर्ष में उल्लू सीधा करना नही है!भारत वैसे भी मूलत: अहिंसावादी देश रहा है,उसी की बदौलत यह गुलाम भी रहा है,किंतु फिर भी यह अकाट्य सत्य है कि मानवता के लिये अहिंसा ही अंतिम विकल्प है!

लोकतंत्र की पीठ पर,लदा माफिया राज ! Dohe by Shriram Tiwari

भारत के जनतंत्र को,लगा भयानक रोग !
राजनीति में घुस गए,घटिया शातिर लोग !!
नई आर्थिक नीति अब ,करती नए सवाल !
दुनियाके बाज़ार में, रुपया क्यों बदहाल !!
क्यों रूपये की हार है,क्यों डालर की जीत !
क्या अदभुत ये नीति है,पूँजीवाद से प्रीत !!
आदमखोर पूँजी हुई ,कपट कलेवर युक्त !
चोर-मुनाफा खोर हैं,इस युग में भयमुक्त !!
बढ़ते व्ययके बज़टकी,अविचारित यह नीति !
ऋणपर ऋण लेते रहो,गाओ खुशीके गीत !!
किस विकास कारण किये,राष्ट्र रत्न नीलाम !
औने -पौने बिक गए ,बीमा टेलीकाम !!
लोकतंत्र की पीठ पर,लदा माफिया राज !
ऊपर से नीचे तलक,हुआ 'कमीशन' काज !!
निजी क्षेत्र से हो रहे,रक्षा राफेल अनुबंध !
नवनिवेशकोंपर नहीं,कहीं कोई प्रतिबन्ध !!
पूँजी मिले विदेश से,किसी तरह तत्काल !
मल्टीनेशनलको नहीं,रूचि यहाँ फिलहाल !!
कोटि जतन मिन्नत करी,खूब नवाया भाल !
डालर लेकर आये ना, साहब गोरेलाल !!
डालर-डालर सब जपें,रुपया जपे न कोय !
मेहनतका रुपयाजपे,तोजगमगभारतहोय !!
श्रीराम तिवारी

सिसकी तुम्हारी सुनता कौन है?

हंसोगे अगर तो हंसेगी साथ दुनिया,
रोओगे तो सहोगे अकेले दुसह भार!
खुशी है ऐसी शै जो हम ढूंढते हैं बाहर ,
और गमों के भर रखें हैं भीतर भण्डार!!
ठहाका लगाओ तो आसमां गूँज उठेगा ,
आह भरो तो पाओगे हर शख्स मौन है !
हर्ष उल्लासों की प्रतिध्वनियां मन पसंद,
मौन-मंद सिसकी तुम्हारी सुनता कौन है !!
खुशियां अगर बांटो तो लोग आएंगे तेरे दर,
दिखाओगे अपने गम, तो सब दूर हो जायेंगे !
हिस्सा आपके सुख में सभी बंटाना चाहेंगे ,
चाहते हुयेभी आपके दु:ख नहीं बांट पायेंगे !!
सुख में तो सारे होते ही हैं मीत जहाँ में ,
दुःख में कोई एक तुम ढूँडते रह जाओगे !
मौज-मजे में तुम्हारी बनते रहेंगे मीत सब,
गर्दिश में व्यंग्य वाणों से बच नहीं पाओगे !!
यदि कभी दावत दोगे तो जुट जायेगी भीड़,
किंतु फाकें में साथ देनें कोई नही आ्येगा !
ज़िन्दगी में सब साथ देंगे,अगर सफल रहोगे,
डूबते हैं आप तो बचाने कोई नहीं आयेगा !
श्रीराम तिवारी

आर एस एस.....

वेशक आर एस एस दुनिया का सबसे बड़ा साम्प्रदायिक संगठन है जो खुद के एजेंडे पर अडिग है!अफवाहों और मुंहजोरी में बेजोड़ हैं!किंतु जब कोई गाहे- बगाहे आरएसएस की तुलना आईएसआईएस,अल-कायदा या तालिवान से करता है,तो यह तुलना सहज सरल हिंदुओं के गले नही उतरती!निसंदेह यह तुलना हास्यापद और भ्रामक भी है। इस काल्पनिक तुलना में वैज्ञानिकता- तार्किकता का घोर अभाव है। वेशक मूलरूप से तत्वतः साम्प्रदायिक संगठनों में 'धर्मान्धता'हीउनका लाक्षणिक गुण है।
RSS [संघ ],आईएसआईएस में समानता सिर्फ इतनी है कि दोनों संगठनों में 'अक्ल के दुश्मन' ज्यादा है!इसके अलावा इनमें और कोई समानता नहीं । मजहबी आधार पर इस्लामिक संगठनों के निर्माण ,उत्थान- पतन का इतिहास उतना ही पुराना है,जितना कि इस्लाम का इतिहास पुराना है।जबकि 'हिंदुत्व' का कॉन्सेप्ट तब अस्तित्व में आया जब मुस्लिम शासकों ने स्प्ष्ट रूप से धार्मिक आधार पर राज काज चलाया और 'जजिया' कर लगाया। बाद में ज्यों-ज्यों हिंदुओं पर अत्याचार बढ़ते गये और हिंदु-मुस्लिम को एक सा मानने वाले दारा शिकोह जैसे मुगल वलीअहद भी जब औरंगजेब के इस्लामिक कट्टरवाद के शिकार हो गए! तब भी हिंदुत्व का विचार साधु संतों तकही सीमित था,किंतु 'संगठन'बनने का कोई साक्ष्य नहीं है। कुछ स्वाभिमानी राजपूत राजाओं अथवा छत्रपति शिवाजी,अहिल्याबाई होल्कर जैसे चंद हिन्दू जागीरदारों ने जरूर मरणासन्न हिंदुत्व को कुछ 'संजीवनी' देनेकी कोशिश कीथी !किन्तु इस्लाम जैसा आक्रामक हिंसक औरमजहबी संगठन बौद्ध जैन या हिंदुओं का कभी नहीं बना। मजहबी इस्लाम के आतंकीतो करबला के रेगिस्तान से ही कुख्यात हैं!गुलाम भारत में आजादी के संघर्ष से दूर रहने वाले स्वार्थी मुसलमानों ने जब मुस्लिम लीग बनाई तोउस की प्रतिक्रियामें कुछ मुठ्ठीभर हिंदुओं ने 'हिंदु महासभा'और राष्ट्रीय स्वयं सेवकसंघ बनाये! जिन्ना की मुस्लिम लीग को तो पाकिस्तान मिल गया!और काग्रेसको बचा खुचा भारत! किंतु संघ और महासभा को सिर्फ बदनामी ही मिली!क्योंकि गांधीजी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को 'दीक्षा' इन्हीं से प्राप्त हुई थी!आई एसआईएस ने और उससे पहले हमलावर कबाइलियों ने हजारों निर्दोषों को मार डाला, किंतु किसी इस्लामिक धर्मगुरू या शासक ने उसका विरोध नहीं किया!किंतु गांधीजी की हत्या के एक गुनहगार के एवज में इतिहासने पूरे संघ परिवार को स्थाई रूप से कठघरे में खड़ा कर रखा है!इस स्थिति के लिये संघ खुद जिम्मेदार है!

सुधा भारद्वाज कौन हैं?

