गुरुवार, 31 मार्च 2016

समस्या 'भारत माता की जय नहीं है, बल्कि समस्या राजनैतिक जनाधार खिसकने की है।



महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री देवेन्द्र फडणवीस कहते हैं ' भारत में रहना हैं तो , 'भारत माता की जय 'बोलना पडेगा। सवाल उठाना चाहिए कि क्या भारत में रहेंगे तो ही 'भारत माता की जय ' बोलेंगे ? जो लोग वर्षों पहले अपना वतन भारत छोड़ अमेरिका ,आस्ट्रेलिया ,इंग्लैंड और विदेश जा वसे वे अप्रवासी  भारतीय तो वहां के परमेनेंट निवासी हो जाने के वावजूद भी बेहिचक 'भारत माता की जय ' का नारा लगाते रहते  हैं। लेकिन वहां की सरकारों ने  और वहाँ के मूल निवासियों ने  इन नारे लगाने वाले भारतीयों को  कभी देशद्रोही या गद्दार  नहीं कहा । चाहे भारतीय क्रिकेट टीम हो ,कोई भारतीय  सांस्कृतिक दल हो , कोई लोकप्रिय भारतीय नेता हो या  प्रधान मंत्री हो  इनमें से कोई भी जब कभी  कहीं विदेशी दौरे पर होते हैं ,तो  वहाँ मौजूद भारतीय मूल के लोग  'भारत माता की जय 'के नारे अवश्य लगाते  हैं !कहने का तातपर्य यह हैं कि  फडणवीस छाप लोगों का यह कथन कि 'भारत में रहना हो तो भारत माता की जय बोलना ही होगा ' इस तरह का जुमला देशभक्ति पूर्ण नहीं है। और युक्तिसंगत तो कदापि नहीं है। वेशक  जो लोग भारत का नमक खाते हों और भारत माता की जय बोलने से इंकार करें ,वे भी महा मूर्ख और ठस ही हैं। वे लाख अपने धर्म -मजहब की दुहाई देंते रहें  कि  'भारत माता  की जय बोलने से तो  उनका मजहब काफूर हो जाएगा। किन्तु उनकी  इस जिद में कोई  तार्किकता नहीं है ।  बल्कि वे अपने मजहब की संकीर्णता ही सिद्ध किये जा रहे हैं। और  दुनिया में खुद की  हँसी उड़वा रहे हैं। कुछ मुठ्ठी भर लोगों के  भारत माता की जय नहीं बोलने से 'भारत माता ' का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। भले ही कोई कुछ भी कहे किन्तु उनका यह कृत्य निंदनीय तो अवश्य है।

अभी हाल ही में मोदी जी जब सऊदी अरब की यात्रा पर  थे तब सैकड़ों भारतीय अप्रवासियों ने 'भारत माता की जय' का उद्घोष किया । इस नारेवाजी में  न केवल भारतीय कामगार -मजदूर थे। बल्कि अधिकांश  बुर्काधारी मुस्लिम  उद्द्य्मी  महिलाएं भी  थीं।  जब सऊदी अरब निवासी मुस्लिम  महिलाएं 'भारत माता की जय 'का नारा लगाकर अपना मजहब सुरक्षित रख सकतीं हैं ,तो भारत के मुसलमानों को क्या परेशानी है ? उन्हें तो अपनी  मातृभूमि के प्रति  और अधिक कृतज्ञ होना चाहिए !  कुछ सिरफिरे ओवेसी -मवेशी , गुमराह देवबंदी ,बाचाल  फडणवीस  और शिवसेना वाले  यदि  साम्प्रदायिक उन्माद  की आग को हवा दे रहे हैं ,तो जनता को उनके इस धर्मांध वाग्जाल से सावधान रहना होगा।  भारत के युवाओं को देश की एकजुटता के प्रति ,सहिष्णुता के प्रति एवं  अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति  बहुत खबरदार रहना होगा। साम्प्रदायिकता और फासिज्म के जुड़वां शत्रु  से लड़कर ही लोकतंत्र को बचाया जा सकता है।  देश में लोकतंत्र रहेगा तो  ही जन सरोकारों के  लिए संघर्ष किया जा सकेगा। 

  भारत माता की जय बोलने से किसी का  धर्म -मजहब खतरे में नहीं  होगा ।  इस नारे का ईश्वरी आश्था से कोई लेना-देना नहीं है। यदि कोई  मुस्लिम भारत वासी है तो 'भारत माता की जय ' का तातपर्य यह समझना चाहिए कि  भारत  मेरा मादरे वतन है ,इसे मैं सलाम करता हूँ। वैसे भी अधिकांश मुसलमान भारत माता की जय बोलते  हैं। किन्तु यदि कोई अड़ियल आदमी इस नारे की जगह 'जय हिन्द' या हिन्दुस्तान जिंदाबाद बोलता है तो भी किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए।   वैसे भी  किसी के जय नहीं बोलने से किसी अन्य के पेट में  दर्द  होना भी नहीं  चाहिए ! लोकतंत्र का अभिप्राय भी यही है कि किसी पर कोई अपनी मर्जी नहीं थोप सकता।  एतद  द्वारा देवेन्द्र फडणवीस को और तमाम उन लोगों को  भी ,जो 'भारत माता की जय' से आगे कुछ और  सोच  -समझ नहीं पा रहे हैं -उन्हें सूचित किया जाता है कि ''भारत माता की जय ' तो सारा ब्रह्माण्ड बोल रहा है ! वैसे  यह जरुरी नहीं कि 'भारत माता की जय ' का नारा लगाने वाला देशभक्त ही हो। भारत माता की जय कहने वाले भी देशद्रोही हो सकते हैं। रिष्वतखोरी ,मिलावट,जमाखोरी ,घटिया निर्माण ,देश की सम्पत्ति का दुरूपयोग और दुश्मन देशों की जासूसी करना भी देशद्रोह ही है।  इन देशद्रोहियों के गले में हाथ डालकर कुछ धूर्त लोग केवल 'नारे नहीं लगाने वालों को  देशद्रोही बताकर साम्प्रदायिकता का उन्माद फैलाकर राजनीति कर  रहे हैं ! क्या यह देशद्रोह नहीं है ?

पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवाद से पीड़ित  भारत ,महंगाई और भृष्टाचार से पीड़िता भारत और गरीब-अमीर के बीच असमानता की  भयानक खाई से आक्रान्त भारत  का सत्तारूढ़ नेतत्व हर मोर्चे पर विफल है।  भारत की वर्तमान सरकार यह मानने को ही तैयार नहीं कि वह घरेलु समस्याओं के  समाधान और वैकल्पिक नीतियों के संधारण में विफल रही है।  वित्तीय आर्थिक बदहवासी के सामने , पाकिस्तान  की कूटनीति के सामने ,चीन की चालों  के सामने और कारपोरेट पूँजी की अकड़ के सामने  मोदी सरकार पूरी तरह असहाय और निस्तेज नजर आ रही है। देश की जनता को अच्छी तरह मालूम है कि समस्या 'भारत माता की जय नहीं है बल्कि समस्या उनके  राजनैतिक जनाधार खिसकने की है। 

भारत के  दक्षिणपंथी मीडिया ने  और 'राष्ट्रवाद' के झंडावरदार उपद्रवियों  ने जेएनयू की मामूली सी घटनाओं  को कुछ  इस कदर महिमा मण्डित किया मानों 'आर्यावर्त' पर शक-हूण -कुषाण चढ़ बैठे हों ! उन्होंने कन्हैया जैसे मामूली  छात्र को इस कदर बदनाम  किया और सताया कि  'नरकगामी -हिटलर और मुसोलनी' भी शर्मा गए होंगे ! उन्होंने वामपंथ  समेत जेएनयू के आठ हजार छात्रों और प्रोफेसरों को भी  'देशद्रोही' सिद्ध  करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । दरसल इन्हे  हिन्दू राष्ट्र या हिंदुत्व  की चिंता  कदापि नहीं है ! यदि उन्हें अपने  मुल्क की राष्ट्रीय  एकता और अखंडता की  जरा भी परवाह  होती तो वे जेएनयू की समस्याओं को खुद अपने हाथ में उन्हीं लेते बल्कि कानून और शासन  प्रशासन के  माध्यम से उस समस्या का निवारण करते। वे देश में इस कदर  बैमनस्य नहीं फैलाते ! बल्कि संघप्रमुख  मोहन भागवत ,संघ के बौद्धिक प्रचारक इंद्रेशकुमार ,सुधांशु कुलकर्णी जैसे लोगों से  ही कुछ प्रेरणा लेते ,जो सौहाद्रपूर्ण राष्टीय एकीकरण  की बात कर  रहे हैं।वास्तव में यह हिंदूवादी और अल्पसंख्य्क वादी खेमें  एक दूसरे  के प्रत्यक्ष शुभचिंतक हैं। और वे खुद बुरी तरह  विभाजित और दिग्भर्मित भी है। संघ  अपनी प्राथमिकताएं  तय नहीं कर पा रहा है।  संघ और हिन्दुत्ववादी कश्मीर में तो  धारा  ३७० नहीं चाहते । किन्तु अब  वे इस धारा ३७०  को  हटाने का संकल्प भूलकर  कश्मीर में उन्हें समर्थन दे रहे हैं जो  लोग भारत से घृणा करते हैं। क्या यह  दोगली हरकत नहीं कि एक -दो कश्मीरी छात्रों  और अलगाव वादी युवाओं की घटिया हरकत के  बहाने  देशभक्त कन्हैया कुमार और वामपंथ  को तो  'देशद्रोही' का तमगा दे दे दिया और खुद  अलगाववाद की 'होलिका' की गोद में जा बैठे ? 

  जिन्हे  भारतीय संविधान की विकाश यात्रा का ज्ञान  नहीं है ! जो लोग लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता,अभिव्यक्ति की आजादी के दुश्मन हैं. जिनके दिलों में भारतीय संविधान के प्रति सम्मान का भाव  नहीं है, वे स्वयम्भू  देशभक्त लोग क्रांतिकारियों को तो  पानी पी पीकर गालियाँ  दे रहे हैं जबकि  महबूबा मुफ्ती और बीफ खउओं का सम्मान कर रहे हैं। यदि इन हिन्दुत्वआदियों में देश के प्रति [भारत माता के प्रति] सम्मान का भाव होता तो वे बार-बार कानून को अपने हाथ में क्यों लेते ? इसी अज्ञानतावश  सरकार समर्थक [छी न्यूज]  दक्षिणपंथी मीडिया एवं 'स्वयम्भू देशभक्तों' ने जेएनयू को ही नहीं बल्कि उसकी  शानदार विरासत को भी  बदनाम करके रख दिया है । जेएनयू के बहाने यह भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत  और  वैचारिक  विविधता पर सीधा-सीधा हमला है। इस राष्ट्रीय  क्षति के लिए जिम्मेदार लोग ही असल राष्टद्रोही हैं।  दक्षिणपंथी मीडिया द्वारा फैलाया गया यह कोहरा शीघ्र ही छट  जाएगा !और शीघ्र ही दुनिया देखेगी कि  जेएनयू कोई अराजकता का जमघट नहीं है बल्कि जेएनयू तो वैश्विक विचारों का पनघट है।  जनता को सवाल करना चाहिए  कि जेएनयू ,पूना फिल्म प्रशिक्षण संसथान  , हैदराबाद यूनिवर्सिटी , अलाहाबाद यूनिवर्सिटी ,अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी,जाधवपुर और देश के अन्य विश्व विद्यालयों में राष्ट्रबाद की तथाकथित अलख जगाने वाले लोग कश्मीर में कौनसा राष्ट्रबाद पढ़ रहे हैं ?क्या कश्मीर के खालिद जैसे दो-चार  छात्र ही 'देशद्रोही' हैं ? क्या अब पूरा कश्मीर 'भारत माता की जय'बोल रहा है

 पठानकोट आतंकी हमले की जांच के बहाने पाकिस्तान के बदमाश आईएसआई वाले भारत की सुरक्षा में सेंध लगा रहे हैं। और हमारे देशभक्त नेता उनकी आवभगत में खीसें निपोर रहे हैं ! पाकिस्तानी जाँच दल जेआईटी के लिए लाल  कालीन  बिछा रहे हैं. जबकि अजहर मसूद से पूंछतांछ के विषय में पाकिस्तान ठेंगा दिखा रहा है। केंद्र में  यदि कोई और पार्टी का राज होता , मोदी सरकार की जगह कोई और सरकर होती या कश्मीर में पीडीपी को किसी और दल ने समर्थन  दिया होता  तो 'संघ' वालों को -हिन्दुत्ववालों को और जेएनयू के छात्रों पर लात-घूसे  चलाने वालों को कश्मीर की यह राजनैतिक दुर्दशा पसंद आती ? क्या तब धारा  -३७० याद नहीं आती ? अब  अपना ही बयांन  'पाकिस्तान  को उसके घर में घुसकर मारेंगे 'याद नहीं  रहा क्या ?

 जिस तरह कोई नया-नया  मुल्ला मस्जिद में  शरू -शुरू में  घनी-घनी और जोर -जोर से नमाज पढता है,उसी तरह भारत के नए-नए सिखन्दडे शासकों ने  भी 'राष्ट्रवाद' का हो हल्ला कुछ ज्यादा ही मचा रखा  है। इन्ही के इशारे पर जेएनयू में  नए-नए संघ के अनुषंगी छात्र संगठन एबीवीपी ने  जो कुछ  भी किया वह देशभक्ति नहीं बल्कि जग हँसाई ही है। एबीवीपी के इन  दक्षिणपंथी छात्रों को और स्मृति जैसे मंत्रियों को शायद मालूम नहीं था कि  जेएनयू में कोई अराजकता का जमघट नहीं है ,बल्कि जेएनयू तो विचारों का पनघट है ! समेत देश भर के विश्व विद्यालयों में बहुत आक्रामक  तरीके से  राष्ट्रवाद  की नेतागिरी  कर  रहे हैं।  
                              
श्रीराम  तिवारी 

मंगलवार, 29 मार्च 2016

देश की आवाम को बाबा साहिब के तमाम बगुला - भगतों से सावधान रहना होगा ! जय भीम !


भारतीय राजनीति और समाजशास्त्र का ककहरा जानने वाला हर शख्स जनता है कि बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर दक्षिणपंथी नहीं थे। अर्थात वे रूढ़िवादी ,दकियानूसी या  पुरातनपंथी बिलकुल  नहीं थे। वे तो उच्च शिक्षित -प्रगतिशील,विज्ञानवादी और  क्रांतिकारी थे। वे शोषण,उत्पीड़न ,अन्याय  और सामाजिक आर्थिक असमानता के विरुद्ध हमेशा संघर्ष करते  रहे।  वेशक  बाबा साहिब कम्युनिस्ट या वामपंथी नहीं थे। लेकिन उन्होंने  मार्क्स की शिक्षाओं को बहुत आदरभाव से सशर्त स्वीकार किया था। एक प्रतिबद्द कम्युनिस्ट न होते हुए भी उन्होंने  भारतीय समाज व्यवस्था के बरक्स  मार्क्स -एंगेल्स की वैज्ञानिक शिक्षाओं का बहुत समादर  किया था। अंत समय में जब वे हिन्दू धर्म त्यागकर 'बौद्ध' हुए , तब भी उन्होंने भगवान बुद्ध की 'धम्म' शिक्षाओं को अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी व्यक्तित्व के साथ समाहित किया  था। बाबा साहिब ने कार्ल मार्क्स और महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं के प्रकाश में ही भारत के दलित-शोषित और वंचित वर्ग के उत्थान का विहंगम स्वप्न देखा था। क्या विचित्र विडंबना है कि संसदीय लोकतंत्र में वोट की राजनीति के लिए अब बाबा साहिब अम्बेडकर के सनातन विरोधी - दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी भी उनके मुरीद होने का स्वांग कर रहे हैं।

जिनकी सोच घोर प्रतिक्रियावादी और पोंगापंथी रही है ,जो पुरातन सामन्तयुगींन भारतीय वर्ण व्यवस्था का गुणगान करते नहीं अघाते वे ही लोग अब 'जय भीम' के नारे लगा रहे हैं। यदि बाबा साहिब अम्बेडकर जीवित होते तो क्या ऐंसे लोगों का सानिध्य पसंद करते ? जो लोग अम्बानियों-अडानियों और कारपोरेट कम्पनियों के बगलगीर हैं ? जिन लोगों ने नरेंद्र दाभोलकर,गोविन्द पानसरे,कलबुर्गी और वेमुला  के हत्यारों को पनाह दी हो , जो लोग प्रोफेसर यू आर अनन्तमूर्ती को अपमानित करते रहे हों ,जो लोग देश के प्रगतिशील वामपंथी लेखकों, बुद्धिजीवियों -साहित्यकारों और जेएनयू छात्रों को  देशद्रोही बताकर अपमानित करते रहे हों ,जो लोग वोट की राजनीति के लिए साम्प्रदायिक धुर्वीकरण का उत्पात मचा रहे हों , क्या ऐंसे लोगों को बाबा साहिब डॉ भीमराव अम्बेडकर अपने पास फटकने देते ? दरअसल  भारत के कुछ जातिवादी नेताओं को ,घोर दक्षिणपंथी फासीवादी  साम्प्रदायिक संगठनों को ,पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं को ,बाबा साहिब के सम्मान की रंचमात्र चिंता नहीं है।   बल्कि  सत्तापिपासु नेताओं और दलों को अपने -अपने खिसकते जनाधार की फ़िक्र है। वे जो अब तक  बाबा साहिब का नाम जपकर -अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं, और वे जो  आइन्दा अपना राजनैतिक हित साधने की कोशिश में हैं ,वे बाबा साहिब के विचारों को न तो जानते हैं और मानने का तो सवाल ही नहीं है।जो लोग  वास्तव् में शोषित दमित हैं ,उनके उद्धार का तो  प्रश्न ही नहीं है। देश की आवाम को बाबा साहिब के इन तमाम बगुला - भगतों से सावधान रहना होगा !जय भीम !

