रविवार, 29 मई 2016

इस दौर में जनतांत्रिक राष्ट्रघात के लिए सभी भारतवासी जिम्मेदार हैं।

प्रतिपक्षी से लड़ना है -लड़ लो , पूँजीवाद के गले लगना है -लग जाओ , साम्प्रदायिक गटर में डूबना है -डूब जाओ , आपस में दुश्मनों की तरह लड़ना है-  लड़ लो ! क्रांति करना है -कर लो ! आरक्षण चाहिए -ले लो ! सत्ता चाहिए -ले लो ! किन्तु अपने निहित स्वार्थ के लिए -भारतीय अस्मिता से खिलवाड़   मत करो ! यह तो सभी को मानना पड़ेगा कि आजादी के ६८ साल बाद भी  भारत की सीमायें सुरक्षित नहीं हैं। देश के अंदर भी धर्म-मजहब और जातीयता के अलगाववादी नासूर यथावत हरे हैं। जबसे कुछ राजनीतिक दलों को जातीयता की वोट शक्ति का पता चला है ,तबसे भारत के अधिकांश सत्तालोलुप दल  देश की विघटनकारी धारा में बहे जा रहे हैं। जो अपने आपको स्वयम्भू राष्ट्रवादी कहते हैं वे ,और जो सर्वहारा क्रांति के पक्षधर हैं वे, न केवल जातीय विमर्श की आग को हवा दे  रहे है ,बल्कि आरक्षण मांगने वालों की गुंडागर्दी रोकने में असफल रहे हैं। कुछ स्वार्थान्ध दल तो हरियाणा ,गुजरात पैटर्न पर चल रहे उग्र आरक्षण आंदोलन की आग भड़कने पर तुले हुए हैं। वे  उसकी आंच में अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने में भी पीछे  नहीं हैं। कुछ व्यक्ति आधारित नए-आए दल और धर्मनिरपेक्ष दल भी अल्पसंख्य्क वोटों के लिए देश को  दांव पर लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंखयक वोटों के नापाक ध्रुवीकरण के लालच में स्वनामधन्य 'राष्ट्रवादी' भी  भारतीय लोकतंत्र  की ऐंसी -तैसी कर रहे हैं ।  

हरियाणा में जाटों ने ,गुजरात में पटेलों ने और बंगाल में  ममता बनर्जी के यमदूतों ने 'मेक इन इंडिया' के जो झंडे गाड़े हैं उसके परिणामों से देश की प्रबुद्ध जनता  किंकर्तव्यविमूढ़ है । भारत में आरक्षण या जातिवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है वो लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया का उपहास मात्र है। इस दौर की राजनीति में जनतांत्रिक राष्ट्रघात के लिए सभी दल जिम्मेदार हैं। देश के सभी नेता,सभी धर्मध्वज सभी साधु-महात्मा, मजहबी नेता -धर्मगुरु  भी जिम्मेदार हैं। जो लोग यूपीए के दौर में हर बात पर आंदोलन -धरना और बगावत के तेवर लेकर चलते थे वे इस उद्दाम पूँजीवादी और मजहबी पाखण्ड की राजनीति के दौर में चुप हैं।  अब कोई अण्णा हजारे,कोई रामदेव ,कोई किरण वेदी आवाज उन्हीं उठाता ,क्या बाकई  यह अच्छे दिनों का प्रमाण है ? या फिर सत्ता सामने सबके सब वामन हो चुके हैं ? सत्य -न्याय और राष्ट्रीय अस्मिता के लिए कोई आवाज  क्यों नहीं उठाता ? क्या केवल ' भारत माता की जय 'का नारा लगाने से भारत विश्व शक्ति  बन जाएगा ? क्या लोकलुभावन जुमलों से  देश आगे बढ़ सकता है ? क्या सिर्फ शासक बदल जाने से राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग गया ?

वैसे तो अधिकांश टीवी चेनल्स पर स्वामी रामदेव अपने पतंजलि उत्पाद लेकर हरदम उपस्थित रहते हैं । देश-विदेश के लाखों लोग उनके आयुर्वेदिक उत्पाद और राजनैतिक  उत्पात से वाकिफ हैं। मेरे जैसे अबोध अज्ञानियों को उनमें कोई रूचि नहीं है ! व्यक्तिगत रूप से मुझे उनके क्रिया कलापों से कोई लेना -देना नहीं है ! स्वामी रामदेव योग सिखाएँ या विज्ञापनों के मार्फत उत्पादों के उपभोग बताएँ ,यह विशुद्ध बिजनेस का मामला है । लेकिन स्वामी  रामदेव के पतंजलि उत्पाद यदि बाजार के अन्य लुटेरों को चौंकाते हैं तो इसमें तो समाज और देश का ही भला है और इससे मुझे ख़ुशी मिलती है। हालाँकि स्वामी रामदेव से मेरी व्यक्तिगत  खुन्नस का कारण कुछ और है । जैसे कि वे अपने मजदूरों को निर्धारित न्यूनतम मजदूरी नहीं देते। वे योग -प्रचार का दुरूपयोग करते हुए एक खास राजनैतिक पार्टी का प्रचार करते हैं।

अपने पतंजलि उत्पादनों के विज्ञापन में देश की  मौजूदा राजनीति का बेजा फायदा उठाकर स्वामी रामदेव 'यूनिफार्म लेवल प्लेइंग' फील्ड के सिद्धांत का बेजा उलंघन कर रहे हैं। वे  अपने योग शिविरों में योग कम सिखाते हैं और उपस्थित श्रद्धालुओं को विपक्ष के खिलाफ भड़काते ज्यादा हैं ।अभी कुछ दिनों पहले की बात है ,टीवी पर सुबह-सुबह स्वामी रामदेव के दर्शन भए । हमने सोचा कि उनके दर्शन से हम भी कृतकृत्य भए ! लेकिन जब मैंने उनके श्रीमुख से विपक्षी दलों के खिलाफ दुर्बचन सुने और सत्तारूढ़ नेतत्व की असफलताओं पर उन्हें पर्दा डालते देखा तो दंग रह गया। स्वामी रामदेव कभी अपनी एक आँख मींचते , कभी खीसें निपोरते और कभी कुटिल मुस्कान के साथ अपने भक्तों को बता रहे थे कि स्विस बैंकों में जमा काला धन वापिस इसलिए नहीं आया है , क्योंकि हमारा भारत अंतर्राष्टीय कानून से बंधा है। इसके अलावा स्वदेशी -स्वाभिमान आंदोलन के कर्णधार स्वामी  रामदेव 'विदेशी पूँजी निवेश' का समर्थन करते हुए उसे जस्टिफाइ कर रहे थे कि FDI को हम इसलिए स्वीकार कर रहे हैं ,क्योंकि हम [भारत]wto से बंधे हैं। मेरा मन किया कि नारा लगाऊँ -स्वामी रामदेव की जय हो ! एडीआइ जिन्दा बाद !कालाधन -जिंदाबाद ! मुझे ताज्जुब हुआ कि  शिविर में मौजूद एक शख्स भी ऐंसा ईमानदार  नहीं निकला जो उठकर कह सके की स्वामी जी यह समस्या तो डॉ मनमोहनसिंह के समय भी थी ,और उससे पहले अटल जी के समय भी थी। फिर क्यों आपने व आपके भक्तों ने पहले वाले प्रधान मंत्रियों को 'नपुंसक' और नाकारा कहा था ? और अब छप्पन इंची सीना वाले  जब कालाधन नहीं ला पाये या एफडीआई नहीं रोकते तो वे आप से संरक्षित क्यों हैं ?

स्वामी रामदेव जी के सम्बोधन में तमाम विपक्ष और अल्पसंख्य्क वर्गों के प्रति घृणा का भाव देख मुझे लगा कि ये तो रामायण के कपटी मुनि के भी बाप निकले । वे  किसी कालेज प्रांगण में छात्रों ,प्रोफेसरों और  संघियों को लोम-अनुलोम ,कपालभाति इत्यादि शारीरिक योग के साथ-साथ उपस्थित जन समूह को एक और 'खतरनाक' ज्ञान भी बाँट रहे थे!  वे श्रोताओं को समझा रहे थे कि 'सेकुलरिस्टों'और कम्युनिस्टों की वैज्ञानिक तर्क शक्ति का मुकाबला करने के लिए हमें इतिहास को 'अपने नजरिए' से समझना होगा। वे बड़े  अधिकार भाव से लटके -झटके के साथ उपस्थित अंधभगत फुर्सतियों को समझा रहे थे कि अभी तक विज्ञानवादियों, 'सेकुलरों'- वामपंथियों ने ही इतिहास लेखन, साहित्य सृजन , संगीत नियमन , और कला निर्देशन किया है ,अब हम इसे अपने नजरिए से प्रस्तुत करेंगे। उनका इशारा था कि दक्षिणपंथी संकीर्णतावादियों को  अपने 'राष्ट्रीय स्वाभिमान'के नजरिए से ,समाजवादियों और कम्युनिस्टों की तरह ही वैज्ञानिक तर्कवाद से उनका मुकाबला करना होगा !

बीच-बीच में बटरफ्लाई ,भ्रामरी जैसी बन्दरकूंदनी  करते हुए स्वामी रामदेव ने अपने अभिजात्य वर्गीय श्रोताओं को एक और ज्ञान दिया कि मार्क्सवाद तो विदेशी विचारधारा है। लगे हाथ ये सिद्धांत भी पेश कर दिया कि हमारा भारतीय 'चार्वाक दर्शन'ही तो 'मार्क्सवाद' है। याने चित भी मेरी -पट भी मेरी,क्योंकि अंटा मेरे बाप का ! जब मार्क्सवाद को चार्वाक दर्शन का परिष्कृत रूप मान  ही लिया तो वह विदेशी कैसे रह गया?क्या स्वामी रामदेव विदेश यात्रा कर आये तो वे विदेशी हो गए ? रामदेव  भूल जाते हैं कि जिस माइक या साउंड सिस्टम पर वे दिनरात बोल रहे हैं ,जिस महंगी कार और हवाई जहाज में वे घुमते रहते हैं ,जिस लेपटॉप ,कम्प्यूटर या मोबाइल का वे प्रयोग करते हैं ,ये तमाम संसाधन  पतंजलि योगसूत्र से नहीं लिए गए। और ये सब अभी पतंजलि संसथान में भी नहीं बने हैं । रेल,टेलीग्राफ ,भाप इंजिन ,से लेकर भाभा रिसर्च एटोमिक सेंटर और इसरो से लेकर 'मेक इन इण्डिया ' स्टार्ट उप इण्डिया में ऐंसा कुछ 'देशी' नहीं जिसमें रामदेव के पूर्वजों का रंचमात्र योगदान हो ! ये विशाल पनडुब्बियां, ये पोखरण के परमाणु विस्फोट, किस देश की मदद और टेक्नॉलजी से सम्भव हुए हैं ? शायद इसकी जानकारी स्वामी रामदेव को नहीं है। और स्वामी रामदेव -अन्ना हजारे के सुप्रचार एवं कांग्रेस के भृष्टाचार -प्रसाद पर्यन्त जो सत्ता में आज  बैठे हैं ,उन स्वयम्भू राष्ट्रवादियों' या नेताओं को भी पता नहीं है की परमाणु फार्मूला कैसे कौन कब लाया ? क्रायोजनिक इंजन या सेटेलाइट वीकल्स लांचिंग के लिए हैवी ईंधन के लिए हमारे किस प्रधान  मंत्री ने क्या-क्या पापड़ वेले हैं ? रामदेव जैसे लोगों को  तो शायद यही लगता है कि यह आधुनिक टेक्नॉलाजी भी पतंजलि के योग सूत्र से हीं ली गयी है। 

यह भारतीय संसदीय लोकतंत्र गीता,रामायण या महाभारत से नहीं लिया गया है।  इस भारतीय संविधान को ब्रिटेन के मैग्नाकार्टा ने ,फ़्रांसीसी क्रांतियों ने रूस की अक्टूबर क्रांति ने ,अमेरिका -कनाडा के संविधानों ने  तथा यूरोप के रेनेसा ने बहुत कुछ दिया है।  जिस भारतीय न्याय दर्शन या  मनुस्मृति पर स्वामी रामदेव को गर्व है ,उसे लागू क्यों नहीं करवाते ? क्या मंदिर निर्माण की बाधाओं से भी बड़ी कोई बाधा है ? जब वे मानते हैं कि भारतीय संविधान में सारे  विधान और कानून विदेशी हैं। और भारतीय स्वाभिमान की जीवंतता खतरे में हैं और उसके मूल्यों -आदर्शों का कहीं पालन नहीं होता तो कुछ करते क्यों नहीं ? कालाधन वापिस नहीं आ सकता ,मंदिर नहीं बन सकता ,धारा -३७० का कुछ नहीं हो सकता ,मनु स्मृति या गीता का आदेश लागू नहीं हो सकता ,तो फिर विपक्ष या वामपंथ के खिलाफ विषवमन क्यों ? वैसे भी स्वामियों योगियों ,बाबाओं को तो 'शीत ,उष्ण,शत्रु -मित्र ,हानि लाभ ' में समभाव या समदृष्टि रखनी चाहिए ! कमसे कम स्वामी रामदेव तो उसका पालन अवश्य ही करें !अपने  विरोधियों पर विषवमन करने के बजाय सम्यक भाव रखें। लेकिन वे तो अब निंदारस के साक्षात् महासागर में तैर रहे हैं। यदि वामपंथ की विचारधारा  विदेशी है तो कांग्रेस की कौन से कुरुक्षेत्र से ली गयी है ? वह भी तो एक अंग्रेज मिस्टर हयूम ने लन्दन से लाकर ही दी थी। और जो 'संघ परिवार' का मूल मन्त्र है वह  गीता के किस अध्याय से लिया गया है। मुसोलनी,और हिटलर मर गए ,उनकी विचारधारा भी वहाँ खत्म हो गयी ,लेकिन गोडसे वादियों को उनकी काली टोपी और चड्डे  खूब पसंद आये ! जो स्वामी रामदेव के मन भाये ! अपनी विचारधारा देशी के नाम पर स्वामी रामदेव के पास उनकी लंगोटी और 'योग' अलावा कुछ नहीं है ! उनके व्यापारिक उत्पादन के संसाधन और निजी उपयोग के साधन सब कुछ विदेशी है।

