शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

इस सबके वावजूद यदि कोई कहे कि 'अच्छे दिन आये हैं ' तो उसे धिक्कार है।

  मध्यप्रदेश में  आलोच्य अवधि के दरम्यान औसतन  आधा दर्जन किसान प्रतिमाह आत्म हत्या कर रहे हैं। भयावह सूखे की  स्थिति में भी प्रदेश के भृष्ट सरकारी अधिकारी गरीब किसानों को बुरी तरह लूट रहे हैं। बैंक कर्ज वालों ने , बिजली वालों ने ,कृषि उपकरण वालों ने , कृषि खाद बीज वालों ने ,सूदखोरों ने और सत्ता के दलालों ने तो पहले से ही किसानों का कचूमर बना रखा था। किन्तु इस साल के सूखे ने तो  मानों  कोढ़ में खाज  को कई गुना बढ़ा दिया है ! इन हालात में  किसान को 'आत्महत्या' के अलावा कोई और राह  ही नजर  नहीं आ रही है। इस पर भी तुर्रा ये कि  कुछ असंवेदनशील मंत्री और मन्त्राणियां कह रहे  हैं कि "ये किसान  तो प्यार-मोहब्बत में असफल  होने पर आत्म हत्या कर रहे हैं" ! प्रदेश में कोई सूखा या आर्थिक संकट  नहीं है।

 ऐंसा नहीं है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान को इस संकट के बारे में कुछ  कुछ पता ही नहीं है। वे  तो खुद ही केंद्र सरकार के सामने विगत १८ महीने से गिड़गिड़ा रहे हैं। लेकिन  इन पंक्तियों के लिखे जाने तक -आश्वाशनों  के आलावा उन्हें केंद्र  से फूटी कौड़ी  भी  नहीं मिली है। लगता है कि अतीत की घटनाओं को लेकर  प्रधान मंत्री नरेंद्र  मोदी जी -अभी भी शिवराज को माफ़ नहीं कर पा ये हैं।  मध्य प्रदेश राज्य का ओवर डॉफ्ट  कब का सीमा लांघ  चुका  है। प्रदेश सरकार के खर्चे आसमान पर पहुँच चुके हैं। दस हजार करोड़ का कर्ज अतिरिक्त मांगा जा रहा है।  मध्यप्रदेश के सभी विकास कार्य ठप्प हैं। शिक्षा,स्वास्थ्य ,सिचाई और खेती तो लगभग चौपट  ही है। इन बदनुमा हालात में  प्रदेश के मुखिया शिवराज जी कभी उज्जैन में महाकाल के दर्शन कर रहे हैं ,कभी दतिया की बगुलामुखी देवी को नमन कर रहे हैं , कभी साधु-संत -महंतों की शरण में मत्था टेक रहे हैं। कहीं  यज्ञ करवा रहे हैं ,कहीं शिव लिंग वनवा रहे हैं। लेकिन  मध्यप्रदेश पर न तो भगवान  कृपा कर रहे हैं और न ही मोदी जी की कृपा अब तक बरस पाई है। इस तरह शिवराज जी  खुद की और प्रदेश की हंसी  ही उड़वा   रहे हैं। किसान आत्म हत्या कर रहे हैं। मंत्री काजू -बादाम चर रहे हैं। सरकार यज्ञ हवन करवा रही है।  कई गाँवों में बिजली  का कनेक्शन ही नहीं और  किसानों को  बिल हजारों के  दिए जा रहे हैं। दाल-प्याज की महँगाई  की बात तो अब आदत में शुमार हो गयी है। अब तो सत्ता के दलालों  के भाव आसमान पर हैं। इस सबके वावजूद यदि कोई कहे  कि  'अच्छे दिन आये हैं ' तो उसे धिक्कार है। 

 इधर कुछ विद्वानों को लगता  है कि  'मोदी राज' में धर्मनिरपेक्षता रुपी पांचाली का शील खतरे में  है। गौ मांस- सेवन  के बहाने -निर्दोष की हत्या , कटट्रवादियों को  राजनीतिक बढ़त की सहज उपलब्ध की आशंका  और संविधान की मूल अवधारणा की हत्या  की आशंका ने काल्पनिक भय के  भूत पैदा कर लिए हैं।  वे जानते हैं कि  भारत में वो नहीं हो सकेगा  जो पाकिस्तान में या इस्लामिक वर्ल्ड में हो रहा है। फिर भी वे अपनी प्रगतिशीलता को शान पर चढ़ाकर  परख रहे हैं।  इसके अलावा  शायद  उन्हें यह भी लगता है कि एम - एम कलीबुर्गी ,पानसरे और दाभोलकर जैसे विद्वानों  की हत्या में  जिन  संकीर्णतावादियों का हाथ है वे  इस  हिन्दुत्ववादी  सरकार के वरदहस्त प्राप्त -आधुनिक  भस्मासुर  हैं। इसी गलतफहमी में  कुछ  साहित्यकार ,लेखक और विद्वान लोग अपने-अपने गुमनाम से अपरिभाषित   'सम्मान वापिसी' अभियान को हवा दे रहे  हैं।  मानों वे इस प्रगतिशील  - धर्मनिरपेक्षतावादी  सुदर्शन चक्र से इन मंदमति 'असहिष्णुतावादियों ' का चरम विनाश कर सकेंगे।

 यदि वे ऐंसा सोच रहे हैं तो वे वास्तविक -कल्पनालोक में  ही विचरण कर रहे हैं। यह एक विचित्र दव्न्दात्मक  मानसिकता  है कि जो  चीज है ही नहीं उसे साकार करके दिखाने में बुद्धिजीवियों को मजा रहा है।  जबकि खेतों की मेढ़ों पर, पेड़ों पर लटके किसानों के शव देखकर आदि कवि की तरह चीत्कार सुनाई देना चाहिए था। किसान -मजदूर के शोषण -उत्पीड़न पर यदि कोई लेखक ,कवि साहित्यकार सम्मान वापिस करता तो शायद इस क्रांति -  कारी परिदृश्य पर जमाना कहता कि "हर जोर जुलुम की  टककर में संघर्ष हमारा नारा है "!  किन्तु ठाकुर सुहाती और मानसिक जुगाली  से प्रेरित बुद्धिजीवियों ने  ऐंसे मुद्दों पर सम्मान वापिसी की जिद  ठानी  है जिस पर बहुसंख्यक भारतीय समाज का मत  विभाजन जग जाहिर है। किसी ने शायद इसी तरह का  मंजर देखकर   कहा होगा   कि ' इस देश का तो भगवान  ही मालिक है "

 क्या बाकई कुछ  महाखाऊ लोगों का उदर गाय को मारे बिना नहीं भर सकता? उन्हें गौ मांस से  इतना प्रेम क्यों है?  कि वे  बिना  गौ मांस भक्षण के या  बिना 'बीफ' गटकने के जिन्दा  ही नहीं रह सकते ?  वैसे भी खाने-पीने का यह मामला  सनातन से बड़ा ही ज्वलंत है।  अब चूँकि केंद्र  की  सत्ता में  परम 'गौरक्षक'  विराजमान हैं  इसलिए यह बहुत समीचीन है कि बूढी  गाय बेचने वालों की ,गाय के मांस  निर्यात करने वालों की और गाय के साथ-साथ सूअर के मांस पर  राजनीति  करने वालों की भी आरटीआई लगवाकर  सूची प्रकाशित कर दी  जाए।


