सोमवार, 31 जनवरी 2022

ये तो जूँठन है

 हमारे आदिवासी भाइयों को भड़काया जाता है कि देखो तुम जंगल में भटकते रहते हो, तुम वनोपज पर निर्भर हो और तुम्हारे पिछड़े होने,गरीबी के लिये सवर्ण लोग जिम्मेदार हैं!

हमारे बुंदेलखंड (एम.पी.) में इसका उल्टा है! दरसल यहां अधिकांश दलित आदिवासी भाई या तो बिड़ी बनाते हैं या कारीगर हैं या शहरों में मजदूरी करते हैं! जबकि सवर्ण गरीब जंगलों से जाकर महुआ बीनते थे! शहरों में कुछ लोग महुआ के फूल को फल समझते हैं! जबकि दरसल महुए के फूल को बीनकर सुखाते हैं और उसके कई उपयोग होते हैं!
सुखाये गये महुए के फूल से ज्यादातर तो शराब ही बनाई जाति है! जबकि महुए के फल को गुली कहते हैं! इससे महुए का तेल बनाया जाता है! गुली धपरा पिराई से तेल के साथ खली भी प्राप्त होती है जो भूसे की सानी में मिलाकर दुधारू गायों भैंसों,बैलों और अन्य पाल्य पशुओं को खिलाई जाती है!
हमारे गाँव में 5 साल की उम्र से लेकर 80 साल की उम्र तक महुआ बीनने वाले,तेंदू पत्ता संग्रह करने वाले अधिकांस सवर्ण आदिवासी हैं! अहिरवार समाज के लोग बीड़ी बनाते हैं, कुछ सरकारी नौकरी में लग गये हैं! मैने स्वयं किशोरवय में गुली धपरा और चारोली (अचार) भी जंगल से बीने हैं! मुझे गर्व है कि किशोर अवस्था समाप्त होते होते, पढ़ाई के साथ साथ मैने ये बनोपज संबंधी और खेत खलिहान मेहनत के सारे काम शिद्दत से किये हैं !
जबकि पढ़ाई में भी मेरा स्थान अक्सर अव्वल ही हुआ करता था! किंतु जो सुख सुविधाएं पिछड़े वर्ग या sc-st को थीं, जैसे कि वे लोग सरकारी छात्रवास में पका पकाया भोजन पाते थे,जबकि मैं या मेरे अन्य सवर्ण बंधुओं के पास ऐंसी कोई सुविधा नही थीं! हम अपने हाथ से गेंह्ू बीनते ,पिसवाते और भोजन के नाम पर दो टिक्कड़ बनाया करते थे!
एक बार हमारे गांव के गबदू अहिरवार ( अब लाखनसिंह) मुझे यूनिवर्सिटी छात्रावास ले गये !वहां मैने देखा कि छात्रावास के कमरों के बाहर एक कोने में पके हुऐ झक सफेद चावलों का ढेर लगा है! मैने गबदू अहिरवार उर्फ लाखनसिंह (जो बाद में सरकारी कालेज में लेक्चरर हो गये) से पूछा कि ये चावल जमीन पर क्यों रखे हैं? वे बोले कि ये तो जूँठन है!!!
मैने मन ही मन सोचा कि विश्वविद्यालय के हरिजन छ्त्रावास का ये आलम है कि फीस माफ,भोजन फ्री व अन्न का नुकसान अलग! उधर शहर में मैं एक किराये के कच्चे मकान में रहता हूँ, फीस जुटानी पड़ती है,सिर्फ दो टिक्कड़ मिल जाएं तो बहुत ! महिनों गुजर गये चावल का एक दाना नही देखा!
मन की इस वेदना को मैने कभी उजागर नही किया! किंतु गरीबों की वकालत करने वालों को खरबपति अखिलेश यादव और अरबों की स्वामिनी बहिन मायावती का समर्थन करते देख , बरबस सवाल उठ रहा हैकि क्या यह लोकतंत्र ज्यादा दिन टिक पाएगा?

रविवार, 30 जनवरी 2022

लोरी की आवाज आती तो है!!

