सोमवार, 30 नवंबर 2015

कामरेड सलीम को अपने कथन में 'राजनाथ ' की जगह अशोक सिंघल कर देना चाहिए !

 असहिष्णुता के मुद्दे पर देश के  ग्रह मंत्री राजनाथ सिंह पर गलत निशाना साधकर ,कामरेड मोहम्मद सलीम ने  अनजाने में राजनाथ जी पर  एक उपकार तो अवश्य किया है। अभी तक सत्ता प्रतिष्ठान में एक ही हीरो याने श्री मोदी जी ही थे। किन्तु मोहम्मद सलीम ने तो मानों राजनाथसिंह को ताकत का इंजेक्शन ही दे दिया ।  जैसे कोई चुके हुए कारतूस में पुनः बारूद भरकर  फिर से जीवित कर दे , उसी तरह कामरेड मोहम्मद सलीम ने राजनाथ जी को पुनः ऊर्जावान बना दिया है।  'आउट लुक' की उस वासी खबर को - जो अशोक सिंघल के लिए  सच  होते हुए भी राजनाथ के लिए सही  नहीं  थी ,कामरेड सलीम ने वयां कर राजनाथ को शक्ति-स्फूर्ति प्रदान करने में मदद की है। इसीलिये  राजनाथ   ने सलीम के बहाने अपने ही प्रतिदव्न्दियों को ललकारते हुए कहा  - ऐंसा वयान [जैसा अशोक सिंघल ने दिया ]  देकर कोई देश का ग्रह मंत्री नहीं रह सकता । किसी भी सत्यनिष्ठ  देशवासी को  राजनाथ  के इस वयान की तारीफ करने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए !  

 एनडीए ,भाजपा और संघ परिवार की विचारधारा वेशक घोर दक्षिणपंथी और अवैज्ञानिक है। किन्तु लेफ्ट फ्रंट को संसद में या सड़कों पर  'असहिष्णुता' के मुद्दे पर कांग्रेस के साथ  कदापि नहीं दिखना चाहिये ! बंगाल और केरल के चुनावों में लेफ्ट को कांग्रेस  के छल-बल ने ही बार-बार नुक्सान पहुँचाया है। कांग्रेस की गलत आर्थिक नीतियों और उसके भृष्ट नेताओं की वजह से ही 'मोदी सरकार'  केंद्र की सत्ता में आई है। हिंदुत्व  का मसला तो भाजपा  द्वारा  केवल वोटों के ध्रुवीकरण के लिए ही  उठाया जाता रहा है।  यदि अयोध्या में  'रामलला ' जू का मंदिर बनाना होता तो कब का  बन गया होता।  अब कोर्ट -कचहरी  का  तो बहाना  भर है , वर्ना  मस्जिद गिराते समय क़ानून की याद किसे आयी ? साम्प्रदायिकता के सवाल पर,आतंकवाद के सवाल पर या 'हिंदुत्व' के विमर्श  पर वामपंथ को कांग्रेस  , सपा,जद्यू  ,ममता  की तरह  पेश नहीं आना चाहिए !  बल्कि  देश की मेहनत काश आवाम  के एक क्रांतिकारी हरावल दस्ते की तरह पेश आना चाहिए  !

 वेशक इंसान गलतियों का पुतला है। गलती किसी  से भी हो सकती है।  मार्क्स ,लेनिन और स्टालिन ने भी स्थापनाएं दीं हैं कि  'क्रांतिकारी  विचारधारा  के जन संगठनों को ,उनके अग्रगामी  नेतत्व को अपनी भूलों से  निरंतर सीखना चाहिए । उन्हें  नैतिक रूप से यथार्थवादी होना चाहिए। अर्थात असत्य का किंचित भी सहारा  नहीं लिया जाना चाहिये। यदि  अनजाने में भी असत्याचरण किया  गया तो  भी त्रुटि निवारण की गुंजायश  होनी चाहिए। वरना क्रांति नहीं बल्कि  भ्रान्ति का  ही बोलबाला होगा।

जब मेरे जैसे मामूली  भूतपूर्व ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता को यह  माँलूम है  कि ' गुलामी के ८०० सौ साल' वाली बात स्वर्गीय अशोक सिंघल ने कही थी। तब देश के ४० करोड़ मजदूरों-किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली महान   क्रांतिकारी  पार्टी के सर्वोच्च फोरम - सीपीएम पोलिट  व्यूरो के विद्वान क्रांतिकारी साथी कॉमरेड मोहम्मद सलीम से चूक होना अत्यंत निराशाजनक  है।  अशोक सिंघल तो अब रहे नहीं। राजनाथ जी भी धर्मनिरपेक्षता , समाजवाद  और लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध हैं। किन्तु  वामपंथ को अपने कामरेड सलीम की  अनजाने में की गयी  मामूली भूल को धूल में उड़ाने के बजाय  अपनी वैचारिक समृद्धि की छलनी से  साफ़ करते जाना  चाहिए। यही असल क्रांतिकारी आचरण होगा।  वैसे भी जिसआउट लुक  पत्रिका  का  हवाला  देकर  कामरेड मोहम्मद सलीम ने श्री   राजनाथसिंह पर निशाना साधा -उसने ही खुद  अपनी गलती मान ली है। खेद जताया है। अब सरकार की जिम्मेदारी है कि  उस पत्रिका पर उचित कार्यवाही करे ।  कामरेड सलीम को भी अपने कथन में 'राजनाथ ' की जगह अशोक सिंघल कर देना चाहिए !श्रीराम  तिवारी !
 

शनिवार, 28 नवंबर 2015

सिद्ध करो कि मंत्री जी अपराधी हैं !


  अनिल  बिज [हरियाणा के मंत्री ]की जगह यदि  भाजपा के बजाय  किसी और पार्टी का मंत्री  होता तो आज भाजपा की तमाम महिला नेत्रियाँ - अपने  आग्नेय नयनों से  उस मंत्री को तथा  उसकी पार्टी को भस्म करने की रोषपूर्ण मुद्रा  में होती।  योगिनियाँ ,साध्वियां ,स्मृतियाँ प्राचियाँ  और तमाम  सोशल मीडियाशेरनी  -फेसबुक  पर ये  प्रचंड  अग्निवेश - रमणियाँ उस मंत्री पर  फुफकार रहीं होतीं।  संघ के अनुषंगी  संगठन और  भाजपा के चारण-भाट  उस मंत्री का 'काला  मुँह ' कर रहे होते। तब  उनकी नजर में वह  आईपीएस संगीता कालिया महान वीरांगना होती। उसे किरण वेदी , तेजस्वनी ,दुर्गा ,शिवा ,क्षमा ,धात्री ,स्वाहा अथवा  साक्षात रानी झांसी  का ही  अवतार बताया जाता।  यदि अनिल  बिज  कांग्रेस के मंत्री  होते तो उनका हे राम ! भी हो सकता था !  किन्तु असहिष्णुतावादियों  के लिए आज अनिल बीज  'आइकॉन' हैं  और  उन  के लिए आईपीएस संगीता कालिया पूतना है, ताड़का है ,सूर्पनखा है।

  काश  अनिल  बिज  उनके -अपने न होते ! तब  दक्षिणमुखी परिवार की तमाम बुर्जुआ  सुंदरी  सबलायें   झांझ -मंजीरे लेकर ' हाय-हाय'  करते हुए अभी तक  आईपीएस -संगीता कालिया के घर पर  फातिहा पढ़ रही होती। किन्तु हतभाग्य मंत्रीजी उनके ही कुनवे से   हैं ,इसलिए भाजपा के शर्मदार  नेता और नेतानियाँ अभी बगलें झाँक रहे हैं।  जो  वेशर्म  हैं वे खुलकर  उस आईपीएस  महिला की खुलकर निंदा करेंगे।

 इस संदर्भ में मेरी निजी राय है कि  जिस किसी  सरकारी अधिकारी या कर्मचारी को 'कोड  ऑफ  डिसिप्लिन' का ज्ञान नहीं होगा वही संगीता कालिया 'जैसी हरकत करेगा/करेगी ! यदि एक आईपीएस को इतना  ही नहीं मालूम कि  उसे जनता द्वारा निर्वाचित जन  प्रतिनिधि या मंत्री से कैसे  बात करनी है ? कैसे पेश आना है तो उसे सरकारी सेवाओं में रहने का कोई अधिकार नहीं। इस मान से संगीता को तत्काल सस्पेंड किया जाना चाहिए था। लेकिन स्थानांतरण करके हरियाणा सरकार न अपनी अज्ञानता प्रदर्शित की है। जहाँ मंत्री अनिल बिज के उदंड व्यवहार की बात हैं  तो  यह मुख्यमंत्री को देखना है।  चूँकि मंत्री और सरकार  जनता के प्रति जबाबदेह हैं। यदि जनता को लगेगा कि मंत्री या सरकार  ठीक  से बर्ताव न हीं करते तो वे आइन्दा चुनाव भी हार सकते हैं। यदि  किसी को लगता हैं की मंत्री जी ने   अफसर से पूंछतांछ करके बड़ा संगीन अपराध किया है, तो  उनके खिलाफ न्याय का दवाजा सबके लिए खुला है। सिद्ध करो कि  मंत्री जी अपराधी हैं ! श्रीराम तिवारी
 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

"संविधान से छेड़छाड़ करना याने आत्म अहत्या करने जैसा होगा ''। वाह ! मोदी जी वाह !

 लगभग १९  महीने तक देश के राजनितिक छितिज पर सत्ता का  'वन में शो' अभिनीति कर चुकने के बाद जब पीएम श्री मोदी जी ने पाया कि  उनके वटवृक्ष रुपी व्यक्तित्व के कारण देश में  विकास का एक तिनका भी उगने को तैयार नहीं है। उन्होंने पाया कि देश की बौद्धिक हस्तियाँ [मय  वैज्ञानिक ,राष्ट्रपति और रिजर्व वेंक गवर्नर]और अल्पसंख्यक वर्ग उनसे बहुत दूर हो चला है। उन्होंने पाया कि  बिहार में बहुत परिश्रम -लोभ -लालच और विकास के नारे लगाने के वावजूद पिछड़े बिहारियों ने  उन के 'किसी भी कीमत पर विकास' के मुद्दे को बुरी तरह  ठुकराकर लालू  के चरित्रहीन आरक्षणवाद को  गले लगाया है । उन्होंने पाया कि बिहार की करारी हार के बाद चूँकि भाजपा को  राजयसभा में सीटों  के बढ़ने की अब कोई  सम्भावनायें नहीं  हैं। ऐंसे में जीएसटी बिल तो क्या सरकार चलाना  भी मुश्किल है। इसलिए मोदी जी अब एकदम बदले -बदले नजर आ रहे हैं।बेशक इस मौसमी   बदलाव का श्रेय देश के  बुद्धिजीवियों,विचारकों ,लेखकों ,विपक्षियों  और बिहारियों को जाता है।

अंग्रेजी में  दो कहावतें ऐंसी  हैं- जो हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री जी के बड़ी काम की हैं। बहुत संभव है कि  वे उन्ही का अनुशरण करने जा रहे हों !

 पहली कहावत  यह है कि - "If you can't defeat, you join them,,!"  अर्थात यदि तुम किसी  को तर्क बुद्धि  से  या रणकौशल से परास्त नहीं कर सकते तो उसे विजेता मानकर उसका अनुसरण करना ही श्रेयष्कर है।

दूसरी कहावत है कि -  "If you don't like any particular thing ,then you  should change it ! If you can't change it then you must change your self  attitude ,,," अर्थात अगर तुम किसी चीज को पसंद नहीं करते हो तो उसे बदल  डालो  ! यदि तुम  उसे बदल नहीं सकते तो अपना  खुद का  रवैया बदल डालो !

 शायद अब इन कहावतों  को  ही चरितार्थ किया जा रहा है। इसीलिये भाजपा कार्यालय पर दीवाली मंगल मिलन के बहाने अब 'एकला चलो रे'  की जिद छोड़कर  मोदी जी अब 'आम आदमी ' के नेता होने का प्रयास कर  रहे  हैं। इससे पूर्व  जीएसटी बिल के लिए पूर्व पीएम मनमोहनसिंह और सोनिया जी को  चाय पर आमंत्रित  कर मोदी जी  ने  मजबूरी में ही सही -अपने  पूर्व निर्धारित अहोभाव से बहुत पृथक 'मोड़' पर आकर नया स्टेण्ड लिया है। 

 संसद के वर्तमान  सत्र  के प्रथम दो दिनों में उपरोक्त कहावतों को  ही चरितार्थ होते देखा गया है। विगत २६-२७ नवंबर -२०१५ का संसद सत्र  इस मायने में ऐतिहासिक रहा कि एक तो संविधान निर्माता बाबा साहिब की १२५ वीं जयंती थी और दूसरी बात सत्ता पक्ष की ओर से  देश के संविधान को तोड़ने-मरोड़ने के अनुचित  प्रयास को स्वयं भारत के प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र मोदी ने भौंथरा कर दिया। संविधान में निहित  धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद जैसे पवित्र और क्रांतिकारी  शब्दों से 'संघियों' को कितनी एलर्जी है ? यह तो राजनाथसिंह और जेटली के उबाऊ भाषणो से पहले ही जग जाहिर था। किन्तु मोदी जी ने  जिस  चतुराई से न केवल कांग्रेस को , न केवल सम्पूर्ण विपक्ष कोनिस्तेज किया ,बल्कि अपने  ही संघी ' गुरु  भाइयों'- गृह मंत्री श्री  राजनाथ सिंह ,ससदीय कार्यमंत्री वेंकैया नायडू  और वित्त मंत्री अरुण जेटली के भाषणों को  भी कूड़ेदान में फेंक दिया। वाह! वाह मोदी जी वाह !

 प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी  ने सर्वश्री राजनाथ ,वेंकैया ,जेटली ही नहीं बल्कि पूरे  'संघ परिवार' के ख्वाबों को चकनाचूर कर दिया है । कौन मंदमति नहीं जनता कि 'संघ परिवार' वाले  विगत  ६६ साल से वर्तमान संविधान को बदलकर एक नए  पवित्र [?]  'हिन्दुत्वादी' संविधान की भरसक कोशिश  करते आ रहे हैं । १६ मई-१०१४ को जब भाजपा २८२ कमल खिलाकर संसद में पहुंची तो उनके अति उत्साही प्रवक्ताओं ने  अपनी सरकार को ८०० साल की गुलामी  के बाद की पहली सरकार  घोषित किया था। संघ  प्रवक्ता और शिवसेना वाले अपने मकसद को छिपाते भी नहीं हैं। वे तो नेपाल में भी हिन्दुत्वादी संविधान की आस लगाए बैठे थे। किन्तु हतभाग्य  नेपाल तो अब पूर्णत : लाल हो गया । वह तो हिंदुत्व छोड़कर  धर्मनिरपेक्षता से भी आगे पूरा -साम्यवादी हो चुका  है। जो लोग बारे-बार कहते हैं कि  'कहाँ हैं कम्युनिज्म?' उन्हें नेपाल अब सपने में  चिड़ा  रहा है !