भारत के संविधान निर्माताओं ने जिस ब्रिटिश संविधान का आश्रय लिया था ,तब वह प्रमुख और सहज विकल्प रहा होगा। शायद भारतीय संविधान निर्माताओं की यह ऐतिहासिक  मजबूरी रही होगी ,कि भारतीय संविधान  में उन ब्रिटिशकालीन जन विरोधी धाराओं और ब्रिटिश एक्टस को भी ज्यों का त्यों समाहित कर लिया ,जो  कि   पूँजीपतियों के पक्ष में थे और मजदूरों के खिलाफ हुआ करते थे। वे जन विरोधी  धाराएं अब भी यथावत हैं। जिन श्रम विरोधी कानूनों के खिलाफ लाला लाजपतराय ने लाठियाँ खाई व  भगतसिंह ने शहादत दी,वे अनुच्छेद  या धाराएं आजादी के बाद स्वतंत्र  भारत  के संविधान में यथावत क्यों हैं ? अब तो  ऐंसी कोई मजबूरी भी नहीं कि अंगर्जों के बनाए उन काले   कानूनों को आजाद भारत के संविधान में  अनंतकाल तक रखा जाए । वेशक बाबा साहिब अम्बेडकर और उनके  संविधान सभा के अन्य विद्वान साथियों  ने  ब्रिटिश कानून को  ही प्रमुख आधार बनाया था। उन्होंने फ्रांस अमेरिका कनाडा के भी कुछ कानूनों को स्वतंत्र भारत के संविधान में समाहित किया। किन्तु यह दिलचस्प है कि  इसी  तर्ज पर तो लगभग सारे संसार के संविधान बनाए गए हैं। लेकिन दुनिया के अन्य राष्ट्रों ने ब्रिटिश व्यवस्था और उसके विधान को अंतिम सत्य कभी नहीं माना । जबकि भारत की आवाम को बार-बार पढ़ाया -जचाया जाता रहा है  कि २६ जनवरी-१९५० को जो संविधान लागू किया गया वही  अंतिम सत्य है। आजादी के ६९ साल बाद भी  भारतीय नेता और आवाम  यह  नहीं समझ पाये  कि अंग्रेजी संविधान के कतिपय अन्यायी और जन विरोधी एक्ट्स  को भारतीय संविधान में ज्यों के त्यों क्यों घुसेड़ दिए गए?

न केवल टेलीग्राफ एक्ट १८६२ ,न केवल ट्रेड बिल -१९२६ ,न केवल मुस्लिम परसनल लॉ १९३७ ,बल्कि गुलाम भारत काल की अनेक शर्मनाक स्थापनाएँ -धाराएं -उपधाराएं यथावत या घुमा फिराकर भारतीय  संविधान के पन्नों पर कब्ज़ा किये हुए हैं। कुछ लोगों  को  गलत फहमी है कि इन  तमाम जन विरोधी धाराओं के जनक या प्रस्तावक बाबा साहिब थे। अधिकांश लोगों को यह भी बड़ी गलतफहमी है कि  यह भारतीय संविधान किसी एक खास व्यक्ति  ने लिखा है। कुछ नासमझ लोगों को  यह जानकर घोर आश्चर्य होगा  कि भारतीय संविधान की 'प्रस्तावना ' का प्रारूप ही  विदेशी है। ''हम भारत के जनगण ,एक स्वतंत्र सम्प्रभु लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र  भारत को अंगीकृत आत्मार्पित करते हैं '' इस एक  वाक्य के ही अधिकांश शब्द फ्रांसीसी और अमेरिकन क्रांति से लिए गए  हैं। वैसे यह  कोई अनहोनी बात नहीं है। जब टेक्नालॉजी  विदेशी हो सकती है ,जीवन शैली विदेशी हो सकती है ,तो यह  संवैधानिक प्रवाह भी देशी + विदेशी  सकता है । किन्तु सिर्फ वह नहीं जो  शोषण की ताकतों के पक्ष में है और मेहनतकशों या आम आदमी के खिलाफ है .बल्कि उसे भी शामिल किया जाना चाहिए जो मजदूरों,किसानों,छात्रों और महिलाओं के पक्ष में है। जाते-जाते अंग्रेजों ने जो कानून हमें सौंपे उन्हें जांचा परखा जाना चाहिए था। चूँकि ब्रिटिश संविधान तो १२वी शताब्दी के मेंग्नाकार्टा से लेकर चर्च और पोप द्वारा भी संचालित था। अरब लोग कुरआन और हदीस से अनुशासित थे। और भारतीय उपमहाद्वीप की अधिकांश जनता मनुस्मृति,भगवद्गीता , रामायण और अन्य संहिताओं से संचालित थी। बीसवीं शताब्दी  की पूँजीवादी संसदीय प्रजातंत्र की विधिक यात्रा में अंगर्जों  ने इन तमाम मजहबी-धार्मिक परम्परागत कानूनों की जगह एक  लिखित संविधान बनाया। भारतीय सम्विधान  भी उसी की नकल है। न केवल ब्रिटेन,न केवल भारत ,बल्कि अधिकांश कॉमनवेल्थ राष्ट्र और दुनिया के अधिकांश अन्य देश  भी उसी ब्रिटिश संविधान  के प्रभाव से अवतरित हुए हैं। इसमें यूनान की रिपब्लिक और डेमोक्रेसी वाले सिद्धांत भी समाहित हैं। इसमें रूस की क्रांति और साइंस का योगदान भी कम नहीं है। इसे हजारों लोगों ने सदियों में तैयार किया है। इसी का भारतीय संस्करण  स्वतंत्र  भारत की संविधान  सभा के विद्वान नेताओं ने तैयार किया था। जिसके कुशल संपादन   बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने किया था । आजादी के बाद  समय -समय पर जरूरत के मुताबिक  इसमें अनेक संशोधन  भी किये जाते रहें हैं। लेकिन जन असंतोष दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि भारत की जनता की आकांक्षाओं पर यह संविधान खरा नहीं उतरा है।

आज यदि पुलिस भृष्ट है ,नौकरशाही भृष्ट है ,गरीब-अमीर के बीच असमानता  बढ़ रही  है ,साम्प्रदायिकता बढ़ रही है,तो यह संसदीय लोकतंत्र की नाकामी ही कही जा सकती है। घृणा की कुटिल राजनीति भी मेकियावेली के  उस सिद्धांत को सही सावित कर रही है ,जिसमें उसने कहा था ''पूँजीवादी राजनीति का नैतिकता से कोई वास्ता नहीं '' और तब वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान व्यवस्था को संचालित करने वाले स्टेक होल्डर्स ,संविधान निर्माता और लोकतंत्र के चारों स्तम्भ भी भारत राष्ट्र की जनता को निराश करने के आरोप से मुक्त नहीं हो सकते। संसदीय लोकतंत्र के  सभी तत्व  एक साथ  मिलकर भी भारत की आवाम को  ६९ साल में न तो संगठित  कर पाये हैं और न ही एक साथ विकाश का स्तर ऊँचा क्र पाये हैं।  पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र में आवाम का बहुमत पाने के लिए पूँजीवादी नेता और पार्टियाँ जनता को केवल 'वोटर' समझते रहे हैं। वोटरों को लुभाने  के लिए धर्म-मजहब और जातिवाद  जैसे हथकण्डे अपनाए जाते रहे हैं और उसके आधार पर आरक्षण का सहारा लेते रहे हैं। उनके लिए सत्ता प्रमुख रहा है और 'राष्ट्र' गौड़ है। मौजूदा पूँजीवादी राजनीति  उस खैराती अस्प्ताल की तरह है ,जहाँ  हर मर्ज की दवा तो है किन्तु कोई रोगी कभी ठीक नहीं होता। इस दूकान पर-नारों का ,जुमलों का ,आरक्षण जैसे टोटकों का आडंबर  इफरात में मिलता है। भले ही भारतीय  संविधान ,में बाकी सब कुछ विदेशी है किन्तु आरक्षण रुपी जातीय जहर की घुट्टी अवश्य शुद्ध देशी है।  इस अवैज्ञानिक आरक्षण नीति से भारतीय  शोषित दलित-दमित समाज का कितना विकाश हुआ यह  गांवों में जाकर प्रत्यक्ष देखा जा सकता है ,जहाँ लोग  बूँद-बूँद पानी के लिए तरस रहे हैं। आरक्षण की मरहम से समाज में सदभाव तो नहीं बढ़ा किन्तु  दुराव,अलगाव और हिंसक द्वन्द का  मर्ज  बढ़ता ही जा रहा है।

अतीत  में दुनिया के  सभी महान लोगों ने बिना  किसी आरक्षण के ही अकूत सफलताएं अर्जित  की हैं। बिना किसी आरक्षण  के ही एक  निर्धन बालक नेपोलियन फ़्रांस का सम्राट बना । बिना किसी आरक्षण के ही वीर  शिवाजी  ने  मुग़ल साम्राज्य को ध्वस्त किया । बिना किसी आरक्षण के ही कबीरदास ,रैदास,ने लोक प्रसिद्धि पाई । बिना आरक्षण के मंगल पांडेय,चन्द्र शेखर आजाद,अशफाकउल्ला खान ,भगतसिंह,राजगुरु,सुखदेव ने ब्रटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया । बिना आरक्षण के ही ईरान से निष्काषित पारसियों ने भारत में जे आर  डी टाटा और  रतन टाटा पैदा किये। बिना आरक्षण के ही पंजाब,हरियाणा,मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र ,राजस्थान,छ्ग  और यूपी के मेहनती किसानों ने भारत को  गेहूं-चावल -सब्जी और खाद्यान्न से मालामाल कर दिया। लेकिन  जिन्हे आरक्षण मिला उन्होंने देश के लिए क्या किया ? जिन्हे अब तक कोई आरक्षण नहीं मिला ,उन भूँख प्यास  से पीड़ित  दलित /आदिवासी गरीबों की  बदहाली के लिए कौन जिम्मेदार है?  करोड़ों निर्धन दलित-सवर्ण -सूखा पीड़ित क्षेत्रों में एक -एक रोटी के लिए और एक-एक बाल्टी पानी के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं।  उनकी दुरावस्था के लिए उनके आरक्षणधारी  भाईट कॉलर्स  लोग क्या कर रहे हैं।  चिराग पासवान ने  जब कहा कि  ''मालदार सम्पन्न  आरक्षण धारियों को अपने  ही गरीब दलित बंधुओं के पक्ष में आरक्षण लाभ त्याग देना चाहिए '' तो कितने दलित कलेक्टरों,कमिश्नरों,मंत्रियों और प्रोफेसरों ने चिराग का समर्थन किया ? किसी ने उसका संज्ञान तक  नहीं लिया ,सब चुप्पी साधे रहे  हैं क्यों ?

गुलाम भारत में एक दलित बालक ने अपनी योग्यता और संघर्ष के बलबूते पर ,दुनिया से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वह  एक अंतयज  बालक 'भीम' से  बाबा साहिब डॉ भीमराव  अम्बेडकर हो गए। उन्होंने अपनी अथक संघर्ष  से ही भारत के दलित-शोषित समाज को एकजुट किया। बिना किसी आरक्षण के ही  वे भारतीय संविधान के सृजनहार कहलाये  । लेकिन  १९३५ में इण्डिया एक्ट के तहत अंग्रेजों द्वारा  फेंकी गयी आरक्षण की  घातक अफीम को कुछ नेताओं ने रेवड़ियाँ समझ लिया । प्रारम्भ में यह आरक्षण  महज  दस साल के लिए ही था । यह भारत राष्ट्र को कमजोर बनाए रखने की फितरत थी। इसे सामाजिक समरसता तो नहीं किन्तु घृणा बैरभाव जरूर बढ़ा है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो प्रमाणित करते हैं कि मात्र आरक्षण या आर्थिक उपलब्धियों से सामाजिक सम्मान की कोई गारंटी नहीं है । रुपया-धन -दौलत तो  चोर - डाकू -लुटेरे भी हासिल कर लेते हैं। किन्तु उससे उनका सामाजिक सम्मान बढ़ेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। कोई आरक्षणधारी  कितना ही धन जोड़ ले ,कितनी भी  मनुस्मृति जला ले  किन्तु वह इस तरह की लटके-झटके बाजी से रत्ती भर सामाजिक सम्मान नहीं पा सकता। वह कोई  हर्षद मेहता,कोई तेलगी ,कोई  दाऊद इब्राहीम , कोई घोड़ेवाला ,कोई दारूवाला ,कोई  कोयले वाला , कोई टू -जी ,३-जी स्पेक्ट्रम  वाला ,कोई 'सत्यम 'वाला ,कोई  विजय माल्या -कोई बैंक लूटने वाला ,कोई  लोकायुक्त द्वारा  पकड़ा गया  भृष्ट व्यक्तियों के समाज में शामिल तो  हो सकता है ,किन्तु सम्मान की उम्मीद नहीं कर सकता । क्योंकि ये तमाम लुटेरे समाज में हिकारत से देखे जाते हैं। भले ही वे 'भारत माता की जय ' के नारे लगाते रहें वंदे मातरम 'कहते रहें ! उन्हें तो कबीर बाबा भी कह गए कि ''नहाय  धोए क्या भया  ,जो मन मैल न जाय ''!

यदि सामाजिक सम्मान चाहिए तो ययति नहीं दधीचि होना पडेगा, विश्वामित्र नहीं वशिष्ठ होना पडेगा। इंद्र नहीं रघु होना पडेगा।  सहस्त्रार्जुन नहीं परशुराम होना पड़ेगा। राजा मानसिंग नहीं राणा प्रताप होना पड़ेगा। ओरंगजेब नहीं -शरमद और दारा शिकोह होना पड़ेगा ! जिन्ना नहीं भगतसिंह होना पडेगा। अंग्रेज भक्त राजे-रजवाड़े नहीं बल्कि  गांधी ,नेहरू ,सुभाष और  शास्त्री होना पडेगा। यद्द्पि आरक्षण नीति से कुछ मुठ्ठी भर लोगों का आर्थिक उत्थान भले हो गया हो  किन्तु समाज में व्याप्त जातीय असमानता कहाँ कम हुई ? वह तो ज्यों की त्यों बरकरार है ।  ज्यादा विकराल हो गयी  है। दलितों,आदिवासियों और पिछड़ों को सवर्ण वर्ग से प्रॉबल्म  है।  आरक्षित वर्गों में दलित से महादलित को प्रॉबल्म है। पिछड़ों को अगड़ों से और अगड़ों को आरक्षित वर्गों से प्रॉबल्म है। इस तरह  शोषित -वंचित गरीबों को आपस में लड़ाकर वोट  हासिल करने की  खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्ति के जनक अंग्रेज तो चले गए. किन्तु अपनी 'फुट डालों राज करो'की कूटनीति यहीं छोड़  गए। सामाजिक  अलगाव का मूल कारण  यही दुर्नीति है। इसके कारण देश की बहुसंखयक शोषित-पीड़ित दमित जनता एकजुट संघर्ष के लिए तैयार नहीं है। और इसी कारण देश में महँगाई ,बेकारी और आतंक की समस्याएं  का निदान भी नहीं हो पा  रहा है। तमाम चुनौतियाँ और ज्यादा  आक्रामक रूप से दरपेश हो रहीं  हैं !