विगत ९ अक्टूबर  को मैंने अपने ब्लॉग पर एक आर्टिकल पोस्ट किया था कि   "सभी - धर्म मजहब के धर्म-गुरु  और झंडावरदार 'पोप  फ्रांसिस से भी कुछ सीखें " जिसका स्पष्ट  आशय यही था कि  पोप  फ्रांसिस ने अपनी मजहबी और धार्मिक छवि से आगे जाकर कुछ नया किया  है। उन्होंने वर्तमान  वैश्विक पूँजीवाद  , उदारीकरण ,बाजारवाद  और आर्थिक विकास के भूमंडलीकरण -मॉडल पर अनेक प्रश्न खडे किये हैं । उन्होंने  अत्याधुनिक्तम  टेक्नॉलॉजी के बलबूते  वैष्विक पूँजीखोरों  की लूट और विश्व सर्वहारा की आर्थिक दुर्दशा पर महज  घड़ियाली आंसू नहीं बहाये। बल्कि कुछ ठोस और अहम सवाल भी खड़े किये हैं ?मेरी ख्वाइश थी कि  काश भारत के धर्म गुरु एवं  मठाधीश और अन्य मजहबों के धर्मध्वज  भी इस तरह की वैचारिक परिपक्वता का प्रमाण पेश करते !तो ये  धरती आज  इतनी  रक्तरंजित न होती। और  मानव इतना अमानवीय न होता !तब दुनिया शायद  अमन और खुशहाली से लबरेज होती !

 वेशक पोप  के क्रांतिकारी दृष्टिकोण से या दो-चार भले मनुष्यों  के प्रवचनों से या दो-चार सज्जन पुरुषों के  बलिदान से या कुछ मुठ्ठी भर  समझदार लोगों के विद्वत्तापूर्ण व्याख्यानों से इस आधुनिक दौर के बूचड़खाने   पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। आदर्शवादी उटोपिया के पुनर्सृजन से  नक्कारखाने में कोई असर या कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन फिर भी यह सुखद और सकारात्मक खबर है कि  भारत में अब तक  तो केवल प्रगतिशील विचारक ,साहित्यकार कवि और चिंतक ही मानवीय मूल्यों के पैरोकार हुआ करते  थे किन्तु अब कुछ  वैज्ञानिक और कलाकार भी इस दिशा में मुखर होने लगे हैं। इतना ही नहीं अब तो पोप  फ्रांसिस की तरह सोचने वाले  कुछ धर्म -गुरु  भी भारत में  मुखर होने लगे हैं। वे जनता के ज्वलंत सवालों पर ,देश के आर्थिक सामाजिक सरोकारों पर और  राजनैतिक सवालों पर वामपंथियों की तरह मुखर होने लगे हैं। कल  तक जो  लोग घोर संकीर्णतावाद और धार्मिक कठ्ठमुल्लेपन  के लिए मशहूर थे ,आज वे भी  प्रगतिशील दृष्टिकोण  अपना रहे हैं।धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता को अक्षुण बनाये रखने की पैरवी कर रहे हैं। वे खान-पान रहन -शहन और विचार की स्वतंत्रता पर पहरा बिठाना पसंद नहीं करते।  हालाँकि  भारतीय  विशाल  आबादी के अनुरूप मानवतावादी  चिंतकों ,धर्म गुरुओं ,साधु-सन्यासियों की यह संख्या बहुत कम है ,किन्तु फिर भी यह सीमित  प्रबुद्ध समाज  भी आधुनिक भारत के निर्माण में सकारात्मक हस्तक्षेप का प्रतिनिधित्व तो अवश्य करता है। मानवता की  इस पूँजी को सहेजा जाना चाहिए।

 गोवर्धन पीठधीश्वर  स्वामी अधोक्षजानंद जी , पूरी पीठधीश्वर स्वामी निश्चलानंद जी और 'सुर साधना केंद्र के  संस्थापक श्री उदयराव देश मुख उर्फ़  भय्यूजी महाराज ने  भी अपने अलग-अलग बयानों में मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार  को और केंद्र की 'मोदी सरकार' को न  केवल  आर्थिक  मोर्चे पर असफल बताया  है ,बल्कि काले धन की वापिसी और सरकारी तंत्र के बेइंतहा  भृष्टाचार पर भी इन्हे पूरी तरह असफल बताया है।बढ़ती हुयी किसान आत्म हत्याओं  और बिकराल महंगाई पर इन धर्म गुरुओं के उदगार  अत्यंत प्रगतिशील और क्रांतिकारी हैं। संत भय्यूजी महाराज ने तो शिवराज सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा है कि  जितना पैसा 'धर्म-धम्म 'सम्मेलनों के आयोजन में बर्बाद किया जा रहा है, उससे तो प्रदेश के सैकड़ों किसानों को खाद- बीज की मदद की जा सकती थी। अब देखने की बात ये है कि  १८ माह बीत जाने के बात भी भाजपा  वाले और केंद्र  में एनडीए की  'मोदी सरकार ' वाले 'काग्रेस  मुक्ति' के नारे से ही मुक्ति नहीं नहीं  पा सके हैं। उन्हें उनका हर विरोधी कांग्रेसी या  देश द्रोही नजर आ रहा है।  अब तो शिवसेना वाले भी शायद इनकी नजर में देशभक्त नहीं रहे।

संघ और भाजपा के प्रवक्ता गण तथा  रामदेव और श्री श्री जैसे दरबारी 'संत'  बीफ खाने या  नहीं खाने के  विमर्श में  जनता को उलझा रहे हैं। जबकि निश्चलानंद जी और भय्यू महाराज जैसे संत देश के किसानों की पीड़ा पर व्यथित हैं। उनके उदगार आज  ३० अक्टूबर के  नई  दुनिया में प्रकाशित हुए हैं। उनका आशय यह है कि  शिवराज जी आप सरकार चलाइये ,हम बाबा-स्वामी और धर्म गुरु ये धर्म-प्रचार संभल लेंगे।


यह  विचित्र विडंबना है कि जो काम देश के शासक वर्ग को करना चाहिए वह वे नहीं कर रहे हैं। लेकिन  जो  काम  प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच वाले लोगों को करना चाहिए  वो काम  वे पूरी निष्ठां और ईमानदारी से कर रहे हैं।  यह सुखद संयोग है कि अब पूरी पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी  निश्चलानंद जी सरस्वती भी वही  कर रहे हैं जो पोप  फ्रांसिस कर रहे हैं। स्वामी  निश्चलानंदजी ने कहा है कि -  "मोदी सरकार का महँगाई  पर कोई अंकुश नहीं है ''स्वामी जी का  यह एक वाक्य ही 'संघ परिवार' और  मोदी सरकार के लिए चुल्लू भर पानी में डूब  मरने के लिए काफी होता ,वशर्ते  कि वे प्रतिहिंसा की मनोभावना से  मुक्त होते।भाजपा सरकार के मंत्री यह मान ने को  ही तैयार  नहीं कि  मध्यप्रदेश का किसान सर्वाधिक संकट के दौर से गुजरते हुए आत्म  हत्या के लिए मजबूर हो  रहा है। जबकि साधु -सन्यासी -वीतरागी भी इस भयावह स्थति से बिचलित नजर आ रहे हैं।

