बुधवार, 29 जनवरी 2020

CAA

वास्तव में CAA पड़ोसी मुल्कों से धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर भगाये गये 2014 तक,गैर मुस्लिमों को शरण देनें का हक देता है!किंतु CAA के खिलाफ उग्र आंदोलन से प्रतीत होता है कि शायद पड़ोसी मुस्लिम देशों के मुसलमान भी वहाँ धार्मिक आधार पर उत्पीड़न के शिकार रहे हैं! इसलिये वे भी भारत में ही बसे रहना चाहते हैं और यही वजह है कि वे CAA का विरोध कर रहे हैं!किंतु सवाल यह है कि इन शरणार्थी मुस्लिमों ने ऐंसा आंदोलन पाकिस्तान या अपने मूल वतन में क्यों नही किया?जब वहाँ अन्याय हुआ तब आवाज क्यों नही उठाई? भारत के शाहीनावाद में धरने पर बैठे लोग यदि बाकई शरणार्थी हैं,तो भारत सरकार को यह मसला UNO में ले जाना चाहिये और जिन देशों से ये मुसलमान आये हैं, उनसे सफाई मांगनी चाहिये!और यदि ये आंदोलनकारी पैदायशी भारतीय हैं तो उन्हें आश्वस्त किया जाए कि CAA से आपका कोई लेना देना नही है!क्योंकि आप घुसपैठिया नही हैं!चूँकि मोदी सरकार इस काम में विफल रही है अत: यह काम देश के धर्मनिर्पेक्ष लोकतांत्रिक विपक्ष को करना चाहिये! याद रहे कि देशभक्ति भाजपा और मोदी सरकार की निजी मिल्कियत नही है!

बुर्जुआ क्रांति ही भारत में सम्भव है!

अमेरिका,रूस,जापान,जर्मनी,इंग्लैंड,फ़्रांस अथवा भारत-किसी भी मुल्क के राजनैतिक फलकपर नजर डालिये,सभी देशोंके वर्तमान शासक या तो ट्रम्प,पुतिन,सिंजो आबे की तरह खुद पूँजीपति हैं या वे भारतीय शासकों की तरह पूँजीपतियोंके एजेंट हैं। ये बात जुदा है कि ट्रम्प को अमेरिकी सीनेटमें ही विरोध झेलना पड़ रहा है!शायद उन्हें गलतफहमी थी कि वे जो कहेंगे दुनिया में वही सब होगा।
बड़े देशों के लूटखोर पूँजीपति और करप्ट नेता 'परोपकार' के लिए सत्ता में नहीं आये हैं। चूँकि भारत जैसे विकासशील देशों के कैपिटलिस्ट दल और उनके नेता अपने वित्त पोषक पूंजीपति वर्ग के समक्ष केवल दुम हिलाना ही जानते हैं। इसलिए वे चाहते हुये भी जन हितैषी नीतियों पर अमल नही कर सकते!वैश्विक परिष्थितियां इशारा कर रहीं हैं कि समानता,बंधुता,और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए पुनः संघर्ष का बिगुल बजेगा ! और इस क्रांति का नेतत्व अब सर्वहारा वर्ग नहीं करेगा ! बल्कि सूचना और संचार तकनीकी में दक्ष ,साइंस -टेक्नालाजी में दक्ष उच्च शिक्षित आधुनिक युवा वर्ग इसका नेतृत्व करेगा !
परिस्थिति हर तरह से क्रांति के अनुकूल है केवल 'वर्ग चेतना'की दरकार है। यह सब मार्क्स एंगेल्स की शिक्षाओं से ही सम्भव होगा ! जाति -पांति और मजहब आधारित संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली अब शनै:शनै: और मजबूत होगी और भृष्ट चुनाव प्रक्रिया से जीत कर आने वाले नेताओं को जनता नकार देगी! इसलिये आइंदा एक अलग किस्म की बुर्जुआ क्रांति ही भारत में सम्भव है! 

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

यदि आप वास्तव में ज्ञानी हैं तो......

आपकी विद्वत्ता इससे नहीं मानी जायेगी कि आप कितना अधिक पढ़े-लिखे हैं ?औरआप कितने बड़े ज्ञानी या विद्वान हैं !यह इससे भी मूल्यांकित नहीं होगा कि आप कितने महान गणितज्ञ हैं ?आपकी विद्वत्ता इससे सुनिश्चित नहीं हो सकती कि आपने दर्शनशास्त्र,समाज शास्त्र,मनोविज्ञान,भूगोल,अंतरिक्ष विज्ञान, परमाणुविज्ञान,भाषाविज्ञान,व्याकरण,नृतत्व समाजशास्त्र,भूगर्भशास्त्र ,चिकित्साविज्ञान का कितना अध्यन किया है ? आपने ईश्वर, धर्म,मजहब ,अध्यात्म और राजनीतिशास्त्र पर क्वंटलों कागज काले क्यों न कर डाले हों ? आपका संचित ज्ञानकोष चाहे कितना ही समृद्ध क्यों न हो ? यदि आप किसी रोते हुए बच्चे को हँसा नहीं सकते ,यदि आप अपने ही सपरिजनों या बुजुर्गों को खुश नहीं रख सकते ,यदि आप खुद भी सहज खुशियों से महरूम हैं तो आपका संचित ज्ञान कोष खुद आपके लिए भी जहर ही है।जिससेआप तत्काल मुक्त हो जाइये ! आप सहज,सरल और तरल जीवन जीने की कोशिश कीजिये! यदि आप वास्तव में ज्ञानी हैं तो किसी भी व्यक्ति,विचार अथवा वस्तु के अंधव्यामोह से बचिए बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय की सोचिये और अहं का बोझ तत्काल उतारकर तुरंत फेंक दीजिये !
:-श्रीराम तिवारी

बसंत के आने पर कोयल गाती तो है

मुश्किल से गुजरी स्याह रात के बाद,
खुशनुमा एक नयी सुबह आती तो है।
घर के आँगन में हो कोई हरा-भरा पेड़,
तो कभी कभी गौरैया भी गाती तो है।।
यों तितलियां जीती हैं सिर्फ आठ पहर,
किंतु जिंदगी उनकी भी मुस्कराती तो है!
जीवन चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो,
भले मानुष को यह धरती सुहाती तो है!!
आभामंडल मंद हो या तीव्र दीप्तिमंत का,
प्रकाशकिरण उसके अंतस में समाती तो है!
लहरें दरिया की हों या महासागर कीं,
उमड़ घुमड़ गंतव्य में समाती तो है!!
आज भले ही मौसम है बदमिजाज कुछ,
किंतु बसंत के आने पर कोयल गाती तो है।
क्रूर निष्ठुर नीरस नागर सभ्यता के इतर,
ग्राम्यगिरा में लोरी की आवाज आती तो है!!
गौरैया,तितली,कोयल,लोरी,भोरका कलरव,
सह्रदय इंसानमें जीनेकी उमंग जगाती तो है।
- श्रीराम तिवारी !

सोमवार, 27 जनवरी 2020

यदि आप खुद भी सहज खुशियों से महरूम हैं तो .

आपकी विद्वत्ता इससे नहीं मानी जायेगी कि आप कितना अधिक पढ़े-लिखे हैं ?औरआप कितने बड़े ज्ञानी या विद्वान हैं !यह इससे भी मूल्यांकित नहीं होगा कि आप कितने महान गणितज्ञ हैं ?आपकी विद्वत्ता इससे सुनिश्चित नहीं हो सकती कि आपने दर्शनशास्त्र,समाज शास्त्र,मनोविज्ञान,भूगोल,अंतरिक्ष विज्ञान, परमाणुविज्ञान,भाषाविज्ञान,व्याकरण,नृतत्व समाजशास्त्र,भूगर्भशास्त्र ,चिकित्साविज्ञान का कितना अध्यन किया है ? आपने ईश्वर, धर्म,मजहब ,अध्यात्म और राजनीतिशास्त्र पर क्वंटलों कागज काले क्यों न कर डाले हों ? आपका संचित ज्ञानकोष चाहे कितना ही समृद्ध क्यों न हो ? यदि आप किसी रोते हुए बच्चे को हँसा नहीं सकते ,यदि आप अपने ही सपरिजनों या बुजुर्गों को खुश नहीं रख सकते ,यदि आप खुद भी सहज खुशियों से महरूम हैं तो आपका संचित ज्ञान कोष खुद आपके लिए भी जहर ही है।जिससेआप तत्काल मुक्त हो जाइये ! आप सहज,सरल और तरल जीवन जीने की कोशिश कीजिये! यदि आप वास्तव में ज्ञानी हैं तो किसी भी व्यक्ति,विचार अथवा वस्तु के अंधव्यामोह से बचिए बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय की सोचिये और अहं का बोझ तत्काल उतारकर तुरंत फेंक दीजिये !