जो लोग  जातीय पिछड़ेपन या सामाजिक-आर्थिक शोषण -उत्पीड़न के  मुआवजे के तौर पर आरक्षण का लाभ लेते रहे हैं या ले रहे हैं ,उन्हें अब यह शिकायत नहीं होनी चाहिए कि वे अब भी  सामाजिक  भेदभाव का शिकार हो रहे  है।  यदि चार-पीढ़ी तक आरक्षण सुख भोगने के उपरान्त  भी शिकायत है तो  इसके दो कारण  हो सकते हैं। एक तो यह कि सामाजिक  भेदभाव मिटा पाने में यह  आरक्षण नीति  पूरी तरह असफल रही है ! और दूसरा कारण यह कि जिसे भेदभाव कहा गया वह  भेदभाव है ही नहीं। बल्कि वह एक नैसर्गिक बीमारी भी हो सकती है। जब  एक ही परिवार के सदस्यों में ही  बुद्धि ,विवेक , रंग, रूप- आकार की असमानता संभव  है तो समाज और राष्ट्र में यह शारीरिक,मानसिक और भौतिक असमानता  क्यों नहीं हो सकती ?  यह असमानता  मानव निर्मित नहीं  बल्कि कुदरती अर्थात /नैसर्गिक ही है। आरक्षण का लाभ ले रहे उस  अरबपति  गजभिए को कौन नहीं  जानता ?  जो  सागर विश्वविद्यालय का भृष्ट वाइस चांसलर  भी रहा है। जिस पर कई मुकदमें चल रहे  हैं।  उसके पास बहुत पैसा है ,किन्तु सामाजिक  सम्मान नहीं  है। उस जैसे सैकड़ों-हजारों मिलेंगे जो आरक्षण की कृपा से करोड़पति हो गए और उन्हें  'मनुबाद' अब भी सपने में डराता  है।

आरक्षण की वैशाखी से आर्थिक ,राजनैतिक और भौतिक लाभ  तो हासिल  हो जाता है ,किन्तु मानसिक विकास नहीं हो पाता।सामाजिक  सम्मान भी जीरो बटा  सन्नाटा ही रहता है। आरक्षण की बदौलत कोई व्यक्ति महान  नहीं बन सकता। भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु ,पेरियार ,ज्योतिबा फूले और खुद बाबा साहिब जैसा सम्मान पाने के लिए आरक्षण की नहीं त्याग और बलिदान की जरूरत होती है।  उदात्त  चरित्र  और मानवीय मूल्यों की कद्र वही जानता है जो अंगारों पर चलता है। प्रवाह के अनुकूल तो मुर्दे ही बहा करते हैं। प्रतिकूल प्रवाह में तैरकर जो किनारे लगता  है ,सामाजिक सम्मान का अधिकारी भी वही होता है। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि  वह दलित है या सवर्ण  है ,काला  है या गोरा है ,स्त्री है या पुरुष है ।  क्रिकेट  के खेल में जब कोई भारतीय खिलाड़ी जीत दिलाता है  ,चौके -छक्के लगाता है  विकेट लेता है तब कोई भी भारतीय यह नहीं पूँछता  कि किस खिलाड़ी की क्या जात  है ?  अभी उज्जैन सिहंस्थ पर स्वामी सत्यमित्रानन्द जी ने तमाम सफाई कामगारों को अपने साथ शिप्रा  स्नान के लिए आह्वान किया है।  यदि यही  मनुवाद  है तो इससे बेहतर दुनिया में कोई और 'वाद' नहीं। सत्यमित्रानन्द को देखकर तो बाबा साहिब  क्या और खुद कार्ल  मार्क्स भी शर्मा जाएंगे।  खेद है कि देश का  दक्षिण पंथी मीडिया और वामपंथ भी भेड़  चाल से आरक्षण और जतीयतावाद को ही हवा दिए जा रहा है।

विगत दिनों  संघ ने नागौर प्रतिनिधि सम्मेलन में आरक्षण बाबत कुछ कार्यनीतिक लाइन निर्धारित की है। संघ का सुझाव है कि''आरक्षण तो जारी रहे ,किन्तु उसकी समीक्षा अवश्य हो। और जो लोग आरक्षण की कीमत पर या अन्य कारणों से सम्पन्न हो गए हैं वे खुद आगे आकर आरक्षण का त्याग करें ताकि दलित और आदिवासी समाज के  वास्तविक वंचित वर्गों को उसका लाभ मिल सके। '' यह भी कहा गया है कि जो लोग आरक्षण पाकर सम्पन्न हो गए हैं यदि वे आरक्षण छोड़ दें तो वह अन्य निर्धन  दलित आदिवासी वर्ग के वंचित को  ही दिया जाये। वेशक  संघ के इस बयान में कोई षड्यंत्र नहीं है । कोई भेदभाव नहीं। यह पूर्णत : तथ्य गत विचार है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। बिहार के पूर्व मुख्य्मंत्री  श्री जीतनराम मांझी ने और उनके परिवार ने उसका तुरंत पालन भी किया  है। और आरक्षण नहीं लेने की घोषणा  भी कर  दी  है। किन्तु  मोदी जी ने संघ की विचारधारा के  उलट  बयान  दिया है कि  ''आपका आरक्षण कोई नहीं छीन सकता '' याने मोदी जी का मतलब है कि गजभिए [पूर्व वाइस चांसलर सागर विश्विद्यालय] जैसे भृष्ट अरबपति और उनके परिवार वाले यदि चार पीढ़ी से आरक्षण भकोस रहे हैं ,तो वे आइन्दा भी अनंतकाल तक उसे भकोसते  रहेंगे। क्योंकि मोदी जी उनके साथ हैं। वेचारे मोहन भागवत और बहिया जी जोशी  की वाणी का  कोई महत्व नहीं रहा। मोदी जी तो  सवर्ण निर्धन हिन्दुओं के वोट मानों अपना जर खरीद समझकर  भाजपा की  जेब  में ही सुरक्षित समझ बैठे होंगे ! और वे अम्बेडकर जी की भक्ति में लीन  होकर  देश के  दलितों,आदिवासियों,और पिछड़ों को पुटियाते रहेंगे। लगता है  कि वे 'हिन्दुत्वादी' नहीं बल्कि  एक पक्के कांग्रेसी की शक्ल  में  ही देश का नेतत्व कर  रहे हैं। और उनके इस अवतार से  कांग्रेस का भविष्य  घोर अंघकारमय हो चला है।

अतीत में अंग्रेजों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना जबरन कब्जा बनाए रखने के लिए अनेक तरह के हथकंडे अपनाए थे। उन्होंने हिन्दुओं को मुसलमानों से भिड़ाया ,मुसलमानों को सिखों से भिड़ाया। सवर्ण गरीब मजदूरों को दलित -आदिवासी मजदूरों  के  सामने खड़ा करते रहे। वे  हिंदी भाषियों को अहिन्दीभाषियों से भिड़ाते रहे। जाते-जाते  अंग्रेजों ने अपनी 'फुट डालो राज करो '  की नीतियों का कानूनी पुलंदा भारतीय संविधान सभा  को थमा  दिया।उसी उधार के सिंदूर अर्थात ब्रिटिश कानून के पुलंदे को कुछ लोग 'इंडिया एक्ट-१९३५' भी कहते हैं। अंग्रेजों द्वारा 'डिवाइडेड इण्डिया' याने भारत -पाकिस्तान के तत्कालीन नेताओं  ने उन्ही अंग्रेजी कानूनों में कुछ हेर-फेर करके अपने अपने  संविधान बना लिए । पाकिस्तान ने शरीयत कानून के साथ -साथ इस्लामिक स्टेट का जामा पहिंन  लिया। लेकिन  भारतीय  नेताओं ने जरा ज्यादा उदारता और मानवीयता का परिचय दिया। उन्होंने भारत को ''सर्व प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक  'धर्मनिरपेक्षता,समाजवादी गणतंत्र ' माना। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का मूल मंत्र भी यही है। इसको ही भारतीय संविधान सभा ने  स्वीकार किया है । साथ ही दलित,पिछड़े आदिवासी के हित में आरक्षण की व्यवस्था और अल्पसंखयकों के हित में परसनल लॉ इत्यादि के कुछ  विशेष कानूनी  प्रावधान भी  रखे गए । अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गयी  कानूनी जमा पूँजी और इस जातीय. मजहबी हेर-फेर के साथ  भारतीय संविधान सभा ने  भारतीय संविधान को नया आकार दिया। डॉ राजेंद्रप्रसाद की अध्यक्षता में और डॉ भीमराव अम्बेडकर की सम्पादकीय भूमिका  में भारतीय संविधान को आहूत किया। और २६जनवरी -१९५० से इसे  भारतीय  गणतंत्र के लिए समर्पित /अंगीकृत /स्वीकृत किया गया ।

 आजादी के बाद भारतीय  राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने  वोटों की फ़िक्र में कुछ वर्गों के साथ निरंतर पक्षपात किया। उन्होंने  अपने तात्कालिक निजी हितों के लिए कुछ खास  वर्गों को  ही उपकृत किया। यह बहुत साफ़ बात है कि  कांग्रेस ने सवर्ण गरीबों की बहुत अनदेखी  की।उन्होंने  केवल आरक्षित वर्ग  की छुधा शांत करने और अल्पसंख्य्क वर्गों को सहलाने की ही कोशिश की है। हालाँकि  ये दोनों  वर्ग भी कांग्रेस से असंतुष्ट होकर कभी एनडीए के साथ  ,कभी  किसी क्षेत्रीय दल  के साथ और कभी  टिकैत ,ठाकरे ,पेरियार और कासीराम जैसे किसी खास जातीय नेता  के साथ हो लिए। कांग्रेस एवं  उसके वित्तपोषक एवं  हितग्राही लोग  सत्ता की लूट का मजा लेते रहे। किन्तु अधिक समय तक यह सिलसिला जारी नहीं रह सका। कांग्रेस तो सत्ताच्युत होकर अब फटेहाल है। किन्तु आरक्षण वालों ने भाजपा और संघ वालों को दामन थाम  लिया है।  इसी तरह कुछ दिनों बाद अल्पसंख्य्क वर्ग भी संघ और भाजपा के पाले में होगा। यह कोई राजनैतिक ध्रवीकरण नहीं है बल्कि निहायत स्वार्थपूर्ण मौकापरस्ती का प्रत्यक्ष प्रमाण  है। मोहन भागवत ,भैया जी जोशी और संघ के अन्य वरिष्ठ बौद्धिक जन कह रहे हैं की आरक्षण तो जारी  रहे ,किन्तु उसकी समीक्षा अवश्य हो। समें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए ,किन्तु  हत भाग्य मोदी जी का कहना है कि आरक्षण धारी  निश्चिन्त रहें लनी बोले सो बोले सूप ही साथ नहीं दे रहा है। आरक्षण के बहाने बिहार चुनाव जैसा माहौल फिर बन रहा है।
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विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में जब  विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 'मंडल' कमीशन को हवा देकर  पिछड़ों को उकसाया तो  उत्तरप्रदेश ,बिहार, झारखंड हमेशा के लिए कांग्रेस से विमुख होते चले  गए। मंडल आयोग  की प्रतिक्रिया में जब आडवाणी की रथयात्राओं ने कमंडल और त्रिशूल को ताकत दी तो न केवल मध्यप्रदेश,राजस्थान ,छ्ग और गुजरात ने कांग्रेस छोड़ दी बल्कि कर्नाटका और आंध्र में भी भगवा झंडा लहराया जाने लगा।  हालाँकि आडवाणी जी की व्यक्तिगत तमन्ना कभी पूरी नहीं हुई।  वे वोटिंग पीएम ही तरह गए। किन्तु १९९९ में एनडीए  अलायंस की दम पर अटलजी अवश्य  भारत के  प्रधान मंत्री बन गए। संघ परिवार के द्वारा देश भर में गुजरात मॉडल के अथक -अनवरत  कुप्रचार की  बदौलत और कांग्रेस  की आपराधिक छवि  की असीम अनुकम्पा से  मई -२०१४ में एनडीए एवं  भाजपा को बम्फर जीत मिली गयी । नरेंद्र मोदी जी प्रधान मंत्री बने। पहली बार देश के तमाम सवर्ण  गरीबों का लगा कि  अब उनके भी अच्छे दिन आयंगे। स्वर्गीय अशोक सिंघल ने कहा था 'आठ सौ  साल  बाद कोई  हिन्दू सत्ता में आया है '' कुछ लोगों को यह अच्छा नहीं लगा  होगा । क्योंकि अटलजी जैसे शुद्ध कान्यकुब्ज ब्राह्मण भी तो पीएम बन चुके थे ,उनको भी हिन्दू नहीं माना ,यह सरासर अन्याय और अधर्म है।

 खैर अटल जी को तो भारत रत्न मिल गया। आडवाणी जी यदि सलामत रहे तो उन्हें  जीते  जी बहुत कुछ मिल जाएगा और मरणोपरांत भारत रत्न तो पक्का है ही। किन्तु उन बेचारे सवर्ण हिन्दुओं का क्या होगा जो एक हजार साल से सताए जा रहे हैं ? कभी  बौद्धों ,कभी शैवों ,कभी शाक्तों ,कभी शकों ,कभी खिलजियों ,कभी हूणों कभी  मंगोलों ,कभी तुर्कों ,कभी पठानों और कभी अंगर्जों द्वारा निरंतर सताए जाते रहे गरीब  सवर्ण हिन्दुओं को  इतिहास में पहली बार अपने उद्धार की उम्मीद की  जगी थी। विशेष कर  सनातन से सताए जा रहे गरीब  सवर्णों  हिन्दू को यह  आस जगी थी कि अब उनके  भी अच्छे दिन आने वाले  हैं। किन्तु उन्हें यह जानकर अत्यन्त पीड़ा हुई कि वोट की खातिर मोदी जी भी अब  कांग्रेसी पैटर्न  की आर्थिक नीति ही नहीं बल्कि वही पुरानी अन्याय पूर्ण आरक्षण व्यवस्था की भी जमकर पैरवी किये जा रहे हैं।  १४ अप्रेल -२०१६ को अम्बेडकर जयन्ती पर महू  यात्रा इसी  प्रमाण है।  जो लोग  अभी तक हर-हर मोदी ,घर-घर मोदी का नारा लगाते थे वे अब वोट की खातिर 'जय भीम' का नारा लगा रहे हैं। क्या  संघ का यह वास्तविक सिद्धांत  है ? यदि हाँ ,तो करोड़ो  गरीब सवर्ण हिन्दू संघ के लिए अपनी कुर्बानी क्यों दे रहे  हैं  ? यदि  भाजपा  और मोदी जी  भी वही कर रहे हैं जो मायावती,कांग्रेस और अन्य जातिवादी नेता करते  रहे हैं तो 'पार्टी बिथ डिफ़रेंस 'का क्या मतलब ?