इधर इंदौर  के एलीट क्लाश  को विगत तीन-चार दिनों मे 'धम्म-धर्म 'के  आयोजन का निहायत  हाई  फाई जमावड़ा देखने को मिला। ब्रिलिएंट कन्वेंशन  सभागार में सम्पन्न इस विश्व धम्म-धर्म 'सम्मेलन में श्री-श्री ,सुखबोधानंद और  दर्जनों धर्मगुरु पधारे थे। शिवराज सरकार के कर कमलों ये सभी राजकीय  अतिथि परम सम्मान  प्राप्त करते हुए असीम  आनंद से गदगदायमान होकर अपने-अपने 'लोक 'प्रस्थान करते  भये।

 इस धर्म सम्मेलन के उपरान्त कुछ पढ़े-लिखे  विचारवान साधु सन्यासियों ने शिवराज सरकार को कड़वी नसीहत दी है। उन्होंने 'राजधर्म 'की बात उठाई है। सरकार को याद दिलाया गया कि  विगत २-३ सालों में देश भर के किसानों की माली हालात तेजी से खराब हुयी है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसानों की आर्थिक स्थति बेहद  भयावह हो चुकी है। इन सर्वाधिक संकटग्रस्त राज्यों में किसान आत्महत्या का सिलसिला थम ही  नहीं रहा है। अनवरत -अनावृष्टि ,सूखा ,ओलावृष्टि ,प्रशाशनिक भृष्टाचार व  नकली खाद-बीज की कुव्यवस्था के कारण  मध्यप्रदेश के किसानों का बंटाढार हो चूका है।  प्रदेश के अधिकांस  खेत-खलिहानों  में  हाहाकार मची हुयी है। खेतों में इधर-उधर  उगी फसल बिना फल्लियों-बिना बीजों के ही  केवल हरियाली झलक दिखलाकर वहीं मर खप गयी है। सैकड़ों  धैर्यविहीन किसान खेत की मेड पर ही आत्म हत्या कर चुके हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने के दौरान  भी आत्महत्याओं का यह  सिलसिला बदस्तूर जारी है। प्रदेश  के राजस्व अधिकारी -पटवारी से लेकर मंत्री तक सब केवल रिश्वत -कमीशन की जुगाड़ में जुटे हुए हैं।  पिछले सालों के  ओला -बाढ़ आकलन का ही अता -पता नहीं है। सूदखोरों और सरकारी देनदारियों से परेशान किसान की दुरावस्था पर सरकार द्वारा  मीडिया पर विज्ञापन के मार्फत मगरमच्छ के आंसू तो बहुत बहाये जा रहे हैं। किन्तु  किसानों को अभी तक मदद का कोई संकेत नहीं मिला है।

 इधर आज की ताजा खबर है कि इंदौर में एक वेरोजगार युवा  ने  महँगाई से आजिज आकर  आत्म हत्या कर ली है । दालों के दामों पर ,प्याज और अन्य खद्यान्नों की मँहगाई पर अखबारबाजी तो बहुत हो रही हैं।सरकार समर्थक दाल-व्यापारी मंडियों में ' सस्ती दाल'[१७० रुपया प्रति किलो ] बेचने का नाटक  भी कर रहे हैं। इधर  मध्यप्रदेश रुपी  रोम जल रहा है , उधर शिवराज सरकार रुपी नीरो  'धर्म सम्मेलन' की बांसुरी  बजाये जा रहे । भय्यू महाराज स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी ने सरकार की इस हालात पर कटाक्ष किए है। उनका कहना है कि शिवराज  तुम सरकार चलाओ हम स्वामी-बाबा लोग धर्म चला लेंगे ! तुम किसानों की चिंता करो ,कुम्भ  और सिंहस्थ स्नान हम खुद कर लेंगे।

 सरकार के मंत्रियों -मन्त्राणियों का कहना है  कि  ये किसान  सूखा या गरीबी के कारण नहीं बल्कि प्यार-मोहब्बत में असफल होकर आत्म हत्याएं किये जा रहे हैं।  खेत की मेड पर खड़े होने की हिम्मत तो उनमें भी नहीं है जो अपने आपको प्रगतिशील और सर्वहारा परस्त बताते नहीं थकते। क्योंकि आजकल के  क्रांतिकारियों को मोदी के कपड़ों की ,गाय के मांस को परोसे जाने की और लेखकों -साहित्यकारों के सम्मान वापिसी की बड़ी फ़िक्र है।
              
 वैज्ञानिक तर्कवादियों और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर साहित्यकारों के 'सम्मान वापिसी' अभियान के खिलाफ मोदी सरकार की ओर  से किला लड़ाने के लिए  संघ परिवार  ने जिन फिसड्डी  'बौद्धिकों' को काम पर लगाया है। इनमे केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली सबसे कमजोर कड़ी साबित हुए  हैं। उन्होंने  वर्तमान दौर की कट्टरवादी  रीति  - नीति  से  असहमत  साहित्यकारों और वैज्ञानिकों को जबरन  मोदी विरोधी और कांग्रेसी  खेमे से  नथ्थी कर दिया है। जेटली जी के मानसिक विकास का पैमाना दिशाहीन हो चुका है। आज नामवरसिंग  या श्याम बेनेगल सम्मान वापिसी के पक्ष में नहीं हैं तो क्या वे 'संघी' हो गए ?और  यदि फिलिम इंडस्ट्री की तरफ से सरकार के पक्ष में आलोचनात्मक  किला लड़ा रहे हैं हैं वे  अनुपम खैर  हैं जो 'संघ' का पक्ष शिद्द्त से रखने में सफल रहे हैं।   :=श्रीराम   तिवारी="                     
                   
                     

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

हिन्दुत्वादी सरकार को हिन्दू शब्द की अधिकृत परिभाषा व्यक्त करने में पसीना क्यों आ रहा है ?