जिस अर्थशास्त्र के आधार पर देश का कालाधन स्विस बैंकों में जमा हुआ है ,वह वाणिज्य कला भी विदेशी है। स्वामी रामदेव अपने योग शिवरों के भाषणों में भारत के प्राचीन नास्तिक दर्शन के प्रणेता चार्वाक को आधुनिक मार्क्सवाद से नथ्थी करते हुए प्रतिपादित किया करते हैं। उन्हें इल्हाम हुआ है कि चार्वाक दर्शन और वैज्ञानिक द्वंद्वात्मकता पर आधारित मार्क्सवादी या वामपंथी विचारधारा एक ही चीज है। इसका अभिप्राय यह भी है कि उनकी नजर में वे मजदूर जो सड़कें बना रहे हैं ,वे किसान जो खदु आधे पेट रहकर देश के करोड़ों लोगों का पेट पाल रहे हैं ,वे कारखाने के मजदूर जो तमाम उत्पादनों में कम वेतन पर अपना खून -पसीना एक कर रहे हैं ,देश का निर्माण कर रहे हैं ,वे  मजदूर -किसान अब स्वामी रामदेव को चार्वाक वाले -निठ्ठले मुफ्तखोर नास्तिक नजर आ रहे  हैं। भारत के ४६ करोड़ मेहनतकश मजदूर -किसान और छोटे-मोठे कारोबारी यदि अपनी मेहनत से जीवन यापन करते हैं तो वे ऋण लेकर घी पीने वाले चार्वाकवादी कैसे हो गए ? ''यावत जीवित सुखम् जीवेत ,ऋणम कृत्वा घृतं पिवेत '' का सिद्धांत मार्क्सवाद से जोड़ना गलत है। यह देश की ४६ करोड़ मेहनतकश जनता के श्रम का अपमान है। फिर भी स्वामी रामदेव उपस्थित औंधी खोपड़ियों को 'भारत स्वाभिमान' की घुट्टी पिलाए जा रहे हैं ।

मुझे स्वामी रामदेव या उनके पतंजलि उत्पादनों में कोई दिलचस्पी नहीं है ,किन्तु जब उन्होंने 'तर्कबुद्धि' और कम्युनिस्ट शब्द का इस्तेमाल किया तो मुझे उनका वह पूरा कार्यक्रम मजबूरन देखना पड़ा। स्वामी रामदेव जिस योग के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं,उसका तो उन्होंने उस मंच से सिर्फ प्रतीकात्मक प्रदर्शन ही किया।  जबकि हर मंच पर  दक्षिणपंथी हिंदुत्ववाद का उन्होंने जमकर बखान किया। कभी-कभी वे किसी मुस्लिम नेता के नकारात्मक बयान का भी जिक्र कर लेते हैं , जिसमें कोई  वसपा नेता बनाम  कठमुमुल्ला कहता है  कि '' भारत में इस्लाम के आगमन से पहले कुछ नहीं  था। उसके अनुसार यह भारत भूमि दोजख जैसी थी'' ! उस मुस्लिम नेता ने यह भी कहा  ''हमारे पूर्वजों [मुसलमानों ने ] भारत को ताजमहल दिया ,कुतुबमीनार दी ,लालकिला दिया ,बगरेह बगैरह'',,,,,! स्वामी रामदेव उपस्थित श्रोताओं को और टीवी दर्शकों को बताते हैं कि 'हमारे [हिन्दुओं के ]पूर्वजों ने दुनिया को 'शून्य 'दिया ,वेद  दिए ,मन्त्र दिए ,आयुर्वेद दिया ,पतंजलि राजयोग दिया ,अहिंसा परमो धर्म : दिया !और न जाने क्या -क्या दिया !षडदर्शन दिया। हालाँकि गनीमत ये रही कि स्वामी रामदेव ने  नास्तिक दर्शन के प्रणेता चार्वाक का उल्लेख करते हुए कम्युनिस्टों को विदेशी नहीं कहा। बल्कि चीन का प्रमाण याद करते हुए उन्होंने आसा व्यक्त की कि  जब चीन के कम्युनिस्ट चीन परस्त हैं तो भारत के कम्युनिस्ट भी भारत परस्त ही होंगे !

 मैंने सोचा कि रामदेव भले ही भाजपा और संघ के शुभचिंतक हैं ,वे योग गुरु तो हैं ही!इसलिए उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान हिन्दुत्वमय होना स्वाभाविक है।  किन्तु जिस  मुस्लिम बड़बोले नेता के 'जुमलों' का जबाब स्वामी रामदेव दे रहे थे , यदि बाई चांस उसका जबाब  मुझे देना होता तो क्या जबाब देता ?इस उधेड़बुन में रात  नींद नहीं आई ! यदि मैं पौराणिक प्रतीकों से बात करता हूँ तो [अ ]प्रगतिशील कहलाऊँगा। और यदि धर्मनिपेक्षता की खातिर उस कठमुल्ले की बात का कुछ हेर-फेर से समर्थन करता हूँ तो जाहिर है 'देशद्रोही' कहलाऊँगा। क्योंकि आजकल का तो चलन ही यही है कि''संघम शरणम गच्छामि '' ,  जो सत्ता के साथ हैं सिर्फ वे ही सही हैं। फिर भी मुझे उस इस्लामिक वसपा नेता का जबाब सूझ ही गया। चूँकि उसने कहा था कि इस्लामिक आक्रमण कारियों के आगमन से पहले यहाँ कुछ नहीं था , यह मुल्क [भारत] दोजख था ! मेरा जबाब होगा कि  ''तेरे पूर्वज दोजख में क्यों आये थे ,दोजख तो गुनहगारों को जाना पड़ता है और अब तुम इस दोजख में क्या  कर रहे हो ?''

हालांकि इस सबके बावजूद स्वामी रामदेव और संघ परिवार के लोग 'साम्यवाद' को विदेशी विचारधारा बताने से कभी नहीं चूकते। ये बात जुदा है कि उनके लिए विदेशी पूँजी , विदेशी कालाधन ,विदेशी   टैक्नालॉजी मान्य है । और खुद संघ को प्रदत्त हिटलर-मुसोलनी की  विदेशी फासिस्ट विचारधारा चलेगी। किन्तु पूँजीपतियों और बड़े कारपोरेट घरानों के खिलाफ लड़ने वालों की ,धर्मनिपेक्षता की बात करने वालों की और सामाजिक समानता की बात करने वालों की विचारधारा नहीं  चलेगी ! क्योंकि वह  'क्रांतिकारी विचारधारा  है ! जो शहीद भगतसिंह को पसंद थी !

कुछ प्रगतिशील वामपंथी मित्र धर्म-मजहब के मामलों में बहस तो खूब करते हैं किन्तु  धार्मिक पुस्तकों को पढ़े बिना ही ततसंबंधी तकरीरें झड़ने लगते हैं। प्रायः सभी प्रगतिशील चिंतक एक ही ढर्रे पर लगातार  लिखते चले जा रहे हैं !कि  रामायण ,गीता ,महा भारत ,वेद और पुराण सब मिथ हैं या काल्पनिक हैं। लेकिन जो उसमें प्रतिकूल लिखा गया है ,उसी को आधार मानकर  धज्जियाँ उड़ाना सरासर गलत है। बाल्मीकि रामायण के अध्याय चार श्लोक १,२,३,को पढ़ने पर मालूम हुआ कि हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था अवैज्ञानिक नहीं थी! ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र और स्त्रियों को सामान अधिकार मिले हुए थे।


''अन्यमासम् प्रवक्ष्यामि शृणुध्वम सुसमहिता ,
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ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां चैव योषितां '' [वाल्मीकि रामायण अध्याय -४ श्लोक १,२,३,]

अर्थात :- इस बाल्मीकि रामायण को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र एवं स्त्रियां  जो भी पढ़ेगा ,उसे ज्ञान और पूण्य लाभ होगा !

 यह अच्छी बात है कि वामपंथी -प्रगतिशील साहित्यकारों को विश्व का आर्थिक,ऐतिहासिक दार्शनिक और साइंटफिक ज्ञान है ,किन्तु यदि वे भारतीय वांग्मय का भी उचित अध्यन कर लेंगे तो  साम्प्रदायिकता और फासिज्म का मुकाबला करने में सफलता अवश्य मिलेगी !भारतीय वामपंथियों और प्रगतिशील साहित्य कारों को चाहिए कि वे भी चीनियों की तरह  अपने राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करते हुए पाखंडवाद से मुकाबला करें। अभी जो जेहादी-अल्पसंख्य्क वादी और  हिन्दुत्ववादी ताकतें भारत को रौंद  रहीं हैं ,उसका मुकाबला परम्परागत 'नकारात्मक' तरीकों से नहीं होगा।

लोकतंत्र में सभी को आजादी है कि  चाहे तो धर्म-मजहब के पूजा स्थलों में जाए या न जाए। जिन्हे लगता है कि जाना चाहिए और यदि उन्हें रोक जाता है तो यह जुडीसयरी सब्जेक्ट है। यह सरकार और न्याय पालिका का दायित्व है कि धर्म-पूजा -मंदिर प्रवेश से वंचित जनों को संरक्षण प्रदान करे। किसी के साथ नाइंसाफी न होने दे ! जिसे जहाँ जाना हो जाए लेकिन उसके लिए  शनि सिंगनापुर  जैसा या दक्षिण के किसी हिन्दू मन्दिर पर धरना -आंदोलन का ड्रामा कहीं से भी उचित नहीं है ! जातिवाद के नाम पर आरक्षण चाहिए -ले लो !जातिवाद के नाम पर वोट चाहिए -ले लो ! धर्म-कर्म मानते हो तो मानते रहो !किन्तु  प्रगतिशील विचारों के क्रांतिकारी साथियों को हर किस्म के धार्मिक पाखण्ड और असत्य आचरण से बचना होगा।

मैंने अनुभव किया है कि कुछ वामपंथी साथी बिना किसी वांछित संदर्भ के कभी मनुवाद' कभी मनुस्मृति और कभी 'श्रीराम द्वारा शम्बूक बध' का वर्णन यूँ करेंगे मानों वे खुद मौका ऐ -वारदात पर मौजूद थे !  प्रगतिशील और संघर्षवान साथियों को हिन्दू,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,जैन या पारसी हर धर्म मजहब का ज्ञान हो यह तो ठीक है ,किन्तु बिना ज्ञान या आधे -अधूरे ज्ञान के बल पर विमर्श में पाहुणे बनकर पाखण्ड रुपी साँप मारने की निर्थक कोशिश न करें तो बेहतर है। जब वामपंथी -प्रगतिशील साथी मानते हैं कि रामायण ,महाभारत ,पुराण और वेद इतिहास नहीं है बल्कि 'मिथ' हैं, तो फिर 'राम के द्वारा एक शूद्र शम्बूक का 'बध ' सच इतिहास कैसे हो सकता है ? यदि महाभारत केवल  मिथ है ,गप्प है तो  'ब्राह्मण द्रोणचार्य ने गुरु दक्षिणा में आदिवासी एकलब्य का अंगठा मांग लिया ' यह वाक्य सच क्यों मान लिया गया ?