शनिवार, 25 जनवरी 2020

"शाहीन बाग"आंदोलन

मुझे किसी ने एक निहायती भद्दा औऱ बेहूदा वीडियो भेजा है जिसमें मोदी जी के विरुद बहुत ही घटिया भाषा में कविता एक बहुत ही प्यारी और मासूम बच्ची द्वारा गायी जा रही है औऱ दूसरे मासूम बच्चे उस पर ताली बजा रहे है मुझे नही पता यह बच्ची कौन है औऱ कौन यह जहर इन बच्चों के दिमाग में भर रहा है लेकिन तालिबानी और चरम मानसिकता लोग इस मुल्क के सबसे बड़े दुश्मन है जो इस मुल्क को मजहब के आधार पर एक बार फिर तोड़ने चाहते है
इस सबके पीछे एक कठमुल्ला सोच है जो मुसलमान को अच्छी तालीम और प्रोगेसिव होने से रोकती है मुस्लिमों में ही सामंतवादी सोच के लोग है जो इस्लाम को खतरे में बताकर मुसलिम बच्चों को मदरसों से बाहर भेजने से मना करता है मुसलिमों में बच्चों की ड्राप आऊट रेट सबसे ज्यादा है बच्चे पढ़ेंगे नही तो वो कट्टरपंथी सोच से कैसे लड़ेंगे???
भारत के मुसलमानों की दशा पर मैं बहुत दिनों से डाटा विश्लेषण कर रहा हूँ भारत का मुसलमान सबसे गंदी और सुविधाहीन बस्तियों में रहता है दलितों से बदतर हालातो में वो जीवन व्यापन कर रहा है 2050 तक भारत में मुसलमान की जनसंख्या पूरे विश्व में सबसे ज्यादा (11%) हो जायेगी अभी भारत मे मुसलमान उनकी आबादी के अनुपात में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की तुलना में भी बदतर हालात में है मुसलमानों में भारत की आबादी का 14% है, लेकिन उच्च शिक्षा में छात्रों का प्रतिशत केवल 4.4% है
भारत में केवल 3 % मुसलमान एक्जक्यूटिव स्तर की नौकरी कर रहा है सरकारी नौकरी में आंकड़ा गिरकर और कम हो जाता है स्वरोजगार के मामले में भी मुस्लिम वो ही पुराना घिसा पीटा काम कर रहा है पिछले 10 साल में एक भी बड़ा स्टार्टअप किसी मुस्लिम युवा ने खड़ा नही किया है क्या कारण है कि भारत का मुसलमान अपने इस अधिकार की लड़ाई सड़कों पर नही लड़ता है
बहुत समय पहले में अपने एक कट्टर हिंदूवादी कलीग के साथ एक कालेज में कैम्पस प्लेसमेंट में इंटरव्यू लेने गया था एक मुस्लिम लड़के ने सभी राउंड क्लियर कर लिए थे जब वो मुझे इंटरव्यू दे रहा था तो मैंने पूछा आपके पिता क्या करते है तो वो बोला सर सायकल के पंक्चर सुधारते है मैंने बोला शाबास मुझे आपके पिता पर फक्र है 👍👍👍
मैंने उसे सिलेक्ट कर लिया था इस पर मेरा दोस्त बोला यह लोग सॉफ्टवेयर कम बनायेगे बम ज्यादा बनाएंगे इन्हें पंक्चर ही सुधारने दो सॉफ्टवेयर इनके बस का नही है मैंने बोला "बाबू" यही सोच एक दिन इस मुल्क को डुबायेंगी देखना एक दिन यह युवा तुम्हे गलत साबित करेगा आज वो युवा IBM जैसी कंपनी में टीम लीडर है और मेरा दोस्त उसी कंपनी में प्रोजेक्ट.मेनेजर है
वक़्त आ गया है कि अब भारत के मुसलमानों को अपने समाज के अंदर घुसे इन तालिबानीयो औऱ मुसंघीयो को खोजकर बाहर निकालना होगा, में चाहता हूँ कि देश के हर शहर में एक "शाहीन बाग" शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए भी हो .. जिस दिन भारत का हर मुसलमान पिता अपने बच्चों को टायर पंचर जोड़ने के लिए मना कर देगा उस दिन यह देश विश्व का सबसे शक्तिशाली देश बन जायेगा जय हिंद !जय भारत!

पूजा-पाठ या स्तुति से नतीजे आएंगे इसकी गारन्टी कोई नहीं देगा!

ई. हूफर -नामक पाश्चात्य विद्वान ने बहुत सही कहा था-
“जब पहाड़ों को खिसकाने के लिये आवश्यक तकनीकी कौशल हो तो उस आस्था की आवश्यकता ही नहीं जो पहाड़ खिसकाती है।”
यह पाश्चात्य सिद्धांत भारतीय कर्मयोग सिद्धांत से काफी मेल खाता है।अर्थात आस्थावान हो या अनास्थावान कर्म तो करना ही पड़ेगा! तत्पश्चात कर्मफल भी जरूरी नही कि मिल ही जायेगा ! पहाड़ खिसकाने के लिए खुद तुम्हे ही माथापच्ची करनी होगी। साइंस और टेक्नालाजी की शरण में जाना होगा।मनुष्य का परिश्रम, साइंस और टेक्नालाजी का अथवा ईश्वरीय आस्था या स्तुति की मोहताज नहीं। उसका तो यह आत्म अनुसन्धान ही काफी है कि पूजा-पाठ या स्तुति से नतीजे आएंगे इसकी गारन्टी कोई नहीं देगा,किन्तु परिश्रम और बुध्दि कौशल से एक दिन अवश्य हाजिर हो जायेंगे।

गुरुवार, 23 जनवरी 2020

हिंदू बनाम मुस्लिम

कुछ लोग CAA/NRC के खिलाफ हिंदू 'मुस्लिम एकता' का दावा कर रहे हैं,यह शुभसंदेश है! किंतु यह एकता तब नजर क्यों नही आई जब घाटी में चार लाख कश्मीरी हिंदू मार दिये गये या मार पीट कर भगाये दिये गये!कुछ ने तो चालीस साल टैंट में ही गुजार दिये! यह एकता तब नजर क्यों नही आई जब मुंबई ताज होटल और शिवाजी टर्मिनल पर कसाब जैसे बीस पाकिस्तानी दरिंदों ने खून की होली खेली!यह एकता तब कहाँ थी जब उड़ी,पठानकोट और पुलवामा पर आतंकी हमला हुआ?अब विदेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात चली तो लोगों को हिंदू मुस्लिम एकता याद आ रही है!वास्तविक एकता तभी बनेगी जब 'वर्ग चेतना' का विस्तार होगा!जब अमीर शोषक वर्ग बनाम गरीब शोषित का संघर्ष होगा,न कि हिंदू बनाम मुस्लिम का!