 भारत का   'हिन्दुत्वादी' सरकार  का वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्रालय नहीं जानता कि 'हिन्दू शब्द की परिभाषा  'क्या है ? मंत्रालय ने यह जबाब मध्यप्रदेश के नीमच के आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ को दिया है। गौड़ ने  विगत जून -२०१५  में एक आरटीआई आवेदन केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजा था। इसके मार्फ़त उन्होंने सिर्फ   यह जानकारी माँगी थी  कि 'भारतीय विधि ,संविधान ,कानून में हिन्दू शब्द की परिभाषा क्या है ?'हिन्दू किस धर्म ,सम्प्रदाय को मानता है और किस आधार पर उस 'हिन्दू' समाज को बहुसंख्यक वर्ग में शामिल किया गया है ? हिन्दू कहलाने की पात्रता व  आधार क्या है ? यदि यह प्रश्न मुझसे पूंछा जाता तो में स्वामी विवेकानंद के शिकागो   विश्व धर्म सम्मेलन के भाषण की एक  एक लाइन में  ही उत्तर दे सकता  हूँ।

स्वामी जी ने कहा है " जो असत्य से सत्य की ओर जाना चाहता है ,जो तमस से प्रकाश की ओर  जाना चाहता है ,जो मृत्यु से अमरत्व की ओर  जाना चाहता है और जो समस्त चराचर जीवों को भी ब्रह्मस्वरूप देखता है ,वह हिन्दू है "  यदि गृह मंत्रालय में आरक्षण की वैशाखी वाले बैठे हैं ,यदि गृह मंत्रालय और सरकार में हिंदुत्व की रोटी खाने वाले आईएएस वैठे हों ,या व्यापम जैसे  तौर  तरीकों से नौकरी हथियाने  वाले नौकरशाह बैठे  होंगे तो देश का  का बंटाढार  होने से  कोई नहीं  सकता ! यदि ग्रह मंत्रालय के अधिकारी  इस आरटीआई की फाइल को  लेकर मोदी जी तक पहुंचते,तब  शायद देश की जनता को एक ठो  बढ़िया 'मन की बात ' इसी विषय पर  सुनने को अवश्य मिल जाती।  शायद आरटीआई कार्यकर्ता को संतुष्ट करने में मोदी जी  जाते ।

 दुनिया को लगता है कि  इस  हिन्दुत्ववादी सरकार में केवल  दलित को कुत्ता बताने वाले हैं।  वीफ के नाम पर निर्दोष की हत्या  को जायज ठहराने वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर राम लला  को युगों-युगों तक टाट  में रखने की जुगाड़ वाले हैं। हिंदुत्व के नाम पर नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे ,एमएम कलबुर्गी जैसे तर्कवादियों की क्रूर  नृशसंस  हत्या  पर चुप्पी धारण करने वाले हैं।  किन्तु एक  भी बन्दा  या बंदी  इस हिन्दुत्ववादी सरकार में या उसकी  मात्र संश्था 'संघ' में नहीं है ,जो  विवेकानंद की तरह ,नेहरू की तरह  डॉ सर्व  पल्ली राधाकृष्णन  की तरह  हिंदुत्व  को परिभाषित कर सकने का माद्दा रखता हो।

गुरु गोलबलकर से लेकर मोहनराव भागवत  तक की  विद्वत्तापूर्ण परम्परा में हिन्दू शब्द अपरिभाषित क्यों है ? क्या बाकई  संघ परिवार वाले केवल धर्मनिरपेक्षता को लहूलुहान करने , हिन्दुओं के वोट ध्रुवीकृत करने  और  राजनीतिक वयानबाजी  करने के सूरमा ही हैं ?  क्या  उनके पास बाकई कोई एक भी चिंतक -विचारक नहीं  है जो हिंदुत्व  को परिभाषित कर सके ! यदि  उनके पास कोई वैज्ञानिक जबाब हैं तो श्वेत पत्र  जारी क्यों नहीं  कर देते ?  केवल विदेशी हमलावरों की दुखद यादों को कुरेदना ही हिंदुत्व नहीं है। बल्कि स्वामी विवेकानंद और स्वामी श्रद्धानन्द जी की तरह , लोक मान्य बालगंगाधर तिलक की तरह ,लाला लाजपतराय की तरह खुद के जीवन को तपोनिष्ठ बनाकर ही 'हिन्दू' शब्द की व्यख्या करने की क्षमता प्राप्त होती है। सत्ता सुख में मग्न हिन्दुत्वादी नेता  यह याद रखें कि जिस हिंदुत्व की रोटी  वे आज खा रहे हैं ,यदि उसकी परिभाषा भी उन्हें नहीं मालूम तो अगली बार हिन्दू बहुसंख्यक वोट उन्हें ही  मिलेंगे  यह जरुरी नहीं है !

 गौड़ के आरटीआई आवेदन पर ३१ जुलाई -२०१५ को केंद्रीय गृह मंत्रालय के लोक सूचना अधिकारी ने इस संबंध में किसी भी प्रकार की जानकारी होने से इंकार कर दिया है।  लोक सूचना अधिकारी ने सूचना पत्र में जबाब दिया कि गृह मंत्रालय के पास  जानकारी उपलब्ध नहीं। है यह भी कहा गया है कि  इस प्रकार की कोई जानकारी उसके किसी अनुभाग या शाखा में नहीं  रखी  ही नहीं जाती। गौड़ को यह जबाब विगत अगस्त के प्रथम सप्ताह में मिल चुका है। जब  गौड़ ने प्रधान मंत्री कार्यालय व  केंद्रीय कानून मंत्रालय को दोबारा आरटीआई आवेदन भेजा। तो प्रधानमंत्री कार्यालय और केंद्रीय कानून मंत्रालय ने पुनः गृह मंत्रालय को भेज दिया।  जैसी कि  आसा थी गृह मंत्रालय ने वही पका-पकाया पहले वाला  नकारात्मक जबाब फिर गौड़ को भेज दिया है। जिसका तातपर्य यह है कि 'हमें नहीं पता कि  हिन्दू शब्द का मतलब क्या है ?'

मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में विगत तीन दिनों से 'अंतराष्ट्रीय धर्म-धम्म सम्मेलन' का बड़े पैमाने पर आयोजन चल रहा है। स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहाँन और संघ के वरिष्ठ बौद्धिक भैयाजी जोशी इसके प्रमुख  करता धर्ता हैं। इसमें सभी धर्म-मजहब के राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय महापंडित ,फादर ,मौलवी ,उलेमा और बौद्ध धर्म गुरु शिरकत कर रहे हैं। इनमें स्वामी सुखबोधानंद ,स्वामी  अवधेशानन्द गिरी और श्री श्री जैसे तो हैं ही किन्तु अमरीका,जापान ,श्रीलंका तिब्बत और चीन से भी 'हिन्दू धर्म' के  दिग्गज विद्वान पधारे हैं। इनमें  से अधिकांस  लोग हिन्दू धर्म पर बढियां-बढियां स्थापनाएं देते  रहते हैं। इन्ही के दो चार वाक्य गृह मंत्रालय टीप सकता था।  इससे पहले  पूरे दो महीनों तक  नासिक कुम्भ में भी तमाम शंकराचार्यों और अखाड़ों ने  'हिन्दू' धर्म को केंद्र में रखकर ही  तो स्रारा तामझाम  और आयोजन सम्पन्न  किया है। कुछ उसी का सारांश ही आरटीआई के जबाब में  गौड़ को अधिकृत टीप के साथ  भेजा जा सकता था।

