सोमवार, 31 दिसंबर 2018

*शामली* : गामली,

*करीब के गाँव में दो सहेलियाँ 12 वीं की परीक्षा देने जा रही हैं और चलते हुए आपस में बातें कर रही हैं।*👇
*शामली* : गामली, तू तो बिल्कुल भी पढ़ाई नहीं करती है।
*गामली* : छोड़ न यार! पास हुए तो फिर 13, 14, 15 वीं की परीक्षा दो और फिर नौकरी वाला पति।
*शामली* : तो ? बढ़िया तो है।
*गामली* : क्या बढ़िया है ? 12 घंटों की नौकरी और तनख्वाह 25-30 हजार। फिर मुंबई-पूना जैसे बड़े शहरों में रहने जाओ। वहाँ किराए का घर होगा जिसमें आधी तनख्वाह चली जाएगी। फिर अपना खुदका घर चाहिए तो लोन लेकर 4-5 मंजिल ऊपर घर लो और एक गुफा जैसे बंद घर में रहो। लोन चुकाने में 15-20 साल लगेंगे और बड़ी किल्लत में गृहस्थी चलेगी। न त्यौहारों में छुट्टी न गर्मी में। सदा बीमारी का घर। स्वस्थ रहना हो तो ऑर्गेनिक के नाम पर 3-4 गुना कीमत देकर सामान खरीदो। और फाइनली वो नौकरी करने वाला नौकर ही तो होगा। तू सारा जोड़ घटाना गुणा भाग करले, तेरी समझ में आ जाएगा।
और अगर परीक्षा में फेल हो गई तो किसी खेती किसानी वाले किसान से ब्याह दी जाउँगी। जीवन थोड़ा तकलीफदेह तो होगा लेकिन वो खुद का सच्चा मालिक होगा और मैं होऊँगी मालकिन। पैसे कम ज्यादा होंगे लेकिन सारे अपने होंगे, कोई टेक्स का लफड़ा नहीं। सारा कुछ ऑर्गेनिक उपजाएँगे और वही खाएँगे। बीमारी की चिंता फिक्र ही नहीं, और सबसे बड़ी बात कि, पति 24 घंटे अपने साथ ही रहेगा।
और सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात " हमारा सारा लोन सरकार माफ कर देगी"।
*शामली* : मैं भी फेल ही हो जाऊँगी रे।

चीत्कार करुण क्रंदन क्यों,?

नेताजी मरणोपरांत जब स्वर्ग को सिधारे,
शहीदों ने उनको प्रेम से गले लगा लिया।
पूछी कुशलक्षेम अमन की अपने वतन की,
कहो वत्स-स्विस बैंक में कितना जमा किया?
ये आग, ये धुआं, चीत्कार करुण क्रंदन क्यों,
इन निर्धनों का झोपड़ा, किसने जला दिया?
वेदना से भीगी पलकें, शर्म से झुकी गर्दन,
अपराध बोध पीड़ित ने, सच-सच बता दिया।
वंदनीय हे अमर शहीदों ! आपके अपनों ने ही
आपकी शहादत का ये घटिया सिला दिया !

धर्मनिपेक्ष लोकतंत्र ही श्रेष्ठतम विकल्प है!

आजाद भारत के संविधान निर्माताओं को कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं का ज्ञान था,उन्हें मालूम था कि 'धर्म'-मजहब' के नाम पर सामन्त युगीन इतिहास में किस कदर क्रूर और अमानवीय उदाहरण भरे पड़े हैं। वे इतने वीभत्स हैं कि उनका वर्णन करना भी सम्भव नहीं ! धार्मिक -मजहबी उन्माद प्रेरित अन्याय और उससे रक्तरंजित धरा के चिन्ह विश्व के अनेक हिस्सों में अब भी मौजूद हैं !
अपने राज्य सुख वैभव की रक्षा के लिए न केवल अपने बंधु -बांधवों को बल्कि निरीह मेहनतकश जनता को भी 'काल का ग्रास' बनाया जाता रहा है । कहीं 'दींन की रक्षा के नाम पर, कहीं 'धर्म रक्षा' के नाम पर, कहीं गौ,ब्राह्मण और धरती की रक्षा के नाम पर 'अंधश्रद्धा' का पाखण्डपूर्ण प्रदर्शन किया जाता रहा है। यह नग्न सत्य है कि यह सारा धतकरम जनता के मन में 'आस्तिकता' का भय पैदा करके ही किया जाता रहा है।यह दुष्कर्म तथाकथित नवयुग या वेज्ञानिकता के युग में भी जारी है!
इस क्रूर इतिहास से सबक सीखकर भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारतको एक विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष -सर्वप्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया, यह भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति है।हमें हमेशा बाबा साहिब अम्बेडकर और ततकालीन भारतीय नेतत्व का अवदान याद रखना चाहिए ! उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए। भारत के राजनैतिक स्वरूप में धर्मनिपेक्ष लोकतंत्र ही श्रेष्ठतम विकल्प है।