बुधवार, 22 जनवरी 2020

भारत का असली इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है :-


दुनिया का तो पता नहीं किन्तु भारत के संदर्भ में अवश्य कई प्रकार का इतिहास पढ़ने सुनने में आता है. एक इतिहास वह जो हमेशा सत्तासीन शासकों द्वारा अपनी स्तुति या प्रशंसा कराने एवं सत्ता में बने रहने के निमित्त लिखा गया अथवा लिखवाया गया.ऐंसा इतिहास ईसा पूर्व आक्रमणकारी कुछ यूनानियों ने लिखा।उन्होंने कुछ हद तक ईमानदारी वर्ती और तत्कालीन भारत की खामियों के साथ साथ इसका अप्रतिम वैभव सम्पन्नता का भी सांगोपांग वर्णन किया हैं. दूसरा इतिहास वह है जो मध्ययुग में भारत पर हमला करने वाले खूंखार गजनवियों,तुर्कों,खिलजियों,अफगानों और मुगलों ने शिद्दत से केवल खुद का और अपने कबीलों के यशोगान के रूप में लिखवाया . तीसरी तरह का इतिहास अंग्रेजों और तमाम तिजारती यूरोपियनों ने भारत की बदतर तस्वीर पेश करते हुए और ईसाइयत एवं विजेताओं को भारत का उद्धारक बताने वाला तथा हिन्दू मुस्लिम के भेद को बढ़ाने वाला इतिहास लिखाया। आजादी के बाद सत्ताधारी कांग्रेसके प्रभाव में चौथा इतिहास जो पूर्ववर्ती शासकों के इतिहास पर आधारित था और जो अधिकतर शासकों की पसंद का आभासी इतिहास लिखवाया जाता रहा है। पांचवां इतिहास वह है जो अधिकांश काल्पनिक है,भारतीय सभ्यता विरोधी है और जातीयतावादी नजरिये से लिखा गया है। इसी तरह दक्षिणपंथी पुराणपंथी पौंगापंथी लोग भी मिथकों को इतिहास मानकर बड़े बड़े पोथे छापते रहते हैं.इसी तरह कुछ कुपढ़ और भारतीय गौरव से चिढ़ने वाले स्वयंभू प्रगतिशील लोग भी वैज्ञानिक नजरिये के बहाने केवल अंग्रेजों,मुगलों और विदेशी हमलावरों के तवारीखी रुक्कों को इतिहास बताकर अपना मजाक उड़वाते रहते है.दरसल भारत का असली इतिहास लिखा जाना अभी बाकी है.
वेशक आर्य भारतीय ही थे,यदि बाहर से आये होते तो दक्षिण एशिया में स्थित विशाल भूभाग-पूर्व में इंडोनेशिया से लेकर पश्चिम में इराक तक और उत्तर में उलानबटोर से लेकर दक्षिण में गोदावरी तक के भूभाग को 'आर्यावर्त' क्यों कहा जाता ? जब फारसियों,तुर्कों ने सिंधु के उस पार का इलाका जीत कर अलग देश बना लिए तब सिंद्धु के पूर्व का भूभाग 'हिँदुस्तान' कहलाया। और सिंधु के पश्चिम में स्थित भूभाग को जो पहले पर्शिया कहा जाता था,वो ईरान कहा जाने लगा। कालांतर में उत्तर के आर्यों ने और दक्षिण के द्रविङोँ ने साझा संस्कृति और सभ्यता विकसित की जो सनातन परम्परा और हिन्दू धर्म के रूप में जानी गई और जो आज भी विद्यमान है। आदि शंकराचार्य ने तो सिर्फ धार्मिक आधार पर 'एक भारत' का निर्माण किया था,जबकि अंग्रेजों ने पूरे दक्षिण एशिया में एक सिक्का चलाकर ,सम्राट अशोक के जमाने का अखंड भारतवर्ष पुन:जीवित किया।
वास्तव में अतीत के बनते बिगड़ते राष्ट्रों में इस भूभाग में आर्यों से लेकर लेकर शक,हुँण,कुषाण,पिंडारी,तातार कोई भी विदेशी नहीं था,सिवाय अरबौं और यूनानियों के। मध्य युग में १६ वीं सदी में यूरोपियन्स आये जो शुद्ध विदेशी थे. किन्तु ईसापूर्व के हमलावर विदेशियों से पृथक ये यूरोपियन मानों अपने दांतों में जैतून की पत्ती दबाकर भारतवर्ष/हिन्दुस्तान आये ! व्यापर करते करते ये विदेशी गोरे बाद में मुल्क के मालिक हो गए.जबकि ईसापूर्व आये यूनानी यवन भारत में शक हूँणकुषाणों की तरह खप गए। चूँकि वे भारत के उत्तर पश्चिम में बसे और खपे सो उन्होंने अपनी पहचान बनाये रखने के लिए 'खापों' का अनुशीलन जारी रखा।
सातवीं -आठवीं शताब्दी में भारत पर हमला करने वाले तुर्क,अफगान,उजबेग तथा मंगोल इत्यादि तो पूर्ववर्ती अखंड भारत के ही हिस्से थे किन्तु इजिप्शन और अरबी मुसलमान शुद्ध विदेशी हमलावर थे।बुरी तरह खंड खंड भारत को उस समय विजित करना इन बर्बर विदेशी मुसलमानों के लिए तब बहुत सरल था जब यहाँ का आम नागरिक और हरएक राजा 'बुद्धं शरणम् गच्छामि' और 'अहिंसा परमोधर्म:'का मंत्रजाप कर रहा था।
वैसे भारत चाहे अखंड रहा हो या खंड-खंड अशोक और कनिष्क के बाद किसी ने भारत से बाहर जाकर आक्रमण नहीं किया। बाहरी ताकतों द्वारा भारत पर आक्रमण और इसकी दर्दनाक पराजयों का इतिहास बहुत पुराना है। कनिष्क के बाद के इतिहास में भारत हमेशा हारता रहा। सिकंदर आदि यवनों ने पश्चिमी भारत पर हमला किया,भारत विकलांग हुआ। शक हूँण कुषाण बार बार हमला करते गए और कुछ लूटकर चले गए ,किन्तु अधिकांश यहीं रम गए.. भारतीय सभ्यता और संस्कृति में घुल मिल गए। किन्तु इनके बाद आये बर्बर हमलावर मुहम्मद बिन कासिम,मेहमूद गजनबी,मुहम्मद गौरी के वंशज-तुर्क गुलाम,खिलजी,सैय्यद, उजबेग, तातार ,कज्जाक,कुरैश,अफगान ,पठान और मंगोल[मुग़ल] सभी एक के बाद एक इस भारत भूमि को रौंदकर ,लूटकर,मंदिरों को जलाकर,जनता को रुलाकर भारत को गुलाम बनाकर यहीं डट गए। दुनिया जिस धरती को सोने की चिड़िया कहती थी ,उसे इन दरिंदों ने बूचड़खाना बना डाला.
हर्षवर्धन के मरणोपरांत भारत खंड खंड अवष्य हो गया था,किन्तु तत्कालीन भारत की समृद्धि को देख सुन कर ही विदेशी हमलावर और मध्य पूर्व के खूँखार बर्बर कबीले पश्चिमी भारत पर बार बार हमले करते रहे.वे जनता और पराजित राजाओं का सर्वस्व लूटकर ही संतुष्ट नहीं हुए. बल्कि भारतीय समाजों की सहनशीलता, करुणा और उदारता जैसी महानतम मानवीय मूल्यवत्ता को एवं शैक्षणिक आध्यात्मिक संस्थानों को बर्बाद करते रहे । तत्कालीन भारतीय समाज भारत भूमि को 'स्वर्गादपि गरीयसी' मानकर आत्ममुग्ध था. बाह्य हमलों से तो वह परिचित था,किन्तु उसे यह अंदाज नहीं था की भारत के बाहर अहिंसा,करुणा,जीवदया और मानवता जैसे मूल्यों का कोई मोल नहीं है। बाह्य हमलावर सिर्फ लूट,हत्या,व्यभिचार और पाशविक प्रवृत्ति से संचालित थे। जिस देश से कभी सिकंदर गीता और पवित्र गंगाजल मेसोपोटामिया ले गया,उस भारत भूमि के समाज को सब कुछ लुट जाने पर भी होश नहीं आया कि अहिंसा तभी तक ठीक है जब तक कोई हमला न करे।
तत्कालीन भारतीय समाज-शासक और शासित,राजा प्रजा प्राय:सभी धर्म अध्यात्म की अनुत्पादक बहस में उलझे थे. उन्हें रंचमात्र गुमान नहीं था कि असभ्य दुनिया में खूँखार बर्बर शैतानी कबीलाई लुटेरों ने मजहब के नाम पर एशिया,यूरोप और अफ्रीका को लील लिया है.अतीत में जिस देश को सोने की चिड़िया कहा जाता था, जहाँ से स्वयं सिकंदर गीता,गंगाजल और गुरु ले जाने के लिए मरते दम तक लालायित रहा,उस महान भारत भूमि की नदियों का पानी यायावर हमलावरों ने लाल कर दिया। साधु,संत,गुरु,योगी और शिक्षक मार दिए गए.नालंदा,तक्षशिला और काशी विद्यापीठ जला दिये गए। चूँकि धर्म कर्मकांड के क्षेत्र में अधिकांश ब्राह्मण ही हुआ करते थे,अतः क्षत्रिओं के बाद अधिकांश ब्राह्मण ही मारे गए। तैमूर लंग,अहमदशाह अब्दाली,मुहम्मद बिन कासिम,मेहमूद गजनबी ,मोहम्मद गौरी और बाबर जैसे बर्बर दरिंदों ने पश्चिमोत्तर भारत को अनेक बार लहूलुहान किया। इस्लामिक खुरेन्जियों के आक्रमण से भारतीय उपमहाद्वीप में जो रक्त से नहाये मजहबी जलजले आये,वे हिरोशिमा नागासाकी से भी बदतर थे।
भारत के राजनैतिक असंगठित रूप ने भले हथियार डाल दिए हों,किन्तु किसानों,मजदूरों और साधु,संत महात्माओं ने इस्लामिक आक्रमणों का प्रबल विरोध किया,निरंतर होना वाले बर्बर आक्रमणों के खिलाफ जनता के संघर्ष जारी रहे !
१६ वीं सदी के अंतिम दिनों में व्यापारी के वेश में समुद्री रस्ते से पुर्तगीज,स्पेनिष,डच,फ्रेंच और अंग्रेज इत्यादि यूरोपियन भारत आये।वास्कोडिगामा भले अरब सागर के रस्ते भारत आया,किन्तु उससे पहले ग्रेट ब्रिटेन का राजदूत 'सर थामस रो' पहला अंग्रेज था ,जो जहांगीर के दरबार में ब्रिटेन की ओर से उपस्थित हुआ। वह अंग्रेज व्यापारियों के लिए अधिकार पत्र हासिल करने में सफल रहा.तदुपरांत अंग्रेजों ने जब मद्रास, कलकत्ता इत्यादि तटीय नगरों में व्यापारिक कोठियां बनाईं और पुर्तगाल से मुंबई दहेज़ में हासिल किया तो अंग्रेजों की भारतीय उपमहाद्वीप पर पकड़ मजबूत होती चली गई ! ऐयास मुग़ल बादशाहों और नबाबों ने भी हथियार डाल दिए और शीघ्र ही अंग्रेजों को भारत की लूट का साझीदार बना लिया। बाद में वे अंग्रेजों के हाथों गुलाम होते चले गए।
चूँकि देशी राजे राजवाड़े और मुस्लिम नबाब एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं देख सकते थे,अतः रात दिन एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र करते रहते थे,यह स्थिति अंग्रेजों के लिए बहुत अनुकूल थी की वे खण्ड खण्ड भारत को अपने पैरों तले रौंद सकें और भारत की सकल सम्पदाविलायत भेज सकें। यूरोप में आपस में लड़ने वाले देश भारत में एकजुट होकर लूट मचाते रहे और भारतीय समाज की जड़ों में आपसी फूट का मठ्ठा डालते रहे। मुगल बादशाहों-नबाबों की ऐयाशी और हिन्दू राजाओं की निजी अहमन्यता ने भारत को अंग्रेजों के हाथों सौंप दिया और इस तरह पूरा भारतीय उपमहाद्वीप गुलाम हो गया।
ऐतिहासिक बिडंबना है की भारत में राष्ट्रवाद की भावना न होने से यहां का समाज डबल ट्रिपल गुलाम होता चला गया। जनता जमींदार की गुलाम थी,जमींदार- नबाबों या रजवाड़ों का गुलाम था.नबाब-रजवाड़े वायसराय के गुलाम थे,वायसराय ब्रिटिश सरकार के गुलाम थे और ब्रिटिश सरकार 'क्राउन ' की याने ग्रेट ब्रिटेन के सम्राट या साम्राज्ञी की गुलाम हुआ करती थी। दअरसल १९७१ से पहले के दो हजार साल का इतिहास भारत की पराजयों का और बहुगुणित गुलामी का इतिहास रहा है,यदि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिराजी ने *सोवियत संघ* से मैत्री न की होती और सोवियत नेताओं ने भारत के समर्थन में ५ बार वीटो इस्तेमाल न किया होता तो १९७१ में भी भारत को हार का मुँह देखना पड़ता। और बांग्ला देश बनवा पाना आसान न होता।
'१९७१ की विजय' के पहले का भारतीय इतिहास इस मुल्क की अनवरत पराजयों का इतिहास रहा है। इस दंश के लिए सिर्फ विदेशी हमलावर भुजंग ही दोषी नहीं थे,बल्कि चीटियों की तरह जिन धरतीपुत्रों ने बामी रुपी राष्ट्र का निर्माण किया,उनकी प्रमादपूर्ण जीवन शैली भी गुलामी का कारण रही है। लगभग २००० साल का इतिहास
इस भारतीय भूभाग की पराजयों का इतिहास रहा है। सवाल उठता है की ऐंसा क्यों?
भारतीय भूभाग की दीर्घ गुलामी का पहला कारण राजनैतिक था कि हर्षवर्धन के उपरान्त केंद्रीय सत्ता खत्म हो गई और यह भूभाग खंड खंड होकर अनेक रियासतों में बट गया। दूसरा कारण मजहबी था.बाहर से आने वाले हमलावर धर्म के नाम पर हिंसक कबीलोंको एकजुट करके खैबर दर्रा या सिंधु नदी पार कर पश्चिमी भारत पर हमला करते,नगरों गाँवों में लूटपाट मचाते,मंदिरों को लूटते,स्त्रियों को उठा ले जाते। तीसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि जब मध्य एशिया एवं यूरोप में नई नई वैज्ञानिक खोजें हो रहीं थीं,तोपें बन रहीं थीं,गोला बारूद का आविष्कार और उसका जनसंहार के लिए इस्तेमाल होने लगा था ,युद्ध की नई तकनीक ईजाद हो रही थी,तब भारतीय भूभाग पर नदियों के किनारे नंग धड़ंग बाबाओं के विशाल मेले लग रहे थे,राजाओं के पुत्र घर बार छोड़ कर हिमालय की गुफाओं में सत्य की खोज कर रहे थे,जनता जनार्दन को त्याग और अपरिग्रह सिखा रहे थे,मक्कारी और भिक्षाटन की शिक्षा दे रहे थे। ततकालीन तथाकथित स्वर्णिम के दौर की जनता खेती बाड़ी छोड़,वाणिज्य व्यापार छोड़ ,लंगोटी लगाकर,'अहिंसा परमोधर्म:' का जाप कर रहे थे.
तत्कालीन भारतीय दुरावस्था के लिए सीधे सीधे धर्मान्धता और जड़ता ही जिम्मेदार थी। सम्राट पुष्यमित्र शुंग की महाविजय और उनके द्वारा तीन अश्वमेध किये जाने के उपरान्त,विगत दो हजार सालों में भारतीय भूभाग का ऐंसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि किसी भारतीय नरेश ने भारत से बाहर एक इंच जमीन हस्तगत की हो।ऐंसा इसलिए नहीं कि तत्कालीन भारतीय सामंत,राजे रजवाड़े और सम्राट सब सम्राट अशोक की तरह प्रवज्या शील थे अथवा विश्वविजय की कामना नहीं रखते थे। बल्कि ६ठी सदी समाप्त होते होते भारतीय भूभाग पर पश्चिम से जो नए हमले होने लगे, उनके प्रतिकार के लिए दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के राजे राजवाड़े तैयार नहीं थे।पश्चिमी सीमा पर बर्बर धर्मांध जंगखोर लुटेरे कबीलों के निरंतर आक्रमणों से वहाँ रक्षा कवच टूट गया। वेशक पूरा भारत कभी कोई विदेशी नहीं जीत पाया,किन्तु अंग्रेजों के आने के बाद शनैः शनैः पूरा भारत भौगोलिक रूप से गुलाम होता चला गया.भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर आंच अवश्य आई ,किन्तु जनमानस की निष्ठा,उत्सर्ग और गुरुकुल परम्परा ने भारत की सांस्कृतिक और चारित्रिक विरासत को काफी हद तक अक्षुण रखा.
चूँकि भारत को गुलाम बनाने वाला ग्रेट ब्रिटेन और दुनिया को गुलाम बनाने वाले यूरोपियन देश,दो विश्वयुद्धों के बाद इस स्थिति में नहीं थे कि अपने तमाम उपनिवेश यथावत कायम रख सकें,अतः मजबूरन उन्हें तमाम गुलाम राष्ट्र आजाद करने पड़े। इसी सिलसिले में १५ अगस्त १९४७ को भारत भी स्वतंत्र राष्ट्र बना। कांग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतत्व में देश की जनता ने अनेक आंदोलन चलाये। अवज्ञा आंदोलन,सत्याग्रह,नमक कानून विरोधी दांडी मार्च ,खिलाफत आंदोलन,साइमन कमीशन विरोधी आंदोलन और जलियांवाला बाग़ जैसे अनेक संघर्षों में शांतिपूर्वक कुर्बानी से इस मुल्क को आजाद कराने में बड़ी मदद मिली। 'आजाद हिन्द फौज' और 'हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' जैसे संगठनों और उनके नेताओं की शहादत भी बेकार नहीं गई।
वेशक अनेक अनगिनत कुर्बानियों की कीमत पर भारत को आजादी मिली,किन्तु अंग्रेजों की क्रूर दुरभिसंधि मुस्लिम लीग और कुछ जातिवादी नेताओं की गद्दारी से मुल्क का बटवारा हो गया। भारत पकिस्तान दो मुल्क बनाकर अंग्रेज यहां से विदा हो गए।सिर्फ जमीन का बटवारा नहीं हुआ,भारतीय आत्मा का भी बटवारा हो गया। मुस्लिम लीग और हिंदूवादी संगठनों ने आजादी की लड़ाई में कोई योगदान नहीं दिया। महात्मा गाँधी ,पंडित मोतीलाल नेहरू,पंडित मदनमोहन मालवीय,पंडित गोविन्दवल्ल्भ पंत,लोकमान्य बल गंगाधर तिलक,लाला लाजपत राय,विपिनचंद पाल,आसफ अली,सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खान,पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुउल्ला खान, सआदत खान,मौलाना आजाद,भगतसिंग ,चंद्रशेखर आजाद,सुखदेव राजगुरु,पंडित जवाहरलाल नहरू,सरदार पटेल,डॉक्टर राजेंद्रप्रसाद,सर्वपल्ली राधाकृष्णन,महाकवि सुब्रमण्यम भारती और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक हुतात्मओं की बदौलत यह आधी अधूरी आजादी मिल सकी थी।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान आंदोलनकारी जनता और नेतत्व करने वालों को अंग्रेजों की लाठी गोली खाना, दमन उत्पीड़न भोगना और जेल जाना तो आम बात थी,किन्तु इस संघर्ष में असल चीज थी भीतरघात याने गद्दारी! १९३१-३२ के दरम्यान लंदन में संपन्न गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान जब महात्मा गाँधी ने देखा कि बेमन से ही सही,किन्तु अंग्रेज सशर्त आजादी देने को तैयार हैं। चूँकि अंग्रेजों ने जाति मजह्ब के आधार पर भारत के कई जयचंद अपने जाल में फंसा लिए हैं,तब गांधीजी ने गोलमेज कॉन्फ्रेंस से वॉक आऊट कर दिया। और भारत आकर कांग्रेस से लगभग संन्यास ही ले लिया। अंग्रेजों की गोद में बैठने वालों में मिस्टर जिन्ना सहित वे सभी नेता थे जो साम्प्रदायिकता और जातिवादी राजनीति के जनक माने जा सकते हैं। उन्हीं के बिषैले सपोले अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में आग मूत रहे हैं।
स्वाधीनता संग्राम की गंगा जमुनी तहजीब के बावजूद आजादी से पूर्व भारत का विभाजन न केवल शर्मनाक बल्कि धर्मनिरपेक्षता पर धर्मान्धता की विजय का सूचक भी है। उसकी वजह से भारत में अमानवीय साम्प्रदायिक हिंसा और उस पर आधारित डर्टी पॉलिटिक्स का सिलसिला ७२ साल बाद मुसलसल कायम है.

