शनिवार, 30 नवंबर 2019

महाराष्ट्र में लोकतंत्र के चीरहरण कांड पर प्रासंगिक रचना:-


तुम बिल्‍कुल हम जैसे निकले,
अब तक कहाँ छिपे थे भाई?
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई!
आखिर पहुँची द्वार तुम्‍हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई!!
प्रेत धर्म का नाच रहा है,
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्‍टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !!
हम दैसा तुमने भी सोचा,
और पूरी है वैसी तैयारी!
कौन है हिंदू, कौन नहीं है,
तुम भी करोगे फ़तवे जारी!!
होगा कठिन वहाँ भी जीना!
दाँतों आ जाएगा पसीना!!
जैसी तैसी कटा करेगी,
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी!
माथे पर सिंदूर की रेखा,
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!!
क्‍या हमने दुर्दशा बनाई,
क्या कुछ तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी,
सोच के बहुत हँसी आज आयी!!
तुम भी बिल्‍कुल हम जैसे निकले,
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्‍क करो तुम, आ जाएगा,
उल्‍टे पाँव चलते जाना!!
ध्‍यान न मन में दूजा आए,
बस पीछे ही नजर जमाना!
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा,
अब जाहिलपन के गुन गाना!!
आगे गड्ढा है यह मत देखो,
लाओ वापस, गया ज़माना!
एक जाप सा करते जाओ,
बारम्बार यही दोहराओ!!
कैसा वीर महान था भारत!
कैसा आलीशान था-भारत !!
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे!
बस परलोक पहुँच जाओगे!!
हम तो हैं पहले से वहाँ पर,
तुम भी समय निकालते रहना !
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना!!

हाऊस वॉईफ की सैलरी*


विगत 2-3 साल से श्रीमती जी को ब्रॉकल अस्थमा की क्राऩिक बीमारी की वजह से डॉक्टरों के निर्देशानुसार किचन में जाना बंद हो गया !वैसे तो झाड़ू पोछा,बर्तन और कपड़े धोने के लिये दो-दो बाइयां पहले से लगा रखीं थीं ,किंतु श्रीमती जी ने खाना बनाने के लिये एक 'रोटी वाली बाई' भी रख ली!
उन्होंने रोटी वाली को काम दैने से पहले उसका इंटरव्यू लिया और पूछा -
- खाली रोटी बनाने का क्या लेती हो ?
रोटी वाली ने पलटकर पूरी प्रश्नावली पेश कर दी!
-आप कितने सदस्य हैं ?
-रोटियाँ एक समय या दोनों समय चाहिये ?
- कितनी रोटियां बनवाएंगी ?
श्रीमती जी से सारी जानकारी लेने के बाद रोटी वाली ने कुछ शर्तो के साथ जवाब दिया-
'बारह रोटी का 17 सौ रूपया'
सुनकर श्रीमती जी चौंक गई.......
उन्होंने मन ही मन हिसाब लगाया तो उन्हें पता चला कि इस दर से तो वे पिछले 45 साल में 8-10 लाख रूपयों की सिर्फ रोटियां ही बेल चुकी हैं!
😂😂😂😂😂😂😂
जब कभी महिलाओं के श्रम का इतिहास लिखा जायेगा, एक बहुत बड़ा घोटाला उजागर होगा.....
😂😂😂😂😂😂

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

प्रेम

आँखे बन्द करके जो प्रेम करे वो प्रेमिका' है।
*आँखे खोल के जो प्रेम करे वो *'दोस्त' है।
*आँखे दिखाके जो प्रेम करे वो *'पत्नी'है।
*अपनी आँखे बंद होने तक जो प्रेम करे वो माँ है।
*आँखों में दिखावा न करते हुये जो प्रेम करे वो "पिता"है

शनिवार, 23 नवंबर 2019

हम बिना पौधा रोपे ही गड्ढे भर रहे हैं

सड़क किनारे दो मजदूर पौधा रोपण कर रहे थे। एक मजदूर गढ्ढे खोदे जा रहा था और दूसरा मजदूर बिना पौधा लगाए ही गढ्ढों को वापिस भरता जा रहा था। कौतूहलवश किसी राहगीर ने पूँछा - भाई यह क्या कर रहे हो ? मजदूरों का जबाब मिला - पौधा रोपण कर रहे हैं। राहगीर ने फिर पूंछा -किन्तु पौधे तो कहीं भी नजर नहीं आ रहे ?
पहले वाले मजदूर ने बताया-नगरनिगम ने सड़क किनारे पौधा रोपण की योजना चलाई है। ओवरसियर साहब ने इस साईट पर तीन मजदूरों को काम पर भेजा है । पौधा रोपण की जिम्मेदारी जिस मजदूर को दी गयी है , उसे आज बड़े साहब [चीफ इंजीनियर] की मेडम ने बंगले पर साफ़-सफाई के लिए बुलाया लिया है। मेरा काम सिर्फ गड्ढा खोदना है ,सो मैं खोदे जा रहा हूँ। मेरे इस दूसरे साथी का काम गड्ढे भरना है अतः बिना पौधा रोपे ही ये गड्ढे भरे जा रहा है। हम तीनों को जो अलग-अलग काम दिया गया है, यदि हम उसमें कुछ फेर-बदल करते हैं तो 'साहब लोग' हमें सस्सपेंड कर देंगे ! हम  

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

सड़क दुर्घटना में घायल का इलाज किसी बेहतर अस्पताल में सरकार की ओर से अवश्य होना चाहिये!

माननीय कमलनाथ जी,
लोकप्रिय-मुख्यमंत्री,मध्यप्रदेश
नमस्कार!
मान्यवर,
आपको भलीभाँति विदित है कि इन दिनों सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों/बुरी तरह घायल होने वालों की संख्या चरम पर है!आजकल तमाम सड़कों पर पशुओं का डेरा है ! यूपी की तरह ही हमारा मध्यप्रदेश भी सड़क दुर्घटनाओं की भयावह स्थिति में पहुँच चुका है!
यदि किसी शहर की सड़कों पर फुटपाथ नही है,तो इसके लिये सरकार और स्थानीय निकाय ही जिम्मेदार हैं!यदि कहीं फुटपाथ हैं भी तो वे अतिक्रमित हो चुके है,इस स्थिति के लिये प्रदेश की पूर्ववर्ती सरकारें जिम्मेदार हैं!पर्यावरण को ध्यान में रखकर आज कोई बंदा यदि सड़क पर पैदल चलना भी चाहे तो सवाल उठता है कि वह क्या करे कहाँ चले?
इन हालात् में मेरा विनम्र सुझाव है कि यदि कोई तेज गति वाहन पद यात्री को कुचल जाता है,तो फौरन दिवंगत के परिवार की मदद सरकार को करना चाहिये !दिवंगत के आश्रितों को मदद और सड़क दुर्घटना में घायल का 100% इलाज किसी बेहतर अस्पताल में सरकार की ओर से अवश्य होना चाहिये!
यह जबाबदेही भी तय की जाए कि फुटपाथ अतिक्रमण होने के लिये और फुटपाथ नही होने के लिये और सकरी सड़कों के लिये कौन कसूरवार है?
पुनश्च जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ,
आपका शुभेच्छु
श्रीराम तिवारी,इंदौर मध्यप्रदेश