गेहूँ के साथ घुन पिसे बिना कैसे रह सकता है?

वेशक 1984 की हिंसा सर्वत्र निंदनीय है!सज्जनकुमारको आजीवन कारावास मिला! किंतु कार्य कारण का सिद्धांत शाश्वत है!उस के अनुसार सवाल उठता है कि 1984 के सिख विरोधी दंगे हुये क्यों?और इंदिराजी के पागल हत्यारों को'शहीद' किसने बनाया?
विगत शताब्दी के उत्रार्ध में पंजाब के लाखों बेगुनाह हिंदु मारे गये! इस आतंकी हिंसा में सर्वाधिक वामपंथी और कांग्रेसी कार्यकर्ता ही मारे गये थे! इन हत्याओं के लिये कौन जिम्मेदार हैं?और उन हत्यारों के खिलाफ तब इन तथाकथित निर्दोष लोगोंने कभी एक शब्द क्यों नही कहा?भारत को तोड़ने का इरादा रखने वालों और विदेशी ताकतों के हाथों खेलने वालों तथा खालिस्तानिंयों को रुपया और हथियार सप्लाई करने वालों को आज कोई हक नहीं कि वे सज्जनकुमार के आजीवन कारावास पर खुशियां मनाये! जो खालिस्तानी सिख अपने आपको सवा लाख हिंदुओं के बराबर बताये,सज्जनकुमार यदि उसका चैलेंज कबूल करे तो वो दोषी कैसे हुआ? जहां तक सवाल निर्दोषों की मौत का है तो गेहूँ के साथ घुन पिसे बिना कैसे रह सकता है?

हारे को हरि नाम है .

अब न देश -विदेश है ,वैश्वीकरण ही शेष है .
नियति नटी निर्देश है ,वैचारिक अतिशेष है ..
जाति -धरम -समाज कि जड़ें अभी भी शेष हैं .
महाकाल के आँगन में ,सामंती अवशेष है ..
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नए दौर की मांग पर तंत्र व्यवस्था नीतियाँ .
सभ्यताएं जूझती मिटती नहीं कुरीतियाँ ..
कहने को तो चाहत है ,धर्म -अर्थ या काम की .
मानवता के जीवन पथ में ,गारंटी विश्राम की ..
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पूँजी श्रम और दाम है ,जीने का सामान है .
क्यों सिस्टम नाकाम है ,सबकी नींद हराम है ..
प्रजातंत्र की बलिहारी है ,हारे को हरि नाम है .
सब द्वंदों से दुराधर्ष है ,भूंख महा संग्राम है ..

. श्रीराम तिवारी ;

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

मैं जग पालन और तारनहार!

अनवरत वैज्ञानिक अविष्कार!
मोटर-ट्रक जहाज रेल दूर-संचार!!
फितरती मनुष्य की रचनाधर्मिता,
हरयुग में मेरे द्वारा होती रही साकार!
मैं ही जग का सृष्टा सेवक श्रमिक,
मैं ही जग पालन और तारनहार!!
खेतों खदानों राष्ट्र की सीमाओं पर,
आतप बर्षा शीत जंग के मैदान में!
सेवा सुरक्षा सकल संचालन तंत्र में,
वनों में बागों में सौंदर्य के निर्माण में!!
मेरा ही श्रमस्वेद लेता रहता प्रतिपल,
अवनि अंबर गिरि कंदराओं में आकार!
मेरी ही दमित आत्मा होती रहती है,
निरंतर मानवीय सभ्यता में साकार!!
अनगिनत पीरों,पैगम्बरों,अवतारों में,
धर्म मजहब में न मिला अपना कोई !
इसीलिये मानव इतिहास के पन्नों में,
कहीं भी कभी भी मेरा नाम नहीं कोई!!
श्रीराम तिवारी
साहब' के उजबक फैसलों से,
इस मुल्क की आवाम थर्राई है।
अभी मिली पांच राज्योंमें हार से,
उनके चेहरे पर घबराहट छाई है।।
जिन जिन को गलतफहमी थी,
कि होगा विकास-उन्हें बधाई है!
अब तो तोड़ना ही होगी कसम,
विध्वंश की जो उन्होंने खाई है!!

भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।

कौन आस्तिक है ?कौन नास्तिक है ?यह व्यक्तिगत सोच और आचरण का विषय है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति ,समाज ,राष्ट्र या विचारधारा के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकता कि अमुक व्यक्ति,अमुक समाज या अमुक विचारधारा वाले लोग नास्तिक होते हैं ! और यह सर्टिफिकेट भी नही बांट सकते कि अमुक व्यक्ति और अमुक विचाधारा के लोग 100% आस्तिक हैं।
इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषित बहुत प्रसिद्ध है :-
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण,को भेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का सत् और असत् प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?
यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो नास्तिक है,इसमें किसी का क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो सौ फीसदी 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है!इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे सोचें कि आसाराम,राम रहीम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं और यह सारा जगत जानता है।
जबकि गैरी बाल्डी,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन ,रूसो,बाल्टेयर एडिसन, नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की और स्टीफन हॉकिंस जैसे लाखों हैं जो अपने जिंदगीभर अपने आपको नास्तिक मानते रहे!
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी

बुधवार, 12 दिसंबर 2018

तुम आ जाना- मैं वहीं मिलूंगा.

शहीदों का स्थाई पता:-
शस्य श्यामल धरा पर,
पुलकित द्रुमदल झूमते देवदार,
दहकते सूरज की तपन से,
जहां होती हो आक्रांत-
कोमल नवजात कोंपले!
धूल धूसरित धरतीपुत्रों का लहू,
अम्रततुल्य आषाढ़ के मेघ-
की नाईं रिमझिम बरसता हो,
जिन वादियों में और सुनाई दे,
रणभेरी जहां अन्याय के प्रतिकार की
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
देखो जहां भीषण नरसंहार,
सुनाई दे मर्मान्तक चीत्कार-
जलियांवाला बाग का जहां पर!
और शहीदों के सहोदर,
चूमते हों फांसी के तख्ते को,
प्रत्याशा में आज़ादी की-
ज्योति जलती रही निरंतर,
जिनके तेजोमय प्रदीप्त ललाट के समक्ष
-करते हों नमन बंदीजन खग वृंद,
देते धरा पर मातृभूमि को अर्ध्य,
और नित्य होता बेणीसंहार,
निर्मम जहां पर-
कारगिल,द्रास,बटालिक और हिमालय के-
उतंगश्रंग पर ,
तुमआ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा.......!
सप्तसिंधू तटबंध तोड़कर
मिला दे प्रशांत को हिंद महासागर से,
और विगलित हिमनद उद्वेलित,
धरा पर दूषित लहू,निस्तेज शिरायें,
अनवरत करतीं प्रक्षालन विचार सरिताएं,
नेतृत्व राष्ट्र का और विश्व का,
महाद्वीप प्रलयगत प्रतिपल ,
पक्षी नीड़ में,
मनुज भीड़ में,
हो आतप-संताप दोष दुखदारुन
नैतिकता पतित पाताल गत,
मानव मति, गति, क्षतविक्षतहत,
हो मनुज मनुज में नैतिकता विस्तार,
बल पौरुष निरहंकार,
करे जगत जहां सत्य की जय-जयकार
तुमआ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा......!
आल्पस से हिमालय तक,
वोल्गा से गंगा तक,
समरकंद से सिंधु के मुहाने तक ,
हड़प्पा मोहन जोदड़ो से लेकर,