धर्म-मजहब कभी कमजोरों का साथ नहीं देते .

जंग जरुरी हो जब काली ताकतों के खिलाफ,
संघर्ष के लिए कुछ 'शहीद' सदा तैयार रहते हैं !
खुदा ईश्वर गॉड मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारों में,
कुछ लोग अपनी दुकान चलाने को तैयार रहते हैं!
धर्म-मजहब कभी कमजोरों का साथ नहीं देते ,
ताकतवर लोग इश्तेमाल करने को तैयार रहते हैं।
अज्ञानता और अँधेरे के खिलाफ लड़ने के लिए,
दीपक जुगनू चाँद सितारे सूरज तैयार रहते हैं !

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

मोदी अमित शाह तो निमित्त मात्र हैं

क्योंकि मैं किसान पुत्र हूँ और सरकारी नौकरी में आने से पहले बचपन में खेती -बाड़ी,मजदूरी भी की है!अत: मैं पूँजीवादी दलों भाजपा या कांग्रेस को कतई पसंद नही करता ! ये दल जब विपक्ष में होते हैं तब बड़े बड़े दावे करते हैं किंतु सत्ता में आने पर भ्रस्ट पूँजीपतियों के दलाल हो जाते हैं!कांग्रेस कहती कुछ है और करती कुछ है!संगठन में भी लोकतंत्र की जगह राजतंत्र का माहौल है!सब सोनिया शरणम् गच्छामि!
भाजपा वाले भ्रस्टाचार में कांग्रेस के अग्रज हैं!राज्यों में भले उनकी सत्ता आती जाती रहती है , किंतु केंद्र में उनकी आगामी 10 साल तक बल्ले बल्ले है! हम उसका विरोध करके न हरा पाए हैं न हरा पाएंगे!क्योंकि भाजपा और संघ परिवार वाले विगत 30 -35 साल से प्रलोभन देते आ रहे हैं,कि हम यदि सत्ता में आयेंगे तो निम्नांकित काम करेंगे!
उनका संकल्प था कि वे तीन तलाक,गरीब सवर्ण आरक्षण,धारा 370 राम मंदिर और विदेशी घुसपैठियों की समस्या हल करेंगे!जो जो अटल आडवानी जिंदगी भर बोलते रहे, उसी आधार पर जनता ने प्रचंड बहुमत देकर मोदी सरकार को दोबारा जिताया है वादा पूरा कर दिखाने के लिये!अब यदि वे ऐंसा नही करते तो बहुसंख्यक हिंदू नाराज हो जाएंगे!और यदि आगामी पांच वर्षों में ये पेंडिंग काम हो जाते हैं,तो हिंदू समाज को कुछ संतुष्टि मिलेगी फिर उसे संघ या भाजपा की जरूरत नही पड़ेगी,तब वह वामपंथ जैसे किसी बेहतर विकल्प की तलाश करेगी!तब बहुसंख्यक वर्ग उनके साथ सदियों से हुए अन्याय को भुलाकर गरीबी-अमीरी के मद्दे नजर,समानता बंधुता की तरफ देखेंगे! तब उन्हें एहसास होगा कि स्वतंत्र भारत के हिंदू मुस्लिम बाकई सब एक हैं!
वास्तव में मोदी अमित शाह तो निमित्त मात्र हैं,समग्र भारतीय अस्मिता ही स्वयं उस घड़ी का इंतजार कर रही है,जब हर भारतवासी वास्तविक रूप से धर्म,मजहब,राजनीति या आजीविका- हर चीज में समान हक और समान कर्तव्य का हकदार होगा!
इसलिये आज सत्तापक्ष जो कुछ भी कर रहा है,वह ऐतिहासिक भूलों का मानवीय और लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण मात्र है और यह कार्य कितना ही दुरुह या अवरोधमूलक क्यों न हो,वक्त आने पर स्वत: पूर्ण होकर रहेगा!
हम भले ही दस जन्म ले लें किंतु ऐंसा होने से नही रोक सकते! जेएनयू वाले,जामिया वाले, AMU वाले, हैदराबाद वाले,चाहे वे कोई भी हों उस होनी को नही रोक सकते, जो इतिहास ने खुद तय कर रखी है ! यह युगधर्म है,भवतव्यता है!

धर्म-मजहब को राजनीति से अलग रखना चाहिये!

वस्तुतः धर्म और राजनीति दो विपरीत ध्रुव हैं। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को खत्म करने के लिए राजनीति रुपी दूध में धर्म जनित साम्प्रदायिकता के नीबू की एक बूँद ही काफी है! गोकि 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है 'और हर युग की आवश्यकता के अनुरूप आविष्कार हो ही जाते हैं। इस युग की सबसे बड़ी दो बुराईयां हैं !भयानक बुराई जनसंख्या बिस्फोट और 'मजहबी आतंकवाद है!इनसे बचाव के लिए भारत में 'धर्मनिरपेक्ष -समाज' बनाना और जनसंख्या नियंत्रण सबसे जरुरी काम हैं!इसके लिए सर्वप्रथम धर्म-मजहब को राजनीति से अलग रखने का इंतजाम किया जाना चाहिये! 