 मुश्किल से गुजरी स्याह रात के बाद,

खुशनुमा एक नयी सुबह आती तो है।
घर के आँगन में हो कोई हरा-भरा पेड़,
तो कभी कभी गौरैया भी गाती तो है।।
यों तितलियां जीती हैं सिर्फ आठ पहर,
किंतु जिंदगी उनकी भी मुस्कराती तो है!
जीवन चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो,
भले मानुष को यह धरती सुहाती तो है!!
आभामंडल मंद हो या तीव्र दीप्तिमंत का,
प्रकाशकिरण उसके अंतस में समाती तो है!
लहरें दरिया की हों या महासागर कीं,
उमड़ घुमड़ गंतव्य में समाती तो है!!
आज भले ही मौसम है बदमिजाज कुछ,
किंतु बसंत के आने पर कोयल गाती तो है।
क्रूर निष्ठुर नीरस नागर सभ्यता के इतर,
ग्राम्यगिरा में लोरी की आवाज आती तो है!!
गौरैया,तितली,कोयल,लोरी,भोरका कलरव,
सह्रदय इंसानमें जीनेकी उमंग जगाती तो है।

गाँधीजी की पुण्यतिथि पर...

 यद्द्पि मैं गांधीवादी नहीं हूँ,कांग्रेसी भी नहीं हूँ,किँतु स्वाधीनता संग्राम में बापू के अथक अवदान के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ ! मैने जब चार्ली चैपलिन,अलवर्ट आइंस्टीन,जॉर्ज बर्नाड शॉ,नेल्सन मंडेला,दलाई लामा,मदर टेरेशा,मार्टिन लूथर किंग और डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा गांधीजी के बारे में लिखा गया गुणानुवाद पढ़ा, तो बरबश ही मैं भी गांधी जी के प्रति श्रद्धावनत हो गया!

मैं उपरोक्त हस्तियों का तहेदिल से आभारी हूँ कि उन्होंने गांधी जी को समझा और दुनिया में गांधी जी के साथ साथ भारतीय दर्शन का झंडा बुलंद किया!जिस फासिस्ट विचारधारा ने गांधीजी की हत्या कराई, उसकी मैं घोर निंदा करता हूँ ! गाँधीजी की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ!---श्रीराम तिवारी
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धन्यवाद नाथूराम ....अमर रहो !

आज़ादी के छह महीने पूरे होने से पहले ही गांधी को गोडसे ने मार दिया। अच्छा ही किया। गांधी ने तो कहा था कि देश का विभाजन मेरे मृत शरीर पर ही होगा। पर हो गया विभाजन। तो गांधी तो मन से मर ही चुके थे। 78 साल के हो चुके थे । कुछ साल और जी लेते हैं मरे मन से। नाथूराम गोडसे ने तीन गोली मारकर मुक्ति दे दी और फिर विकृत चेहरा सामने आया चरमपंथी हिंदूवादी संगठनों का । फांसी तो नाथूराम को हुई पर सदा के लिए कलंकित तो वही हुए - चरमपंथी हिंदूवादी संगठन।
आज भले वे गोडसे को शहीद कहें , 30 जनवरी को गांधी हत्या के दृश्य को हर साल दोहराएं पर इतिहास में उनका नाम गांधी के हत्यारों के रूप में दर्ज रहेगा ही। उस आदमी की हत्या जिसको दुनिया में करोड़ों लोगों ने ( अपने देश के बाहर के ) अपना आदर्श माना। इस श्रेणी में कुछ धार्मिक नाम ही हैं - कृष्ण , राम , मोहम्मद , बुद्ध , नानक और जीसस जैसे । पर इंसानों में ? गांधी के अलावा सबसे अधिक प्रभावशाली रहे हैं शायद कार्ल मार्क्स पर केवल विचारों के लिए। अपने चरित्र और व्यवहार के लिए केवल एक ही नाम है - मोहनदास करमचंद गांधी।
खूब बनाओ गांधी के पुतले और गोली मारकर खून बहाने के दृश्य दिखाओ। जीसस का सबसे मशहूर चित्र सूली पर लटके जीसस का ही है , लोगों को समझाते हुए जीसस का नहीं। उनकी मौत ही उनका पैगा़म था। गांधी की मौत भी एक पैगा़म है। कैसे नफ़रती लोग एक पतले - दुबले बूढ़े को विचारों से नहीं हरा सकते तो गोली ही मार देते हैं । इससे बड़ा मानसिक दिवालियापन का सबूत और क्या होगा ? संघियों , गांधी की हत्या तो तुम्हारी वैचारिक हार का सबसे बड़ा प्रतीक है ।
युद्ध में कभी-कभी असुर भी जीत जाते थे पर तभी कोई दधीचि आता था और अपनी देह का दान कर देता था। कभी कंस आया , तो कभी रावण आया और कभी हिरण्यकश्यप - सब अजेय, अमर होने का वरदान लेकर। परंतु सत्य के सामने कहां टिके। नब्बे साल की कोशिश के बाद कुछ साल रह लोगे। इतिहास तुम्हें कैसे याद करेगा बताने की ज़रूरत नहीं है।
शरीर में तीन गोली खाने वाला इंसान तुम्हें सताता रहेगा ...बार-बार मारना... बार बार खड़ा होकर कहेगा : बस और गोलियां नहीं है ! उसकी अहिंसा में वीरता थी और तुम्हारी हिंसा में कायरता ।
हम तो दक्षिण अफ्रीका में डरबन से प्रिटोरिया जाते समय गांधी के सहयात्री उस गोरे को भी धन्यवाद करते हैं जिसने 7 जून 1893 को सर्दी की रात में नवयुवक मोहनदास गांधी को कुली कहकर पीटरमेरिटज़बर्ग स्टेशन पर नीचे धक्का दे दिया था। ऐसा ना करता तो मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी न बनता , एक वकील बन कर रह जाता। पीटरमेरिटज़बर्ग स्टेशन पर गांधी के नाम की तख्ती लगी है और बाहर गांधी की कांस्य की मूर्ति लगी है । उस गोरे का नाम भी किसी को याद नहीं है । गांधी को शहादत दिलाने के लिए धन्यवाद नाथूराम गोडसे। साभार : एफ बी
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बदनाम सिस्टम को बदलने की चेष्टा करें!

