मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

एक-मई अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस-ज़िंदावाद...!

 " लोग कहते हैं  कि  आन्दोलन-प्रदर्शन और जुलूस निकालने से क्या होगा ?  इससे यह सिद्ध होता है  कि हम [याने कौम  के लोग ]जीवित हैं ,हम शोषण के खिलाफ चल रही दुनियावी लड़ाई के मैदान में डटे  हैं, हम मैदान से  हटे  नहीं हैं , ये  जुलूस -प्रदर्शन-धरने और आन्दोलन हमें  राह दिखाते है-कि  हम लाठियों-गोलियों-और  शासक  वर्ग के  अत्याचारों से भयभीत होकर अपने महानतम लक्ष्य से डिगने वाले नहीं हैं .हम इस व्यवस्था का अंत करके ही दम लेंगे जो स्वार्थीपन और शोषण  पर अवलंबित है "...... मुंशी  प्रेमचंद ....

" दुनिया में जब तलक सबल व्यक्ति द्वारा निर्वल व्यक्ति का शोषण होता रहेगा,दुनिया  में जब तलक सबल समाज द्वारा  निर्बल समाजों का शोषण होता रहेगा ,दुनिया में जब तलक शक्तिशाली मुल्कों द्वारा निर्बल-व  पिछड़े राष्ट्रों का शोषण होता रहेगा, क्रांति के लिए हमारा संघर्ष तब तलक जारी रहेगा ".....शहीद भगतसिंह ....

"  भारत पर इंग्लैंड  की विजय -ईसा-मसीह या बाइबिल की विजय नहीं  है , भारत पर मुगलों-पठानों तुर्कों की विजय कुरआन की विजय नहीं थी, इन आक्रमणों के उदेश्य केवल और केवल 'सम्पदा की भूंख 'और  राज्य  विस्तार की कुत्सित  लालसा ही थी, पाश्चात्य जगत में ही इस महामारी का  भी निदान जन्म ले रहा है. उसकी लालिमा यूरोप और पाश्चात्य जगत के व्योम में  दृष्टिगोचर होने लगी  है , उसका  फलाफल  विचार कर आततायी लोग घबराने लगे हैं    सोशलिज्म  अनार्किज्म , नाह्लिज्म  आदि  नए सम्प्रदाय   इस आगामी विप्लव[क्रांति] के आगे-आगे चलने वाली - नयी धर्म ध्वजाएं  होंगीं …!  "  ... स्वामी विवेकानंद ..!

 "दुनिया के  मेहनतकशो -एक हो… एक हो ...." ..... कार्ल मार्क्स .....
 
  एक मई अन्तर्रष्ट्रीय मजदूर दिवस पर  दुनिया के तमाम  क्रान्तिकारी साथियों को लाल -सलाम….! चे गुवेरा ..!
                                                              
                                                     दोस्तो .....! औद्दोगिक क्रांति से पहले याने १ ६ वीं -१ ७ वीं शताब्दी तक दुनिया में 'काम के घंटों ' को लेकर कोई चर्चा नहीं होती थी . चूँकि उस जमाने में खेती  को 'सर्वोत्तम' माना जाता था  और किसान  या मजदूर को जमीदारों द्वारा  बेलों की तरह ही जोता  जाता  था . स्वतंत्र सीमान्त किसान भी हाड-तोड़   मेहनत  के लिए  मजबूर  हुआ करता था क्योंकि तब 'उन्नत तकनालोजी'  नहीं  थी .यूरोप  और अमेरिका में सम्पन्न 'औद्दोगिक क्रांति ' ने न केवल  सामंतवाद को बल्कि उसके अभिन्न हितेषी ' रिलीजन ' [ भारतीय संदर्भ में 'देवोपासना']  को भी आपने-रंग-ढंग सुधारने पर मजबूर  कर दिया था । जहां पहले के जमाने में दिहाड़ी मजदूर,बेगारी मजदूर ,ठेका मजदूर और कृषि-मजदूर को महीनों तक कोई 'अवकाश ' नहीं दिया जाता था वहीँ  उनको  ' उदर -भरण ' याने गुजारे लायक न्यूनतम  मेहनताना   दिए जाने की तो कोई गारंटी ही नहीं थी .काम के घंटों को कम करने या कमसेकम 'आठ' घंटे का कार्य दिवस हो ,इस तरह की  मांग उठने लगी . अन्याय के प्रतिकार  का भी  सिलसिला चल पड़ा ,हालांकि ये सिलसिला  भी उतना ही पुराना है जितना कि  अन्याय और अत्याचार  का  पुरातन निर्मम  इतिहास है , इस इतिहास के  लेखन  में मेहनतकशों  के  लहू  को स्याही बनाया   जाता  रहा है।
                                                                              औद्दोगिक क्रांति के   आरंभिक  काल अर्थात १ ९ वीं सदी में काम के घंटों को लेकर ,न्यूनतम मजदूरी को लेकर मजदूरों के संगठन बनने लगे और तब उन्होंने अन्याय के प्रतिकार का शंखनाद  भी शुरू कर दिया . आज जो सारे संसार में सरकारी तौर पर काम के घंटे ' आठ' सुनिश्चित हैं , वो अतीत के अनेक  संघर्षों और बलिदानों की थाती है . भले ही इन का पालन नहीं हो रहा . आज जो   न्यूनतम मानवीय सुविधाएं सुलभ है  इन्हें  हासिल करने  के लिए दुनिया भर के मेहनतकशों ने कई बार अनगिनत बलिदान किये हैं ., और जो  अभी तक लड़कर हासिल किया है -उसे सुरक्षित रखने  के लिए भी संघर्ष जारी हैं बलिदान किये जा रहे हैं . और ये संघर्षों का अंतहीन सिलसिला तब तक  जारी   रहेगा  जब तक कि मानव द्वारा मानव के शोषण का सिलसिला समाप्त नहीं हो जाता .    मजदूर वर्ग की कुर्वानियाँ  तत्सम्बन्धी संघर्ष - कुर्वानियों के इतिहास को याद करने के लिए "एक-मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस ' सारे संसार में मनाया जाता है .  इसे  वास्तव में  मानवता  का वैश्विक पर्व और   नए  सूर्योदय की तलाश का दिन  कहें तो अतिशयोक्ति न होगी . यह मानवीय मूल्यों को पुन : परिभाषित किये जाने का अंतर्राष्ट्रीय संकल्प दिवस है . दुनिया में शायद ही  ऐंसा कोई देश हो जहां के  -समाज-नगर ,कारखाना ,खेत या  खलिहान  में  'एक मई -अन्तराष्ट्रीय मजदूर दिवस 'जिन्दावाद का नारा नहीं लगाया जाता हो .
                                         दुनिया भर में जितने भी त्यौहार मनाये जाते हैं उन में संभवत :"१ -मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर-दिवस" एकमात्र त्यौहार है  जो सारे संसार में मनाया जाता है। दुनिया में जहां कहीं भी मजदूर -किसान-कारीगर-इंजीनियर-शिक्षक,डाक्टर , सरकारी  कर्मचारी-अधिकारी  या छात्र -नौजवान हैं वहाँ पर ये त्यौहार अवश्य मनाया जाता है . इसे हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई-बौद्ध-यहूदी ,पारसी ,सिख जैन ,आस्तिक-नास्तिक से लेकर दुनिया की प्रत्येक भाषा और नस्ल के लोग  मनाते हैं . इस त्यौहार के चिंतन का केंद्र केवल काम के घंटों को लेकर  हुए  'नर-संहार' तक सीमित नहीं है। ये त्यौहार तो मानवता के इतिहास में  अनेक 'जन-क्रांतियों ' का उत्प्रेरक सिद्ध हुआ है . दुनिया के लगभग ८ ० देशों में सरकारी  तौर पर इस त्यौहार को मान्यता प्राप्त हो चुकी  है . इन देशों में एक-मई को  'राष्ट्रीय अवकाश' दिया जाता है .चीन,वियतनाम,कोरिया ,क्यूबा ,वेनेजुएला , स्वीडन ,फ़्रांस ,अमेरिका, इंग्लॅण्ड तुर्की  दक्षिण  अफ्रीका  सीरिया, ,पोलैंड   रूस   जर्मनी, वोलिविया  नेपाल, ,ब्राजील मिश्र ,ईराक ,ईरान .पकिस्तान ,बांग्ला देश   और भारत समेत दुनिया के अधिकांस देशों और    महा दीपों में  इस त्यौहार को 'जोश और क्रांति के  प्रतीक'  रूप में  मनाया जाता है .चीन में लगभग एक अरब जनता इस त्यौहार को  अपनी क्रांती को अक्षुण रखने के संकल्प के रूप में मनाती है . भारत के बंगाल,केरल,त्रिपुरा ,उत्तरपूर्व ,में अधिकांस्तः और बाकी सारे देश में कहीं शानदार और कहीं  रश्म अदायगी  के   रूप में  नगर-नगर,गाँव-गाँव में एक-मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है .
                                                 एक -मई अंतर्राष्ट्रीय , मजदूर दिवस के  मनाये  जाने  की शुरुआत का इतिहास अलग-अलग कारणों से बहुत पुराना  है . केथोलिक चर्च में तो ' सेंट -जोसेफ 'के  जन्म-दिन' से भी इसका ताल्लुक  बताया  गया है .  पुरातन  यहूदी कामगार  और  बेथलेहम  के मिश्त्रियों   में  इसके मनाये जाने के प्रमाण हैं .वैसे सबसे महत्वपूर्ण और प्रेरक घटना  अमेरिका स्थित शिकागो शहर की मानी जाती है .शिकागो  के 'हे-मार्केट -स्क्वायर' पर मई- १ ८ ८ ६   को सरमायेदारों द्वारा  जो रक्तपात  किया गया  वो इस मई-दिवस के  इतिहास का सबसे यादगार ,अविस्मर्णीय  एवं लोमहर्षक  कालखंड  है .हालांकि इस घटना का याने काम के घंटे कम करने और श्रम का सही दाम मांगे जाने का - बीज वपन भी फ्रांसीसी क्रांति ने ही किया था . जिस तरह अमेरिका की स्वतंत्रता और दुनिया भर के मुक्ति संग्रामो के  लिए फ्रांसीसी क्रांति एवं रूसी क्रांति  को श्रेय दिया जाता है,   उसी तरह दुनिया भर  में लोकतंत्र-जनवाद और  प्रजातांत्रिक आकांक्षा के लिए भी इन्ही क्रांतियों को मूल मन्त्र के रूप मेंअवश्य  ही  स्मरण किया  जाता  है .फ्रांसीसी क्रांति के तीन मूल मन्त्र सारे  संसार के लिए आज भी प्रासंगिक हैं .लिवेर्टी ,इक्वलिटी , फ्रेटरनिटी इत्यादि  इन मानवीय मूल्यों का आविष्कार भले ही पूँजीवाद और औद्दोगिकीकरण  की कोख से हुआ हो किन्तु जन्मदाता तो 'विश्व -सर्वहारा ' ही है.           
                                            १ ४ -जुलाई १ ७ ८ ९  से १ ७ ९ ९ के बीच सम्पन्न विश्व विख्यात 'फ्रेंच -रेवोलुशन' ने एक साथ कई कीर्तिमान स्थापित किये थे .रेडिकल,सोसल,राजनैतिक , औटोक्रेटिक ,और धर्म-मज़हब[ यूरोप में तब केवल चर्च और  कहीं-कहीं इस्लाम भी  था] सभी को वैज्ञानिक दृष्टी प्रदान करते हुए इस क्रांति ने 'महलों   को कुटीरों के सामने ' औंधे मुंह  गिराकर सारे संसार में ' श्रम' की ताकत को स्थापित किया। भले ही ये क्रांति तात्कालिक  अर्थों में असफल रही हो किन्तु इसी फ्रांसीसी  क्रांति के दूरगामी प्रभावों  ने अमेरिका ,यूरोप,और एसिया समेत सारे संसार के मेहनतकशों को अपने सामूहिक हित सुरक्षित करने की क्षमता और दृष्टी प्रदान की 'थी . आगे चलकर लेनिन के नेत्रत्व में सोवियत वोल्शैविक  क्रांति,माओ  के नेत्रत्व में चीन की  'महान लाल क्रांति'  और भारत-अफ्रीका समेत सारे संसार के गुलाम राष्ट्रों के राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को ऊर्जा  तथा  प्रकारांतर से  'दिशा निर्देश   भी इसी फ्रांसीसी क्रांति से  ही प्राप्त हुए थे
                                             .'शिकागो के अमर  शहीदों को भी इसी क्रांति ने शहादत का जज्वा प्रदान किया था .उनका पैगाम था की सरमायेदारों  को अपने-अपने मजदूरों  को  " आठ घंटे काम,आठ घंटे मनोरंजन,आठ घंटे विश्राम " देना ही होगा . प्रत्येक मजदूर का यह  जन्म सिद्ध अधिकार है .इस मांग को लेकर लगातार कई सालों से चल रहे अलग-अलग आन्दोलनो को  हालांकि कोई खास सफलता नहीं मिली किन्तु जब औद्दोगिक क्रांति ने मजदूरों को शिक्षित-कुशल और 'वर्ग-चेतना' से लेस करना शुरू किया तो स्थति ये आ गई की सारे अमेरिकी मजदूर बगावत पर उतर आये. " हे मार्केट स्कवायर  पर काम के घंटे निर्धारित करने की मांग को लेकर ' धरना -प्रदर्शन और आम सभा ' चल रही थी ,यह बिलकुल शांतिपूर्ण और अहिंसक कार्यक्रम था- तभी भारत के जलियाँ वाला बाग़ काण्ड की तरह 'अमेरिकी  पूंजीपतियों' की स्पेशल  गार्ड के हिंसक दानवों ने सभा पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर  दी   .दर्जनों  श्रोता प्रदर्शनकारी   मजदूर  और  निरीह निर्दोष नागरिक तत्काल वहीँ ढेर होते चले गए . सेकड़ों घायल होकर वहीँ छटपटाने लगे।
                                     इसी  अवसर पर एक छोटी सी बच्ची  रोती - बिलखती  लाशों और घायलों के ढेर में अपने  पिता  को  तलाश  रही थी . वह  अपने मृत  पिता   की देह  पाकर उस से लिपटकर  हिलाकर घर चलने को कहती है , इसी दौरान उसके नन्हे हाथों में  अपने प्रिय  पिता की रक्तरंजित 'लाल शर्ट ' का एक टुकडा हाथ आ जाता   है,   और तब वहाँ मौजूद बचे खुचे घायल  मजदूर साथीऔर उन मजदूरों के सपरिजन  उस नन्हीं बच्ची को गोद में उठा लेते हैं . वे उसके पिता की रक्तरंजित शर्ट  के टुकड़े को हवा में लहरा देते हैं  जो सारे संसार में लाल झंडे के जन्म लेने का प्रतीक था .... वे नारा लगाते हैं 'रेवोल्युशन  लॉन्ग लिव .... रेड फ्लेग रेड सेलूट ... दुनिया के  मजदूरों  एक हो जाओ .....और ..यहीं से जन्म लेता है ...दुनिया के मजदूरों-किसानों  -क्रांतिकारियों-समाजवादियों और साम्यवादियों' का "लाल-झंडा"....!  " एक- मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस"   इस प्रकार  मई दिवस को सारे संसार में मनाये जाने की तैयारियों का इतिहास जग जाहिर है .
                             १ ८ ८ ९ में "द्वतीय इंटरनेशनल ' की जब पेरिस में मीटिंग सम्पन्न हुई तब ये तय किया गया की आयन्दा १ ८ ९ ० के साल की एक-मई से" विश्व "   स्तर  पर 'मई-दिवस' मनाया जाएगा .इस तरह सारे संसार में यह त्यौहार मनाया जाने लगा . रूस की महान अक्तूबर क्रांति ,चीन की लाल  क्रांति और क्यूबा - वियतनाम-वेनेजुएला इत्यादी में संभव हुई साम्यवादी  क्रांतियों ने भी इस त्यौहार को भव्यता , गरिमा और वैश्विकता प्रदान की . इस दिन  न केवल शिकागो के अमर  शहीदों  को बल्कि सारे संसार के स्वाधीनता सेनानियों-मजदूरों-किसानों -ट्रेड   यूनियनों  के त्याग और बलिदान को स्मरण  किया जाता है .विश्व सर्वहारा की मुक्ति और श्रम का सम्मान करने वाली नयी समाज व्यवस्था के लिए कृत संकल्पित होते हैं . मजदूरों की बड़ी-बड़ी रैलियाँ और जुलुस निकाले जाते  हैं . मजदूर किसान अपने-अपने देश की सरकारों और हुक्मरानों के सामने  उनके शोषण -दमन का प्रतिकार और अपने समाजवादी एजेंडे का इजहार करते हैं . मजदूर संगठन अपने-अपने कार्यक्रम -नीतियाँ और प्रतिबद्धताओं को  देश और दुनिया के सामने पेश करते हैं .
                               दुनिया के मजदूरों एक हो---एक हो…. !शिकागो के अमर शहीदों को लाल -सलाम…!एक-मई मजदूर दिवस -जिन्दावाद ....'मजदूर-मजदूर भाई- भाई ...! इत्यादि  गगन भेदी नारों की पृष्ठभूमि में सारे संसार के मजदूर अपने अतीत के संघर्षों  का सिंघावलोकन  और विहंगावलोकन भी करते हैं ....!ताकि  नईं  युवा पीढी को मालूम हो की उन्हें आज जो  कुछ  सहज ही हासिल है वो पूर्वजों के खून की कीमत पर हासिल किया गया है . उन्हें याद दिलाया जाता है  कि  किस तरह -यूरोप और इंग्लॅण्ड  और मध्य एशिया के यायावर लुटेरों ने पहले तो  पूरी दुनिया  को बलात अधिग्रहीत किया फिर जगह-जगह औपनिवेशिक कालोनिया बना डालीं . उन्हें  अपने विशाल आर्थिक साम्राज्यों के विकाश और तदनुरूप आधारभूत अधोसंरचनाओं - के लिए निरंतर अबाध सस्ते श्रम की दरकार थी . जो  उन्हें रोड,रेल,बंदरगाह,ब्रिज,नहरें स्कूल,कालेज,कारखाने  ,डाक-तार-टेलीफोन समेत तमाम उन्नत तकनीकी  उपलब्ध  कराती .  उसके संचालन के लिए कुशल-अकुशल श्रमिक उन्हें अमेरिका और  यूरोप  से  तो  मिल  नहीं  सकते थे। अतः  उन्होंने  अफ्रीकी ,एशियाई और   तत्कालीन गुलाम देशों के नंगे-भूंखे गरीब-मजदूरों से  ,  गैर यूरोपीय गैर अमेरिकी श्रमिकों  से उन्हें  कोड़े मार-मार कर १ ८ घंटे से ज्यादा काम लिया .  सस्ती श्रम संपदा  का भरपूर दोहन -शोषण और उत्पीडन किया। उन तत्कालीन नव-धनाड्यों ने राजनीती और प्रशाशन पर अपनी मज़बूत पकड़ बना  रखी  थी- वे अमेरिका ही नहीं दुनिया के तमाम सरमायेदारों के 'बुर्जुआ' आदर्श  बन बैठे थे  आज भी भारत जैसे देश के नेता उन्ही अमेरिकी पूंजीपतियों के चरणों में लौट लगाने को उतावले हो रहे हैं .हालांकि  सारी  दुनिया के मेहनतकश अभी भी यही मानते हैं  कि  न्याय भले ही  ताकतवर के पक्ष में  अभी भी खड़ा है किन्तु  संघर्ष के सामने ये दीवारें भी टिक न सकेंगीं .  तत्कालीन अमेरिकी समाज में  श्रमिक क़ानून या विधिक कार्यवाहियां भी  मिल मालिकों और पूंजीपतियों के  इशारे पर ही  हुआ करती थी . मजदूरों को महीनों तक कोई अवकाश नहीं मिल पाता  था .  काम के घंटे १ ६ से २ २ तक हो जाया करते थे . यह   एक सौ पचास साल पहले भी सही था और आज भी सही है .  इसीलिये मई-दिवस पर मजदूरों का शंखनाद भी सही है .
                    आज के दुर्दमनीय  दौर में  युवाओं का न  केवल आज के उत्तर आधुनिक  उदारीकरण-वैश्वीकरण और प्रतिस्पर्धी दौर  के मार्फ़त अपितु धुनिक  और कार्पो रेट जगत द्वारा  शोषण पहले से ज्यादा बढ़ गया है . भारत में शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने ,स्वाधीनता सेनानियों ने और मजदूर संघों ने , न केवल फ्रांसीसी  क्रांति बल्कि अमेरिकी स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों पर आधारित सोच को  जनता और प्रशाशन के सामने रखा था। किन्तु ' दुर्दांत मालिकों 'को ये कभी मंजूर न था और न मंजूर होगा .   पूंजीपतियों  ने तब 'हे मार्केट स्कवायर' पर  चल रही सभा के बहाने 'केवल मजदूरों पर नहीं बल्कि -स्वतंत्रता-समानता और बंधुत्व' के सिद्धांत' पर ही हमला  बोला था जिसका प्रतिवाद 'एक-मई अन्तर्रष्ट्रीय मजदुर-दिवस ' पर दुनिया के तमाम मेहनतकश मजदुर-किसान,छात्र-नौजवान प्रति वर्ष करते  हैं .! दुनिया में जब तक शोषण रहेगा ..., जब तक ताकतवर लोग निर्बल को सतातॆ  रहेंगे ...तब तक 'एक-मई अंतर्राष्ट्रीय-मजदूर दिवस' की प्रासंगिकता बनी रहेगी ......!  आज भारत का सरमायेदार और पूंजीपति तो  मुनाफाखोरी के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकता  है . भारत में तो सरकारें और पूंजीपति तथा भृष्ट  व्यवस्था ने जनता का कचमूर तो   निकाल ही  दिया है, लेकिन देश की अस्मिता और सम्मान तथा   महिलाओं  बच्चियों  और  कमजोरों का उत्पीडन बेतहासा  बढ़ता ही जा रहा है। असमानता और गरीबी बढ़ती ही जा रही है . दवंगों , भृष्ट नेताओं और अम्बानियों की सुरक्षा  के लिए कमांडों रखे जा रहे हैं और देश को आतंकियों के रहमो -करम पर छोड़ दिया गया है .  एक- मई अंतर्राष्ट्रीय  मजदूर दिवस पर  भारत के मेहनतकश मजदूर-किसान कृत संकल्पित हैं की  वे  दुनिया के मजदूरों और  शोषितों से एकता कायम कर   शोषण कारी  ताकतों का मुकाबला करेंगे ....! अपने श्रम का बाजिब मूल्य हासिल करेगे और देश की हिफाजत भी करेंगे ......!