हालॉंकि वामपंथ का भी दलितों,आदिवासियों ,महिलाओं और शोषितों के  उत्थान के प्रति  बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा  है। लेकिन हरल्ले यूपीए -प्रथम का साथ देकर बहुत नुकसान  उठाया।  कांग्रेस के नेता खुद तो भृष्टाचार में आकंठ डूबे रहे।  साथ ही कांग्रेस ने आरक्षण वालों को भी इतना ऊपर  चढ़ा दिया कि अब कोई उतरने का नाम ही नहीं लेता। अब मोदी जी को कहना पड़  रहा है कि ''आपका  आरक्षण कोई नहीं छीन सकता ,खुद बाबा  साहिब भी आ जाएँ तो  वो भी दलित-पिछड़ों -आदिवासियों का यह आरक्षण नहीं  छीन सकते ''  मतलब साफ है कि  आरक्षण की  नीति  भले ही दलितों ,आदिवासियों और पिछड़ों की बर्बादी के लिए जिम्मेदार हो किन्तु उसके  बदलाव  की बात करने का साहस किसी में नहीं। केवल वेचारे मोहन  भागवत  ही 'सबके लिए समान अवसर' की बात कर रहे  हैं।  हालांकि मार्क्सवादी भी बहुत पहले से सभी को समान अवसरों की वकालत करते आ रहे हैं ,किन्तु इस दौर में पीएम मोदी जी , समस्त वामपंथी दल  मायावती ,मुलायम,लालू,नीतीश सभी एक ही स्वर में जातीय  आधार पर आरक्षण -जिंदाबाद का नारा लगा रहे हैं। चूँकि यह मुझे ठीक नहीं लग आरहा और मोहन भागवत जो कह रहे हैं यदि वामपंथ का भी वही लक्ष्य है तो इस बात पर मोदी के स्वर में स्वर नहीं बल्कि भागवत के स्वर में स्वर मिलाया जाना चाहिए।मार्क्सवादी दर्शन का सिद्धांत सिर्फ व्यवस्था का चरित्र चित्रण नहीं करता। बल्कि वह बताता है कि किसी खास  व्यवस्था  को  कैसे बदला  जाये ! आर्थिक,सामाजिक ,राजनैतिक हर स्तर  का शोषण कैसे  खत्म हो। मेहनतकशों के काम के घंटे सुनिश्चित हों। उनके शिक्षा ,स्वास्थ्य और मनोरंजन पर ध्यान दिया जाये। समाज में हर किस्म का भेद मिटा दिया जाये।लेकिन आरक्षण और जातीय  विमर्श ने  भारतीय वामपंथ को संसदीय राजनीति के  हासिये पर धकेल दिया है।

विगत बिहार विधान सभा चुनावों के दौरान  मोहन भागवत जी ने कहा था कि  जातीय आधारित आरक्षण की समीक्षा अवश्य होनी चाहिए। उनके इस बयान को लालू यादव ,नीतिश और उनक 'महागठबंधन'के अन्य कुछ  जातिवादी नेताओं ने खूब मिर्च-मशाले के साथ दुष्प्रचारित किया।  मोहन भागवत  के  आरक्षण संबंधी उस  बयान पर मैंने तब भी एक आलेख एफबी पर पोस्ट किया था। जिसका मजमून अभी भी मेरे ब्लॉग पर सुरक्षित है।  मेरे वामपंथी मित्रों को तो मेरा वह आलेख पसंदा आया था किन्तु मोहन भागवत  जी के शिष्यों को और  संघ' के अपढ़ -मूढ़मति लम्पटों को उस पर  आपत्ति थी।  इतना ही नहीं  इस आरक्षण के बबाल पर खुद मोदी जी ने  भी बिहार चुनावों में भागवत जी से उलट  बयान बाजी की थी। अर्थात जो आरक्षण चल रहा है ,उसे जारी रखने की पुरजोर पैरवी की थी। यह बात अलग है कि  इस गुरु अवज्ञा के वावजूद भी मोदी जी [भाजपा +एनडीए]  विहार विधान सभा का चुनाव बुरी तरह हार गए।

अभी -अभी मोहनराव भागवत जी ने फिर दुहराया कि ''जिन्हे आरक्षण मिल रहा है ,और यदि उनमें से कुछ लोग सम्पन्न वर्ग में आ गए हैं , तो वे स्वेच्छा से आरक्षण का लाभ लेना त्याग दें। ताकि दलित -पिछड़े वर्ग के वास्तविक गरीबो को उसका लाभ दिया जा सके।''भागवत जी का यह बहुत उपयोगी और देशभक्तिपूर्ण वयान  केवल संघ के मुखपत्रों तक ही सीमित क्यों रहना चाहिए ?क्या देशभक्ति का ठेका केवल 'संघ' के पास है। क्या  मोहन भागवत  कहेंगे  'इंकलाब जिंदाबाद' तभी उन पर यकीन किया जाएगा  ?  भागवत  जी के  इस बयांन पर वामपंथ और कांग्रेस ने  चुप्पी साध ली। क्यों ? सत्ता पक्ष और  मोदी जी भी अपने गुरु के बिलकुल  विपरीत जा रहे हैं। उनके बयान  तो मायावती,लालू और अन्य जातीयता वादी नेताओं से भी अधिक धाँसू हैं।  आरक्षण के बारे में मोदी जी का अभी का  कथन कुछ  इस प्रकार है ''जिन्हे आरक्षण मिल रहा है ,वे निश्चिन्त रहें ,उन्हें यह हमेशा मिलता रहेगा ,कोई नहीं छीन सकता ,खुद बाबा साहिब भी आ जाएँ तो नहीं चेन सकते ''  मोदी जी अब  न केवल बाबा साहिब अम्बेडकर  की दुहाई दे रहे हैं। अपितु वे १४ अप्रेल -२०१६ को  अम्बेडकर जन्मस्थली महू भी  मध्यप्रदेश के लाखों आदिवासियों-दलितों को इस अवसर पर आरक्षण जारी रखने की सौगंध खाने जा रहे  हैं। जय भीम ! श्रीराम तिवारी

 

फासीबाद का दानव -किसी कल्कि अवतार के रूप में घोड़े पर बैठकर नहीं आयेगा !

किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र  के प्रबुद्ध लोगों में  व्यक्तिगत अथवा सांस्थानिक वैचारिक मतभिन्नता जायज है। किन्तु  इस वैचारिक असमानता का मतलब संवादहीनता ,अबोलापन  या दुश्मनी नहीं होना चाहिए। यदि कोई दक्षिणपंथी ,प्रतिक्रियावादी भी वही  तथ्य या सिद्धांत पेश करता है जो वैज्ञानिकवादी ,तर्कवादी, प्रगतिशील और मानवतावादी दृष्टिकोण के वामपंथी बुध्दिजीवी  प्रस्तुत करते हैं ,तो इसे एक सकारात्मक उपलब्धि के रूप में स्वीकार  किया जाना चाहिए ! यदि दोनों पक्ष एक ही 'सापेक्ष सत्य' के पक्षधर हैं तो ईर्ष्या  और अटल विरोध की तलाश अनुचित है। यदि  दोनों पक्ष एक दृष्टिकोण के नहीं भी हैं तो इसमें  अनहोनी कोई  बात नहीं। क्योंकि  प्रत्येक  द्वन्दात्मक संघर्ष का मौजूदा 'कार्य' प्रत्येक अगले नए 'कार्य ' का 'कारण' बनता है। कार्य-कारण रुपी दो विपरीत ध्रुव ही  किसी सकारात्मक परिणाम की द्वन्दात्मक केमिस्ट्री के मूल रासायनिक तत्व हुआ करते हैं। अतः राजनीतिक  मतभिन्नता को स्थाई दुश्मनी जैसा कदापि नहीं मानना चाहिए। संवाद की निरंतरता और सामूहिक हितों की स्वीकार्यता ही  लोकतत्र और मानव सभ्यता के उत्कृष्ट आभूषण हैं। धरती आसमान या किसी खास व्यक्ति अथवा संगठन के नारे लगने पर दुनिया  की गति  निर्भर नहीं है। ह्रदय की विशालता और उत्सर्ग  का जीवन ही सच्चा  राष्ट्रवाद है।

'भारत माता की जय ' के  संदर्भ में संघ सरसंघचालक श्री मोहन  भागवत ने अभी-अभी कहा है कि '' यह नारा किसी पर भी  जबरन थोपने की जरूरत नहीं है । हमें ऐंसा महान समृद्ध भारत बनाना है जहाँ दुनिया के तमाम लोग स्वतः ही 'भारत माता की जय ' बोलने  में गर्व महसूस करें । भारत को  विश्व का मार्गदर्शन करना है। हम भारतवासी किसी को जीतना या हराना नहीं चाहते। हम अपनी पद्धति ,अपने विचार किसी पर जबरन थोपना नहीं चाहते। हम तो सभी को अपना मानते  हैं ! '' यह  हृदय की विशालता नहीं तो और क्या है ? यदि  भागवत जी यह बयान तभी दे देते ,जब उनकी  काले कोट वाली केसरिया पलटन  पटियाला हॉउस कोर्ट के अंदर कन्हैया की पिटाई  कर रही थी! तब  उनका सरपरस्त जीन्यूज  छाप मीडिया भी झूँठ  और बदचलनी का भागीदार नहीं बनता। तब जेटली ,बैंकैया और राजनाथ की अगुवाई में  जो कुछ हुआ वह हस्तिनापुर को नहीं देखना पड़ता। तब जेएनयू के रणांगण में अनुपम खैर को गांडीव और रोहित वेमुला के लिए सुब्रमण्यम  स्वामी को टूटे हुए रथ का पहिया नहीं उठाना पड़ता।

 भागवत जी के  उपरोक्त  अनमोल बचन  ही यदि  हिंदुत्व की धुरी  हैं और यदि उनके श्री मुख्य से  'संघ' का हिंदुत्ववाद  ही  अभिव्यक्त हो रहा है ,तो  ऐंसे हिंदुत्ववाद से  किसे एतराज हो सकता है ? लेकिन  प्रेक्टिकल अनुभव  बता रहा है कि  हिंदुत्व के केंद्र में  तो सत्ता पाकर  बौराए हुए  कुछ  विध्वंशक लोग  विराजमान हैं। वे  वही सब धतकरम  किये जा रहे हैं जो  देश की अमन पसंद जनता को मंजूर नहीं।  सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र  श्री मोहन भागवत जी के उपरोक्त शब्दों से मेल  नहीं खाता।  कुछ स्वयम्भू 'राष्ट्रप्रेमी' लोग 'असहिष्णुता' के विमर्श  को लेकर 'भारत माता की जय 'के नारे को लेकर अपने ही हमवतन लोगों पर  विषवमन किये जा रहे हैं। वे अपने आपको महान हिन्दुत्ववादी व  देशभक्ति का प्रमाण पत्र प्रदाता समझ बैठे  हैं। जेएनयू समेत देश के तमाम  विश्वविद्यालयों में छात्रों - प्रोफेसरों से और कुछ असदुद्दीन औवेसी जैसे दीगर लोगों से भी  जबरन  ''भारत  माता की जय '  बुलवाने के बहाने  वे अपने  'राजधर्म ' से पदच्युत होते जा रहे हैं। जबकि भागवत जी  अपने तयशुदा  एजेंडे को  बहुत खूबसूरती और कलात्मकता से आगे  रहे हैं।  लेकिन कतिपय ढोंगी स्वामी और भोगी -योगी लोग  हिंदुत्व की इस  बहती गंगा को गन्दा कर  रहे हैं। नकली राष्ट्रवाद और काल्पनिक देशद्रोह के  बहाने कुछ  अदूरदर्शी  हिन्दुत्ववादी  लोग  अल्पसंखयकों को चिढ़ा रहे हैं। चूँकि  भागवत जी भारतीय ह्रदय की विशालता का परिचय दे रहे हैं।  भारत राष्ट्र के लिए यह सुखद सन्देश और अमन  का पैगाम जैसा है।

मोदी सरकार की मजबूरी तो समझ में आती हैं कि आर्थिक मोर्चे पर असफल होने के बाद ,विदेश नीति पर विफल होने के बाद  उस के 'इंतजाम अली' और 'तरफदार'  लोग जनता का ध्यान बटाने के लिए कभी राष्ट्रवाद' कभी बीफ काण्ड' कभी 'देशद्रोह' और  कभी 'भारत माता  की जय ' का उद्घोष करते रहते हैं। किन्तु  यह नितांत समझ से परे  है कि शोषित -पीड़ित मजदूर ,ईमानदार कर्मचारी,अल्प आय वर्ग का निर्धन किसान ,छोटी पूँजी का व्यवसायी इस सरकार की गलत नीतियों पर चुप क्यों है ?  जाति -मजहब  के  फसादों पर तो यह नरमेदनि  बहुत वीरता  दिखाती है। किन्तु  अपने सामूहिक हितों और राष्ट्र की वास्तविक चेतना पर वह न तो  श्री मोहन भागवत  को सुन पाती है और न ही वह वामपंथ  की वर्ग चेतना को समझ पा रही है। यह  अतयन्त जटिल प्रश्न है कि अनवरत शोषण का शिकार -अत्याधुनिक तकनीक से लेस  किन्तु असुरक्षित भविष्य वाला परमुखापेक्षी   आधुनिक युवा वर्ग 'संघर्ष' की चेतना से लेस क्यों नहीं हो पा रहा है ?  प्रायवेट सेक़्टर में जिनकी आजीविका असुरक्षित है ,जो अधिकतम काम के घंटों का बोझ  ढोये चले जा रहे हैं ,जिन्हे चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं है , बुढ़ापे में पेंशन जैसी कोई गारंटी नहीं है वे युवा अपनी ही पीढ़ी के सवालों पर मौन  हैं।  रिश्वतखोरी ,व्यापम , भृष्टाचार  और कुशासन  के कारण जिनका इस  सिस्टम में जीना मुहाल हो गया है ,वे आक्रोश व्यक्त करने के लिए  क्या किसी ज्योतिषी का इन्तजार कर  रहे हैं ? ये  शोषण के शिकार लोग अपनी चिंता को भगवान भरोसे छोड़कर आपराधिक सिस्टम और सरकार की तरफदारी किये जा रहे हैं।

 ''भारत में लोकतंत्र की  जड़ें काफी मजबूत हैं ,यहाँ फासीवाद कभी नहीं आ पाएगा '' संघ  प्रमुख श्री मोहनराव  भागवत  ने  विगत दिनों जब यह महत्वपूर्ण  बयान दिया तो मीडिया ने इसका कोई  खास संज्ञान नहीं लिया ।  देश की किसी नामचींह  राजनैतिक  हस्ती ने  भी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। सोशल मीडिया तो   मानों  असहिष्णुता  का उगालदान बन कर  रह गया है  ,इसलिए वह  इस मामले में  गाफिल ही रहा है।सवाल उठना चाहिए कि  क्या भागवत जी ने  कोई फ़ालतू बात कही है ? क्या उन्होंने  कुछ गलत कह दिया ? यदि हाँ ! तो उसका  तार्किक विरोध  क्यों नहीं किया गया । और यदि भागवत  जी ने उचित कहा है तो  उनके उस  बयान का  समर्थन  करने  में  संकोच क्यों  ? विपक्षी कांग्रेस और  अन्य दलों ने  भी इस बयान का संज्ञान नहीं लिया ।  हो सकता है कि  भागवत जी के बयान को 'संघ' के एक  पदाधिकारी का बयान  मानकर उसे  राजनैतिक महत्व  देना मुनासिब न समझा  गया हो  !  वैसे भी  खुद संघ  वालों का  ही  कहना है कि उनका यह संगठन तो नितांत 'अराजनैतिक' है। सभी जानते हैं कि  यह सच नहीं  है। वास्तव में  संघ का प्रत्येक  कार्यकर्ता  और पदाधिकारी  पूर्णकालिक राजनीतिक प्राणी है।ये बात जुदा है कि कुछ नादान  लोगों को यह  गलतफहमी है कि वे इस असत्य आचरण की बदौलत अर्थात  राजनैतिक मिथ्याचार की ओट में  उस अभीष्ट को प्राप्त कर लेंगे जो  भारतीय  इतिहास  का स्वर्णयुग कहा जाता है ! हालाँकि वह स्वर्ण युग अभी तो इतिहास के  सामन्तकालींन डरावने  कूड़ेदान में धुल धूसरित पड़ा है। लेकिन मोहन भागवत जी बाकई  विद्वान हैं ,तभी तो उन्होंने भारत के भाल पर काल का लिखा  यह सन्देश पढ़ लिया कि 'भारत  में  फासीबाद की कोई सम्भावना नहीं है।

  भारत का अतीतजीवी पुरोगामी वर्ग अभी भी बहुतायत में  भारतीय कानून ,संविधान और  न्याय व्यवस्था को तभी तक  मान्य करता  है जब तक  कि उन्हें हर किस्म की अनुकूलता और सहूलियत रहे। अन्यथा  वक्त आने पर तो संघ -समर्थक वकील भी कानून को ठेंगा दिखाने लगता है। वह क़ानून का जानकार होकर भी   कोर्ट में ही जेएनयू छात्र कन्हैयाकुमार  की मार कुटाई करने लग  जाता  है। निर्दोष या आरोपी की  पिटाई पर शर्मिंदा होने के बजाय  वह गौरवान्वित भी होता है। वकील होने के वावजूद वह नकली 'हिन्दुत्ववादी' निहायत अराजक -गुंडा बनकर देश और दुनिया के सामने सीना ताने खड़ा है ,मानों सीमा पर शत्रुओं को मारकर अभी-अभी लौटा हो !यह प्रवृत्ति केवल हिंदुत्ववादियों तक ही सीमित नहीं है। इस्लामिक  जगत का तो और भी बुरा हाल है। उधर  तो दोनों तरफ से अक्ल का दिवाला निकल चुका  है। एक तरफ परसनल लॉ  के  बहाने  भारतीय संविधान और परम्परा से  हटकर उन्हें सब कुछ  चाहिए। दूसरी तरफ कुछ मजहबी कटटरपंथी कुछ ऐंसा जरूर करते फिरते  रहते हैं कि 'संघ परिवार' और फासीबाद को खाद पानी भी  मिलता रहे। इस तरह की अराजकता  किसी अन्य इस्लामिक मुल्क में नहीं देखी  जा सकती है। वे समझते हैं की अल्पसंख्यक वोट ध्रुवीकरण से इस धर्मनिरपेक्ष मुल्क भारत में  'जिहाद' को तामील कर लेंगे ,तो यह उनकी खामख्याली ही होगी। बल्कि आतंकी और जेहादी हरकतों का परिणाम भुत उलटा और घातक होगा। अल्पसंख्य्क वर्ग जितना  ज्यादा टेक्टिकल वोट करेगा और राष्ट्रवाद का मखौल उड़ाएगा  हिन्दुत्बाद  'उतना ही उद्दाम और प्रचण्ड होता  चला जाएगा। तब मोहन भागवत भी फासीबाद की आमद को नहीं रोक पाएंगे।मोदी जी तो बहुत ही सहिष्णु और उदार हैं ,कोई और बन्दा हिंदुत्व का आश्रय पाकर 'हिटलर' बन जाए तो कोई अचरज नहीं।