 जिनके पास रोजगार नहीं,घर नहीं,शिक्षा के अवसर नही,स्वास्थ-व्यवस्था उपलब्ध नहीं,वे यदि अंधभक्त हैं तो ईश्वर,अल्लाह या GOD के समक्ष अपनी समस्या रखें! यदि तर्कशील विज्ञानवादी हैं तो इस बदनाम सिस्टम को बदलने की चेष्टा करें! और यह काम सिर्फ सत्ता परिवर्तन से नही होगा!

सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक क्रांति से ही यह संभव होगा!

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

रज़ाई में पड़े रहो

 वीर तुम अड़े रहो,

रज़ाई में पड़े रहो
चाय का मज़ा रहे,
प्लेट पकौड़ी से सजा रहे
मुंह कभी रुके नहीं,
रज़ाई कभी उठे नहीं
वीर तुम अड़े रहो,
रज़ाई में पड़े रहो
मां की लताड़ हो
या बाप की दहाड़ हो
तुम निडर डटो वहीं,
रज़ाई से उठो नहीं
वीर तुम अड़े रहो,
रज़ाई में पड़े रहो
मुंह भले गरजते रहें,
डंडे भी बरसते रहें
दीदी भी भड़क उठे,
चप्पल भी खड़क उठे
वीर तुम अड़े रहो,
रज़ाई में पड़े रहो
प्रात हो कि रात हो,
संग कोई न साथ हो
रज़ाई में घुसे रहो,
तुम वही डटे रहो
वीर तुम अड़े रहो,
रज़ाई में पड़े रहो
कमरा ठंड से भरा,
कान गाली से भरा
यत्न कर निकाल लो,
ये समय तुम निकाल लो
ठंड है यह ठंड है,
ठंड बड़ी प्रचंड है
हवा बाण चला रही,
धूप को डरा रही
वीर तुम अड़े रहो,
रज़ाई में पड़े रहो।।

"जब सवर्ण को संविधान में समानता का अधिकार ही नहीं तो आप गणतंत्र दिवस की बधाई क्यों दे रहे हैं ?" क्षत्रियों, ब्राम्हणों और दीगर लोगों ने अरबों, मुगलों और अफ़गानों से देश की रक्षा करने में अपनी अनेक पीढ़ियां और वंश कुर्बान कर दिए!

सालों नहीं, सदियों तक!
बताते हैं कि एक समय ऐसा भी आया जब राजपूताने में युवाओं की तादाद एक चौथाई रह गई थी! उन बलिदानों का क्या हश्र और क्या मुआवजा देश ने दिया??
अब तो लगता है कि सारे विधान सिर्फ़ सत्ता हथियाने के लिए ही बनाए गए हैं!
अब ऐसे लोकतंत्र के क्या मायने?