आधी रातके बाद

बनी रहती है धूमधाम त्यौहारों की जब तब,
इस शहर में अक्सर आधी रात के बाद।
उगलते रहते हैं जहर फिजा में लगातार,
धूल धुअाँ धुंध वाहन गुजर जाने के बाद!!
लगा रहता सड़कों पर जाम शोर आवाजाही
 मानों हररोज आपातकाल,आधी रातके बाद!
नही सुनाई देता चीत्कार सत्ताके सरमायेदारों को,
आर्थिक संकट का रुदन लुटेरे भाग जाने के बाद!!
हो जातीं हैं कभी रेलगाडियाँ खुद ही बेपटरी,
मर जाते हैं सैकड़ों जन खुद आधी रात के बाद।
तरक्की तो खूब हुई है पूंजीपतियों अफसरों की,
आर्थिक असमानता खूब बढ़ी है आजादी के बाद !!
अनेक कुर्बानियों से मिल सकी थी ये आजादी,
खतरे में है सामाजिक समरसता खो जाने के बाद।
श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

मंदिर- मस्जिद नहीं बल्कि अच्छे और सस्ते अस्पताल माँगिये!

भारत में मंदिरों-मस्जिदों की कमी नही, हर इलाके में बेहतर अस्पताल और JNU जैसी यूनीवर्सिटीज चाहिये!
◆‬क्रिकेटर युवराजसिंह ने केन्सर का इलाज विदेश में कराया। मनीषा कोईराला ने भी विदेश में इलाज करवाया। सोनियाजी और स्व.सुषमा स्वराज भी विदेश में इलाज करवाती रहीं,स्व. अनंत कुमार ने विदेश में ही इलाज करवाया। वो बात अलग है कि वे असमय ही स्वर्ग सिधार गये!
◆गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री स्व.मनोहर पर्रिकर, हिन्दी फिल्मों के अभिनेता इरफान खान बीमार हुए और भारत मे पर्याप्त इलाज न होने के कारण विदेश गये।इनमें से एक हिंदू है दूसरा मुस्लिम,न मंदिर काम आया न मस्जिद.
◆भारत में न मन्दिरों की कमी है और न ही मस्जिदों की।
◆दुनिया के सबसे शक्तिशाली ईश्वर शायद भारत में ही होंगे, फिर ये लोग इलाज करवाने विदेश क्यों गये ?
◆जी हां... यह एक सच है कि शरीर में रोगों का इलाज विज्ञान द्वारा होता है, और भारत विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ा है वरना इन सभी को विदेश क्यों जाना पड़ता?
◆यदि हमें कोई क्रानिक या गंभीर बीमारी है तो सही इलाज और पैसे के अभाव में हमारा बेमौत मरना तय है, और बहाना होगा कि - ''समय पूरा हो गया''।
◆दरअसल अच्छे अस्पताल, अच्छे स्कूल, इनकी ओर वैज्ञानिक दृष्टिकोण, इनकी जरूरत आम आदमी को ज्यादा है। लेकिन यह पैसे वाले हमें मन्दिर मस्जिद में बाँटकर खुद विदेश चले जाते हैं।
◆अत: सभी राजनैतिक दल जब कभी वोट मांगने आएं तो आप अपने लिए मंदिर- मस्जिद नहीं बल्कि अच्छे और सस्ते अस्पताल माँगिये,JNU, IIT,AIMS जैसी यूनीवर्सीटीज और शैक्षणिक संस्थान मांगिये तथा शिद्दत से रोजगार भी माँगिए! 

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

कांग्रेस बनाम भाजपा

वैसे तो कांग्रेस ने पचास साल तक सिर्फ पैसे वालों,जमीन्दारों और रिश्वतखोरों को ज्यादा तवज्जो दी है। किन्तु यूपीए-1 के दौर में वाम के प्रभाव से कुछ गरीब परस्त काम भी किये गए थे!यदि आज आरटीआई,मनरेगा और मिड डे मील,पीड़ित किसानोंको बोनस सब्सिडी इत्यादि थोड़ा सा जो कुछ भी मिल रहा है तो उसका कुछ श्रेय वामपंथ को भी जाता है । लेकिंन मीडिया के साम्प्रदायिक दुष्प्रचार और मजहबपरस्तों की स्वार्थ लिप्सा ने आम बहस को अर्थनीति के बजाय अंधराराष्ट्रवाद की अँधेरी सुरंग में धकेल दिया है! सत्ता में आने के बाद कांग्रेस पार्टी-भाजपा जैसी साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी हो जाती है !और भाजपा भी सत्ता में आने के बाद काँग्रेस जैसी नकली धर्मनिर्पेक्ष और कार्पोरैट परस्त हो जाती है! सत्ता में आने के बाद दोनों में पहचान के लिये केवल झंडे का फर्क रह जाता है! दोनों को निहित सेवार्थ से आगे कुछ भी नजर नही आता ! वामपंथ को बेहतर विकल्प बनाना जनता की प्राथमिक चेष्टा होना चाहिये! 

कश्मीरी हिंदुओंकी व्यथा कथा ..

आस्ट्रिया में एक मामूली 'ड्यूक' पर हमला होने पर 'प्रथम विश्व' युद्ध हो गया! नाजियों ने जब यहूदियों पर हमला किया तो सेकंड वर्ल्ड वार हो गया! किंतु अकेले कश्मीर में ही विगत 50 सालों में लाखों कश्मीरी हिंदू मार दिये गये,लड़कियों का जबरन धर्मांतरण किया गया,जो धर्मांतरण के लिये तैयार नही हुईं उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया!
ताजुब्ब है कि इतने व्यापक कत्लेआम पर दुनिया के किसी भी देश ने सांत्वना के दो शब्द भी नही कहे!दुनिया की कौन कहे,यहाँ भारत में ही किसी को धारा 370 -से आतंकवाद खत्म होता दिख रहा है,किसी को पत्थरबाज मुश्टंडे देवदूत नजर आ रहे हैं और किसी को यह शिकायत है कि इंटरनैट सर्विस उपलब्ध नही है!किंतु भारत समेत दुनिया में मारे मारे फिर रहे कश्मीरी हिंदुओंकी व्यथा कथा पर  अभी तक वर्तमान या पूर्ववर्ती किसी सरकार ने कभी कुछ नही किया!चारों ओर चुप्पी क्यों ?