 वेशक तमाम धर्म हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्रियों,वनवासियों,दलितों[शूद्रों] और अनार्यों -यवनों ,द्रविड़ों  के निमित्त भी  कुछ संदर्भों में आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग होता रहा है। प्राचीन आर्यों की इस असफल चेष्टा का प्रमाण तो  दुनिया के हर पुरातन कबीले में  मौजूद है। और अपनी पहचान अक्षुण रखने के लिए हर कबीले में यह रीति -रिवाज  परम्परा अपनाई जाती रही है। इन में जो अमानवीय कुरीतियाँ  हैं ,उनके निदान का काम ही प्रगतिशील वामपंथी एक्टिविस्टों 
है। एक सच्चे वामपंथी  व्यक्ति या संगठन का दायित्व है वह  मंदिर प्रवेश की लड़ाई का नेतत्व करने के बजाय ,मंदिर निर्माण का विरोध करने के बजाय  , धार्मिक -मजहबी मामलों में नाहक उलझने के बजाय ,देश की मेहनतकश जनता को -मजूरों -किसानों को उनके जीवन-मरण के मुद्दे पर मार्गदर्शन करे ,वर्ग चेतना से लेस करे,असमानता के मुद्दे पर ,शोषण ,उत्पीड़न के मुद्दे पर लामबंद करे ! अनाड़ी की तरह फटे में पैर अड़ाने से भारत की धर्मांध जनता प्रतिक्रियावादियों के झंडे लेकर भूंखे पेट भी यही कहेगी कि उसके तो अच्छे दिन आये  हैं !  ये तो विरोधी हैं जो दुष्प्रचार किये जा रहे हैं।

 अभी कुछ दिनों पहले ही दक्षिण भारत के किसी राज्य की सचित्र खबर -पढ़ने में आई थी ,कि 'दलितों को मन्दिर प्रवेश ' कराने  के लिए बाएँ बाजु[[left wing] के कुछ नेता और संगठन उस आंदोलन का नेतत्व कर रहे थे ! यह बड़ी विचित्र बिडंबना है कि एक तरफ तो 'कारा तोड़ो कारा तोड़ो ' का सिहंनाद जारी है ,दूसरी ओर सामाजिक असमानता दूर करने के बहाने 'दलित और स्त्री विमर्श' को उसी प्रतिगामी 'मनुवाद' का पिछलग्गू बनाया जा रहा है ! चाहे महाराष्ट्र में महिलाओं के शनि शिंगणापुर मंदिर प्रवेश का मामला हो ,चाहे हाजी -अली पीर दरगाह में प्रवेश का मामला हो या दक्षिण के पुरातन हिन्दू मंदिरों में अस्पृश्य जनों के मंदिर प्रवेश का मामला हो,इन आन्दोलनों में क्रांतिकारी कुछ भी नहीं है। इन संघर्षों में दलितवादी नेता रूचि लें या कुछ उत्साही वामपंथी रूचि लेते हों, लेकिन साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी तत्व सवाल उठाएँगे ही कि 'यह मंदिर प्रवेश तो मनुवाद की ओर ले जाता है', दलित - वामपंथी नेता अब मनुवाद के समर्थक क्यों होने लगे ? जो लोग मंदिर ,मस्जिद ,चर्च, गुरुद्वारा नहीं जा पाते, या जाना उचित नहीं समझते , उन्हें  जबरन मंदिर, मस्जिद ,दरगाह में जबरन प्रवेश कराना उचित  है क्या ? क्या मजहबी पाखण्ड  में डुबकी लगाना  वैज्ञानिक सोच के अनुकूल है ? क्या यह  प्रगतिशील संघर्ष है। इस विमर्श में जनवाद और धर्मनिरपेक्षता कहाँ हैं ? श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 27 मई 2016

क्या गांधी -नेहरू परिवार को देश से माफी मांगनी चाहिए ?




फेसबुक पर नेहरू जी की तारीफ़ करना कलेक्टर अजयसिंग गंगवार जिला -बड़वानी [मध्यप्रदेश] को भारी  पड़ रहा है। मध्यप्रदेश सरकार ने श्री गंगवार को कलेक्टरी से हटाकर मंत्रालय में शिफ्ट कर दिया है। सोशल मीडिया में नीतिगत टिप्पणी को लेकर  राज्य सत्ता द्वारा किसी अधिकारी की बाँह मरोडने का यह पहला बाकया है !लेकिन इस प्रकरण से जाहिर हो रहा है कि अधिकांश उच्च अफसर ,डॉ ,इंजीनियर , आईएएस ,वकील,पत्रकार तथा वैज्ञानिक भी वर्तमान दौर के शासकों के धतकर्मों से नाखुश हैं। और वे महसूस कर रहे हैं कि नेहरुवाद  के खिलाफ सत्ता नियोजित झूंठा दुष्प्रचार एक राष्ट्रघाती षड्यंत्र है ,जिसका प्रतिकार हर हाल में होना चाहिए ! जिसका श्री गणेश श्री अजयसिंह गंगवार ने क्र दिया है !

इसी तारतम्य में  मध्यप्रदेश सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से अभी-अभी एक सरकूलर भी जारी हुआ है । जिसमें प्रदेश के सभी अफसरों को हिदायत दी गई है कि वे 'सिविल सर्विस रूल्स का मुस्तैदी से पालन करें '! हर खास -ओ -आम को विदित हो कि ये कथित सिविल सर्विस रूल्स अंग्रेजों ने भारत की जनता को गुलाम बनाए रखने के उद्देश्य से बनाए थे ।आजादी के बाद भारत के संविधान निर्माताओं ने आँख मूँदकर अंग्रेजों के इस अवांछनीय  सिविल सर्विस रूल्स के पुलंदे को यथावत जारी रखा है । इनमें वे श्रम विरोधी कानून भी शामिल हैं। जिनके खिलाफ लाला लाजपत राय ने अंग्रेजों की लाठियाँ खाईं और शहीद भगतसिंह,सुखदेव ,राजगुरु ने शहादत दी। अंग्रेजी राज के काले कानूनों का ठीकरा आजाद भारत के संविधान में शुमार करके कुछ लोग तो भगवान भी बन बैठे ! भारत की आवाम को यह जानने  की सख्त जरुरत है कि इन रूल्स का लब्बोलुआब क्या है ? चूँकि अंग्रेजो का आदेश था कि गुलाम भारत के अधिकारियों को खुद होकर समझ-बूझ विवेक से काम नहीं करना है । बल्कि जो अंग्रेज सरकार याने स्वेत प्रभु कहें ,सिर्फ उसका अक्षरसः पालन करना है। यह सिलसिला आज भी जारी है। जिस किसी अहमक को मेरी बात पर यकीन ने हो वह किसी भी आईएएस या वरिष्ठ वकील से तस्दीक करतस्ल्ली कर ले !

गोकि अंग्रेज तो  चले गए लेकिन  गुलामी की निशानी के रूप में अपना सिविल सर्विस रूल्स छोड़ गए । इसके अलावा भी अंग्रेज बहुत कुछ छोड़ गए ! वे धर्म-जात के रूप में  फुट डालो राज करो की राजनीति भी छोड़ गए !अभिव्यक्ति की आजादी पर लटकती हुई नंगी तलवार छोड़ गए ! और अब अंग्रेजों की जगह शुद्ध भारतीय शासक सत्ता में विराजमान हैं । देशी भाई लोग अंग्रेजी राज की शिक्षा प्रणाली और उनके सिविल सर्विस रूल्स को  पावन चरण पादुका समझकर  बड़ी  ईमानदारी और निष्ठा से पुजवा रहे हैं । यदि कोई  पढ़ा-लिखा स्वाभिमानी अधिकारी अपनी कोई स्वतंत्र राय व्यक्त करता है तो 'अंग्रेजी सिविल सर्विस रूल्स' आड़े आ जाते हैं।  ताजा उदाहरण  जिला कलेक्टर बडवानी श्री अजयसिंग गंगवार  का है ,उन्होंने फेस बुक पर जब नेहरू विषयक - स्वतंत्र विचार रखे तो उनको मजबूरन तत्काल वह पोस्ट  हटानी पडी !  संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्रप्रसाद थे , सरदार पटेल ,पीडी टण्डन ,मौलाना आजाद, जगजीवनराम ,कृपलानी और लोहिया जैसे बड़े-बड़े नेता इस संविधान सभा के सदस्य थे। जबकि पंडित नेहरू को इससे बिलकुल अलहदा रख गया  .यही वजह है कि अंग्रेजी गुलामी का स्वामिभक्ति वाला अक्स भारतीय संविधान में कांटे की तरह अभी भी खटक रहा है। इसकी एक बानगी प्रस्तुत है ,,,,,!

''कलेक्टर अजयसिंह गंगवार द्वारा मंगलवार -२५ मई -२०१५ को फेस बुक पर की गयी पोस्ट प्रशासनिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गई है। नेहरू-गांधी परिवार की व्यंगात्मक रूप से प्रशंसा भरी पोस्ट में कलेक्टर अजयसिंह ने कई मामलों पर कटाक्ष किये हैं। अगले दिन जब इस पोस्ट को लेकर कलेक्टर साहब से उनकी प्रतिक्रिया पूँछी गई तो उन्होंने निजी विचार कहकर बात खत्म कर दी,लेकिन देर रात विवाद बढ़ता देखकर उन्होंने उस पोस्ट को हटा लिया। '' [साभार नई दुनिया ,इंदौर  दिनांक २६-५-२०१६ ,पेज-११]

मध्यप्रदेश के बडवानी जिला कलेक्ट्रर श्री अजयसिंह गंगवार ने अपनी पोस्ट में यह लिखा था ;-''जरा गलतियाँ तो बता दीजिये जो पंडित नेहरू को नहीं करनी चाहिए थी ,बहुत अच्छा होता ! यदि उन्होंने [पंडित नेहरू ने ]आपको [भारत को ] १९४७ में हिन्दू तालिवानी राष्ट्र नहीं बनने दिया ,तो यह उनकी गलती है ! उन्होंने [नेहरू ने ] आईआईटी ,इसरो,बीएआरएसी ,आईआईएसबी ,आईआईएम,भेल,गेल ,रेल, भिलाई राउरकेला स्टील प्लांट, भाखड़ा नंगल जैसे डेम्स, नेशनल थर्मल पावरपलांट ,एटामिक एनर्जी कमीशन स्थापित किये ,यह उनकी गलती थी ! पं नेहरू ने आसाराम और रामदेव जैसे इंटेलक्चुवल्स की जगह होमी जहांगीर भाभा , विक्रम साराभाई ,विश्वेशरिया ,सतीश धवन ,जेआरडी टाटा और जनरल मानेक शा को देश की बेहतरी के लिए काम करने का मौका दिया ,यह नेहरू की गलती थी ! पंडित नेहरू ने गोमूत्र को बढ़ावा देने के बजाय मेडिकल कालेज खोले ,उन्होंने मंदिर बनवाने के बजाय यूनिवर्सिटीज खोलीं ,यह पंडित नेहरू का अक्षम्य अपराध है ! पंडित नेहरू ने आपको अंध विश्वासी बनाने के बजाय साइंटिफिक रास्ता  दिखाया ,यह भी उनकी भयंकर भूल थी ! इन तमाम गलतियों के लिए गांधी -नेहरू परिवार को देश से माफी अवश्य मांगनी चाहिए !''

बड़वानी कलेक्टर अजय गंगवार ने भले ही व्यंगात्मक रूप से नेहरू परिवार की फेस बुक वाल पर प्रशंसा की हो पर उनकी आईएएस विरादरी ने इससे अपनी असहमति जताई । कुछ अंग्रेजीदां सीनियर आईएएस का कहना है कि  प्रशासनिक अधिकारी को राजनीति से दूर रहना चाहिए ! हालाँकि सामान्य प्रशासन मंत्री लालसिंह आर्य ने बहुत सटीक टिप्पणी की है ,उनका कहना है कि ''अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  तो सभी को है ,कलेक्टर साहब ने जो किया वह अपराध नहीं है ,उन्होंने उत्साह में लिख दिया होगा। उन्हें सिविल सर्विस रूल्स का पालन तो करना ही होगा ''! उजड्ड भाजपा नेताओं को और संघ अनुषंगियों को अपने काबिल मंत्री लालसिंह आर्य  से भद्र व्यवहार अवश्य  सीखना  चाहिए ! श्री लालसिंह आर्य ने समझदारी भरा वयान दिया ,जिसकी प्रशंसा की जानी  चाहिए ! जब कोई कांग्रेसी देश हित  की बात करे तो दिल खोलकर उसका भी सम्मान होना चाहिए ! कांग्रेस और भाजपा वालों को मेहरवानी करके एक दूसरे से घृणा करने के बजाय स्वस्थ प्रतिष्पर्धा करनी चाहिए। उन्हें वामपंथ के जन संघर्षों को देखकर भी कपडे नहीं फाड़ना चाहिए !

 स्मरण रहे कि  संघ परिवार के मार्फत आजाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हमले १५ अगस्त-१९४७ से अब तक  निरंतर जारी हैं । किसी कलेक्टर ने पंडित नेहरू के अवदान को  सराहा , उनके कृतित्व को याद रखा ,यह तो भारतीय परम्परा की महान उपलब्धि है ,इंसानियत का श्रेष्ठतम  श्रेष्ठ गुण है। जबसे केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार आई है  वस्तुओं के दाम तो बढे हैं किन्तु मानवीय मूल्यों में भी गिरावट आई है।  नेहरूजी के व्यक्तित्व ,कृतित्व और विचारों पर सड़कछाप हमले जारी हैं। देश में अधिकांश युवा नहीं जानते कि ''हम लाये हैं तूफ़ान से किस्ती निकाल के ,,इस देश को रखना मेरे बच्चों सम्भल के ,,,,जैसा गीत किसकी प्रेरणा से लिखा गया। नेहरुवाद का और प्रगतिशीलता का वास्तविक सन्देश क्या है ? देश में सत्ता परिवर्तन  बुरा नहीं है ,किन्तु सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ताधारी नेतत्व में प्रतिस्पर्धात्मक कुंठा स्पष्ट झलक रही है। वैसे तो आर्थिक विपन्नता और साधनों के अभाव में असंतोष की अनुभूति हर साधारण मनुष्य का सहज स्वभाव है। इस प्रकार की बिडंबना से गुजरने वाले लोगों का व्यवस्था के प्रति विद्रोह स्वाभाविक है। लेकिन जो नेतत्व सत्ता में है उसे अपनी लकीर बढ़ाने का हक है लेकिन अपने पूर्वर्ती की लकीर मिटाकर अपना अधःपतन  दिखलाना उन्हें शोभा नहीं देता। अपने पूर्वजों की उपलब्धि को अपनी बताने वाला कृतघ्न कहलाता है। यदि मौजूदा व्यवस्था की खामियों के लिए स्वाधीनता सेनानी या पूर्ववर्ती नेतत्व,मंत्री - जिम्मेदार हैं तो उनके द्वारा अर्जित उपलब्धियों के श्रेय से उन्हें भी वंचित नहीं किया जा सकता ! अतीत की  सामूहिक भूलों या वैयक्तिक गलती के प्रति रोष स्वाभाविक है। किन्तु यदि  किसी व्यक्ति , समाज  या देश के वर्तमान हालात नाममात्र भी पहले से बेहतर हैं तो ही उन पर अंगुली उठनी चाहिए ! दरपेश नयी समस्याओं के लिए  क्या मौजूदा  शासन-प्रशासन जिम्मेदार नहीं है ?  क्या खुद की असफलताओं के लिए कृतघ्नता का भाव मुनासिब  है ?अपने ही  पूर्वजों की अकारण निंदा ,उनके प्रति अकारण ही असंतोष  का  भाव किसी भी व्यक्ति या समाज  को सभ्य नागरिक नहीं बना सकता। अपितु  नकारात्मकता की खाई में अवश्य धकेल देगा । समृद्ध राष्ट्र की सम्पूर्णता के लिए पूर्वजों,स्वाधीनता सेनानियों और अतीत की समस्त धरोहर के प्रति सम्मान भाव ही वास्तविक देशभक्ति का भाव जग सकता है !