 कटट्रवादियों की  बची खुची आसा  इस २८२ कमलछाप सरकर पर ही टिकी थी। परन्तु  नरेंद्र मोदी जी ने घड़ों पानी उड़ेल दिया है। २७- नवम्वर-१५ को  भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र भाई  मोदी जी ने संसद में ऐंसा  भाषण दिया कि  कोई  'घोर वामपंथी '  भी क्या भाषण देगा ! मोदी जी ने तो  'संघ' की आशाओ पर पानी फेर दिया है। उनका भाषण न केवल गांधी,नेहरू अम्बेडकर के प्रति कृतग्यतापूर्ण था अपितु उन्होंने इशारों में अपने साथियों को भी अच्छी  पटकनी  दी है। अपने वालों को नसीहत देते हुए  मोदी जी ने फ़रमाया  कि "संविधान से छेड़छाड़ करना याने आत्महत्या करने जैसा होगा ''। कुछ लोग कह  सकते हैं कि  यह तो जुमला है ! मोदी जी  कहते हैं वो करते  ही नहीं! किन्तु उपरोक्त  अंग्रेजी कहावते यदि सर्वकालिक और सार्वदेशिक  हैं तो  मोदी  जी  का संसद में दिया गया  यह भाषण  बहुत दूरगामी और समन्वयकारी सावित होगा।  बहुत सम्भव  है कि  वे विकास और सुशासन के प्रति दृणसंकल्पित  हों !  इसीलिये  तात्कालिक चेतना से उतपन्न उनकी यह धर्मनिरपेक्षतावादी    अवधारणा तो  भारत के लिए सुखद ही होगी।  हालाँकि  मोदी जी का यह ह्रदय परिवर्तन ,बिहार' चुनाव परिणाम जनित  भी हो सकता है। उनका यह नेहरूयुगीन  नव  केरेक्टर शायद राज्यसभा में जीएसटी बिल पारित कराने  की  रणनीतिक चतुराई  भी हो सकता है। सब कुछ सम्भव  हो सकता है ,किन्तु मोदी जी का यह नया अवतरण  संघनिष्ठ'  कदापि नहीं हो सकता ।  यदि मेरा अनुमान सही है तो विपक्ष और कांग्रेस के लिए दिल्ली अभी १० साल और दूर है !  श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 26 नवंबर 2015



 विगत लोक सभा चुनाव से पूर्व  बड़बोले जनरल [सेवानिवृत]  बी के सिंह [अब  केंद्रीय मंत्री]  के ऊल-जलूल भ्रामक सुझाव से प्रभावित होकर श्री नरेंद्र मोदी ने  हरियाणा की एक  चुनावी  सभा [भूतपूर्व सैनकों की ]में  पूर्व  सैनिकों से  वादा किया  था कि यदि उनकी सरकार बनी  तो पूर्व सैनिकों को 'वन रेंक वन पेंशन 'दे दिया जाएगा। केंद्र में मोदी सरकार  के सत्ता में आने के १८ महीने बाद भी  जब उनकी  इस मांग पर कोई कार्यवाही नहीं हुई तो  पूर्व सैनिकों ने कई दिनों तक अनशन -धरना -प्रदर्शन  किया।  सरकार ने  बिना एक कौड़ी खर्च किये ही  केवल तास  के ५२ पत्ते फेंटकर कह  दिया कि  मांग का निराकरण हो गया। पूर्व सैनिकों की 'वन रेंक वन  पेंशन ' का निराकरण हो गया है।  यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि  'हमने जो वादा किया था वो पूरा किया '।  शेष विसंगतियों का  भी सरकार शीघ्र निराकरण कर देगी।  सवाल यह उठता है कि  जब पूर्व सैनिकों की मांग मान ली गयी है तो ये पूर्व सैनिक अपने पदक और वीरता पुरस्कार  जला क्यों रहे हैं ? रक्षा मंत्री श्री मनोहर परिकर ने पूर्व सैनिकों के द्वारा पदक  जलाने  अथवा सरकार को लौटाने के सवाल पर यह क्यों कहा ? कि -'यह राष्ट्र का और सशत्र बलों  का अपमान है '! गनीमत है कि उन्होंने पदक लौटाने  वाले बहादुर सैनिकों को देश का गद्दार  नहीं कहा। या बाघा सीमा के उस पार भेजने की धमकी नहीं दी। ये  नेक काम शायद अनुपम खैर ,महेश शर्मा ,आदित्यनाथ ,जेटली ,संवित पात्रा  या शिव सेना के द्वारा सम्पन्न किया जाएगा।  शुभस्य शीघ्रम ! श्रीराम तिवारी  
                                             

बुधवार, 25 नवंबर 2015

डॉ सर हरिसिंह गौर भारत के महान दानवीर ,,,,,,,,,!


आज  २६ नवंबर २०१५  को बाबा साहिब अम्बेडकर की १२५ वीं वर्षगांठ  भी  है।  बाबा साहिब के कर कमलों द्वारा राष्ट्र को समर्पित भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले सभी मित्रों  को शुभकामनायें !  भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मूल उद्देश्य -"सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न ,समाजवादी, धर्म निरपेक्ष ,लोकतंत्रात्मक गणराज्य" में आस्था रखने वाले सभी धर्मनिरपेक्ष -देशभक्तों को संविधान दिवस की शुभकामनायें ! बाबा साहिब के  द्वारा स्थापित मूल्यों को अक्षुण रखने के प्रति दृणसंकल्पित होकर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित !

आज  डॉ सर हरिसिंह गौर  की  भी जयंती  है।  २६ नवमबर-१८७० को जन्में डॉ  सर हरिसिंह गौर भारत के महान दानवीर ,शिक्षाविद, लेखक ,दार्शनिक ,विधिवेत्ता ,कवि,उत्कृष्ट विधायक ,दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति , नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति एवं सागर विश्वविद्यालय [सम्प्रति डॉ हरिसिंह गौर यूनिवर्सिटी] के संस्थापक कुलपति रहे। आपने एमए ,एलएलडी,डीसीएल,डीलिट एवं वार-एक्ट-लॉ  जैसी दर्जनों उपाधियाँ अपनी मेधा शक्ति से अर्जित  के अनेकों कीर्तिमान स्थापित किये थे। उन्होंने  वकालत के  पेशे से अर्जित  अपनी जीवन भर की कमाई से सागर विश्वविद्यालय का निर्माण कराया। उनके द्वारा १८ जुलाई १९४६  को  यूटीडी ऑफ़  सागर में  विश्वस्तरीय  पाठ्यक्रमों  का समावेश कराया गया एवं   एशिया का सबसे बड़ा उन्नत  पुस्तकालय  भी स्थापित किया  गया ।  उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि !  श्रीराम तिवारी 

मीडिया में इन फ़िल्मी नायकों को क्रांतिकारियों की तरह वेजा महत्व क्यों दिया जा रहा ?

आज [२५-११-२०१५]  के नयी दुनिया अखवार में एक सचित्र खबर छपी है। खबर का शीर्षक है -'मुफ्ती के पैतृक निवास पर पाकिस्तानी झंडा ' जम्मू -कश्मीर के मुख्य मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के गृह नगर बिजबहेड़ा में उनके पैतृक घर पर मंगलवार को पाकिस्तानी झंडा लहराते  देखा गया। क्या यह भारत के दुश्मनों की ही काली करतूत है नहीं है ?  इस शर्मनाक स्थति   पर सरकारी चारण-भाट  चुप क्यों हैं ? यह  भी याद  करें  कि जनाब  मुफ्ती  साहिब [बाप-बेटी] का राजतिलक किसने करवाया ?  इस शर्मनाक स्थिति पर कुछ न बोलकर जब  घोर  सरकारी भांड अनुपम खैर जैसे लोग आमिर खान  को देश भक्ति का पाठ  पढने पर आमादा हों .जब  बीफ खाने की अफवाह  मात्र पर एक निर्दोष  को जान से मार देने वाले अभद्र -जाहिल लोग साहित्यकारों ,विचारकों और कलाकारों  की  जुबान पर ताला लगाने को उतावले हो रहे हों  तो उन्हें आइना दिखाना जरुरी है !

अनुपम खैर जैसे लोग  यदि होश में हैं तो  सुने कि पाक परस्त आतंकवादियों की वास्तविक  चुनौती स्वीकार क्यों नहीं करते ?  आमिर खान  को नसीहत देने वाले  यदि  बाकई  असली  देशभक्त हैं  तो गद्दार  मुफ्ती  पर  देशद्रोह का  मुकदमा दायर करने की मांग क्यों नहीं उठाते ?  सत्ता पक्ष के कश्मीरी  असोसिएट अर्थात परम  'देशभक्त  सहयोगियों' को उनकी इस  गद्दारी की क्या सजा दी जानी  चाहिये  ? उचित सजा सजा दिलाएं !आमिर ,ओवेसी, आजमखान  को नहीं  बल्कि मुफ्ती को  मुख्य मंत्री बनावाने वाले -नकली  देशभक्तों  को अपने-किये धरे पर गौर करना चाहिए  ! वास्तव में सत्ता पक्ष को अपनी  भारत विरोधी हरकतें  बंद कर  देश भक्ति का सबक नहीं सीखना चाहिए ! साहित्यकारों,बुध्दिजीवियों विचारकों ,लेखकों ,वैज्ञानिकों ,कलाकारों को  देश भक्ति का पाठ पढ़ाने  वाले ,राजनीति में मजहब घुसेड़कर धर्मनिरपेक्षता की कतारों को देशभक्ति का  सर्टिफिकेट बांटने  वाले  पहले अपने  होश  की दवा करें !  फिर अपने गिरेवान में झांककर देखे !

 दरसल आमिर खान से ज्यादा  अनुपम खैर जैसे लोगों को  देशभक्ति सीखने की जरूरत है ! इस भगोड़े कश्मीरी पंडित को अक्ल का अजीर्ण कुछ ज्यादा  ही  हो गया है। वह भूल रहा है कि कश्मीर के पंडित यदि  कश्मीर नहीं छोड़ते,पलायन नहीं करते और मुस्तैदी से आतंकवाद का सामना करते तो यूएनओ और दुनिया भर के अमनपसंद लोगों का उन्हें समर्थन अवश्य  मिलता । तब भारत का नैतिक मनोबल  भी और ऊँचा होता। अनुपम खैर जैसे भगोड़े  कश्मीरी  पंडितों  को ओवेसी और आजम खां  के वयानों  से भी कुछ सीखना चाहिए  ! ओवेसी , आजमख़ाँ और जमीयत -उलेमा -ए -हिन्द की समझ कितनी साफ़ है ? कि  " भारत जितना हिन्दुओं का है उतना ही  मुसलमानों का भी है और हम  यहीं जिएंगे ,यहीं मरेंगे !''

ओवेसी ,आजमख़ाँ और जमीयत की नसीहत  क्या  अनुपम खैर जैसे  कश्मीरी  पंडितों के लिए मौजू नहीं है ?  भारत के  कश्मीरी पंडितों में एक भी भगतसिंह होता ,एक भी आजाद होता ,एक भी अख्लाख़ होता तो लोगों को कश्मीरी  के आतंकियों को जूते मारने का  भरपूर मौका मिलता। आज कश्मीर की हालत इतनी बुरी न होती !  अनुपम खैर जैसे लोग यदि इतने ही देश भक्त थे तो 'खुला खलिहान ' छोड़कर  भागे क्यों ? पहले तो ओने-पोन दामों पर अपनी जायदाद बेच -बेच कर  कश्मीर छोड़ दिया और  मुंबई-दिल्ली अलाहाबाद में ऐश करने लगे। अब जब देश में फासिज्म की आहट है तो असहिष्णुता  से इंकार कर रहे हैं ! यदि उनकी बात ही सही है तो कश्मीर में चल रही असहिष्णता  पर दोहरे मापदंड क्यों ?

 वेशक आमिर खान इस मामले में अनुपम खैर से बेहतर है कि वे बहुत कम और सटीक बोलते हैं। जबकि पंडित अनुपम  खैर हर मुद्दे पर बोलने के लिए हर वक्त  उतावले रहते  हैं। अनुपम खैर ने तो  विद्वानों के  सम्मान वापिसी आंदोलन को  मगरमच्छ के आंसू कहा था ! उन्होंने 'बीफ' काण्ड और मुजफ्फरनगर की  हिंसा पर  भी  जब-तब कुछ न कुछ नकारात्मक और उत्तेजक प्रतिक्रिया  ही व्यक्त  की है। किन्तु आमिर खान या किसी भी फ़िल्मी नायक-खलनायक ने अनुपम  की उद्दाम वाग्मिता का रंचमात्र प्रतिवाद नहीं किया। अब जबकि आमिर ने अपनी  पत्नी की आशंका के बरक्स 'सहिष्णुता' पर  सिर्फ संज्ञान लेने की बात कही  तो अनुपम खैर का टेप  चालू हो गया।  वे पूरे  'अल्वर्ट पिन्टो' हो गए। वेशक अन्याय पर गुस्सा जायज है। लेकिन आमिर ने ऐसा क्या  गजब  कर डाला कि पूरे भगवद्ल  को  ही  कोई गुस्सा  आ रहा है ?  जो लोग आमिर खान की पूरी शब्दावली से केवल 'अरुचिकर' शब्दों का उल्लेख करते हुए अपना हाजमा बिगाड़ने पर तुले  हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की सेहत भी  उन्ही की खतरे में है !  जो लोग देश के बुद्धिजीवियों -लेखकों और कलाकारों  के सम्मान वापसी मुद्दे पर आग्नेय हो रहे हैं ,आमिर खान पर भौंक रहे हैं  वे अपनी असहिष्णुता का ही भौंडा प्रदर्शन कर रहे हैं।

वैसे आमिर खान हों , अनुपम  खैर हों  या कोई  और तीसमारखां  हों - किसी भी इल्मी-फ़िल्मी  ऐरे-गैरे -नत्थू खैरे को  सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक -डिजिटल मीडिया पर  इतना भाव  दिया ही नहीं जाना चाहिए। जिन  फ़िल्मी [कलाकारों] अर्थात अभिनय के धंधेबाजों  को राजनीति -मजहब -राष्ट्रवाद -असहिष्णुता का ककहरा मालूम न हो उनको तवज्जो देना मूर्खता है।  जिन लोगों को अपने  ही देश में बिकराल  रूप धारण कर चुकी महंगाई से मतलब न हो ,बेरोजगारी से साबका न हो ,आर्थिक असमानता दिखाई न दे रही हो , जिन्हे  भारतीय समाज के अंतर्द्वंद और उसकी  वास्तविक   दुर्दशा के बारे में कुछ  भी  मालूम न हो ,वे क्या नायक और क्या  खलनायक -सबके सब दाऊद  और राजन जैसे अपराधियों की गटरगंगा में गोते लगा चुके  हैं।  मीडिया में इन  फ़िल्मी  नायकों  को क्रांतिकारियों की तरह वेजा  महत्व क्यों दिया जा रहा ? इस  बाजारीकरण के दौर में  बॉलीबुड  वाले   चार्ली चैप्लिन होने से तो रहे ! वो जमाना भी नहीं रहा जब  बलराज शाहनी ,सत्य जित रे ,कैफ़ी आजमी , राही  मासूम रजा , ख्वाजा अहमद अब्बास की परम्परा परवान चढ़ रही थी।

आज  के श्याम बेनेगल ,गिरीश कर्नाड ,शबाना आजमी ,जावेद अख्तर जैसे  सचेत और जागरूक कलाकारों को  छोड़कर, मीडिया और दिग्भर्मित लोगों  की भीड़  कल्पना लोक में बिचरण करने वाले उन सिने अभिनेताओं को ज्यादा अहमियत दे  रही है। जो वास्तविक दुनिया के आइकॉन नहीं हो सकते ! क्या आमिर खान ,अनुपम खैर गजेन्द्र चौहान,शाहरुख़ खान, स्मृति ईरानी  कोई प्रगतिशील विचारक-बुद्धिजीवी या क्रान्तिदृष्टा  हैं ?  जिनके कहे-सुने पर देश के तमाम फुरसतिये  हलकान हो रहे  हैं ?