                   इन्कलाब -जिंदाबाद .......!
 दुनिया के मेहनतकश -एक हो जाओ ....!

  कौन बनाता हिन्दुस्तान .......?..... भारत का मजदूर किसान .......!

आयेगा भई ... आयेगा…ं ! इक नया ज़माना आयेगा .....!

कमाने वाला  खायेगा ......! लूटने वाला जाएगा ......!

 क्या मांगे मजदूर -किसान ....?... रोटी-कपडा और मकान .....!

 लाल-लाल लहराएगा ...!...जब नया ज़माना आयेगा .....!!

पूंजीवाद  का नाश हो ...!   समाजवाद ...जिन्दावाद .....!

संघर्षों का रास्ता  ...!  सही रास्ता ...सही रास्ता .....!

 मई दिवस के  शहीदों  को लाल सलाम ......!

      श्रीराम  तिवारी ......

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

मीडिया में कार्यरत युवाओं को कार्ल मार्क्स का पैगाम.....!

     कार्ल मार्क्स ने भले ही  'साम्यवाद '  समेत  दुनिया  में  उपलब्ध प्रायः सभी 'दर्शनों' पर अपनी लेखनी   चलाई  होगी किन्तु खुद  'मार्क्सवाद'  के उपर  मार्क्स के अनुयाईयों-उनके उत्तरवर्ती आलोचकों  और विरोधियों  ने इतना सारा लिख डाला है , कि  जब भी कोई नया लिखने की  कोशिश करता है तो  उसे लगता है कि  यह भी शायद किसी ने कहीं लिख ही दिया होगा ! वास्तव में कार्ल मार्क्स एक वैज्ञानिक नजरिये वाले आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक भाष्यकार ही नहीं बल्कि एक महानतम लेखक -सम्पादक-पत्रकार  और अप्रतिम  क्रान्ति दृष्टा  भी  थे . उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों  के दार्शनिक दृष्टिकोण को ' अकादमिक विमर्श' और  विश्व विद्द्याल्यीन  पाठ्यक्रम से उठाकर 'जनता के बीच ' चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया .
                                                                             प्रसिद्ध जैन मुनि श्री तरुण सागर जी की इस युक्ति को कि ' मैं  महावीर को मंदिरों से बाहर चौराहों पर जनता के बीच खडा करने  हेतु प्रयास रत हूँ मैं  महावीर  को मंदिरों की कैद से आज़ाद कराने हेतु संघर्षरत  हूँ '-  कार्ल मार्क्स ने भी ठीक यही किया . उन्होंने 'वर्गीय द्वंदात्मकता' के दार्शनिक  प्रस्तुतिकरण   को  ' हाय्पोथीसिस '   से  यूटोपिया  और   उस शाश्त्रीय आदर्शवाद  से वैज्ञानिक भौतिकवादी अवधारणा की   थीसिस तक   और फिर उसके  आगे  जीवन के  प्रयोगात्मक  केंद्र में भी 'आम आदमी' या 'आवाम' को  ही अवस्थित  करने का शंखनाद किया था . उनके चिंतन के केंद्र में    मानव समाज की  ऐतिहासिक     द्वंदात्मकता  और तदनुरूप  'वर्ग-संघर्ष'का स्पष्ट  प्रारूप  विद्यमान  था . जिसने कालांतर में न केवल सर्वहारा  वर्ग के सतत संघर्षों के सामने  राजनैतिक - सामाजिक-आर्थिक  क्रांतियों  को जन्म दिया  अपितु  खुद  शोषण कारी ताकतों    को भी 'सर्वहारा' के साथ समन्वय करने  को बाध्य किया .हालांकि यहाँ  भी  शासकों को  हमेशा 'शोषित वर्ग ' के  खिलाफ पाया  गया .