जो लोग विदेशी पूँजी की भीख मांग मांगकर देश का अर्थतंत्र चला रहे हैं और कारपोरेट पूँजी के निर्देश पर सरकार चला रहे हैं , वे  डॉ मनमोहनसिंह से जयादा देशभक्त  कैसे हो गए ? वे श्री मोहन भागवत से ज्यादा देशभक्त हैं क्या ? वेशक मोहन भागवत जी नितांत लोकतान्त्रिक  और सहिष्णुतावादी हस्ती हैं । लेकिन मोहन भागवत जी जब सत्ता पक्ष द्वारा वर्ती जा रही असहिष्णुता और अभिव्यक्ति  की आजादी पर हो रहे हमलों  पर मौन रहते हैं तो धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र समर्थकों में  चिंता व्याप्त  होना स्वाभाविक है।वे अलोकतांत्रिक घटनाओं पर  भी चुप रहते हैं। क्या उनके संगठन या सरकार में कोई ऐंसा है जो उनसे भी पर है ? यदि नहीं तो वे अन्य मामलों में चुप क्यों हैं ? भले ही वे विशुद्ध राजनीति से अलग हैं किन्तु देश के नागरिक की हैसियत से वे सही -गलत का समर्थन या निषेध तो कर ही सकते हैं !भारत के वर्तमान प्रधान मंत्री  नरेंद्र मोदी  भी पंडित नेहरू ,इंदिराजी और अटलजी जैसे पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष और विज्ञानवादी -तर्कवादी  जैसे ही  दिखते हैं। किन्तु उनकी भी हिम्मत नहीं कि  इस दौर की  'सत्ता जनित अराजकता' को  वे काबू में रख  सकें ! रोक पाना तो दूर की बात  है वे  इन अप्रिय घटनाओं पर  अपनी नाखुशी भी जाहिर नहीं करते। इतिहास साक्षी है कि  फासीबाद की आमद के अशुभ लक्षण  यही हैं।  फासीबाद रुपी दुष्ट दानव कोई  कल्कि अवतार के रूप  में घोड़े  पर बैठकर  नहीं आयेगा !  भागवत  जी या मोदी जी से किसी को कोई खतरा भले न हो ,किन्तु खतरा उस विचारधारा से है  जो जेएनयू  छात्र नेता कन्हैया कुमार को - पटियाला कोर्ट में पीटने वाले वकीलों  की है।

 संघ प्रमुख मोहन  भागवत जी व्यक्तिगत रूप से भले और सज्जन व्यक्ति हो सकते हैं । उनके बयान भी शुद्ध मानवतावादी और  सरलता सादगी से ओतप्रोत हो सकते हैं। किन्तु यह समझ से परे  है कि  संघ के अनुषंगी संगठनों या नेताओं ने उनकी इस 'फासीवाद' विषयक महत्वपूर्ण स्थापना को नजर अंदाज क्यों किया ?  ऐंसा लगता है कि सत्ता वालों को  तो फुरसत  ही नहीं कि वे मोहन भागवत की शिक्षाओं और उपदेशों पर ध्यान दें । उन्हें कन्हैया ,बेमुला को मारने -पीटने और गरियाने से फुरसत मिले तो वे श्री मोहनराव भागवत के निर्देशों को सुने -समझे या पढ़ें! हालाँकि  संघ में शायद  'सरसंघ चालक 'के विरोध का  कालम  ही नहीं है। किन्तु समर्थन का वयान तो दिया  ही जा सकता है ।फिर मोदी सरकार ने और भाजपा ने  भागवत जी के आरक्षण वाले बयान अथवा 'फासीबाद' वाले बयान का समर्थन क्यों नहीं किया ? यदि संघ प्रमुख  मोहन भागवत जी के  बयांन इस देश की  बहुसंख्य जनता को आशान्वित करते हैं कि इस देश में  'फासीबाद की कोई सम्भावना नहीं ' तो इस देश के  अल्पसंखयकों को भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए कि वे  जेहाद ' के लिए नाहक हलकान होते रहें !

श्री मोहन भागवत जी एक विराट 'अराजनैतिक संस्था 'के प्रमुख हैं,उनके बयांन गलत है तो विरोध कीजिये! किन्तु यदि सही है तो समर्थन  कीजिये ।  किस भी लोकप्रिय व्यक्ति या संस्था के सही -गलत बयानों और उनकी नीतियों की अनदेखी  महज इसलिए नहीं की जानी चाहिए  कि  वह आपको अप्रिय  हैं ! सापेक्ष सत्य के बरक्स जो लोग  वैचारिक तठस्थता का पाखण्ड  करते हैं  उनका अपराध  क्षम्य नहीं है।  इस दौर के भारत में   दक्षिणपंथी विचार और नीतियाँ  को समाज पर जबरन  लादने का 'दुष्कर्म' केवल भाषणों तक सीमित नहीं हैं। बल्कि यह भारत  का दुर्भाग्य है कि इस लोकतंत्र की महानता का बखान करने वाले लोग ही अभिव्यक्ति पर पहरे  बिठा रहे हैं।  आवाम को क्या बोलना है ,कैसे रहना है ,कैसे खाना -पीना है ,क्या पहिनना और क्या ओढ़ना है ,यह सब सांस्थानिक रूपसे निर्देशित करने और नहीं मानने पर 'देशद्रोही' कर्रा देने की हठधर्मिता के लिए जो विचारधरा जिम्मेदार है ,यदि उसी विचारधारा का प्रमुख कहे कि  'डरो मत ,फासिज्म नहीं आएगा ,हम हैं ना ' तो इस मासूम सी सूरत पर कौन  फ़िदा नहीं हो जाएगा। कोई हो न हो ,अपन को तो भागवत जी कुछ-कुछ भा गए हैं। लेकिन सिर्फ उतने ही भागवत जी मुझे पसंद हैं जो 'फासीबाद'नहीं आने की बात करते हैं। बाकी के भागवत जी  तो उनके हैं जिनसे देश  के लोकतंत्र को और देश की आवाम को खतरा है। इस विमर्श में यह पक्ष भी काबिले गौर है  कि  पूँजीवादी  व्यवस्था का जो  एकमात्र विकल्प है ,उस जनता की जनवादी क्रांति को भी वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की नजर लग गयी हैं।

  पिछली शताब्दी  के उत्तरार्ध में चीन के महानायक कामरेड  देंग शियाओ पिंग  ने कहा था ''बिल्ली काली हो या सफ़ेद यदि चूहे मारती है तो काम की है ''! अभिप्राय साफ़ है कि समाज के सभी वर्गों को शोषण मुक्त करने का  काम वामपंथ को  शिद्द्त से करना चाहिए।  यदि  वामपंथ या  मार्क्सवाद के सिद्धांतों की चीटिंग करके कोई पूँजीवादी  सम्प्रदायिक किस्म का राजनीतिक मुन्ना भाई  या उसका गिरोह देश में खुशहाली लाता है तो देश की आवाम फासिज्म को भूल जाएगी।  गुलाम मानसिकता में जीने की तमन्ना रखने वाले लोग ही अभिव्यक्ति की आजादी छिन  जाने पर  चुप रह सकते हैं। खुशहाल निरापद जीने की आजादी और लिखने पढ़ने की आजादी का हनन करना और 'एकचालुकानुवर्तित्व' का जबरन अंधानुकरण  ही फासिज्म का अधुनातन अवतार है।

    
 श्रीराम तिवारी


 

रविवार, 20 मार्च 2016

शहीद भगतसिंह की विचारधारा का अनुसरण ही सच्ची देशभक्ति है !

 लगभग  ८५ साल पहले २३ मार्च -१९३१ के रोज शहीद भगतसिंह  ,राजगुरु और सुखदेव को फाँसी हुई थी ? इन शहीदों को फांसी क्यों हुई थी ? साइमन कमीशन क्या था ? ट्रेड बिल क्या था ? ट्रेड यूनियन एक्ट -१९२६ क्या है ?  लाला लाजपत राय किस आंदोलन का नेतत्व कर रहे थे ? लाला जी और उनके साथियों पर किस के आदेश से  लाठी चार्ज हुआ था ? शहीद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने  बम कहाँ फेंके थे ? बम फेंकते हुए उन्होंने  हवा में जो पर्चे उछाले  थे उनमें क्या लिखा था ? इक्लाब -जिंदाबाद का नारा लगाते हुए  उन्होंने जानबूझकर गिरफ्तारी क्यों दी ? बटुकेश्वर दत्त को फाँसी क्यों नहीं हुई ? शहादत से पूर्व शहीद भगतसिंग ने कितनी अवधि जेल में गुजारी और उन्होंने  किस क्रांतिकारी   विचाधारा को सिरोधार्य किया ?

   इन प्रश्नों के उत्तर जिनके पास हैं ,वे ही  शहीद भगतसिंह की शहादत का आदर करने योग्य है। यदि किसी शख्स को  इन सवालों के जबाब नहीं मालूम ,तो उसे  भगतसिंह के बारे में  शायद कुछ नहीं मालूम ! उसकी देशभक्ति ,क्रांतिकारिता केवल दिखावा है।  भगतसिंह  के विचारों को नहीं जानने वाले ,नहीं मानने  वाले  और  'भारत माता की जय ' के नारे लगाकर देशभक्ति का ढोंग रचाने  वाले लोग पाखंडी हैं ! जो लोग शहीद भगतसिंह की बिचारधारा का अनुसरण कर रहे हैं ,वही  सच्चे  अर्थों में वामपंथी हैं, प्रगतिशील हैं और सच्चे देशभक्त हैं !

जुलाई १९३० के अंतिम रविवार को भगतसिंह लाहौर  सेंट्रल जेल से वोर्स्टल जेल में बंद अपने अन्य क्रांतिकारी साथियों से मिलने आये थे। राजगुरु,शिव वर्मा सुखदेव  इसी  जेल में थे। अंग्रेज़ सरकार की तयशुदा रणनीति के अनुसार  योजना यह थी कि  भगतसिंह और उनके साथी क्रांतिकारी युवाओं को गुमराह सावित कर -माफ़ीनामा लिखवाकर छोड़  दिया जाए ,ताकि 'क्रांति' की मशाल बुझ जाए ।  अंग्रेजों ने 'अहिंसावादी'- कांग्रेसी  नेताओं को  -गांधी जी ,पंडित नेहरू ,सुभाष बोस ,पटेल ,मौलाना आज़ाद ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और अन्य दिग्गजों को साफ कह दिया कि  वे अपना अहिंसक आंदोलन तभी आगे बढ़ा सकते हैं ,जबकि वे भगतसिंह इत्यादि  क्रांतिकारियों से अपने आपको अलग रखें । कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन में खूब -खुसुर-पुसर होती रही ,किन्तु गांधी जी एवं  उनके चेलों  ने वायसराय के आदेश का अक्षरसः पालन किया। शहीद  भगतसिंह  तो व्यक्तिगत रूप से क्रांति की उस  बलिबेदी पर हवन होने को पूर्णत : तैयार थे।  किन्तु अन्य साथियों  के मन में  शायद जीवन की कुछ  जिजीविषा शेष थी और  गांधी जी से हस्तक्षेप की उम्मीद भी थी। लेकिन गांधी जी ने चुप्पी साध ली।

अपने  क्रांतिकारी  साथियों का हौसला  बढ़ाते हुए तब भगतसिंह ने कहा था  ''साथियो ! हमें गर्दन से फांसी के फंदे पर तब तक लटकाया जाएगा ,जब तक कि  हम मर न जायें !यही असलियत है। में इसे जनता हूँ। तुम लोग भी जानते हो !फिर इसकी तरफ से आँखे बंद क्यों करते हो ?''

'' देशभक्ति के लिए हमें यह  सर्वोच्च पुरस्कार  है। और मुझे गर्व है कि  मैं यह पुरस्कार  पाने जा रहा हूँ। वे  [अंग्रेज]  सोचते होंगे कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे अपनी 'सत्ता' सुरक्षित रख पाएंगे !यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं ,लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते ! वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं किन्तु मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकते। ब्रिटिश हुकूमत के सिर  पर  मेरे 'विचार 'उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे  जब तक वे यहाँ से भागने के लिए मजबूर नहीं हो जाते !''

''  लेकिन वे भूल रहे हैं कि ब्रिटिश हुकूमत के लिए एक जीवित भगतसिंह से  एक मरा हुआ भगतसिंह ज्यादा खतरनाक सावित होगा। मुझे फांसी होने के बाद मेरे क्रांतिकारी  विचारों की सुगंध इस राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त हो जाएगी। वह नौजवानों में चेतना लाएगी और वे आजादी और क्रांति के लिए पागल हो उठेंगे। देश के  नौजवानों का यह आक्रोश ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचाएगा । मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इन्तजार कर रहा हूँ जब देश के लिए ,देश की जनता के लिए मेरी सेवाओं का मुझे सर्वोच्च पुरस्कार  मिलेगा ''   [ संदर्भ :-शहीद भगतसिंह की चुनी हुई कृतियाँ -लेखक शिव वर्मा  पृष्ठ ५९-६० ]

शहीद भगतसिंह की भविष्यबाणी के एक वर्ष के दरम्यान ही सच सावित हो गयी थी। उनका नाम मौत को भी चुनौती देने वाले साहस,बलिदान ,देशभक्ति और संकल्पशीलता का प्रतीक बन गया। और उनके द्वारा देश के युवाओं को दिया गया  ''इंकलाब -जिंदाबाद' का नारा केवल भारत का ही सर्वोत्कृष्ट नारा नहीं बना, बल्कि दक्षेश के सभी देशों का सर्वाधिक लोकप्रिय नारा  यही है  स्वाधीनता संग्राम के उस दौर में और भी बहुत से नारे लगते रहे। गांधी जी का -अंग्रेजो  भारत छोडो , सुभाष चंद बोस का -तुम हमें खून दो ,हम तुम्हे आजादी देंगे , तिलक का -स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे, बंकिमचंद का 'वन्दे मातरम' ,इकबाल का 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ,कांग्रेस का जय हिन्द ,समाजवादियों का -हिन्दुस्तान जिंदाबाद और देश के लिए मर -मिटने वाले  अमर शहीदों का ''भारत माता की जय '' के नारे आजादी के आंदोलन में खूब लगते रहे । स्वाधीनता संग्राम में इन नारों से न केवल भारत भूमि बल्कि  दशों दिशायें  गुंजायमान होतीं रहीं।  यद्द्पि ये सभी नारे भारत की आजादी के मूल मंत्र रहे हैं। ये अब भी प्रासंगिक हैं और प्रेरणा - स्फूर्ति देते हैं। किन्तु इंकलाब -जिंदाबाद  तब भी  क्रांतिकारी युवाओं को ताकत  प्रेरणा देता रहा  और आज भी यह नारा हर किस्म के जायज संघर्ष में युवाओं का पथप्रदर्शक बना हुआ है। इस नारे में देशभक्ति है ,जनता की आवाज है , मौजूदा चुनौतियों से निपटने का माद्दा है ,क्रांति की खनक है और खासतौर से इस नारे में शहीद भगतसिंह ,राजगुरु   सुखदेव ,चंद्रशेखर आजाद  ,विद्या भावी इत्यादि की  शहादत का असर बाकी है।

हर साल २३ मार्च को भारत ,नेपाल,और पाकिस्तान के तमाम  क्रांतिकारी वामपंथी साथी इंकलाब -जिंदाबाद नारा लगाकर  -भगतसिंह  और अन्य तमाम अमर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

इंदौर में 'भारतीय जन नाट्य मंच ' के तत्वाधान में शहादत सप्ताह [१६ मार्च से २३ मार्च] मनाया गया । इसके उद्घाटन सत्र  को सम्बोधित करते हुए सुप्रसिद्ध लेखक इतिहासकार ,जेएनयू के सेवानिवृत प्रोफेसर  चमनलाल ने मॉस कम्युनिकेशन के विद्यालयीन छात्रों और नगर के प्रबुद्ध नागरिकों को सम्बोधित करते हुए  उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। हालाँकि कार्यक्रम का मुख्य विषय -'देश प्रेम के मायने और भगतसिंह '! रखा गया। ट्रेड यूनियन के साथियों ,साहित्यकारों और अन्य जनवादी  मित्रों के साथ हम भी इस  शहीद दिवस कार्यक्रम में  मौजूद थे।  प्रोफेसर चमनलाल से उनके  सम्वोधन उपरान्त छात्र-छात्राओं ने कुछ प्रासंगिक घटनाओं पर प्रश्न  भी पूंछे।

पहला सवाल :- क्या 'भारत माता की जय ' बुलवाना धर्मनिरपेक्षता या राष्ट्रवाद का प्रतीक है ?