वैसे तो अमीर खान क्या -गरीब खान क्या ?अनुपम खैर क्या उनकी पत्नी किरण खैर क्या ? जब तक 'आम' हैं तब तक तो  सब बराबर ही  हैं ! लेकिन यदि वे  देश के लिए खास होना ही  चाहते हैं तो उन्हें कुछ खास कुर्बानी  भी देनी होगी।  उन्हें देश के लिए कुछ खास करना होगा ! और यह वे तब तक नहीं कर पाएंगे जब तक कि देश और दुनिया  के आर्थिक -सामाजिक -राष्ट्रीय मसलों की  चेतना से  वे सुसज्जित नहीं हो जाते। ओर यह काम बड़ा मुश्किल है। लोहिया , जेपी ,अण्णा हजारे ,मेघा पाटकर जैसी  हजारों लाखों  शख्सियतें शासन-प्रशासन के  लाठी-डंडे खाने के बाद भी ,जेल जाने के बाद भी वर्ग चेतना से लेस नहीं हो सकीं । अर्थात  वे अपने देश  का  मार्गदर्शन करने के लिए - गांधी,नेहरू ,पटेल ,लेनिन ,माओ होचीं -मिन्ह  और फीदेल कास्त्रो  नहीं बन पाये।  जब तक  ये फ़िल्मी सितारे ,ये  एनजीओ चलाने  वाले ,ये  पांच सितारा भोग लिप्सा और कार्पोरेट संस्कृति  वाले -जनता की नजर में नायक या आइकॉन बने रहेंगे, तब तक  हम अपने देश को चीन-जापान -सिंगापोर तो क्या केरल  'गुजरात' भी  नहीं बना  पाएंगे।   श्रीराम तिवारी 

रविवार, 22 नवंबर 2015

ढेर लाशों के लगाकर बहशी खुद को समझता है आदमी !



    सिर्फ पैदायश से नहीं  बन जाता कोई भला -बुरा  आदमी।

    देश काल परिश्थितियोँ  का  भी गुलाम होता है  आदमी।।


    यह  तय होता है  सभ्यताओं के विकास  की  फितरत से ,

    कि  कौन  होगा आदमखोर  और कौन होगा सिर्फ  आदमी।


    कानून का राज  न हो  दुनिया में  कदाचित दुनियावालो ,

    जिन्दा शेर-चीतों को भी कच्चा चबा जाएगा  आदमी।।


    मिल जाये  किसी पिद्दे  को अगर कभी  वजीर का ओहदा ,

    गर्दिशों  के दौर में  आड़ा -तिरछा  चलने लगता है आदमी।


    मिल जाए यदि  किसी चूहे को चिंदी इत्तफ़ाक़न जब कभी-,

   कपडे का थान ही समझ बैठता है,मानों बन गया हो आदमी।


   देते हैं  इंसानियत के लिए युग-युग में  कुर्बानी कुछ  लोग, 

    शहीदों  के आदर्शों पर चले, असल में वही होता  है आदमी।


   बेबसों पर जुल्म ढाने में जुटे  हैं मजहबी मरजीवड़े पागल  ,


   ढेर लाशों के लगाकर  बहशी खुद को  समझता है आदमी।।


                   श्रीराम तिवारी




                 
जिनके अवदान हमेशा  याद रखना चाहिए ,उन्हें ही भूलने की हमें बीमारी है।

जिनके बलिदान से देश आजाद हुआ , उन्हें रुसवा करने  की  हमें बीमारी है।।

 विदेशी आक्रान्ताओं बर्बर ताकतों  द्वारा निरंतर लतियाये जाने की बीमारी है।

 साहित्य-कला -संगीत के  मर्मज्ञों  का ,मजाक उड़ाए  जाने की बीमारी है।


  

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

मुसलमानों को प्रेजिडेंट ओबामा की सीख और पीएम मोदी की नसीहत गैर बाजिब है !


 'तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा करना' कि  तर्ज पर अमेरिकन प्रेजिडेंट मि. ओबामा ने दुनिया के मुसलमानों को नसीहत  दी है कि -" अब वक्त आ गया है कि दुनिया भर के अमनपसंद मुसलमान एकजुट होकर  इस्लामिक आतंकवाद की निंदा करें !" इसी तर्ज पर भारत के बाचाल प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी ने भी ततकाल विदेशी धरती से  ही दुनिया  भर के मुसलमानों  को  'सच्चे इस्लाम'  की परिभाषा बतायी। उन्होंने कहा  -"सूफी परम्परा अगर बलवान हुयी होती तो  इस्लामिक आतंकवाद इतना भयानक नहीं होता। इस्लाम में जिसने सूफी परम्परा को समझा उसने कभी हथियार नहीं उठाया "! इन नेताओं के समर्थक चाहे जो कुछ व्याख्याएं करते रहें किन्तु   इन वयानों से आतंकियों को ही फायदा  पहुँच  रहा है।

 वेशक  मि. ओबामा और श्री मोदी जी के इस्लाम विषयक उक्त  कथन अपनी जगह अवश्य ही वजूद रखते। वशर्ते ये दोनों नेता इस्लामिक विषयों के अधिकृत विद्वान होते। और ये  पूँजीवादी घटिया  राजनीति के दल-दल में गले-गले तक  न धसे होते ! मि ओबामा का क्या वे तो  फिर भी आधे -अधूरे मुसलमान हैं। बराक हुसैन ओबामा का डीएनए अमेरिका की खोज करने वाले कोलंबस या चर्च नियंत्रित  यूरोपियन्स से बिलकुल मेल नहीं खाता।  बल्कि वह तो इस्लाम में नवदीक्षित माइग्रेटेड  अफ़्रीकी नीग्रो के वंशज हैं। अतएव  इस्लामिक संसार से उनका कुछ तो वास्ता अवश्य  है।  किन्तु मोदी जी तो मनसा-बाचा -कर्मणा से उस 'संघपरिवार' के  मानस पुत्र हैं  जिसका अस्तित्व ही 'इस्लाम विरोध'  की धुरी पर टिका हुआ है।  जिन्हे मेरी इस स्थापना पर शक हो वे  श्री गुरु गोलवरकर रचित  'संघ' की परम पवित्र पुस्तक "बंच ऑफ थाट्स 'अर्थात 'विचार नवनीत'  को एक बार अवश्य पढ़ें। असहिष्णुता क्या होती है यदि यह जानना है तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें।  इसी पुस्तक से 'संघ' का संचालन भी होता है। इसी पुस्तक में दर्ज  है कि  संघ के तीन खास दुश्मन  कौन हैं? मुसलमान ,कम्युनिस्ट और  ईसाई  ! मोदी जी इसी पुस्तक से प्रेरणा लेकर ,संघ के आशीर्वाद से परवान चढ़े हैं। इसीलिये  उनके द्वारा इस्लाम विषयक किसी भी वयानबाजी की कोई तुकतान  नहीं हो सकती !

वैसे भी  भारतीय शास्त्रीय[हिन्दू]  परंम्परा का कथन है कि "यद्द्पि शुद्धं लोक बिरुद्धम् न कथनीयम् -न कथनीयम् !"

 अर्थात -यद्द्पि  हो सकता है कि आप सही कह रहे हों  ,किन्तु  आपका कथन  यदि  लोक के विरुद्ध है यानि  किसी विराट कौम  की भावनाओं के अनुरूप नहीं है  तो आपको उसे नहीं कहना चाहिए।

 हालाँकि ओबामा को इसका ज्ञान  नहीं होगा । किन्तु  मोदी जी तो परम संघनिष्ठ  होने के कारण  हिन्दू दर्शन के अध्येता अवश्य रहे होंगे !  क्या उन्हें उक्त संस्कृत लोकोक्ति का ध्यान नहीं रहा ! ओबामा हो या मोदी हों या कोई और तुर्रमखाँ  हों ,यदि वे अपने-अपने राष्ट्रों के सर्वशक्तिमान शासक हैं ,तो उन्हें आतंकवाद के खिलाफ इस तरह उपदेश देने या गाल बजाने के बजाय  एकजुट ठोस  कार्यवाही  करके दिखाना चाहिए ! जैसा कि अब फ़्रांस और रूस मिलकर कर रहे हैं।  वैसे भी ओबामा जी को यह याद रखना चाहिए कि अतीत में सोवियत प्रभाव  को विफल करने के लिए अमेरिका की  सीआईए ने ही इन  इस्लामिक आतंकियों को दुनिया  भर में हथियार और खाद -पानी दिया था। अब जबकि आतंकी  भस्मासुर  अमेरिका और यूरोप को मसल रहे हैं तो ओबामा जी अमनपसंद -मुसलमानों  को इस्लाम का पाठ याद करा रहे हैं।

 उनकी यह उद्घोषणा यूएनओ के उस अवधारणा के  अनुकूल नहीं  है ,जिसमें यह  सिद्धांत स्थापित  किया  गया है कि  कोई भी नेक -ईमान वाला -अमनपसंद और सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीं हो सकता। और जो आतंकवादी हैं ,वे मुसलमान नहीं  हो सकते  ! इस  मूलभूत सिद्धांत की अनदेखी कर मिस्टर ओबामा  और श्री मोदी जी ने इस्लाम के अमनपसंद लोगों को ही ज्ञान बाँटने की तकलीफ  क्यों उठाई  है ? जबकि  उन्हें मालूम है कि अमनपसंद मुसलमान  तो खुद ही दुनिया में सबसे ज्यादा  आतंकी हिंसा का शिकार होते आ रहे  हैं। लाखों  सीरियाई,इराकी और अन्य शरणार्थी  आज जो यूरोप की सीमाओं पर ठण्ड में सिकुड़ कर मर रहे हैं उनमें ९०% मुसलमान ही हैं। क्या  ओबामा और मोदी जी  की नसीहत  उन  निरीह -निर्दोष  बच्चों के लिए है जो पेशावर में इस्लामिक आतंकियों के हाथों मारे गए ?  यदि नहीं तो उनके  ये उदगार किनके प्रति होने चाहिए? 

  यहूदियों ,यज़ीदियों,शियाओं  और  पत्रकारों के   ही नहीं बल्कि अधिकांस अमनपसंद मुसलमानों के कातिल   आतंकी - कभी अमेरिका के  वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ा रहे हैं ,कभी रूसी विमान को ध्वस्त कर रहे हैं , कभी भारत के मुंबई - यूपी- कश्मीर और सीमाओं पर  निर्दोष भारतीय नागरिकों  के  खून की होली खेल रहे हैं।इन हिंस्र  आंतकियों का  ह्रदय परिवर्तन  ओबामा और मोदी के ज्ञान  से  कदापि नहीं होगा। इसकी आशा करना उतना ही भोलापन है ,जितना कि  यह गलतफहमी पाल लेना कि  हर मुसलमान अज्ञानी और हिंसक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए  कि  इस्लाम के अलावा अन्य सभ्यताओं और कौमों में भी बुराइयाँ  और उनमें भी हर किस्म की  हिंसा का तांडव कम नहीं है। दुनिया में  सर्वाधिक मौतें गरीबी ,असमानता,कुपोषण , भुखमरी  और शोषण के कारण होरही हैं। यह दुहराने की जरूरत नहीं कि इसके लिए हथियारों के उत्पादक ,तेल के उत्पादक - राष्ट्र ही जिम्मेदार हैं। इन देशों के  मुनाफाखोर -कारोबारी, मल्टीनेशनल कंपनियों के निष्ठुर अमानवीय कर्ता -धर्ता  क्या आईएसआईएस से कम गुनहगार हैं ? क्या ओबामा और मोदी जैसे नेता इन मल्टीनेशनल्स के हाथों की कठपुतली नहीं हैं ?इनकी भयानक लूट और संहारक  प्रवृति  पर कोई बयान देने के बजाय केवल इस्लाम के बारे में  ही अंट -शंट बकना मजहबी रिफॉर्म की बातें करना -शेख -चिल्ली के सपनों जैसा है।

इस्लाम के सच्चे अनुयायी तो हर दौर में हिंसा और  आतंकवाद के खिलाफ  संघर्ष करते आ रहे  हैं। कर्बला के मैदान में ही नहीं बल्कि उससे भी पहले से अमनपसंद मुसलमानों ने इंसानियत और ईमान को ही वरीयता दी है।  वेशक प्रेजिडेंट ओबामा  की  नसीहत या  पीएम मोदी की सीख  कोई  गैर बाजिब  बात नहीं  है ! किन्तु सवाल इस बयानबाजी की  पात्रता का है।  ये दोनों महाशय  न तो इस्लाम के विद्वान हैं।  न कोई आलिम-उलेमा हैं। बल्कि उनके बोल-बचन से  इस्लाम के प्रति असहिष्णुता का भाव ही अभिव्यक्त  हुआ है। बेहतर होता की  इस्लाम पर विवेचना करने के बजाय  ये नेता लोग कुछ जमीनी ठोस कार्यवाही करते। जिस तरह  फ़्रांस  के राष्ट्रपति फ़्रंकवा  ओलांद ने आईएसआईएस के हमलों का सीरिया में घुसकर जबाब दिया। जिस तरह  रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने तमाम इस्लामिक देशों के अमनपसंद नेताओं को विश्वाश में लेकर आतंकवादियों से लड़ने के लिए अपने जंगी बड़े रवाना कर दिए हैं  , उसी तरह  भारत के पीएम  मोदी  जी को भी  पीओके और पाकिस्तान  में  छिपे बैठे आतंकियों पर अपने जौहर  दिखाने चाहिए थे।  यदि मोदी जी  दाऊद ,हाफिज सईद ,जेयूडी या पाक प्रिशिक्षित नापाक आतंकियों को नेस्तनाबूद करते  तो वे  न केवल  भारत के  बल्कि  सारे अमनपसंद सन्सार के नेता होते। वे  अमेरिका ,फ़्रांस और यूरोप के भी हीरो होते !लेकिन हतभाग्य भारत के सत्तारूढ़ नेता केवल 'बोल -बचन' में ही माहिर हैं। जब तक  विपक्ष में रहते हैं तभी तक शूरवीर हैं ,सत्ता में आने के बाद अम्बानियों -अडानियों के खैरख्वाह बन जाते हैं !  जनता के सवालों पर या आतंकी उन्माद पर धार्मिक ज्ञान बांटने लगते हैं।

जबकि फ़्रांस के  राष्ट्रपति ओलांद ,रूस के  राष्ट्रपति  पुतिन ,चीन के  शी  जिन पिंग और अमेरिका के ओबामा बोलते कम और करते ज्यादा हैं। वे  विश्व आतंकवाद के खिलाफ कुछ न कुछ  तो कर ही रहे हैं। किन्तु भारत के   वर्तमान  महाबली सूरमा  सिर्फ   'बोलता ज्यादा है करता कुछ नहीं '!  श्रीराम ':-


  इन दिनों  भारत की राजनैतिक मुख्यधारा के  'धर्मनिरपेक्ष- परिवार' के मुँह फट - मणिशंकर अय्यर ,खुर्शीद आलम खान ,आजम खान और सिद्धारमैया  इत्यादि आईएसआईएस  और आतंकवाद समर्थक सावित हो रहे हैं। उनके ग्रामोफोन की सुई महज एक शब्द 'मोदी' पर ही अटकी  हुयी है । इसी तरह  भारत के स्वनामधन्य 'राष्ट्रवादी' अर्थात 'असहिष्णुतावादी परिवार' के सुब्रमण्यम स्वामी ,जनरल बीकेसिंह और साक्षी महाराज  जैसे  अहमक लोगों के श्रीमुख  से  केवल  ' गांधी-नेहरू परिवार' की शख्शियतों पर ही विषवमन किया जा रहा है।
इनसे बेहतर तो असदउद्दीन ओवेसी हैं ,जमीयत उलेमा -ए -हिन्द के मुस्लिम नेता हैं ,देश के तमाम मुस्लिम धर्मगुरु हैं जो 'आईएसआईएस ' को इस्लाम विरोधी  बता रहे हैं। आतंकियों के नापाक इरादों की निंदा कर रहे हैं।  और फ़्रांस  समेत दुनिया भर में  उनके  द्वारा किये जा रहे  वीभत्स हमलों की निंदा कर रहे हैं।  श्रीराम !  