                                                    युग बदले ,शताब्दियाँ गईं ,दुनिया बदली ,धरती बदली ,आसमान बदला  यहाँ तक कि  अब तो अन्तरिक्ष भी मानव कृत बदलाव के लिए बहुश्रुत  हो चला है किन्तु उस 'आम  आदमी' की दशा यथावत है जो  पर्याय रूप से दुनिया में -मेहनतकश ,मजदूर,सर्वहारा,प्रोलोतेरिअत , सीमान्त-किसान  तथा एक वर्ग के रूप में  जो अपना श्रम बेचता है   जिसे   'शोषित वर्ग' कहा  जाता है . उसका  शोषण  यथावत  है।   इसके विपरीत जो उत्पादन के साधनों  पर चालाकी से कब्जा किये हुए  है ,जो जल-जंगल-जमीन , सत्ता और सिस्टम पर  बलात कब्जा किये हुए है, उसे 'शोषक वर्ग' कहते हैं .  आधुनिक नव्य -पूँजीवादी -उदारवादी -बाजारवादी -प्रतिश्पर्धवादी  दौर में जबकि साइंस-टेक्नोलाजी ,साहित्य-कला -संगीत तथा जीवन के अन्य मूल्यों में भी - केवल और  केवल- मुनाफाखोरी  अर्थात लाभ   की ही स्वर लहरियां गुंजायमान हों तो 'कार्ल-मार्क्स' की प्रासंगिकता  पर  कम से कम मीडिया के शोषित जनों के बीच तो 'विमर्श'  होना  ही   चाहिए .                                                                                                                                                              चूँकि  आज अधुनातन सूचना संचार प्रौद्दोगिकी अपने अब तक के सर्वोच्च कीर्तिमान पर हैं,और इसके लाभों का बटवारा 'प्रतिस्पर्धी-ताकतों' के बीच हो रहा है   अतः भारत जैसे गरीब मुल्क के पढ़े-लिखे नौजवानों को खास  तौर  से उन नवयुवकों /युवतियों को जो महसूस करते हैं की इस व्यवस्था में उनका  न केवल शोषण हो रहा है अपितु  हालात बदतर से बदतर हो गए  हैं . उन्हें ज्ञात हो कि  वे जाने-अनजाने   केवल अपने दौर के शासक वर्गों के हितों को ही आगे बढ़ा रहे है। किसान आत्म हत्या , गेंग रेप, बलात्कार , आतंकी कार्यवाहियां ,भयानक मेंहगाई  और राष्ट्रीय अ सुरक्षा इत्यादि का तो भारत  मानों  विश्व  में नंबर एक- हो चूका है किन्तु विकाश के तमाम दावों के विपरीत   लगभग एक-लाख गाँवों में आज भी  शुद्ध  पेयजल तो क्या 'गंदा पानी' भी मयस्सर नहीं है .  अधिकांस शहर भी मरणासन्न जैसे हो चले  हैं .केरियारिस्ट युवाओं को  भले ही  इन  सवालों से कोई - देना नहीं हो  किन्तु मीडिया में काम करने वाले अधिकांस नौजवान  साहित्यकार  बुद्धिजीवी,पत्रकार,सम्पादक और लेखक  इन सवालों की अनदेखी कैसे कर सकता है ? वे  कितने भी परावलंबित क्यों न  हों किन्तु वे  शोषण कारी ताकतों से न केवल स्वयं के लिए अपितु देश के करोड़ों  बंचित -जनों के   गुजारे लायक आमदनी की बात पर अपने मालिकों से 'संघर्ष' कर सकने में सक्षम हैं, वे  हरेक को रोटी-कपड़ा-मकान जैसे पारंपरिक ज्वलंत प्रश्न  पर आंदोलित कर सकते हैं . हालंकि परम्परागत मुद्दे  तो  वैसे भी  दूर होते जा रहे  और अब तो गुजारे लायक 'आक्सीजन' भी आम और खास दोनों को ही मयस्सर नहीं है .  ऐंसे  हालात में देश और दुनिया के तमाम नौजवानों को खास तौर से मीडिया कर्मियों को  कार्ल मार्क्स  के विचारों  को जानने -समझने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए की कार्ल-मार्क्स ने इस विषय की विवेचना और निदान के लिए किन सिद्धांतों और सूत्रों का सम्पादन किया है ?
                                            वैज्ञानिक दृष्टिकोण  वाले तो पहले से  ही  मानते हैं कि  इस विचारधारा में-याने' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद' में  इन तमाम समस्याओं का निदान  उपलब्ध  है, या की यह विचारधारा वैज्ञानिक कसौटियों पर  खरी उतरी है,किन्तु 'दवाइयां आले में  रखी  हैं और असहाय  मरीज मरणासन्न है  कोई दवा  देने वाला नहीं"से तो किसी  क्रान्तिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा  सकती . आज के घोर मूल्यहीनता वाले युग में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता-समाज सुधारक-बाबा-स्वामी -लेखक -पत्रकार और स्वयम्भू राष्ट्रनायक  तो गली-गली में अवतरित हो रहे हैं किन्तु वे जो इसी विद्रूप और भृष्ट व्यवस्था से खाद -पानी पाते हैं  ऐंसे परजीवी - कायर -बुजदिल क्या खाक क्रान्ति करेंगे .वे वही लोग हैं जो  चाहते तो  हैं की विप्लव हो  ...क्रांति हो  .....विकाश हो….  समाजवाद हो…. किन्तु भगतसिंह मेरे घर में नहीं पडोसी के घर पैदा हो ........! इन सभ्रान्त्लोक के बुर्जुआ वर्ग  से देश की आवाम-मेहनतकश वर्ग और मीडिया दिग्भ्रमित न हो .बल्कि समस्याओं,चुनौतियों और  शासक  वर्गों की नीतियों-कार्यक्रमों का सिहावलोकन करते हुए  'परिवर्तन की शक्तियों' का मार्ग दर्शन करें . कार्ल-मार्क्स का विश्व सर्वहारा और 'मीडिया कर्मियों' को  यह  सन्देश आज भी प्रासंगिक है .
                             मार्क्स की  विचारधारा को ईमानदारी से अमल में लाया जाए  और उसकी 'हिंसक  व्याख्याओं '  के दुष्प्रचार से  भारतीय जन-मानस   को -आगाह  किया  जाए तो   आदर्शवादियों  समेत तमाम किस्म के 'धर्म्भीरुओं ' को भी   वास्तविकता से रूबरू कराया  जा सकता है ,साम्प्रदायिक और  अंध राष्ट्रवादियों  को   कार्ल-मार्क्स की शिक्षाओं के आलोक में आसानी से परास्त किया जा सकता है . यह  तब  संभव है जबकि 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद ' के वैज्ञानिक  चिंतन को न केवल परम्परागत प्रिंट मीडिया में बल्कि डिजिटल ,इन्टरनेट ,फेसबुक और तमाम सूचना एवं संपर्क माध्यमों में  'आम आदमी की भाषा में ' सहज उपलब्ध कराने के लिए संसाधन  उपलब्ध हों .
                   फ्रांसीसी क्रांति,पूर्वी  यूरोप ,पोलैंड और  सोवियत क्रांति को विफल बताने वाले कुछ निराश लोग और  कुछ   धूर्तलोग   इसे  मार्क्सवाद  का अंतिम सत्य मान  बैठे . वे  यह  भूल गए   कि  'अंतिम सत्य ' मानवीय चेतना के विकाश की 'पराकाष्ठा ' का वह  अभीष्ठ  है जो  किसी एक देश या एक समाज की सफलता या विफलता का  मुहंताज  नहीं हो सकता .  हो सकता है कि  क्रांतियों के 'अवतार' हुबहू वैसे न हों जैसे कि मार्क्स-एंगेल्स या लेनिन -स्टालिन के पूर्वानुमानों में घोषित किये गए थे . "कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो" में उल्लेखित शब्द कोई ' देवीय' ईश्वरीय रचनाविधान तो है  नहीं . अर्वाचीन विज्ञान और आधुनिकतम सूचना तंत्र के 'इनपुट ' ही विश्व पटल के 'मानिटर ' पर   उकेरे गए हैं .आज पूँजीवाद  का 'आइकॉन' जरुरत से ज्यादा विजिट  किया जा रहा है या सर्च किया जा रहा है किन्तु मौजूदा दौर के तमाम ' घातक-वायरस' के लिए भी वो ही जिम्मेदार है उसे अपने हिस्से की जिम्मेदारी याने 'सामंतवाद' का खात्मा कर चुकने के वाद 'विश्व सर्वहारा -क्रांति'  को अवतरित होने का 'मानवीय ' उत्तरदायित्व  वहन  करना चाहिए था . उसे   जनता की जनतांत्रिक क्रांतियों की  बार-बार भ्रूण ह्त्या से बाज आना ही होगा वरना उसे  'विश्व डेस्कटॉप ' से जबरन वाश आउट कर दिया जाएगा . मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा है-:
    " साम्यवादी अपने विचारों और उद्देशों को छुपाना अपनी हेठी समझते हैं .वे खुले रूप से ऐलान करते हैं कि उनका उद्देश्य सभी वर्तमान सामजिक दशाओं को बलात उखाड़  फेंकना है . शासक वर्ग यदि 'साम्यवादी क्रांति'  के नाम से थर्राता  है तो उसे थर्राने दो .सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी की जंजीरों के अलावा कुछ नहीं खोना है ...जीतने के लिए उसके समक्ष  सारा संसार है " मार्क्सवादियों के लिए , साम्यवादियों के लिए ,समाजवादियों के लिए और दुनिया के समस्त जनतंत्र वादियों के लिए,उन्नत समाजों   और 'बेहतरीन इंसानों' के लिए-
क्रांति एक अविरल प्रवाहमान  धारा है  कई मोड़ आयेंगे जहां  धारा का प्रवाह रोकने की कोशिश होगी .कहीं-कहीं  बड़े-बड़े अवरोधक स्वागत करेंगे .किन्तु फिर भी क्रांतियों के  प्रचंड आवेग  को सदा के लिए रोक पाना संभव नहीं . प्रतिगामी प्रवाह को इतिहास में कहीं स्थायित्व प्राप्त नहीं हो सका और  न अवरोधों  में इतनी ताकत है   कि   'क्रांति' की  बाढ़   का मार्ग अवरुद्ध कर सकें . इस मई दिवस पर मीडिया में काम करने वाले तमाम  नौजवानों को  कार्ल मार्क्स का यह सन्देश आज भी प्रासंगिक है -:
    
"परिस्थियों ने हमें यह कार्य सौंपा है की हम सरकार के हर काम पर निगाह रखें और छोटे से छोटे अनुचित काम की जानकारी जनता को दें।समाचार पत्रों[माध्यमो] का यह कर्तव्य है की वे उन निर्दोष व्यक्तियों और  वर्गों की लड़ाई  लड़ें  जो अन्याय का प्रतिकार कर सकने में सक्षम नहीं हैं .चूँकि दासता का वीभत्स  किला  घृणित  राजनीति  की नीव पर टिका होता है  अतएव केवल बड़े-बड़े लोगों से ही लड़ना काफी नहीं बल्कि  समाचार पत्रों में [मीडिया] में कार्यरत  लोगों की जिम्मेदारी है की 'अपवित्र  व्यवस्था'  के प्रतेक पुर्जे पर भी  निर्मम वार किया जाए  क्योंकि शोषण के तंत्र को  चलाने में वे भी उतने ही  हिस्सेदार हैं "
           १ -मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर उन तमाम गैरतमंद , शौहरत मंदों  और तथाकथित बुद्धिजीवियों को संकल्प लेना चाहिए  कि  'वर्ग संघर्ष ' के विभाजन में अपने आपको शोषित वर्गों के साथ रखकर  'देश और  विश्व  सर्वहारा' का नेत्रत्व  कर अपने हिस्से की आहुति प्रदान  करें .....! एक नए समाज के निर्माण का ,एक शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण का सपना देखने के लिए 'सर्वहारा क्रांति' का सपना देखना बहुत जरुरी है .....! आधुनिक मीडिया सूचना तंत्र और नवीनतम प्रोद्धोगिकी से जुड़े  प्रत्येक  जिंदादिल इंसान को 'न्याय और सत्य ' के लिए हो रहे द्वन्द में सत्य का पक्षधर होना चाहिए .क्योंकि 'सत्य परशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं ' अन्तः जीत तो सत्य की होगी .  यही कार्ल-मार्क्स का  कथन है और यही भारतीय 'वेदान्तदर्शन' का भी  सार है ......!