सोमवार, 20 जनवरी 2020

धूरि धरत गज शीश पर ,कहु रहीम केहिं काज।

जनश्रुति है कि सम्राट अकबर एक बार लखनऊ पधारे। वहाँ से लौटते वक्त अवध के नबाब और अकबरके खासमखास अ.रहीम ने उन्हें अयोध्या की यात्रा करने और का सुझाव दिया। अकबर ने रहीम का प्रस्ताव सहज स्वीकार कर लिया और शाही लश्गर को अयोध्या कूच का फरमान जारी किया।
फैजाबाद से अयोध्या की यात्रा अकबर ने घोड़े से पूरी की।किंतु जब वे अयोध्या पहुंचे तो वहां सुसज्जित हाथी पर स्वर्णिम हौदे पर सवार होकर अकबर ने अयोध्या और सरजू के प्राक्रतिक सौंदर्य का दर्शन किया। इस दौरान बादशाह के हाथी ने अपनी सूंड में रास्ते की बहुत सी धूल ऊपर उछाल दी।अधिकांस धूल हौदे पर बैठे अकबर के मुँह पर गिरी। बादशाह की सूरत बदरंग हो गई। गुस्से में उन्होंने महावत को डांटा -ये क्या हरकत है ? और रहीम की ओर देखकर सवाल किया कि हाथी ऐंसा क्यों कर रहा है ? अ.रहीम ने तब कोई जबाब न देकर, आधुनिक भारतीय अफसर की तरह सिर्फ इतना कहा -'दिखवाता हूँ' हुजूर !
इस घटना से अब्दुल रहीम खान-ए -खाना को रातभर नींद नहीं आई। दूसरी ओर उनके विरोधियों ने अकबर के कान भरना शुरूं कर दिए, कि रहीम ने जानबूझकर अनाड़ी हाथी के मार्फ़त 'हुजूर' को अयोध्या की धूल में नहलाने को मजबूर किया!और नमक मिर्च लगाकर यह भी कहा गया कि अब्दुल रहीम खान-ए-खाना अब इस अवध की जागीर के काबिल नहीं हैं।
इधर रहीम ने अलसुबह उठकर पहले नमाज पढ़ी, फिर भगवान् श्रीराम का पूण्य स्मरण किया! श्रीराम के चरित्र का ध्यान आते ही उन्हें एक विचार सूझा,जिसे तत्काल उन्होंने एक दोहे के रूप में निम्नानुसार लिखा :-
धूरि धरत गज शीश पर ,कहु रहीम केहिं काज।
जेहिं रज मुनि पत्नी तरी ,सोउ ढूंढ़त गजराज।।
अर्थ:- हे ! शहंशाह अकबर ,आपने पूंछा है कि हाथी अपने सिर पर धूल क्यों फेंक रहा है ? मैंने इसकी पड़ताल कर ली है। जिस 'चरण रज' से गौतम ऋषि की अपावन पत्नी अहिल्या का उद्धार हुआ था ,यह हाथी इस अयोध्या नगरी में भगवान श्रीराम की उसी चरण रज को खोजता फिर रहा है। जहांपनाह आप तो श्रीराम जी की उस चरण रज से कृतार्थ हो चुके हैं।
रहीम का दोहा सम्राट अकबर को बहुत पसन्द आया। उन्होंने रहीम को बड़े-बड़े इनाम-इकराम दिये। रहीम की देखा-देखि रीतिकाल के कवियों ने भी राज्याश्रयी काव्य लिखकर अपने पाल्य राजाओं से इनाम -इकराम पाये , किन्तु रहीम और तुलसी की बराबरी कोई नहीं कर सकता क्योंकि रस छंद लालित्य और काव्य सौंदर्य तो सबके पास था किन्तु तुलसी जैसा समन्वयकारी विशिष्ठाद्वैत,रहीम जैसा सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता बाकी कवियों में नहीं थी।
कविवर रहीम के इस शानदार रूपक अर्थात मेटाफर को अपढ़ सम्राट अकबर भी बखूबी समझ गया!इसलिए वह 'अकबर महान' हो गया!गोस्वामी तुलसीदास ने समझा,वे 'राम से अधिक राम कर दासा कहलाये! किंतु इस दौर के स्वनामधन्य हिंदुत्व के झंडाबरदारों को अतीत के हमलावरों का सिर्फ स्याह पक्ष ही दिखाई दे रहा है!

गोद लिए हुलसी फिरे,

एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने अ.रहीम खान खाना का आई क्यू जांचने के उद्देश्य से उन्हें पत्र द्वारा आधा दोहा लिखकर भेजा। जिसका जबाब रहीम ने भी आधे दोहे में ही दिया । इस तरह तुलसी और रहीम दोनों की गंगा जमुनी संयुक्त रचना -निम्नाकित दोहे के रूप में लोक प्रसिद्ध है :-
गो.तुलसीदास:-
" सुरतिय नरतिय नागतिय,
क्या चाहत सब कोय।
रहीम:-
गोद लिए हुलसी फिरे,
तुलसी सो सुत होय।।"
दोनों के सवाल जबाब एक साथ पढ़ेंगे तो पूरा दोहा बनता है,जिसका
अर्थ इस प्रकार है :- दोहे की पहली वाली लाइन तुलसीदास जी की है ,वे रहीम कवि से सवाल करते हैं कि 'संसार की समस्त नारियाँ क्या चाहतीं हैं?'दोहे की दूसरी वाली लाइन रहीम कवि की है जिसमें वे गोस्वामी तुलसीदासजी को जबाब देते हैं कि "संसार की हर नारी यही चाहती है कि उसके यहाँ भी माता 'हुलसी' की संतान याने तुलसी सा पुत्र हो!
अर्थात हर सभ्य सुशील नारी चाहती है कि उसे भी 'तुलसी' जैसा महान सन्त कवि और त्रिकालदर्शी मुमुक्षु साहित्यकार पुत्र रत्न प्राप्त हो !

सापेक्ष सत्यही सर्वोच्च है.

दुनिया में जब 'डेमोक्रेसी' नहीं थी तब मानव समाज को मजबूरी में 'सामन्तवादी'व्यवस्था के क्रूर प्रहार झेलने पड़ते थे। तत्कालीन जन मानस अन्याय-अत्याचार से लड़ने के बजाय 'ईश्वर',धर्म,मजहब की शरण में जाकर अपने दुःख,कष्ट से मुक्ति की कामना करता रहा।इस सकारात्मक और सामुहिक जन आकांक्षा से आदर्शवादी उटोपिया का जन्म हुआ,जो कालांतर में विधि निषेध से युक्त होकर 'धर्म-मजहब'बनता चला गया!
किन्तु आधुनिक उन्नत वैज्ञानिक युगीन लोकतांत्रिक व्यवस्था में अब सापेक्ष सत्यही सर्वोच्च है। धर्म-मजहब और साम्प्रदायिकता के प्रभाव से लोकतंत्र रुग्ण होता है। मजहब के आधार पर राज्य सत्ता हासिल करने वाले और लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में धर्म का दुरूपयोग करने वाले अनाचारी नेता 'आस्तिक' नहीं कहे जा सकते ! उनसे बेहतर तो तर्कवादी -विज्ञानवादी और घोषित नास्तिक हैं, जो कम से कम धार्मिक उन्माद,पाखड़ या साम्प्रदायिकता से कोसों दूर हैं ! आस्तिक-नास्तिक के द्वंद से मुक्त होकर ही मानव मात्र सच्चे-ज्ञान का अधिकारी हो सकता है और शाश्वत आनंद अर्थात सत् चित् आनंद को प्राप्त कर सकता है।

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

Boss is great

Boss ने सभी employees के सामने पानी मे पत्थर फैंका!
और पूछा कि पत्थर क्यों डूब गया?
एक ही जवाब था-
Sir पत्थर भारी है सो डूब गया।
फिर Boss ने अपने प्रिय चेले
से पूछा-
उसने बहुत सुदंर जवाब दिया..
............
Sir, मुझे तो सिर्फ एक ही बात समझ आई.....
कि 
आपने जिसको छोड़ दिया, वह डूब गया  ..

चाल चरित्र का क्या कहना?

निर्धन जन मजबूर हो चुके,
शोषण को सहते रहना !
अंधेर नगरी चौपट राजा
चाल चरित्र का क्या कहना!!
पी एस यू बर्बाद किये सब,
निजी क्षेत्र का क्या कहना!
जुमलेबाजी बेरोजगारी का,
महंगाई का क्या कहना !!
भांड विदूषक सत्ता पा गये,
बगुला भगतों का क्या कहना ?

अल्पसंखयकों की स्ट्रेटजिक वोटिंग

यूपी विहारमें कांग्रेस और वामपंथ ने भाजपा की नीति नियत के खिलाफ लगातार संघर्ष किया है! किंतु मुझे मालूम है कि आगामी किसी भी चुनाव में मिली जुली सफलता जदयू,राजद, सपा,बसपा और भाजपा को ही मिलेगी!ऐंसा इसलिये होता है,क्योकि जातियवादी समूहों और अल्पसंखयकों की जो स्ट्रेटजिक वोटिंग भाजपा को हराने के लिये होती है उसे देखकर अधिकांस हिंदु भाजपा के पाले में चले जाते हैं!वैसे संघ परिवार भी लगातार हिंदुओं के एकजुट वोट हासिल करने का प्रयास करता रहता है !इसलिये भाजपा और क्षेत्रिय विपक्षी दल तो चुनाव जीत जाते हैं किंतु कांग्रेस और वामपंध का हमेशा सूपड़ा साफ होता रहता है!कन्हैया को भी जमानत बचाने के लाले पड़ जाते हैं.

बुधवार, 8 जनवरी 2020

'आस्तिक' भी क्रांतिकारी हो सकते हैं !

जिनको 'विश्व इतिहास' की तथा डार्विन के 'विकासवादी'सिद्धांत की सही सही जानकारी है,वे 'धर्मांध' कदापि नहीं हो सकते।जिन्होंने भारतीय वेदांत दर्शन-साँख्य,योग,मीमांसा और वैशेषिक -न्याय दर्शन इत्यादि का अध्यन किया है,वे यदि डार्विन के विकासवाद और मार्क्स के 'ऐतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद' को भी पढ़े और समझ लें तो वे स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय की तरह 'आस्तिक' होते हुए भी वे महान क्रांतिकारी हो सकते हैं !
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि वैदिक धर्मसूत्र स्वाभाविक रूप से 'धर्मनिरपेक्ष' ही हैं। यथा- सर्वे भवंतु सुखिन:....." यही कारण था कि रामक्रष्ण परमहंस,स्वामी सहजानंद,स्वामी विवेकानंद,स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपतराय ,तिलक,गाँधी जैसे महान आस्तिक भी 'धर्मनिरपेक्ष' स्वाधीनता सेनानी हुए हैं।
इसी तरह पांच वक्त के पक्के नमाजी मौलाना हसरत मोहानी,मौलाना आजाद, सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फरखां जैसे महान स्वाधीनता सेनानी आजादी के पुरोधा रहे हैं!
असफाक उल्ला खां,रामप्रसाद बिस्मिल, सआदत खान कॉमरेड सज्जाद जहीर, कॉ.मुजफ्फर अहमद,कॉ.फैज अहमद 'फैज',सरदार भगतसिंह,चंद्रशेखर आजाद, जैसे क्रांतिकारी किसी संत महात्मा या 'अवतार'से कम नहीं थे ! किन्तु वे बड़े गर्व से अपने आप को 'नास्तिक' कहा करते थे !

मुल्क की जान पै बन आई है !!

मानाकि जर्जर है मुल्क यह
और सदियों की खुमारी छाई है!
किंतु ये कैसा इलाज कर रहे हो,
कि मुल्क की जान पै बन आई है !!
मझधार में डूब रही हमारी कस्ती,
फिर भी तुम्हें सूझ रही ठिलवाई है!
अमीरों की तरक्की को बताते हो-
उपलब्धि और विकास-दुहाई है!!