  कुछ दिनों बाद उज्जैन में सिंहस्थ के बहाने फिर हिन्दू-हिंदुत्व  का महिमागान होगा। कहने  तातपर्य कि  केंद्र में हिंदूवादी सरकार होने  के वावजूद ,देश भर में मंदिरों -मठों में कथा कीर्तन ,यज्ञ व शोभा यात्राओं के जयकारे  धूम मचाते रहते हैं  ,चुनाव में बार-बार हिंदुत्व को भुनाने  के वावजूद -हिन्दुत्वादी सरकार को हिन्दू शब्द की  अधिकृत  परिभाषा व्यक्त करने में पसीना क्यों आ रहा है ? यदि  जिस विधा में वे पारंगत हैं यदि वही  पक्ष ही  अमानक है तो  वे अन्तर्राष्टीय परिदृश्य पर हिंदुत्व का  पक्ष पोषण कैसे करेंगे ।  क्या उन्हें मालूम है कि  पोप  फ्रांसिस इतने लोकप्रिय और सर्व स्वीकार्य क्यों हैं ? क्योंकि पोप  फ्रांसिस दुनिया में घृणा के खिलाफ हैं। क्योंकि  वे साम्यवादियों को भी पूरा सम्मान देते हैं। हमारे संघी भाई और भाजपा के कटटरवादी बयानवीर  शिवसेना के संजय रावत से ही कुछ सीख लें। जो ढुलमुल बात नहीं कहते। जो कहते हैं डंके की चोट कहते हैं।


 हिन्दू शब्द पर क़टटर  हिन्दुओं को और धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को  एक धड़े पर नहीं रखा जा सकता। और ठीक इसी तरह हिन्दू और अन्य मजहबों के नजरिये को भी अलग-अलग इम्युनिटी  नहीं  दी जा सकती। प्राय  देखा गया है कि  पाकिस्तान, ईरान ,अफगानिस्तान ,सऊदी अरब ,जॉर्डन यूएई या दुनिया का कोई भी इस्लामिक राष्ट का नेता  भले ही वह गद्दाफी , सद्दाम  या यासिर अराफ़ात जैसा ही  प्रोग्रेसिव या स्वयंभू कम्युनिस्ट ही क्यों ने हो. जब यूएन में  भाषण करता है  या किसी भी अन्य मुल्क में जाकर  भाषण करता है तब मंच पर अपनी बात की शुरुआत कुछ इस ढंग से करता है -बिस्मिल्लाह रहमान रहीम ,,,,,,,,बड़ी नफासत और सुसंकृत शब्दावली में 'अल्लाह को याद' करने के बाद  ही वे अपना  विस्तृत मंतव्य ,,आमीन ,,,के साथ समाप्त करते  हैं। जबकि  भारत का कोई  हिन्दू नेता यदि मंच से श्री गणेशाय नमः बोल दे  या 'जय श्रीराम' या जय भोलेनाथ बोलकर यदि कहीं भाषण देने लग जाए तो  गजब हो जाएगा।  ये  दोहरे मापदंड  न केवल फौजी तानाशाहियों में ,न केवल बनाना छाप नकली डेमोक्रेसियों में बल्कि प्रगतिशील  फलक पर  भी विगत  आधी शताब्दी से इस्तेमाल किये जा  रहे हैं।

हिन्दू  देवी  देवताओं की नंगी तस्वीर बनाने वाला  गैर हिन्दू कार्टूनिस्ट  यदि मकबरे से  भी उठकर आए जाए और यदि  वह 'हिन्दू 'शब्द की लानत-मलानत करने लगे तो  और उसका यह कृत्य  प्रगतिशील हैं। यदि आपने उसकी हरकत पर   जरा भी चूँ  चपड़ की तो आप दकियानूसी और पोंगापंथी मान लिए जाएंगे।  भारत में यदि  किसी नेक काम की शुरुआत  -शुभ कार्य से पहले 'श्रीगणेशाय नमः ' का उद्घोष किया  गया तो गजब हो जाता है। दरसल में  आजादी के बाद पूंजीवादी पार्टियों द्वारा  गैर हिन्दुओं को साधने के चककर में  यह नौबत आयी है। अब हालात ये हैं कि हिन्दुत्ववादी सरकार  भी हिन्दू की परिभाषा देने में घबरा रही है। और श्री गणेशाय नमः तो अब  सिर्फ शादी व्याह और पूजा पाठ  तक ही सीमित कर दिया गया है। संस्कृत   स्वस्तिवाचन या शांतिपाठ जैसी वैश्विक और उम्दा रचनाएं  जो मूर्ख नहीं जानते वे भी इन्हे सम्प्रदायिकता के मन्त्र बताकर उनका मजाक उड़ा ने में गर्व महसूस करते हैं।

भारत में आकर अंग्रेजी राज ने अपनी  वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति दी। लेकिन उनसे पहले तुर्कों,अरबों ,मंगोलों और फारसियों ने अपनी मजहबी  शिक्षा को शासन-प्रशासन की भाषा बनाकर देश को गुलाम बना लिया था। चूँकि  भारत की अपनी खुद की अर्वाचीन पध्ध्तियां थीं लेकिन  संस्कृत भाषा  की किलष्टता और  उसकी व्यवहारिक अनुपयोगिता ने भाषा के साथ साथ  शिक्षा स्वास्थ्य और राजनीति  का भी ब्राह्मणीकरण कर डाला। सामाजिक संकीर्णता ने संस्कृत  और हिंदी को  सत्यनारायण की कथा ,आरती और पूजा पाठ  की भाषा  तक सीमित कर दिया । जबकि उर्दू ,अंग्रेजी, फ्रेंच, रशियन ,चीनी  त्यादि भाषाओँ  को प्रगतिशीलता का अवतार मान लिया गया। क्योंकि ये भाषाएँ राष्ट्रवाद,डेमोक्रेसी साम्यवाद - क्रांति और  समाजवाद जैसे आधुनिक पवित्र शब्दों से लबरेज थीं।  इन्ही भाषाओँ के माध्यम से भारत ने साइंस ,टेक्लानाजी और ब्रिटिश समेत दुनिया के नए संविधान पढ़े और आत्मसात किये।  बड़े ही विस्मय की बात है कि इन्ही भाषाओँ ने भारत को -हिंदी -हिन्दू हिन्दुस्तान की पहचान से महरूम किया। हमें आदत सी हो गयी है कि यदि हमने  संस्कृत में बोल दिया तो प्रगतिशील नहीं रह  पाएंगे।

 सिर्फ इतना  ही नहीं बल्कि  भारत में सदियों से जो  'ग' गणेश का   पढ़ाया जाता था  वो भी  पता नहीं किस गधे ने ग' गधे का कर दिया ? वेशक  भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है ,इस पर हर भारतीय को  बड़ा गर्व  भी है। किन्तु 'ग' गणेश से इतनी एलर्जी क्यों ? क्या अरबी ,फारसी पढ़ने वाले बच्चे जब 'बिस्मिलाह रहमान रहीम ,,,,से शुरुआत करते हैं तो वे गलत करते हैं ? क्या कभी किसी संस्कृत भाषा के विद्वान ने या साहित्यकार ने गैर हिन्दुओं के साम्प्रदायिक आचरण पर कभी कोई नकारात्मक  गंभीर टिप्पणी  नहीं  की है ? फिर केवल भारत  की पुरातन देवनागरीऔर उसकी संस्कृत या हिन्दी  भाषा पर ही भाषायी कंगाली और वैचारिक दरिद्रता का संकट क्यों  थोपा गया ? तथाकथित हिंदूवादी सरकार के शाशन-प्रशासन की -हिन्दू ,हिन्दुस्तान कहने में जुबान क्यों लड़खड़ा रही है। आरटीआई का जबाब देने से क्या धर्मनिरपेक्षता गल जाएगी।