उत्तर :-इसके जबाब में प्रोफेसर चमनलाल ने  बताया कि  आजादी से बहुत पहले ही कांग्रेस के अधिवेशनों में तत्कालीन नेताओं  की जय के  साथ-साथ 'भारत माता की जय ' के नारे लगते रहे। लेकिन अंग्रेज इससे चिढ़ते थे। और वे इसे देशद्रोह मानते थे। आजादी के बाद विद्यालयों में छात्रों को अपने अमर शहीदों की जय के साथ  ही 'भारत  माता की जय' का नारा लगाना सिखाया जाता रहा है। लेकिन यह नारा  हमारे संविधान निर्माताओं के द्वारा स्वीकृत  नहीं किया गया। स्वयं डा अम्बेडकर ने कहीं इसका जिक्र नहीं किया। पंडित  जवाहरलाल नेहरू ने १५ अगस्त -१९४७ को लाल किले  की प्राचीर से राष्ट्र के नाम जो सन्देश दिया था उसमें 'भारत माता की जय ' का एक बार भी जिक्र नहीं।  महात्मा गांधी हमेशा जय हिन्द ही कहते रहे। उनकी पुस्तक 'हिन्द स्वराज'में जय हिन्द तो है किन्तु 'भारत माता की जय ' नहीं है। सरदार पटेल ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और सुभाष चन्द्र बोस इत्यादि  नेताओं के तमाम उपलब्ध रिकार्डेड और स्पीच में 'जय हिन्द' का नारा ही सर्वत्र गूँजता सुनाई देता है। इंदिराजी , मोरारजी और अन्य तमाम  पूर्व प्रधानमंत्रियों  ने भी कभी 'भारत माता की जय' का नारा  नहीं लगाया। अटल बिहारी वाजपेई जब प्रधान मंत्री बने तो लाल किले की प्राचीर से उन्होंने भी 'जय हिन्द' का नारा ही तीन बार  दुहराया। भारत  की जनता में पहली बार लाल किले की प्राचीर से  सिर्फ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने ही 'भारत माता की जय ' का नारा दिया है। कुछ क्षण मौन धारण करने के उपरान्त प्रोफेसर चमनलाल  ने उपस्थित श्रोताओं और प्रश्नकर्ताओं से  ही प्रति प्रश्न किया -क्या मोदी जी  से पहले वाले सभी प्रधान मंत्री 'देशद्रोही'थे ?

दूसरा सवाल :-भगतसिंग और उनके साथी  'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाते थे , क्या वे देशभक्त नहीं थे ?

उत्तर :-शहीद  भगतसिंह ने कहा था -हमारी शहादत के बाद देश की  जनता  और नेता आजादी का जश्न मना  रहे होंगे। वे हमें भूल जाऐंगे । लेकिन आजादी के  बीस साल बाद उन्हें अचानक मालूम पडेगा कि  इस देश में कुछ नहीं बदला है । गोरे  अंग्रेजों की जगह देशी काला  साहब उनके सिर  पर बैठ चुका है। आर्थिक ,सामाजिक और वर्गीय असमानता यथावत है। तब देश की आवाम जिस बदलाव के बारे में सोचेगी। जिस क्रांति के लिए संगठित होकर संघर्ष को प्रेरित होगी ,उसे ही  'इंकलाब'  कहा जाएगा। इस बदलाव की चाहत याने क्रांति की आहट  को भांपकर  भृष्ट  व्यवस्था  के पोषक  जनता का ध्यान  भटकायेंगे और  'नकली राष्ट्रवाद का चोला पहिनकर  ऊँट पटांग  नारों में उलझा देंगे।  शहीद भगतसिंह की वह भविष्यबाणी भी अक्षरशः सही सावित हो रही है।  समता,न्याय पर आधरित -शोषण विहीन  नवीन व्यवस्था के सृजन के निमित्त 'इंकलाब जिंदाबाद 'का नारा लगाने वाले छात्रों को देशद्रोही सिद्ध करने की वैसी ही मशक्क़त  की जा रही है जैसी की तत्कालीन अंग्रेज वायसराय ने भगतसिंह को फांसी पर चढ़ाने के लिए की थी।  जय -हिन्द ! भारत माता की जय !

  इंकलाब -जिंदाबाद ! अमर शहीदों को लाल सलाम !! शहीद भगतसिंह राजगुरु-सुखदेव अमर रहे !!!

श्रीराम तिवारी

 

बुधवार, 16 मार्च 2016

पाकिस्तान में और ज्यादा आफरीदी चाहिए और भारत में घर-घर कन्हैया चाहिए !

अभी कुछ दिन पहिले ही क्रिकेट खेलने भारत पधारे पाकिस्तानी टीम के एक खिलाड़ी ने कह दिया कि 'भारत में हमे पाकिस्तान से ज्यादा प्यार मिला '!  वन्दे का  इतना कहना भर था कि कुछ पाकिस्तानी अंधराष्ट्रवादियों के सीने पर साँप  लोटने लगे ! बेचारा आफरीदी  सोच रहा होगा कि भारत -पाकिस्तान की जनता और सरकारें  अपना-अपना अड़ियल रुख  छोड़ें , आगे बढ़ें ,क्रिकेट खेलें ,खुश रहें और प्रगति करें !आमीन !लेकिन इतना अच्छा विचार शैतान को क्यों पसंद होगा ?तत्काल शैतान ने जावेद मियांदाद की खोपड़ी में घुसकर आफरीदी द्वारा प्रस्तुत  'मैत्रीभाव' के अंकुरण पर सल्फ्यूरिक एसिड का पूरा टेंकर  ही उड़ेल दिया। उसने तो आफरीदी को नसीहत भी दी है कि  सिर्फ क्रिकेट खेलो ! ज्यादा गांधीगिरी मत दिखाओ !  याने पाकिस्तान के आतंकी शिविर क्या सफ़ेद कबूतर उड़ाने के लिए हैं ? इसी तरह भारत का कोई बन्दा जब पाकिस्तान से दोस्ती की बात करता है , यहाँ असहिष्णुता की बात करता है या अल्पसंख्यकों की  भावनाओं के सम्मान की बात करता है तो तत्काल कहा जाता है कि 'पाकिस्तान चले जाओ !  यदि दोनों मुल्कों में अमन  चाहिए तो पाकिस्तान में  और ज्यादा  आफरीदी  चाहिए  और भारत में घर-घर कन्हैया  चाहिए !

 संस्कृत सुभाषित कहता है ;- ''स्वदेशे  पूज्यते  राजा ,विद्वान् सर्वत्र पूज्य ते '' । अर्थात राजा या शासक तो केवल अपने देश में  ही सम्मानित होता है ,किन्तु विद्वान -बुद्धिजीवी सारे  सन्सार में  सम्मानित होता है। इस संस्कृत सुभाषित की आधुनिक  पेरोडी कुछ इस तरह हो सकती है :-''स्वदेशे पूज्यते शासक ,कन्हैया सर्वत्र पूज्यते '' ! अर्थात इस दौर में  संकीर्णता  वालों की तूती वेशक  भारत में  बोल रही है। खास तौर से आसाराम,श्री-श्री ,नित्यानंद जैसे साधु-संतों के डेरों तक ही इसकी  महिमा सीमित है। जबकि जेएनयू का छात्र  कन्हैया  हो या वृन्दावन का  कृष्ण कन्हैया हो ,इनकी तूती  सारे संसार में बोल रही है। वृन्दावन के कृष्ण कन्हैया ने  द्वापर युग में अपनी युवावस्था में  देवराज इंद्र से पंगा लिया था। ब्रिज के ग्वालवालों को इंद्र के बजाय 'गोवर्धन' पर्वत की पूजा का सिद्धांत पेश किया था। और यमुना तथा बृज भूमि की पूजा पर बल दिया था। क्योंकि ये दोनों ही ब्रजवासियों की जीवंतता के प्राकृतिक साधन थे।

जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया  भी देश के युवाओं को आधुनिक 'इंद्र' अर्थात पूँजीवादी -साम्राज्य्वाद  से सावधान कर रहा है। वह साम्प्रदायिकता रुपी कंस के  खिलाफ सिंहनाद कर रहा है। यह जेएनयू का कन्हैया जनवाद रुपी गोवर्धन और धर्मनिरपेक्षता रुपी यमुना के  प्रति सम्मान व्यक्त करता है।  कन्हैया और उसके जाबाज साथी जब कहते  हैं कि 'जेएनयू में हम भारत का झंडा फहराएंगे ,और  दुनिया के तमाम देशों के झंडे भी लहराएंगे। वे  जेएनयू में पाकिस्तान का झंडा भी लहराएंगे' तो मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। किन्तु जब मैंने गम्भीर -विचार मंथन किया तो मुझे लगा कि जेनएयू  छात्र  कन्हैया और उसके साथी  तो आर्य ऋषियों की बराबरी करने जा रहे हैं। वे जो कुछ भी कर रहे हैं वह आर्य सिद्धांत के अनुरूप और हिन्दू शास्त्र  सम्मत है। हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार :

अयं  निजः  परोवेति  ,गणना लघुचेतसाम्।

उदार चरितानाम् तु ,वसुधैव  कुटुम्बकम।। 

अर्थात :- ये मेरा है ,वो उसका है - इस तरह का अपना -पराया  विचार  केवल अल्पबुद्धि के  मनुष्य ही करते हैं। जबकि उदात्त चरित्र के महानतम लोग समस्त वसुधा को अर्थात  सारे सन्सार को अपना कुटुम्ब्  मानते हैं। यही सर्वहारा अन्तर्राष्टीयतावाद है। यह केवल मार्क्सवादी सिद्धांत ही नहीं बल्कि भारतीय  शास्त्रीय सिद्धांत भी है। कोई भी हिन्दू  इस सिद्धांत पर गर्व कर सकता है। क्योंकि मार्क्सवाद और हिन्दू शास्त्रों के अलावा यह संसार के अन्य किसी भी सिद्धांत दर्शन में यह उपलब्ध नहीं है। केवल मार्क्सवाद ही इसकी बराबरी कर सकता है। और उसी विचारधारा से प्रेरित होकर कामरेड कन्हैया  कुमार ने जेएनयू में दुनिया के सभी देशों के झंडे फहराने का जो एलान  किया है,उस पर जिन्हे आपत्ति होगी वे  न तो हिन्दू' हो सकते हैं और न वे  राष्ट्रवादी  हो सकते हैं।  बल्कि  कन्हैया  का विरोध करने वाले द्वापर में भी पाखंडी  -धृतराष्ट्रवादी  थे और इस कलयुग में भी जेएनयू के कन्हैया  का विरोध करने वाले  भी केवल ढोंगी-पाखंडी और महापातकी ही होंगे !भारत में या भारत के बाहर  जो लोग दावा करते हैं कि  वे 'हिंदुत्व' की रक्षा के लिए कटिबध्द हैं , यदि वे लोग  उपरोक्त शास्त्रीय  श्लोक के अनुसार आचरण  नहीं करते तो घोर पाखंडी हैं।  श्रीराम तिवारी !

ओवैसी के घटिया वयान संघ के लिए वरदान हैं ।

 जाने-माने शायर ,लेखक ,प्रगतिशील बुद्धिजीवी एवं राज्य सभा सदस्य जनाब जावेद अख्तर साहब ने संसद में असदउद्दीन ओवैसी को मानों 'फींचकर' निचोड़ डाला ! जावेद अख्तर के इस राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष भाषण से पूरा सदन गदगदायमान  होता रहा । जावेद अख्तर साहब ने ओवैसी  के बहाने उनको भी खूब धोया जो सत्ता पक्ष की बेंचों पर  विराजमान थे। देशद्रोहियों को मार-मार कर ''भारत माता की जय ' बुलवाने को आतुर स्वयंभू राष्ट्रवादी लोग अपने-किये धरे पर बगलें भी झाँक रहे होंगे । क्योंकि जावेद अख्तर साहब न केवल उन्हें आइना दिखा रहे थे जो ओवैसी की भाषा बोल रहे हैं ,बल्कि एक साँस में तीन-तीन बार ' भारत माता की जय' बोलकर जनाब जावेद अख्तर साहब  ने कटटरपंथी  हिन्दुत्ववादियों को भी करारा जबाब दिया है। सही मायनों में भारत की धर्मनिरपेक्षता ,जनवाद और लोकतंत्र की आवाज  वही है जो संसद के वर्तमान सत्र में जनाब जावेद अख्तर साहब के श्रीमुख से राज्य सभा में  प्रतिध्वनित हो रही थी ! कुछ दिन पहिले ही संसद में पीएम मोदी जी ने निदा फाजली  को कोड किया था। उम्मीद है कि वे  जावेद अख्तर को इग्नोर नहीं करेंगे । और संघ वालों को भी  यह नहीं भूलना चाहिए कि  सिर्फ जावेद अख्तर ,निदा फाजली ही नहीं भारत के  करोड़ों मुसलमान भी इसी तरह के विचार रखते हैं। अपनी संकीर्ण रौ में आकर हर मुसलमान को आतंकी न समझें ! और 'भारत माता की जय ' का नारा लगाने वाले हर शख्स को 'देशभक्त' समझने की जिद  भी न करें ! अभी-अभी आरक्षण की मांग को लेकर हरियाणा में हत्या बलात्कार ,आगजनी और लूट के लिए जो लोग  जिम्मेदार हैं, वे भी 'भारत माता की जय 'का नारा खूब लगते रहे हैं।  क्या वे देशभक्त हैं ?

सच बात यह है कि  'भारत माता की जय 'बोलने से  असदउद्दीन ओवैसी को भी उतनी एलर्जी नहीं है ,जितनी की मीडिया में बताई गई है। असदउद्दीन ओवेसी जब 'जय हिन्द ' बोलता है तब उस खबर को या तो दबा दिया जाता है या बहुत कम दिखाया -सुनाया जाता है। 'देशद्रोह' के शोर में दबा दिया जाता है। ओवैसी  ने सैकड़ों बार कहा होगा कि भारत के अलावा वे  किसी भी अन्य  मुल्क में जीना -मरना पसंद नहीं  करेंगे । यह खबर कितने लोगों तक पहुँची ? लेकिन ओवैसी  बनाम भागवत विमर्श में एक बात जरुर  नजर अंदाज की जा रही है। जिस तरह कोई मामूली पहलवान जब किसी नामी पहलवान को अखाड़े में ललकारता है और उस बड़े पहलवान से हार जाने के बाद भी उसका नाम होने लगता है ,उसी तरह ओवैसी और उनके जैसे अन्य तमाम साम्प्रदायिक -मजहबी नेता  भी 'संघ' को चिढ़ाकर अपनी साम्प्रदयिक राजनीति चमकाते  रहते हैं। अर्थात संघ और उसके प्रतिस्पर्धी मुस्लिम नेता और संगठन एक दुसरे के अन्योन्याश्रित हैं। ओवैसी जैसे  नेताओं की उत्तेजक बयानबाजी और सिमी  जैसे इस्लामिक संगठनों की आतंकी गतिविधियों से संघ की ताकत बढ़ रही है। सत्ता में आकर तो संघ  की  बीसों घी में हैं ! जब कभी कहीं ओबैसी आग लगाते हैं  तो 'संघ' वाले घासलेट डालने को तैयार रहते हैं. और जब संघ वाले कुछ अनर्गल बोल बचन उच्चारते हैं तो ओवैसी फौरन अपना फटा पुराना  ढोल बजाना शुरू कर देते  हैं।

जनाब असदउद्दीन ओवेसी और उनके जैसे अन्य मजहबी सियासतदानों को 'धर्मनिरपेक्ष' तो कदापि नहीं कहा जा सकता। इसलिए सभी वामपंथी विचारकों और वर्ग चेतना से समृद्ध साहित्यकारों,पत्रकारों और बुद्धिजीवियों  की जिम्मेदारी है कि इस विमर्श में  वे जावेद अख्तर को ही फॉलो करें। कुछ  जनवादी -प्रगतिशील और वामपंथी साथी  सिर्फ 'आरएसएस 'की  इकतरफा आलोचना करते रहेगें , ओवेसी जैसों की अनदेखी करते रहेगे या उसका समर्थन करते रहेगे  तो इससे  संघ का ही फायदा  होगा। क्योंकि वर्ग चेतना विहीन  अधिकांस सीधी सरल हिन्दू जनता और किसान - मजदूर  संघषों में तो एक दूजे के साथ होंगे ,किन्तु संसदीय लोकतंत्र में वोट की राजनीति के अवसर पर वह ओवेसी के बोल बचन जरूर  याद रखेगी। और ध्रुवीकृत होकर मुस्लिम मत यदि ओबैसी की जेब में होंगे तो हिन्दुओं के वोट ध्रुवीकृत होकर'संघ परिवार' याने  भाजपा को  और गिरेंगे ।  यही अकाट्य सत्य है। यह २०१४ के चुनावों में हो  चुका  है।यह जम्मू कश्मीर के विधान सभा चुनाव में  भी हो चुका  है।  इससे सिद्ध होता है कि ओवैसी जैंसे लोगों की हरकतें धर्मनिरपेक्षता और जनवाद के पक्ष में कदापि नहीं  हैं। देश के हित में भी बिलकुल  नहीं हैं ! बल्कि ओवैसी जैसों की प्रत्येक हरकत से  फासीवाद का खतरा  बढ़ता जा रहा है और उसी अनुपात में 'संघ' और भाजपा की ताकत  भी बढ़ रही है ।याने ओवैसी के घटिया वयान संघ के लिए वरदान हैं ।