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

श्रीरामजन्मभूमि संघर्ष गाथा...सुप्रीम कोर्ट का निर्णय शानदार...


श्रीरामजन्मभूमि मामले में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें समस्त वाद-संवाद और तर्क-वितर्क वर्ष 1990 तक पूर्ण हो चुका था। उसमें कुछ नया जोड़ने की गुंजाइश नहीं रह गई थी। किंतु समाधान की राह में मनोवैज्ञानिक बाधाएं थीं। इस मसले के राजनीतिकरण से इसके निराकरण में विलम्ब ही हुआ। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण मुख्यतया विश्व हिन्दू परिषद का एजेंडा था, जिस पर वह वर्ष 1966 से ही निरंतर काम कर रही थी। वर्ष 1989 में जाकर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनावी एजेंडा स्वीकारा। रथयात्रा, कारसेवा, बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों से हालात जटिल हो गए। सर्वोच्च न्यायालय जैसी निष्पक्ष एजेंसी ही इसका समाधान कर सकती थी।
आज जब श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया गया है तो सभी को यह मालूम होना चाहिए कि जब मोदी-शाह तो दूर, अटल-आडवाणी भी तस्वीर में नहीं थे, तब दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का एक समूह इस मसले पर अथक परिश्रम करके संघर्ष कर रहा था। यह सर्वथा अनुचित होगा कि आज के दिन उन्हें याद न किया जाए। मैं सुबह से खोज रहा हूं कि कोई तो इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अरुण शौरी का नाम ले, लेकिन मुझको तो देखने में नहीं आया। कम ही लोगों को अनुमान होगा कि वर्ष 1986 से 1990 तक, यानी भारतीय जनता पार्टी द्वारा एक राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन में परिवर्तित कर दिए जाने तक, श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर वामपंथी और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से संघर्ष में दक्षिणपंथियों की ओर से जो बौद्धिक उनका प्रतिकार कर रहे थे, उनका नेतृत्व अरुण शौरी कर रहे थे। शौरी उस समय इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर-इन-चीफ़ थे, और वे इस विवाद को राष्ट्रीय-विमर्श की मुख्यधारा में ले आए थे। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के बौद्धिक जगत की अभूतपूर्व घटना थी। मुख्यधारा के अंग्रेज़ी मीडिया ने इससे पहले कभी हिंदुओं के पक्ष को इस तरह से देश के सामने नहीं रखा था।
इस बौद्धिक संघर्ष में एक तरफ़ थे सैयद शहाबुद्दीन, रोमिला थापर, बिपन चंद्र और एस. गोपाल तो दूसरी तरफ़ थे अरुण शौरी, राम स्वरूप, सीता राम गोयल, हर्ष नारायण, आभास कुमार चटर्जी और एक बेल्जियम बुद्धिजीवी कोएनराड एल्ष्ट। श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर होने वाला कोई भी निर्णय इन व्यक्तियों के नामोल्लेख के बिना पूर्णता अर्जित नहीं कर सकता।
इस मामले में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कर रहे सैयद शहाबुद्दीन का तर्क स्पष्ट था। शहाबुद्दीन के मतानुसार इस बात में किसी को विवाद नहीं है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ और यह उनकी नगरी थी। प्रश्न केवल इस बात का है कि क्या उनका जन्म ठीक उसी जगह पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी है। और अगर हां, तो इसके ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किए जाएं। यह एक कठिन चुनौती थी। वर्ष 1528 में मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था। वही स्थान रामजन्मभूमि था, यह लोकभावना में न्यस्त था। किंतु इसका ऐतिहासिक प्रमाण जुटाना दूभर था। अरुण शौरी एंड कम्पनी ने इसी दुष्कर कार्य को करने का बीड़ा उठाया और शोधपरक लेखों की एक शृंखला "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित करवाई। बाद में वे सारे लेख "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में अप्रैल, 1990 में प्रकाशित हुए। दूसरे शब्दों में, जब 6 दिसम्बर 1992 का बाबरी विध्वंस अभी पूरे ढाई साल दूर था, तभी इस विवाद में सभी वैध तथ्य और तर्क सिलसिलेवार प्रस्तुत किए जा चुके थे।
वाम-दक्षिण के इस अभूतपूर्व बौद्धिक संग्राम का आरम्भ वर्ष 1986 में तब हुआ, जब रोमिला थापर के नेतृत्व में वामपंथी बौद्धिकों द्वारा "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया" में एक पत्र प्रकाशित करवाकर आरोप लगाया गया कि अख़बार द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। तब अरुण शौरी "टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के प्रधान सम्पादक थे। रोमिला थापर के प्रतिकार में सीता राम गोयल ने एक पत्र लिखा, जिसका प्रकाशन टाइम्स ऑफ़ इंडिया के द्वारा नहीं किया गया। तदुपरान्त अरुण शौरी के स्थान पर दिलीप पडगांवकर प्रधान सम्पादक बना दिए गए। अरुण शौरी ने "इंडियन एक्सप्रेस" के एडिटर-इन-चीफ़ का पदभार सम्भाला और वामपंथी बुद्धिजीवियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।
5 फ़रवरी 1989 को अरुण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि लखनऊ के "नदवातुल-उलामा" के कुलाधिसचिव द्वारा अरबी में लिखी गई एक पुस्तक में यह कहा गया है कि भारत में ऐसी अनेक मस्जिदें हैं, जिनका निर्माण पूर्व में उस स्थान पर मौजूद हिंदू मंदिरों का ध्वंस करके किया गया था। उस समय सीता राम गोयल इसी विषय पर शोध कर रहे थे। उन्होंने अरुण शौरी से इंडियन एक्सप्रेस में लिखने का आग्रह किया और शौरी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। तब 19 फ़रवरी, 16 अप्रैल और 21 मई को सीता राम गोयल के लेखों की एक शृंखला इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई।
दक्षिणपंथी बौद्धिकों के द्वारा उस समय तक श्रीरामजन्मभूमि के सम्बंध में जो सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किया जाता था, वह ब्रिटिश राज के द्वारा प्रकाशित किया गया "डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटियर फ़ैज़ाबाद" था। यह गैज़ेटियर स्पष्ट शब्दों में कहता था कि आज जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद खड़ी है, वहां इससे पूर्व एक रामजन्मस्थान मंदिर था। सैयद शहाबुद्दीन ने इस गैज़ेटियर के तथ्यों को यह कहकर निरस्त कर दिया कि यह अंग्रेज़ों के द्वारा फैलाया गया झूठ था, क्योंकि वे अवध के नवाब और हिंदू प्रजा के बीच वैमनस्य पैदा करना चाहते थे।