      श्रीराम तिवारी    

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

कौन बनेगा प्रधानमंत्री अगला...ये जनता को तय करने दो ...!

     
                              विश्व  मानचित्र  में  भौगोलिक रूप से   भारत   अन्य राष्ट्रों के समृद्ध भूभागों  के सम्मुख - एक नितांत सापेक्ष्तः छोटा सा भूभाग है . रूस,अमेरिका  दक्षिण अफ्रीका ,कनाडा ,चीन  ब्राजील , न्यूजीलैंड और   आस्ट्रेलिया  के सापेक्ष भारत के पास  बहुत कम भूभाग  है . चीन को छोड़ सारे संसार का संबसे बड़ी और घनी  जनसंख्या   की  गुजर करने वाला देश  भारत  चीन के भूभाग  के समक्ष  2 5 %  ही बैठता है . घनी  आवादी वैश्वीकरण  की बीमारियाँ - खुली गलाकाट  प्रतिस्पर्धा करप्सन  और  विचारधारा विहीन राज्य संचालन  की तदर्थवादी प्रवृत्ति  ने भारत को वैश्विक मानचित्र के हासिये पर ला खड़ा कर दिया है .  इन दिनों  जिन नीतियों,जिन संस्थाओं और जिन व्यक्तियों के द्वारा संचालित हो रहा है वे  नितांत अगम्भीर और  गैरजिम्मेदार सावित होते जा रहे हैं . सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही  केवल और केवल  अर्जुन लक्ष्य की भाँति  आगामी चुनावों के सिंड्रोम से पीड़ित होकर  'वोट बैंक फोबिया' के शिकार होते  जा   हैं .
                       घरेलु  और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही मोर्चों पर दूरगामी- कालजयी -सर्वसमावेशी  और 'राष्ट्रोत्थानकारी' नीतियों या कार्यक्रमों  की चर्चा तो अब मानों विस्मृति के गर्त में समा गई है .  इन अहम मुद्दों पर अब केवल  जे एन यु -  के प्रोफ़ेसरों   या 'जनवादी-प्रगतिशील  -लेखकों  या 'दिल्ली साइंस फोरम ' के विशेषज्ञों   के  बोद्धिक - विमर्श  ही  शेष रह गए हैं .  मीडिया में   तो  सिर्फ  दो ही   विमर्श  जारी  हैं - एक- व्यक्तिवादी नेत्रत्व का    महिमा मंडन  और दूसरा - गैर जिम्मेदार लोगों  का  ' राम लीला मैदान' या 'जंतर-मंतर' पर   सरकार विरोधी  असंयमित  निहित  स्वार्थियों का   पाखंडपूर्ण  उन्मादी   वितंडावाद  .    कभी कभी    किन्हीं  अमानवीय   घटनाओं  -महिलाओं पर अत्याचार , ह्त्या -बलात्कार  या पुलिस अत्याचार इत्यादि   पर उभरने वाले स्वतःस्फूर्त  तात्कालिक  जनाक्रोश को  भी  मीडिया तवज्जो तो देता है किन्तु  एक सीमा से आगे प्रचारित-प्रसारित करने  और उसे   संभावित  क्रांति का शंखनाद सिद्ध करने  के प्रयोजन- ' धुर में लठ्ठ मारने 'जैसे उपक्रम - कतिपय  स्वनाम धन्य अखवार और चेनल करते रहते हैं . ऐंसा करते वक्त वे  न तो देश का भला करते हैं और न उस आन्दोलन के वास्तविक समर्थक ही हो सकते हैं .  बल्कि वे आपने पूँजी निवेशक आकाओं और अभिभावकों के  हितों के अनुरूप 'कुक्कुट बांग'के लए मजबूर रहा करते हैं . कहा जा सकता है  कि   वर्तमान  बाजारीकरण  की प्रतिश्पर्धा में   उन्हें  ज़िंदा रहने  के लिए  यह सब करना ही पडेगा .  ठीक है लेकिन देश और समाज के सरोकारों पर मीडिया को सरकार या विपक्ष की अच्छी बातों पर भी गौर करना चाहिए और यदि  गलती  सरकार या विपक्ष    में से किसी की है या दोनों की ही साझा जिम्मेदारी है तो उसे 'जस का तस 'जनता के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए . मीडिया को स्वयम पार्टी नहीं बनना चाहिए .शायद इन दिनों भारत का मीडिया विपक्ष और खास  तौर  से' नमोमय ' हो  चला है . किन्तु कुछ युवा लेखक-पत्रकार इस प्रवृत्ति से अलग हटकर ';शुद्धतावादी'देशभक्तिपूर्ण 'पत्रकारिता के लिए संघर्षरत हैं .
                                            निसंदेह यूपी ए -द्वतीय सरकार और मनमोहन सिंह ने -जाने-अंजाने  कांग्रेस और गाँधी परिवार को  इतिहास के संबसे  विकट  मोड़ पर खड़ा कर दिया है ,राहुल गाँधी को  और 'कांग्रेस के मैनेजरों 'को यह एहसास है . इसीलिये अब आगामी चुनाव में वे  पी एम् की कुर्सी को कोई खास आशा से नहीं देखते. कांग्रेस का और राहुल का भविष्य सिर्फ 'धर्मनिरपेक्षता ' की धुरी पर टिका है उसके लिए वो 'बिल्ली के भाग से छींका टूटने ' का इंतज़ार तो कर ही सकते हैं . मीडिया और पूंजीपतियों ने तीसरे मोर्चे की प्रचंड संभावनाओं  के वावजूद उसके द्वारा अतीत में किये गए बेहुदे प्रदर्शन को देखते  हुए  नरेन्द्र मोदी नामक अश्व पर  बड़ा दाव  लगाया है . देश का पूंजीपति वर्ग  जानता है  कि   वो - बहुत कुछ तो कर  सकता है  किन्तु सब कुछ नहीं कर  सकता - याने बहु जातीय , बहु  धर्मी , बहु भाषी  और बहु संस्कृति वाले भारत राष्ट्र के विविधतापूर्ण चरित्र को नहीं बदल सकता ,जातिवाद ,साम्प्रदायिकता ,प्रचंड धार्मिक -पाखंड  और निर्धनता ,आभाव, शोषण -उत्पीडन के   विराट वोट  बेंक   में से   सत्ता  लायक  बहुमत को भारत या अमेरिका का पूँजीपति  वर्ग -  एनडीए या मोदी के पक्ष में  कतई  नहीं  जुटा  सकता। वो राहुल या यूपी ऐ की भी पैसे से तो मदद कर सकता है किन्तु 'जन  -आकांक्षाओं 'को वोट में   परिणित  नहीं कर सकता . क्योंकि  सभी वर्गों का नजरिया पूंजीपतियों या  भूस्वामियों के अनुकूल तो हो नहीं सकता . वोट  यदि  नरेन्द्र मोदी के पास है ,तो मायावती के भी  पास है , मुलायम के भी  पास हैं ,नितीश के पास हैं , जय ललिता , ममता  नवीन पटनायक  और वामपंथ के भी पास हैं .   ऐंसे  हालात में 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' का सवाल आसान नहीं है .सपने देखे जा सकते हैं , देखे जा रहे हैं किन्तु सपने-कभी -कभी सपने ही  रह जाते हैं .क्योंकि जो सपना मोदी को आ रहा है वो नितीश को भी आ रहा है , वो अडवानी ,मुलायम सुषमा और शिवराज को भी आरहा है  इसलिए 'एक अनार और सौ बीमार 'के सपने में अनार कहीं उसको न मिल जाए जिसे न तो सपना आ रहा है और  न उसको मीडिया में बहरहाल अभी  जगह मिल रही है . पहली वार यूपीए प्रथम के लिए जब सारा -देश ' सोनिया गाँधी' 'बनाम विदेशी महिला' में मीडिया के चश्में से राजनीती देख रहा था तब किसे मालूम था की डॉ  मनमोहन  सिंह भारत के प्रधानमंत्री बन ने वाले हैं और २ ० ० ४ के बाद २ ० ० ९ में तो मनमोहन सिंह जी को भी सपना नहीं आया की वो फिर से यूपीए द्वतीय के नेता होने जा रहे हैं , हालाकि आडवाणी जी ने लगातार २ ०   साल ये सपना देखा था और प्रधानमंत्री नहीं बन पाए संतोष की बात है कि  'उप 'प्रधानमंत्री तो बन ही लिए।  यदि वे अभी भी सपना देख रहे हैं तो केवल -और केवल नितीश की आँखों से -शरद यादव के चश्में से क्योंकि  जदयू नहीं चाहता की एनडीए टूटे या मोदी प्रधानमंत्री बने . यदि आडवानी के नाम पर नहीं तो स्वयम नितीश के नाम पर भी 'जोर-आज्माईस '  की जा सकती है किन्तु मोदी का विरोध नहीं थमेगा . दरअसल मोदी एक व्यक्ति नहीं -विचारधारा का नाम चल पड़ा है… भले ही कोई उसे साम्प्रदायिक कहे , दंभी कहे या फासिस्ट  किन्तु मोदी अब लोक प्रियता की ओर नहीं बल्कि बदनामी की ओर तेजी बढ़ रहे हैं  , इसी से कुछ लोगो को भ्रम हो चला है कि   मोदी  प्रधानमंत्री  बनने के निकट हैं .
                       एक ओर     ' संघ परिवार ' और  'देशी पूंजीपतियों ' का जमावड़ा खुले आम मोदी को शह  दे रहा है तो दूसरी ओर भाजपा के कतिपय  वरिष्ठों को-जिन्हें  अपनी साम्प्रदायिक दक्षिण पंथी  पार्टी के अन्दर खुद के  सेकुलर या समाजवादी  होने  का गुमान  है , उनके   भीतरघात  की स्थिति तक जा सकने के आसार  हैं     ये दिग्गज -  नितीश  या  जदयू समेत तमाम अलायन्स पार्टनर्स के विद्रोह की हवा का रुख   'मोदी प्रवाह'  'के विपरीत  कर सकने  की क्षमता अवश्य रखते हैं .  एनडीए के अलायन्स पार्टनर्स में 'नमो' को लेकर ऊपर-ऊपर जो तनातनी दिख रही है  वो  भाजपा के अन्दर की वासी कड़ी का उबाल मात्र है . जदयू के विगत अधिवेशन और दिल्ली रैली  की मशक्कत का  लुब्बो-लुआब ये है कि-  आगामी चुनाव  उपरान्त यदि एनडीए गठबंधन को  जदयू के समेत भी बहुमत हासिल न हो सका तो वे राजनीती के राष्ट्रीय क्षितिज पर 'अपनी धर्मनिरपेक्ष'  छवि की बदौलत सहज ही सर्वस्वीकार्य  होकर; गैर कांग्रेस दलों और उन  बदली हुई परिस्थतियों में ' मजबूर  भाजपा' का भी  बाहर से समर्थन  हासिल कर  सरकार का नेत्रत्व  का सकते हैं .  नितीश को दस जनपथ भेज सकते हैं .  शरद यादव,नितीश , शिवानन्द ,और जदयू  के  अन्य  वरिष्ठ नेता बहुत घाघ और व्यवसायिक बुद्धि के हैं . वे एक ओर तो भाजपा से  दोस्ती रखकर बिहारी सवर्णों  का  यथेष्ठ समर्थन बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी को ' अस्वीकार्य ' बताकर अपने को पाक-साफ़ -धर्मनिरपेक्ष - मुस्लिम हितकारी  सिद्ध  करने में जुटे हैं . मुस्लिम मतों को कांग्रेस+ राष्ट्रीय जनता दल [लालू]  की ओर खिसकने की तब पूरी सम्भावना है जबकि ये  तय हो जाये की एनडीए की ओर से  नरेन्द्र मोदी ही प्रधानमंत्री   पद के प्रत्याशी होंगे . वैसे  भी जदयू के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि  और भी कई  कारणों से नरेन्द्र मोदी को  एनडीए संसदीय संख्या का या सदन के फ्लोर पर भारत के बहुविध समाज का  जनादेश - सत्ता के प्रमुख पद लायक समर्थन कभी नहीं मिल पायेगा .जदयू ने 'नमो ' के खिलाफ मोर्चा खोलकर एक साथ कई  निशाने साधे हैं। न केवल लोक सभा या केंद्र सरकार में बल्कि विहार विधान सभा और विधान  परिषद् में उन्हें   अपनी वर्तमान हैसियत वर्करार रखने के लिए एक साथ लालू,कांग्रेस और मोदी के खिलाफ हमला बोलना होगा .आज जदयू एकमात्र क्षेत्रीय दल है जो अपने को'अजात शत्रु ' का अवतार मान  सकता है .भाजपा कांग्रेस तो उनके लिए पलक पांवड़े विछाये ही बैठे हैं किन्तु अन्य क्षेत्रीय दल और यहाँ तक की 'वामपंथ ' भी  नितीश को कुछ 'किन्तु -परन्तु ' के वावजूद वक्त आने पर साथ देने या लेने के लिए तैयार हो सकता है . राजनीती अनंत संभावनाओं का पिटारा है कुछ भी सम्भव है लेकिन ये भी उतना ही अकाट्य सत्य है कि कांग्रेस  या भाजपा  के बिना    सहारे कोई भी प्रधानमंत्री नहीं  बन सकता . देश का दुर्भाग्य है कि  दुनिया  के  सबसे  बड़े  लोकतंत्र का दम भरने वाले इस महान भारत के अधिकांस यही राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल 'घोर  अलोकतान्त्रिकता ' के शिकार है .अधिकांश के पास कोई आर्थिक ,वैदेशिक शैक्षणिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक नजरिया स्पष्ट नहीं है . वे डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक  नीतियों   के चरित्र और परिणामों को पानी पी -पीकर तो कोसते हैं किन्तु जब इनसे  वैकल्पिक आर्थिक नीतियों को पेश करने को  कहो तो उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगती हैं . फिर चाहे वे मोदी हों नितीश हो या   मुलायम  हों .  देश के पूंजीपतियों को अमेरिका परस्त मनमोहनी  आर्थिक नीतियों से तो कोई शिकवा नहीं  हालांकि वे उनके लचीले पन  से  आजिज आ चुके  हैं अब जबकि उन्हें मनमोहन की ही  आर्थिक उदारीकरण की नीति वाला '  दवंग ' उम्मीदवार' नरेन्द्र मोदी  के रूप में  मिल  रहा हो तो  फिर क्यों खामखा सरदार जी या सोनिया जी को परेशान किया जाए . सो वे  मोदी के मुरीद होकर देश में कार्पोरेट हित सुरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं .अब आम  जनता की जिम्मेदारी है की वो इन लुटेरों से अपने को  बचाने के लिए  किसी कारगर विकल्प की तलाश फ़ौरन करे क्योंकि 'लौह पुरुष ' नमो ' तो पूंजीपतियों का  प्रिय भाजन  बन  चूका  है .अब और  कोई विकल्प नहीं  बचा क्या ? वेशक वामपंथ के पास शानदार वैकल्पिक नीतियाँ और कार्यक्रम हैं किन्तु बात सत्ता के  जनादेश  की चल रही और नीतियों  को कोई ' भटों  के भाव' न पूंछे तो क्या किया जा सकता है .