व्यवस्था परिवर्तन के शस्त्र बहुत हैं!

मनुष्य का बल पौरुष जांचने के,
आधुनिक युग में चुनौतियां बहुत हैं।
तूफ़ान में दिए जलाये रखने के लिये,
साइंस के अधुनातन ठिये बहुत हैं।।
भृष्टाचार को उखाड़ फेंकने के लिये,
परखे हुए अचूक निशाने भी बहुत हैं!
सदियाँ गुजर गईं जिनको संवारने में,
उन मूल्यों को बचाने वाले बहुत हैं!!
अन्याय करने वाले यदि बहुत से हैं,
तो उनसे निपटनेके साधन:भी बहुत हैं!
यदि भय भूँख प्राक्रतिक आपदाएं हैं,
तो उनसे निपटने के साधन भी बहुत हैं!!
यदि सहज है नाक नक़्श की शल्यक्रिया,
तो व्यवस्था परिवर्तन के शस्त्र भी बहुत हैं!
मनुष्य का बल पौरुष जाँचने के लिये,
आधुनिक युग में चुनौतियां बहुत हैं!!
श्रीराम तिवारी

रविवार, 5 जनवरी 2020

वे हमेशा फासिज्म के अनुगामी होते हैं

मार्क्सवादी विद्वानों और हिन्दुत्ववादी धंधेखोरों में पहला अंतर तो विद्वत्ता और धंधेबाज़ी का है, दूसरा, अंतर यह है कि मार्क्सवादी सत्य को समग्रता में देखते हैं ! जबकि हिन्दुत्ववादी गप्प और एकांगिकता के वशीभूत होते चले जाते हैं। तीसरा अंतर यह है कि मार्क्सवादी लोग ग़रीबों,मजूरों और किसानों के प्रति अटूट रुप से जुड़े रहते हैं, जबकि हिन्दुत्ववादी अमीरों के हितों से जुड़े हैं। चौथा,मार्क्सवादी सच्चे देशभक्त होते हैं,जैसे,भगतसिंह आदि,जबकि नकली हिन्दुत्ववादी भले ही अंधराष्ट्वादी हों,किंतु वे देशभक्त कदापि नहीं होते! वे हमेशा फासिज्म के अनुगामी होते हैं। पांचवां-सच्चे मार्क्सवादी लैंगिक असमानता को गलत मानते हैं,जबकि हिंदुत्वादी और अन्य मजहबों के कट्टरपंथी पुरुषसत्तात्मकता से बुरी तरह आक्रांत हैं!वे नारीमात्र को जड़ वस्तु की तरह देखते हैं!

नई सुबह आती तो है ।

हरएक स्याह रात के बाद,
फिर से नई सुबह आती तो है ।
तलाश है ज़िसकी तुम्हें हर वक्त,
वो मौसमे बहार आती तो है ।।
निहित स्वार्थ से परे हो शख्सियत
जिंदगी बेपनाह जगमगाती तो है।
समष्टि चेतना को दे दो कोई नाम,
किंचित रूहानी इबादत जैसा!
हो तान सुरीली स्वागत समष्टि का,
व्यवहार जिंदगी का सूरज जैसा!!
तब मानवीय संवेदनाओं की बगिया,
महकती है और कोयल गाती तो है ।
यदि व्योम में बजें वाद्यवृन्द पावस के,
तो भोर हर मौसम खिलखिलातीतो है !
हर एक स्याह रात के बाद,
फिरसे नई सुबह आती तो है !

शनिवार, 4 जनवरी 2020

पूर्णत संतुष्ट करना नामुमकिन है |

कौन सा पति खरीदूँ ?*
*शहर के बाज़ार में एक दुकान खुली जिस पर लिखा था -*
*“यहाँ आप पतियों को ख़रीद सकती है |”*
*औरतों का एक हुजूम वहां जमा होने लगा | सभी दुकान में दाख़िल होने के लिए बेचैन थी , लंबी क़तारें लग गयी...*
*दुकान के मैन गेट पर लिखा था -*
*“पति ख़रीदने के लिए निम्न शर्ते लागू”* 👇👇
 *इस दुकान में कोई भी औरत सिर्फ एक बार ही दाख़िल हो सकती है...*
 *दुकान की 6 मंज़िले है, और प्रत्येक मंजिल पर पतियों के प्रकार के बारे में लिखा है |*
 *ख़रीदार औरत किसी भी मंजिल से अपना पति चुन सकती है l*
 *लेकिन एक बार ऊपर जाने के बाद दोबारा नीचे नहीं आ सकती , सिवाय बाहर जाने के |* 🙏🙏
*एक खुबसूरत लड़की को दूकान में दाख़िल होने का मौक़ा मिला...*
*पहली मंजिल के दरवाज़े पे लिखा था - “इस मंजिल के पति अच्छे रोज़गार वाले है और नेक है | "*
लड़की आगे बढ़ी ..
*दूसरी मंजिल पे लिखा था - “इस मंजिल के पति अच्छे रोज़गार वाले है, नेक है और बच्चों को पसंद करते है |”*
लड़की फिर आगे बढ़ी ...
*तीसरी मंजिल के दरवाजे पे लिखा था - “इस मंजिल के पति अच्छे रोज़गार वाले है,नेक है और खुबसूरत भी है |”*
ये पढ़कर लड़की कुछ देर केलिए रुक गयी मगर ये सोचकर कि चलो ऊपर की मंजिल पर जाकर देखते है , आगे बढ़ी...
*चौथी मंजिल के दरवाज़े पे लिखा था - “इस मंजिल के पति अच्छे रोज़गार वाले है, नेक है, खुबसूरत भी है और घर के कामों में मदद भी करते है |”*
ये पढ़कर लड़की को चक्कर आने लगे और सोचने लगी “क्या ऐसे मर्द भी इस दुनिया में होते है ?
यहीं से एक पति ख़रीद लेती हूँ ” लेकिन दिल ना माना तो एक और मंजिल ऊपर चली गयी...
*पांचवीं मंजिल पर लिखा था - “इस मंजिल के पति अच्छे रोज़गार वाले है , नेक है और खुबसूरत है , घर के कामों में मदद करते है और अपनी बीबियों से प्यार करते है |”*
अब इसकी अक़ल जवाब देने लगी वो सोचने लगी इससे बेहतर मर्द और क्या भला हो सकता है ? मगर फिर भी उसका दिल नहीं माना और आखरी मंजिल की तरफ क़दम बढाने लगी...
*आखरी मंजिल के दरवाज़े पे लिखा था -“आप इस मंजिल पे आने वाली 3338वीं औरत है , इस मंजिल पर कोई भी पति नहीं है , ये मंजिल सिर्फ इसलिए बनाई गयी ताकि इस बात का सबूत दिया जा सके के इंसान को पूर्णत संतुष्ट करना नामुमकिन है |*
*हमारे स्टोर पर आने का शुक्रिया ! सीढियाँ बाहर की तरफ जाती है !!*
🙏🙏 *सांराश यह है कि आज SAMAJ की सभी कन्याओ और वर पक्ष के पिता ये सब कर रहे है एवं अच्छा और अच्छा ... के चक्कर मे शादी की सही उम्र खत्म हो रही है |* 

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

दासत्वबोध

भारतीय संत कवियों के नाम में 'दास' शब्द पता नहीं कब कैसे जुड़ गया। उनके नाम का 'दास' वाला हिस्सा ईश्वरीय नाम का पदबन्ध नहीं है,यह कोई ब्रिटिश क्राउन प्रदत्त उपाधि भी नहीं है ! और यह दासत्वबोध इस्लामिक जगत के बर्बर बादशाहों,निरंकुश खलीफाओं द्वारा प्रदत्त तमगा भी नहीं है!
धार्मिक अंधश्रद्धा ने और कायराना कर्मकांड ने सामंतवादी गुलामी के अवशेषों को बहुत आस्था से संजोये रखा है!जबकि इसी पतित दासत्वबोध ने अतीत में 'अखण्ड भारत' को खंड -खंड किया है । भारत की मेहनतकश पीढ़ियों को सैकड़ों साल तक जो गुलामी भोगनी पड़ी और जिसका बहुत भारी असर मौजूदा पूंजीवादी दौर में भी है,उसकी वजह यह 'दास' शब्द ही है।

कालजयी समाजोन्मुखी साहित्य सृजन में छन्दमय कोष की प्रासंगिकता ....!