तब, 26 फ़रवरी 1990 को इंडियन एक्सप्रेस में हर्ष नारायण का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने तीन अधिकृत मुस्लिम स्रोतों का उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि रामजन्मभूमि पर ही बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। हर्ष नारायण ने अपने लेख में 30 नवम्बर 1858 को बाबरी मस्जिद के मुअज़्ज़िन मुहम्मद असग़र के द्वारा लिखे गए एक प्रार्थना पत्र का उल्लेख किया, जिसमें स्वयं असग़र ने बाबरी मस्जिद को "मस्जिद-ए-जन्मस्थान" कहकर सम्बोधित किया था।
रामजन्मभूमि के पक्ष में तीसरा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य आभास कुमार चटर्जी ने प्रस्तुत किया। 27 मार्च 1990 को "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर नामक एक ऑस्ट्रियन जेसुइट प्रीस्ट की एक रिपोर्ट का ब्योरा दिया। यह रिपोर्ट वर्ष 1766 से 1771 के दौरान लिखी गई थी और वर्ष 1786 में फ्रांसीसी इतिहासकार जोसेफ़ बेर्नोउल्ली की पुस्तक में प्रकाशित हुई थी। इसमें वर्णन था कि मुग़लों ने अयोध्या के रामकोट नामक दुर्ग का विध्वंस करके वहां बाबरी मस्जिद बनवाई थी और मस्जिद के निर्माण में मंदिर के ध्वंस से प्राप्त सामग्री का ही इस्तेमाल किया गया था, जिनमें से कुछ स्तम्भों को आज भी देखा जा सकता है।
सैयद शहाबुद्दीन ने इससे पूर्व कहा था कि इस्लाम में किसी मस्जिद का निर्माण दूसरों के उपासनास्थल पर करना हराम माना गया है और अगर किसी पूर्व-ब्रिटिश ऐतिहासिक स्रोत से यह सिद्ध कर दिया जाए कि बाबरी मस्जिद का निर्माण रामजन्मभूमि पर किया गया था तो वे स्वयं अपने हाथों से उस मस्जिद को ढहा देंगे। तब आभास कुमार चटर्जी ने कटाक्ष करते हुए सैयद शहाबुद्दीन से कहा कि जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर की रिपोर्ट पर उनका क्या कहना है। इसके बाद चटर्जी और शहाबुद्दीन के बीच तीखी बहस पत्रों के एक लम्बे सिलसिले के रूप में हुई, जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया।
आभास कुमार चटर्जी का मत था कि अयोध्या में रामजन्मस्थान मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं सदी में किया गया था। 12 मई 1990 को इसका प्रतिकार करते हुए सैयद शहाबुद्दीन एक ऐसी बात कह बैठे, जिसे "आत्मघाती गोल" की संज्ञा दी जा सकती है। शहाबुद्दीन ने कहा- अगर अयोध्या में मंदिर ग्यारहवीं सदी में बनाया गया था तो वह 1528 तक सुरक्षित कैसे रहा? वर्ष 1194 में अयोध्या पर अफ़गानों ने धावा बोल दिया था। उसे तभी क्यों नहीं गिरा दिया गया? इसके प्रत्युत्तर में आभास कुमार चटर्जी ने चुटकी ली कि सैयद साहब, यह तो आप भी मान रहे हैं कि मुस्लिम आक्रांता तत्परतापूर्वक हिंदू मंदिरों का विध्वंस करते थे और आपको आश्चर्य हो रहा है कि रामजन्मभूमि मंदिर 350 वर्षों तक सुरक्षित कैसे रहा?
यह पूरी सिलसिलेवार बहस अप्रैल 1990 में प्रकाशित पुस्तक "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" में सुरक्षित है। यह पुस्तक उपलब्ध है और पढ़ी जा सकती है। आप मान सकते हैं कि अगर यह मामला उसी साल अदालत में चला गया होता तो इस पर वही निर्णय लिया जाता, जो आज लिया गया है। निर्णय में अगर 30 वर्षों की देरी हुई तो इसके पीछे इस मामले का राजनीतिकरण है। जब कोई मामला जनभावना से जुड़कर राजनीतिक पूंजी बन जाता है और अत्यंत विस्फोटक और संवेदनशील रुख़ अख़्तियार कर लेता है तो उसके सम्बंध में लिए जाने वाले निर्णय में अनिवार्यत: विलम्ब होता ही है।
इन अर्थों में 9 नवम्बर 2019 के सर्वोच्च अदालत के ऐतिहासिक निर्णय की नज़ीर यह है कि मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक महत्व के मसलों, जिनके पीछे हठ, विद्वेष और आक्रोश की भावना हो, का निराकरण राजनीतिक दलों के बजाय न्यायपालिका जैसी तटस्थ एजेंसियों के द्वारा अगर सटीक ऐतिहासिक तथ्यों और उनसे निर्मित सुसंगत तर्कों के आधार पर किया जाए तो यह समाधान का सबसे श्रेयस्कर उपाय है। भावनात्मक मुद्दों का राजनीतिकरण करने का अर्थ है, उन्हें एक असमाप्त विवाद बना देना, और उनके निराकरण की आशा को तिलांजलि दे देना।
इसमें संदेह नहीं है कि भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं में एक लम्बे समय से आक्रोश की यह भावना न्यस्त रही है कि उनके साथ न्याय नहीं किया गया और वे अपने ही देश में छले गए। इसका मूल धार्मिक आधार पर हुए भारत-विभाजन में था। हिंदुओं का मत था कि भारत-विभाजन और पाकिस्तान-निर्माण के बाद भारतीय मुस्लिमों को कश्मीर और अयोध्या जैसे मसलों पर हठ का त्याग कर देना चाहिए था। कहना न होगा कि मुख्यधारा की बौद्धिकता ने इस आक्रोश के कारणों को समझने का उतना सदाशय प्रयास नहीं किया, जितना कि किया जाना चाहिए था। इसके परिणामस्वरूप ही हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति का उदय हुआ, जो केंद्र में लगातार दो बार बहुमत से चुनाव जीतकर अब यथास्थिति बन चुकी है। सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाला वैमनस्य भी इसी का परिणाम है।
आशा की जानी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत ने आज जो निर्णय सुनाया है, वह हिंदू मानस में व्याप्त आक्रोश और विद्वेष को शांत और तुष्ट करने में सफल रहेगा। इसके बाद बहुसंख्यकों का भी यह दायित्व है कि अपने कार्य-व्यवहार और वाणी-आचरण से सदाशयता, करुणा, सौहार्द और विनम्रता का परिचय देवें और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक दृष्टि रखें। साथ ही वे इस बात को स्वीकार करें कि तमाम वैध निर्णय निष्पक्षता के साथ ऐतिहासिक तथ्यों के विवेचन से ही लिए जा सकते हैं, राजनीतिक आक्रोश और विद्वेष की शब्दावली के माध्यम से नहीं।
पहले 5 अगस्त को धारा 370 और फिर 9 नवम्बर को सुप्रीमकोर्ट द्वारा अयोध्या पर लिए सर्वसम्मत से लिये गए ऐतिहासिक निर्णयों के बाद अब भारत-देशके बहुसंख्यक वर्ग के लिए बड़प्पन दिखाने का समय आ गया है। अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर बने और दुनिया की बेमिसाल मस्जिद भी! यह संकल्प न केवल अयोध्या के लिये,न केवल गंगा-जमुनी तहजीब के लिये और भारत की ही नही बल्कि भगवान श्रीराम के आदर्शोंपर चलने के लिये जनकल्याणकारी मार्ग प्रसस्त करेगा!