  नागौर प्रतिनिधि  सम्मेलन के अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ  के प्रमुख श्री मोहनराव भागवत जी ने  जेएनयू,जाधवपुर और हैदरावाद यूनिवर्सिटीज में  हुई 'देशविरोधी' नारेबाजी पर अपनी नाराजी  व्यक्त करते  हुए कहा कि '' इस देश के युवाओं  को राष्ट्रवाद का ज्ञान नहीं है ,उन्हें भारत माता की जय बोलना भी सिखाना पड़  रहा  है '' उन्होंने वर्तमान  शिक्षा पद्धति में बदलाव का भी संतुलित शब्दों में आह्वान किया । इस सम्मेलन में परम्परागत गणवेश परिवर्तन की तरह संघ ने 'भारत माता की जय' की कोई  नई सैद्धांतिक गवेषणा नहीं की है। 'भारत माता की जय ' तो १८५७ से  ही प्रारम्भ हो गई थी। हिन्दू-मुस्लिम सभी भारतवासी यह नारा लगाते  आ  रहे  थे ।तब यह नारा राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का मूल मत्र था। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने जब अलग से  पाकिस्तान मांग लिया और देश  का विभाजन हुआ तब  यह नारा सिर्फ 'भारत 'के लिए ही शेष रहा। उधर यदि  पाकिस्तान जिंदाबाद हो गया तो कायदे इधर भी 'हिंदुस्तान जिंदाबाद' होना  चाहिए था ,चूँकि  भारतीय नेताओं ने भारत को धर्मनिरपेक्ष -लोकतान्त्रिक राष्ट्र माना  अतः 'हिन्दुस्तान' की जगह भारत ही अधिकृत नाम रखा गया। हिन्दू समाज को देश का तातपर्य 'माँ' है।जबकि दुनिया के तमाम देश के लोग अपने-अपने वतन को 'नेशन' ही मानते हैं । यद्द्पि सभी  भारतीय  हिन्दू -मुसलमान  हालाँकि भारत माता की जय 'बोलते आ रहे हैं। लेकिन हिन्दुओं का  राष्ट्र के प्रति कृतज्ञता भाव कुछ-कुछ  वैसे ही  है जैसे की रोज सुबह उठकर लोग मंजन  - स्नान इत्यादि  से निवृत्त होकर  अपने-अपने  इष्टदेव,गुरुजन  के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इसी तरह  दुनिया के अधिकांस  लोग अपनी-अपनी भाषा में अपने राष्ट्र और अपने राष्ट्रीय प्रतीकों को सम्मान  प्रदर्शित करते हैं।  किन्तु भारत के  कुछ मुसलमान 'भारत  माता की जय' या 'वन्दे मातरम' के  नारे  लगाने से बचने की कोशिश करते रहते हैं.उन्हें लगता है कि  इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता। लेकिन  जावेद अख्तर और  उस्ताद अमजद अली खान जब भारत माता की जय का नारा लगाते हैं ,तो  ओवेसी या उसके जैसें अन्य लोगों को कोई उज्र नहीं होनी चाहिए। और फिर भी  यदि  वे 'जय हिन्द 'या  'हिंदुस्तान जिन्दावाद'  का नारा ही  लगाते हैं तो यह  भी मान्य होना चाहिए । भारत के किसी भी नागरिक  को देशद्रोही करार देने का अधिकार  केवल कानून को है। किसी  भी वयक्ति या संगठन  को कोई अधिकार नहीं कि देशभक्ति प्रमाणन का काम अपने हाथ में ले ले।

असदउद्दीन ओबेसी  का कहना है कि '' मेरे गले  पर छुरी  भी रख दो तो भी भारत माता की जय नहीं बोलूंगा ''उनका कहना है कि  'मुझे किसी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र नहीं चाहिये यदि मुझे  देशभक्ति का नारा लगाना ही होगा तो 'जय हिन्द' का प्रयोग करूँगा। ''दरसल ओवेसी को 'भारत माता की जय से कोई समस्या नहीं है।देश से भी उन्हें कोई समस्या नहीं है। हिन्दुओं से भी उन्हें कोई समस्या नहीं है। वास्तव में ओवैसी की समस्या ये है कि वे महज एक व्यक्ति नहीं बल्कि 'विचारधारा 'हैं। यह 'विचारधारा 'घोर साम्प्रदायिक है और यह सिर्फ ओवैसी की  ही नहीं है। बल्कि यह विचारधारा  सिमी की भी है। यह विचारधारा हरकत-उल अंसार की भी  है ,यह कश्मीर में दुख्तराने हिन्द की भी है , कश्मीर में पत्थरबाजी करने वालों की भी  है ,केरल में मुस्लिम लीग की है। आंध्र , तेलांगना में आईएम और ओवेसी की है। वही विचारधारा  कभी सैयद  शाहबुद्दीन की भी रही है। ऐ आर अंतुले  , गनीखान चौधरी ,इमाम बुखारी,आजमख़ाँ ने इस विचारधारा  का जमकर भोग किया है। ममता,मुलायम,लालू और नीतीश ने भी इसका स्वाद चखा है।  देश विभाजन के बाद -पाकिस्तान बन जाने के बाद इस विचार धारा से ही  पाकिस्तान बना था। लेकिन भारत को अपना वतन मानने वाले जावेद अख्तर ,निदा फाजली ,अमजद अली खान जैसे  करोड़ों मुसलमानों को जब  कुछ  स्वार्थी लोग  'दारुल हरब 'का ज्ञान बाँटने की जुर्रत करते  हैं तो उन्हें औकात  बता दी जाती है। जैसे कि जावेद अख्तर ने राज्य सभा में ओवेसी के नकारात्मक बयान पर उसे आइना दिखाया। जावेद साहब ने ओवैसी को  गली मोहल्ले का नेता बताकर उसकी असल औकात दिखा दी है। 

चूँकि ओवैसी ने  'भारत माता की जय ' बोलने से स्पष्ट इंकार किया है ,हालाँकि वे 'जय हिन्द'बोलने में नहीं हिचकते। क्यों ?दरअसल यह उस दारुल हरब के 'विचार' का ही हिस्सा है। इस्लाम के  कुछ उलेमा माँनते हैं कि इस्लाम के अनुसार 'अल्लाह' की बंदगी ही अंतिम है।और अल्लाह या माँ का दर्जा  देश को नहीं दिया जा सकता। मक्का-मदीना या काबा को सिजदा तो कर सकते हैं ,किन्तु जय उनकी भी नहीं बोली जाती। जय याने नमन याने  प्रणाम सिर्फ अल्लाह को ही करने की परम्परा है  ! और इसमें गलत भी क्या है ? कोई मुसलमान 'काबा की जय'  या मक्का की जय  नहीं बोलता। मदीना की  जय नहीं बोलता,सऊदी अरब की भी जय नहीं बोलेता  !  तो 'भारत माता की जय' जबरन बुलवाने की क्या जरूरत है ? रही बात राष्ट्रवाद की या देशप्रेम की तो ये किसने कहा कि  'भारत माता की जय 'बोलने वाले  ही देशभक्त होते हैं।  कालाहांडी ,कूचबिहार अबूझमाण्ड , झाबुआ के अधिकांस आदिवासी तो भारत का मतलब भी नहीं जानते । भारत माता की जय और जय भारत या जय हिन्द बोलने का तो वहाँ  सवाल ही नहीं है। क्या ये करोड़ों निर्धन - आदिवासी  'देशद्रोही' हैं ? सिर्फ एक  ओवेसी के या कुछ मजहबी अड़ियल लोगों के 'भारत माता की जय' नहीं बोलने  पर इतना तनाव क्यों ? यह उनका राष्ट्रद्रोह नहीं  है। मूर्खता अवश्य हो सकती है। सामाजिक- मजहबी  रूढ़िवादिता का नकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। इस्लाम में पुरुषसत्तात्मक सोच का बड़ा प्रभाव है। इसीलिये ओवैसी को 'भारत माता'के स्त्रीसूचक शब्द को  सलाम करने में परेशानी हो सकती है। भारत के पुरुषत्वरूप को  'जय हिन्द' से नवाजने  में ओवैसी को कोई गुरेज नहीं है ।चूँकि हिन्दुओं को यह देश उनकी मातृभूमि है ,माँ है ,इसलिए वे 'भारत माता की जय 'बोलते हैं। 

बहरहाल ओवेसी के इन धतकर्मों से संघ या भाजपा को कोई परेशानी नहीं। हिंदुत्व को कोई खतरा नहीं। बल्कि जनवाद ,धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशील कतारों को ओवैसी की इस हटधर्मिता से सावधान रहना होगा। वरना  ओवैसी इसी  तरह  गंदगी फैलाते रहेंगे और प्रगतिशील  धर्मनिरपेक्ष लोग उनके विषवमन पर सफाई  पेश करते रहेंगे तो यह क्रांति का सिद्धांत नहीं हो सकता। सिर्फ भारत माता की जय का सवाल नहीं है ,यह  एक किस्म का अलगावबाद ही है। इस ओवेसियों के अलगावबाद से ही  'संघ' को ऊर्जा मिलती रहती है। इस  खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में यह  मजहबी उन्माद ही भारतीय सर्वहारा वर्ग को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के थ्रू आपस में लड़ा रहा है। हालाँकि जो भारत माता की जय का नारा लगाते रहते हैं ,उनकी भी कोई गारंटी नहीं कि देशभक्त ही हों !तमाम चोर,उछके,डाकू, और भगोडे  विजय माल्या ,सत्यम राजू जैसे लोग ,स्व प्रमोद महाजन ,जूदेव, बंगारू लक्ष्मण जैसे  भृष्ट लोग भी 'भारत माता की जय -जयकार करते रहे हैं। 'भारत माता की जय बोलकर ' अपने गुनाहों पर पर्दा डालना ही देशभक्ति  नहीं है। भारत माता की जय बोलना ही राष्ट्रवाद का  एक मात्र  सच्चा और अंतिम प्रमाण नहीं  है ?  अधिकांस साधु सन्यासी और महात्मा लोग हिमालय या एकांत में तपस्यारत हैं। वे केवल  परमात्मा या ईश्वर की साधना में लीन  हैं ,उसी की जय  ही बोलते हैं ,उन्हें  तो कृष्ण का आदेश  भी है कि :-

'' सर्व धर्मान परित्यज मामेकं शरणम बिजह '' [भगवद्गीता] अर्थात ये देश ,ये सन्सार सब माया  है ,सबको तज और मुझ [श्रीकृष्ण] को भज '' अब बुलवाओ उन दो करोड़ बाबाओं से भारत माता की जय  जो सिहंस्थ में उज्जैन पधारे हैं ! वे तो अपने-अपने अखाड़ों की जय बोलकर शिवराज को आँख दिखा रहे हैं। मामूली जमीन के टुकड़े के लिए  एक दूसरे  को आग्नेय नजरों से भस्म करने पर उतारू हैं। यहां न हिंदुत्व है ,न राष्ट्रवाद वाद है , न  भारत माता की जय सुनाई देती है। केवल पाखंड है ,धन और मानव श्रम  की बर्बादी है।  परजीवियों का अकूत जमावड़ा है। इसपर भी तो भागवत जो को कुछ कहना चाहिए।

वेशक इस देश में  कुछ लोग 'भारत माता की जय ' के  नारे के साथ -साथ इससे भी आगे बढ़कर ''कौन  बनाता हिन्दुस्तान -भारत का मजदूर किसान ' का नारा  भी लगाते हैं। क्या इस नारे में राष्ट्रवाद की कमी है ? यदि है तो संघ ' का अनुषंगी 'भारतीय मजदूर संघ ' यह नारा क्यों लगाता  है ? बीएमएस  के संस्थापक -पितृपुरुष और संघ के महान चिंतक स्वर्गीय दत्तोपंत ठेंगडी जी यह नारा क्यों लगवाते रहे ?  यदि  संघ वालों को जेएनयू में लगाये गए नारे पसंद नहीं,ओवैसी के  लगाये 'जय हिन्द' के नारे पसंद नहीं  तो यह उनकी समस्या है। संघ को यह अधिकार किसने दिया कि  वे नारेबाजी का हिसाब-किताब रखें ? हो सकता है कि  संघ जो नारे लगवाता है वे देश की आवाम को ही अपसंद न हों ! कहीं 'संघ' की यह असहमति  ही तो ओवैसियों को असहिष्णु नहीं बना रही ?  श्रीराम तिवारी !

सोमवार, 14 मार्च 2016

संघर्षों की सही दिशा है ,भगतसिंह की वाणी में। -[Shriram Tiwari ]



  माल समेटकर भागा माल्या ,बैंक अजब हैरानी में।

  मंद -मंद मुस्कराए मंत्रीवर , भैंस गयी जब पानी में।।

 
  सुरा सुंदरी आई पी एल , राजनीति   की  थाली  में।

  ईपीएफ और  वेतन गायब ,किंगफिशर बदहाली  में।।


  काले धन  वालों की सूरत ,  छिपी  सुरा की प्याली में।

 आरक्षण  का अजगर बैठा , वोट कबाडू  नाली  में।।


  लुटिया डूबी लोकतंत्र की , दल -दल  की  नादानी  में।

  आतंकी  उन्माद  पसरता ,  मजहब की शैतानी  में।।


  कॉरपोरेट पूँजी की जय-जय , ग्लोबल कारस्तानी में।

  निर्धन -निबल लड़े आपस में ,धर्म -जाति की घानी में।


  संघर्षों की  सही दिशा  है  ,भगतसिंह  की  वाणी में।

  अमर शहीदों  का बलिदान, भारत अमर कहानी में  ।।

 
                     श्रीराम तिवारी
 

रविवार, 13 मार्च 2016

संघ की आईएसआईएस से कोई तुलना नहीं !