आज टेलीविजन,कम्प्यूटर,मोबाइल,तथा ब्रॉडबैंड इत्यादि के अत्यधिक प्रचलन से ज्ञान आधारित सूचना तंत्र सहित संपूर्ण वैश्विक उत्पादनों का भूमंडलीकरण हो चुका है। नए-नए ब्लॉगों और वेबसाइट्स पर अंधाधुंध सृजनशीलता के दुर्गम पहाड़ निर्मित किये जा रहे हैं। अधिकांश लेखन निहायत ही गैर जिम्मेदाराना,तथ्यहीन होता जा रहा है। कुछ तो अनुत्पादक और अर्थ-हीन (मुनाफामूलक नही ) ही हो चुका है!
कुछ साहित्यिक अभिकर्म नितान्त नीरस होता जा रहा है। कहीं कहीं कुछ रोचकता का अभाव भी झलक रहा है। भारतीय उप महाद्वीप में अतीत की बर्बर-दमनकारी-सामन्तयुगीन (अ)सभ्यताओं के तंबू भले ही उखाड़ दिए गए हों,किंतु अतीत का वह हिस्सा अभी भी हराभरा साबूत है,जो साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं मानवता के कल्याणकारी सरोकारों से सराबोर है। जिसमें मानवीय उत्थान तथा उच्चतर संवेदनाओं को निरंतर प्रवाहमान करते रहने की क्षमता विद्यमान है। इसे भाषा व्याकरण के द्वारा शताब्दियों से प्रसंस्कृत किया जाता रहा है।
महाकाव्यों के सृजन की शिल्पज्ञता तथा नई सभ्यताओं का उदयगान भी इसी रस-सिद्धांत तथा छंदोविधान की परंपरा के निर्वाह का परिणाम है।
सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक तथा राजनैतिक उपादानों को पूंजीवादी प्रजातंत्र के शक्तिशाली शासक वर्ग ने निरंतर सत्ता में बने रहने का साधन बना लिया है। इस दौर के प्रभूतासंपन्न वर्ग ने भी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर कब्जा जमा रखा है। आज जल-जंगल-जमीन तथा राष्ट्रों की सकल संपदाओं-संस्कृति पर भी इसी वर्ग का आधिपत्य है। आजादी के पूर्व भी “सकल पदारथ” इसी शोषक-शासक वर्ग के हाथों में थे। तब देशी-विदेशी का अंतर सिर्फ राजमुकुट हथियाने के संघर्ष में सन्निहित था। प्रत्येक प्रतिगामी कठिन दौर में क्रांतियों की जन्मदात्री, अमर शहीदों की प्रियपात्र तथा श्रेष्ठ काव्यकर्मियों की रचना धर्मिता के इसी छंदोविधान ने जनमानस के मध्य क्रांतिकारी भावों का संचरण किया है। जो कि सिर्फ संस्कृत और हिन्दी में ही उपलब्ध था।
सौन्दर्यबोधगम्यता तथा सार्थक सृजनशीलता की कसौटी पर खरा उतरने की कोशिशें अनेकों ने की हैं, किंतु मानवीय संवेदनाओं का सत्व कमतर होते जाने तथा भौतिक संसाधनों पर आश्रित होते जाने के कारण साहित्य का रसास्वादन चंद लोग ही कर सके हैं। इनमें से कुछ थोड़े ही ऐसे होंगे जिन्होंने साहित्य का विधान तथा भाषा व्याकरण के रस सिद्धांत को समझ सके होंगे।
वर्तमान दौर की शिक्षा प्रणाली भी एल.पी.जी. की बाजार व्यवस्था अनुगामिनी हो चुकी है। मॉर्डन टैक्नोलॉजी, सांइस, चिकित्सा तथा अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षैत्र में भाषा के सौंदर्य शास्त्र को नहीं अपितु अंग्रेजी के ज्ञान को सफलता की गांरटी बना लिया है। संस्कृत, हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का रसमय काव्यकोष उपरोक्त संदर्भों से काट कर केवल पूजा-अर्चना का निमित्त मात्र बना कर रख दिया गया है। जहां तक हिन्दी का प्रश्न है, वैश्विक बाजार में इसकी पकड़ बरकरार है। दक्षिण एशिया का कोई भी बाजार हिन्दी ज्ञान के बिना अधुरा है, यदि हिन्दी नहीं होती तो बॉलीवुड भी शायद इतना उन्नत नहीं होता और तब निसंदेह घर-घर में हॉलीवुड का धमाल मचा होता। ऐसी सूरत-ए-हाल में भारत की गैर-हिन्दी तस्वीर कितनी बदरंग और भयावह होती इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। सचेत भारतीय सोच सकते हैं की तब कैसा भारत होता? केवल भारत ही क्यों? पूरे दक्षिण एशिया का नक्शा कैसा होता? यदि हिन्दी नहीं होती तो संभवत: भारत आज़ाद भी नहीं हो पाता ! अत: यह स्वयं सिध्द है की इस देश की अक्षुणता हिन्दी के अस्तित्व पर ही टिकी हुई है, और न केवल भौगोलिक रूप से बल्कि एक समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश के रूप में भी संस्कृत एवं हिन्दी भाषाओं का अवदान उल्लेखनीय रहा है और इसमें रस सिद्धांत छंदो-विधान का प्रयोग क्रांतिकारी चरित्रों एवं मानवीय संवेदनाओं के प्रवाह ने ब्रह्मास्त्र का काम किया है। यदि भारतीय वाड़गमय की काव्यधारा की निर्झरणी का अजस्त्र स्त्रोत उपलब्ध नहीं होता तो हमारी हालत वैसी ही होती जैसे की कॉमनवेल्थ- ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अफ्रीका महाद्वीप, लेटिन अमेरिका एवं उत्तर अमेरिकी आदिवासियों की सदियों पूर्व हो चुकी है।
जहां-जहां उपनिवेशवादी आक्रांताओं ने साहित्यिक, सांस्कृतिक जड़ें जमा ली थी ; वहां वहां के स्थानीय मूल-निवासियों (आदिवासियों) की सभ्यता/संस्कृति एवं भाषा का लोप हो चुका है। भारत की भाषाई एवं सास्कृतिक विरासत दोनों जिंदा हैं। चूंकि हमारी देशज भाषाई विरासत में परिवर्तन के क्रांतिकारी तत्व काव्यात्मक रूप से मौजूद हैं अत: 21वीं सदी का भारतीय समाज शोषणमुक्त होकर रहेगा ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है। हालांकि बारत में आजादी के 62 वर्ष बाद भी हिन्दी राज संचालन की सहधार्मिणी नहीं बन सकी है। यह भी एक दुखद विडम्बना है। समाजवादी क्रांति के मार्ग में भी अंग्रेजी की दीवार सबसे बड़ी बाधा है, यह गुलामी की निशानी भी है।
भारत में क्षेत्रीय भाषाओं का विकास भी लोकतंत्र तथा हिन्दी की कीमत पर ही हुआ है। हिन्दी-संस्कृत को पददलित करते हुए अंग्रेज़ी आज भी “इण्डिया” की “विक्टोरिया” बनी हुई है। आज भी अभिजात वर्ग की भाषा अंग्रेजी ही है। इन तमाम विसंगतियों, विद्रूपताओं तथा विडम्बनाओं के बावजूद के बावजूद संस्कृत /हिन्दी का छन्द एवं सौन्दर्यशास्त्र अति समृध्द होने से आज हिन्दी का ककहरा नहीं जानने वाले भी हिन्दी की कमाई से (फिल्म-टीवी चैनल वाले) मालामाल हो रहे हैं। अनेक त्रासद परंपराओं का बोझ उठाते हुए, बदलती व्यवस्थाओं के दौर में भी मानवीय मूल्यों की अंतर्धारा सतत प्रवाहमान है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है की संस्कृत-हिन्दी का छंद एवं सौंदर्य शास्त्र बेहद सकारात्मक रचनाधर्मिता से ओत-प्रोत है। भारत की क्षेत्रीय भाषाओं को भी इसी रसमय काव्यधारा के व्याकरण का अवलंबन मिलता रहा है। मात्र आर्थिक-सामाजिक-साजवैतिक परिवर्तनों के हेतु से ऐतिहासिक-साहित्यिक विधा को विस्मृति के गर्त में धकेलकर, क्रांति का लक्ष्य प्रप्त नही किया जा सकता। प्रगतिशीलता के दंभ में कतिपय साहित्यकार-लेखक-कवि वैचारिक विभूतियां दिग्भ्रमता के बियाबान में भटक रही हैं और अपनी अज्ञानता को नई विधा बता रही हैं।
संपूर्ण भारतीय वाडंगमय की चुम्बकीय शक्ति का केन्द्र बिन्दु उसका वैचारिक सौष्ठव तथा शिल्प की अतुलनीय क्षमता है। पाण्डित्य-प्रदर्शन कहकर या वेद-पुराण-आगम-निगम की खिल्ली उड़ाकर तथा षड्दर्शन को कालातीत कहकर सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता। इस समृद्ध मानवीय वैश्विक धरोहर को सदा के लिए संस्कृति और धर्म के नाम पर शोषक शासक वर्ग का शस्त्र भी नहीं बनाया जा सकता। संपूर्ण पुरा-साहित्य को ईश्वर की जगह बैठाकर चंबर डुलाना भी नितान्त निंदनीय है, किन्तु लोकहितार्थ उसका उपयोग वंदनीय है। मेग्नाकार्टा, शुक्रनीतिसार, चाणक्यनीति तथा यूनानी दर्शन एवं अन्य पुरातन मूल्यों के निरन्तर परिष्करण से ही आधुनिक युग की लोकतांत्रिक तथा समाजवादी क्रांतियों को “विचार शक्ति” प्राप्त हुई है। इसे और ज्यादा न्यायपूर्ण, सुसंगत तथा निर्बलों के पक्ष में वर्ग संघर्ष की चेतना का उत्प्रेरक बनाय जाना चाहिये। साहित्य की ऐतिहासिक यात्रा में “छन्दबद्ध” काव्यधारा के अनेक रूप दृष्टव्य हैं। भारतीय संस्कृत-हिन्दी वाडंगमय के आदियुग से लेकर वर्तमान उत्तर आधुनिक युग तक जिस रस, छन्द तथा सौन्दर्यशास्त्र का बोलबाला रहा है उसके गुणधर्म केवल स्वस्ति वाचन मात्र नहीं हैं। नेदमंत्रों के रुप मे प्रागेतिहासिक कालीन छन्दबद्ध रचनाओं का छन्दोविधान लौकिक छन्द व्यवस्था से समृध्द वैज्ञानिक अन्वेषणों तथा प्रकृतिदर्शन की अनुगूंज भी था। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का श्री गणेश भी था।
लौकिक-संस्कृत, पाली, अपभ्रंश तथा मध्ययुगीन भक्तिकालीन हिन्दी/काव्यधारा में जहां अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, शार्दुलविक्रीडित, द्रुतविलम्बित, शिखरणी, मालिनी, मन्दाक्रान्ता आदि छन्दों का पिरयोग देखने को मिलता है, वहीं दूसरी ओर वेदों, संहिताओं, षड्दर्शन तता उपनिषदों में उक्त छन्तों के अलावा गायत्री, जगती, वृहती, त्रिष्टुप, उष्णिक, भूरिक तथा प्रगाथ आदि छन्दों का प्रयोग प्रधानता से किया गया है।
पाणिनी, सायण, महीधर, जयदेव तथा तुलसी की व्याकरणीय विद्वत्ता से इतर भी लोक साहित्य की समृद्धी में नाथपंथियों, सूफियों तथा भक्तिकालीन कवियों की अनगढ़ संरचनाओं में भी ह्रदय को छकछोरने अतवा संवेदनाओं के धरातल पर मुक्तिकामी मारक क्षमता मौजूद थी। इसी काव्य परम्परा से भारत के पुनर्जागरण काल की समाज क्रांति, का उदय हुआ तथा राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम को संजीवनी मिलने से आज के स्वाधीन भारत का मानचित्र साकार हुआ है। पिंगलकृत छन्दसूत्रों में भी इस विषय का उल्लेखनीय वर्णन है। वैदिक छन्दों को सीधे पाली और प्राकृत में रुपान्तरित करते हुए, योगरूढ़ संस्कृत छन्द-शास्त्र ने हिन्दी (ब्रज-बुन्देली-अवधी-रुहेली) में अवतरणीय प्रचलन प्राप्त किया है। किसी छन्द विशेष को आसानी से पहचाना जा सकता है। सूत्रों की क्रमिक जानकारी भर होना चाहिए।
हिन्दी काव्य धारा को सर्वाधिक चर्चित कराने वाले “रासों” साहित्य में “दूहा” या दोहा का प्रयोग बहुतायत से हुआ है। इसके अलावा गीतिका, हरगीतिका, मालिनी, छप्पय, चौपाई, सौरठा, कवित्त, सवैया, ख्याल, रोला, उल्लाला तथा मत्तगयंद इत्यादि छंद-पदावली को लौकिक साहित्य के साधकों में बेहद लोकप्रियता प्राप्त होती रही है।
लगभग दो हज़ार वर्षों की काव्य-यात्रा में भौगोलिक, सामाजिक तथा आर्थिक कारकों ने यदि एक छोर पर राजनैतिक छलांगे लगई हैं, तो दूसरी ओर सहित्यिक छलांगों ने भी मानवीय संवेदनाओं- करुणा, अहिंसा, सत्य प्रेम तथा सौंदर्य को परिष्कृत करते हुे छंद शास्त्र का शानदार प्रवर्तन किया है, बेहतरीन धरोहरों से मानवता को नवाज़ा भी है।
राष्ट्र भाषा तथा उसकी छंदबद्ध अविरल धारा से ही भारतीय संस्कृति-सभ्यता एवं एकता-अखंडता और महान प्रजातंत्र सुरक्षित है।
उत्तर-आधुनिक छंदविहीन साहित्यिक चेष्टाओं को उसकी भाव-उद्दीपनता के कारण यत्किंचित भले ही प्रगतिशील पाया गया हो, किन्तु भारोपीय भाषा परिवार की निरंतर उत्तरजीविता के जैविक गुणों से लबालब, छंद शास्त्र से सुसज्जित हिन्दी भाषा की त्रिकालज्ञता में छंदबद्ध सृजन का स्थान सर्वोपरि रहा है।
निसंदेह संस्कृत के अर्वाचीन काव्य-सूत्रों को अधुनातन रूप प्रदान करने में हिन्दी तथा भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की योग रूढ़ता का विशेष योगदान रहा है। लोक-गायन, लोक-वादन, तथा लोकनृत्य के उल्लेख बगैर इस साहित्यिक विधा के घटना विकास क्रम पर वैज्ञानिक ढंग से राय प्रस्तुत कर पाना संभव नहीं होगा।
संस्कृत या हिन्दी में वर्णिक अथवा मात्रिक छन्द रचना का सृजन तब तक दोषपूर्ण और निरर्थक ही रहेगा, जब तक वह छंदमुक्ति अथवा अतुकान्त काव्य की सृजनशीलता का ढोंग करता रहेगा। भावप्रवणता से ओत-प्रोत गद्य साहित्य के अपने शानदार तेवरों में वह कथा, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलेख, जीवन वृतांत तथा पत्रकारिता समेत, आर्थिक, सामाजिक एवं समूचे राजनैतिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन तो बखूबी कर ही रहा है, फिर गद्य साहित्य को मुक्त छंद या अतुकान्त कविता के नाम पर छंद में अछंदता की क्या जरुरत है? कथित व्याकरणविहीन, छंदविहीन, सौंदर्य बोध विहीन काव्य-रचना को “काव्य जगत” द्वारा मान्यता कभी नहीं मिल पायेगी।
अतएव सर्वप्रथम समस्त सुधी एवं प्रगतिशील तबक़े को छंदशास्त्र, रस-सिद्धांत एवं काव्यकोष का अध्येता होना चाहिए, तदुपरांत अपने क्रांतिकारी न्यायाधारित विचारों को जन-जन तक पहुंचाना चाहिए।
-श्रीराम तिवारी