वैसे तो भारोपीय परिवार की  भारतीय शाखा आदि वैदिक  'संस्कृत' भाषा के धातु शब्दों के यौगिक शब्दों की व्यत्पत्तियों के वैज्ञानिक 'अक्षर विज्ञान' पर बहुत शोध कार्य हुए हैं। किन्तु आदि कवि से लेकर पाणिनि  तक  और अरबी -फारसी -अंग्रेजी के आगमन  के उपरान्त  तक की शब्द  यात्रा में संस्कृत  व्याकरणवेत्ताओं ने देवनागरी  के  भाषायी सम्मान ,शब्दिक  शुद्धता और उसकी वैज्ञानिकता  को  निरंतर अक्षुण और वैश्विक  बनाये रखा। किन्तु  उपमहाद्वीप पर हुए आक्रमणों के फलस्वरूप देवनागरी  लिपि और संस्कृत  व्याकरण के विकास  का मार्ग अवरुद्ध होता चल गया ।  खड़ी हिंदी की अनगढ़ यात्रा में  निर्मित किये गए कतिपय कुछ साहित्यिक  ठाँव भी  धत्ताविधान  की भेंट चढ़ते गए।

कुछ सवाल तो अभी भी 'अबूझ' बने हुए  हैं। दरसल आजादी के बाद जो दुर्गति 'हिन्दुस्तान' शब्द की हुई है कमोवेश हिन्दू समाज  व हिन्दी  भाषा  भी कुछ इसी  तरह  के मतिभृम  के शिकार रहे हैं । हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान तीनों ही  क्रूर कालचक्र के द्वारा लगातार लतियाये जाते रहे हैं। विदेशी आक्रमणों के उपरांत आयातित संस्कृति ,सभ्यताओं और  भौतिक उन्नति ने भारतीय समाज के प्रबुद्ध वर्ग को सदियों पहले ही इतना सम्मोहित कर दिया कि उन्हें अपने माता -पिता को प्रणाम करने में शर्म आने लगी।और गुड मॉर्निंग ,गुड इवनिंग प्रगतिशील और आधुनिक होता चला गया।

यदि मैं सुबह उठकर सोशल मीडिया पर हिन्दू धर्म ,हिन्दू समाज और हिन्दी भाषा को दो-चार गालियां जड़ दूँ तो में प्रगतिशील कहलाऊंगा।  यदि मैंने लिख दिया -त्वमेव माता च  पिता त्वमेव..........  या ,,,,,,, एकम सद विप्रा बहुधा बदन्ति ,,,,या अहिंसा परमो धर्म :,,,,तो मैं साम्प्रदायिक और अप्रगतिशील कहलाऊंगा।हिन्दू मूल्यों ,हिंदी भाषा साहित्य और हिन्दुस्तान पर लिखना याने तलवार की धार पर चलने जैसा है। अब यदि देश का बहुमत प्रगतिशीलता को 'छद्म धर्मनिरपेक्षता में आंकने लगा है तो इसकी जिम्मेदारी उनकी है जो शीत  युद्ध पूर्व के 'सोवियत शिविर' से बाहर  ही नहीं आना चाहते। राष्ट्रीय अस्मिता की पैरवी तो दूर की बात बल्कि उसके आंसू पोंछना भी अब  गुनाह हो चला है। किसी भी तरह के भारतीय अवयवों को छूना याने संकीर्णतावादी हो जाना है  वैज्ञानिकता और प्रगतिशीलता  के लिए भारतीय सभ्यता ,संस्कृति का लतमर्दन जरुरी है ।  हिन्दी ,हिन्दू हिन्दुस्तान-जिसने जितना ज्यादा इन शब्दों को लतियाया और हेय  बनाया वो उतना ही बड़ा  प्रगतिशील कहलाया। स्वार्थों की बलिवेदी पर बार-बार केवल भारतीय मूल्यों और भारतीय हुतात्माओं को ही अग्नि परीक्षा देनी पडी है।  इसका सबसे बड़ा कसूर उनका है जिन्होंने इन शब्दों की अभिरक्षा के नामपर उनका हो दोहन किया है।

       सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप के वाशिंदे 'ग' गणेश का लिखते -पढ़ते आ रहे हैं। न केवल प्राकृत -संस्कृत विद्यापीठों  और गुरुकुलों में  बल्कि ईसा की दूसरी शताब्दी  के बाद से ही केरल ,मलावर पांडिचेरी गोवा के चर्चों में  पढाई जा रही यूरोपीय भाषाओँ के साथ-साथ संस्कृत और स्थानीय भारतीय भाषाओँ को भी  न्यूनतम भाषा ज्ञान के रूप अनुवाद के निमित्त पढ़ाया  जाने लगा था।तब भी 'ग' गणेश ही पढ़ाया जा रहा था।  ९ वीं शताब्दी के बाद भारत में बने तमाम मदरसों - इस्लामिक मजहबी संस्थानों में भी अरबी-फ़ारसी -तुर्की के साथ -साथ भारत की संस्कृत ,प्राकृत और स्थानीय  बोलियों-भाषाओँ से शिक्षिण -प्रशिक्षण प्रारम्भ हो चूका था।  तब भी  फर्क  सिर्फ इतना था कि ईसाई लोग अपनी  योरोपीय भाषाओं  को साइंस ,तकनीकी के साथ अपनी संस्कृति और विधा के अनुरूप  परोस रहे थे। वे  संस्कृत सहित तमाम भारतीय भाषाओं  कोसीख रहे थे और  ज्ञान बर्धन कर रहे थे । जबकि अरबी-फारसी  के केंद्र सिर्फ राजनीति और इस्लाम को केंद्रित कर अपने भाषा ज्ञान बर्धन में तल्लीन थे। इधर  भारतीय ब्राह्मण परम्परा की शिक्षा में या तो केवल यज्ञ हो रहे थे या शादी व्याह। इसलिए वे  गुलाम होने को अभिशप्त थे। वे  महज 'पंडिताऊ' प्रवचनों, आध्यात्मिक भाष्यों को संस्कृत से 'लोक भाषा ' में अनूदित कर 'स्वान्तः सुखाय' में मस्त थे। कोरे धर्मोपदेश ही उनकी बाचालता के साधन रह गए थे।

 जिस तरह प्राचीन यूनानियों और रोमन्स ने इंडस ,इंडिका ,इंडिया ,इंडिक्श को अपनी ततकालीन साहित्य युति  में  प्रयुक्त किया उसी तरह मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के यायावर व्यापारियों और आक्रमणकारी कबीलों ने  भी ततकालीन भारतवर्ष को कभी सिंध>हिन्द >हिन्दसा >हिन्दोस्ताँ >हिंदवी > हिंदी >हिन्दुस्तान शब्द व्युतपत्ति और विकास के इतिहास को  प्रतिध्वनित किया है । इतिहास कार और भाषा विज्ञानी  अच्छी तरह जानते हैं  कि यह शब्द  विपर्यय यात्रा विदेशी हमलावरों -व्यपारियों और इस्लामिक धर्म -प्रचारकों द्वारा ततकालीन आर्यावर्त -भारतवर्ष  अथवा भारतीय उपमहाद्वीप  के  लिए  ही प्रतिध्वनित  होती रही है। जिसे बाद में अंग्रेजों ने 'इण्डिया' और आजादी के बाद संविधान निर्माताओं  ने 'भारत' नाम दिया है।