सोमवार, 16 नवंबर 2015

  यदि  कभी -कभार किसी  रिक्सा चालक का बेटा /बेटी ,किसी मजदूर या चपरासी का बेटा /बेटी आईआईटी ,  आईएएस , आईपीएस  की परीक्षा बिना किसी महँगे कोचिंग के 'टॉप ' कर लेते हैं  तो मध्यम  वर्गीय युवक  - युवतियाँ  उन्हें  ईर्षा या हेय  दॄष्टि से देखते  हैं। जबकि  इन निर्धन और संघर्षशील  सफल  चेहरों को तो वर्तमान आधुनिक पीढ़ी का  प्रतिमान अर्थात  'आइकॉन ' होना चाहिए !  हालाँकि भारत की आधुनिक शिक्षा पद्धति को  मैकालेवादी कहकर सभी कोसते रहते हैं। किन्तु उसी मैकालेवादी  नजरिये के उपनिवेशवादी क्रूर  इतिहास  के कूड़ेदान से  घटिया  'आइकॉन'  उठाकर इन दिनों जन -संचार माध्यमों और सोशल मीडिया पर आधुनिक पीढ़ी को  दिखाया जा रहा है। अर्थात भूतपूर्व  निरंकुश -सामंतों ,शोषणकर्ताओं और निर्मम  हत्यारों  को  अब आदर्श प्रतिमान -आइकॉन बनाकर  आधुनिक युवा पीढ़ी के समक्ष  प्रस्तुत किया जा रहा है। 


  भारत में  विगत डेड दो साल से गलत प्रतिमान या 'आइकॉन' बनाने की परम्परा जोरों पर है। आजकल कुछ लोगों  को सही जानकारी के अभाव में  महात्मा गाँधी  का हत्यारा - नाथूराम  'गोडसे ' हीरो  नजर आ  रहा है । दूसरी ओर राजनैतिक स्वार्थों के मद्दे-नजर कुछ लोगों को पौने तीन सौ साल पहले मर चुका एक  भूतपर्व रक्त पिपासु सामंत -'टीपू सुलतान' हीरो नजर आने लगा है। गनीमत है कि  जन संचार माध्यमों , टीवी सीरियलों या सोशल मीडिया से सरोकार रखने  वाले युवक-युवतियां  को इन  क्रूर सामंती शासकों या गढ़े  मुर्दों में कोई खास दिलचस्पी नहीं है ! लेकिन यह भी चिंतनीय है कि  बदनाम - पैसा बटोरू  नेता -अभिनेता ही अब वर्तमान युवा पीढ़ी  के  नए  'आइकॉन' बनते जा रहे हैं।   


  जब अमेरिका में ०९ /११ /२००८ को अल कायदा का आतंकी हमला हुआ और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर ध्वस्त हुआ  तब   प्रतिक्रिया स्वरूप इराक के सद्दाम हुसैन ,लीबिया  के कर्नल गद्दाफी और पाकिस्तान में छिपे बैठे ओसामा-बिन लादेन को अमेरिका ने  चुन-चुन कर मारा ।इतना ही नहीं बल्कि अमेरिका का  वह प्रतिशोध  बजरिये यूएनओ बनाम  इस्लामिक वर्ल्ड -प्रतिहिंसात्मक कार्यवाही के रूप में अभी भी जारी है। तब भारत की  तत्कालीन सबसे  बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा के नेताओं ने  तत्कालीन 'मनमोहन सरकार ' को लगभग चिड़ाने वाले अंदाज में यह  नसीहत दी थी कि भारतीय  सेनाओं  को  भी अमेरिका से प्रेरणा लेकर ,फौरन पाकिस्तान में घुसकर वहाँ छिप्र बैठे २६/११ मुंबई  हमलों के दोषियों पर कार्यवाही करनी चाहिये।

वेशक  कांग्रेस और मनमोहनसिंह तो मुंबई हमलों के दोषियों को वापिस नहीं ला सके। वेशक वे आतंकवाद  के खिलाफ भी कुछ  नहीं कर सके। इसलिए  तो भारत की बहुसंख्य्क जनता ने चुनाव में उन्हें बुरी तरह से  हराकर भाजपा के 'शूरवीरों' को सत्ता में बिठाया है। अब जबकि पैरिस [फ़्रांस] पर आईएसआईएस  के हमले से समूची अमनपसंद  दुनिया आतंकवाद के खिलाफ  एकजुट हो रही है और फ़्रांस के अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों ने बड़ी  निर्ममता  से सीरिया में आईएसआईएस के मुख्यालय को ध्वस्त कर दिया है। तब भारत की बहादुर 'राष्ट्रवादी' नेताओं  की समस्या क्या है ? क्यों  टीवी चेनल्स पर  मौखिक वीरता बघार रहे हैं। जबकि उन्हें मालूम है कि  भारत पर अनेक हमलों का जिम्मेदार दाऊद दुबई में  मजे कर रहा  है। हाफिज सईद पाकिस्तान में खुले आम घूम रहा है।  तमाम कश्मीरी आतंकी और दुख्तराने -हिन्द  की गद्दार गैंग कश्मीर को खोखला कर रही है। अब  तो अमेरिका या किसी अन्य महाशक्ति के विरोध की भी वजह नहने बची ! फिर मोदी  सरकार  को क्सिका इन्तजार है ? हमारे  महान पराक्रमी स्वनामधन्य - वैश्विक नेता एवं यशश्वी  प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी जी  अब  विदेशी धरती पर बतौलेबाजी  क्यों कर रहे हैं ? भाषणबाजी करने के बजाय  आतंकवाद के खिलाफ कुछ करते क्यों नहीं ?   केवल गरजते ही रहेंगे कि  बरसेंगे भी ? क्या मनमोहनसिंह या कांग्रेस से बेहतर परफार्मेंस देने के अच्छे दिन अभी तक नहीं आये ?  श्रीराम तिवारी   !  

शनिवार, 14 नवंबर 2015

हिन्दुओं के इतने बुरे दिन क्यों आ गए कि दलाई लामा से सहिष्णुता का सर्टिफिकेट लेना पड़ रहा है।

काश मेरे पास भी कोई अकादमिक -साहित्यिक सम्मान पदक होता ! यदि राष्ट्रीय -अंतराष्ट्रीय किसी भी  किस्म  का कोई  सम्मान पदक या साहित्यिक ,सामाजिक ,आर्थिक- वैज्ञानिक  क्षेत्र में कोई विशिष्ठ उपलब्धि या  'सनद' मेरे पास होती ,तो फ़्रांस में हुए आतंकी हमलों के निमित्त, मैं  ततकाल  सारे सम्मान  वापिस लौटा देता। पता नहीं  मेरा यह अहिंसक  कदम अहमक  कहा जाता या  प्रगतिशील कहा जाता। बहुत सम्भव है कि  मुझे  प्रतिक्रियावाद  और देश द्रोह से  ही नथ्थी कर दिया जाता। वास्तव में  बौद्धिक मशक्क़त भी एक किस्म की उजरती मजदूरी का ही दूसरा नाम है। जिसकी बिना पर  ही  विशिष्ठ  प्रतिभासम्पन्न  और कठोर परिश्रमी लोगों को  साहित्य सम्मान  से नवाजा जाता है। केवल  चारण-दरबारी , खुशामदी -जुगाड़ू लोग ही उसके  कुछ  अपवाद हो सकते हैं। विगत दिनों  'असहिष्णुता' के सवाल  पर 'सम्मान  वापिसी ' आंदोलन  को  भारत की जनता का प्रतिषाद नहीं मिला। क्योंकि मीडिया की  धमा चौकड़ी और जाति -मजहब की   'चिड़ीमार' राजनीति ने  उसे धूमिल कर दिया था। कन्फ्यूज जनता ने अपने बुद्धिजीवी साहित्यकारों और कलाकारों के पवित्र ध्येय को  ठीक से   पहिचाना ही नहीं । वरना भारत की राई जैसी असहिष्णुता को आईएसआईएस  की  बिकराल  असहिष्णुता जैसा  निरूपित नहीं किया जाता । वास्तव में अहिंसा के पुजारियों की  इंसानियत का गला  रेतने वाले खूंखार आतंकवादियों के सामने औकात ही क्या है ? दलाई लामा ने भारत के हिन्दू समाज को  सदा  सहिष्णु बताया है ,उन्हें धन्यवाद।  किन्तु हिन्दुओं के इतने बुरे दिन  क्यों आ गए कि दलाई लामा से सहिष्णुता का सर्टिफिकेट लेना पड़ रहा है।

 कहा जा सकता है कि  धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के अलंबरदारों -भारतीय साहित्यकारों - बुद्धिजीवियों को अपना विजन  इतना संकुचित नहीं रखना चाहिए था कि अहिंसक हिन्दुओं  पर तो 'असहिष्णुता' का  पाप मढ़  दिया और आईएसआईएस  के वैश्विक  कत्ले आम पर  तथा दाऊद या पाकिस्तान प्रेरित कश्मीरी  अलगाववाद  की 'देशद्रोही' हरकतों  पर 'मुशीका' लगा लिया। यह कतई  न्यायसंगत नहीं होगा  कि दोनों को  साथ एक तराजू पर तौलें ?  साहित्यिक बौद्धिक प्रतिभाओं को   जिस तीर से वैश्विक आतंकवाद का मानमर्दन करना था,उससे उन्होंने भारत के हिंदुत्व रुपी  निरीह  क्रोंच पक्षी का ही   बध  कर डाला।वास्तव में सम्मान वापिसी जैसी विराट प्रतिक्रिया तो इन  दुर्दांत हत्यारों के विरोध में होनी चाहिए थी ,जिन्होंने विगत वर्ष -यहूदियों [शार्लि  एब्दो ] पर हमला किया । जिन हत्यारों ने फ्रेंच ,जर्मन,स्लाव  लोगों पर  कायराना हमले किये हैं । जिन्होंने अपने साम्राज्य  - वादी आकाओं की शै पर न  सिर्फ  भारत में बल्कि  फ़्रांस ,इंग्लैंड ,अमेरिका और  यूरोप में भी खूनी जेहाद छेड़ रखा है। जिन्होंने  उद्भट बुद्धिजीवियों पत्रकारों और मीडियाकर्मियों के सिर कलम करने का अभियान न केवल  सीरिया, इराक ,लीबिया ,अफगानिस्तान ,पाकिस्तान ,सूडान ,चेचन्या  और यमन में बल्कि भारतीय सीमाओं के अंदर भी   भी छेड़ रखा है। जिन कटट्रपंथियों ने निर्दोष उदारवादी और  शिया  मुसलमानों के भी अनेक बार  सिर  कलम किये हैं । जिन लोगों  ने २६/११ के हले किये ,जिन लोगोने १३/११ के मुंबई हले किये ,जिन लोगों ने  पेशावर हमले में १५० मुस्लिम बच्चों की हत्या की है ,उन हत्यारों की जघन्य असहिष्णुता के सामने भारत के  घासाहारी  निरीह  हिन्दुओं की ओकात ही क्या जोइन खूनी दरिंदों का मुकाबला कर सकें !

 मेरी इस  तरह की बेबाक टिप्पणी से वामपंथी  साथी नाराज  भी हो सकते हैं। किन्तु मेरी यही सच बयानी सावित करती है कि  भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  को अभी फिलवक्त कोई खतरा नहीं। और हिन्दुओं की असहिष्णुता को  तो कुछ  ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर  पेश किया जा रहा है। लेकिन उन्हें यह याद रखना चाहिए कि  हिन्दुत्ववादी 'असहिष्णुता' पर मैंने भी   लगातार वैचारिक हमले किये हैं। मेरे आईएसआईएस वाले तुलनात्मक नजरिये से 'संघ परिवार' और हिन्दुत्ववादी  भी खुशफहमी  न पालें । उन्हें यह स्मरण रखना होगा  कि भारत में  हिन्दुओं  की सनातन सहिष्णुता को  बदनाम करने के लिए संघ और हिन्दुत्वादी संगठन ही जिम्मेदार हैं। जिस तरह अल्पसंख्यक कतारों में राजनैतिक अभिधा में टैक्टिकल वोटिंग के माध्यम से  अपनी ताकत के दुरूपयोग के लिए कट्टर पंथी इस्लामिक शिक्षा-दीक्षा जिम्मेदार है  ,उसी तरह भारत में  देश की राज्यसत्ता पाने के लिए हिंदुत्व को इस्तेमाल करने और तथाकथित कटटरपंथी हिन्दूओं  को 'असहिश्णुता'  का पाठ पढ़ाने के लिए संघ -  परिवार ही जिम्मेदार है। वरना हिन्दुओं की राई  जैसी असहिष्णुता का  आदमखोर वैश्विक  आतंकवाद  से क्या मुकाबला ? 

क्या  आईएसआईएस ,तालिवान ,अलकायदा ,हमास ,बोकोहरम् ,जमात-उड़ -दावा की तुलना  भारत के किसी भी हिन्दू - साम्प्रदायिक  संगठन से  की जा सकती  है ?  क्या  भारत में इन वैश्विक आदमखोरों से  भी ज्यादा असहिष्णुता  है ? नहीं ! कदापि नहीं ! देश के ९० करोड़ हिन्दुओं में से तथाकथित संगठित हिन्दुओं  की संख्या  बमुश्किल ४०-५०- हजार से ज्यादा  नहीं होगी। यदि हिन्दुत्ववादी इतने ही ताकतवर और संगठित होते तो वे  हिन्दू बहुल दिल्ली और बिहार में चुनाव क्यों हारते ?  वेशक कुछ हिन्दू धर्मावलंबी अंधश्रद्धा के शिकार हमेशा ही रहे  हैं और यह सिलसिला तब भी  जारी था जब देश गुलाम था या आरएसएस नहीं था।इस दौर में जो हिंदूवादी संगठनों की  बाढ़ सी आ गयी है ,उसके लिए वोट की राजनीती जिम्मेदार है। इन आधुनिक हिन्दुत्ववादी दुकानों में  सनातन सभा ,संघ परिवार ,शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े हिन्दू - कटट्रपंथियों की  कुल तादाद बमुश्किल ५० लाख भी नहीं होगी। जबकि भारत में सहिष्णु हिन्दुओं की तादाद करोड़ है। एनडीए को जो बहुमत  मिला  और केंद्र की मोदी सरकार को  जो  सत्ता का चान्स मिला है उसके लिए  हिन्दू या मुस्लमान नहीं बल्कि कांग्रेसी सरकारों की असफलता ,भृष्टाचार और महँगाई   जैसे कारक  ही जिम्मेदार हैं। हालाँकि  राजनैतिक ध्रवीकरण में हिन्दुत्ववादी संगठनों का कुछ तो असर है. कि देश के ३२% लोगों के वोट पाकर भाजपा की मोदी सरकार आज सत्ता में विराजमान है। जबकि  आपस में बटे  होने से ८% वोट पाकर भी विपक्ष सत्ताच्युत है। शायद यह पीड़ा ही 'सहनशीलता ' की जन्मदात्री है।

वास्तव में हम भारत के जनगण  तो पैदायशी सहिष्णु हैं। यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांस जनगण सनातन से ही सहिष्णु रहे हैं।  मेरी इस  स्थापना पर तर्कपूर्ण प्रतिवाद का स्वागत है। एतद द्वारा मैं   दुनिया  के हर चिंतक ,इतिहासकार ,विचारक और साहित्यकार को चुनौती देता हूँ कि , यह सिद्ध करके दिखाएँ कि शेष दुनिया  के देशों ,कौमों ,कबीलों और आतंकी समाजों की  बनिस्पत शाकाहारी भारतीय या  हिन्दू' ज्यादा असहिष्णु हैं !  क्या कोई  भी माई का लाल  यह सावित कर सकता कि अतीतकालीन किसी भी दौर में  भारत के  अधिशंख्य निरीह  आदिवासियों ने या  उन्नत सभ्यता के लिए मशहूर परिश्रमी  'आर्यों' ने -'हिन्द' के निवासियों  ने याने हिन्दुओं ने कभी  भी किसी  भी अन्य राष्ट्र या कौम पर  कभी आक्रमण  किया  है ? जापान ,तिब्बत ,कंबोडिया पूर्व एशिया  और  श्रीलंका इत्यादि में 'पंचशील के सिद्धांत' हमारे पूर्वजों ने किसी फौजी कार्यवाही  की ताकत  से  या  'असहनशीलता'  से स्थापित नहीं किये हैं।  बल्कि  सामन्तकालीन दौर के  अनेक भारतीय मनीषियों ने भी अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय , अपरिग्रह , वसुधैव कुटुंबकम  ' और  लोकहित  की मानवीय विचारधारा  से भी आगे जाकर घोषणा की थी ;-

 अयं निज : परोवेति  गणना लघु चेतसाम्।

उदार चरितानाम्  तू ,वसुधैव कुटुंबकम।।  

अथवा

 सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुख  भागवेत।।

 क्या भारतीय हिन्दुओं की इस  उच्चतर अवस्था तक कोई और देश या कौम पहुँच पाये हैं?