बुधवार, 1 जनवरी 2020

*नया साल मुबारक*


हर आम और खास को नया साल मुबारक!
मित्रो और सपरिजनों को नया साल मुबारक!!
सुशासन और विकास का ढपोरशंख बजाने वालोंको,
करकमलों में झाड़ू लेकर फोटो खिचवाने वालोंको,
चुनावी ध्रुवीकरण के हेतु साम्प्रदायिकता वालोंको ,
लुटे पिटे भारत को चरागाह समझने वालों को,
कालेधन का खटराग राग सुनाने वालों को,
धारा -३७० NRC-CAA पर उत्पात मचाने वालोंको ,
दाऊद,हाफिज सईद-सिमी-मसूद पालने वालोंको,
साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाकर सत्ता हथियाने वालोंको ,
अल्पसंख्यक वर्ग को मूर्ख बनाने वालों को ,
शोषण -उत्पीड़न -जहालत से लड़ने वालों को ,
सीमाओं पर वतन-कौम के लिये लड़ने वालों को,
सूखा -पाला -ओलों की मार सहने वालों को ,
न्यनतम मजदूरीके हक की लड़ाई लड़ने वालोंको ,
भृष्टाचार,साम्प्रदायिकता,से लड़ने वालोंको ,
फेस बुक पर हाजिर सभी प्रबुद्ध जनों को ,
नया साल मुबारक हो !!!

*सफदर का अर्थ है जागना, जगे रहना और जगाना*


1 जनवरी 1989 के दिन.जब पूरी दुनिया नए साल के जश्न में डुबी हुई थी उस दिन सफदर गाजियाबाद में नगरपालिका चुनावों के मौके पर जन नाट्य मंच (जनम) की मंडली के साथ साहिबाबाद के झंडापुर गांव में ‘हल्ला बोल’ नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन कर रहे थे,तभी कांग्रेस के कुछ गुंडों ने सफदर को निशाना बना करहमला किया. 2 जनवरी को सफदर प्राण त्याग दिए.
सफदर पर हुए अमानवीय एवं क्रूर हमले से पूरे देश का
सांस्कृतिक जगत हिल गया.साहित्य और संस्कृति पर आए संकट से पूरे का बौद्धिक जगत सड़क पर आ गया.
देश भर में प्रदर्शन और सभाएं का तांता लग गया.यह एक ऐसा दौर था कि कुछ दिन पहले पंजाब में पाश और गढ़वाल में डोभाल की हत्या हुई थी.सफदर की शहादत के चंद रोज पहले ही त्रिपुरा में जनकवि ब्रजलाल की नृशंस हत्या हुई थी.बिल्कुल अमानवीय और पाशविक तरीके से हत्या की गयी. पहले उनकी गीत लिखने वाली उंगलियों को काटा गया, फिर गाने वाल कंठ-नली को न जाने कितने टुकड़ों में कतर डाला गया था.इसी प्रकार विक्टर जारा की हत्या की गयी थी.
लेखकों-संस्कृतिकर्मियों के संगठनों ने इन घटनाओं का प्रतिवाद किया.यह प्रतिवाद बयानों, विशाल प्रदर्शनों से लेकर कलाकारों की देश-व्यापी हड़तालों, कलाकारों की एकजुटता के देश-व्यापी भावीकार्यक्रमोंऔर फिल्मोत्सवों की तरह के अन्तरराष्ट्रीय मंचों तक फैलाहुआथा. प्रतिरोध
और आक्रोश का ज्वार जो फूटा वह संसद को भी हिला कर रख दिया.
सफदर की हत्या के ठीक बाद कोलकाता में जो प्रतिवाद सभाएं और कार्यक्रम हुए, उनमें उत्पल दत्त, विभाष चक्रवर्ती, नीलकंठ सेनगुप्त, रुद्रप्रसाद सेनगुप्त, अरुण मुखर्जी, मनोज मित्र, अशोक मुखर्जी के स्तर के बांग्ला रंग-जगत की श्रेष्ठ प्रतिभाओं से लेकर गणनाट्य मंच के अदने से कार्यकर्ता तक ने उस नृशंस हत्या पर अपनी घृणा और आक्रोश को व्यक्त किया.
34साल की छोटी सी उम्र में सफदर ने जो उपलब्धियों के
ऐसे कीर्तिमान स्थापित कर लिये थे वह अविश्वसनीय और चौंकानेवाले हैं .दिल्ली और उसके आस-पास के औद्योगिक क्षेत्र की मजदूर वस्तियों में उनकी हर लड़ाई में वह अपनी जननाट्य मंच की मंडली लेकर जाया करते थे.उन बस्तियों में ही उन दस वर्षों में जननाट्य मंच के ‘मशीन’ से लेकर ‘हल्ला बोल’ तक के लगभग 21 नाटकों के चार हजार से भी ज्यादा प्रदर्शन हो चुके थे.
तीन-तीन विश्वविद्यालयों में अध्यापक तथा पश्चिम बंगाल सरकार के एक बड़े सांस्कृतिक अधिकारी की नौकरी छोड़ सफदर सीपीआई(एम) के एक पूरा-वक्ती कार्यकर्ता के रूप में जनता की जनवादी क्रांति के काम में खुद को समर्पित कर दिया. एक छोटी सी जिंदगी में सफदर की आवाम के प्रति वचनवद्धता का नतीजा था कि दिल्ली के विट्ठलभाई पटेल हाउस में जब सफदर का शव पड़ा था, तब एक बूढ़ी मजदूरिन सिर्फ उसके पैर छूने तथा उसके चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने के लिये आकुल-व्याकुल थी.वह रो-रोकर बता रही थी,इस मसीहा ने उसे नयी जिंदगी दी, उसी ने उसके मालिक से लड़ाई करके उसकी नौकरी को स्थायी करवाया और उसका वेतन बढ़वाया.कांग्रेसी गुंडों ने उसकी हत्या करके सोचा था कि शायद जनवादी सांस्कृतिक संघर्ष खत्महो जाएगी
पर सफदर हर स्तर पर झूठ और अन्याय के खिलाफ प्रतिवाद की वाणी बन चुके हैं. आज भी यह आवाज गूंज रही है. सफदर हाशमी को श्रद्धांजलि:-स्वरूप किसी ने कविता लिखी थी ,प्रस्तुत है :-
तुम्हारे ताजा खून की कसम
हम फिर वही खेल दिखायेंगे
हल्ला बोल, हल्ला बोल की
रणभेरी बजायेंगे
गरमायेंगे गरीबों का लहू
आग बनाकर शब्दों को तुम्हारे
फहरायेंगे परचम की तरह
गीतों को तुम्हारे
बस्ती-बस्ती नुक्कड़-नुक्कड़ हर चौराहे पर
खेल दिखायेगा जमूरा तुम्हारा
करेगा फिर बेआबरू
लोकराज का बाना पहने ढोंगी राजा को
दौड़ायेगा उल्टे पांव पंडित, मुल्ला, काजी को
चिमटे के जादू से बुलायेगा खाकी वर्दी को
तार-तार कर देगा उसकी हस्ती को
पडरिया,घटियारी,उजान मैदान
गिड़गिड़ायेगा वहशी शैतान
डम-डमा-डम डमरू बाजेगा
हर मजदूर का चेहरा चमकेगा
कुर्सी पर नेता झल्लायेगा
फायर! फायर! फायर
घायल होकर गिर पड़ेगा जमूरा
पर खत्म नहीं होगा यह नाटक
शुरू किया था जो तुमने
तुम्हीं तो थे इसके सूत्रधार
उठना ही होगा तुम्हें सफदर भाई
क्योंकि सफदर मरा नहीं करते
क्योंकि सूत्रधार मरा नहीं करते.....