 कोंकणस्थ ब्राह्मण परिवार की इकलौती मेधावी संतान!एक यूनियनिस्ट,एक्टिविस्ट और वकील. इन सब पुछल्ले नामों के बजाय आप इन्हें सिर्फ ‘इंसान’ ही कह दें,तो यकीन कीजिये आप "इंसानियत" शब्द को उसके मयार तक पहुंचा देंगे.
मैं 2005 से सुधा को जानता हूँ!मगर अत्यंत साधारण लिबास में माथे पर एक बिंदी लगाये मजदूर, किसान और कमजोर वर्ग के लोगों के लिये छत्तीसगढ़ के शहर और गांव की दौड़ लगाती इस महिला के भीतर की असाधारण प्रतिभा, बेहतरीन एकादमिक योग्यता और अकूत ज्ञान से मेरा परिचय इनके साथ लगभग तीन साल तक काम करने के बाद भी न हो सका था. इसकी बड़ी वजह ये रही कि इनको खुद के विषय में बताना और अपने काम का प्रचार करना कभी पसन्द ही नहीं था.
2008 में मैं कुछ काम से दिल्ली गया हुआ था उसी दौरान मेरे एक दोस्त को सुधा के विषय में एक अंग्रेजी दैनिक में पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्तमंत्री का लिखा लेख पढ़ने को मिला. लेख पढ़ने के बाद उसने फोन करके मुझे सुधा की पिछली जिंदगी के बारे में बताया तो मैं सुधा की अत्यंत साधारण और सादगी भरी जिंदगी से उनके इतिहास की तुलना करके दंग रह गया.
मैं ये जान के हैरान रह गया कि मजदूर बस्ती में रहने वाली सुधा 1978 की आईआईटी कानपुर की टॉपर है. जन्म से अमेरिकन सिटीजन थी, और इंगलैंड में उनकी प्राइमरी शिक्षा हुई है. आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता है इस बैक ग्राउंड का कोई शख्स मजदूरों के साथ उनकी बस्ती में रहते हुए बिना दूध की चाय और भात सब्जी पर गुजारा करता होगा.
सुधा की मां कृष्णा भारद्वाज जेएनयू में इकोनामिक्स डिपार्टमेंट की डीन हुआ करती थी, बेहतरीन क्लासिकल सिंगर थी और अमर्त्य सेन की समकालीन भी थी. आज भी सुधा की मां की याद में हर साल जेएनयू में कृष्णा मेमोरियल लेक्चर होता है जिसमे देश के नामचीन शिक्षाविद् और विद्वान शरीक होते है. आईआईटी से टॉपर होकर निकलने के बाद भी सुधा को करियर का आकर्षण खु से बांधे नहीं रख सका और अपने वामपंथी रुझान के कारण वो 80 के दशक में छत्तीसगढ़ के करिश्माई यूनियन लीडर शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आयी और फिर उन्होंने छत्तीसगढ़ को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया.
पिछले 35 साल से अधिक समय से छत्तीसगढ़ में मजदूर, किसान और गरीबों की लड़ाई सड़क और कोर्ट में लड़ते लड़ते इन्होंने अपनी मां के पीएफ का सारा पैसा तक उड़ा दिया. उनकी मां ने दिल्ली में एक मकान खरीद रखा था जो आजकल उनके नाम पर है मगर बस नाम पर ही है. मकान किराए पर चढ़ाया हुआ है जिसका किराया मजदुर यूनियन के खाते में जमा करने का फरमान उन्होंने किरायेदार को दिया हुआ है.
जिस अमेरिकन सिटीजनशीप को पाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार रहते है बाई बर्थ हासिल उस अमेरिकन नागरिकता को वो बहुत पहले अमेरिकन एम्बेसी में फेंक कर आ चुकी है.
हिंदुस्तान में सामाजिक आंदोलन और सामाजिक न्याय के बड़े से बड़े नाम सुविधा सम्पन्न हैं और अपने काम से ज्यादा अपनी पहुंच और अपने विस्तार के लिए जाने जाते हैं मगर जिनके लिए वो काम कर रहे होते हैं उनकी हालत में सुधार की कीमत पर अपनी लक्जरी छोड़ने को कभी तैयार नहीं दिखते हैं. इधर सुधा हैं जो अमेरिकन सिटिजनशीप और आईआईटी टॉपर होने के गुमान को त्याग कर गुमनामी में गुमनामों की लड़ाई लड़ते हुए अपना जीवन होम कर चुकी है.
बिना फ़ीस के गरीब, गुरबों की वकालत करने वाली और हाई कोर्ट जज बनाये जाने का ऑफर विनम्रतापूर्वक ठुकरा चुकी सुधा का शरीर जवाब देना चाहता है. 35-40 साल से दौड़ते-दौड़ते उनके घुटने घिस चुके है. उनके मित्र डॉक्टर उन्हें बिस्तर से बांध देना चाहते है. मगर गरीब, किसान और मजदूर की एक हलकी सी चीख सुनते ही उनके पैरों में चक्के लग जाते हैं और फिर वो अपने शरीर की सुनती नहीं.
उनके घोर वामपंथी होने की वजह से उनसे मेरे वैचारिक मतभेद रहते है मगर उनके काम के प्रति समर्पण और जज्बे के आगे मैं हमेशा नतमस्तक रहा हूं. मैं दावे के साथ कहता हूं कि अगर उन्होंने अपने काम का 10 प्रतिशत भी प्रचार किया होता तो दुनिया का कोई ऐसा पुरुस्कार न होगा जो उन्हें पाकर खुद को सम्मानित महसूस न कर रहा होता. सुधा होना मेरे आपके बस की बात नहीं है. सुधा सिर्फ सुधा ही हो सकती थीं और कोई नही.

द्वंदात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद मार्क्सवादी दर्शन के अभिन्न अंग हैं-


मार्क्सवादी दर्शन उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्य में प्रकट हुआ।किन्तु इसने प्रकृति और समाज के विकास के नियमों का उद्घाटन कर प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान की विविध शाखाओं के अध्ययन को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।
दर्शनों की बातें प्रायः अटकलें ही रह जाती यदि विज्ञान की कसौटी पर वह खरी न उतरती।मार्क्सवादी दर्शन की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उसके निष्कर्षों को विज्ञान ने सत्य प्रमाणित कर दिया है।
ऐसा नहीं है कि मार्क्स के पहले के सभी दार्शनिकों की सारी बातें असत्य थीं। लेकिन उन सबकी एक कमजोरी यह थी कि वह सभी मूलतः आदर्शवादी (आध्यात्मवादी, विचारवादी,प्रत्ययवादीऔर भाववादी आदि) थे।
यहां तक कि मार्क्स के पहले के भौतिक वादी भी भाववादी ही थे।वह प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन तो भौतिकवादी नजरिए से करते थे किन्तु मनुष्य ,मानव समाज और उसके इतिहास का अध्ययन करते समय भाववादी या आदर्शवादी हो जाते थे।अर्थात यह मानते थे कि समाज अच्छे अच्छे विचारों से ही चलता है।इसके उलट मार्क्सवाद व्यवस्था के बदलाव के साथ ही अच्छे विचारों की सार्थकता की बात करता है।
लुडविग फायर बाख जैसे भौतिक वादी ने भी मानव समाज का अध्ययन भाववादी नजरिए से ही किया था।उसने प्रकृति के मामले में तो वस्तु को प्राथमिकता दी किन्तु समाज के मामले में चेतना को।
मार्क्स ने वस्तुगत या पदार्थिक और चेतना दोनों को प्राकृतिक कहा। वस्तु और चेतना दोनों को महत्व दिया।किन्तु वस्तु यावस्तुगत स्थिति को प्राथमिक और चेतनाको द्वितीयक माना।वस्तु को आधार और चेतनाको शिखर माना।
यह माना कि चेतना वस्तु से उपजती है ।वस्तु चेतना को प्रभावित करती है किन्तु अपनी बारी में चेतना भी वस्तु पर अपना असर डालती है, उसे प्रभावित करती है।
मार्क्सवादी दर्शन की एक मौलिक बात यह है कि वस्तु चेतना से स्वतंत्र होती है किन्तु चेतना वस्तु से स्वतंत्र नहीं होती।वस्तु चेतना के बाहर अस्तित्व रखती है।किन्तु चेतना वस्तु के नियमों को समझ कर उसे नियंत्रित कर सकती है।
बेबकूफ हैं वे जो फूलों को,
खार बनाने पर आमादा हैं!
कवियों लेखकों बुद्धिजीवियों,
को अंगार बनाने पर आमादा हैं?
वे खेतों खलिहानों की उर्वर,
और महकती सौंधी मिट्टी को!
धर्म जात मजहब के संघर्षों,
की तलवार बनाने पर आमादा हैं!!

बुधवार, 29 अगस्त 2018

सभी धर्मों के सार- भाववादी दर्शन को जाने बिना मार्क्स एंगेल्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद को समझना वैसाही है,जैसे बिना मरे स्वर्ग जाना!