वामपंथी होने का मतलब !

1. वामपंथी इतिहासकार और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर धनेश्वर मंडल ने कोर्ट के आगे ये कबूला कि बाबरी ढांचे की जगह खुदाई का वर्णन करती उनकी पुस्तक दरअसल उन्होंने बिना अयोध्या गए ही लिख दी थी।
2. वामपंथी इतिहासकार सुशील श्रीवास्तव ने जज के आगे कबूला कि प्रमाण के तौर पर पेश की गई उनकी किताब में संदर्भ के तौर पर दिए पुस्तकों का उल्लेख उन्होंने बिना पढ़े ही कर दिया है।
3. जेएनयू की इतिहास प्रोफ़ेसर सुप्रिया वर्मा ने ये माना कि उन्होंने खुदाई से जुड़ी रेडार सर्वे की रिपोर्ट को पढ़े बगैर ही रिपोर्ट के गलत होने की गवाही दे दी थी।
4. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की प्रोफ़ेसर जया मेनन ने ये स्वीकारा कि वो तो खुदाई स्थल पर गई ही नहीं थीं, लेकिन ये गवाही दे दी कि मंदिर के खंभे बाद में वहां रखे गए थे।
5. एक्सपर्ट के तौर पर उपस्थित वामपंथी सुवीरा जायसवाल जब क्रॉस एग्जामिनेशन में पकड़ी गईं, तब माना कि उन्हें राम जन्मभूमि बाबरी मुद्दे पर कोई एक्सपर्ट ज्ञान नहीं है। जो भी जानकारी है वो सिर्फ अखबारी खबरों के आधार पर है।
6. वामपंथी आर्कियोलॉजिस्ट शीरीन रत्नाकर ने सवाल-जवाब में ये स्वीकार किया कि दरअसल उन्हें बाबरी मसले से जुड़ी कोई “फील्ड-नॉलेज” है ही नहीं।
7. “एक्सपर्ट” प्रोफ़ेसर धनेश्वर मंडल ने ये भी माना था कि “मुझे बाबर के विषय में इसके अलावा कि वो सोलहवीं सदी का एक शासक था और कुछ नहीं पता है। जज ने ये सुन कर कहा था कि इनके ये बयान विषय के बारे में इनके छिछले ज्ञान को दर्शाते हैं।
8. वामपंथी सूरजभान मध्यकालीन इतिहासकार के तौर पर गवाही दे रहे थे पर क्रॉस एग्जामिनेशन में ये तथ्य सामने आया कि वे तो इतिहासकार थे ही नहीं, सिर्फ पुरातत्ववेत्ता थे।
9. सूरजभान ने ये भी स्वीकारा कि डीएन झा और आरएस शर्मा के साथ लिखी उनकी पुस्तिका “हिस्टोरियंस रिपोर्ट टू द नेशन” दरअसल खुदाई की रिपोर्ट पढ़े बिना ही (मंदिर संबंधी प्रमाणों को झुठलाने के दबाव में) सिर्फ छह हफ्ते में ही लिख दी गई थी।
10. वामपंथी शीरीन मौसवी ने क्रॉस एग्जामिनेशन में खुद कबूला है कि उन्होंने झूठ कहा था कि राम जन्मस्थली का ज़िक्र मध्यकालीन इतिहास में है ही नहीं।
ऐसे दृष्टान्तों की लिस्ट और लंबी है, पर विडंबना तो ये है कि लाज-हया को ताक पर रख कर वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर ने इन्हीं फरेबी वामपंथी इतिहासकारों और अन्य वामपंथियों का नेतृत्व करते हुए उच्च न्यायालय के इसी फैसले के खिलाफ लंबे-लंबे पर्चे भी लिख डाले, वामपंथी होने की प्रथम शर्त यह कतई नहीं कि असत्याचरण किया जाए ! 

प्राच्य 'अध्यात्म दर्शन' मनुष्य का अंतिम ब्रह्मास्त्र है!

वास्तव में ईश्वर,GOD,अल्लाह सिर्फ वैसा ही नही होता,जैसा किसी खास बुद्धि की कल्पना में होता है ! अपितु ईश्वर कुछ न होते हुए भी सब कुछ हो सकता है!वह सिर्फ हमारे बौद्धिक चेतना पटल पर आभासी इमेज मात्र नही है!बल्कि वही ऋग्वेद का 'ऋत'है, वही जेंदावस्ता का 'अहूरमज्दा' है, वही लाओत्से का 'ताओ' है, वही डार्विन का 'Order of Universe' है! वह गुरू नानक देव के 'हुक्म रजाई चालण' का् सूत्रधार धार है! वह मानवीय भौतिक एवं आधिभौतिक चेतना,समय,त्रिगुणात्मक प्रकृति और मृत्यू से परे है! जो इसे मानते हैं, उनके लिये तो वह अवश्य है और जो नही मानते ,उनके लिये बिल्कुल नही है! वैसे धरती पर इंसान ने ही उसको मूर्तन रूप दिया है,इसलिये मनुष्य को ईश्वर का स्रजनहार भी कहा जा सकता है! वेशक ईश्वर के बिना अध्यात्म विद्या संभव नही है और अध्यात्म विद्या के बिना मनुष्य काे परम शांति कभी नही मिल सकती ! यदि कदाचित किसी खास क्रांति के द्वारा आर्थिक,सामाजिक,असमानता मिटा भी दी जाय,तब भी मन की शांति के लिये ,ह्र्दय की आनंदानुभूति के लिये प्राच्य 'अध्यात्म दर्शन' मनुष्य का अंतिम ब्रह्मास्त्र है!अत: ईश्वरीय अस्तित्व पर बहस निर्थक है!

माना कि अंधेरा घना है! *किंतु ....