उपरोक्त में से 'हिंदवी' शब्द उस कौम के निमित्त प्रयुक्त किया गया  है जो 'हिन्द' का निवासी हो। संघ वाले  यदि हिन्दू शब्द की सावरकर वाली व्यख्या को  सही मानते  हैं अर्थात  'हिन्दू' वह जो 'हिन्द' का निवासी हो। जैसे की वर्तमान  भारत में रहने वाला  नागरिक भारतीय कहलाता है। उसी तरह  ततकालीन अखंड भारत  का  या हिन्दुस्तान ' का  रहने वाला हर शख्स 'हिन्दू' ही था। जिस तरह रूस में रहने वाले कजाख या उक्रेनी पहले रसियन ही कहलाते थे। अब चूँकि वे अलग राष्ट्र हैं ,इसलिए उनकी पहचान कजाकिस्तानी या उक्रेनी हो गयी।  इसी तरह अब पाकिस्तान ,बांग्ला देश बन गए  हैं तो कोई भी 'हिन्दू' नहीं रहा। कोई भारतीय हो गया। कोई पाकिस्तानी हो गया। कोई बांग्ला देशी हो गया।  हालाँकि  पूर्व में वे  सभी जाति  के, सभी रूप रंग के लोग सिंधु या हिन्दू या  'हिंदवी'  ही हुआ करते थे।  इसीलिये तो  मरहूम अल्लामा इकबाल  ने भी डंके की चोट पर कहा था : - हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ  हमारा,,,, सारे जहाँ से अच्छा ,,,,,,,हिन्दोस्ताँ  हमारा।

भारत में इन दिनों तथाकथित हिंद्त्ववादी सत्ता में हैं। महाराष्ट्र में तो तीन-तीन खूंखार हिन्दुत्ववादी  नेता और दल हैं। वे अपने आपको कटटर हिन्दुत्ववादी सिद्ध करने के लिए एक दूसरे  को ही नीचे दिखाने पर तुले हैं। कोई  किसी का भी मुँह काला कर रहा हैं।  कोई पाकिस्तानी कलाकारों और साहित्यकारों पर गुर्रा रहा है। कोई  भाजपा के वरिष्ठों को अपमानित करने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। साथ ही एक दूसरे  को लतियाना और चेहरे पर कालिख पोतने  में भी वे बड़े माहिर हैं। वे क्रिकेट की पिच खोदने ,पिक्चरों को बाधित करने ,गौ मांस विक्रय या भक्षण पर बड़े -बड़े सूरमा और वयान वीर हैं। लेकिन उन्हें हिन्दू शब्द का अर्थ मालूम नहीं। यदि  कदाचित उन्हें विवेकपूर्ण ज्ञान होता तो वे  इस विषय पर पुस्तकें लिखते। किन्तु अभी तो वे  हिन्दू शब्द की परिभाषा के लिए प्रतीक्षित आरटीआई का  जबाब देने की क्षमता  भी  अर्जित नहीं कर सके हैं ।  दरअसल भाजपा ,शिवसेना और संघ परिवार को हिन्दू,हिन्दी ,हिंदुत्व और हिन्दुस्तान शब्दों पता ही नहीं।  उन्हें अडानियों,अम्बानियों  के कारोबार  से मतलब है। हिंदुत्व तो वोट के लिए एक जरिया  भर है।

 श्रीराम तिवारी

                               

गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

हम उनको ही अवतारा उन्हें ही देव कहा करते हैं। [ poem by Shriram Tiwari]

मातृभूमि को लज्जित करती ,रिश्वत की सूर्पनखा देखो।

खूब जलाये अब तक हमने ,नकली राक्षस कुल  देखो।।

चारों ओर झुण्ड असुरों के  ,लूट रहे हैं  वतन -अमन  ,

आतंकवाद के खुम्भकरण  को  ,अठ्ठहास  करते देखो ।।


हे  राम के भोले भक्तो ! अब तक तुमने किसे जलाया  ?

असली रावण तो डगर-डगर , छुट्टा सींग मारते  देखो ।

कालचक्र के हवनकुंड में स्वाहा हुए अनेकों जनगण ,

भूंख गरीबी महँगाई की ,बदन  बढ़ाती  सुरसा देखो।

जब नर बन जाते  नारायण ,भू भार हरण करने को  ,

उनको ही अवतार उन्हें ही,अमर शहीद  मानों देखो।


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मर मिट कर हो पाता दाना , महा विटप तरुणाई में।

निहित स्वार्थी बहुरूपिये क्या ,सिंह  बने  बनराई  में ।। 

बाँधा जिसने सप्तसिंधु को ,नर-वानर संयोजन से ,

पुरषोत्तम की मर्यादा भूले  ,स्वार्थ की अंगड़ाई में।। 

युध्दभूमि पर जिनके  पग में नहीं सारथि रथ पद त्राण ,

अश्त्र-शस्त्र से ज्यादा ताकत ,कूटनीति चतुराई में। 

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मानव जब दानव वन जाये, दीन हीन  का लहू बहाए ।

लोकतंत्र की जन वैदेही  ,क्रूर निशाचर हर ले जाए ।। 

नैतिकता भूलुंठित प्रतिहत  ,कटे पंख  के वृद्ध जटायु ,

मरघट की ज्वाला को पागल ,मायावी  लंका ले जाए।

मक्कारी का मेघनाद तो  ,स्वार्थ की सत्ता का साधन , 

 अंधी श्रद्धा निपट निश्चरी  ,  नीति-नियति उस न भाये।

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           श्रीराम तिवारी



         

 

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

हम भारत के जन-गण एक विराट बेतरतीब भीड़ के रूप में एक दूसरे को धकियाने में जुटे हैं।


 मुख्यधारा के  परम्परागत मीडिया की मानिंद  इन दिनों सोशल मीडिया पर भी  हर किस्म की  दुर्घटनाओं , हादसों ,कौमी एवं जातीय दंगों  के वीभत्स  दृश्य प्रमुखता से पेश किये जा रहे हैं। जिसमें सिर्फ  एक -दूसरे की  गलतियाँ ही  दिखाई दे रहीं हैं।  न केवल दकियानूसी रूढ़िग्रस्त धर्मांध लोग बल्कि अधिकांस  प्रबुद्ध   वर्ग भी  'ओरों' की खामियाँ गिनाने में जी जान से  जुटा  हुआ है। इस मंजर को देखकर अपील करने को मन करता है। कि  हे  भारत के समस्त  बंधू-बांधवों ! हिन्दुओं -मुसलमानों ,स्वर्ण-दलितो  ,राष्ट्रवादी-अन्तर्राष्टीयतावादियो ,  धर्मनिरपेक्ष  बनाम साम्प्रदायिकतावादियो , फासिज्म वनाम लोकतंत्रवादियो -आप सभी अपने अपने वहम को ही सच मानते रहे , यदि इसी तरह मोहाच्छादित होकर दिशाहीन -नीतिविहीन विमर्शों से ही  चिपके रहे तो  'बागड़ खेत कब चर गयी'  इसका आपको पता  भी नहीं चलेगा। 