तुलसीदास को मैंने जैसा पाया


हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आए दिन बेसुध अवस्था अंटशंट बकते हैं,फेसबुक पर तो मोदीभक्तों ने अंटशंट बकने में स्वर्णपदक प्राप्त किया है। इनमें अनेक तुलसी के ढोंगीभक्त भी हैं। तुलसी के ढोंगीभक्त वे हैं जो तुलसी का नाम लेते हैं लेकिन आचरण उनके विचारों के विरुद्ध करते हैं। इनमें सबसे खराब आचरण वह है जिसे बेसुध अवस्था में अंटशंट कहने या लंबी हाँकना कहते हैं। ये वे लोग हैं जिनका ज्ञानक्षेत्र बंद है। तुलसी को सचेत कवि और सचेत पाठक पसंद हैं,उनको ऐसे भक्त पसंद हैं जिनके ज्ञान नेत्र खुल चुके हैं।
उन्होंने लिखा है-
सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना।
ग्यान नयन निरखत मन माना।।
रामचरित मानस कालजयी रचना है आप इसकी जितनी आलोचना करें,इससे उसका दर्जा घटने वाला नहीं है। कालजयी रचनाएं राष्ट्र की लाइफ लाइन से जुड़ी होती हैं ।
भारत में विगत 65सालों में किसी भी जाति के लेखक को महान रचना करने से नहीं रोका गया,लेकिन रामचरित मानस जैसी लोकप्रिय एक भी कृति आधुनिक भारत के लेखक क्यों नहीं रच पाए ,किसने रोका है तुलसी से महान रचना लिखने से ? आधुनिक काल में लेखक के पास जितनी सुविधाएं हैं,वैसी तुलसी युग में नहीं थी ं।
रामचरित मानस धार्मिक ग्रंथ नहीं है और नहीं यह जाति विशेष के लिए लिखा गया ग्रंथ है, यह महाकाव्य है और हमें महाकाव्य को पढ़ने-पढ़ाने का शास्त्र या आलोचना विकसित करनी चाहिए। हमारे बहुत सारे मित्र तुलसी को दलित या स्त्री के नजरिए से देखकर तरह -तरह के जाति और लिंगगत विद्वेष के रुपों को खोज लाते हैं।ये सभी लोग महाकाव्य को देखने की साहित्यचेतना अभी तक विकसित नहीं कर पाए हैं। महाकाव्य कभी कॉमनसेंस चेतना से समझ में नहीं आ सकता। महाकाव्य ,साहित्य की श्रेष्ठतम चेतना है। उसके लिए विकसित साहित्यबोध का होना जरुरी है।
तुलसी युग में दलित कवि सबसे लोकप्रिय कवियों थे, वे आज भी जनप्रिय हैं, सवाल यह है मध्यकालीन दलित कवियों की तरह आज के दलित लेखक आम जनता में व्यापक स्तर पर लोकप्रिय क्यों नहीं हैं ?जबकि मध्यकालीन दलित कवियों से उनकी स्थिति बेहतर है।
तुलसी का औरतों के प्रति आधुनिक नजरिया था। तुलसी की स्त्रियाँ किसी का आशीर्वाद नहीं चाहतीं, बल्कि आशीर्वाद देती हैं। लोग राम के पैरों पड़ते हैं,उनसे भक्ति का वरदान माँगते हैं,तुलसी के यहाँ स्त्रियाँ सीता के पैर तो पड़ती हैं लेकिन उल्टा उनको आशीष देती हैं।लिखा है-
अति सप्रेम सिय पायँ परि,बहुत विधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम,जब लगि महि अहि सीस।।
लोक कविता की विशेषता है कि उसमें अतिशयोक्ति का खूब प्रयोग होता है।इसी तरह पढ़ना कला है ,उसके अनेक नए-पुराने नियम हैं। मात्र शब्दज्ञान से साहित्य समझ में आ जाता तो साहित्य का शास्त्र या आलोचना विकसित करने की जरुरत ही नहीं पड़ती।सामान्य रुप में किसी कृति को पढ़ना और साहित्यिक प्रणाली के जरिए पढ़ने में जमीन-आसमान का अंतर है।
तुलसी के नजरिए की धुरी है दीनों की सेवा और सबसे बड़ा पाप है उनका उत्पीड़न।लिखा है- "परहित सरिस धर्म नहिं भाई।परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।" फेसबुक से लेकर राजनीति तक चिह्नित करें उनलोगों को जो पीड़ा और पीड़ितों के पक्ष में लिखते हैं और रेखांकित करें कि वे किस ओर हैं।
मुगल बादशाहों के जमाने में कोल-किरातों का आखेट होता था,जो पकड़े जाते थे वे काबुल के बाजार में गुलाम के रुप में बेच दिए जाते थे,ब्रिटिशराज में इन लोगों को जरायमपेशा करार दे दिया गया, यह संदर्भ ध्यान में रखें और फिर तुलसी के यहां कोल-किरातों के प्रति व्यक्त नजरिए को समझने की कोशिश करें। तुलसी ने बीस पंक्तियों में कोल-किरातों की भेंट पर जो लिखा है वह बहुत ही मूल्यवान है।
कोल आदि को याद करते हुए लिखा "यह सुधि कोल किरातन्ह पाई।हरषे जनु नवनिधि घर आई" ,
अंत में तुलसी की टिप्पणी पढ़ें- "रामहिं केवल राम पियारा।जानि लेउ जो जाननिहारा।।"
पुरोहितों ने जो व्यवहार एससी-एसटी के साथ किया वही औरतों के साथ किया। इन सबको शिक्षा और उपासना से वंचित किया। तुलसी ने अपनी रचना में औरतों के लिए उपासना के द्वार खोल दिए। राम से मिलने,उनका सत्कार करने,उनका स्नेह पाने में औरतें सबसे आगे हैं।तुलसी ने जितनी आत्मीयता ग्रामीण औरतों और सीता के चित्रण में दिखाई है वैसी आत्मीयता अन्यत्र दुर्लभ है।
ग्रामीण स्त्रियां ही पूछ सकती हैं-
कोटि मनोज लजावन हारे।
सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।।
और सीता ही उनके प्रश्न का उत्तर दे सकती थीं-
बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी ।
पियतन चितै भौंह करि बाँकी।।
खंजन मंजु तिरीछे नैननि ।
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सैननि।।
तुलसी से हम क्या सीखें,यह आज भी सबसे जटिल सवाल है। तुलसी के नजरिए की विशेषता है संसार के असत्य का उद्घाटन। हम तुलसी के मार्ग पर चलना चाहते हैं तो मौजूदा संसार के असत्य का निरंतर उद्घाटन करें।असत्य को छिपाना तुलसीभक्ति या तुलसीविवेक नहीं है।
तुलसी के नजरिए की दूसरी बड़ी विशेषता है दुख की चर्चा। दुख को उन्होंने भक्ति से जोड़कर पेश किया। वे अपने बारे में,अपने समाज और युग के बारे में सबसे ज्यादा क्रिटिकल हैं।हम सोचें कि क्या हम क्रिटिकल हैं ?
तुलसी की अन्य विशेषता है मनुष्य के आगे हाथ मत फैलाओ । हम सब हाथ फैलाने की बीमारी के बुरी तरह शिकार हो गए हैं हमारे अन्दर किसी तरह का आत्मसम्मान और आत्मबोध बचा ही नहीं है ।

हौसलों का पाथेय पानी रख।

परिंदे हौसला कायम रख,
बस ऊंची उड़ान जारी रख!
हर इक निगाह तुझ पर है ,
चौकस निगाह मानी रख।
बुलंदियाँ तेरी हर वक्त हिम्मत,
शख्सियत को आजमाएँगीं,
दिल में उमंग,परों में जान रख,
नजर को आसमानी रख।
परिंदे पहले भी उड़े हैं खूब,
भटककर राह भी भूले होंगेे,
जो लौटकर फिर नही आये,
याद उनकी लाभ हानि रख!
दुष्तर दहक़ता आसमाँ होगा-
कहीं बादल कहीं अँधेरा घुप्प ,
चमकती बिजलियाँ होंगीं,
हौसलों का पाथेय पानी रख।
भेदकर लक्ष्य धुंध के उस पार,
तुझे दूर-बहुत दूर जाना है,
'सितारों से आगे जहाँ और भी हैं',
अमरत्व की अविचल निशानी रख।
परिंदे हौसला कायम रख,
बस ऊंची उड़ान जारी रख!!...
श्रीराम तिवारी

नारी ही नारी की दुश्मन

कानपुर में एक बहिन ससुराल से मायके आई और अपने भाई को राखी बांधी!भाई ने अपनी बहिना को इस अवसर पर 2000 रु. दिये! बहिन के वापिस ससुराल लौटते ही उस बहिन की भावी ने 2000 रुपये देने की बात पर अपने पति से झगड़ा किया और घर में फांसी लगा ली !वेशक इस दुखद घटनाके अनेक कारण हो सकतें हैं!किंतु इतना तय है कि दूसरी कौमौ की तरह ही हिंदु समाज में भी नारी दुर्दशा के लिये स्वयं नारियां अधिक जिम्मेदार हैं!सास-बहु,ननद-भौजाई के बीच सर्वहारावर्ग में भले ही सरस संबंध हों किंतु मध्यमवर्ग और उच्च वर्ग में नारी ही नारी की दुश्मन है.यकीन न हो तो नीता अंबानी,टीना मुनीम के उदाहरणों पर गौर करें!इस तथ्य की अनदेखी करते हुये तमाम स्वनामधन्य प्रगति शील लेखक और कवि 'स्त्री विमर्श' में प्राय: यह मान लेते हैं कि नारी उत्पीड़न के लिये सिर्फ पित्रसत्तात्मकता जिम्मेदार है! 