                                     वामपंथी पार्टियों के अधिवेशनों,केन्द्रीय श्रम संगठनों और सार्वजनिक उपक्रमों  या को-आप्रटिव  सोसायटियों  की 'साधारण-सभाओं '  में अवश्य देश के हितों की ,आम  आदमी  के लिए  नीतियों  की  चर्चा सुनी जा सकती है किन्तु  बाकी सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के  अखिल  भारतीय  अधिवेशनों में  तो   वैचारिक विमर्श के नाम पर अब केवल एक व्यक्ति विशेष का समर्थन या  विरोध   रह  गया है।  कांग्रेस का अधिवेशन सिर्फ राहुल को उपाध्यक्ष बनाने और सोनिया जी को अध्यक्ष बनाने की उद्घोषणा  की भेंट चढ़ गया . भाजपा का अधिवेशन गडकरी को निपटाने ,राजनाथ को लाने और 'नमो' को भड़काने के काम आया . जदयू का अधिवेशन वैसे तो पिछड़े राज्य  बनाम  बिहार को स्पेशल वित्तीय पैकेज के लिए आहूत था किन्तु इस अधिवेशन में भी देश की जनता को  सिवा 'मोदी वनाम नितीश '  विमर्श के कुछ खास हाथ नहीं लगा .  विशेष   सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक ,वैदेशिक और  आंतरिक   विमर्शों में कांग्रेस ,भाजपा जैसी  पूंजीवादी-साम्प्रदायिक  पार्टियों से भले ही कोई उम्मीद न हो, क्योंकि उनके वैचारिक विमर्श जग जाहिर हैं . कांग्रेस को एन-केन -प्रकारेण  सत्ता चाहिए .भाजपा और संघ परिवार को "अखंड भारत + हिदुत्व+राम लाला मंदिर+तथाकथित प्राचीन गौरव"  चाहिए . इसीलिए इन दोनों  ही  बड़ी  पार्टियों से इन महत्वपूर्ण  प्रासंगिक विषयों-राष्ट्रीय आपदाओं  पर  किसी  ठोस  और   सकारात्मक   समसामयिक विमर्श की उम्मीद करना व्यर्थ है  .
                                           किन्तु   जो समाजवाद और और समतामूलक समाज व्यवस्था के स्वयम्भू  पैरोकार  हैं, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की एकता और धर्मनिरपेक्षता के अलम्बर दार है , पिछड़ों -दलितों के नायक हैं , वे  डॉ लोहिया  और जय प्रकाश नारायण के स्वघोषित चेले  -नितीश ,शरद , त्यागी और शिवानन्द  इत्यादि नेता    इन ज्वलंत प्रश्नों पर अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में  मौन क्यों    रहे ? क्यों वे   केवल    "नमो' का जाप  करते   रहें, विरोध करते रहे . कौन मूर्ख उन्हें 'समाजवाद ' का  सहोदर समझेगा ?    कौन धर्मनिरपेक्ष भारतीय  उनके झांसे में आयेगा ? उनके इस स्टैंड से लगता है कि  कहीं ऐंसा न हो की "दोउ  दीन  से गए पाण्डे  ...हलुआ मिले  न मांडे " अपने इस  राष्ट्रीय अधिवेशन में जदयू ने  सारी  ताकत केवल भाजपा और मोदी को नसीहत देने में लगा दी और वाकी सारे मुद्दे हासिये पर धकेल दिए . क्या यही दर्शन है लोहिया का और जय प्रकाश नारायण  का ?
                                   भले ही    जदयू के इस  अधिवेशन  में 'धर्मनिरपेक्षता ' को कुछ  सम्मान  मिल गया  हो, उसे भारत की  राजनीतिक विवशता बनाम  सामाजिक -साम्प्रदायिक विविधता    के बहाने विमर्श के केंद्र में  खड़े होने का अवसर मिल गया  हो  किन्तु देश को इस समय  इससे भी ज्यादा की दरकार है . जदयू गुड खाकर गुलगुलों से परहेज नहीं कर सकता। नरेन्द्र  मोदी आज से दस साल  पहले  जितने कट्टर  साम्प्रदायिक थे   क्या वे  वास्तव में  आज भी  वहीँ खड़े हैं ? क्या  वास्तव में  गोधराकांड के  दौरान नितीश या जदयू ने कोई बेहतरीन मिसाल पेश  की थी ? की देखो दुनिया वालो हम हैं सच्चे धर्मनिरपेक्ष और तत्कालीन रेल मंत्री पद छोड़कर कुछ दिन तो सत्ता के बिना रहकर दिखाते !  नितीश ,शरद और जदयू की धर्मनिरपेक्षता  जितनी धोखे की  टट्टी  है मोदी की साम्प्रदायिकता भी  उतनी ही 'काल्पनिक है . दोनों का मकसद अव्वल तो अपने-अपने राज्यों  की  सत्ता में टिके रहना है ,दूजे वे  खुदा  न  खास्ता प्रधानमंत्री की दौड़ में बने रहकर देश और दुनिया की नज़रों में बने हुए हैं तो क्या  हर्ज़  है  ?  यदि इनमें से कोई पी एम् बन भी गया तो देश की हालत नहीं सुधरने वाली क्योंकि 'सरदारजी ' कम से कम व्यक्तिगत रूप से ईमानदार तो हैं ही और 'विश्व-बेंक'  आई एम् ऍफ़ वगेरह के नीति नियम भी जानते ही हैं किन्तु मोदी और शरद के पास  इन विषयों का ककहरा भी नहीं है , वे केवल चंद्रशेखर बन कर रहे जायेंगे, देवेगोड़ा बन कर रह जायेंगे ,  ज्यादा हुआ तो गुजराल या वीपी सिंह हो जायेंगे किन्तु अटल  बिहारी तो कभी नहीं बन पायेंगे। हालंकि अटलजी का अर्थशास्त्रीय ज्ञान संदेहास्पद रहा है वे भी मनमोहन सिंह की ही  नीतियों के ही पैरोकार रहे हैं . किन्तु देश को उन पर भरोसा था क्योंकि वे कट्टरवादियों के सामने कभी  नहीं झुके . नरेन्द्र मोदी  को अभी सावित करना है कि  गुजरात और गोधरा अंतिम अध्याय था  और साम्प्रदायिकता से नहीं नीतियों और कार्यक्रमों  से ' विशाल भारतीय लोकतंत्र ' का नवनिर्माण होगा . नितीश को भी सावित करना है कि  अभी तो बिहार के लिए वे केंद्र से 'विशेष पैकेज ' मांग रहे है ,यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो  इस देश के ७ ० करोड़ वंचित लोगों के लिए 'रोटी-कपडा- मकान '  जुटाने के लिए  कहीं अमेरिका से नए  क़र्ज़  का पैकेज तो नहीं मांगने लग जायेंगे ? क्या वे जानते हैं कि  भारत दुनिया  का एकमात्र अमीर मुल्क है जहां एक ओर  सत्तर मिलियेनर्स   है और वहीँ दूसरी ओर सत्तर करोड़ हैरान-परेशान जनता - जनार्दन। दुनिया की सबसे बड़ी गरीब जनसंख्या  भारत में  मात्र २ २ रुपया रोज से कम में  गुजारा  करती है तो  भी अमेरिका ,मनमोहन ,कमलनाथ,शरद पवार , चिदम्बरम के पेट में दर्द होता है  कि - भारत के भुखमरे  चूँकि ज्यादा खाने लगे हैं इसलिए न केवल भारत बल्कि दुनिया में भी  खाद्यान्न की महंगाई  बढ़ रही है . नितीश को ,मोदी को मानिक सरकार को  या जिस किसी को भी सत्ता में बिठाया जाए  उसका  डी एन ऐ 'भृष्टाचार की गटर गंगा से जुदा हुआ नहीं होना चाहिए .
                  जो लोग  अपनी कूबत , नीतियाँ और कर्तब्य  भूलकर केवल' नमो'  का जाप कर रहे हैं वे  ग़लतफ़हमी के शिकार हैं ,   जो  सोचते हैं कि  कट्टरवादी मोदी हिंदुत्व का  झंडा  उंचा करेगा उन्हें मालूम हो कि  मोदी   का हिंदुत्व  तो अब केवल इतिहास में  सिमट जाने वाला है . जब माया  कोडनानी  जैसे कट्टर हिंद्त्व वादियों को फांसी पर चढ़ता हुआ ज़माना देखेगा तो  आचार्य धर्मेन्द्र ,प्रवीण तोगड़िया या मोहन  भागवत  भी  मायूस होंगे . जो मोदी  का विरोध केवल साम्प्रदायिकता के कारण कर  रहे हैं वे नितीश हों ,शिवानन्द हों ,लालू हों या कांग्रेसी हों  या  देश  और दुनिया के मुसलमान हों  क्या    वे  फिर   भी मोदी   को इस मुद्दे पर घेर सकेंगे ? क्या मोदी का  साम्प्रदायिकता के आधार पर किया  जा रहा  विरोध   उथला  और गन्दला नहीं है ?   क्यों न गुजरात और गोधरा से आगे बढ़ा जाए ?   देश के सामने प्रस्तुत चुनौतियों के निदान पर मोदी की  आर्थिक नासमझी  और  मनमोहनसिंह के पद चिन्हों पर  देश को चलाने की उनकी नकलची और  जबरिया कोशिश पर प्रहार किया जाए ?
                                                              मेरा तो  मानना है कि  नरेन्द्र मोदी को एक पैसे भर भी 'हिंद्त्व' से  कोई मतलब नहीं है . वे जो भी बोल रहे हैं या बुलवा रहे हैं वो केवल वोट बेंक का सबब है .  उनकी  उच्च- मध्यम  वर्ग और नव- धनाड्य  वर्ग में बढती लोकप्रियता भी हिंदुत्व के कारण नहीं बल्कि गुजरात  में    निरंतर 'विकाश' का ढिढोरा पीटने , नोकरशाही पर लगाम कसने और देशी-विदेशी पूंजीपतियों तथा मीडिया को मेनेज करने  से मोदी को अभी तो वास्तव में बढ़त हासिल है . आधुनिक उन युवाओं  को भी   मोदी आकर्षित कर रहे हैं   जिनको  अपनी शैक्षणिक योग्यता अनुसार 'जाब  सुरक्षा ' चाहिए न की मंदिर-मस्जिद या साम्प्रदायिकता का कहर चाहिए . मोदी की इसी वैयक्तिक खूबी से  डरकर न  केवल वरिष्ठ भाजपाई नेता बल्कि एन डी ए  के अलायन्स पार्टनर्स भी आंतरिक रूप से नरेन्द्र मोदी   से ईर्षा रखते  हैं और अपनी कुंठा को धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाकर अपनी प्रासंगकिता बरकरार रखने की चेष्टा कर रहे  हैं .
                                              मेरा आकलन है  कि  शायद मोदी अब वो गलतियां कभी नहीं   दुहराएंगे   जो उन्होंने गोधरा काण्ड के उपरान्त की थी . मोदी को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर  घेरने वाले यह भूल जाते हैं कि   इस प्रकार का मोदी विरोध तो 'हिन्दुत्ववादियों' को और ज्यादा एकजुट और  आक्रामक बनाने के साथ-साथ उन्हें सत्ता के शिखर पर बैठने का सबब बन सकता है . तब धर्मनिरपेक्षता को और ज्यादा खतरा उत्पन्न हो सकता है .याने मोदी के पूंजीपति परस्त आर्थिक दर्शन और निजीकरण समर्थक नीतियों को छोड़ जदयू केवल साम्प्रदायिकता का राग अलापकर देश के साथ न्याय नहीं कर रहा . वे तमाम लोग जो मोदी को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर घेरने की कोशिश करते हैं  वे देश और समाज के साथ  न्याय नहीं  कर पाने के लिए अभिशप्त हैं .