लोरी,सह्रदय इंसानमें जीनेकी उमंग जगाती तो है।

 मुश्किल से गुजरी स्याह रात के बाद,

खुशनुमा एक नयी सुबह आती तो है।
घर के आँगन में हो कोई हरा-भरा पेड़,
तो कभी कभी गौरैया भी गाती तो है।।
यों तितलियां जीती हैं सिर्फ आठ पहर,
किंतु जिंदगी उनकी भी मुस्कराती तो है!
जीवन चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो,
भले मानुष को यह धरती सुहाती तो है!!
आभामंडल मंद हो या तीव्र दीप्तिमंत का,
प्रकाशकिरण उसके अंतस में समाती तो है!
लहरें दरिया की हों या महासागर कीं,
उमड़ घुमड़ गंतव्य में समाती तो है!!
आज भले ही मौसम है बदमिजाज कुछ,
किंतु बसंत के आने पर कोयल गाती तो है।
क्रूर निष्ठुर नीरस नागर सभ्यता के इतर,
ग्राम्यगिरा में लोरी की आवाज आती तो है!!
गौरैया,तितली,कोयल,लोरी,भोरका कलरव,
सह्रदय इंसानमें जीनेकी उमंग जगाती तो है।
- श्रीराम तिवारी !

 आपका संचित ज्ञानकोष चाहे कितना ही समृद्ध क्यों न हो ?यदि आप किसी रोते हुए बच्चे को हँसा नहीं सकते ,यदि आप अपने ही सपरिजनों या बुजुर्गों को खुश नहीं कर सकते ,यदि आप खुद भी खुशियों से महरूम हैं ,तो आपका संचित ज्ञानकोष आपके लिए जहर है। आप तत्काल उससे मुक्त हो जाइये !

आप सहज, सरल और तरल जीवन जीने की कोशिश कीजिये !यदि आप वास्तव में ज्ञानी हैं तो किसी भी व्यक्ति,विचार अथवा वस्तु के व्यामोह से बचिए और अहं का बोझ भी तत्काल उतारकर फेंक दीजिये !

बुधवार, 26 जनवरी 2022

डर्टी पॉलिटिक्स का सिलसिला

 वेशक अनेक अनगिनत कुर्बानियों की कीमत पर भारत को आजादी मिली,किन्तु अंग्रेजों की क्रूर दुरभिसंधि मुस्लिम लीग और कुछ जातिवादी नेताओं की गद्दारी से मुल्क का बटवारा हो गया। भारत पकिस्तान दो मुल्क बनाकर अंग्रेज यहां से विदा हो गए।सिर्फ जमीन का बटवारा नहीं हुआ,भारतीय आत्मा का भी बटवारा हो गया। मुस्लिम लीग और हिंदूवादी संगठनों ने आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं दिया। महात्मा गाँधी ,पंडित मोतीलाल नेहरू,पंडित मदनमोहन मालवीय,पंडित गोविन्दवल्ल्भ पंत,लोकमान्य बल गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,विपिनचंद पाल,आसफ अली,सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खान,पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुउल्ला खान, सआदत खान,मौलाना आजाद,भगतसिंग ,चंद्रशेखर आजाद,सुखदेव राजगुरु,पंडित जवाहरलाल नहरू,सरदार पटेल,डॉक्टर राजेंद्रप्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन,महाकवि सुब्रमण्यम भारती और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक हुतात्मओं की बदौलत यह आधी अधूरी आजादी मिल सकी थी।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान आंदोलनकारी जनता और नेतत्व करने वालों को अंग्रेजों की लाठी गोली खाना, दमन उत्पीड़न भोगना और जेल जाना तो आम बात थी,किन्तु इस संघर्ष में असल चीज थी भीतरघात याने गद्दारी! १९३१-३२ के दरम्यान लंदन में संपन्न गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान जब महात्मा गाँधी ने देखा कि बेमन से ही सही,किन्तु अंग्रेज सशर्त आजादी देने को तैयार हैं। चूँकि अंग्रेजों ने जाति मजह्ब के आधार पर भारत के कई जयचंद अपने जाल में फंसा लिए हैं,तब गांधीजी ने गोलमेज कॉन्फ्रेंस से वॉक आऊट कर दिया। और भारत आकर कांग्रेस से लगभग संन्यास ही ले लिया। अंग्रेजों की गोद में बैठने वालों में मिस्टर जिन्ना सहित वे सभी नेता थे जो साम्प्रदायिकता और जातिवादी राजनीति के जनक माने जा सकते हैं। उन्हीं के बिषैले सपोले अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में आग मूत रहे हैं।
स्वाधीनता संग्राम की गंगा जमुनी तहजीब के बावजूद आजादी से पूर्व भारत का विभाजन न केवल शर्मनाक बल्कि धर्मनिरपेक्षता पर धर्मान्धता की विजय का सूचक भी है। उसकी वजह से भारत में अमानवीय साम्प्रदायिक हिंसा और उस पर आधारित डर्टी पॉलिटिक्स का सिलसिला 75 साल बाद मुसलसल कायम है.
श्रीराम तिवारी