मस्तिष्क से विचार पैदा होता है न कि विचार से मस्तिष्क।

द्वंद्व या संघर्ष के सिद्धांत का प्रेरक रूप मार्क्स को जर्मन दार्शनिक हेगेल से मिला था।यह हेगेल का विकास का सिद्धांत भी था।मार्क्स की नजर में उसमें कमी यह थी कि हेगेल प्रकृति और समाज का आधार आइडिया या विचार को समझते थे!
मार्क्स ने लुडविग फायरबाख की इस बात को सही माना कि मस्तिष्क से विचार पैदा होता है न कि विचार से मस्तिष्क। मस्तिष्क ही पदार्थ की उत्कृष्ट रचना है।अर्थात पदार्थ ही मूल है।
हेगेल की इस बात का कि विचारों के द्वंद्व से ही प्रकृति की रचना हुई और फिर समाज की,इसके आगे विचारों के द्वंद्व या संघर्ष से ही मानव समाज का इतिहास आगे बढ़ रहा है!मार्क्स ने यह कह कर इसका खंडन कर दिया कि प्रकृति पदार्थिक रचना है।इसकी रचना और इसके विकास में विरोधी गुणों वाले तत्वों के द्वंद्व की भूमिका है।और मनुष्य या मानव समाज प्रकृति के अभिन्न अंग है।
मनुष्य के जीवन की द्वंदात्मक दशाएं ही उसे प्रकृति से द्वंद्व करने की प्रेरणा देती हैं और वह उसी से अपने जीवन को चलाने की वस्तुओं को प्राप्त किया करता है।

विनिवेश के दर्द भरे दोहे !

भारत के जनतंत्र को,लगा भयानक रोग !
राजनीति में घुस गए,घटिया शातिर लोग !!
नई आर्थिक नीति अब ,करती नए सवाल !
दुनियाके बाज़ार में, रुपया क्यों बदहाल !!
क्यों रूपये की हार है,क्यों डालर की जीत !
क्या अदभुत ये नीति है,पूँजीवाद से प्रीत !!
आदमखोर पूँजी हुई ,कपट कलेवर युक्त !
चोर-मुनाफा खोर हैं,इस युग में भयमुक्त !!
बढ़ते व्ययके बज़टकी,अविचारित यह नीति !
ऋणपर ऋण लेते रहो,गाओ खुशीके गीत !!
किस विकास कारण किये,राष्ट्र रत्न नीलाम !
औने -पौने बिक गए ,बीमा टेलीकाम !!
लोकतंत्र की पीठ पर,लदा माफिया राज !
ऊपर से नीचे तलक,हुआ 'कमीशन' काज !!
निजी क्षेत्र से हो रहे,रक्षा राफेल अनुबंध !
नवनिवेशकोंपर नहीं,कहीं कोई प्रतिबन्ध !!
पूँजी मिले विदेश से,किसी तरह तत्काल !
मल्टीनेशनलको नहीं,रूचि यहाँ फिलहाल !!
कोटि जतन मिन्नत करी,खूब नवाया भाल !
डालर लेकर आये ना, साहब गोरेलाल !!
डालर-डालर सब जपें,रुपया जपे न कोय !
मेहनतका रुपयाजपे,तोजगमगभारतहोय !!
श्रीराम तिवारी  

सोमवार, 27 अगस्त 2018

संत साहित्य बनाम सत साहित्य !

पुरातन भारतीय अध्यात्म-दर्शन साहित्य को,धर्मशास्त्रों को अंध-आस्था के हवाले नहीं किया जा सकता।भले ही ये रूप और आकार में भूसे के ढेर ही क्यों न हों,किंतु आधुनिक वैज्ञानिक जनवादी साहित्य की तरह इस प्राचीन अमर साहित्य में भी प्राणी मात्र के हितैषी एवं जगत हितकारी अनेक अनमोल मणि माणिक्य छिपे हुये हैं!वेद, उपनिषद,गीता,समयसार,सांख्यशास्त्र के अलावा,बुद्ध,महावीर,नानक, कबीर और गोस्वामी तुलसीदास का प्रत्येक शब्द प्राणी मात्र के लिये हीहै!इनको और यूनानी दर्शन को पढ़े बिना,कोई भाववादी दर्शन को नही समझा जा सकता!और भाववाद को जाने विना मार्क्स एंगेल्सके द्वंदात्मक भौतिकवाद को समझना वैसे ही है,जैसे बिना मरे स्वर्ग जाना! संत साहित्य बनाम सत साहित्य और मार्क्सवाद भी सत साहित्य से प्रेरित है. 

गुल अपने ही खिलाये हुए हैं।

हंस लम्बी उड़ानों के हैं हम,
क्रांति पथको सजा्ये हुए हैं।
छोड़ यादों का वो कारवां,
आज ही होश आये हुए हैं ।।
साथी मिलते गये नए नए ,
कुछ अपने भी पराये हुए हैं ।
फलसफा पेश है पुर नज़र ,
लक्ष्य उसपै ही टिकाये हुए हैं ।।
अम्न का अंश है जिस फिजामें,
मेघ उस नभ में छाये हुए हैं।
युग युग से जो प्यासे रहे हैं,
वे अब क्षीरसिंधु नहाये हुए हैं।।
अपनी चाहत के रंग सब बदरंग,
खुद अपने ही सजाये हुए हैं।
औरों की खता कुछ नहीं है,
गुल अपने ही खिलाये हुए हैं।।
चंद दिनके लिये धतकरम सब,
क़र्ज़ खुद कितना चढ़ाए हुए हैं।
जख्म जितने भी हैं जिंदगी के,
आप अपने कमाए हुए हैं।।
खुद ही भूले हैं अपने ठिकाने,
दोष जग पै लगाये हुए हैं।
वक्त ने ही मिटाया है सबको,
जो वक्त के ही बनाये हुए हैं।।
श्रीराम तिवारी

खुदसे मिलन हो गया.

ऊषा की लालिमा घुली ,
भोर का शुभम हो गया !
जिंदगी की राह में तभी,
खुदसे मिलन हो गया !!
दिव्यता अलौकिक सजी,
अंजुरी में पुष्प थे खिले।
देह यह धरा बन गई ,
विचार जब गगन हो गया ।।
शब्द ओस बिंदु बन गए,
छंद नव गीत बन गए ।
जिजीविषा धन्य हो गई ,
मन नवनीत हो गया।।
संघर्ष पूर्ण मन्त्र सध गए ,
कर्म शंखनाद हो गए ।
संघर्षों की यज्ञवेदी पर ,
स्वार्थ का हवन हो गया।।
अहम का वहम मिट चला,
अस्तित्व जब वयम हो गया ।
जीवन संग्राम में मेरा ,
सत्य से मिलन हो गया।।
जिंदगी की राह में तभी ,
खुद से मिलन हो गया।,,,,,,,,,,,,!
श्रीराम तिवारी

सोमवार, 20 अगस्त 2018

हमने "एक आदमी को चुना"

तीन डाक्टर साथ सफर कर रहे थे।
एक जर्मन, एक फ्रांस, और एक भारतीय।
जर्मन डा-हमने एक आदमी को चुना और उसकी किडनी बदली और 6धंटे बाद वो काम धंधा ढूंढ रहा था।
फ्रांस डा-हमने एक आदमी को चुना और उसका दिल बदला और वो 4धंटे बाद काम धंधा ढूंढ रहा था। 
भारतीय डा-हमने तो बस "एक आदमी को चुना" और अब पूरा देश काम धंधा ढूंढ रहा है।

केवल मनुष्य हूँ मैं !पूँछो कि क्या चाहता हूँ?

मेहनतकश सर्वहारा किसान मजदूर हूँ मैं,
हर खासोआम से कुछ कहना चाहता हूँ !
सदियों से सबकी सुन रहा हूँ खामोश मैं ,
आपसे शिद्द्त के साथ कुछ कहना चाहता हूँ!!
वेद पुराण बाइबिल कुरआन जेंदावेस्ता गीता, 
के बरक्स मैं कुछ खास कहना चाहता हूँ!
इतिहास भूगोल राजनीती साइंस तकनीक ,
कमप्यूटर,मोबाइल से जुदा कहना चाहता हुँ !!
ईश्वर अवतारों पीरों पैगंबरों संतों महात्माओं,
के इतर कुछ अधुनातन कहना चाहता हूँ!!
समाज सुधारक नहीं हुँ क्रांतिवीर भी नहीं,
केवल मनुष्य हूँ मैं !पूँछो कि क्या चाहता हूँ!
न तख्तो ताज चाहिए ,न जन्नत-स्वर्ग के हसीं ,
सब्ज बाग ,फ़कत सम्मान से जीना चाहता हूँ।
युगो-ं युगों से जो बात सभी बिसारते आये हैं,
वो बात मैं अब सर्मायेदारों से कहना चाहता हूँ।।
मैं धरती,हवा,पानी,आसमान,सूरज चाँद,तारोंमें
सबका बराबर बाजिब हक देखना चाहता हूँ।
जो सम्पदा समष्टी चैतन्य ने रची है सबके लिए,
उसे मैं प्राणीमात्र में बराबर देखना चाहता हूँ।।
Shriram Tiwari