 राज्य सभा में विपक्ष के नेता और वरिष्ठ कांग्रेसी गुलाम नबी आजाद ने 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ' की तुलना खूँखार इस्लामिक जेहादी संगठन 'आईएसआईएस' से की है। 'संघ परिवार'वाले तो गुलाम नबी आजाद के इस वयान से कदापि  सहमत नहीं होंगे। और यह कोई अचरज की बात  भी नहीं है ! यह तो सनातन की रीति है कि जो कांग्रेस वाले बोले वो भाजपा और संघ परिवार को मंजूर नहीं। और जो भाजपा या संघ वाले बोलें वो कांग्रेस को भी मंजूर नहीं ! अभी हाल ही में जनाब गुलाम नबी आजाद  ने 'जमीयत उलेमा -ए - हिन्द  द्वारा आयोजित समारोह के मंच से उपरोक्त तुलना की है। स्वाभविक है कि आजाद के इस  वयान का कांग्रेस तो समर्थन करेगी किन्तु  'संघ परिवार' इसका विरोध करेगा ! लेकिन आजाद के इस वयान का एक तीसरा आयाम भी है जिसका विहंगावलोकन  बहुत जरुरी है।

वर्तमान एनडीए सरकार की प्रमुख घटक भाजपा को  लोक सभा चुनाव में २८२ सीटें प्राप्त हुई थी। जबकि वोट सिर्फ ३१% ही मिले हैं।  जाहिर है की यह सारी पुण्याई 'संघ' की है। वोटों के हिन्दुत्ववादी धुर्वीकरण के परिणाम स्वरूप आज पूरा भारत 'संघ' के कब्जे में है। संघ और भाजपा को यह उपलब्धि भी लोकतान्त्रिक तरीके से प्राप्त हुई है। इस  विराट उपलब्धि के लिए संघ को ९० साल इन्तजार करना पड़ा है। समस्त हिंदूवादी संस्थाएं ,साधु-संत ,बाबा,स्वामी ,श्री-श्री सबके सब  'संघ' की सेवा में ही दिन रात  जुटे हैं। यदि दो-चार वामपंथी बुद्धिजीवियों की हत्या को अपवाद मान लिया जाये तो बाकी अधिकांस मामलों में 'संघ' ने बिना हिंसा के ही यह लक्ष्य प्राप्त  किया है। इतनी विराट उपलब्धि के बाद संघ को आईएसआईएस बनने की क्या जरूरत है ? आईएसआईएस के समर्थन में दुनिया का एक भी प्रतिष्ठित मुस्लिम धर्म गुरु या उलेमा नहीं है। आईएसआईएस के पास महज कुछ तेल के कुए और एक दो शहर ही हैं। इसके अलावा  उनके खिलाफ सारा यूरोप,अमेरिका रूस और नाटो देश भी हैं। जबकि संघ के खिलाफ दुनिया का  कोई देश नहीं है।

आईएसआईएस वालों के विमर्श में सामूहिक नर संहार और जेहाद दृष्ट्व्य  है ,जबकि  बेचारे संघ वालों को तो उनके  मोदी राज में भी अपने इष्ट  भगवान श्रीराम को 'टाट' में रखना पड़  रहा है। संघ वालों  का  शील ,शौर्य  , धैर्य और  वैचारिक दरिद्रता का आलम ये है कि गणवेश के खाकी हॉफ  पेंट से  भूरे फुलपेंट तक आने में उन्हें  ७० साल लग गए। आइएसआईएस तो इतने साल तक जिन्दा भो  नहीं रहेगा ! फिर न जाने  क्या सोचकर गुलाम नबी आजाद ने संघ की तुलना आईएसआईएस से की होगी ?वैसे भी आईएसआईएस तो नरभक्षी -आदमखोर शेर है जिसकी  तुलना उस  'संघ' से नहीं की जा  सकती जो पूँजीपतियों  से गुरु दक्षिणा लेकर गौ,गंगा ,गायत्री और भारत माता की जय बोलते हैं। और जब  संघ के कृपापात्र  एनडीए वाले चेले सत्ता में आ जाते हैं तो वे भी अम्बानी,अडानी से ज्यादा और कुछ नहीं सोच पाते।  

राजनीति का साधारण कार्यकर्ता भी यह समझता है कि 'नमक से नमक नहीं खाया जाता ' आप खुद गुड खाकर दूसरों से  गुलगुलों का परहेज नहीं करा सकते ! ताज्जुब की बात है कि  ४० साल तक  कांग्रेस संगठन और सत्ता की राजनीति में आकंठ डूबे रहे गुलाम नबी आजाद को ततसंबंधी  ज्ञान नहीं है। जब उनके राजनैतिक ज्ञान का यह आलम है तो उन जैसों पर निर्भर रहने वाले राहुल गांधी का तो ईश्वर -अल्लाह  ही मालिक  हो सकता  है।  जनाब गुलाम नबी आजाद यदि एक विशेष 'साम्प्रदायिक मंच 'पर जाकर किसी अन्य साम्प्रदायिक संगठन की ओर अंगुली उठाएंगे तो क्या यह उनकी और कांग्रेस की ततसंबंधी  वैचारिक सोच का दिवालियापन नहीं होगा ? भारत की जनता इतनी भी मंदमति नहीं है कि इस पक्षपाती धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़ा नहीं कर सके !

वेशक ! जिस जमीयत उलेमा -ए -हिन्द  के मंच से गुलाम नबी आजाद 'संघ' पर निशाना साध रहे थे ,उसकी  तुलना अवश्य  'संघ' से की जा सकती है। किन्तु आईएसआईएस से 'संघ' की तुलना करना निहायत ही कोरी गप्प है। आजाद को मालूम हो कि आईएसआईएस और संघ में सिर्फ इतनी समानता है कि दोनों ही संगठन  - अक्ल के दुश्मन हैं। अर्थात दोनों को वैज्ञानिक नवाचार कदापि पसंद नहीं। और सरल शब्दों में कहा जाये तो ये दोनों ही संगठन साइंस -टेक्नॉलॉजी का उपभोग तो जमकर करते हैं किन्तु अपने पुरातन अवैज्ञानिक संकीर्ण - दकियानूसी विचारों को अभी भी सलीब की तरह कंधे पर लादे हुए भटक रहे हैं। किस भी बिचार या तथ्य को  वैज्ञानिक नजरिये से देखना उन्हें मंजूर नहीं। सैकड़ों -हजारों साल पुरानी काल्पनिक मान्यताओं की मृतप्राय  बंदरिया को ये लोग अभी भी सीने से चिपकाये  हुए हैं।  जो इनको प्रगतिशीलता या नवाचार सीखने की बात करता है ,वे उसे राष्ट्रद्रोही , नास्तिक या काफिर करार देते  हैं।  बस  इतनी ही समानता इन दोनों संगठनों में है। इसके अलावा 'संघ' और आईएसआईएस में कोई समानता नहीं है ! संघ यदि पूर्व है तो आईएसआईएस पश्चिम है।

इस्लामिक संगठनों के उद्भव ,उनके आंतरिक - बाह्य संघर्षों का इतिहास उतना ही पुराना है ,जितना पुराना  इस्लाम का इतिहास है। मुहम्मद पैगंबर  हुजूर [सल.]के जन्नतनशीं होने के उपरान्त उनके उत्तराधिकारियों और सपरिजनों के आंतरिक संघर्ष का कारण महज वैयक्तिक नहीं था। बल्कि 'खिलाफत 'के  उस द्वन्द के मूल में वैचारिक और सांगठनिक अन्तर्द्वन्द  भी था। जिसका रक्तरंजित उद्दीपन कर्बला के मैदान में कुछ ज्यादा ही परिलक्षित हुआ। और उस  कबीलाई संघर्ष का  सिलसिला बदस्तूर  जारी है। इसके अलावा इस्लाम से बाहर की दुनिया में भी 'काफिरों' के खिलाफ 'जेहाद' जारी है। इस असहिष्णुतावादी छुद्र अवधारणा से संसार का हर सभ्य समाज और अमनपसंद इंसान भली भाँति परिचित है। यदि गुलाम नबी आजाद यह  सब  बाकई नहीं जानते तो यह उनकी  अज्ञानता है। और यदि जानते हैं ,किन्तु मानते नहीं तो यह उनकी बेईमानी है। आईएसआईएस तो उस रक्तरंजित परम्परा का आधुनिक संस्करण मात्र है। अलकायदा जैसे धूमिल हो चुके संगठनों की गर्म राख  में से जन्मा आईएसआईएस - इस्लामिक जेहाद के द्वन्द का बहावी संस्करण मात्र है। बोको हरम ,तालिवान , जेश-ए -मुहम्मद और पीएलआई जैसे  अन्य  सैकड़ों आतंकी संगठनों से इतर आईएसआईएस को कुछ आंशिक कुख्याति  इसलिए मिली कि उसके कब्जे में - इराक,सीरिया में तेल के कुए फ्री कोकट आ गयेहैं ।  

इस्लामिक आतंकवाद के सापेक्ष संघ याने आरएसएस  का इतिहास उतना  अधिक पुराना नहीं है। संघ का चरित्र भी आईएसआईएस जैसा  आक्रामक और हिंसक नहीं है।  वेशक संघ के लोग 'बड़बोलेपन' की आदत के सिंड्रोम से जरुर पीड़ित कहे जा सकते  है। वे झूंठी अफवाह फ़ैलाने ,अल्पसंख्यकों-दलितों-कम्युनिस्टों और  धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील लोगों को 'राष्ट्रद्रोही' बताने में बदनाम  हो सकते हैं । वे देशभक्ति के नाम पर भारत के नौनिहालों को फासीवाद की 'जन्म घुट्टी' पिला सकते हैं। वे बुद्धिजीवियों को भी गरिया सकते हैं  ,किन्तु संघ के लोग आईएसआईएस की बराबरी नहीं कर सकते हैं। हालाँकि 'संघ' वाले  कभी-कभी अपने आपको संविधान से भी ऊपर  मान बैठते  हैं।  मात्र  ३१% हिन्दुओं के वोट पाकर जब वे सत्ता में आ सकते हैं तो उन्हें क्या गरज पडी कि आईएसआईएस जैसा खून खराबा करते फिरें ?  वेशक  वे राज पाकर भी खुद राज नहीं करते बल्कि चेले-चपाटों से चलवाते हैं।  संघ को लगता है कि   'अतिथि देवो भव' के आप्त वाक्य ने  उनके पूर्वजों को गुलाम बना दिया था ,इसलिए अब वे हर विदेशी को शक की नजर से देखते हैं।

संघ वाले तो सिर्फ इतना चाहते हैं कि विभाजन और आजादी के उपरान्त जो कुछ बचा -खुचा खंडित भारत उन्हें विरासत में मिला है उसे कोई और नुक्सान न पहुंचाये ! उन्हें पाकिस्तान की इस्लामिक स्थापना पर भी एतराज है कि जब इस्लाम के नाम पर अलग राष्ट्र ले ही लिया है  तो अब खंडित भारत को तो बख्स दो। कुछ साल पहले तक  'हिन्दू राष्ट्र' ,हिंदुत्व ,अखंड भारत ,धारा -३७०,यूनिफार्म  सिविल कोड इत्यादि पर संघ के  बड़े-बड़े दावे रहे हैं ,किन्तु एनडीए एक -याने अटल सरकार और एनडीए दो -याने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद वे शायद अपनी कमजोरियों को पहचान गए  हैं। अतः  अब मुसलमानों को साधने के लिए इंद्रेशकुमार ,सुधांशु कुलकर्णी जैसे लोग जुटे हैं।  अम्बेडकरवादियों को साधने में खुद मोदी जी ही जुट गए हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों  की  अहमियत को  वोट की मजबूरी में या समझदारी में साधा  गया -ये तो वक्त ही बताएगा। किन्तु इसमें ऐंसा कुछ नहीं कि  गुलाम नबी आजाद ने जो  संघ की तुलना आईएसआईएस से की है वो सिरे से ही बकवास है।  

यदि संघ के लोग अब कुछ -कुछ  व्यावहारिक  बात करने लगे हैं तो इसमें  कौनसी आफत आ गयी। यदि विचारधारा संस्थापन  के लिए कम्युनिस्ट आजाद हैं ,समाजवादी आजाद हैं ,दलितवादी आजाद हैं ,ओवेसी जैसे लोग भी आजाद हैं, तो संघ को उसकी जूनी - पुरानी  साम्प्रदायिक विचारधारा' के व्यामोह  से कैसे रोका जा सकता  है? वैसे भी संघ ने  इस सिस्टम से बहुत कुछ समझोता कर लिया है। यही वजह है कि  'राम मंदिर ' के लिए अदालत  के सम्मान की बात होने लगी है। यही कारण है कि जम्मू कश्मीर  में जब खंडित जनादेश आया तो संघ ने  राम माधव को पीडीपी +भाजपा की सरकार बनवाने  भेज दिया। जब  कश्मीर में भारत विरोधी नारे क्लेगे और भाजपा वालों के सामने लगे तो 'संघ' को और मोदी जी  को बहुत शर्मिंदगी झेलनी पडी। मोदी जी ने सुशासन और विकास का नारा देकर इन नारों को नकार दिया। और तभी यह सिद्ध हो गया कि संघ ने अतीत का व्यामोह छोड़ दिया है। खुद मोदी जी भी संघ के एजेंडे पर कोई बात नहीं करते, बल्कि  विकास और सुशासन पर ही अपना ध्यान केंद्रित किये हुए हैं। क्या इस तरह के नरमपंथी अहिंसक साम्प्रदायिक संगठन 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' की तुलना उस आईएसआईएस जैसे खूँखार -बर्बर संगठन से की जा सकती है ?

 वेशक हिंदुत्वादियों पर कई बार हिंसा फ़ैलाने और असहिष्णुता के आरोप लगे हैं। कुछ नेता ,विधायक और मंत्री भी दागी हो सकते  हैं। यह भी समभव है कि वे अपने उग्र व्यवहार और साम्प्रदायिक उन्माद की धुन पर कुछ भोले भाले  लोगों को नाचने पर मजबूर करते रहे हों ,किन्तु वे किसी भी किस्म की  हिंसक कार्यवाही में  खुद कभी  शामिल नहीं होते। महात्मा गांधी  ,नरेंद्र  दाभोलकर,गोविन्द पानसरे,कलीबुरगी जैसे लोगों की हत्याओं पर 'संघ' की ओर  अंगुली  अवश्य  उठती रही है ,किन्तु इन हत्याओं में जो  भी शामिल पाये गए हैं  वे 'संघ' के सदस्य नहीं थे। भले ही वे हत्यारे  सनातन सभा के हों  ,हिन्दू महा सभा ,बजरंगदल और विश्व हिन्दू परिषद वाले हों या हिन्दुत्ववादी रहे हों ,भले ही वे  उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियन  क्रिश्चयन दम्पत्ति को जिन्दा जलाने वाले दारा जैसे गुंडे रहे हों ,किन्तु  'संघ' का इन हत्याओं से सीधा कोई संबन्ध  कभी सावित नहीं हो पाया । और यदि कुछ शक सुबहा किसी  को रहा भी हो, तो भी संघ वालों की तुलना आईएसआईएस से  तो कदापि  नहीं की जा सकती। संघ वाले साम्प्रदायिक और असहिष्णु तो कहे जा सकते हैं ,किन्तु वे आतंकी या हत्यारे नहीं हैं !

दरसल हिंदुत्व का कांसेप्ट  तो बिगत बीसवीं शताब्दीके के पूर्वार्ध में ही साकार हुआ था। भारत में १९०६ में मुस्लिम लीग के गठन  के बहुत दिनों बाद १९२५ में 'संघ'का गठन हुआ था। प्रारम्भ में संघ की शक्ल सूरत मुस्लिम लीग के प्रतिस्पर्धी जैसी थी।  यह अकाट्य सत्य है कि डॉ मुंजे और सावरकर ने भी अंग्रेजों को सहज मित्र मानकर ही हिंदुत्व की रणनीति बनाई थी। क्योंकि मुस्लिम लीग ने भी   अंग्रजों से मित्रता 'खिलाफत आंदोलन 'के  दौरान  बहुत पहले ही कर ली थी।  द्वतीय विश्वयुद्ध  के दौरान जब जिन्नाह पाकिस्तान के निर्माण की ओर  बढ़ रहे थे और जब  जर्मनी में  नाजी हिटलर ने सत्ता में बने रहने के लिए  'आर्य 'स्वस्तिक और  जर्मन 'राष्ट्रवाद' का सहारा लिया तो भारत के 'हिन्दुत्ववादी' गुरु गोलवलकर उनसे बहुत प्रभावित हुए। लेकिन उन्होंने सिर्फ विचारों से 'संघ' को सजाया -संवारा है।  नाजीवादी कार्यक्रम क्रियान्वन का 'संघ' को  वैसा अवसर नहीं मिला जैसा कि  जर्मनी में हिटलर को मिला था। हिटलर जैसा अवसर भारत में किसी को कभी भी नहीं मिलेगा। संघ को भी नहीं  ! क्योंकि भारत एक  धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र  है। यह विश्व का सबसे महान लोकतंत्र  है। जबकि आईएसआईएस का  न कोई राष्ट्र है ,न कोई संविधान है ,केवल खुनी होली खेल रहे हैं !

 जिस तरह नाजी जर्मनी  और लोकतान्त्रिक भारत की कोई तुलना नहीं। जिस तरह भारतीय सम्विधान और हिटलर कालीन जर्मन संविधान की कोई तुलना नहीं ,जिस तरह छत-विक्षत और तानाशाही शासित अरब राष्ट्रों की महान लोकतान्त्रिक राष्ट्र भारत से कोई तुलना नहीं ,उसी तरह 'संघ' की भी आईएसआईएस से कोई तुलना नहीं ! आईएसआईएस वालों की एक खासियत है कि वे  भले ही हत्यारे और जाहिल हैं ,किन्तु वे कथनी-करनी में भेद नहीं रखते। वे  जो कहते हैं वही करते हैं। वे दूसरों को  देशभक्ति का  या इस्लाम परस्ती का उपदेश नहीं देते। बल्कि  हर  किस्म के  जेहादी संघर्ष में  खुद आगे रहते हैं। और मजहब अर्थात इस्लाम के बहावीकरण पर ज्यादा जोर देते हैं। संघ वाले खुद  कुछ नहीं करते , सिर्फ  कहते हैं। वे जो  कुछ कहते हैं वो नहीं करते। वे हिंदुत्व और  के उपदेश  देते  रहते हैं ! जबकि उनके पालित-पोषित सत्यम राजू,विजय मालया, ललित मोदी जैसे लोग देश को लूट्ते रहते हैं। ये लोग  वसुंधरा राजे,सुषमा स्वराज,स्मृति ईरानी ,शिवराज और येदुरप्पा के कारनामो को ढकने की कोशिश करते रहते हैं।  इन के बहका वे में आकर कुछ 'गैर संघी' लोग  भी स्वार्थी और हिंसक हो जाय करते हैं।  धर्मान्धता और पाखंड में लिप्त कुछ लोग  'संघ'  की आड़ में पापकर्म में लिप्त हैं। वे न केवल  'संघ'  को बल्कि तमाम  हिन्दुओं को बदनाम  भी बदनाम करते रहते  हैं।श्रीराम तिवारी