   समर शेष है ,निशा शेष  है ,नहीं पाप का भागी केवल व्याध।
  जो तठस्थ हैं समर भूमि में ,समय लिखेगा उनका भी इतिहास।।  [ राष्ट्रकवि -दिनकर ]

श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 24 मई 2016

एक खास परिवार के भरोसे रहने के कारण कांग्रेस लोकतंत्र से महरूम हो गयी है।


  कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने टवीट किया है कि ''कांग्रेस उस बरगद के बृक्ष की तरह है ,जिसकी छाँव हिन्दू,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई सबको बराबर मिलती है ,जबकि भाजपा तो जात -धर्म  देखकर  छाँव देती है। ''

  बहुत सम्भव है कि खुद कांग्रेस समर्थक प्रबुद्ध जन ही मनु अभिषक संघवी से सहमत नहीं होंगे ! इस विमर्श में भाजपा वालों के समर्थन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। उन्होंने ऐंसी साम्प्रदायिक घुट्टी पी रखी है कि जिसके असर से उन्हें 'भगवा' रंग के अलावा  'चढ़े न दूजो रंग '! दरसल मनु अभिषेक ने अपने ट्वीट में जो कहा वह तो कांग्रेस के विरोधी अर्से से कहते आ रहे हैं। इसमें नया क्या है ? कांग्रेस रुपी नाव में ही छेद करते हुए सिंघवी यह भूल गए कि भारतीय कांग्रेस  महज एक राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि एक खास विचारधारा का नाम है। खैर कांग्रेस की चिंता जब कांग्रेसियों को नहीं तो हमारे जैसे आलोचकों को क्या पडी कि व्यर्थ शोक संवेदना व्यक्त करते रहें !

मनु अभिषेक सिंघवी  ने शायद हिंदी की  यह  मशहूर कहावत नहीं सुनी  की ''बरगद के पेड़ की छाँव में हरी दूब भी नहीं उगा करती '' अर्थात  किसी विशालकाय व्यक्ति ,वस्तु या गुणधर्म के समक्ष  नया विकल्प पनप नहीं सकता ! कुछ पुरानी चीजें ऐंसी होतीं हैं कि कोई नई चीज कितनी भी चमकदार या उपयोगी क्यों न हो ,किन्तु फिर भी वह  पुरानी के सामने  टिक ही नहीं पाती। राजनीती  में इसका भावार्थ यह भी है कि  कुछ दल या नेता   ऐंसे  भी होते हैं कि उनकी शख्सियत के सामने  नए-नए दल या नेता पानी भरते हैं। इसका चुनावी जीत-हार से कोई लेना-देना नहीं। समाज में इस कहावत का तातपर्य यह है कि दवंग व्यक्ति या  दवंग समाज के नीचे दबे हुए व्यक्ति या समाज का उद्धार  तब तक सम्भव नहीं ,जब तक वे उसके आभा मंडल से मुक्त न हो  जाए ।

 हालाँकि काग्रेस  की उपमा बरगद के पेड़ से  करना एक कड़वा सच है ,किन्तु सिंघवी द्वारा कहा जाना एक बिडंबना है।  यह आत्मघाती गोल करने जैसा कृत्य है।  मनु अभिषेक सिंघवी जैसा आला दर्जे का बकील  यदि  कांगेस को बरगद बताएगा तो कांग्रेस मुक्त भारत की  कामना  करने वालों की तमन्ना पूर्ण होने में संदेह क्या ?  वैसे भी आत्म हत्या करने वाले गरीब किसान ,वेरोजगार युवा ,गरीब छात्र और असामाजिकता से पीड़ित कमजोर वर्ग के नर-नारियों  की नजर में कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो  पहलु  हैं। लेकिन मेरी नजर में भाजपा और कांग्रेस में  बहुत अंतर् है। भाजपा घोर साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी पूँजीवादी  पार्टी  है ,जो मजदूरों ,अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील वैज्ञानिकवाद से घ्रणा करती है ,और  अम्बानियों-अडानियों ,माऌयाओं की सेवा में यकीन रखती है।  कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष  उदारवादी पूंजीवादी पार्टी  है। एक खास परिवार के भरोसे  रहने के कारण  वह लोकतंत्र से महरूम हो गयी है।  वैसे कांग्रेस वालों को बिना जोर -जबर्जस्ती  के जो कुछ मिला उसी में संतोष कर लिया करते हैं । उन्होंने ईमानदारी या देशभक्ति का ढोंग भी नहीं किया। देशभक्ति का झूंठा हो हल्ला भी नहीं मचाया। जबकि भाजपा वाले  कंजड़ों की भांति दिन दहाड़े डाके डालने में यकीन करते हैं।  इसका एक उदाहरण तो यही है कि जब  घोषित डिफालटर अडानी को आस्ट्रेलिया में किसी उद्द्य्म के लिए बैंक गारंटी की जरूरत पडी तो एसबीआई चीफ अरुंधति भट्टाचार्य और खुद पीएम भी साथ गए थे। क्या कभी इंदिरा जी राजीव जी या मनमोहन सिंह ने ऐंसा किया ? देश के १०० उद्योगपति ऐंसे हैं जो भारतीय बैंकों के डिफालटर हैं और बैंकों का १० लाख करोड़  रुपया डकार गए हैं ।  कोई  भी लुटेरा पूँजीपति  एक पाई लौटाने को  तैयार नहीं है ,सब विजय माल्या के बही बंधू हैं। जबकि गरीब किसान को हजार-पांच सौ के कारण बैंकों की कुर्की का सामना करना पड़ रहा है ,आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। मोदी सरकार बिना कुछ किये धरे ही अपने  दो साल की काल्पनिक उपलब्धियों के बखान में राष्टीय कोष का अरबों रुपया  विज्ञापनों में बर्बाद कर रही है। दलगत आधार पर साम्प्रदायिकता की भंग के नशे में चूर होकर  हिंदुत्व के ध्रुवीकरण में व्यस्त हैं ,मदमस्त हैं । जबकि मनु अभिषेक सिंघवी,दिग्गी राजा ,थरूर और अन्य दिग्गज कांग्रेसी केवल आत्मघाती गोल दागने में व्यस्त हैं।  कांग्रेस की मौसमी हार से भयभीत लोग भूल रहे हैं कि  कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम का अमृत फल चखा है उसे  कोई नष्ट नहीं कर सकता , खुद गांधी ,नेहरू,पटेल भी  नहीं ! मोदी जी और संघ परिवार तो  कदापि नहीं ! श्रीराम  तिवारी

रविवार, 22 मई 2016

कौन -कौन तर गए ,कुम्भ के नहाए से ,मीन न तरी जाको गंगा में घर है ,,,[संत कबीर ]

लगभग एक माह तक चला उज्जैन सिंहस्थ  मेला -पर्व समाप्त हो चुका है । कुछ अखवार वाले और न्यूज चैनल वाले  जिन्हे मध्यप्रदेश सरकार ने खूब ठूंस -ठूंसकर खिलाया है,इस सिंहस्थ को ऐतिहासिक रूप से सफल बता रहे हैं।  केवल श्रद्धालु स्नानार्थी ही नहीं ,धर्मांध लाभार्थी ही नहीं  ,साधु -संत -महंत ज्ञानी -ध्यानी ही नहीं ,अपितु इस सिंहस्थ पर्व के तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष  'स्टेक होल्डर्स' भी इस सिंहस्थ मेले का गुणगान करते हुए ,अपना-अपना बोरिया विस्तर बांधकर  लौट चुके हैं । भारत के ज्ञात इतिहास में अब तक शायद ही किसी  राजा ने ,किसी सामन्त ने ,किसी राज्य सरकार ने ,किसी मुख्य्मंत्री ने - कुम्भ-सिंहस्थ के निमित्त इस कदर -अविरल आदरभाव,  समर्पण और आर्थिक वित्त पोषण किया हो ! शिवराज जैसा मन-बचन -कर्म सेराजकीय समर्पण शायद ही किसी  शासक ने  कभी  न्यौछावर किया हो !

मध्यप्रदेश के मौजूदा मुख्य्मंत्री शिवराज सिंह चौहान  ने सांस्कृतिक , सामाजिक एवं आध्यात्मिक संगम -सिंहस्थ पर्व की सफलता  के निमित्त जो किया है,उसकी मिशाल भारत में  तो क्या दुनिया में भी नहीं मिलेगी।  बहरहाल उनके इस सकाम भक्तिभाव से 'संघ परिवार'  गदगदायमान है। भगवान महाकाल  और  शिप्रा +नर्मदा मैया भी शिवराज पर अवश्य ही प्रशन्न होंगी ! तमाम मठाधीश ,साधु , संत ,महंत,शंकराचार्य ,महामंडलेश्वर , व्यापारी,ठेकेदार,अधिकारी -सभी शिवराज से खुश हैं । पीएम नरेंद्र मोदी जी भी  मध्यप्रदेश के नैनावा ज्ञान कुम्भ में शिवराज जी की तारीफ कर गए -अर्थात ''मोगेम्बो खुश हुआ ''!भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और इन सबके मुकुट मणि सर  संघ संचालक -महानुभाव मोहनराव भागवत ,एवं संघ गणांनाम्  सर्वश्री अनिल माधव दवे,राम माधव, भैया जी जोशी  इत्यादि  भी सिंहस्थ नहाकर शिवराज से  प्रशन्न भए !  इसमें कोई शक नहीं कि भगवान शिव खुद ही शिवराज के मार्ग की समस्त बाधाओं  को  दूर कर अभय दान  देने को लालायित हो रहे होंगे ! आकाशवाणी होने को है कि  हे तात - तुम्हारी सत्ता की  कुर्सी सुरक्षित रहे । न केवल कुर्सी सुरक्षित रहे बल्कि आगामी   चुनाव में  भी शिवराज को अंदर-बाहर  से कोई चुनौती न रहे ! एवमस्तु !  हालांकि  भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव  कैलाश विजयवर्गीय  भी महाकाल के उद्भट उपासक हैं अतएव उनके उदगार कि ' सिंहस्थ की सफलता किसी एक व्यक्ति या सरकार की बदौलत नहीं है बल्कि यह  तो महाकाल की कृपा से ही सम्भव हुआ है ।  कैलाश जी के अमृत रुपी बचनामृत से भाजपा की  राजनीतिक़  हांडी का आंतरिक तापमान ज्ञातव्य हो रहा है। उनके आशय को रहीम कवि  अपने दोहे में पहले ही समझा गए हैं ,,,

अमृत जैसे बचन में ,रहिमन रिस की गाँठ।
 जैसे मिश्री में मिली ,निअर्स बांस की गांठ।।


 खैर यह तो  'मुण्डे -मुण्डे मतरिभिन्ना' वाली कहावत  ही चरितार्थ हुई है ,मुझे तो इस कुम्भ -सिंहस्थ का  अंतिम दृश्य कुछ  यौं जान पड़ता है :-


ख़त्म हुआ जलसा अभी ,संगत उठी जमात।
अब निरीह निर्बल बचे ,तम्बू और कनात।।

इन मजदूरों ने किया ,यह सब बंदोबस्त।
भूंखे-प्यासे  जुटे रहे ,महीनों हालत खस्त। ।

जो बतलाते हैं हमें ,स्वर्ग प्राप्त तरकीब।
 उन  परजीवी धूर्त से ,मेरा  वतन गरीब।।

होटल हो या खेत हो ,फैक्टरी खलिहान।
मुफलिस बच्चों के लिए ,कैसा कुम्भ स्नान। ।

संत कबीर को भी जब कभी इसी तरह के दौर से गुजरना पड़ा होगा तो उन्होंने  निम्नलिखित भजन लिखा मारा !