रविवार, 19 अगस्त 2018

मार्क्सवाद बनाम वर्ग संघर्ष का सिद्धांत'


मार्क्स एंगेल्स की,मेहनतकश जनता के प्रति पक्षधरता,उसकी दीन हीनदशा,उनकी दया, करुणा और सहानुभूति का ही परिणाम नहीं थी।यदि कुछ थी भी तो उसका अंश बहुत छोटा था।
मेहनत कश जनता की उनकी पक्षधरता का वास्तविक कारण यह है कि मानव समाज की दुनियामें जो कुछ भी उपयोगी और सुंदर रचना है वह उन्हीं के दिल,दिमाग और हाथों का कमाल है।अर्थात मेहनत का परिणाम है!
इतना ही नहीं उनका यह विज्ञान सम्मत विश्वास है कि जो हाथ दुनिया को सजाते हैं, वहीं इसे पूरी तरह से बदल देने का भी काम करेंगे।मार्क्स का विशेषआग्रह भी यही है कि असली सवाल तो दुनिया को बदलने का है।
मार्क्स बर्लिन विश्व विद्यालय में अध्ययन के लिए अपनी 18,,19 साल की उम्र में आए! और हेगेल के भाववादी द्वंद्ववाद पर गहन चिंतन कर,उसकी सहायता से पदार्थवादी या भौतिकवादी द्वंद्ववादी हो गए।
प्रकृति के विकास के द्वंद्व वादी विकास की तरह ही उन्होंने समाज के विकास के परस्पर विरोधी और द्वंद्व रत तत्वों की तलाश की और यह पाया कि उनके समय के ये तत्व पूंजीपति और सर्वहारा ही हैं।इनके सहारे वह पीछे लौटते हैं और आदिम साम्यवादी युग से पूंजीवादी युग तक के विकास की कुंजी को खोज लेते हैं।यह कुंजी है,,वर्ग संघर्ष,,।

खिलना सिर्फ कमल ही चाहिये

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का प्रयास रहता था कि उनके जमाने के कुछ दिग्गज विपक्षी नेता चुनाव जीतकर संसद में जरूर पहुंचें !फिर चाहे वे ए .के गोपालन हों,राम मनोहर लोहिया हों,अटलबिहारी बाजपेइ हों,श्यामाप्रसाद मुखर्जी हों या बाबा साहिब भीमराव अंबेडकर हों!अब अमित शाह और उनके आकाओं ने राजनीति को इस कदर पतनोन्मुखी बना दिया है कि चाहे तालाबों में कमल खिले या न खिले किंतु भारतीय राजनीति में अब जब कोई मतदाता बटन दबाये तो खिलना सिर्फ कमल ही चाहिये ! यदि कोई नेता मरे तो उसकी मौत के मातम को इस कदर मनाओ कि वोटों का सैलाव आ जाये!यदि निमंत्रण पर सिध्दु पाकिस्तान जाये तो उसे देशद्रोही घोषित कर दो और मोदी जी यदि बिन बुलाये बदमास शरीफ के घर पहुंच जायें तो देशभक्ति!धन्य है स्वघोषित राष्ट्रभक्ति!

जिंदगी मुस्कराएगी।

हरएक स्याह रात के बाद ,नई सुबह जरूर आयेगी!
तलाश है ज़िसकी तुुझे वो मौसमे बहार फिर आएगी।।
दैहिक निजी स्वार्थ से ऊपर उठ जरा कुछ थोड़ा सा ,
ख्वाहिसोंके उसपार,छितिजमें जिंदगीखुद मुस्कराएगी।
समष्टि चेतना को देगा नाम,जब तूं रूहानी इबादत का ,
संवेदनाओं की बगिया,खुद ब खुद खिल खिलाएगी।
जिंदगी की तान सुरीली हो,कदम ताल सधे हों तेरे,
जीवन व्योममें बजउठेंगे वाद्यवृन्द नईभोर गुन गनायेगी!
Shriram Tiwari
यह दुनिया उतनी बदसूरत नहीं जितनी बताई जा रही है!किंतु यह भी सच है कि यह उतनी खूबसूरत भी नहीं जितनी यह दु"यह दुनिया उतनी बदसूरत नहीं जितनी बताई जा रही है!किंतु यह भी सच है कि यह उतनी खूबसूरत भी नहीं जितनी कि होनी चाहिये!"श्रीराम तिवारीह दुनिया उतनी बदसूरत नहीं जितनी बताई जा रही है!किंतु यह भी सच है कि यह उतनी खूबसूरत भी नहीं जितनी कि होनी चाहिये!"श्रीराम तिवारीनिया उतनी बदसूरत नहीं जितनी बताई जा रही है!किंतु यह भी सच है कि यह उतनी खूबसूरत भी नहीं जितनी कि होनी चाहिये!"श्रीराम तिवारीकि होनी चाहिये!"श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 16 अगस्त 2018

वर्ग संघर्ष का सिद्धांत क्या है?


अधिकांस जन गण यह सोचते हैं कि कार्ल मार्क्स ने ही 'वर्ग संघर्ष' कराने कि शुरुआत की है!किन्तु यह सच नहीं है।वर्ग संघर्ष तो तब से चल रहा है,जब से मानव समाज का मुख्यत : दो परस्पर विरोधी वर्गों-श्रमजीवी और परजीवी वर्ग में विभाजन हुआ है!
'वर्ग संघर्ष' का अर्थ मात्र लड़ाई झगड़ा,मार पीट,तोड़ फोड़ ,हड़ताल,विरोध प्रदर्शन,नारे बाजी, हिंसा इत्यादि ही नहीं है। श्रमजीवी वर्ग का मन ही मन दुखी होना,शांतिपूर्ण ढंग से निवेदन करना-आदि भी वर्ग संघर्ष के ही प्रछन्न रूप हैं।
मार्क्स ने 1845 में अपनी 28 साल की उम्र में फायरबाख पर आधारित लेख में अपने पूर्ववर्ती सभी विचारकों के उस सिद्धांत को स्वीकार किया कि 'मनुष्य की भौतिक दशाएं उसके चरित्र का निर्माण करती हैं, किन्तु मार्क्स ने उसमें अपनी यह बात भी जोड़ दी कि वह मनुष्य ही है जो उन दशाओं का निर्माण करता है।इस संदर्भ में यह कहा कि शिक्षक को भी शिक्षण की जरूरत होती है।इसी लेख में मार्क्स का यह प्रसिद्ध कथन है कि 'दार्शनिकों ने अबतक ,दुनिया क्या है ?केवल इसकी व्याख्या की है, किंतु असली सवाल तो इस दुनिया को बदलने का ही है।
आमतौर पर यह माना जाता रहा है कि इतिहास रचने और उसे आगे बढ़ाने का काम अच्छे अच्छे विचार, विचारक, संत, महात्मा राजा,महाराजा,योद्धा इत्यादि ही करते हैं।
मार्क्स एंगेल्स ने मानव समाज और उसके इतिहास के वस्तुवादी अर्थात वैज्ञानिक विश्लेषण से इस बात को सिद्ध किया है कि इतिहास का निर्माण और उसका विकास श्रमजीवी समाज द्वारा अपने जीवन की अच्छी दशाओं के लिए किए जाने वाले सतत् संघर्षों के द्वारा हुआ है और होगा।
अटलजी व्यक्तिगत रूप से भारत के अधिसंख्य जनमानस की सर्वाधिक पसंद रहे! किंतु दक्षिणपंथी,प्रतिक्रियावाद ने उन्हें खूब इस्तेमाल किया!

पूँजी की बढ़ती उदर भूँख.