मोदी जी ने अपने भाषण के दौरान कहा- कि "गुरुनानक जी,बाबा गोरखनाथ और संत कबीर साथ बैठकर धर्म पर चर्चा किया करते थे।"
*अब सच्चाई यह है कि बाबा गोरखनाथ का जन्म 10 वी शताब्दी में,संत कबीर का जन्म 1398 में और गुरुनानक का जन्म 1469 में हुआ तो फिर तीनों एक साथ कैसे बैठ गये?
*माना कि अंधेरा घना है!
*किंतु फेंकना कहाँ मना है?
*गनीमत है कि उन्होंने यह नही कहा कि 'इन तीनो को चाय मैंने ही पिलाई थी।'👇👇😂😂

सोमवार, 11 नवंबर 2019

दीपक ने कहा - "मै हूं ना".....

जैसे जैसे मेरी उम्र में वृद्धि होती गई, मुझे समझ आती गई कि अगर मैं Rs. 3000 की घड़ी पहनूं या Rs. 30000 की, दोनों समय एक जैसा ही बताएंगी।
मेरे पास Rs. 3000 का बैग हो या Rs. 30000 का, इसके अंदर के सामान में कोई परिवर्तन नहीं होंगा।
मैं 300 गज के मकान में रहूं या 3000 गज के मकान में, तन्हाई का एहसास एक जैसा ही होगा।
आख़िर में मुझे यह भी पता चला कि यदि मैं बिजनेस क्लास में यात्रा करूं या इक्नामी क्लास में, अपनी मंजिल पर उसी नियत समय पर ही पहुँचूँगा।
इसीलिए, अपने बच्चों को बहुत ज्यादा अमीर होने के लिए प्रोत्साहित मत करो बल्कि उन्हें यह सिखाओ कि वे खुश कैसे रह सकते हैं और जब बड़े हों, तो चीजों के महत्व को देखें, उसकी कीमत को नहीं।
फ्रांस के एक वाणिज्य मंत्री का कहना था -
ब्रांडेड चीजें व्यापारिक दुनिया का सबसे बड़ा झूठ होती हैं, जिनका असल उद्देश्य तो अमीरों की जेब से पैसा निकालना होता है, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग लोग इससे बहुत ज्यादा प्रभावित होते हैं।
क्या यह आवश्यक है कि मैं Iphone लेकर चलूं फिरू, ताकि लोग मुझे बुद्धिमान और समझदार मानें??
क्या यह आवश्यक है कि मैं रोजाना Mac'd या KFC में खाऊँ ताकि लोग यह न समझें कि मैं कंजूस हूँ??
क्या यह आवश्यक है कि मैं प्रतिदिन Friends के साथ उठक-बैठक Downtown Cafe पर जाकर लगाया करूँ, ताकि लोग यह समझें कि मैं एक रईस परिवार से हूँ??
क्या यह आवश्यक है कि मैं Gucci, Lacoste, Adidas या Nike का ही पहनूं ताकि High Status वाला कहलाया जाऊँ??
क्या यह आवश्यक है कि मैं अपनी हर बात में दो चार अंग्रेजी शब्द शामिल करूँ ताकि सभ्य कहलाऊं??
क्या यह आवश्यक है कि मैं Adele या Rihanna को सुनूँ ताकि साबित कर सकूँ कि मैं विकसित हो चुका हूँ??
नहीं दोस्तों !!!
मेरे कपड़े तो आम दुकानों से खरीदे हुए होते हैं।
Friends के साथ किसी ढाबे पर भी बैठ जाता हूँ।
भुख लगे तो किसी ठेले से ले कर खाने में भी कोई अपमान नहीं समझता।
अपनी सीधी सादी भाषा मे बोलता हूँ।
चाहूँ तो वह सब कर सकता हूँ जो ऊपर लिखा है।
लेकिन,
मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं जो एक Branded जूतों की जोड़ी की कीमत में पूरे सप्ताह भर का राशन ले सकते हैं।
मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं जो मेरे एक Mac'd के बर्गर की कीमत में सारे घर का खाना बना सकते हैं।
बस मैंने यहाँ यह रहस्य पाया है कि बहुत सारा पैसा ही सब कुछ नहीं है, जो लोग किसी की बाहरी हालत से उसकी कीमत लगाते हैं, वह तुरंत अपना इलाज करवाएं।
मानव मूल की असली कीमत उसकी नैतिकता, व्यवहार, मेलजोल का तरीका, सहानुभूति और भाईचारा है, ना कि उसकी मौजुदा शक्ल और सूरत।
सूर्यास्त के समय एक बार सूर्य ने सबसे पूछा, मेरी अनुपस्थिति में मेरी जगह कौन कार्य करेगा??
समस्त विश्व मे सन्नाटा छा गया। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तभी कोने से एक आवाज आई।
दीपक ने कहा - "मै हूं ना" मैं अपना पूरा प्रयास करुंगा।
आपकी सोच में ताकत और चमक होनी चाहिए। छोटा-बड़ा होने से फर्क नहीं पड़ता, सोच बड़ी होनी चाहिए। मन के भीतर एक दीप जलाएं और सदा मुस्कुराते रहो !

श्री रामजन्मभूमि संघर्ष गाथा...