                                                     भारत की जनता को , मीडिया को और देश के वास्तविक शुभचिंतकों   को व्यक्तिवादी  विमर्श से सावधान रहकर -वैचारिक और नीतिपरक विजन अपनाना चाहिए . मोदी , नितीश , शरद , आडवाणी ,सुषमा, राहुल  शिवराज ,मुलायम ,माया ,ममता जय ललिता ,नवीन  बादल,जेटली   ये   तो व्यक्तियों के नाम   भर   हैं किन्तु  चर्चा जब गाँधी,सुभाष ,नेहरु, इंदिरा , राजीव , ज्योति वसु या बाबा साहिब आंबेडकर की होगी ,लेनिन ,भगत सिंह ,कास्त्रो या  हो -चिन्ह-मिन्ह की होगी  तो ये  व्यक्ति नहीं विचारधारा कहे जायेंगे ...!  वेशक  मनमोहन सिंह जी भी  आज सर्वत्र  अस्वीकार्य हो  चुकने के वावजूद  एक ' विचारधारा 'तो अवश्य हैं ....! इतिहास में भले  ही  वे 'नायक ' नहीं  इन्द्राज हों  किन्तु
खलनायक भी कोई उन्हें नहीं कह सकेगा ..! आडवाणी , नितीश  या  नरेन्द्र मोदी समेत तमाम बहुप्रतीक्षित  व्यक्तियों को  भी व्यक्ति से ऊपर उठकर विचारधारा  बनना  होगा वरना इनमे से कोई भी प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन  देश  का कल्याण नहीं कर पायेगा ...!

                                        श्रीराम तिवारी   -14,s-4, sch-78 ,vijaynagar indore m. p.

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

दश -जनपथ की ललक मे, नेता हुए अधीर ..[दोहे]

        
          पद  पी .एम् .संजीविनी,केवल  एक अनार .

          इक दर्जन बीमार हैं , कैसे    हो     उपचार ..


         सत्ता मृग मारीचिका , जनादेश अनुमान .

         कनबतियां ख़बरें बनी ,ख़बरें बनी उड़ान ..


        नित  नई  कठिन चुनौतियां ,मुल्क हुआ हैरान .

        महंगाई -आतंक   तो , और    चढ़े     परवान ..


        पुलिस -दमन -शोषण-घुटन,घृणित तंत्र नाकाम .

         मूल्यहीनता  चरम पर , भ्रमित  हुई आवाम ..


        सत्ता की शीला हुई ,जातिवाद  का जाम .

        धर्मनिपेक्षता  की नर्तकी , मुन्नी हुई बदनाम।।


      आडवानी- मोदी खड़े , खड़े मुलायम  वीर .

      दस -जनपथ की ललक में ,हुए नितीश अधीर ..


     नहिं  विचार  नहिं  नीति कोई ,नहीं विकाश के काम .

    मनमोहन की  ऊँघ  से ,राहुल भये बदनाम ...

      श्रीराम तिवारी


      

    

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

भारतीय लोकतंत्र को ' चौथे मोर्चे' की दरकार क्यों है ?

              
                   भारतीय लोकतंत्र को  'चौथे मोर्चे ' की दरकार क्यों  है ?