माल गपागप खा रये चोटटे,कसर नहीं हैवानी में।
मंद मंद मुस्काए हुक्मराँ, गई भैंस जब पानी में ।।
सुरा सुंदरी में खोये हैं,सत्ता की गुड़ धानी में !
जनगण मन को मूर्ख बनाते,शासक गण शैतानी में।।
लोकतंत्र के चारों खम्बे, पथ विचलित नादानी में।
लुटिया डूबी अर्थतंत्र की,जनता है हैरानी में।।
व्यथित किसान भूँख से मरते,क़र्ज़ की खींचातानी में।
कारपोरेट पूँजी की बढ़ती उदर भूँख,जनता की नादानी में।।
निर्धन निबल लड़ें आपस में,जाति धर्म की घानी में।
सिस्टम अविरल जुटा हुआ है,काली कारस्तानी में।।
बलिदानों की गाथा हमने, पढ़ी थी खूब जवानी में।
संघर्षों की सही दिशा है ,भगतसिंह की वाणी में।।
श्रीराम तिवारी

अटलजी को नेहरू की परंपरा में न रखें

अटलजी को भांग का शौक था ,नेहरू को नहीं!अटलजी ईश्वरीय शक्ति में विश्वास रखते थे,नेहरू मनुष्य की शक्ति में!नेहरू धर्मनिरपेक्ष थे,अटलजी हिंदुत्वपंथी,अटल जी शाखा में बड़े हुए,पं.नेहरू स्वाधीनता संग्राम में भाग लेते हुए!नेहरू अनेक बार आजादी की जंग में जेल गए, वर्षों सजा काटी!अटलजी स्वाधीनता संग्राम में मुखबिर थे ,कभी जंग नहीं लडी। अटल जी हिंदी बोलते रहे,नेहरु हिंदुस्तानी याने फारसी लहजे की हिंदी बोलतेथे!नेहरू ने कभी उसूल और दल नहीं बदले, अटलजी पहले आरएसएस में रहे,फिर जनसंघ, जनता पार्टी, भाजपा, पहले हिंदुत्ववादी फिर लिबरल फिर गांधीवादी समाजवादी। इसके अलावा लेखन और वक्तृता में जमीन आसमान का अंतर था। इसलिए कृपया अटलजी को नेहरू की परंपरा में न रखें! अटलजी दक्षिणपंथी लिबरल थे,नेहरु लिबरल-वामपंथी थे।

वर्ग संघर्ष का सिद्धांत"...


श्रमजीवी,परजीवी,अमीर,गरीब,स्वामी,दास,सामंत,किसान,दस्तकार इत्यादि परस्पर विरोधी आर्थिक और सामाजिक जन समूहों और उनके बीच के झगड़ो,संघर्षों की बातें सारी दुनिया में ,सदियों से होती आ रही हैं।
किन्तु श्रम विभाजन को लेकर किसी भी संत,महात्मा,दार्शनिक,कवि,अर्थशास्त्री ने उसे स्वाभाविक और जायज नहीं ठहराया।
कमेरे और लुटेरे के बीच के द्वंदात्मक संघर्ष को समाप्त करने के उपदेश,उपाय जरूर बताए।
किसी ने कभी उनके अलग अलग होने को भगवान की इच्छा या किसी ने पूर्वजन्मों का फल कहा है!
दुनिया के लगभग सभी आदर्शवादियों ने धर्मगुरुओं ने मेहनतकशों को संतोष करने, धीरज रखने,स्वामिभक्त होने,आज्ञा पालन करते रहने का, अमानवीय और अन्याय पूर्ण दंड को न्याय पूर्ण मान लेने की शिक्षा दी।कुछ नेक लोगो ने शासक स्वामियों को दयालु,उदार,प्रजापालक होने की बात भी कही।
मानव समाज के इतिहास में यह पहली बार हुआ की मार्क्स और एंगेल्स ने कमेरों-मजूरों के ,सर्वहारा के संघर्ष का मात्र समर्थन ही नहीं किया!बल्कि उन्होंने उसे और अधिक तेज करने की सलाह भी दी!उसे जायज ठहराया,औचित्य प्रदान किया और इतना ही नहीं उसे अपना नेतृत्व भी प्रदान किया।उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन उस संघर्ष के लिए अर्पित कर दिया।

बुधवार, 15 अगस्त 2018

पुरुष सिंह थे वे हुतात्मा,

भगतसिंह आजाद पुकारे,
जागो-जागो वीरो जागो।
आजादी है ध्येय हमारा ,
पीठ दिखाकर न तुम भागो।।
बांधो कफ़न शीश पर साथी,
रिपु रण में होगी आसानी।
स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर ,
हंसते हंसते दो कुर्बानी।।
पुरुष सिंह थे वे हुतात्मा,
जिनने मर मिटने की ठानी।
आओ शीश नवाएं उनको ,
जो थे क्रांति वीर बलिदानी।।
मेरी पहली पुस्तक 'अनामिका'से उद्धरत!

संघर्ष भी कुंद हो गया।


हरी-भरी धरा हो गई ,जनगण मगन हो गया।
मुक्ति के संग्राम का लहू ,फिर से जवां हो गया।!
संघर्ष द्वन्द ग्रन्थ के सभी,सर्ग इस मुल्क ने पढ़े।
देश का विधान बन गया,लोकतंत्र धन्य हो गया।।
शत्रू कुचालों से वतन,घायल भी कम न हुआ !
धर्म जाति फितरत का,मर्ज वेरहम हो गया।।
धांधली व्यवस्था की,मुल्क अभिशाप बन गई ।
जाति -पाँति -मजहब का,चुनाव में चलन हो गया।!
खम्बे चारों लोकतंत्र के,बीमार हम खुद कर चले,
वित्तीय गुलामी से,राष्ट्र रत्न नीलाम  हो गया !
शोषण के व्योम में हम ,प्रश्न बन कर घूमते रहे,
क्रान्ति कुछ अधूरी थी,संघर्ष भी कुंद हो गया।।
मँहगाई की सुरसा से,ये मुल्क हैरान हो रहा,
भृष्टाचार -रिश्वत का,व्यभिचार आम हो गया।।
शहीदों के सपनों का ,वेदना से मिलन हो गया।
श्रीराम तिवारी-:

मंगलवार, 14 अगस्त 2018

आजादी के दीवानों ने

धूल धुअॉ धुंध से भरा राष्ट्र,
यह आँसुओं से भरा हुआ!
निर्धन ग्रामीण देखो गौर से,
हरेक चेहरा है बुझा हुआ!!
इन बड़े बड़े नगरों में देखो ,
जहां केवल भीड़ पसारा है।
भटक रही तरुणाई यहाँ की,
फिर भी सत्ता की पौबारा है।।
पूर्वजों आजादी के दीवानों ने,
एक क्रांति ज्योति जलाई थी।
होगा प्रजातंत्र -समाजवाद ,
सबने ऐंसी आस जगाई थी।।
जात पांत भाषा मज़हब की ,
उनने कटटरता ठुकराई थी।
आज़ादी के बाद अमन की ,
शहीदों ने राह दिखाई थी।।
अब भूँखे को रोटी मिल जाए,
निर्धन को मिले रोजगार सहारा है ।
नंगे भूँखे की कैसी आजादी,
उसे तो सारा जहाँ हमारा है।।
अपनी  आजादी अमानत है शहीदों की।
इसकी हिफाजत हम करेंगे जान देकर भी।।
बाहरी जो भेद हैं उनको न मानेंगे कभी।
आज यह संकल्प लेकर ही यहां से जाइए।।
गीत जनगण गान वंदे मातरम् का गाइए।
हाथ में लेकर तिरंगा आज फिर फहराइए।।

शनिवार, 11 अगस्त 2018

बहकजाता हैआदमी।

मिलता है जब सत्ता पॉवर, तो बहक जाता है आदमी।
अक्सर ज्यादा बोलने पर भी,उलझ जाता है आदमी।।
नेता के बोल बचन हों निकृष्टतम शब्दाडंबर हो भदेस,
तो चुनाव सभामें उमड़तीहै भीड़ बहकजाता हैआदमी।
औरोंकी मेहनत पर मौज करे,कृतज्ञताका स्वांगभरे,
ऊँचे पदपर प्रतिष्ठित ये,कितना गिर जाता हैआदमी।।
चमचोंकी तमन्ना है कि कोई ,गॉडफादर उन्हें मिल जाये,
इसीलिये पाखंड की गिरफ्त में आ जाता है आदमी
श्रीराम तिवारी

चुनाव जिताऊभीड़'