श्रीरामजन्मभूमि मामले में सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसमें समस्त वाद-संवाद और तर्क-वितर्क वर्ष 1990 तक पूर्ण हो चुका था। उसमें कुछ नया जोड़ने की गुंजाइश नहीं रह गई थी। किंतु समाधान की राह में मनोवैज्ञानिक बाधाएं थीं। इस मसले के राजनीतिकरण से इसके निराकरण में विलम्ब ही हुआ। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण मुख्यतया विश्व हिन्दू परिषद का एजेंडा था, जिस पर वह वर्ष 1966 से ही निरंतर काम कर रही थी। वर्ष 1989 में जाकर भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना चुनावी एजेंडा स्वीकारा। रथयात्रा, कारसेवा, बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों से हालात जटिल हो गए। सर्वोच्च न्यायालय जैसी निष्पक्ष एजेंसी ही इसका समाधान कर सकती थी।
आज जब श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर ऐतिहासिक निर्णय सुनाया गया है तो सभी को यह मालूम होना चाहिए कि जब मोदी-शाह तो दूर, अटल-आडवाणी भी तस्वीर में नहीं थे, तब दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों का एक समूह इस मसले पर अथक परिश्रम करके संघर्ष कर रहा था। यह सर्वथा अनुचित होगा कि आज के दिन उन्हें याद न किया जाए। मैं सुबह से खोज रहा हूं कि कोई तो इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में अरुण शौरी का नाम ले, लेकिन मुझको तो देखने में नहीं आया। कम ही लोगों को अनुमान होगा कि वर्ष 1986 से 1990 तक, यानी भारतीय जनता पार्टी द्वारा एक राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन में परिवर्तित कर दिए जाने तक, श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर वामपंथी और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से संघर्ष में दक्षिणपंथियों की ओर से जो बौद्धिक उनका प्रतिकार कर रहे थे, उनका नेतृत्व अरुण शौरी कर रहे थे। शौरी उस समय इंडियन एक्सप्रेस के एडिटर-इन-चीफ़ थे, और वे इस विवाद को राष्ट्रीय-विमर्श की मुख्यधारा में ले आए थे। यह स्वातंत्र्योत्तर भारत के बौद्धिक जगत की अभूतपूर्व घटना थी। मुख्यधारा के अंग्रेज़ी मीडिया ने इससे पहले कभी हिंदुओं के पक्ष को इस तरह से देश के सामने नहीं रखा था।
इस बौद्धिक संघर्ष में एक तरफ़ थे सैयद शहाबुद्दीन, रोमिला थापर, बिपन चंद्र और एस. गोपाल तो दूसरी तरफ़ थे अरुण शौरी, राम स्वरूप, सीता राम गोयल, हर्ष नारायण, आभास कुमार चटर्जी और एक बेल्जियम बुद्धिजीवी कोएनराड एल्ष्ट। श्रीरामजन्मभूमि विवाद पर होने वाला कोई भी निर्णय इन व्यक्तियों के नामोल्लेख के बिना पूर्णता अर्जित नहीं कर सकता।
इस मामले में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कर रहे सैयद शहाबुद्दीन का तर्क स्पष्ट था। शहाबुद्दीन के मतानुसार इस बात में किसी को विवाद नहीं है कि श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ और यह उनकी नगरी थी। प्रश्न केवल इस बात का है कि क्या उनका जन्म ठीक उसी जगह पर हुआ था, जहां बाबरी मस्जिद खड़ी है। और अगर हां, तो इसके ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किए जाएं। यह एक कठिन चुनौती थी। वर्ष 1528 में मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद का निर्माण करवाया था। वही स्थान रामजन्मभूमि था, यह लोकभावना में न्यस्त था। किंतु इसका ऐतिहासिक प्रमाण जुटाना दूभर था। अरुण शौरी एंड कम्पनी ने इसी दुष्कर कार्य को करने का बीड़ा उठाया और शोधपरक लेखों की एक शृंखला "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित करवाई। बाद में वे सारे लेख "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" शीर्षक से एक पुस्तक के रूप में अप्रैल, 1990 में प्रकाशित हुए। दूसरे शब्दों में, जब 6 दिसम्बर 1992 का बाबरी विध्वंस अभी पूरे ढाई साल दूर था, तभी इस विवाद में सभी वैध तथ्य और तर्क सिलसिलेवार प्रस्तुत किए जा चुके थे।
वाम-दक्षिण के इस अभूतपूर्व बौद्धिक संग्राम का आरम्भ वर्ष 1986 में तब हुआ, जब रोमिला थापर के नेतृत्व में वामपंथी बौद्धिकों द्वारा "द टाइम्स ऑफ़ इंडिया" में एक पत्र प्रकाशित करवाकर आरोप लगाया गया कि अख़बार द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों को साम्प्रदायिक रंग दिया जा रहा है। तब अरुण शौरी "टाइम्स ऑफ़ इंडिया" के प्रधान सम्पादक थे। रोमिला थापर के प्रतिकार में सीता राम गोयल ने एक पत्र लिखा, जिसका प्रकाशन टाइम्स ऑफ़ इंडिया के द्वारा नहीं किया गया। तदुपरान्त अरुण शौरी के स्थान पर दिलीप पडगांवकर प्रधान सम्पादक बना दिए गए। अरुण शौरी ने "इंडियन एक्सप्रेस" के एडिटर-इन-चीफ़ का पदभार सम्भाला और वामपंथी बुद्धिजीवियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।
5 फ़रवरी 1989 को अरुण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि लखनऊ के "नदवातुल-उलामा" के कुलाधिसचिव द्वारा अरबी में लिखी गई एक पुस्तक में यह कहा गया है कि भारत में ऐसी अनेक मस्जिदें हैं, जिनका निर्माण पूर्व में उस स्थान पर मौजूद हिंदू मंदिरों का ध्वंस करके किया गया था। उस समय सीता राम गोयल इसी विषय पर शोध कर रहे थे। उन्होंने अरुण शौरी से इंडियन एक्सप्रेस में लिखने का आग्रह किया और शौरी ने इसे सहर्ष स्वीकार किया। तब 19 फ़रवरी, 16 अप्रैल और 21 मई को सीता राम गोयल के लेखों की एक शृंखला इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई।
दक्षिणपंथी बौद्धिकों के द्वारा उस समय तक श्रीरामजन्मभूमि के सम्बंध में जो सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत किया जाता था, वह ब्रिटिश राज के द्वारा प्रकाशित किया गया "डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटियर फ़ैज़ाबाद" था। यह गैज़ेटियर स्पष्ट शब्दों में कहता था कि आज जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद खड़ी है, वहां इससे पूर्व एक रामजन्मस्थान मंदिर था। सैयद शहाबुद्दीन ने इस गैज़ेटियर के तथ्यों को यह कहकर निरस्त कर दिया कि यह अंग्रेज़ों के द्वारा फैलाया गया झूठ था, क्योंकि वे अवध के नवाब और हिंदू प्रजा के बीच वैमनस्य पैदा करना चाहते थे।