कौन -कौन तर गए ,कुम्भ के नहाए से ,मीन न तरी जाको गंगा में घर है।
कौन-कौन तर गए भभूति लगाए से ,श्वान ने तरो  जाको घूरे पै  घर है।

कौन -कौन तर गए धूनी  रमाए से ,तिरिया ने तरी जाको  चूल्हे में घर है।
कौन -कौन तर गए ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,तरेंगे वही जिनके ह्रदय में हर है।।



कबीर का यह भजन बचपन में सुना था ,,अब विस्मृत हो चुका  है ,लेकिन कबीर के आशय से पूरी तरह विज्ञ हूँ और उसमें आस्था भी है। यही वजह है कि
६३ साल की उम्र में एक भी कुम्भ नहीं नहाया।  मैं  २८ मई- १९७६ को  ट्रांसफर होकर गाडरवारा से इंदौर  आया था ।  इंदौर आये हुए  पूरे चालीस साल हो गए ! यहाँ से उज्जैन  सिर्फ ५५  किलोमीटर है , और नासिक भी  ज्यादा दूर नहीं है ,किन्तु कभी  कोई कुम्भ -सिंहस्थ स्नान नहीं किए । दरसल इसकी जरूरत ही नहीं समझ पडी ! दोस्तों और सपरिजनों ने  भी बहुत मनाया-फुसलाया   किन्तु दिल है कि मानता नहीं । यद्द्पि मैं कुम्भ मेला , तीर्थटन  नदियों में पर्व स्नान को गलत नहीं मानता। अपितु मानवीय सांस्कृतिक जीवंतता के लिए उपयुक्त साधन  समझता हूँ । किन्तु राज्यसत्ता द्वारा राजकाज छोड़कर केवल  इस तरह के  धार्मिक मेगा इवेंट्स का वित्तपोषण किये जाने का औचित्य मुझे समझ में नहीं आया !  मनुष्य जीवन की शुचिता ,आत्मिक पवित्रता ,कष्ट मुक्ति ,पुण्यलाभ इत्यादि के निमित्त किसी भी व्यक्ति की अहेतुक आध्यात्मिक यात्रा उसका अपना व्यक्तिगत अधिकार है। और उसकी मनोवृत्ति आस्तिक-नास्तिक कुछ भी हो सकती है ,किन्तु  एक गरीब देश या प्रदेश में  केंद्र-राज्य सरकार और शासन-प्रशासन की सम्पूर्ण सामर्थ्य एवं वित्तीय संसाधनों का इस तरह बेजा दुरूपयोग मुझे कतई पसंद नहीं आया  !  श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 20 मई 2016

भारत की वर्तमान दोषपूर्ण लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में हार-जीत का वास्तविक स्वरूप क्या है ?

 सभी प्रबुद्ध भारतीय  जानते हैं कि भारतीय लोकतांत्रिक सिस्टम की चुनावी प्रक्रिया अत्यन्त दोषपूर्ण और खर्चीली है !  जो  चुनाव जीत जाता है वह अपने आप को सिकंदर मानने को अभिशप्त है। जीतने के बाद विजेता प्रत्याशी अथवा दल सपने में भी इस दोषपूर्ण चुनाव प्रक्रिया अर्थात लोकतान्त्रिक खामी के निवारण की  बात नहीं करता ! हरकोई इस भृष्ट सिस्टम को  ही अंतिम सत्य मान बैठा है। अधिकांश  नेता अथवा राजनैतिक दल चुनाव जीतने के बाद  पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहते ,  कि उनकी जीत के बहाने  लोकतंत्र के नाम पर कितना बीभत्स दृश्य ,कितना खौफनाक मंजर उपस्थित हुआ है ? अधिकांश  नेता सत्तालोलुप पूँजीवादी दलों की जीत के लिए  ब्लेक मनी ,  निजीक्षेत्र ,सट्टाबाजार ,ठेकाप्रथा ,दुराचार, अमानवीयता और अनीति की गटरगंगाओं  का  भरपूर योगदान हुआ करता है।  केवल लोकसभा ,विधान सभा ही नहीं बल्कि ग्राम पंचायत से लेकर महा नगरों  के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी यथासम्भव बाहुबल,धनबल,जातिबल , खापबल ,आरक्षणबल ,सम्प्रदाय बल, अनीति और असत्याचरण का बोलबाला हुआ करता है। यह सब जानते हुए भी मीडिया पर्सनालिटीज, राजनीति के विधिवेत्ता  और प्रबुद्ध आवाम इस दिशा में चुप्पी साधे रहते हैं।

हालाँकि राजनीति का ककहरा जानने  वाला भी जानता है कि भारत की वर्तमान दोषपूर्ण लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में हार-जीत का वास्तविक स्वरूप क्या है ? इस सिस्टम में हार का मतलब यह कदापि नहीं कि हर  पराजित व्यक्ति  हर जीतने वाले से कम  योग्यता वाला है ! आमतौर पर अच्छे-खासे पढ़े-लिखे ईमानदार -कर्मठ बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्य कर्ताओं को हारते हुए पाया गया है। मेघा पाटकर ,अन्ना हजारे ,किरणवेदी ,प्रमोद प्रधान ,सुभाषनी अली भले ही चुनाव नहीं जीत पाएं , किन्तु पप्पू यादव ,असदुद्दीन ओवेसी ,तस्लीमुद्दीन ,यदुरप्पा ,विजय माल्या आसानी से चुनावी वैतरणी पार कर जाते हैं।अस्तु यह वास्तविक जनादेश नहीं हो सकता ! इसी तरह जीत का तातपर्य यह कदापि नहीं कि चुनाव जीतने वाला प्रत्येक  वंदा पूरी तरह  बदमाश या पाक साफ़ ही होगा ! किसी भी राजनीतिक चुनावी विजेता की उसके समक्ष हारने वाले से बेहतर होने की कोई गांरटी नहीं !

वर्तमान दोषपूर्ण चुनाव प्रक्रिया और दोषपूर्ण  शासन-प्रणाली के होते हुए  भारत -राष्ट्र की महत्वकांक्षाओं का अवतरण कैसे सम्भव है ? क्या असत्य से सत्य का उद्भव समभव है ? जब तक भारतीय लोकतंत्र में वास्तविक- 'फ्री एन्ड फेयर डेमोक्रेटिक फंकशनिंग ' चुनाव  प्रक्रिया स्थापित नहीं हो जाती ,और जब तक लोकतंत्र के समस्त स्तम्भ धनबल,बाहुबल,जातिबल, और सत्ताबल  के दुरूपयोग से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक भारतीय गणतंत्र का वास्तविक लोकतंत्र रूप प्रतिफलित नहीं होगा ! वेशक भारत महान  है ,विशाल जीवंत राष्ट्र है ,विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है ,किन्तु यह स्वीकार करने में भी कोई हिचक नहीं होना चाहिए कि  सर्वाधिक खामियों से ग्र्स्त भी  भारतीय लोकतंत्र ही है

अभी-अभी सम्पन्न पाँच राज्यों की विधान सभा के चुनावों -नतीजों के बाद आम तौर पर कहीं ख़ुशी कहीं गम का माहौल है। जिन राज्यों के नतीजे आये हैं ,उनमे असम ही एकमात्र ऐंसा है ,जहाँ भाजपा  को विजयश्री का दीदार हुआ है।  चूँकि असम में भाजपा ने  अलगाववादियों  के साथ गठबंधन किया था और कांग्रेस  की गोगोई सरकार के १५ वर्षीय शासन से जनता ऊब चुकी थी ,इसलिए असम के बहुमत जन ने भाजपा अलायंस को सत्ता का मौका दिया है। भाजपा  नेताओं को इस उपलब्धि पर इतराने के बजाय ,जुमलेबाजी निपोरने के बजाय कुछ सार्थक काम करके दिखाना  चाहिए। लेकिन ऐंसी गम्भीरता दिखाने के बजाय भाजपा समर्थित मीडिया और उनके नेता ऐंसे तेवर दिखाने लगे मानों पाँचों राज्यों की विजय श्री उनके ही  कदम चूम रही हो ! 

शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे  ने अपने अखवार 'सामना' में भाजपा नेताओं को सही आइना दिखाया है .उन्होंने  भाजपा नेताओं को उनका वह वयांन याद दिलाया है ,इसमें भाजपा नेताओं ने चुनाव प्रचार दौरान कहा था कि  बंगाल में धर्म की जीत होने वाली है और अधर्म की हार होगी !बंगाल में  चूँकि ममता जीत गयी है तो क्या अब ये माना जाय कि अधर्म की जीत हुई है ? और धर्म की हार ? मोदी जी ने सुभाषचंद बॉस को पुनः जीवित किया ,उनके परिवार को कांग्रेस और गांधी-नेहरू परिवार का दुश्मन  बताया , झूंठ-मूंठ के दस्तावेजों की डुगडुगी बजाई ,लेकिन फिर भी बंगाल में कोई भी तिकड़म काम न आई ! वे तीन  सीट पाकर-बड़े बेआबरू होकर-दीदी के कूचे से निकले !बंगाल सहित अन्य चार राज्यों में भाजपा की असफलता के गम को असम की विजय के जशन में भुलाया जा रहा है। कांग्रेस की सर्वत्र हार से भाजपाई बहुत खुश हैं। जैसे कोई कुटिल या दुर्जन अपने दुश्मन को संकट में देखकर खुश होता है !

वामपंथ  को भी बंगाल में तगड़ा झटका लगा है .महाभष्ट तृणमूली गुंडे जीत गए ,धर्मनिरपेक्षता ,लोकतंत्र, समाजवाद के अलमबरदार हार गए !   विगत लोक सभा चुांव से ही बंगाल में स्पष्ट होने लगा था कि  मुस्लिम अल्पसंख्य्क वर्ग की टेक्टिकल वोटिंग से बंगाल का धर्मनिरपेक्ष हिन्दू आहत है और वह आइन्दा ध्रुवीकृत होकर भाजपा की ओर  जायगा .भले ही  अभी बंगाल में भाजपा को चार सीटें मिली हैं ,किन्तु  उसका वोट पर्सेंटेज तो बढ़ा है ! यदि वामपंथ  राष्ट्रीय स्तर पर इकतरफा अल्पसंख्य्क वर्ग के हितों की बात नहीं करता तो भाजपा को मिले ये वोट माकपा और वामपंथ को ही मिलते ! वाम पंथ ने जिस आक्रामक अंदाज में जेएनयू मामले को लिया और हिंदुत्व को कोसा उसी अनुपात में अपरिपक्व हिन्दू जन मानस उससे दूर होता  चला गया .उधर मुस्लिम अल्पसंख्य्क वर्ग ने  वामपंथ और कांग्रेस के अनौपचारिक गठबंधन को संदेह की नजर से देखा और ममता को और ताकत से जिता दिया . बंगाल के ईमानदार वामपंथियों ने तो कांग्रेस को भरपूर वोट दिए .किन्तु कांग्रेस के लोगों ने  वामपंथ से गद्दारी की और वाम पंथ को वोट नहीं दिए .  वैसे भी अधिसंख्य बंगाली जन मानस वामपंथ की ढीली ढाली निर्णय शैली से पहले से ही  छुब्ध था .आशा है बंगाल का वाम मोर्चा अब इस पराजय के बरक्स खुद ही इन समस्याओं का व्यापक नजरिए से विहंगावलोकन करेगा .

वैसे तो भारतीय वामपंथ हर किस्म के झंझावतों में अपनी मशाल को ज्योतिर्मय बनाए रखने में सफल रहा है .आइन्दा भी उसे हर चुनौती का सही आकलन करने  और उसका सामना करने में कोई दिक्क्त नहीं होगी ! बंगाल में ममता की जीत से आतंकित होने की जरूरत नहीं है .तृणमूल के गुंडों से बदहवास होने के बजाय जमीनी संघर्ष और तेज करना होगा . वामपंथ को खास तौर से सीपीएम को बंगाल की वर्तमान राजनीति का वास्तविक आकलन करना चाहिए .बंगाली कामरेडों को जिद छोड़कर अपनी गलतियाँ  मान लेना चाहिए .  बंगाल कांग्रेस ने धोखा दिया  है या मुसलमानों ने धोखा दिया  है या हिन्दू मानस नाराज हुआ है यह भी विश्लेषित किया जाना चाहिए . मोदी जी या संघ परिवार पर वैचारिक हमला करने की भी कोई सीमा सुनिश्चित होनी चाहिए ! क्योंकि इससे वामपंथ के लगभग 10% हिन्दू वोट और कम हो गए है .उधर भाजपा और मोदी को हराने की  धुन में कट्टर पंथी मुसलमानों ने वामपंथ को ठेंगा दिखा दिया है ! भारत के मजदूर ,किसान ,वेरोजगार युवा और छात्र आशावान हैं कि वामपंथ उन्हें सही राह दिखलायेगा . भारतीय वामपंथ को केरल की जीत पर गर्व होना चाहिए ! आइन्दा 2019 के लोक सभा चुनावों में बंगाल पुनः हासिल करते हुए दिल्ली में भी  वामपंथ को प्रभावशाली भूमिका  हासिल करनी चाहिए .