भारत में प्रायः देखा गया है कि धर्मांध लोगों को अपने शास्त्रीय धर्मसूत्रों या आप्तबचनों में कोई दिलचस्पी नहीं है। केवल सैर सपाटे के लिये अनंतनाग ,वैष्णव देवी या हज यात्रा पर निकल पड़ते हैं! इन दिनों कांवड़ यात्रा कुछ ज्यादा हाईटैक हो गई है ! 'बमबमबोल' वाले नारों के साथ अब 'बम' भी फूटने लगे हैं! जो लोग सत्य,अहिंसा,अस्तेय,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ,शौच,संतोष ,स्वाध्याय व ईश्वर प्राणिधान द्वा इत्यादि के बारे में कुछ नही जानते!वे व्यर्थ बातें बहुत करते हैं। किन्तु अन्याय,अत्याचार करने वालों से किसीभी किस्म का जायज संघर्ष करने के बजाय वे उनके ही शिकार हो जाया करते हैं। आम तौर पर अमीर-गरीब ,शरीफ-बदमाश सभी किस्म के धर्मांध हिन्दुओं मुस्लिमोंको अपने पाखंडी 'बाबाओं'मुल्ले मौलवियों पर अटूट अंध श्रद्धा हुआ करती है। साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर वोट जुगाड़ने वाले दलों को ये अंधश्रद्धा के नशे में डूबी नस्ल केवल 'चुनाव जिताऊभीड़' मात्र हैं !इसीलिए वे बाबाओं-कठमुल्लों के पाखंड- व्यभिचार पर चुप्पी साधे रहते हैं। इस तरहकी मानसिकता सिर्फ-हिंदुओं में ही नहीं,बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग में भी पाई जाती है
धर्म पर हमला करके उसे शहीद मत बनाओ!उन परिस्थितियों पर हमला करो,जिनके कारण इंसान को धर्म की जरूरत पड़ती है"
-कार्ल मार्क्स
धार्मिक व्यथा एक साथ वास्तविक दुखों की अभिव्यक्ति और उनका प्रतिवाद दोनों है!धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है!धर्म आत्मा- हीन परिस्थितियों कीआत्मा है!धर्म ह्रद़यहीन विश्व का ह्रदय है!निर्दयी संसार का मर्म है तथा साथ ही निरुत्साही परिस्थितियों का उत्साह और उमंग भी है!धर्म एक अफीम है!
-कार्ल मार्क्स

पिकनिक सावन स्पॉट पै मनावै है।

गांव की गरीबनी का चूल्हा नहीं सुलगत,
घन गहर-गहर बरसात गहरावै है !
एलपीजी चूल्हा भी जले कैसे गैस बिन,
बी पी एल गैस का न पैसा जुट पावै है!!
गरीबी में गीला आटा,सुरसा सी महँगाई ,
गुजारे लायक श्रमिक मजूरी न पावै है!
बाढ़ में बहर गए टूटे-फूटे ठीकरे ,
डूब रही झोपड़ी पै मौत मँडरावै है!!
नगरीय अभिजात्य कोठियों की कामिनी,
पिकनिक सावन स्पॉट पै मनावै है।
सत्ताधारी नेता किये लंबे -चौड़े वादे.
भ्रस्टों की क्रपा से नया पुल बह जावै है!!

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

सिर्फ ईश्वर,गॉड,अल्लाह,अहूरमज्द में आस्था नही होने मात्र से कोई नास्तिक नही हो जाता!यदि आप किसी से सच्चा और निस्वार्थ प्रेम करते हैं,किसी भी प्राणी की हिंसा नही करते और किसी से बैर नही रखते तब भी आप सच्चे आस्तिक हैं!

मंगलवार, 7 अगस्त 2018

विभिन्न सूत्रों की सूचनाएं हैं कि आवारा ढोरों से भरे ट्रक को कांजी हॉउस ले जाने या कसाई खाने ले जानेवालों से 'संस्कृति रक्षक' संगठित गिरोह जबरिया 'बंदी'लेतेहैं जिसका एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है। जो ट्रक वाला या ड्रायवर यह 'शुल्क नहीं दे पाता या जो अपनी 'पहुँच ' का प्रमाण नहीं दे पाता, उसको 'गौहत्यारा' बीफ भक्षक घोषित कर वहीँ 'लुढ़का 'दिया जाता है। ऐंसा नहीं है कि मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री यह नहीं जानते लेकिन लोकतंत्र और देश के दुर्भाग्य से ये हत्यारे ही उनके पोलिंग बूथ एजेंट भी हुआ करते हैं।इसीलिये इस प्रकार के दमन-उत्पीड़न को रोक पाने में वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था [NDA Govt]असफल हो रही है। इसके लिए कुछ हद तक दलित -शोषित समाज के लोग भी इस अपराध के भागीदार हैं। बेकारी की हालत में वे दवंग नेताओं और अपराधियों के हाथों 'कुल्हाड़ी का बेंट' बन कर अपने ही सजातीय बंधुओं की हत्या के गुनहगार होते हैं। किसे नही मालूमकि यूपी, बिहार और हरियाणा में जातीय आधार पर राजनैतिक आतंक किन जातियों का है?

'कुल्हाड़ी का बेंट

विभिन्न सूत्रों की सूचनाएं हैं कि आवारा ढोरों से भरे ट्रक को कांजी हॉउस ले जाने या कसाई खाने ले जानेवालों से 'संस्कृति रक्षक' संगठित गिरोह जबरिया 'बंदी'लेतेहैं जिसका एक हिस्सा पुलिस को भी जाता है। जो ट्रक वाला या ड्रायवर यह 'शुल्क नहीं दे पाता या जो अपनी 'पहुँच ' का प्रमाण नहीं दे पाता, उसको 'गौहत्यारा' बीफ भक्षक घोषित कर वहीँ 'लुढ़का 'दिया जाता है। ऐंसा नहीं है कि मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री यह नहीं जानते लेकिन लोकतंत्र और देश के दुर्भाग्य से ये हत्यारे ही उनके पोलिंग बूथ एजेंट भी हुआ करते हैं।इसीलिये इस प्रकार के दमन-उत्पीड़न को रोक पाने में वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था [NDA Govt]असफल हो रही है। इसके लिए कुछ हद तक दलित -शोषित समाज के लोग भी इस अपराध के भागीदार हैं। बेकारी की हालत में वे दवंग नेताओं और अपराधियों के हाथों 'कुल्हाड़ी का बेंट' बन कर अपने ही सजातीय बंधुओं की हत्या के गुनहगार होते हैं। किसे नही मालूमकि यूपी, बिहार और हरियाणा में जातीय आधार पर राजनैतिक आतंक किन जातियों का है?

कांग्रेस और भाजपा का वर्ग चरित्र!

चुनाव के दौरान उन मतदाताओं की बड़ी फजीहत हुआ करती है,जो भाजपा और कांग्रेस की नीतियों से सहमत नही हैं!और जिनके सामने-भाजपा,कांग्रेस या कोई अन्य दल का उम्मीदवार तो है,किंतु वर्ग चेतना से लैस वामपंथी उम्मीदवार नही है!इन हालात में मतदाता यदि परिपक्व है तो वह कांग्रेस को चुनेगा !क्योंकि कांग्रेस की आर्थिक नीति काविरोध करते हुये भी अपने वर्गीय हितों के लिये संघर्ष किया जा सकता है,किंतु भाजपा या संघ के सत्ता में रहते हुये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-लोकतंत्र अक्षुण नही रह सकते! यद्दपि कांग्रेस और भाजपा का वर्ग चरित्र एक जैसा ही है,किंतु संसदीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के बरक्स दोनों में बहुत फर्क है!वैसे तो अक्सर कांग्रेस और भाजपा को एक ही पायदान पर खड़ा किया जाता रहा है। किन्तु बजाय भाजपा के सर्वसत्तावाद और आक्रामक पूँजीवाद के कांग्रेस का उदारवादी जनवाद और लोकतांत्रिक चेहरा स्वीकार्य किया जाना चाहिये !कांग्रेस में राहुल गांधी हों या कोई और नेतागण हों उन्हें कांग्रेस के वेशिक सिद्धांतों के अलावा अपनी विनाशकारी आर्थिक नीतियों- मनमोहनी अर्थशाश्त्र की खामियों की भी जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बहुत सोच समझकर संयम के साथआगामी संसदीय चुनावोंसे पूर्व न केवल जनवादी आर्थिक नीति का खुलासा करना चाहिये बल्कि ठोस'कामन मिनिमम प्रोग्राम', धर्मान्धता,साम्प्रदायिक दंगे,कुशासन,भीड़- हिंसा,महँगाई,बेकारी,निजीकरण ठेकाकरण और माफिया राजके खिलाफ अपनी ओरसे कठोर कार्यवाहीकाअनुमोदन करना चाहिये!कांग्रेसको या उसके नेतत्व को हताश निराश होने की जरुरत नहीं है। उन्हें अपनी पार्टी से वंशवाद और चमचावाद को खत्म करने की ओर भी कुछ तो कदम आगे बढ़ाने चाहिए। कांग्रेसियों को थोड़ा सा सांगठनिक संयम, सब्र और थोड़ा सी नीतिगत आत्मालोचना भी करनी चाहिये!यदि इतनाही कर लियातो बाकी का काम जनता कर देगी !क्योंकि किसीभी सत्तारूढ़ सरकार से नाराज जनता उसे अपदस्थ करने के लिये हमेशा तैयार रहती है !शर्त सिर्फ यह है कि मतदाता के समक्ष विश्वसनीय विकल्प हो!श्रीराम तिवारी
कुछ अपवादों को छोड़कर,आमतौर पर भारत के सभी राज्यों के पुलिसवाले या तो अपराधियों से मिले होते हैं या आसाराम,राम रहीम और ब्रजेषसिंह जैसे बलात्कारी गुंडों और बदनाम नेताओं के डर से चुपचाप अपनी 'ड्युटी' करते रहते हैं!इसीलिये न केवल आश्रमों में ,मठों में,मंदिरों में,मदरसों मे,चर्च में,बल्कि यूपी बिहार के एनजीओ द्वारा संचालित बालिका संरक्षण केंद्रों में भी सैकड़ों बालिग- नाबालिग लड़कियों पर जुल्म ज्यादती होती रहती है! पुलिस के आकंठ भ्रस्टाचार ने भारत की बेटियों की जिंदगी को असुरक्षित किया और पूरे भारत का अपराधीकरण कर डाला है!