क्या आईएसआईएस और विश्व आतंकवाद की असहिष्णुता से बदतर  प्रमाण दुनिया में कहीं  और है ?

वेशक दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति ,समाज  या राष्ट्र परफेक्ट 'सहिष्णु' हो ! लेकिन भारत के अधिकांस लोग  'सहिष्णुता' के ही अलम्बरदार हैं। खास  तौर  से किसान-मजदूर और सर्वहारा  के रूप में भारत  का अधिसंख्य वर्ग तो 'श्रमेव जयते 'या इंकलाब जिन्दावाद की क्रांतिकारी सोच  से प्रेरित  होकर एक  बहुसंख्यक समाज  के रूप में भी 'सापेक्षतः सहिष्णु ही है। इसमें हिन्दू  -जैन मुस्लिम -ईसाई -बौद्ध -सिख  -पारसी सभी आते हैं। खास तौर  से हिन्दू ,जैन ,बौद्ध  के समस्त आध्यात्मिक निष्पादन का सार तो 'अहिंसा परमो धर्मः '  ही है!  अधिकांस  उत्कृष्ट कोटि  के चरित्रवान  हिन्दू  प्रातःकालीन प्रार्थनाओं में  इस प्रकार के नारे लगाते हैं :-
विश्व का  कल्याण हो ! प्राणियों में सद्भावना हो !  क्या इस तरह की  भारतीय चेतना  को साम्प्रदायिकता या असहिष्णुता कहा जाना उचित  है ?

जब किसी  व्यक्ति ,समूह ,समाज  और  राष्ट्र के  कुछ  पूर्वानुमान सही सावित होने लगें तो  उसे उस विमर्श में  सिद्धांत स्थापित करने का सहज ओचित्य मिल जाता है । इसके अलावा उसका जमीनी  आत्म विश्वास बढ़ना भी  स्वाभाविक है। भारत के  वर्तमान 'हिन्दुत्ववादी' शासक वर्ग के सत्ता में आगमन के उपरान्त देश में घटित  कुछ 'अप्रिय' घटनाओं  से प्रायः ऐंसा  माना जाने लगा  है कि मानों  भारत तो अब पूरी तरह से  हिटलर कालीन जर्मनी बन  चुका है। क्या हम मान लें कि  भारत का लोकतंत्र छुइ -मुई है और अब मोदी सरकार के सत्ता में आने मात्र से ही भारत में  मुसोलनि का  फासीवाद आ  गया है। दरअसल इस भयावह सोच को हवा देने  वाले सिर्फ वे ही नहीं हैं जो 'परम धर्मनिरपेक्षतावादी'  हैं। बल्कि इसमें कुछ उनका भी अवदान है जो प्रगतिशीलता और सहिष्णुता के  'विचार' की उत्कृष्टता में  आत्ममुग्ध  हैं।  इसके अलावा  इस असहिष्णुता के  भयदोहन के लिए एक अन्य  महत्वपूर्ण कारक  प्रधान मंत्री की 'रह्स्यमई चुप्पी'  भी  है।


 यह तो गनीमत हैं कि  भारतीय संसदीय लोकतंत्र  के  अन्य महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों  ने शिद्द्त से  'लोकतंत्र,धर्म निरपेक्षता और समाजवाद' के मूल सिद्धांतों  की रक्षा की है। इन्ही  की बदौलत भारत में गंगा-जमुनी 'तहजीव  की अविरल  धारा  प्रवाहमान है । वर्ना कटटरपंथ ने तो दादरी जैसे और  कामरेड पानसरे,दाभोलकर ,कलिबुर्गी जैसे तर्कवादियों - विचारकों  के अंजाम  कब के चुन लिए थे। भारत के राष्ट्रपति ,भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल ने जब  धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र के प्रति कटिबद्धता दुहराई तो यह दुनिया के लिए सन्देश है कि  भारत में  हिन्दू कट्टरपंथी कोई खास मायने नहीं रखते। लेकिन पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और अलगाववाद का विरोध करने का मतलब  'संघ' का समर्थन नहीं है. यह गलतफहमी दक्षिणपंथ व  वामपंथ दोनों को नहीँ पालना चाहिए कि जनता  सिर्फ उनकी ही बात सुनेगी।  बिहार  विधान सभा के चुनाव परिणाम स्पष्ट बता रहे  हैं कि  देश  को  हर कीमत पर विकास नहीं चाहिए। साथ ही  दक्षिणपंथ की असहिष्णुता को ठुकराते हुए  बिहार की  जनता  ने  सभी को साथ लेकर चलने वाले मध्य्म मार्गी  चेहरे -नितीशकुमार को  ही पसंद किया है।

 कुछ लोग राजनैतिक स्वार्थ के लिए यदा- कदा  हिन्दू-मुस्लिम  ,अगड़ा-पिछड़ा का राग अलापते रहते  हैं। यह घातक प्रवृत्ति  हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए अभिशाप है। इस प्रवृत्ति  के खिलाफ  लड़ते हुए देश  के वामपंथी  कतारों और  अधिसंख्य  हिन्दू समाज को आपस में लड़ने के बजाय शोषक शासकवर्ग से लड़ना चाहिए।  खेद की बात हैं कि  जनता  के तात्कालिक ज्वलंत मसलों से भटककर यह प्रगतिशील तबका केवल वीफ जैसे मुद्दों या   मोदीजी की  चाल - ढाल   या पहरावे पर ही ज्यादा  मुखर हो  रहा है।  अल्पसंख्यक वर्ग के पढ़े लिखे लोगों को और  वर्ग चेतना से लेस मजदूर -किसानों को बीफ  जैसे मुद्दों पर आपस में नहीं उलझना चाहिए। हमारे लिए  कौमी संघर्ष की  घटनाएँ उतनी ज्यादा  महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी की सूखे से मरने वाले किसानों  की बदतर हालत। अधिंकांस   निर्धन -मजदूर -किसान भूँख  और कर्ज से मर रहे हैं।  दवा के अभाव में  मरने  वाले गरीबों और सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले  बेक़सूर नागरिकों की बिकराल तादाद है। इनकी अनदेखी कर साहित्यकार  मीडिया और राजनीतिक ताकतें केवल 'असहिष्णुता' का राग अलाप कर देश के साथ  न्याय   नहीं कर पा रहे हैं।  साहित्यकार ,विचारक ,बुध्दिजीवी और कलाकार भी  इस विमर्श में  अपने  हिस्से की बाजिब भूमिका अदा नहीं कर रहे हैं।

  हमें यह  सुखद अनुभूति होना  चाहिए की  भारत  में चौतरफा  बदतर स्थिति  के वावजूद  हालात  हिटलर के  नाजी जर्मनी  जैसे  कदापि नहीं हैं।  और मुसोलनि के फासिस्ट शासन की  भी कोई बहुत बड़ी संभावना यहाँ  सम्भव नहीं है। बल्कि भारत में तो  साम्प्रदायिक  सद्भाव के प्रति समर्पित  वामपंथ ,मंडलवादी कांग्रेस  और   तमाम  साहित्यिक -बौद्धिक  प्रतिभाएं  अपनी डॉमिनेंट -सघनता में मौजूद हैं।  वेशक  मोदी सरकार के दौर में बढ़ रही तथाकथित  'असहिष्णुता' पर अभी भी देश में धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुतावादी ही ज्यादा भारी पड़  रहे हैं।  जहां एक ओर 'संघपरिवार' भाजपा और  सत्तारूढ़ कतारों में कुछ लोग  मानते हैं कि कुछ गुमराह  अल्पसंख्यक वर्ग और  खास तौर  से 'जेहादी-आतंकी' लोग  पाकिस्तान के हाथों में खेल रहे हैं । वहीं दूसरी ओर तमाम प्रगतिशील ,धर्मनिरपेक्षतावादी , बुद्धिजीवी व  वैज्ञानिक  यह मानने की जिद कर रहे  हैं कि बहुसंख्यक वर्ग के कटट्रपंथियों की  'असहिष्णुता'  ज्यादा खतरनाक ढंग से बढ़ती ही जा रही है।

दोनों ही पक्ष जिद किये जा रहे हैं कि  'असहिष्णुता' के बारे में उनकी ही परिभाषा सही है।  भारत का  मौजूदा साम्प्रदायिक विखंडन वास्तव  में  अतीत की देन है। अंग्रेजों का 'फूट  डालो राज करो ' का फार्मूला इसके लिए  जिम्मेदार है। किन्तु कांग्रेस ने भी समय-समय पर इसका ही  इस्तेमाल किया है। अब जबकि केंद्र में  पहली बार  बिना अल्पसंख्यक वोट के बलबूते  कोई सरकार बन गयी  है ,तो 'वासी कढ़ी में उफान' लाजमी है। अब देश के  कुछ चुनिंदा विद्वान  विचारक साहित्यकार यदि  सत्तासीन वर्ग प्रेरित  'असहिष्णुता ' पर सवाल  खड़े कर रहे हैं, तो 'संघ परिवार ' वाले उसे धजी का साँप  कैसे कह सकते हैं । जबकि संघ परिवार खुद  भी दशकों से यह मानता आ रहा है कि न केवल  कश्मीर में बल्कि  देश के अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों में अनेक बार  हिन्दुओं पर [गोधरा और मुंबई की तरह ] बर्बर  अत्याचार  हुए हैं।  उनकी इस स्थापना को पूरी तरह ख़ारिज करना सरासर बेईमानी होगी। वास्तव में अल्पसंख्यक वर्ग की  'असहिष्णुता'  भी कम घातक नहीं है। वहीं दूसरी ओर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ,भारत के उपराष्ट्रपति जनाब  हामिद अंसारी साहिब ,भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर जनरल और देश के तमाम बुद्धिजीवी केवल अल्पसंख्यक वर्गों की चिंता ही प्रस्तुत किये जा रहे हैं।  क्या यह मानसिकता  भारत की  शानदार सहिष्णुता को आईएसआईएस  की खूनी दरिंदगी के  बराबर साबित  साबित  काफी नहीं है ?  श्रीराम तिवारी 

'खाबें पिछड़े सौ में साठ'



 सोशल जस्टिश  धोबी  घाट।

 लोहिया जेपी  बिकते  हाट ।


जात -धरम की जीत  बिहार में ,

और  विकाश  की लग गयी  बाट।


साम्प्रदायिक टैक्टिकल वोटिंग ,

 मानों  सिर  पर ओंधी खाट।


लोहियाजी का यही था कहना ,

 कि ' खाबें पिछड़े  सौ में साठ'।  


श्रीराम तिवारी








 इन भ्रष्टन के देखो   ठाठ।


 सामाजिक न्याय का हाट। 

बुधवार, 11 नवंबर 2015

सम्मान पदक लौटाने जा रहे भूतपूर्व सैनिकों को अविलम्ब पाकिस्तान भेजे जाने का फरमान जारी क्यों नहीं हुआ ?

जब साहित्यकारों ने 'असहिष्णुता' एवं साम्प्रदायिक की कदाचरण जनित हिंसा  का विरोध करते हुए अपने सम्मान पदक और इनाम-इकराम लौटाए तो 'संघ परिवार' के बग़लगीरों ने सोशल मीडिया व  अन्य माध्यमों  पर इन साहित्यिक विभूतियों को पाकिस्तान खदेड़ने का फरमान जारी किया था। अब देश के बहादुर फौजी भी सम्मान पदक लौटाने की योजना पर अडिग हैं। सवाल उठना चाहिए  कि इन सम्मान लौटाने वाले  सैनिकों को भी पाकिस्तान खदेड़ने का हुक्मनामा  'असहिष्णु परिवार' की ओर से कब तक जारी होने वाला है ?

  हालाँकि परिधान मंत्री द्वारा पूर्व सैनिकों की तथाकथित माँग [orop] 'वन  रेंक वन  पेंशन '  का पाटिया  किया जा चुका  है। सैनिकों को दिग्भर्मित  करने के बाद याने  वन  रेंक सेवन पेंशन '  का फार्मूला थोप दिया गया है। इसलिए  भूतपूर्व सैनिक और ज्यादा उग्र आंदोलन की तैयारी कर रहे हैं। पहले चरण में कल उन्होंने जंतर - मंतर पर पदक  जलाने की योजना बनाई ।  किन्तु वरिष्ठ साथियों की सहमति हुयी कि मेडल जलाने  के बजाय  सरकार  को लौटा दिए जाएँ।  इस बाबत वे  राष्ट्रपति भवन की ओर  पैदल मार्च की तैयारी कर रहे हैं।  जिन भारतीय बहादुर फौजियों ने  १९६५ और १९७१ में अपनी बहादुरी के झंडे लाहौर में गाड़े थे। अपनी जवानी देश की रक्षा में खपा दी थी।  आज वे  पेन्सन के मसले पर  अपने-अपने सम्मान पदक सरकार को लौटाने पर मजबूर हैं। बहरहाल प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री उन्हें मनाने का प्रयाश कर रहे हैं। किन्तु ताज्जुब  की बात यह है कि 'असहिष्णु परिवार' की ओर  से इन  सम्मान पदक लौटाने  जा रहे भूतपूर्व सैनिकों को अविलम्ब  पाकिस्तान भेजे जाने का फरमान  जारी  क्यों  नहीं  हुआ  ? श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

कमल छाप वालों को 'कमला' याने लक्ष्मी याने सत्ता सुख की लख -लख बधाइयाँ !

 बिहार विधान सभा चुनावों में एनडीए की करारी हार पर  'भगवा दल' को  सांत्वना सन्देश स्वरूप पेश है रहीम कवि का एक दोहा :-

 कमला थिर न रहीम  कह , या जानत सब कोय।

 पुरुष पुरातन की बधु ,   क्यों  न  चंचला  होय।।



 अर्थ ;- कवि 'अब्दुल रहीम खान-ए -खाना ' कहते हैं कि  यह  बात तो सभी जानते  हैं कि  कमला [ लक्ष्मी ]  स्थिर नहीं हुआ  करती । बृद्ध पुरुष की जबान जोरू   'चंचल' क्यों नहीं  होगी ?