आधुनिक संचार क्रांति इंटरनेट तक,
उन्नत तकनीकि युग को विजित कर,
ज़मींदोज़ हुये संपूर्ण युगकालखंड,
पतनशील सभ्यताओं को करता स्वाहा,
निहारता खड़ा इक्कीसवीं सदी के-
उदगम पर,
भयभीत क्रूरकाल नरभक्षी यायावर,
भौतिक सभ्यताओं का सनातन शत्रू,
चले आना दाहिर की चिता पर,
आनंदपुर साहिब-अमृतसर-
की पावन माटी और अटक से कटक तक,
दिखे शक्ति जहां शहादत का अखण्ड तेज,
तुम आ जाना -
मैं वहीं मिलूंगा।
चले आना पानीपत-
वाया कुरूक्षेत्र!
सूंघते हुए लहलहाते खेतों की,
लाल माटी को चूमकर,
चले आना प्रागज्योतिषपुर,
राजपुताना मथुरा,कन्नौज,
प्रयाग-ग्वालियर-कालिंजर
और चले आना तक्षशिला,
विक्रमशिला देवगिरि हम्पी,
फेंकना एक-एक पत्थर वहां-
पुराने कुओं-बावड़ियों में,
सुनाई देगी तुम्हें तलहटी से,
खनकती चीखें इतिहास की!
देखना मर्घट की ज्वाला,
बर्बर जंगखोरों द्वारा धधकती आग में, चीखती ललनाओं की!
करुण क्रन्दन करती चिर उदात्त आहें,
मध्ययुगीन बर्बर सामंतों द्वारा,
पददलित विचार अभिव्यक्ति,
हवा पानी प्रकाश-हताश दिखे जहां पर ,
सुनाई दे बोधि-वृक्ष तले,
महास्थिर बोधिसत्व तथागत की
करुणामयी पुकार,
अप्प दीपो भव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
नवागन्तुक वैश्विक चुनौतियां,
दुश्चिंतायें, चाहतें नई-नई!
नये नक्शे, नये नाम, नई सरहदें,
नई तलाश-तलब-तरंगे!
काल के गर्भ में धधकती युध्दाग्नि,
डूब जाये-मानवता उत्तंगश्रृंग
हो जाये मानव निपट निरीह नितांत!
रक्ताम्भरा विवर्ण मुख वसुन्धरा क्लांत!
करुणामयी आस लिये,
शांति कपोतों को निहारती हो-
अपलक जहां आशान्वित नेत्रों से,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
दब जाओ पाप के बोझ तले जब,
चुक जायें तुम्हारे भौतिक संसाधन,
अमानवीय जीवन के!
आतंक-हिंसा-छल-छद्म-स्वार्थ,
आकंठ डूबा पाप पंक में कोई,
सुनना चाहे यदि अपनी आत्मा की-
चीख-युगान्तकारी कराह!
और लगे यदि देवत्व की प्यास,
प्रेम की भूख,
चले आना स्वाभिमान की हवा में,
देखना आज़ादी का प्रकाश!
उतार फेंकना जुआ शोषण का,
मिले स्वतंत्रता-समानता-बंधुता जहां पर
और शील सौजन्य करुणा की छांव,
तुम आ जाना-
मैं वहीं मिलूंगा........!
(मेरे प्रथम काव्य संग्रह-अनामिका से अनुदित-श्रीराम तिवारी)

शनिवार, 8 दिसंबर 2018

खेत पै किसानों को शीत लहर सतावे है!

प्रातःमें पसर गये धूल धुंध ओसकण,
पता ही नही कि कब दिन ढल जावे है!
अगहन की रातें ठंडी झोपड़ी में काटते,
खेत पै किसानों को शीत लहर सतावे है!!
कटी फटी गुदड़ी और घास फूस छप्पर ,
आशंका उजाड़ की नित जिया घबरावे है!
भूत भविष्य वर्तमान काल क्षण एक एक,
मौसम शीतलहर का सर्वहारा को सतावे है!!
गर्म ऊनी वस्त्र और वातानकूलित कोठियाँ ,
लक्जरी लाइफ भ्रस्ट बुर्जुआ ही पावे है।

सत्ता उनको ही देनी हो !

वही देश का मालिक है,
जिस हाथ कुदाली छेनी हो !
वो बात खुलासा करनी है,
जो बात सभी के हित की हो!
सामाजिक समरसता हो,
न ऊंच नीच की बैनी हो !
अभिव्यक्ति आजादी हो,
न फासीवाद नसैनी हो!!
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हो,
जन गण मन त्रिवेणी हो !
नंगा भूंखा कोई न हो,
न जाति पांत की श्रेणी हो !!
मूल्य आधारित शासन हो,
सर्वहितकारी नीति हो !
समझ जिन्हें हो भले बुरे की,
सत्ता उनको ही देनी हो !!
श्रीराम तिवारी