शनिवार, 4 अगस्त 2018

डिजिटल,इलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट,श्रव्य और तमाम सोसल मीडिया में दलित सांसदों के असंतोष की प्रतिध्वनि से घबराकर मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को निरस्त करने की ठान ली है,जो एस सी /एस टी एक्ट के बरक्स सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों पारित किया था! मोदी सरकार की इस हड़बड़ी से ऐंसा लगता है कि मानों सारे 'सवर्ण' पैदायसी बदमाश हैं और सारे दलित मानों पैदायशी ईमानदार और शांति प्रिय हैं! भारतीय समाज और राजनीति में ऐंसा कोई उदाहरण नहीं जहाँ दलितों को जिम्मेदारी नहीं दी गयी हो। अतीत में 40 साल केंद्रिय मंत्री रहे बाबू जगजीवनराम,उनकी सुपुत्री लोकसभा स्पीकर -मीराकुमार,भूतपूर्व ग्रह मंत्री सुशील शिंदे से लेकर एनडीए के राम विलास पासवान,करिया मुण्डा,मरांडी,माझी कुलस्ते,उदितराज और अठावले जैसे हजारों दलित नेता और वरिष्ठ अधिकारी-सभी यह जानते हैं कि सत्तासुख किस चिड़िया का नाम है?जबकि लाखों-करोड़ों सवर्ण मजदूरों और किसानोंका भी राष्ट्र के निर्माण में उतना ही योगदान है जितना कि दलित-आदिवासी भाइयों का! दरसल समस्या सवर्ण बनाम दलित की नही है!बल्कि समस्या राष्ट्रीय सर्व संपदा के बटवारे की है, रोजगार के अवसरों की है। जनसंख्या विस्फोट और पूंजीवादी व्यवस्था के चलते सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर बहुत कम हो गये हैं,ऐंसे में गरीब दलितवर्ग के पास आजीविका के जो पुराने परम्परागत साधन हैं,यदि वह उन्हें छोड़ देगा तो उनके लिये आजीविका के विकल्प क्या होंगे?इधर आरक्षण के नाम पर जाट,पटेल-पाटीदार और गूजर जैसे समाज भी सवर्ण समाज से दूर हो कर आरक्षण की मांग पर अड़े हुये हैं। चूँकि धनवान जाटों-पटेलों जैसे बड़े किसानों ने भी पिछड़ापन माँग लिया है। इसलिए अब बचा खुचा सवर्ण समाज अपने आप हासिये पर जा चुका है।अब तो भारत में कोई जाट है ,कोई पटेल है ,कोई पिछड़ा है और कोई अगड़ा है। कोई जैन है,कोई मराठा है,कोई सिंधी है,कोई -पँजाबी है,कोई तमिल-तेलगु-मलयाली है,कोई दलित,महादलित पिछड़ा,अतिपिछड़ा है! कोई आदिवासी-अल्पसंख्यक है। ऐंसा लगता है कि मानों असल भारतीय सिर्फ सवर्ण ही हैं! क्योंकि बाकी सब तो केवल अधिकारों की ही बात करते हैं। ऐसे लोग बहुत कम हैं जो देश के प्रति अपने कर्तव्य की भी बात करते हैं,और अपने आपको सिर्फ भारतीय समझते हैं!
श्रीराम तिवारी
राजनीति के मार्ग में,निहित स्वार्थकी भीड़।
पूंजीवाद के पूत हैं, भ्रस्टाचार के नीड़ ।।
जातपाँत की बोलियां,भाषण बोल कबोल ।
वोट जुगाडू खेल के ,बजते नीरस ढोल ।।
लोकतंत्र की मांद में,कोई नहीं गम्भीर।
भाषणबाज नेता बड़े,बातों के शमशीर।।
भारत के जनतंत्र को,लगा भयानक रोग।
सत्तापक्षमेंजा घुसे ,घटिया शातिर लोग।।
नयी आर्थिक नीति ने, किया देश कंगाल।
काजू-किशमिश हो गयी ,देशीअरहर दाल।।
रुपया खाकर बैंक का,माल्या हुआ फरार।
पक्ष विपक्ष में हो रही,फोकट की तकरार।।
भारत के बाजार में,अटा विदेशी माल!
डालर ही मदमस्त है,रुपया हुआ हलाल!!
अच्छे दिन उनके हुए,जो मंत्री और दलाल।
मुठ्ठी भर धनवान भये ,बाकी सब कंगाल।।
जात-वर्ण आधार पर,आरक्षण की नीति।
बिकट बढ़ीअसमानता,निर्धनजनभयभीत!!
आवारा पूँजी कुटिल,नाच रही चहुं ओर।
मल्टीनेशनल लूटते,दुष्ट मुनाफाखोर।।
बढ़ते व्ययके बजटकी,कुविचारित यहनीति!
ऋण पर ऋण लेते रहो,गाओ ख़ुशीके गीत !!
धीरे धीरे सब हुये,राष्ट्र रत्न नीलाम।
औने -पौने बिक गए ,बीमा -टेलीकॉम।।
लोकतंत्र की पीठ पर,लदा माफिया राज।
ऊपर से नीचे तलक,बंधा कमीशन आज।।
वित्त निवेशकों के लिए ,तोड़े गये तटबंध।
आनन-फानन कर दिये,जनविरुद्ध अनुबंध !!
ऊंचे महलों के लिये,उजरत निर्धन नीड़!
यत्र तत्र धर्माधता, भावुक हिंसक भीड़!
श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 2 अगस्त 2018

अतिरिक्त मूल्य के रहस्य

  • पूंजीवादी व्यवस्था में मात्र सर्वहारा अर्थात शारीरिक बौद्धिक मेहनत करने वाले औद्योगिक मजदूरों का ही नहीं बल्कि किसानों,खेतिहर मजदूरों,कर्मचारियों और छोटे दुकानदारों का अर्थात हर तरह की मेहनतकश जनता का भी शोषण होता है।किसान की तो लागत ही नहीं निकल पाती।वह कर्ज दर कर्ज का शिकार होता रहता है।
    यह जनता दो तरह से शोषित होती है।एक तो उत्पादक के रूप में ,दूसरे उपभोक्ता के रूप में शोषण के ये दोनों रूप अतिरिक्त मूल्य से जुड़े हुए हैं।मालिक मजदूर को जो मजदूरी देता है,वह पहले से चली आ रही कीमत पर उसे जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम उपभोग सामग्री खरीदने के लिए दी जाती है।किन्तु उतने ही रुपए में जो सामग्री उसे पहले मिल जाती थी अब उसे नहीं मिलती।उसे प्रायः बढ़ी हुई कीमत चुकानी पड़ती है।आज के वैश्वीकरण के युग में तो यह रोज रोज की बात हो गई है।पहले यदि आज कीमत बढ़ी है तो कल उसके कम हो जाने की भी आशा रहती थी।किन्तु आज नहीं।तेल की कीमत घटने के बाद भी आम आदमी को कोई राहत नहीं मिलती।इसका विरोध करने की अगुआई सर्वहारा ही करता है।मिलो कारखानों,बैंकों,बीमा कंपनी के लोग आगे आते हैं।
    शिक्षक,वकील जो कभी अगुआई करते थे अब उनका समर्थन करते हैं।राज्य जो हमारा राज्य,जनता का राज्य कहा जाता है,उसका विरोध करता है।हमारी न्यायपालिका में अनपढ़ लोग नहीं है।वह अतिरिक्त मूल्य के रहस्य से अच्छी तरह परिचित हैं।वह जानते हैं कि मालिक के स्वामित्व में जो कुछ भी है वह सर्वहारा और आम जनता के शोषण का प्रतिफल है।किन्तु वह भी सर्वहारा के हड़ताल और दूसरे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर न्यायिक रोक लगाती है।काम नहीं तो वेतन नहीं का फरमान सरकार और न्याय के मंदिर द्वारा जारी होता है।वह ,,संविधान,शांति और कानून,,की रक्षा के नाम पर।इस तरह राज्य का भी पूंजीवादी चरित्र खुल कर सामने आ जाता है।