       इन दिनों भारत में   राजनैतिक सरगर्मियों का  सिलसिला परवान  चढ़ता प्रतीत हो रहा है ,  एन डी ए  में  जद {यु} और शिवसेना नरेन्द्र  मोदी की प्रधानमंत्री पद की प्रस्तावित दावेदारी को अस्वीकार कर अपने विद्रोही तेवर जाहिर  कर अपने वजूद को ही नहीं बल्कि  अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को बचाने की भरसक   कोशिश कर रहे  हैं . भाजपा का एक धडा भी यही चाहता है  कि  इस  धर्मनिरपेक्षता के  अश्त्र  से मोदी का पत्ता साफ़ होता है तो हो   जाने दिया जाए ताकि उनसे वरिष्ठ  और  एन डी ए  के अलायन्स पार्टनर्स को  स्वीकार  कोई  धर्मनिरपेक्ष छवि का भाजपाई  , सम्मान जनक ताजपोशी  के लिए अवसर पा सके  .  दूसरी ओर यूपीए के प्रमुख घटक कांग्रेस ने भी अपने तमाम हथकंडे  इस आशय से   अपनाने का इंतजाम किया है कि  आगामी विधान सभाओं और लोक सभा चुनावों में   चुनौती पूर्ण मुकाबले में अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकें . यथास्थति वाद  में कांग्रेस दुनिया भर में बेजोड़ है .व्यवस्था परिवर्तन से उसे  चिड  है , इसीलिए तमाम  प्रतिगामी - राष्ट्रघाती नीतियों के घालमेल का पिटारा सर पर  रखने के वावजूद  भी वो  चिरजीवी है .
                            विदेशी ताकतों ने भी हमेशा की तरह इन दिनों  अपने दूरगामी  स्वार्थों के निमित्त 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र' याने भारत   में  दिलचस्पी  लेना तेज कर दिया है। विकिलीक्स के मार्फ़त  कई साल पुराने  मामलों  को नए कलेवर में देशी-विदेशी मीडिया के माध्यम से जनता -जनार्दन के बीच पेश किये जाने के  और क्या निहतार्थ हो सकते हैं ?  देश की जनता को यह जरुर जानना चाहिए .विकिलीक्स  सही-गलत खुलासों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय देश की आवाम को चाहिए की उसके नितार्थ को  जाने.   एक  ओर  नरेन्द्र मोदी को   'पान का बीड़ा ' खिलाकर भाजपा का एक  धडा  कुलांचे भर  रहा  है,  दूसरी  ओर उन्ही के बगलगीर' धर्मनिरपेक्षता बनाम गठबंधन '  के  बहाने  श्री  आडवानी जी या किसी अन्य सेक्युलर चेहरे की खातिर बगावत की कगार  तक जा पहुंचे  हैं।    भाजपा ,संघ परिवार और उनके बचे-खुचे अलायन्स पार्टनर्स  के तेवर  दिल्ली में , प्रदेशों की राजधानियों में -मीडिया के सम्मुख यों पेश  हो  रहे है मानों देश की जनता पलक पांवड़े बिछाकर बस  उन्हें सत्ता में विराजित करने  ही वाली है. जबकि मैदानी हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है . देश के इन दोनों ही बड़े गठबन्धनों के अपने-अपने सर्वे  बताते हैं की उनकी हालत कितनी खराब है ? न केवल कांग्रेस ,भाजपा या वाम मोर्चा बल्कि  क्षेत्रीय दलों में से अधिकांस  की हालत बेहद पतली है . कोई भी अपनी जीत के लिए  पूर्णतः आश्वस्त नहीं है .हालांकि ऊपर-ऊपर सभी ये जाहिर कर रहे हैं  कि  'मेरी कमीज उसकी कमीज से उजली ' है .  चुनावी   हम्माम में सभी की हालत एक जैसी है . देश की जनता का अधिकांस हिस्सा कांग्रेस से क्यों नाराज है ?ये बताने की जरुरत नहीं ,सभी को मालूम है की डॉ मनमोहनसिंह के नेत्रत्व में न तो भारत   सुरक्षित है और न देश की आम जनता का कल्याण संभव है . क्योंकि वे जिन पूंजीवादी  नीतियों के पैरोकार हैं उनसे अमेरिका और यूरोप का भला नहीं हुआ तो भारत का क्या खाक हो सकेगा ?
       जो लोग आशान्वित हैं कि  भाजपा के नेत्रत्व में एन डी ए  की सरकार दिल्ली में  बनने  ही जा रही  है ,उनसे निवेदन है कि  एक नज़र भारत के नक़्शे पर दौडाएं और मेरे इस निष्कर्ष पर गौर फरमाएं .                 भाजपा  का  दक्षिण के चार राज्यों-केरल,तमिलनाडु, आंध्र  और कर्नाटक में  कहीं  कोई जनाधार न पहले  था और न  आज है।अलवत्ता संघ परिवार की कड़ी मेहनत और कांग्रेस-जद [एस] की आपसी  फूट  के परिणाम स्वरूप येदुरप्पा के नेत्रत्व में एक मौका कर्नाटक में भाजपा को  जरुर मिला था . जनता का मोह तभी भंग होना शुरू हो गया जब रेड्डी बंधुओं  ने  ,खनन माफिया ने   कर्नाटक की   अपार सम्पदा   को अपने कब्जे में   करना   आरम्भ किया  था .येदुरप्पा के कारनामें  और भाजपाई नेताओं की  ऐयाशी के तराने न केवल कर्नाटक बल्कि दिल्ली तक  जब  सुनाई  देने लगे तो कर्नाटक की जनता ने भी  अपना मूड  बदलना शुरू कर दिया था  . कर्नाटक में  अब  मामला बोक्लिग्गा बनाम लिंगायत नहीं रह गया बल्कि 'मेहनतकश बनाम लुटेरे ' हो गया है .  चाहे वो विधान सभा हो या लोक सभा -अब भाजपा कर्नाटक की जनता से वो उम्मीद  नहीं कर सकती जो   उसे पांच साल पहले हासिल हुआ था . कर्नाटक में भाजपा को विपक्ष में बैठने की  अपनी हैसियत बनाए रखने में भी पसीना आने वाला है . न केवल विधान सभा बल्कि लोक सभा के चुनाव में कर्नाटक अब भाजपा या  एन डी ए   का साथ नहीं देने वाला .
       पूर्व के लगभग सभी राज्यों-बंगाल,उडीसा,असाम,उत्तर-पूर्व,त्रिपुरा में हमेशा  भाजपा की स्थिति क्षेत्रीय दलों  की अनुकम्पा  से  केवल खाता खोलने तक ही सीमित रही है . इस बार भी वहाँ कोई चमत्कार नहीं होने वाला याने इन सभी राज्यों में भाजपा का कोई जनाधार नहीं है .बिहार में उसकी स्थति  लालू के कुराज , कांग्रेस की दुरावस्था और नितीश[ जद  यु ] की  मेहेरवानी   से विगत लोक सभा और विधान सभा चुनाव में सुधरी थी  किन्तु  जबसे भाजपा के कुछ उत्साही लालों ने "नमो" मन्त्र का जाप शुरू किया है तबसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जद [यु] और नितीस के मिज़ाज कुछ बदले-बदले से हैं . भाजपा की बिहार इकाई दो फाड़ होकर चकरघिन्नी हो रही है . अब आगामी लोक सभा चुनाव में जातीय और साम्प्रदायिक धुर्वीकरण में बिहार की ओर से भाजपा को ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए . बिहार में जातीय ध्रुवीकरण एक  राष्ट्रघाती वास्तविकता है .
                  कश्मीर हिमाचल उत्तराखंड ,पंजाब,हरियाणा  और उत्तरप्रदेश में भाजपा की क्या स्थति है यह सर्व विदित है इन राज्यों से  दो दर्जन सांसद जुटाना भी  भाजपा के लिए लोहे के चने चबाने जैसा है .  महाराष्ट्र में कांग्रेस,भाजपा ,राकापा ,शिवसेना,कितने ही बदनाम हो जाएँ किन्तु उनके अपने-अपने  ठिये  तो    कमोवेश जस के तस रहा करते हैं।  यह अवश्य है कि जबसे गडकरी जी ने अपनी नेकनामी के झंडे गाड़े है ,जबसे  स्वर्गीय प्रमोद महाजन और उनके ततकालीन   संगी साथियों  के   सर्मयादारों से अन्तरंग रिश्तों को  कुख्याति मिली है ,तबसे  महाराष्ट्र में भाजपा  का प्रभाव  अवश्य घटा है . याने पहले से ज्यादा सीटों की उम्मीद अब भाजपा या एन डी ए  को महारष्ट्र से नहीं करनी चाहिए . गोपीनाथ  मुंडे  की राह में कांटे बिछाने वाले कैसे उम्मीद करते हैं कि  महाराष्ट्र से लोक सभा में बढ़त हासिल होगी ! कांग्रेस और राकपा की बदनाम सरकार  को उखड फेंकने के लिए महाराष्ट्र की जनता बेकरार है किन्तु भाजपा पर भी तो उसे यकीन नहीं नहीं है .
                भाजपा और संघ को   अपने तीन राज्यों -गुजरात, छत्तीस गढ़  और मध्यप्रदेश पर बड़ा भरोसा है .गुजरात को तो  एन-केन -प्रकारेण  बचा लिया गया  है ,शायद गुजरात की जीत का एक  अहम्  कारण  'मोदी' को प्रधानमंत्री का प्रोजेक्शन भी  रहा  हो,शायद गुजरात के हिन्दू मतों का मोदी के पक्ष में  ध्रुवीकरण भी एक कारण रहा  हो  या शायद  बेहद बदनाम और मंहगाई के लिए जिम्मेदार , भृष्टाचार के लिए जिम्मेदार  कांग्रेस  पार्टी  का वहाँ विपक्ष के रूप में असफल होने का कारण रहा  हो। जो भी हो गुजरात में  साम -दाम-दंड -भेद सब कुछ  दाव  पर   लगा दिया गया और विगत विधान  सभा से मात्र एक  सीट कम पाकर भी मानों  मोदी में सौ  हाथी  का बल   आ गया  है  ।शायद छतीसगढ़ में  भी इसी तरह कांग्रेस  समेत अन्य विपक्षियों की आंतरिक संगठनात्मक कमजोरी के कारण   रमनसिंह  जी पुनः  अपनी यथा स्थति  बनाए रखने में कामयाब  हो जाएँ  लेकिन लोक सभा और विधान सभा में भाजपा या एन डी ए  को कोई उल्लेखनीय  बढ़त  वहाँ नहीं मिलने जा रही है .  राजस्थान में ज्यादा जोर मारेंगे तो अपनी वर्तमान स्थिति को  ही बनाए रखने में कामयाब हो सकते हैं। किन्तु जसवंत सिंह जी और अन्य वरिष्ठ नेताओं को अपमानित कर वसुंधरा राजे न तो खुद मुख्यमंत्री बन पाएंगी और न राजस्थान से लोक सभा के लिए वांछित विजयी  सांसदों को भेजने में कामयाब हो सकेंगी .  गहलोत का बेक वर्ड क्लास से  होना और  वसुंधरा का पूर्व राजसी परिवार से होना भी आवाम के बीच विमर्श और लगाव का कारण  बनता ही  है .
                 भाजपा के  लिए   मध्यप्रदेश की स्थिति सबसे दयनीय है, यहाँ सरकार नाम की कोई चीज नहीं बची। पाकिस्तान का जरदारी  तो  मिस्टर  टेन परसेंट के नाम से ही  कुख्यात है, यहाँ पच्चीश परसेंट से कम में कोई फ़ाइल आगे नहीं बढती . मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही अपने आप को   ईमानदार ,पाक-साफ़  दिखाने की कोशिश करते  हों ;किन्तु डम्फर काण्ड,नोट गिनने की मशीन  और विकाश के झूंठे  दुष्प्रचार  ने  आम जनता को  बुरी तरह आक्रोशित कर रखा है.   कन्याओं का  मामा  कहलाने   वाले शिवराज को 'भू-माफिया,'खनन माफिया और रिश्वत खोरों ने   निरा ' मामू ' सावित कर  डाला है। विगत वर्ष मुरेना में एक आई पी  एस को खनन माफिया ने डम्फर से कुचल कर मार  डाला था .अभी एक और घटना हो गई .खनिज निरीक्षक संजय  भार्गव को इसलिए मार दिया गया कि  वह भी खनन माफियाओं की राह में रोड़ा बनकर देश भक्ति करने चला था .लोगों में चर्चा है की इसके पीछे 'दिलीप  बिल्ड्कान 'के लोग हैं और इस महा बदनाम ,महाभ्रष्ट कम्पनी के लोगों का मध्यप्रदेश की सत्ता में बैठे लोगों से  अंतरंगता जग जाहिर है।  सी बी आई भी उसका अभी तक कुछ नहीं बिगाड़ पाई .  ऐंसे  और भी कई   व्यक्ति और संस्थाएं  हैं जो भाजपा के  लिए फंडिंग करने के बहाने अपने आर्थिक साम्राज्य का  विस्तार करते जा रहे हैं . कई तो ऐंसे  हैं जो कभी कांग्रेस के  फायनेंसर हुआ करते थे ,वे अब भाजपा के  फाय् नेंसर हैं और यदि कांग्रेस दुर्भाग्य से फिर आ गई तो ये सत्ता के दलाल पुनः कांग्रेस की चरण वंदना में देरी नहीं करेंगे . अभी ये गले में केशरिया दुपट्टा डाले हुए दिख रहे हैं , यदि कांग्रेस आ गई   मध्यप्रदेश में  तो ये पंजा निशान या तिरंगी टोपी लगाए हुए दिख जायेंगे .  मध्यप्रदेश में मनरेगा  का पैसा जो केंद्र से  आया था सारा का सारा नेताओं और अफसरों -दलालों ने आपस में बाँट लिया . मध्य्प्र्देश में  सिर्फ भाजपा नेताओं और सरकारी अफसरों का विकाश हो रहा है. क़ानून और व्यवस्था जर्जर हो चुकी है,चेन स्नेचिंग,ह्त्या ,बलात्कार और जमीन से बेदखली के लिए मध्यप्रदेश ने पूरे देश का रिकार्ड तोड़ दिया है . मामूली पटवारी से लेकर सीनियर आई ए  एस तक अधिकांस के यहाँ करोड़ों की संपत्तियों  का खुलासा आये दिन हो रहा है .आयकर और केन्द्रीय वित्त अन्वेषण व्यूरो जैसी संस्थाओं ने  विगत एक वर्ष में मध्यप्रदेश से अरबों के भृष्टाचार को बेनकाब किया है . सत्तारूढ़  पार्टी के विधायक, मंत्री  पार्षद  नेता -रेपिस्ट, मर्डर  और प्ले बॉय  जैसी उपाधियों से नवाजे जा रहे  है।हालात ये हैं कि  भाजपा के ही  अन्दर जिन्हें खाने को नहीं मिला या कम मिला वे भी  शिवराज को निपटाने में जुटे हैं . पहले ये कांग्रेस में होता था की अपने ही  हरवा देते थे . अब भाजपा ने भी कांग्रेस से  सीख लिया है कि  अपनों को कैसे निपटाया जाए . भाजपा की  संभावित हार  का  डर  भी अब खुद -ब -खुद जनता और मीडिया के बीच चर्चा में आ गया है .भाजपा के इस डर  को तब और बल मिला जब उनके खुद के तंत्र ने एक सर्वे किया और पाया की वर्तमान में भाजपा के 8 0  विधायक  और 2 8  मंत्री आगामी चुनाव नहीं जीत पायेंगे। इन हारनेवालों को कहा जा रहा है की या तो अपनी छवि सुधारो या चुनाव क्षेत्र बदलो या नए चेहरों को मौका दो .इस लीपा पोती से  भाजपा शायद मध्यप्रदेश में  अपनी नाक तो  बचा ले किन्तु  केन्द्रीय  सत्ता में  आने की तो यहाँ दूर-दूर तक संभावना यहाँ से कतई  नहीं है .   जगह -जगह आर एस एस के पथ संचलन , कनकेश्वरी -ऋतम्भरा  और बाबा -बेबिओं के प्रवचन ,यज्ञ -कथा कीर्तन  तो मध्यप्रदेश में संघ परिवार की  निरंतर गैर राजनैतिक सक्रियता  के प्रमाण हैं ही किन्तु इन सभी इंतजामात का मकसद अपना स्थाई वोट बैंक ही है जिसे साधे  रखने की जिम्मेदारी संघ के लोगों की है। किन्तु जनता सब कुछ जान गई है अब  ज़माना  डिजिटल  नेटवर्क ,  इंटरनेट  और सूचना एवं संपर्क क्रांति का है सो  भारत का युवा और  सुशिक्षित वर्ग किसी भी गैर जिम्मेदार   साम्प्रदायिक या धार्मिक  उकसावे में आकर निर्णय नहीं लेने वाला . वो दुनिया में चल रही परिवर्तन की लहरों  को गौर से देख रहा है  मध्यप्रदेश में भाजपा का अब साम्प्रदायिक कार्ड नहीं चलने वाला .ये शिवराज भी जानते हैं  .इसीलिये वे ज्यादातर विकाश की ही बात करते हैं किन्तु  जब वे अपने द्वारा की गई घोषणाओं को पूरा नहीं कर पाने के लिए  केंद्र के सर ठीकरा फोड़ते हैं तो जनता को दिग्विजय राज की याद तजा हो जाती है ,तब केंद्र में अटल सरकार थी ,दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे . उमा भारती ने तब सड़कों की दुर्दशा ,बिजली-पानी कुशाशन और 'दैनिक वेतन भोगियों ' के मुद्दे पर दिग्गी को 'मिस्टरबंटाढार ' की उपाधि से नवाज था और भाजपा को सत्ता दिलाई थी आज भी मध्यप्रदेश वहीँ पर खड़ा है जहां पर दिग्गी  राजा  छोड़ गए थे .दैनिक वेतन भोगी आज भी  संघर्ष कर रहे हैं , कुछ तो भूंखे मर गए, मिल मजदूरों को बीस साल  हो गए अभी तक एक पाई नहीं मिली .  बिजली -पानी -सड़क  के बारे में तो जनता का गुस्सा इतना है कि  सत्ताधारी दल के विधायक पार्षद अब लोगों के बीच जाने से डर  रहे हैं  ऐंसे  हालात में आगामी चुनाव में भाजपा को राज्य और केंद्र दोनों के लिए ही जनादेश नहीं मिलने वाला .  हालांकि उमा भारती  की  ससम्मान  वापिसी शायद कुछ आशा जगा  सकती थी  . किन्तु जनता  को उमा से भी शिकायत है कि  दस साल पहले वे जो-जो वादे कर गईं थी उनमे से अभी तक कोई भी पूरा नहीं हुआ .जनता ने जनादेश उन्हें दिया था न की गौर को या शिवराज को .अब उनके लिए भी जनता के सामने जाना आसान नहीं  रहा . लोकोक्ति है कि" चुहिया  को चिंदी मिली तो बोली कि  चलो बजाजी  करेंगे" . उमा  भारती को  उपाध्यक्ष बने अभी चार दिन नहीं हए और वे कांग्रेस के पिण्डदान  की घोषणा  करने लगी हैं। याने वे यह कहना चाहती हैं कि  केंद्र में एन डी ए  की सरकार बस बन ने ही जा रही है .   शिवराज  क्या खाक कांग्रेस का मुकाबला करेंगे ये तो' बस उमा भारती के बूते की ही बात' है .इत्यादि इत्यादि ...
                                      यह सर्व विदित है  कि कांग्रेस नीत   केंद्र सरकार  की सभी  मोर्चों  पर  असफलताओं ,बढ़ती मंहगाई  और कुशाशन के वावजूद,  उनमें   आपसी फूट  के वावजूद    उनके  पास  तुरुप का एक पत्ता आखिरी तक रहता है और उसका नाम है "धर्मनिरपेक्षता"..!  हालांकि आम जनता  खुद ही कांग्रेस से मुक्ति चाहती है  किन्तु उसका स्थान लेने के लिए न तो भाजपा  ने अपना चाल-चेहरा-चरित्र इस काबिल छोड़ा  है  कि  कहीं मुंह दिखा सके  और न  ही एन डी ए  ने  कोई नीतिगत  विकल्प प्रस्तुत किया है  कि  डॉ मनमोहनसिंह की विनाशकारी आर्थिक नीतियों को पलट  कर कोई सर्व समावेशी ,जन-कल्याणकारी समतामूलक   सामजिक-आर्थिक- राजनैतिक और राष्ट्र हितकारी सिद्धांत और नीतियों प्रस्तुत कर सके . मेरे कहने का लब्बो लुबाब ये है  की ये दोनों  बड़े गठबंधन -यूपीए और एन डी ए  दोनों ही आज जनता -जनार्दन  का विश्वाश खो चुके हैं . और जब गठबंधन ही फ़ैल हो चुके हैं तो किसी एक पर विश्वाश कर पाना तो  देश  की आवाम के लिए और भी मुश्किल है . तीसरा मोर्चा भले ही सत्ता में आ जाए किन्तु देश को उससे केवल और केवल निराशा ही हाथ लगेगी . क्योंकि अतीत में जब -जब तीसरा मोर्चा बना और सत्ता में आया  तो उसे अव्वल तो कांग्रेस का कपटपूर्ण समर्थन लेना पड़ा और  दूसरे  ये तीसरे मोर्चे की  सरकारें साल भर  से ज्यादा  नहीं टिक  सकीं .
                               कांग्रेस तो वैसे ही कई कारणों से बदनाम है .केंद्र में यु पी ऐ  द्वतीय की जिजीविषा को जीवन शक्ति देनें वाले   तत्व - मनरेगा ,आर टी आई क़ानून,महिला आरक्षण तथा दलित-मुस्लिम हितों के लिये किये गए  दिखावटी  उपाय  अब उन्हें तीसरी बार सत्ता सीन करने वाले नहीं हैं . क्योंकि  ये सभी तत्व  तब तक बेमानी हैं जब तक देश में व्याप्त  भृष्टाचार ,रिश्वतखोरी, बाजारीकरण  ,निजीकरण  वैश्वीकरण   और कट्टरवादी साम्प्रदायिकता   विद्द्य्मान  है . जो इन छुट्टे सांडों को मजबूती  से कंट्रोल करने का माद्दा रखता हो आज उसे ही जनता का जनादेश मिलने की सम्भावना है .ये काम यूपीए ,एन डी ए  और तीसरा मोर्चा कभी नहीं कर सकता क्योंकि वे तीनों ही इन तत्वों से बने हुए हैं .रही बात वाम मोर्चे की तो वेशक वो ये काम कर सकता है किन्तु आज सारी  दुनिया में नव-पूँजीवाद  का बोलवाला है अतएव  अधिकांस युवाओं को  समाजवाद या साम्यवाद के बजाय ' आर्थिक  उदारवाद'    में ज्यादा सम्भावनाएं दिखाई देती हैं . वैसे भी वामपंथ  को सत्ता में आने का अभी वक्त नहीं आया है . उससे पहले देश को कई स्टेज से गुजरना होगा . शायद चौथा मोर्चा भी एक सार्थक प्रयोग के रूप में भारतीय   लोकतंत्र का अगला पड़ाव हो .