भावार्थ :- कमला अर्थात यश ,कीर्ति,विजय ,सम्पदा  ऐश्वर्य और राज्य सम्पदा  कभी किसी के साथ सदा के लिए नहीं रहते। यह बात सभी विद्वानों ने बार-बार कही है। अनादि  परम पुरष  विष्णु की भार्या लक्ष्मी तो वैसे भी  'चंचल ही हुआ करती है।

सन्देश : हे  अंध श्रद्धालुओं , असहिष्णुतावादियो !  हे  कलिबुर्गी ,पानसरे,दाभोलकर  अखलाख के  हंताओ !तुम बिहार में लालू -नीतीश जैसे पिछड़ों के हाथों बुरी तरह पिटे ,यह कोई नयी बात नहीं है। हार का रंज गम मत करो। वे भी तो  कई बार पिटे हैं। तुम भी आजादी के बाद से लगतार  पिटते  ही आ रहे हो। केवल अटल महाराज ने जरूर ५-६ साल के लिए जीत का स्वाद चखा  है।  विागत मई -२०१४ में जो ऐतिहासिक जीत मिली है उसके बाद से  आप के नेता बहुत बाचाल हो गये हैं। वे तो साहित्यकारों की खिल्ली उड़ाने में भी नहीं चूके। परिणाम स्वरूप अब  न केवल बिहार बल्कि यूपी में भी आइन्दा  हार- ही - हार है।  अब तो हर प्रदेश में भाजपा ,संघ परिवार और एनडीए के लिए बिहार ही बिहार है। काम नहीं आयगी आक्रामक - जुमलों की बौछार है। अब तो तुम्हारे घर में केवल  जूतम पैजार है।  विकास -सुशासन बंटाढार  है।



सभी को दीपावली की शुभकामनाएँ <<<<<,,,,,,,,,,,,!

 कमल छाप वालों को 'कमला' याने लक्ष्मी याने सत्ता सुख की लख -लख  बधाइयाँ ! श्रीराम तिवारी 

'असहिष्णुता' रुपी गिद्ध गैर भाजपा शासित राज्यों में ही ज्यादा क्यों फड़फड़ा रहे हैं?

 बिहार चुनाव  प्रचार में संघ परिवार और भाजपा नेताओं ने जो कुछ 'बोल बचन' कहे उसका परिणाम पराजय के रूप में सामने है। इस मर्मांतक पराजय से आहत  भाजपा ओर  एनडीए वाले 'हार पर आत्म चिंतन'के बहाने अब और ज्यादा अल्ल -वल्ल बक रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है की चुनाव प्रचार में बोलने वाले अब मौन हैं और जिन्हे तब बोलने नहीं दिया गया वे अब अपनी भड़ास निकल रहे हैं ! कुछ तो मोहन भागवत,अमित शाह और मोदी जी को  ही 'हांर का  हार '' पहनाने  पर तुले हैं। उनका आक्रोश जायज और तार्किक भी है।

क्योंकि अपने व्यक्तिवादी  अधिनायकवादी और प्रचंड -उदंडवादी  सच्चे-झूंठे चुनाव प्रचार अभियान से मोदी जी ने  इन चुनावों को वैश्विक  बना दिया था।  इसलिए अब न केवल शेयर बाजार में हडक़म्प है ,न केवल रुपया लुढ़क रहा है,बल्कि ब्रिटेन -अमेरिका के अखवारों में उधर के राजनीतक हलकों में मोदी के घटते आभा मंडल का जिक्र हो रहा  है। आज यदि पाकिस्तानी  मीडिया में  बिहार के चुनाव के बहाने  कुछ खुन्नस खाए लोग एनडीए और भाजपा  पर हँस  रहे हैं तो उसके लिए भाजपा के नेताओं का अहंकार और उनकी पाकिस्तान के प्रति वही  नफरत भरी 'बोली बानी' ही जिम्मेदार है।  बिहार में ऐतिहासिक 'मोदी पराजय' के लिए 'संघ प्रमुख 'मोहन राव भागवत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह , योगी आदित्यनाथ ,साक्षी महाराज , साध्वी प्राची  और खुद  प्रधान मंत्री मोदी जी के वयान  ही  जिम्मेदार  हैं। महागठबंधन की एकता महज 'रिपट  पड़े तो हर -हर गंगे है' ! यदि भाजपा असहिष्णुता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सुलझा ले , नरेंद्र मोदी  जी ने 'सबका साथ और सबका  विकास  बाबत विगत डेड साल में जितना बोला है  ,यदि  वे उसका २५% भी अमल करके दिखाए तो आगामी लोक सभा चुनाव में  लालू नीतीश को  ५  सीटें भी नहीं  मिलेंगी  !


बिहार चुनाव में भाजपा की हार के लिए सिर्फ भागवत जी का आरक्षण वाला वयान ही नहीं बल्कि एन चुनाव के वक्त 'सम्मान वापसी 'एपिसोड जरा  ज्यादा ही लम्बा  गया। इस महा पाप के  लिए भाजपा के प्रवक्ता , दोयम दर्जे के फिल्म एक्टर  और संघी बौद्धिक सबसे जयादा कसूरवार हैं। असहिष्णुता बनाम सम्मान वापसी एपीसोड पर  जरा ज्यादा ही कवरेज दिया जाता  रहा है। वास्तव में देश के  जिन 'सम्माननीय' लोगों को लगा कि  धर्मनिरपेक्षता -जनवाद  और सहिष्णुता जैसे मूल्य खतरे में हैं उन्होंने उसकी रक्षा के लिए जो कुछ किया वो न केवल देश के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के काम आया बल्कि  देश के 'असहिष्णु'लोगों को  बिहार में निपटाने के भी कुछ काम अवश्य आया। जिन  वैज्ञानिकों ,साहित्यकारों और विचारकों ने  मूल्यों की रक्षा के लिए 'सम्मान वापसी' का निर्णय लिया, उनके समर्थन में कांग्रेस ,वामपंथ और अन्य तमाम लोकतंत्रात्मक ताकतें  भी एकजुट हो रही हैं हैं। लेकिन सत्ता पक्ष के लोग ,असहिष्णु लोग ,दोयम दर्जे के साम्प्रदायिक  अभिनेता और दक्षिणपंथी कटटरपंथी संगठन इस सम्मान वापसी को 'देश की बदनामी'के रूप में  प्रचारित किये जा रहे हैं। लालू -नीतीश चूँकि धर्मनिरपेक्षता और  लोकतांत्रिकता का लबादा ओढ़े हुए थे अतएव विहारी वोटर ने उन्हें जिता  दिया  और   बिहार की तथाकथित पिछड़ी आवाम ने विकास ,सुशासन और 'सवा लाख  के पैकेज  को ठुकरा दिया ! क्यों ?केवल सहिष्णुता और सामाजिक सद्भाव के लिए !

  इसमें कोई संदेह नहीं कि केंद्र में  'मोदी सरकार' के सत्ता में आने के बाद  देश में 'असहिष्णुता' बढ़ी है। यह भी सौ फीसदी सच  है कि  इस दौर में या तो  कलिबुर्गी जैसे  वैज्ञानिक  तर्कवादी शहीद  हो रहे  हैं या दाभोलकर जैसे अंधश्रद्धा निवारक -सामाजिक कार्यकर्ता अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। असहिष्णुता रुपी नरभक्षणी  साम्प्रदायिकता  ने कामरेड  गोविन्द पानसरे जैसे कर्मठ वामपंथी बुद्धिजीवी - विचारक और साहित्यकार  को देश के सर्वहारा वर्ग से छीन  लिया। इस  दक्षिणपंथी कट्टरपंथ की असहिष्णुता के शिकार अख्लाख़ जैसे कुछ निर्दोष अल्पसंख्यक भी हुए हैं।  चूँकि धर्मान्धता विरोधी  और साम्प्रदायिकता  विरोधी जन  चेतना के सापेक्ष अभी तो  इस देश के जन मानस में साम्प्रदायिकता ,जातीयता और असहिष्णुता  का पलड़ा  ही भारी है।

अतएव ' विकास बनाम असहिष्णुता'  के  चक्रव्यूह  में  विकास रुपी अभिमन्यु  की वीरगति सुनिश्चित थी । भले ही  धर्मनिरपेक्षता और आरक्षण  के 'पांडव' विजयी हो गए ,किन्तु अभी तो राजनीतिक  चौसर के  कुटिल    पांसे शकुनि  और दुर्योधन के पक्ष में ही  हैं।  अभी तो असहिष्णुता रुपी  यजीद  कर्बला के रेगिस्तान में घात लगाये बैठा है। यह  न केवल अभिमन्यु  बल्कि हसन  और हुसेन की  शहादत  का दौर है। वेशक शहीदों   की कुर्बानी कभी बेकार नहीं जाती।  हर कुर्बानी के बाद शहीदों की नयी पीढ़ी का लहू और ज्यादा सुर्खरू  होने लगता है। संघर्ष का मैदान केवल चुनावी जंग के लिए मशहूर नहीं है बल्कि विचारों के  अनवरत द्व्न्द  में भी देवासुर संग्राम का ही बोलबाला है।

असहिष्णुता बनाम साम्प्रदायिक द्वेष  जनित हिंसा और सत्ता पक्ष के लोगों के  बड़बोले पन से आहत कुछ चुनिंदा साहित्यिक  हस्तियों  ने जो सम्मान वापसी आंदोलन चलाया है वो अपना असर दिखाने लगा है।  बिहार चुनाव में भाजपा की हार और केरल स्थानीय निकायों में कांग्रेस का सूपड़ा सफा बताता है कि  देश की वाम जनतांत्रिक ताकतों का संघर्ष सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। चूँकि  कलिबुर्गी  कांग्रेस शासित कर्णाटक में मारे गए हैं।  दाभोलकर भी  विगत कांग्रेस शासित महाराष्ट्र में  ही मारे गये थे। कामरेड पानसरे की हत्या  जरूर भाजपा शाषित महाराष्ट्र में हुयी है। दादरी के अख्लाख़  यूपी की सपा सरकार के राज में हुयी है। यह तो सहज सम्भाव्य था  कि  कांग्रेस  और सोनिया जी  विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करते हुए  इस असहिष्णुता के  मुद्दे पर मैदान संभालती।  लेकिन उन्होंने केवल राष्ट्रपति  से हस्तक्षेप का अनुरोध करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है । उधर  कांग्रेस को कर्नाटक में कलिबरगी की हत्या का जबाब देते नहीं बन रहा है। अब वे सामंत टीपू सुलतान  के भूत को जिन्दा करने पर तुले हैं। कांग्रेस  ,भाजपा और  वामपंथ को  यह  तो अवश्य ही पता लगाना चाहिए कि   'असहिष्णुता' रुपी गिद्ध  गैर भाजपा शासित राज्यों में  ही ज्यादा क्यों फड़फड़ा  रहे  हैं?

 यह नापाक असहिष्णुता रुपी  नागिन तो  कांग्रेस के ६० सालाना राज में  भी हमेशा फन फुसकारती रही है।   इसी तरह अंग्रेजी राज के दौर  की असहिष्णुता तो जलियावाला बाग़ से लेकर भारत बिभाजन की रक्तरंजित  कहानी में भी मौजूद है। और अंग्रेजों से पूर्व  तुर्कों ,खिल्जियों और गजनवियों ,मुगलों के राज की असहिष्णुता तो सारे विश्व में कुख्यात है। तैमूर ,चंगेज,हलाकू अब्दाली ,मलिक  काफूर,बैरमख़ाँ,नादिरशाह और ओरंगजेब कितने सहिष्णु थे ? यह   इतिहास के पन्नो पर काले अक्षरों में उन्होंने खुद लिखा है।  जबकि भारत के कण - कण  में  जो सहिष्णुता विद्यमान हैं  उसके लिए  न केवल समस्त भारतीय परम्परा बल्कि  गौतम  महावीर  नानक  इत्यादि के मूल्यों की धरोहर जिम्मेदार है। अब यदि कोई हिन्दू ,जैन ,सिख या बौद्ध  संघ परिवार  या भाजपा  की असहिष्णुता को  पसंद  नहीं करता  तो वह स्वाभाविक रूप से गौतम,महावीर ,नानक और  गांधी के मूल्यों का  समर्थक हो  कहलायेगा । वेशक एनडीए को  जनता ने बहुमत से चुना है तो  देश को चलाने ,विकास करने और सम्विधान की रक्षा करने  के लिए  ही चुना है। वे यदि  अपना पुरातनपंथी एंजेंडा लागू करेंगे तो उन्हें न केवल बिहार की बल्कि केंद्र की सत्ता से भी हाथ धोना पडेगा।

 संघ परिवार के जिन नेताओं ,प्रवक्ताओं  ,संगठनों  और बौद्धिकों  अभी तक केवल शाब्दिक प्रतिक्रियावाद का पाठ पढ़ा है ,उन्हें विकास ,सुशासन और समाजवाद के बारे में भी कुछ सोचना समझना चाहिए।१६ मई २ ०१४  से अब तक तो  'असहिष्णुता 'का नग्न रूप ही  देश और दुनिया के सामने प्रकट हुआ है। विकास की बात करते-करते  मोदी जी खुद लालू-  जैसे  स्तरहीन भदेश नजर आने लगते हैं। वैज्ञानिकता की बात करते-करते  वे प्रति क्रियावादी ही सावित होने लगते हैं ।  श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 9 नवंबर 2015

अधिकांस वैश्विक मीडिया कार्पोरेट -आवारा पूँजी से संचालित है।

 ज्ञातव्य है कि  चंद रोज पहले ही  केरल में स्थानीय निकाय के चुनाव सम्पन्न हुए हैं । इस  चुनाव में  लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट [एलडीएफ] को  अपेक्षित  सफलता मिली है । दो-तिहाई  महानगर पालिकाओं ,नगर -निगमों  और ग्राम पंचायतों पर एलडीएफ का कब्जा हो गया  है। जबकि कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो  चुका है। भाजपा को  भी केरल के स्थानीय निकाय चुनावों में  कुछ स्थानों पर मामूली  सफलता मिली  है। इस आंशिक सफलता को मीडिया ने बहुत बढ़ा चढ़ाकर  पेश  किया है। मानों केरल में  भाजपा रुपी चुहिया को चिंदी क्या मिल गयी ,कपडे का थान मिल गया ! वेशक उन्हें  कहीं -कहीं कांग्रेस से कुछ  ज्यादा वोट मिले हैं। लेकिन सिर्फ  इससे  मीडिया को वामपंथ की विराट सफलता की अनदेखी  करने का सर्टिफिकेट नहीं दिया जा सकता। अभी-अभी  बिहार में वामपंथ को २३% मिले  हैं ,यह एक बड़ी उपलब्धि है किन्तु मीडिया ने उसे बार-बार 'अन्य' बताकर इग्नोर किया।  वामपंथ के रूप में ये 'अन्य'  ही  हैं जिसके कारण नीतीश -लालू मात्र ४३ % वोटों  के बलबूते पर १७८ सीटें पा गए। और ३५% वोट वाला एनडीए  ५८ पर ढेर हो  गया। यदि  मोदी जी और एनडीए २३ % वाले 'अन्य' के वोट जोड़ने में कामयाब हो जाते  तो क्या लालू -नीतीश का जादू चल पाता  ?  किसी भी चैनल ने यह  तथ्य  कहीं भी  कभी भी  नहीं  दिखाया।  लालू-नीतीश  और नरेंद्र मोदी के अलावा  भारतीय मीडिया ने अन्य किसी  पार्टी - व्यक्ति  या विचार धारा  के बारे में  सोचना भी उचित नहीं समझा। क्योंकि उनके आकाओं का हुक्म है कि  केवल कार्पोरेट के चाटुकारों -कांग्रेस,भाजपा ,जदयू,राजद ,सपा और उनके अलायन्स के बारे में ही चर्चा होनी  चाहिए। यही कारण है कि जब केरल में   वामपंथ को बम्फर जीत मिल रही थी तब मीडिया  चुप रहा  किन्तु  मात्र कुछ स्थानों पर भाजपा की  आंशिक सफलता पर वह उसके विजय गीत गाने लगा।