यह सर्विदित है कि केरल में सीपीएम के नेतत्व में LDF अर्थात वामपंथ  को केरल की जनता ने भारी बहुमत से जिताया है। लेकिन इस विराट जीत का भारत के  पूँजीवादी मीडिया ने कोई संज्ञान नहीं लिया। ऐंसा लगता है कि  आवारा पूँजी से नियंत्रित इस  भारतीय  मीडिया को  सिर्फ भाजपा की विजय से मतलब है .यही वजह है कि उसे  भाजपा मुख्यालय की आतिशबाजी और विजयी मिठाई तो दिखती है, लेकिन संघियों द्वारा केरल में माकपा कार्यकर्ताओं की हत्या नहीं दिखती ! उसे ममता की विजय  तो दिखती है ,बंगाल में भाजपा  को मिली 4 सीटें भी दिखतीं हैं ,किन्तु  बंगाल में मोदी जी और भाजपा की घोर पराजय नहीं दिखती !लगता है कि इसे केवल कांग्रेस मुक्त भारत की  फ़िक्र है. इसीलिये कांग्रेस की हार पर ही मर्सिया पढ़े जा रहे हैं। 

भारत के पाखंडी मीडिया ने केरल में  भाजपा को मिली महज  एक सीट के  लिए उसे तो अखण्ड  दिग्विजयी बता दिया .किन्तु इस विजयी उन्माद में मार्क्सवादियों की शानदार जीत को  लगभग भुला ही दिया ।  सत्ता के चाटुकार  मीडिया का एक शर्मनाक  ताजा उदाहरण है कि आज दिनांक २० मई -2016 के नई दुनिया अखवार में ''भाजपा का अब आधे भारत पर शासन '' शीर्षक से एक  नक्शा प्रस्तुत किया गया है . नक़्शे पर उन तमाम राज्यों को भगवा रंग से भरा गया है जिनमें   भाजपा का या उसके अलायंस  एनडीए का राज है । इस नक़्शे में त्रिपुरा को भी भगवा कलर में  दिखाया गया है. जबकि वहाँ माणिक सरकार के नेतत्व में  सीपीएम का १५ साल से शासन है। कायदे से त्रिपुरा को भी केरल की तरह लाल रंग में दिखाया जाना चाहिए था .इससे पहले कि जागरण समूह वाले गुप्त बंधू , भास्कर समूह वाले अगरवाल बंधू ,ज़ी न्यूज वाले  चंद्रा बंधू और तमाम पीत वसनधारी बंधू - केरल को भी भगवा रंग से पोत  डालें , केरल के कामरेडों को अपना लाल रंग और पुख्ता कर लेना  चाहिए ! 

दरसल जिन 5 राज्यों में चुनाव हुए ,उनमें असम ही एकमात्र ऐंसा है जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर थी .बाकी राज्यों में तो भाजपा का सूपड़ा साफ़ हो चुका है .तमिलनाडु में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली ,जबकि वहाँ का एक भाजपा  नेता सुब्र्मण्यम स्वामी तो कांग्रेस मुक्ति या गांधी परिवार के  सर्वनाश की ही मंगल कामना करता रहता है !तमिलनाडु में जय ललिता बनाम  करूणानिधि  तो हैं ,किन्तु भाजपा कहीं नहीं ,किन्तु फिर भी भाजपा वाले भारत विजय का उद्घोष किये जा रहे हैं !पांडिचेरी में कांग्रेस जीती है ,वहाँ भी भाजपा का खाता  नहीं खुला !  केरल में  जरूर ओ राज गोपाल की अखण्ड तपस्या काम आ गयी और  जनता ने उनके बुढ़ापे पर दया दिखाकर जिता दिया .आजादी के 68 साल बाद  'संघ परिवार' को केरल में एक सीट मिली है ,इसलिए  जश्न तो बनता है ,वे खूब जश्न मनाएं ,किन्तु निर्दोष  नौजवानों ,छात्रों मजदूरों पर बम फेंक कर नहीं 1 जैसा कि  पिनराई में सीपीएम के विजय जुलुस पर संघियों ने बम फेंककर मनाया !

 यह तय है कि हर बार की तरह इस बार भी चुनावी हार -जीत की समीक्षाएँ और विश्लेषण पेश होंगे ! हालॉंकि जो नतीजे आये हैं ,उनके बारे में देश की प्रबुद्ध आवाम को और सभी पार्टियों को पहले से ही  प्रायः यही अनुमान था .एग्जिट पोल वाले भले ही तीर में तुक्के मारते रहें ! वेशक इस दौर के चुनावों में कांग्रेस की पराजय अवश्य उल्लेखनीय है .लेकिन जो लोग कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रहे हैं या  जो लोग कांग्रेस पर वर्षों तक काबिज रहे हैं और अब उसकी हार का मर्सिया पढ़ने पर आमादा हैं ,वे दोनों ही यह याद रखें कि  कांग्रेस पार्टी 'फीनिक्स' पक्षी का राजनैतिक अवतार है .जिस तरह एथिक्स का फीनिक्स पक्षी राख से भी उठक पुनः उड़ने लगता है , जिस तरह आषाढ़ का केंचुआ दो टुकड़े होने पर भी पुनः  जी उठता है उसी तरह कांग्रेस भी बक्त आने पर पुनः सत्ता में आ जाएगी . भले ही कांग्रेस गाजरघास है ,कांग्रेस अमरवेलि है ,कांग्रेस खरपतवार ही सही,किन्तु कांग्रेस मुक्त भारत कभी नहीं हो सकता ! क्योंकि कांग्रेस सिर्फ राजनैतिक पार्टी ही नहीं बल्कि स्वाधीनता संग्राम का कीर्तिमान मंच भी रहा है .हताश  निराश कांग्रेसियों को बिहारी के ये दोहे हमेशा याद रखना  चाहिए :-

       जिन दिन देखे वे कुसुम ,गइ सो बीत बहार .
      अब अली रहेउ गुलाब क्यों ,अपत कटीली डार ..

अर्थ :-  सूखे और पत्तेविहींन कटीले गुलाब  पर मंडरा रहे भँवरे से कवि ने पूँछा -अब इसमें  फूल पत्ते कुछ भी नहीं , फिर क्यों मंडरा  रहे हो ?

भँवरे ने जबाब दिया :- एहिं  आशा अटको रहेउँ ,अली गुलाब के मूल .

                           फेरहिं  बहुरि  वसंत  ऋतू ,इन डारन वे फूल ..

अर्थ :-  हे कवि !  मैं इस सूखे गुलाब  की डालियों के इर्द-गिर्द इसलिए मंडरा रहा हूँ,क्योंकि मैं जानता हूँ कि  बहारें फिर से आएंगीं ,फिर से इन सूखी डालियों में कोंपलें फूटेंगीं ,कलियाँ खिलेंगीं ,फूल खिलेंगे !

 श्रीराम तिवारी



गुरुवार, 12 मई 2016

क्या वाकई न्यायपालिका अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रही है ?


पुरानी कहावत है कि  ''यदि  बागड़  खेत चरने लगे तो उसे आग के हवाले करना  ही ठीक है  '' कहावत को समझने में माथापच्ची की अधिक जरूरत नहीं। यहाँ  बागड़ को वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व  मान लें और आग को एक जन 'क्रांति'की मशाल मानकर चलें तो वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की असलियत उसके  दिगम्बर रूप में साकार हो जायेगी ! वरिष्ठ वकील और केंद्रीय वित्त  मंत्री अरुण जेटली से यह उम्मीद तो  विचारे शिवसैनिकों या संघियों  को भी नहीं होगी कि वे मराठा  एम्पायर के महान गौरवशाली न्याय मंत्री 'राम'शास्त्री जैसे निर्भीक और न्यायप्रिय हाकिम होकर दिखाएँ !लेकिन उनका इतना नैतिक पतन होगा इसकी उम्मीद भी  विपक्षी दलों और जेटली विरोधियों को नहीं होगी !

 ११ मई-२०१६ को  राज्य सभा में  श्रीमान अरुण जेटली साहब ने न्याय पालिका पर पानी-पी-पीकर हल्ला बोला। उन्होंने न्यायपालिका पर खुल्लमखुल्ला आरोप लगाया है कि न्यायिक सक्रियता के आवेग  में वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रही है। यदि कोई साधारण आदमी  न्यायपालिका के विवेक पर सवाल  खड़ा करता  ,तो उसे अवमानना से लेकर 'राष्ट्रद्रोह' तक के आरोपों का सामना करना पड़ता । किन्तु अपनी वकालत की रौ और मोदी जी की शै पाकर  जेटली जी ''समरथ  कहँ नहिं  दोष गुसाईं '' का अप्रिय उदाहरण पेश कर  रहे हैं। वे शायद यह भूल रहे हैं  कि वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक राष्ट्र के वित्त  मंत्री हैं। भले ही वे  हिन्दुत्ववादी आदर्श न  बन सके ,किन्तु यदि वे अटलबिहारी मंत्रीमंडल  वाले जेटली ही बने  रहते तो  भी गनीमत होती ! वास्तव 'मोदी प्रभाव' में जेटली जी फासीवादी  भाषा बोलने लगे हैं। इस तरह की आक्रामक भाषा तो  घूसखोरों ,हत्यारों ,बलात्कारियों , चोट्टे -माल्याओं ,ललित मोदियों और भृष्ट कारपोरेट हाउसेस के वकील भी नहीं बोला करते हैं।

 अरुण जेटली और सम्भवतः मोदी जी को शायद  गलत फहमी  है कि वे सर्वशक्तिमान हैं ! उन्हें शायद यह भी भरम है  कि वे  न्याय और कानून से ऊपर हैं। और तमाम न्याय पालिका उनकी चिरौरी के लिए साष्ट्रांग मुद्रा मैं हमेशा तैयार रहेगी । जेटली जी ने न्यायपालिका पर  हलकट आरोप लगाये हैं कि न्यायपालिका अपनी हद से बाहर  जाकर फैसले कर  रही है ,अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रही है। जेटली की यह असंवैधानिक  या अपवित्र भड़ास  अकारण नहीं है। लेकिन  सवाल उठना चाहिए कि है कि क्या वाकई  न्यायपालिका अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रही है ?

चूँकि उत्तराखंड की हरीश सरकार को गिराने में मोदी जी के इंतजाम अली विफल रहे हैं। और इस सरकार गिराऊ उठापटक प्रकरण में उत्तराखंड हाई कोर्ट व  सुप्रीम कोर्ट पूरी मुस्तैदी से संविधान के साथ खड़ा दिखा।क्या न्यायपालिक का यह स्टेण्ड संविधान से बाहर है ? क्या यह  बाकई न्यायिक सक्रियता है ? नहीं ! अपितु यह तो शुद्ध  न्यायिक सजगता  ही है ?  प्रायः हर नाजुक मौके पर भारतीय  न्यायपालिका अपनी अग्नि परीक्षा में खरी उत्तरी है।  इसपर हमें गर्व होना चाहिए ! इस फैसले से  तो भारत की न्याय व्यवस्था का झंडा दुनिया में बुलंद  ही  हुआ है। लेकिन जेटली जी की न्यायिक सक्रियता की मुराद क्या है ? इसके लिए देश के प्रबुद्ध जनों को उनकी मंशा-मनोदशा का विश्लेषण अवश्य करना  चाहिए !

दिल्ली पुलिस जो कि केंद्र सरकार के अधीन है यदि उसकी नाकामी  पर कोर्ट ने सवाल उठाया है तो इसमें गलत क्या है ? यह तो केंद्र सरकार और भाजपा की असफलता है। जेएनयू छात्रों के संदर्भ  में मानव संसाधन मंत्रालय की सनक इकतरफा नहीं  चली। कोर्ट ने  सभी पक्षों को समान अवसर प्रदान किये  हैं ,क्या यह गलत है ? श्री श्री के कार्क्रम में उनके अनुयाईओं ने  यमुना को बर्बाद किया , दिल्ली को  कूड़ा किया ,यदि न्यायपालिका ने उन्हें  दण्ड भरने को कहा तो  क्या  यह गलत है ? देश में पीने का पानी नहीं ,सूखे से देश जर्जर हो चला है ,यदि कोर्ट ने आईपीएल खेलों में पानी के दुरूपयोग पर सवाल उठाया तो क्या  गलत है ? सुप्रीम कोर्ट ने यदि सूखे को लेकर गुजरात ,हरियाणा,महाराष्ट्र और बिहार सरकार के रवैये पर कड़ा एतराज जताया तो जेटली के पेट में दर्द  क्यों ? मनी लांड्रिंग में फंसा भगोड़ा विजय माल्या  यदि अपने मित्र जेटली के मंत्री  होने के  वावजूद  न्यायपालिका  की निगाह मेंअपराधी है तो इसमें न्यायिक सक्रियता  क्या है ? अमिताभ बच्चन  और उनका केबीसी ,सलमान खान और उनके  हिंसक कारनामें यदि न्यायपालिका की जद  में अभी भी हैं तो जेटली जी को गुस्सा क्यों आ रहा है ?

 श्रीराम तिवारी

बुधवार, 11 मई 2016

मल्टीनेशनल के घोर समर्थक मोदी जी और जेटली जी पतंजलि का साथ देंगे क्या ?