तब, 26 फ़रवरी 1990 को इंडियन एक्सप्रेस में हर्ष नारायण का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने तीन अधिकृत मुस्लिम स्रोतों का उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि रामजन्मभूमि पर ही बाबरी मस्जिद बनाई गई थी। हर्ष नारायण ने अपने लेख में 30 नवम्बर 1858 को बाबरी मस्जिद के मुअज़्ज़िन मुहम्मद असग़र के द्वारा लिखे गए एक प्रार्थना पत्र का उल्लेख किया, जिसमें स्वयं असग़र ने बाबरी मस्जिद को "मस्जिद-ए-जन्मस्थान" कहकर सम्बोधित किया था।
रामजन्मभूमि के पक्ष में तीसरा महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य आभास कुमार चटर्जी ने प्रस्तुत किया। 27 मार्च 1990 को "इंडियन एक्सप्रेस" में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर नामक एक ऑस्ट्रियन जेसुइट प्रीस्ट की एक रिपोर्ट का ब्योरा दिया। यह रिपोर्ट वर्ष 1766 से 1771 के दौरान लिखी गई थी और वर्ष 1786 में फ्रांसीसी इतिहासकार जोसेफ़ बेर्नोउल्ली की पुस्तक में प्रकाशित हुई थी। इसमें वर्णन था कि मुग़लों ने अयोध्या के रामकोट नामक दुर्ग का विध्वंस करके वहां बाबरी मस्जिद बनवाई थी और मस्जिद के निर्माण में मंदिर के ध्वंस से प्राप्त सामग्री का ही इस्तेमाल किया गया था, जिनमें से कुछ स्तम्भों को आज भी देखा जा सकता है।
सैयद शहाबुद्दीन ने इससे पूर्व कहा था कि इस्लाम में किसी मस्जिद का निर्माण दूसरों के उपासनास्थल पर करना हराम माना गया है और अगर किसी पूर्व-ब्रिटिश ऐतिहासिक स्रोत से यह सिद्ध कर दिया जाए कि बाबरी मस्जिद का निर्माण रामजन्मभूमि पर किया गया था तो वे स्वयं अपने हाथों से उस मस्जिद को ढहा देंगे। तब आभास कुमार चटर्जी ने कटाक्ष करते हुए सैयद शहाबुद्दीन से कहा कि जोसेफ़ टीफ़ेनथेलर की रिपोर्ट पर उनका क्या कहना है। इसके बाद चटर्जी और शहाबुद्दीन के बीच तीखी बहस पत्रों के एक लम्बे सिलसिले के रूप में हुई, जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया।
आभास कुमार चटर्जी का मत था कि अयोध्या में रामजन्मस्थान मंदिर का निर्माण ग्यारहवीं सदी में किया गया था। 12 मई 1990 को इसका प्रतिकार करते हुए सैयद शहाबुद्दीन एक ऐसी बात कह बैठे, जिसे "आत्मघाती गोल" की संज्ञा दी जा सकती है। शहाबुद्दीन ने कहा- अगर अयोध्या में मंदिर ग्यारहवीं सदी में बनाया गया था तो वह 1528 तक सुरक्षित कैसे रहा? वर्ष 1194 में अयोध्या पर अफ़गानों ने धावा बोल दिया था। उसे तभी क्यों नहीं गिरा दिया गया? इसके प्रत्युत्तर में आभास कुमार चटर्जी ने चुटकी ली कि सैयद साहब, यह तो आप भी मान रहे हैं कि मुस्लिम आक्रांता तत्परतापूर्वक हिंदू मंदिरों का विध्वंस करते थे और आपको आश्चर्य हो रहा है कि रामजन्मभूमि मंदिर 350 वर्षों तक सुरक्षित कैसे रहा?
यह पूरी सिलसिलेवार बहस अप्रैल 1990 में प्रकाशित पुस्तक "हिन्दू टेम्पल्स : वॉट हैप्पण्ड टु देम : अ प्रीलिमनरी सर्वे" में सुरक्षित है। यह पुस्तक उपलब्ध है और पढ़ी जा सकती है। आप मान सकते हैं कि अगर यह मामला उसी साल अदालत में चला गया होता तो इस पर वही निर्णय लिया जाता, जो आज लिया गया है। निर्णय में अगर 30 वर्षों की देरी हुई तो इसके पीछे इस मामले का राजनीतिकरण है। जब कोई मामला जनभावना से जुड़कर राजनीतिक पूंजी बन जाता है और अत्यंत विस्फोटक और संवेदनशील रुख़ अख़्तियार कर लेता है तो उसके सम्बंध में लिए जाने वाले निर्णय में अनिवार्यत: विलम्ब होता ही है।
इन अर्थों में 9 नवम्बर 2019 के सर्वोच्च अदालत के ऐतिहासिक निर्णय की नज़ीर यह है कि मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक महत्व के मसलों, जिनके पीछे हठ, विद्वेष और आक्रोश की भावना हो, का निराकरण राजनीतिक दलों के बजाय न्यायपालिका जैसी तटस्थ एजेंसियों के द्वारा अगर सटीक ऐतिहासिक तथ्यों और उनसे निर्मित सुसंगत तर्कों के आधार पर किया जाए तो यह समाधान का सबसे श्रेयस्कर उपाय है। भावनात्मक मुद्दों का राजनीतिकरण करने का अर्थ है, उन्हें एक असमाप्त विवाद बना देना, और उनके निराकरण की आशा को तिलांजलि दे देना।
इसमें संदेह नहीं है कि भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं में एक लम्बे समय से आक्रोश की यह भावना न्यस्त रही है कि उनके साथ न्याय नहीं किया गया और वे अपने ही देश में छले गए। इसका मूल धार्मिक आधार पर हुए भारत-विभाजन में था। हिंदुओं का मत था कि भारत-विभाजन और पाकिस्तान-निर्माण के बाद भारतीय मुस्लिमों को कश्मीर और अयोध्या जैसे मसलों पर हठ का त्याग कर देना चाहिए था। कहना न होगा कि मुख्यधारा की बौद्धिकता ने इस आक्रोश के कारणों को समझने का उतना सदाशय प्रयास नहीं किया, जितना कि किया जाना चाहिए था। इसके परिणामस्वरूप ही हिंदू राष्ट्रवाद की राजनीति का उदय हुआ, जो केंद्र में लगातार दो बार बहुमत से चुनाव जीतकर अब यथास्थिति बन चुकी है। सोशल मीडिया पर व्यक्त होने वाला वैमनस्य भी इसी का परिणाम है।
आशा की जानी चाहिए कि सर्वोच्च अदालत ने आज जो निर्णय सुनाया है, वह हिंदू मानस में व्याप्त आक्रोश और विद्वेष को शांत और तुष्ट करने में सफल रहेगा। इसके बाद बहुसंख्यकों का भी यह दायित्व है कि अपने कार्य-व्यवहार और वाणी-आचरण से सदाशयता, करुणा, सौहार्द और विनम्रता का परिचय देवें और भविष्य के प्रति एक सकारात्मक दृष्टि रखें। साथ ही वे इस बात को स्वीकार करें कि तमाम वैध निर्णय निष्पक्षता के साथ ऐतिहासिक तथ्यों के विवेचन से ही लिए जा सकते हैं, राजनीतिक आक्रोश और विद्वेष की शब्दावली के माध्यम से नहीं।
पहले 5 अगस्त को धारा 370 और फिर 9 नवम्बर को सुप्रीमकोर्ट द्वारा अयोध्या पर लिए सर्वसम्मत से लिये गए ऐतिहासिक निर्णयों के बाद अब भारत-देशके बहुसंख्यक वर्ग के लिए बड़प्पन दिखाने का समय आ गया है। अयोध्या में रामलला का भव्य मंदिर बने और दुनिया की बेमिसाल मस्जिद भी! यह संकल्प न केवल अयोध्या के लिये,न केवल गंगा-जमुनी तहजीब के लिये और भारत की ही नही बल्कि भगवान श्रीराम के आदर्शोंपर चलने के लिये जनकल्याणकारी मार्ग प्रसस्त करेगा!