 विहार विधान सभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के दौरान जब एक्जिट पोल में कुछ  चैनल भाजपा की जीत सुनिश्चित बता रहे थे ,तभी केरल  के स्थानीय निकायों  के  रुझानों को भाजपा के पक्ष में बता आरहे थे। अधिकांस  चेनल्स पर मोदी जी की  बिहारी विशाल आम सभाओं  को लाइव  दिखाया जा रहा था। इसी  बीच कुछ 'सबसे तेज' चेनल्स ने केरल के स्थानीय निकाय के चुनावों की खबरें  भी प्रसारित की थीं।अधिकांस टीवी  चेनल्स पर एक ही खबर आ रही थी कि  केरल  के स्थानीय निकायों  में भाजपा को भारी सफलता मिलने  जा     है। एक चैनल  विशेष पर  तो बड़ा मजेदार  सीन देखने को मिला। हजारों लोग  हंसिया हथौड़ा वाले लाल  झंडे अपने  हाथों में लिए  हर्ष उल्लास के साथ खुशियां मनाते दिखाए जा रहे थे ,जबकि एंकर महोदय  बार-बार बके जा रहे  थे कि  'केरल में  कमल खिला '। साथ में तुकतान  ये भी कि 'आप सबसे पहले ये खबर हमारे सबसे तेज   चैनल पर  ही देख रहे हैं '। जब स्क्रीन पर सिर्फ  हंसिया हथौड़ा वाले  लाल  झंडे  ही  चारों ओर नजर आ रहे थे। तभी  एंकर जी  का आप्त वाक्य सुनाई दिया  कि 'आप केरल में भाजपा कार्यकर्ताओं की जीत का जश्न  लाइव देख रहे हैं "!  इतना झूंठा और शर्मनाक  प्रोपेगंडा  जब  आक्रामक पूँजीवादी की ओर  से हो र्हा हो तब

  यह सर्विदित तथ्य है कि इस दौर में  केवल भारत का ही नहीं  बल्कि  अधिकांस वैश्विक मीडिया  ही कार्पोरेट -आवारा  पूँजी से संचालित  है।  निसंदेह मीडिया में काम करने वाले अधिकांस  युवक -युवतियाँ अवश्य  समाज के बेहतरीन प्रतिभा  सम्पन्न व्यक्त्तिव होते हैं। लेकिन मीडिया  मालिकों  के बाजारू आचरण के  सामने इनकी शख्सियत लाचारी में बदल जाती है। अपने मालिकों की खब्त के कारण  उनकी मुखरता और व्यक्तिगत सोच  पर ताले लग जाते हैं। यही कारण है  कि  केरल स्थानीय चुनाव हो ,तुर्की के चुनाव हों या पाकिस्तान में जान आंदोलन की खबरने हों वे  नाज अंदाज की जातीं हैं। झूंठ का शर्मनाक  नग्न नर्तन विभिन्न चैनलों पर अवश्य  देखा जा सकता है।

  अभी -अभी  तुर्की  के जनमत संग्रह में वामपंथ को  पुनः भारी  जीत मिली है। म्यांमार में  आंग सांग सु की वाम लोकतान्त्रिक विचारधारा की पार्टी  सत्ता के नजदीक पहुंच  चुकी है। नेपाल के नए  प्रधान मंत्री और  राष्ट्रपति  दोनों  कम्युनिस्ट हैं।  बेनेजुएला में कम्युनिस्टों को बार-बार जीत  मिल रही है।  इटली में विगत दिनों  लेफ्ट विंग की ताकत  बढ़ी  है। भारत के बिहार में  भले ही वामपंथ को विजय न मिली हो किन्तु दक्षिण पंथ  भी तो बुरी तरह हारा  ही है। केरल में वाम को  भारी सफलता मिली है। इन तमाम खबरों को छोड़कर भारत का मीडिया रात-दिन  केवल पीलिया पुराण ही गाता  रहता है। यही वजह है कि  फेसबुक ,गूगल ,ट्विटर और तमाम इलक्ट्रॉनिक डिजिटल मीडिया से जुड़े युवाओं को भी यह नहीं मालूम कि दुनिया में एक मात्र कम्युनिस्ट विचार धारा  ही है ,जिसके आधार पर दुनिया के १५०  से ज्यादा देशों में  या तो कम्युनिस्ट पार्टियाँ  का सीधा वर्चस्व है ,या वहाँ सशक्त मजदूर संगठन -किसानों-मजदूरों और सर्वहारा के हितों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चीन ,रूस ,वियतनाम,बेनेजुएला ,क्यूबा या तुर्की  तो बहुत आगे हैं।  किन्तु  अमेरिका ,पाकिस्तान ,ईरान इराक सीरिया में वामपंथ की मौजूदगी क्या इस लायक नहीं कि  मीडिया उसका संज्ञान भी न ले ?श्रीराम  तिवारी 


 बिहार विधान सभा चुनाव की एक आम सभा में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि  यदि ये लालू-नीतीश - 'महागठबंधन ' वाले जीत गए और हम [ भाजपा -एनडीए]  हार गए तो  पाकिस्तान में फटाके  फूटेंगे !  चुनाव परिणामों के उपरान्त न केवल उनकी भविष्यवाणी गलत सिद्ध हुई  बल्कि वो भी  हुआ जो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा ! अमित शाह की सोच के मुताबिक  पाकिस्तान  में पटाखे तो नहीं फूटे । हाँ ! प्रेस और  मीडिया ने  ख़ुशी अवश्य  जाहिर की। लेकिन  कितनी बड़ी बिडंबना है कि  मोदी और शाह की जन्म स्थली  गुजरात में लालू - नीतीश की जीत का  और मोदी जी की हार का जश्न  मनाया गया ?  गुजरात के पटेल  - पाटीदार समाज ने  बिहार चुनाव में  भाजपा की  हार  और मोदी जी की रुसवाई पर जमकर आतिशबाजी  करते  हुए  अमित शाह  और मोदी जी का जमकर  मान मर्दन किया है। अब  सवाल  यह हैं कि यदि  'सरदार पटेल'  की समाज के लोग ही जब  'मोदी तथा भाजपा के खिलाफ हैं ,तो देश के बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों ,लोकतंत्रवादियों  धर्मनिरपेक्ष -  वामपंथी  कतारों  से 'संघ परिवार ' को इतनी नफरत क्यों है ?  -;श्रीराम तिवारी :-

रविवार, 8 नवंबर 2015

एक चाराखोर ही पिछड़ों की नजर में जब प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष बनकर बैठा हो तो क्या कीजियेगा ?

 शंकरजी  अपने एक भक्त पर प्रशन्न भये ! बोले  हे वत्स वरदान  मांगो !   हालाँकि अंतर्यामी भोलेनाथ जानते थे  कि  यह बंदा  अपने पड़ोसी को नुक्सान पहुँचाने  की बदनीयित से  ही मेरी तपस्या कर रहा है।  अतः उन्होंने पहले से ही शर्त  रख दी की तुम जो भी वरदान मांगोगे  ,तुम्हारे पड़ोसी को अपने आप डबल मिल जाएगा। भक्त  भी खांटी बिहारी -लोहियावादी -जेपीवादी  डीएनए का था ।  इसलिए उसने भी वरदान मांगने में  काइयाँपन दिखाया।  झट  से  अपनी एक आँख फूट  जाने का वरदान  माँग  लिया ! भोलेनाथ ने ऐंसा तो सोचा भी नहीं था कि  कोई ऐंसा आत्मघाती वरदान भी मांग सकता है ! लेकिन अब क्या हो सकता था ? उन्होंने एवमस्तु कहा  और फिर  अंतर्ध्यान  भये !  आगे इस दृष्टांत का परिणाम  सभी जानते हैं  कि  उस  भक्त की एक  आँख और उसके पड़ोसी  की दोनों आँखें फुट गयीं। बिहार के जातिवादी जन मानस ने  लालू -नीतीश के व्यामोह में एनडीए  की जीत और मोदी जी  की वैश्विक कीर्ति रुपी दोनों आँखें फोड़ दी। लेकिन बिहार के विकाश रुपी  अपनी एक  आँख  तो अवश्य ही फ़ुड़वा ली हैं।

लगभग १४-१५ साल पहले की बात है। मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव चल रहे थे। तब इंदौर में पत्रकारों के सवालों का जबाब देते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह जी ने चुनावी जीत -हार के संदर्भ में एक  मौलिक सिद्धांत पेश किया था। उन्होंने दो टूक कहा  था ''हमारे देश में चुनावी हार-जीत पार्टी या नेताओं के परफार्मेंस  या कामकाज [विकाश] से  सुनिश्चित नहीं हुआ करती। बल्कि वोटों को मैनेज करने से ही चुनावी जीत तय होती है "। इस सिद्धांत को पेश करने वाले दिग्गी राजा की कांग्रेस को तब मध्यप्रदेश में  भयानक  हार का मुँह  देखना पड़ा था। क्योंकि उनके सिद्धांत का कांग्रेसियों ने ही मजाक उड़ाया था और उसका पालन नहीं किया। जबकि  विरोधी पार्टी की तत्कालीन कद्दावर नेत्री सुश्री उमा  भारती  के नेतत्व में 'संघियों' ,बनियों और दलालों  ने 'मिस्टर बंटाढार ' का नारा लगाकर  आवाम की उम्मीदों को  जमकर हवा दी थी।  इसलिए  कांग्रेस   बुरी तरह हार  गयी। और उसने  मध्यप्रदेश में भाजपा को स्थाई रूप से सत्ता में बिठा दिया। वेशक मध्यप्रदेश के लोग इस भाजपा शासन से  बेहद नाराज हैं ,किन्तु  यहां बिहार जैसा 'महागठबंधन'  नहीं बन पाने से गधे ही   लगातार गुलाब जामुन खाये जा  रहे हैं। यहाँ  के सत्तासीन  नेता 'संघ' वालों  और 'बाबा' बाबियोँ की चरण वंदना में लींन  हैं।  मंत्री तो भूंखे बच्चे को लात मार रहे हैं. आत्महत्या कर रहे किसानों का मजाक उड़ा रहे  हैं। फसल मुवावजे के रूप में  किसान के खाते में ३५ पैसे  जमा किये जा रहे हैं। यहां के प्याजखोर , व्याजखोर, दालखोर , रेतमाफिया - बिल्ड़र माफिया के बल्ले -बल्ले हैं। लेकिन इस सबके लिए कांग्रेस ही सबसे ज्यादा जिम्मदेार है। क्योंकि उसके नेता एक दुसरे को फूटी आँखों देखना पसंद नहीं करते और अन्य दलों से एका करने के सवाल पर 'एकला चलो रे ' का गीत गाने लगते हैं। यदि कांग्रेस और अन्य  विपक्षी दल  बिहार के 'महागठबंधन' से सबक  लें तो मध्यप्रदेश  को भी माफिया राज से मुक्ति मिल सकती  है।

  सरसरी तौर  पर लगता है कि  मौजूदा  बिहार विधान सभा चुनाव में  'आरक्षण माफिया जीत गया है। और विकास का नारा  हार गया है । जिन लालू -नीतीश की कोई आर्थिक या श्रमिक नीति  ही नहीं  है , वे केवल आरक्षण  या धर्मनिरपेक्षता का बखान करके और  कांग्रेस से  सीटों का तालमेल करके ही  अपने 'महागठबंधन' को ४२% वोट हासिल कराने  में कामयाब रहे हैं।  जो नरेंद्र मोदी बिहारी युवाओं को  मार्क जुकवर्ग ,सत्या नाडेला बनाना चाहते हैं ,वे सिर्फ ३५ % वोट ही अपने एनडीए को दिलवा पाये हैं । कम्युनिस्टों और अन्य को भले ही  आधा दर्जन सीटें  ही मिली हों किन्तु  उनको जो २३% वोट  मिले हैं ,यदि  वे एनडीए  के पक्ष  में  गए होते तो आज बिहार में लालू नीतीश  के घरों में अँधेरा होता। और जो  मोदी-पासवान,माझी कुशवाह  हार  के गम में डूबे हैं ,वे बिहार  के विकास का ताना -बाना   बुन  रहे होते ! वास्तविकता  यह है कि  वोटों को मैनेज करने की कला में माहिर  महा शातिर  लालू जैसे पिछड़े नेताओं ने  नीतीश का 'बेदाग'  चेहरा पेश कर, कांग्रेस को  साधकर ,  बिहार में  'दिग्गी राजा फार्मूला ' ही  अपनाया । और  महागठबंधन बनाया। जो   काम आ गया।

बिहार को बार -बार पिछड़ा कहने वाले ,बिहारियों को मूर्ख समझने  वाले आज चारों खाने चित  हैं । वैसे मेरी निजी राय यह थी कि  ''चूँकि कांग्रेस ने बिहार में ३५ साल शासन किया।लालूजी -राबड़ी जी ने १५ साल 'राज'  किया। नीतीश जी ने १० साल बिहार  का नेतत्व किया। अतः अब बिहार को यदि देश और दुनिया के साथ  आगे बढ़ना है तो दो  ही विकल्प शेष थे । एक वामपंथ और दूसरा दक्षिणपंथ -याने एनडीए। चूँकि लेफ्ट के लिए अभी आवाम की चेतना विकसित नहीं है। और मीडिया भी सिर्फ नायकवाद  अधिनायकवाद का  ही तरफदार है। इसलिए  बिहार या अन्य प्रदेशों  में  अभी तो वामपंथ  को  जान जागरण के लिए बहुत संघर्ष करना बाकी है। लेकिन नरेंद्र मोदी के  तो अभी अच्छे दिन चल रहे [थे ]. उन्हें  क्या हुआ ? उन्होंने  तो बिहार के चुनाव में रिकार्ड तोड़  विराट आम सभाओं  को सिंह गर्जना के साथ  सम्बोधित किया है ! 'सवा लखिया पैकेज'  इतना दूँ ! इतना दूँ !! इतना  कर दूँ ? का लालीपाप कुछ काम न आया ! विकास के इन  नारों के झांसे  मैं आकर मैंने अपने ब्लॉग पर और फेसबुक  वाल पर भी अपने विचार पोस्ट किये थे.मैंने  पूर्वानुमान लगाया था कि "बिहार  में अब की बार  - मोदी सरकार ''होगी। और  सुशील मोदी को  बतौर मुख्य मंत्री भी पसंद कर लिया था  जबकि मेरे अजीज  सालार -ए -जंग  परम विद्वान संत  श्री 'ध्यान विनय' ने शाहनवाज हुसेन को बिहार के लिए  उपयुक्त भावी मुख्यमंत्री बताया था। लेकिन  ऐन  चुनाव के दौरान श्री मोहन भागवत  जी  ने 'आरक्षण' का मुद्दा छेड़ दिया। उसी दौरान साध्वी प्राची ,योगी आदित्यनाथ ,मंत्री महेश शर्मा ,खटटर काका अपने -अपने दंड-कमंडल लेकर  धर्मनिरपेक्षता पर टूट पड़े।  भाजपा के सभी प्रवक्ता गण  और अनुपम खैर , अभिजीत जैसे 'सघनिष्ठ' एक्टर  भी  'असहिष्णुता' के सवाल पर देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों पर  ही टूट पड़े।  विचारे  नरेंद्र मोदी जी  द्वारा बिहार में लगाये जाने वाले विकास का  बोधिबृक्ष लगाने से पूर्व ही कुम्हला गया।