लगभग ७-८ साल पहले जब पतंजलि ओषधि में मानव हड्डी पाई गई थी ,तबसे मैंने स्वामी रामदेव के खिलाफ खूब लिखा था। वह सिलसिला  अब  भी ज़ारी है। विगत  लोक सभा चुनावों के ठीक पहले स्वामी रामदेव का नेता नुमा  स्वांग रामलीला मैदान पर सबने देखा। रामदेव का अण्णा जैसा ही  धरना आंदोलन -ड्रामा और स्त्रीवेश में मैदान छोड़कर भागना उनके समर्थकों को भी पसंद नहीं आया। कालेधन और भृष्टाचार के खिुलाफ रामदेव लगातार १० साल से भाषणबाजी करते  रहे हैं। लेकिन जबसे एनडीए सरकार बनी और मोदी जी का राजतिलक हुआ है ,रामदेव जी कालेधन और भृष्टाचार के सवाल पर मुँह में दही जमाये बैठे हैं। ऐंसा आभासित होता है कि बाबा रामदेव को यह बृह्म ज्ञान हो गया है कि उनका योगबल रुपी  बृह्मबाण मोदी जी के काम आकर बेअसर हो चुका है। रामदेव के तरकश में अब पतंजलि संसथान का तीर ही शेष बचा है। इसलिए आजकल वे  पतंजलि के विज्ञापन  में जुट गए हैं। पतंजलि उत्पादों के विस्तार में भी  बाबा  जी जान से जुटे हैं। शायद उन्हें इल्हाम हो चुका है कि केवल  शारीरिक कौशल या कसरत से अपनी महिमा को अक्षुण नहीं रखा जा सकता ! देश की आवाम को सस्ते और  वैश्विक उत्पाद भी उपलब्ध कराने  होंगे।


हालाँकि मुझे उनके उत्पादों या उनके 'योग' से कोई लगाव नहीं है। जो योगासन रामदेव सिखाते हैं वे बचपन में हमारे गाँव के प्रायमरी स्कूल में सिखाए जाते थे। और जाहिर है कि  इस विषय  में हमारे गाँव के तत्कालीन युवा स्वामी रामदेव से ज्यादा आसन और पैंतरे जानते थे। चूँकि  मैंने स्वयं खेतों में नंगे पैर हल हाँका  है। नीलामी के जंगलों में लकड़ी  भी काटी  है। और  पढाई के दौर में सड़कों के लिए खन्तियां  भी खोदी हैं। पत्थर भी तोड़े हैं ।स्वामी  रामदेव  ने यह सब किया होगा इसमें संदेह है।  अब से ५०-६० साल पहले प्रायः हर गाँव -कस्बे में एक अदद अखाडा जरूर हुआ करता था। अब भी गाँवों कस्बों में कहीं-कहीं उनके चिन्ह बाकी हैं। जहाँ तक पतंजलि उत्पादों के सेवन और खरीदने का प्रश्न है तो मुझे पतंजलि के किसी उत्पाद में कोई रूचि नहीं। दरसल  मुझे उनके उत्पादों की जरुरत ही नहीं। वैसे भी हमने अपनी जरूरतों को सीमित कर रखा है। डाबर, हो या वैद्द्यनाथ या पतंजलि - आयुर्वेदिक ,हौम्योपैथिक दवाइयों पर मुझे कोई भरोसा नहीं। लेकिन जिन  मल्टीनेशनल कम्पनियों  के खिलाफ संघर्ष करते हुए  मेरी जिंदगी गुजर गयी ,यदि उन्हें  कोई वास्तव में  चुनौती दे रहा है  ,तो मेरा राष्ट्रीय  कर्तव्य है कि  मैं स्वामी रामदेव और पतंजलि का साथ दूँ !

चूँकि  मल्टीनेशनल कम्पनियों ने भारत का बाजार कैप्चर कर  रखा है और  पतंजलि उत्पाद मल्टीनेशनल  कम्पनियों के उत्पादों को चुनौती दे रहे हैं।  इसलिए  न चाहते हुए भी  मैं अब  बाबा के इस वैश्विक व्यापार का समर्थन करता हूँ।  बशर्ते स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि संसथान अपने उत्पादों की मानक गुणवत्ता का नियमन करे। यदि स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि योग संसथान भारतीय संविधान के दायरे में काम करे , यदि वे  कर्मचारियों,मजदूरों के वेतन ,भत्ते ,पीएफ ,चिकित्सा सुविधा और तद्नुरूप अवकाश के प्रावधानों का पालन करें  ,यदि स्वामी रामदेव और पतंजलि  किसी पूंजीवादी पार्टी को सत्ता में बिठाने का टूल्स न बने और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का आदर करें तो मल्टीनेशनल कम्पनीज बनाम पतंजलि की प्रतिस्पर्धा में मैं स्वामी रामदेव और पतंजलि का ही साथ दूंगा !  जिन्हे मालूम है कि स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि अब एमएनसीज  के निशाने पर हैं।  जो भी  सच्चे क्रांतिकारी और वतनपरस्त हैं  वे भी रामदेव  और पतंजलि का साथ देंगे क्या ?जो भी  इस विमर्श में पतंजलि के खिलाफ होगा वो मल्टीनेशनल कम्पनियों का समर्थक माना जाएगा !  मल्टीनेशनल के हाथों लुटने से  बेहतर है बाबा रामदेव के हाथों लूट जाना। क्योंकि बाबा जो कमाएगा वह साथ नहीं ले जाएगा.। सब यहीं धरा रह जायेगा और देश के कम आयेगा !

 यह कबीले गौर हैं कि पतंजलि बनाम मल्टीनेशनल की प्रतिस्पर्धा में  मोदी सरकार का रुख कैसा रहेगा ? क्योंकि  मोदी जी और  जेटली जी  तो मल्टीनेशनल के  घोषित खासम खास हैं। वे पतंजलि का साथ कैसे देंगे ?  यदि वे स्वामी रामदेव का साथ देंगे तो मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा  सत्ता से उखड दिए जाएंगे। और यदि स्वामी रामदेव का साथ नहीं देते तो बाबा के वोट बैंक से महरूम होना पडेगा !  उनके लिए इधर कुआँ  -उधर खाई है !

\श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 3 मई 2016

इंटरनेट-मोबाइल धारक आधुनिक युवाओं और छात्रों को यह ज्ञान भी होना चाहिए।



प्रायः देखा गया है कि टटपूंजिया- दक्षिणपंथी -भाववादी लेखक अथवा पत्रकार और पूँजीवादी -साम्प्रदायिक  नेता अक्सर वामपंथ  पर वेवजह  हमला करते रहते हैं। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य यह नहीं कि जो  कमजोर वर्गों की आवाज हो -उसको दवाया जाए और भृष्ट लुटेरों की चरण वंदना की जाए ! प्रायः यह भी  देखा गया है कि जो शख्स वामपंथ या कम्युनिज्म की निंदा -आलोचना करता है, वह कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं और उनके द्वारा स्थापित इस  वैज्ञानिक  दवन्दात्मक -ऐतिहासिक भौतिकवाद का ककहरा भी नहीं जानता । यह लम्पट - विक्षिप्त वर्ग एक तरफ तो बड़ी शिद्द्त से दावा करता है कि " दुनिया में अब कम्युनिज्म खत्म हो रहा है, और भारत में कम्युनिज्म की कोई सम्भावना ही नहीं है ,बगैरह,,,बगैरह,," दूसरी ओर यही वर्ग जेएनयू जैसे तमाम विश्वविद्यालयों  के सभ्य सुशिक्षित प्रगतिशील प्रोफेसरों और छात्र-छात्राओं को जन्मजात वामपंथी ही मान रहा है। उन्हें स्व.रोहित वेमूला और उसका निर्धन दलित परिवार वामपंथी नजर आता है। और जिन्हे वर्तमान कारपोरेट कम्पनी कल्चर के प्रति पीलिया प्रेम रोग हो चुका है ,उन अबोध युवाओं को जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया कुमार  'देशद्रोही'नजर आता है। विचित्र विडंबना है कि  इन अर्धशिक्षित -दिग्भर्मित हाईटेक  युवाओं को  विजय माल्या  ललित मोदी, कालेधन वाले  भॄस्ट अफसर और  बेईमान पूँजीपति  'देशभक्त' नजर आ रहे हैं ? उन्हें अर्धविक्षिप्त सुब्रमण्यम स्वामी हिन्दुत्ववादी  नजर आता है ,खुद जिसकी लड़की ने किसी गैर हिन्दू से शादी की है। आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी के दामाद भी मुस्लिम  ही हैं। वाह क्या अदा है उनके इस हिंदुत्व की ? यह  शिवाजी या राणाप्रताप वाला  हिन्दू तो कदापि नहीं है ,वेशक जोधा के बाप राजा बिहारीमल या भाई मानसिंह वाला हिंदुत्व अवश्य नजर आता है। जिन लोगों की नजर में कामरेड कन्हैया देशद्रोही है ,उन्ही की नजर में भगोडे  विजय माल्या ,ललित मोदी और तमाम लुच्चे -लफंगे साम्प्रदायिक नेता देशभक्त हैं !

अक्सर कुछ सीधे सादे अर्धशिक्षित छात्र और तकनीकी दक्षता प्राप्त युवा केरियरिस्ट भी जुमलेबाज नेताओं की  झांसेबाजी को समझ नहीं पाते। वे  नहीं जानते  कि किस खास निहित स्वार्थी योजना के तहत आधुनिक पूँजीवादी मीडिया एक खास रंग की राजनीती को उनके  ललाट पर उत्कीर्ण किये  जा रहा है। प्रतिगामी नीतियों को इतिहास के कूड़े से उठाकर ,वैश्विक बाजार के उत्पादों को देश की गलियों चौबारों में खपाकर और लोकतंत्र  को चूना लगाकर आधुनिक 'विकास' का गुणगान किया जा रहा है। अतीत की असफलताओं के बहाने वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व को  महिमा मण्डित   किया जा रहा है। सिर्फ एक खास नेता का ही गुणगान प्रायोजित किया जा रहा है। कोशिश की जा रही  है कि  सिर्फ एक नेता के 'मन की बात ' ही सुनी जाए। क्या यह नव फासीवाद का आगाज नहीं है ? देश में यदि लोकतंत्र है तो सभी के मन की बात  क्यों नहीं सुनी जानी चाहिए?

आधुनिक युवा  तकनीकी रूप से  बिजनेस मैनेजमेंट या बाजारीकरण की नजर में तो काबिलियत रखते हैं किन्तु उन्हें विश्व व्यापी सनातन संघर्षों और उनके ऐतिहासिक दवंदों की खबर नहीं है। वे यह नहीं जानते कि आधुनिक साइंस ने दुनिया में केवल वैज्ञानिक क्रांति ही नहीं की है । आधुनिक कम्प्यूटरीकृत युवाओं के समक्ष संसार का अथाह ज्ञान कोष संचित रखा  हुआ है  किन्तु फिर भी वे यूरोपियन  रेनेसा,फ्रेंच रेवोलुशन ,अमेरिकी क्रांति , सोवियत अक्टूबर क्रांति ,चीनी सर्वहारा एवं सांस्कृतिक क्रांति के बारे में कुछ नहीं जानते। अतीत की  क्रांतियों के दुनिया पर हुए विश्व व्यापी सकरात्मक असर की उन्हें कोई जानकारी  नहीं है । आधुनिक तकनीकी दक्षता प्राप्त युवाओं को नहीं मालूम कि यह आधुनिक  संचार क्रांति या वैज्ञानिक समग्र क्रांति जिस साइंस की देंन  है ,उसी  साइंस ने दुनिया में  सामंतवादी- शोषणकारी  राजनीति को पलटने का  काम  भी किया  है। विश्व व्यापी साइंस की खोजों ने ही यूरोप में पहले -पहले सामंतवाद पर प्रजातंत्र को बढ़त दिलाई थी। और  'चर्च' की प्रभुसत्ता को नियंत्रित  करने  का काम  भी किया था  दुनिया बाहर के गुलाम राष्ट्रों-पूर्व के  उपनिवेशों को मुक्त कराने में इस साइंस की भूमिका प्रमुख रही है। साइंस ने राजनैतिक -आर्थिक -सामाजिक  क्षेत्र में जो भी अनेक  क्रांतिकारी उलटफेर किये हैं। ये क्रांतिकारी परिवर्तन  ही मार्क्सवाद या साम्यवाद के उत्प्रेरक रहे हैं। इसी समग्र वैश्विक  क्रांतिकारी दर्शन ने  दुनिया  को क्रांति की नयी राह दिखाई है । वैज्ञानिक  भौतिकवाद ही साम्यवादी दर्शन का मेरुदण्ड है। इंटरनेट मोबाइल धारक आधुनिक युवाओं को यह ज्ञान भी  होना चाहिए। 

मार्क्स ,एंगेल्स तो साम्य वादी अन्वेषण के  महज निमित्त मात्र थे। यह व्यवस्था परिवर्तन का सिद्धांत अटल है ,यह हर देश में हर काल में अलग-अलग ढंग से होता ही रहता है। वक्त आने पर  भारत में भी इसे  होना ही है। लेकिन किस देश में कब होगा ?कैसे होगा ? यह उस देश के युवाओं की तासीर पर निर्भर है । क्रांति कब हो ?कैसे हो ? यह सम्बंधित देश की क्रांतिकारी युवा सोच पर निर्भर करता है। परिवर्तन की प्रक्रिया को जान लेना ही इस क्रांतिकारी  दर्शन का ब्रह्मज्ञान  है । भारत में यह ज्ञान सर्वप्रथम मान्वेंद्रनाथ राय ,रजनिपामदत्त ,लोकमान्य  तिलक  , मुजफ्फर अहमद , शहीद भगतसिंह इत्यादि महान  क्रांतिकारियों  को  हुआ था। उन्होंने गुलाम भारत में भी वोल्शिविक क्रांति के सपने देखे थे। किन्तु धूर्त अंग्रेजों ने अपने ढहते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने  के लिए भारत में जाति -धर्म के  गोरखधंधे रच  डाले। उन्होंने भारत की  विध्वंशक शक्तियों को खूब उकसाया।  ताकि भारत में सर्वहारा क्रांति को रोक जा सके।  उन्होंने 'अहिंसा' के बहाने गांधी जी और कांग्रेस  के नेताओं को पूँजीवाद का पाठ  पढ़ाया,और कांग्रेस -मुस्लिम लीग के अलगाववादी  ध्रुवों को खास तवज्जो दी। नतीजे में इस  विभाजित उपमहाद्वीप की दो  कौमें अभी तक रूठी हुई  हैं। अब तक तो यह केवल मजहबी दुराव मात्र  हुआ करता  था ,किन्तु अब वह साम्प्रदायिक उन्माद के रूप में राजनैतिक शक्ति संचय  का साधन बन चुका है।

इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और  जिन्ना को पाकिस्तान के लिए उकसाया था,और सिखों को खालिस्तान के लिए । तमिलों -तेलगु और अन्य गैर हिंदी -भाषा -भाषियों को उनके अलग-अलग राष्ट्रों के लिए उकसाया था ।  केवल इतना ही नहीं अंग्रेजों ने  दलितों और उनके नेताओं को जातीय आधार पर पृथक निर्वाचन के लिए भी उकसाया। जिसे महात्मा गांधी ने बड़ी सूझ-बूझ  से  'पूना पेक्ट ' के तहत आरक्षण व्यवस्था के रूप में लागू कर द्रवीभूत किया । लेकिन आज गांधी जी और बाबा साहिब अम्बेडकर होते तो  इस दौर के आरक्षण का यह  महास्वार्थी वीभत्स रूप देखकर  अपना माथा कूट लेते।उनके लिए आरक्षण का मकसद सफेदपोश वर्गों की ऐयासी नहीं था,बल्कि निर्धन दलित -सर्वहारा का उत्थान ही उनका पवित्र ध्येय  था। वह ध्येय कैसे पूरा हो ? आधुनिक  शिक्षित -युवाओं को इसका उत्तर खोजना  चाहिए।

 अंग्रेजों ने जाते-जाते ,कश्मीर,हैदराबाद,भोपाल,जूनागढ़ और अन्य कई राजाओं को 'भारत संघ' में शामिल होने से रोका। उन्होंने  देशी राजाओं को स्वतंत्र रहने के लिए उकसाया ! इस अवसर पर कांग्रेस के अंदर जो लेफ्टिस्ट थे उन्होंने भारत को एकजुट करने में सरदार पटेल और नेहरू का भरपूर साथ दिया। देश विभाजन के समय कौमी दंगों को रोकने में ईएमएस नबूदिरपाद और तत्तकालीन तमाम कम्युनिस्टों की महती भूमिका रही है। कांग्रेस ने केवल गैर कम्युनिस्ट नेताओं के जीवन चरित्र और बलिदान ही पाठ्य पुस्तकों में प्रकाशित कराये हैं।  हैदराबाद  के निजाम और उसके रजाकारों ने रॉयल सीमा और आध्र में जब पृथक स्टेण्ड लिया और पाकिस्तान मे मिलने की चर्चा चलाई तो लाल झंडे वालों ने ही निजाम को घेरकर मजबूर किया कि वो भारत में विलय पर हस्ताक्षर करे। इस मुठभेड़ में  जितने कम्युनिस्ट मारे गए  उतने तो पाकिस्तान में हिन्दू भी नहीं मारे गए होंगे।

ठीक इसी समय हिन्दू महा सभा के लोग भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम  पर गांधी जी को  निपटाने के षड्यंत्र रच रहे थे। जिसकी परिणीति नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की हत्या के रूप में हुई।अच्छे -खासे पढ़े लिखे लोग भी कभी-कभी आर्थिक -राजनैतिक-दर्शन -सिद्धांतों को जाने बिना घोर फासीवादी संगठनों के प्रभाव में आ जाते हैं। और इसी तरह राजनीतिक विश्लेषण क्षमता से विमुख कुछ प्रगतिशील लोग भी धर्मनिरपेक्षता और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भटक जाया करते हैं। दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद के बरक्स  कुछ  वामपंथी भी वैचारिक  संकीर्णता की खाई में जा गिरते हैं। पर्याप्त अध्यन के अभाव में भाजपा और संघ का बड़े से बड़ा प्रवक्ता भी मार्क्सवादी  नीति निदेशक सिद्धांतों से  अंजान ही रहता है। क्योंकि वह गोलवलकर साहित्य के दुष्प्रभाव में आकर मार्क्सवाद के प्रति शत्रुवत और सर्वहारा वर्ग के प्रति नकारात्मक भाव में होता है, अतः  इन कूप मण्डूक  लोगों से  किसी किस्म के विवेकपूर्ण विश्लेषण की उम्मीद नहीं की जा सकती।

 संघियों की  तरह कुछ जड़ -मार्क्सवादी वामपंथी भी सर्वहारा -अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांतों को छोड़कर मौजूदा राजनीति  के प्रचण्ड  चेता हो जाते हैं।  उन्हें  वैज्ञानिुक  भौतिकवाद की इतनी सनक सवार होने लग जाती है की भाव जगत की ठाँव में  माता -पिता भी रूढ़िवादी -संकीर्णतावादी नजर आते हैं।जब किसी वामपंथी को भाववादी दर्शन में केवल मिथ या आडंबर ही दिखेगा तो वह उसके प्रति अध्यन में  रूचि  भी क्यों लेगा ? उग्रवामपन्थी से लेकर  ट्रेड यूनियन में काम करने  वाले नेता-रामायण ,बाइबिल.कुरआन जैसे भाववादी साहित्य को समग्र रूप से पढ़ने -समझने की कोई खास चेष्टा नहीं करते। चूँकि  उन्होंने पहले से ही ठान रखा है कि  ''यह  सब बकवास है , पाखंडपूर्ण मिथकीय कूड़ा करकट है '' ! धर्म -मजहब और दर्शन के ग्रंथों को पढ़े बिना , अतीत के इतिहास को ठीक से उन्हें जाने बिना,उसके विमर्श में कून्द पड़ते हैं। इसीलिये धर्मांध जनता को वर्ग चेतना की जद में लाने में ये वामपंथी विद्वान भी  फिसड्डी सावित होते  रहते हैं।

 संसदीय लोकतंत्र के त्रुटिपूर्ण चुनावों में असंगठित क्षेत्र की  बहुसंखयक जनता और अल्पसंख्य्क समूह तीसरे विकल्प या वामपंथ की जीत को हमेशा संदेह की नजर से देखती है। लोकसभा या विधानसभा चुनावों के समय  गरीब- मजदूर-किसान समुदाय जाति -धर्म -मजहब के पांतों में बट जाता है। और गफलत में अपने वर्ग शत्रु को ही वोट दे देता रहता है। उसकी रहनुमाई के लिए मौजूद  सर्वहारा के हरावल दस्ते को हार का मुँह देखना पड़ता  है। वर्तमान 'अच्छे दिनों'में  भी यही सब चल  रहा है।मानव इतिहास के हर  दौर में कुछ मुठ्ठी भर लोग ही होते हैं जो  हर किस्म के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संगठित संघर्ष की रहनुमाई  किया करते रहे हैं। वे समाज-राष्ट्र के सकारात्मक निर्माण में भी निष्णांत हुआ करते  हैं। ऐंसे धीरोदात्त  चरित्र के बलिदानी लोगों से ही युगांतर होते रहे हैं। इन्ही से  महाकाव्यों के चरित्र गढे  जाते रहे हैं। कालांतर में इन्हे ही देव ,इन्हें ही अवतार और ,इनको ही 'नायक' कहा जाता रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद और पुरातन दर्शन -मिथ -इतिहास सभी एक दूजे के अन्योन्याश्रित हैं।किसी भी युग के ज्ञान -इतिहास का कोई पृथक अस्तित्व  नहीं है। सब कुछ समष्टिगत है।

 आधुनिक विश्व क्रांतिकारी द्वन्दात्मक -भौतिकवादी विचार के प्रणेताओं ने उनके प्रगतिशील वामपंथी-साहित्य को जो  सम्मान दिया है ,वही  सम्मान  सामन्तयुगींन रीतिकालीन सौंदर्य साहित्य को भी मिलना चाहिए। यह साम्यवादी दर्शन भी उतना ही पुरातन  है जितने की महाकाव्य। इसलिए दोनों ही समान रूप से आदरणीय ,पठनीय और अनुकरणीय  है। भाववादी  महाकाव्य  साहित्य सृजन  न केवल भव्य  है अपितु वह  निरंतर अनुशीलन   योग्य  भी है। वह किसी भी कोण से  प्रतिक्रांतिकारी और  यथास्थितिवादि नहीं है। अपितु किसी भी आसन्न क्रांति चेतना के लिए यह जीवंत साहित्य तो पूर्वपीठिका की तरह  ही सर्वकालिक है। स्वामी विवेकानंद ,स्वामी श्रद्धानन्द,लाला लाजपत राय , काजी नजरूल इस्लाम ,रवींद्रनाथ टेगोर,अरविंदो ,ईएमएस नम्बूदरीपाद ,श्रीपाद डांगे,राहुल सांकृत्यायन ,बाबा नागार्जुन ,निराला ,राम विलास शर्मा इत्यादि ने भारतीय  महाकाव्यों का गहन अध्यन  किया था। इन सभी को यूरोप की वैज्ञानिक और भौतिक क्रांतियों का भी पर्याप्त  ज्ञान था। यही वजह है कि ये सभी  सिर्फ मार्क्सवाद के विद्वान ही नहीं अपितु निर्विवाद रूप से स्वतंत्र भारत के पथप्रदर्शक  भी माने जाते हैं।

कुछ अपवादों -क्षेपकों को छोड़कर अधिकांश भाववादी भारतीय साहित्य -खास तौर से पाली, प्राकृत ,अपभ्रंस  और संस्कृत -वांग्मय का  दर्शन अक्षरशः वैज्ञानिक आधार पर  पर्याप्त प्रमाणिक  है। और मानवीय तो वह है ही । भले ही यह  तमाम प्राचीन महाकाव्य सृजन नितांत अतिश्योक्तिपूर्ण -गप्पों का ही भण्डार ही क्यों न हो !किन्तु उस भूसे के ढेर में भी परोपकार ,नयायप्रियता, अपरिग्रह, उत्सर्ग ,सत्य शील, उदारता ,बन्धुता , क्षात्रत्व  इत्यादि सनातन मूल्यों की अमूल्य धरोहर रूप में अनेक मणि-माणिक्य छुपे हुए हैं। अर्थात  प्राच्य दर्शन और  समग्र वैदिक वांग्मय के सूत्र भी कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' के कालजयी सिद्धांतों जैसे ही मानवीय-सर्वकालिक हैं।

महाभारत और उसके भीष्म पर्व में सन्निहित भगवद्गीता तो विश्व में बेजोड़ हैं। कुछ प्रगतिशील लोग इस मिथकीय साहित्य को बिना पढ़े ही हेय दॄष्टि से देखते हैं। इसी तरह अधिकांश  भाववादी और अंधश्रद्धा वाले मजहबी साम्प्रदायिक लोग भी 'दास केपिटल ' मार्क्सवाद या 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'  इत्यादि को पढ़े बिना ही कम्युनिज्म पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। ये तथाकथित धार्मिक और भाववादी लोग अपने धर्म -पंथ के मूल्यों को जाने बिना और  इन गर्न्थो का सांगोपांग अध्यन किये  बिना ही उनकी गलत सलत व्याख्या करते रहते हैं। वे अपने कर्मकाण्डीय धार्मिक प्रयोजन के बहाने  इस शानदार पुरातन धरोहर रुपी अध्यात्म साहित्य को गर्त में धकेल रहे  हैं और धर्म-मजहब के  विस्तार के बहाने  उसका बेजा राजनैतिक दुरूपयोग करते रहते हैं।

आम धारणा  है कि  वेद ,आरण्यक ,उपनिषद ,गीता ,कुरआन,बाइबिल इत्यादि ग्रन्थ तो कोरे अवैज्ञानिक और  भाववादी -अध्यात्मवादी ही हैं। सांगोपांग अध्यन करने पर पता चलता है कि ये सभी गूँथ तो  मूलतः वैज्ञानिक भौतिकतावादी ही हैं। इनमें निहित भाववाद सिर्फ व्यष्टि चेतना के निमित्त ही दर्ज  है। रामायण महाभारत या अभिज्ञान शाकुन्तलम ही नहीं बल्कि पंचतंत्र-हितोपदेश जैसा लोक साहित्य  भी इस बात का प्रमाण है कि  वह  केवल मिथ या कालकवलित मृगमरीचिका  नहीं है।  अजन्ता ,एलोरा ,खजुराहो,साँची -सारनाथ और दक्षिण भारत के  विशाल मंदिर एवं भारत में यत्र-तत्र -सर्वत्र विखरी पडी  विराट पुरातन  शिल्प  धरोहर में सर्वत्र पुरातन साइंस -टेक्नॉलाजी  विदयमान है। कु छ भी  तो अवैज्ञानिक नहीं है।क्या  बिना गणतीय सूत्रों ,प्रमेयों और सहज भौतिक ज्ञान   के,अतीत का यह  विराट सृजन सम्भव था? नहीं ! कदापि नहीं ! बल्कि इस पुरातन  शिल्प , के आधार पर ही मनुष्य ने आधुनिक उचाईयों को छुआ है। सकल पौराणिक  -मिथकीय सृजन ,और  साहित्य भी आधुनिक प्रगतिशील वैज्ञानिक खोजों की ही तरह न केवल ज्ञेय  और गम्य है बल्कि मानवोचित है सार्वभौम है , सार्वकालिक  हैं।


  श्रीराम तिवारी !