                         आधुनिकतम संचार और सूचना प्रौद्दोगिकी   के  कारण   और बढती हुई आधुनिकतम  वैश्विक चुनौतियों के कारण विगत दो-तीन वर्षों में  दुनिया भर के देशों में युवा वर्ग ने क्रांति का बिगुल बजाया है  और कई देशों में -मिश्र ,सीरिया,लीबिया तथा यमन में गैर परम्परागत  राजनैतिक ताकतों की सरकारें सत्तासीन हुईं हैं। हो सकता है ये क्रांतियाँ न  भी हों और भ्रांतियां बनकर ही इतिहास में दर्ज होकर रह जाएँ किन्तु मानवता के इतिहास में परिवर्तनीयता के सिद्धांत को इससे से न तो नकारा जा सकता है और न  इसके प्रभाव से मानवीय विकाश के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है । भारत की युवा पीढी शायद अब एनडी ए ,यूपीए  और तीसरे मोर्चे को भी कुछ समय के लिए अज्ञ्यातवास  भेज दे ,  तो कोई हर्ज़ नहीं . और इन्ही समकालिक क्रांतियों के समस्थानिक खोजकर भारत का भाग्य बदलने के लिए मैदाने जंग में उतर पड़े . सर्व श्री  अन्ना  हजारे,अरविन्द केजरीवाल,   प्रशांत भूषण   किरण वेदी स्वामी अग्निवेश ,सुब्रमन्यम स्वामी  ,गोविन्दाचार्य, ,अरुंधती रे,मेघा पाटकर,तथा अन्य तमाम वे लोग जो वर्त्तमान निजाम से ,वर्तमान व्यवस्था से और वर्तमान विद्द्य्मान भारतीय राजनैतिक पार्टियों से संतुस्ट नहीं वे सभी तत्व एकजुट होकर अपनी वैकल्पिक नीतियाँ,अपना राजनीतिक मेनिफेस्टो,अपनी वैकल्पिक सैधांतिक  विचारधारा स्थिर कर एकजुट आन्दोलन चलाकर देश के शिक्षित युवाओं का मार्ग दर्शन कर  वेशक "चौथा मोर्चा" बनाकर  भारत को वर्तमान चौतरफा संकट से उबार सकते हैं .बाबा रामदेव भी इस महान क्रन्ति यज्ञ में आहुति दे सकते हे किन्तु लगता है कि  उन्हें केवल अपने ग्यारह हजार करोड़ के आर्थिक  साम्राज्य की फ़िक्र है सो एक गॉड  फादर की उन्हें जरुरत थी,नरेन्द्र मोदी  के रूप में उन्हें उनके सर परस्त मिल गया अब बाबा रामदेव पूरे  भाजपाई हो चुके हैं .  यदि वे कांग्रेस और भाजपा से इतर देश हित में सोचते तो शायद बेहतर  परफोर्मन्स  दे सकते थे .
                                                स्वतंत्र भारत के इतिहास में स्वतः स्फूर्त जनांदोलन के माध्यम से  देश की तरुनाई ने पहली बार तब भूमिका अदा की थी जब  जय प्रकाश नारायण के नेत्रत्व में देश के सम्पूर्ण विपक्ष और युवा वर्ग समेत मजदूर -किसान सड़कों पर उतर आये थे . आपातकाल की विभीषिका को एक फूंक में उड़ाकर   लोकतंत्र को बचाया था .  आज  देश को  दूसरी  बार  इस तरुनाई के संयुक  संघर्ष और ईमानदार  नेत्रत्व  के आह्वान की सख्त जरुरत है और भारत भूमि कभी भी महापुरषों से महरूम नहीं रही। आज भी देश में सेकड़ों इमानदार अफसर,ब्यूरोक्रेट ,राजनीतिज्ञ ,किसान, मजदूर और  उद्द्योग्पति  हैं . शानदार केन्द्रीय श्रम संगठनों की दस करोड़ फौज है , सीटू, एटक ,इंटक ,बी एम् एस और एच एम् एस सहित तमाम राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्रों के ताकतवर श्रम संगठन हैं ,यहाँ आप ईमानदारी, क्रांतिकारिता ,देशभक्ति और संघर्षों का जज्वा एक साथ देख सकते हैं . इन्हें युवाओं का सहयोग चाहिए जैसे की १ ९ ७ ७  में तत्कालीन युवाओं ने जे.पी . को दिया था .
                      हालांकि  कांग्रेस के  तेज तर्रार मह्राथियों- इंतजाम- अलियों  ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी है .   वे    अपना  'स्वघोषित  धर्मनिरपेक्षता   राग '   छेड़कर  एनडी ए  में सेंध लगाने  , नितीश और जदयू समेत तमाम उन दलों को जो 'मुस्लिम मतों' पर आधारित है ; को   एन डी ए  से  अलग करने  का इंतजाम कर रहे हैं.राहुल  गाँधी  के बारे में प्रचारित किया जा रहा है  कि  उन्हें  अभी कोई जल्दी नहीं है उनका प्लान बहुत दूरगामी और चोखा है वे तो  अभी दो-तीन आम चुनाव तक सत्ता में नहीं आने वाले भले ही कांग्रेस को अकेले ही स्पष्ट बहुमत  ही क्यों न मिल जाए , भले ही दिग्विजय सिंह कुछ  भी बयान देते रहे और विकिलीक्स कुछ भी  अंट -शंट  बकता रहे  उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने  वाला। उन्होंने तो शानदार फार्मूला खोज लिया है कि  :-

       तेल जरे  बाती  जरे ,नाम दिया का होय।
       लल्ला खेलत काहू के ,नाम पिया का होया।।

यूपीए -तीन का राहुल को सरताज बनाने  का सघन  अभियान जिन्होंने चला रखा है अंत में उन्हें निराशा ही हाथ लगने वाली है  ,क्योंकि डॉ मनमोहनसिंह जी ने देश में ऐंसा कुछ भी नहीं किया कि  लोग तीसरी बार यूपीए को सत्ता सौंप दें . विकीलीक्स  ने भी लगता है  कि  किसी विदेशी ताकत के इशारे पर  ठीक इसी दौर में न केवल' गाँधी परिवार '  अपितु अतीत के  भारत-अमेरिकी   रिश्तों की भी परतें उघाड़ने में इसी वजह से तेजी दिखाई है।
                                        मुलायम ,माया,ममता,बीजद,जया , उद्धव ,राज ठाकरे  , द्रुमुक ,लालू,पासवान और  देवगौड़ा इत्यादि   कितना ही उछल -कूंद कर लें किन्तु वे  अपने-अपने क्षेत्रीय ,भाषाई और जातीय सरोकार देश के राष्ट्रीय सरोकारों से टकराकर या शरणम् गच्छामि होकर ,बार -बार 'गठबंधन की राजनीती के दौर ' को  भले ही खाद पानी  देते रहें किन्तु  वे विशाल भारत  की नैया के खेवनहार कतई  नहीं हो सकते . एक बेहतरीन राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक  और  वैकल्पिक  नीति को प्रस्तुत करने में सक्षम  वाम मोर्चा  तमाम क्रांतिकारी संघर्षों के वावजूद , अपनी बेहतर  केडर  आधारित सांगठनिक क्षमता के वावजूद ,  जन सरोकारों के लिए सड़कों से लेकर संसद तक संघर्ष  के वावजूद ,   और भारत के सभी पूंजीवादी दलों,क्षेत्रीय दलों से बेहतरी के वावजूद ,पूंजीवादी दलों की विफलताओं  के वावजूद 
 पर्याप्त जन-समर्थन के बिना केंद्र की सत्ता में  बहरहाल अभी तो  नहीं आने वाला .
        वाम मोर्चा चाहे तो देश में निरंतर संघर्षरत स्वतंत्र आन्दोलनो -अन्ना ,केजरीवाल,और तमाम बिखरे हुए जनांदोलनो को एकजुट करने और उन्हें भारत में क्रन्तिकारी बदलाव के लिए अपनी क्रन्तिकारी विचारधारा  से लेस करते हुए अपनी ऐतिहासिक  भूमिका अदा कर सकता है.   इसके लिए उसे एक बार फिर घोषणा करनी होगी की वो स्वयम सत्ता में नहीं आयेगा .जैसा की अतीत में वाम मोर्चा  कर  चुका है  एक बार तब जबकि कामरेड ज्योति वसु को प्रधानमंत्री न बनाकर तत्कालीन देवेगोडा सरकार को बाहर से समर्थन दिया था और दूसरी बार यूपीए प्रथम को बिना शर्त बाहर से समर्थन दिया था . यदि अन्ना  हजारे,अरविन्द केजरीवाल, ,किरण वेदी और  मेघा पाटकर  जैसे सामजिक कार्यकर्ता वाकई गंभीर है तो उन्हें आगामी आम चुनाव का शंखनाद करना चाहिए और अरविन्द केजरीवाल की 'आप' का समर्थन कर उसे  मजबूत बनाने में सहयोग करना चाहिए इस 'आप ' को चौथे मोर्चे का नेत्रत्व दिया जाना  चाहिए . देश के तमाम गैर राजनैतिक  संगठन ,श्रम संगठन, वामपंथी केडार्स  और  देशभक्त मीडिया को इस 'चौथे मोर्चे' का समर्थन करना चाहिए।  अन्ना हजारे को  इस आन्दोलन  का संयोजक बनाए जाएँ और केजरीवाल ,प्रशांत भूषण किरण वेदी ,स्वामी अग्निवेश ,जस्टिस मार्कंडेय काटजू  को समन्वय समिति में लिए जाए .  स्वाभाविक रूप से वाम पंथ को भी बाहर से इस चौथे मोर्चे का समर्थन करना चाहिए . यदि लोग अतीत में यूपीए एन डी ए  तथा क्षेत्रीय पार्टियों से तंग आ चुके हैं ,उनके भृष्टाचारी कुशाशन से आजिज  आ चुके हैं तो उन्हें डटकर इस 'संभावित' "चौथे मोर्चे"  का समर्थन करना चाहिए .   वर्तमान  भृष्ट व्यवस्था  से मुक्त होने और महान भारत को दुनिया में सम्मान दिलाने के लिए  इन  गैर परम्परागत  जन-आंदोलनकारी शक्तियों के रूप   में 'चौथे मोर्चे' को देश की सेवा का एक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए ....!

      श्रीराम तिवारी