जो लोग बिहार में 'महागठबंधन' की जीत से गदगद हैं वे यह  मान लें कि  बिहार को विकास की नहीं तांत्रिकों  की और आरक्षण की जरुरत है। याने बिहार पिछड़ा नहीं है। यदि बिहार पिछड़ा होता तो वहाँ  की जनता भी पिछड़ी होती ,किन्तु जनता ने अभी जो जनादेश दिया है  उससे सिद्ध होता है कि ' बिहारी भैया' लोग  कम से  -कम लालू को  तो भृष्ट नहीं मानते।  बिहारियों  के  बहुमत का आशय है  कि बिहारी और बिहार  दोनों ही  पिछड़े नहीं हैं।  जो लोग भाजपा ,संघ परिवार  और  अगड़ों को हरा सकते हैं वे पिछड़े किस अर्थ में हैं ?  जब वे पिछड़े नहीं हैं तो उन्हें  अनंतकाल तक आरक्षण किस बात का ? यदि  लालू -नीतीश जैसे  तथाकथित पिछड़ों  ने अन्य अति पिछड़ों - माझी -पासवान जैसे दलितों  [गरीबो]  और  नंदकिशोर यादव सुशील मोदी जैसों मार-मार कर कश्मीरी पंडितों की तरह  बिहार की राजनीति में खानाबदोश कर दिया है तो वे डॉमिनेंट क्लास में शुमार क्यों  नहीं किये जाएँ ?  यदि मोहन  भागवत  इस प्रवृत्ति के खिलाफ हैं तो उसमें हैरानी क्यों ? क्या मोहन भागवत  पर सच बयानी की बंदिश है ? क्या जो  सच बात वे कहेंगे उसे जबरन नकारकर ही कोई प्रगतिशील या धर्मनिरपेक्ष हो सकता है ? जब  बिहार में भाजपा या संघ वालों ने कभी शासन  किया ही नहीं तो उनपर  किसी  भी तरह  अमानवीय आरोप या सवर्णवादी होने का  आरोप  क्यों ?   जब अधिसंख्य बिहारी  पिछड़े और दलित  ही जब अपने विकास की  हवा निकाल  रहे हों तो  मोदी जी या  केंद्र सरकार  को दोष देना  न्यायसंगत नहीं है।  

   जिस तरह दुनिया में यह धारणा स्थापित हो चुकी है कि  'भारत एक ऐंसा अमीर मुल्क है ,जहाँ अधिकांस  गरीब लोग निवास करते हैं 'उसी तरह यह प्रमेय भी सत्यापित किया जा सकता है कि ' वैज्ञानिक -भौतिक संशाधन और  इंफारस्ट्रक्चर के रूप में न केवल  यूपी - बिहार जैसे  पिछड़े  प्रदेश  बल्कि पूरा भारत ही पिछड़ा हुआ  है।  घोर गरीबी -शोषण और असमानता के वावजूद  भारत की  जनता और खास तौर  से यूपी बिहार की  जनता  तो वैचारिक रूप  से   जरा ज्यादा ही परिपक्व  है। वे  लोकतांत्रिक प्रतिबध्दता के रूप  में  'फारवर्ड' हैं  या नहीं इस पर दो राय हो सकती है किन्तु वे अपनी जाति  और उसके जातीय नेता के प्रति  नितांत बफादार हैं। कुछ प्रगतिशील -वामपंथी ही हैं जो  धर्मनिरपेक्षता बनाम  साम्प्रदायिकता  की सही वयाख्या कर सकने में समर्थ हैं। अन्यथा अधिकांस जदयू वाले, राजद वाले केवल सवर्णों के मानमर्दन  में  ही संतुष्ट  नहीं हो रहे  बल्कि 'एमवाय' की मूँछ ऊंची होने के दम्भ में बिहार का सत्यानाश किये जा रहे हैं।  वेशक 'संघ परिवार'  के खिलाफ लड़ना किसी भी व्यक्ति के लिए क्रांतिकारी हो सकता है ,किन्तु  संघ 'के  विरोध के बहाने भृष्ट नेताओं के कुनवों का विकास और  बिहार  का सत्यानाश कहीं से भी जस्टीफाइड नहीं है।  

 बिहार विधान सभा चुनावों के दौरान 'संघ परिवार' को घेरने और भाजपा के संघ  'प्रायोजित प्रचार' का जबाब  'महाझून्ठ  बोलने वाले  लालू जैसे तथाकथित  पिछड़े वर्ग के नेताओं  ने  हर सवाल का घटिया जबाब दिया है ।  जनता ने लालू की मदारी मसखरी पर  खूब तालियां बजाई।यदि  एक कुनवापरस्त , जातिवादी,भृष्ट चाराखोर   व्यक्ति किसी  की  नजर में  प्रगतिशील व  धर्मनिरपेक्ष  बनकर  दिलों में बैठ  जाए तो क्या कीजियेगा ? केवल अपनी  ९-९ संतानों  के विकास को बिहार का विकास  मानने वाले को यदि लोग 'महानायक' मान लेंगे  तो  यह  सवाल उठना लाजिमी है कि ये जातीय  महागठबंधन के नेता और उनके  कार्यकर्ता पिछड़े  किस कोण से  हैं ? 

वर्तमान विधान सभा चुनाव के नतीजों ने  तो यह भी सावित कर दिया  है कि  बिहार में और पूरे भारत में अब पिछड़ों  को  पिछड़ा न मना जाए। क्योंकि उन्होंने सवा लाख करोड़ के पैकेज की दावत को ठुकराकर एनडीए को बिहार की सत्ता में  नहीं  आने दिया।  अब उन्हें शायद  आरक्षण  की  भी जरूरत  कदापि नहीं है  इन भारतीय  जातीयतावादी बुर्जुआ शासक वर्ग को दान  - खैरात- आरक्षण की यदि कुछ  ज्यादा ही  खुजाल है। वे आर्थिक आधार पर सभी वर्ग के गरीबों को  यह अधिकार देने का विरोध क्यों कर  रहे  हैं ?  क्या आर्थिक  आधार पर आरक्षण के निर्धारण  से  पिछड़ों,दलितों या  माइनर्टीज के गरीबों  का कोई नुकसान  था ? लालू -नीतीश -शरद -मांझी -पासवान  और  मोदी जी जैसें सम्पन्न लोगों को आरक्षण का लाभ कितने साल तक और दिया जाना  चाहिए ?  वर्तमान में आरक्षण का लाभ उठा रहे किसी भी  मलाईदार वर्ग को पीढ़ी-दर पीढ़ी आरक्षण क्यों मिलते रहना  चाहिए? यदि  किसी  व्यक्ति समाज या जाति  के लोगों को ७० साल तक लगातार आरक्षण दिया गया हो ,और उसके वावजूद  भी  उसे आरक्षण की वैशाखी के बिना  खड़े होने की क्षमता  न हो  ,तो उस आरक्षण की सलीब को अनंत काल तक कंधे पर लादे -लादे  यह मुल्क कहाँ जाना चाहता है ? बिना विकास  रुपी चारे के  आरक्षण रुपी गाय से दूध मिलने की  उम्मीद  करने वाले -देश की मुख्य धारा  से बहुत दूर हैं।

जिस तरह गैस सब्सिडी  लौटाने के प्रयोजन हो रहे हैं ,उसी तरह आरक्षण का लाभ उठाने वालों में से जो अब सम्पन्न हो गए हैं ,वे लोग अपने ही सजातीय बंधुओं को -जिनके पास रोटी-कपडा-मकान  नहीं है ,उनको अपने साथ खड़ा  होने से मना  क्यों करता है ? क्यों न सभी  पिछड़े -दलित समाजों और अन्य जातियों  के  गरीबों की पहचान चिन्हित कर उन्हें आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाए ? जिन्हे  सरकारी सेवाओं में  या  तदनुरूप  शिक्षण  -प्रशिक्षण में एक बार आरक्षण का लाभ मिल चुका  हो ,उन्हें  विभागीय प्रोन्नति में  बार-बार अवसरों  से  लाभान्वित किये जाने  का ओचित्य क्या है ?   बिहार के चुनाव परिणाम से तो   लगता है कि सैकड़ों साल तक  किसी भी  जाति  का उत्थान  नहीं हो सकेगा। बल्कि सामाजिक अलगाव और राष्ट्रीय एकता ही खंडित होगी। इस तरह से तो आरक्षण प्राप्त जातियों  का भी कोई भला नहीं होने वाला।  अन्य किसी भी वंचित समाज    के गरीब की  गरीबी  भी  कदापि दूर नहीं  होगी। - : श्रीराम तिवारी :-

                                          

गुरुवार, 5 नवंबर 2015



  मैं  सिर्फ उस बात के लिए जिम्मेदार नहीं  हूँ ,जो बात मैंने जाने-अनजाने  कही है। बल्कि मैं उसके लिए भी जिम्मेदार हूँ ,जो बात  मुझे  शिद्द्त से कहनी चाहिए थी किन्तु ,भय,लालच  या  अज्ञानवश मैंने नहीं कही !


मटका प्रसंग ,जीप पर सवार इल्लियाँ ,वर्जीनिया वुल्फ से कौन डरता है ? इत्यादि रचनाओं के मार्फ़त 'शरद जोशी ने तत्कालीन  व्यवस्था  का खूब  मानमर्दन  किया  था । राग दरबारी के मार्फ़त श्रीलाल शुक्ल ने  बुर्जुआ वर्ग की तत्कालीन  खामियों का जमकर उपहास किया है।  काका हाथरसी ने, हरिशंकर परसाई ने ,दुष्यंतकुमार ने, गजानन माधव मुक्तिबोध  और उपन्यास सम्राट  मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी कलम से शासन-प्रशासन की नीति -नियत का सिरसच्छेदन किया है।  आधुनिक दौर के लेखक -बुद्धिजीवी एवं  मूर्धन्य साहित्यकार अपनी कलम का कमाल दिखाने के  बजाय 'सम्मान वापिसी रुपी 'मूँछ का बाल ' वापिस कर रहे हैं। प्रतिरोध का यह तरीका बाकई अभूतपूर्व है।   

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

फासीवाद के खिलाफ कांग्रेस का यह संघर्ष एक प्रगतिशील और देशभक्तिपूर्ण दायित्व भी है।


 जिन लोगों की सोच मजहबी -नस्लीय संकीर्णता से प्रेरित है , जिनका 'विजन'  मानसिक ,सामाजिक और चारित्रिक स्तर पर अवैज्ञानिक है ,यदि ऐंसे लोग दुनिया के किसी भी देश में , 'बाय चांस'  लोकप्रिय होकर  नेत्त्वकारी भूमिका में आ  भी जाते हैं ,तो  भी देश - समाज  और कौम को उनसे कोई  खास उम्मीद नहीं  रखनी चाहिए। इस तरह के स्वयंभू महिमामंडित नेता लोग यदि  समाज के  सामूहिक हितों के  बरक्स किसी खास  , जाति ,मजहब -धर्म  के प्रति झुकाव रखते  हैं  तो वे किसी  के साथ  भी न्याय करने में  सफल नहीं होंगे।

 आवाम को यह स्मरण रखना चाहिए कि  ऐंसे 'अनाड़ी ' नेताओं  के 'विकास और सुशासन  की अंतिम परिणीति   कौम की और देश की  बर्बादी में ही सन्निहित है। फासिस्ट मुसोलनि  ने 'रोमन्स  का और नाजी हिटलर ने  जर्मन्स का कितना 'भला' किया यह जग जाहिर है  ? हिटलर -मुसोलनि जैसे  लोगों ने  तो फिर भी  दुनिया भर के उपनिवेश हथियाकर अपने-अपने राष्ट्रों को  कुछ आर्थिक और सामरिक समृद्धि प्रदान की  होगी । किन्तु हिटलर-मुसोलनि के  भारतीय  अनुयायी  तो केवल साम्प्रदायिकता के श्मशान में  'शिव तांडव ही किये जा रहे हैं।  उनकी  कोरी कूपंडूकता, यथास्थतिवाद  , बड़बोलपन का आलम ये है कि  नेपाल  जैसा 'हिन्दू' बहुल मुल्क भी आज भारत का दुश्मन बन चुका  है। पाकिस्तान से 'राम-राम -दुआ सलाम ' भी बंद है। चीन आँखें दिखा रहा है। देश के किसान आत्महत्या किये जा रहे हैं। इस भयावह स्थति के वावजूद भी  वर्तमान  भारतीय शासकों को  केवल   प्रतिक्रियावाद का ही सहारा है। देश के बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों ,वैज्ञानिकों और कलाकारों की मौन   'नाखुशी'  को समझने -बूझने के बजाय शासक वर्ग की कतारों में उनकी अवमानना करने का चलन बढ़ चुका  है।  उन्हें यह शिद्द्त से याद रखना  चाहिये  कि जर्मनी में हिटलर के पराभव से पूर्व और इटली में मुसोलनि की दुरगति से  पूर्व भी यही स्थति थी।

  भेड़िया धसान  समाज के जिन लोगों में  वैज्ञानिक और तदनुरूप क्रांतिकारी वैचारिक चेतना का अभाव है   ,  यदि  उनका  लम्पट नेतत्व समाज की नेत्त्वकारी भूमिका है तो उसमें राष्ट्रीय विकास और वैश्विक -नैतिक  परिष्क्रमण की औकात नहीं है। जो लोग  त्याग-बलिदान की वास्तविक चेतना के हामी  नहीं है ,जो लोग मूल्यों  को तार्किकता प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं ,यदि ऐंसे लोग विराट देश की  शासन व्यवस्था को  लोकतान्त्रिक तरीके से ,धर्मनिरपेक्ष तरीके से चलाने के बजाय  यदि चालाकी और फितरत सेचलायंगे  तो वे सभी की बर्बादी के जिम्मेदार होंगे। उनकी मंशा  समाज के  बने-बनाये ताने-बाने  को छिन्न-भिन्न करने  की  है।  इसके लिए  वे  ढपोरशंख बजाकर दूसरों का ध्यानाकर्षण करते रहते हैं।

 वर्तमान मीडिया में यही सब किया जा रहा है।अभी तक धर्मनिर्पक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र की अस्मिता  का  यह सारा दारोमदार वामपंथी विचारकों और तर्कवादियों की संघर्ष यात्रा में ही गुंजायमान हो रहा था। किन्तु अब खबर  है कि बढ़ती जा रही सरकारी हिंसा ,असहिष्णुता और उत्पीड़न -दमन के खिलाफ आज कांग्रेस ने भी  राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया है।वैसे  यह प्रतिरोध जाहिर कर ,कांग्रेस ने कोई नवाई  नहीं की है । सोनिया जी ने या कांग्रेस ने  कोई एहसान नहीं किया है। यह तो कांग्रेस की ऐतिहासिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है। कांग्रेस ने ६५ साल  देश पर शासन  किया है  अब यदि वह  लोकतान्त्रिक विपक्ष की भूमिका अदा कर रही है ,तो यह उसका नैतिक दायित्व है। न केवल दायित्व बल्कि फासीवाद के खिलाफ कांग्रेस का यह संघर्ष एक प्रगतिशील और देशभक्तिपूर्ण दायित्व भी  है।  वेशक कांग्रेस ने अतीत में देश को विनाशकारी आर्थिक दल-दल में धकेला है। किन्तु आज यदि वे देश के अल्पसंख्यकों ,मजदूरों ,किसानों और साहित्यिक विरादरी के साथ खड़े हैं तो यह कांग्रेस के पुनःजीवन के लिए बेहतरीन मावठा सावित होगा। और कांग्रेस का हर जन संघर्ष  न केवल कांग्रेस  की वापिसी  का कारण होगा बल्कि भारतीय लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के लिए  भी एक शुभ संकेत साबित होगा !

  इस संदर्भ में एक  स्वरचित दोहा :-

   पानसरे दाभोलकर ,कलबुर्गी अखलाख।

   मरकर भी हैं  सुर्खरू ,सजग तीसरी आँख ।।

  श्रीराम तिवारी