सभी तरह के  विमर्शवादियों से आग्रह है कि  वे अपनी अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता का उचित उपयोग तो करें  किन्तु इन दो पंक्तियों को भी हमेशा ध्यान में रखें। कि ''जब कभी किसी से दुश्मनी करो  तो जमकर करो, खूब करो। लेकिन  इतनी  गुंजाइश रखो कि जब मिलो तो शर्मिंदा न होना पड़े "

यदि हम भारतीय लोग रामायण -महाभारत कालीन चमत्कारों के सीरियलों में ही उलझे रहेंगे तो आधुनिक  भारत क्या खाक बन पायेगा ?  यदि हम राम जन्म तारीख  पर बहस  करेंगे , कृष्ण के मथुरा से द्वारिका भागने की घटना पर ही शोध करते रहेंगे, तो सूखा,बाढ़,और सुनामी से बचने की चिंता कौन करेगा ? यदि हम टूटे-फूटे खंडहरों में मंदिर-मस्जिद के भग्नावेश ढूँढ़ते फिरेंगे तो देश के  गरीब -निर्धन सर्वहारा और सूखा पीड़ित किसान के विमर्श का क्या होगा ? आतंक -अलगाव की समस्या दूर  कैसे होगी ? औरसबसे बड़ी बात - भारत आगे कैसे बढ़ेगा ? यदि हम गोकशी या क्रिकेट पर ही एक दूसरे का मुँह  काला करते रहे तो यह अमर शहीदों का अपमान होगा ! यदि हम  अपनी राजनैतिक ,सामाजिक  और सांस्कृतिक चेतना  सिर्फ कार्पोरेट सेक्टर के पसंदीदा विषयों पर न्यौछावर करते रहे तो  'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' की कहावत चरितार्थ  होगी। 

 हमारे साथ-साथ ही आजाद हुए दुनिया के कुछ मुल्क  और कौमे आज  हम से बहुत आगे निकल चुके हैं। यूरोप -अमेरिका ,रूस ,चीन -जापान ही नहीं बल्कि दक्षेश के पड़ोसी  मुल्क भी  जिस मुकाम पर  पहुँच चुके हैं। ये संदर्भ  हमारे विमर्श के केंद्र में ही  क्यों नहीं है?  यदि हम भूतपूर्व जगद्गुरु हैं तो  हम उस मुकाम  से पीछे क्यों हैं ,जिस मुकाम पर दुनिया के तमाम 'मलेच्छ,यवन ,आंग्ल,और जाहिल-काहिल तक पहुंच चुके हैं ? जब तक हम उनकी वर्तमान  ऊंचाई तक पहुंचेंगे तब तक वे  अगले मुकाम पर होंगे । जबकि हम  भारतीय जहाँ से चलना प्रारम्भ करते हैं गणेश परिक्रमा पूरी कर वहीँ वापिस पहुँच जाते  हैं।

देश के किसी भी वर्ग- जाति , क्षेत्र या समाज  की उपेक्षा कर कोई  अन्य दूसरा संगठित वर्ग - शक्तिशाली वर्ग  इस व्यवस्था की खामियों का कुछ  दिन बेजा फायदा तो उठा सकता है। किन्तु  वह देश  को आगे कदापि नहीं ले जा  सकता। जिस तरह  बहुसंख्यक हिन्दुओं  को छोड़कर देश आगे बढ़ना चाहे तो भी नहीं बढ़ सकता। उसी  तरह अल्पसंख्यक  वर्गों की उपेक्षा कर के भी  देश आगे नहीं बढ़ सकता। क्योंकि  सांस्कृतिक  ,सामाजिक और  आर्थिक विविधताओं -संभावनाओं से लबालब  इस  विकास रुपी  'भारतीय राष्ट्रीय ट्रेन ' का इंजन एक ही है।

दरअसल हमअभी तक  एक 'राष्ट्र 'ही नहीं बन पाये हैं। हम  भारत के जन-गण एक विराट बेतरतीब भीड़ के रूप में एक दूसरे  को धकियाने में जुटे हैं। चूँकि किसी के  पूर्वजों ने  किसी के पूर्वजों के धर्मस्थल या इबादतगाह को छति पहुंचाई होगी ,सो उनके वंशजों को इस भारत विकास की गाड़ी पर चढ़ने ही नहीं दिया जाएगा। चूँकि किसी के पूर्वजों ने  किसी के पूर्वजों पर घोर अत्याचार किये होंगे ,इसलिए अब इस आधुनिक वैज्ञानिक युग की विकास यात्रा में  उन्हें गाड़ी पर  प्रवेश वर्जित है। कुछ लोगों को बताया गया है कि  उनके हिस्से का त्याग ,बलिदान और  अवदान उनके पूर्वज भुगत चुके हैं. इसलिए अब इस विकास यात्रा  में उन्हें आरक्षण  का उनका वंशानुगत जन्म सिद्ध अधिकार है।  जिन लोगों के पूर्वजों ने अपने श्रम  के पसीने से सभ्यताओं का विकास किया , उनके वंशज आज भी पसीना बहाकर  दो जून की रोटी का इंतजाम करने की फ़िक्र में पस्त हैं। यदि बुद्धिजीवियों के विमर्श में वे नहीं हैं तो वह सृजन गटर साहित्य की श्रेणी का ही होगा।

आज २१ वीं  शताब्दी के पूर्वार्ध में जबकि शेष दुनिया उधर खड़ी है जहाँ तक पहुचने के अभी  हम भारतीयों ने सपने देखना भी शुरू नहीं किया है। आज जबकि  सूचना - संचार एवं सम्पर्क क्रांति में भारतीय युवाओं की दुनियाँ  में तूती  बोल रही है। दुनिया की विशाल आबादी रूप में  और अनेक राष्ट्रीयताओं के योगिक के रूप में  , दुनिया के विराट बाजार के रूप में  उपस्थति दर्ज कराने के बावजूद भारतीय राष्ट्रवाद हासिये पर है। एक तरफ  हिंदुत्ववालों का  राष्ट्रवाद है जो 'अखंड भारत' की बात तो करते हैं, किन्तु  व्यवहार में जो कुछ टूटा-फूटा राष्ट्र  अभी बचा है ,उसे ही  कुरेदते रहते हैं। दूसरी ओर नक्सली हैं , कश्मीरी और अन्य आतंकी -जेहादी हैं ,जो पड़ोसी  पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसिया  से मार्गदर्शन लेते  हैं। जमात-उड़ दावा ,अल कायदा ,आईएसआईएस जैसे समूह  जिनके माई-बाप हैं। जो लोग आत्मघाती फिदायीन बनकर  भारत विकास  रुपी ट्रैन में यात्रा के बहाने  धमाके के लिए तैयार हों ,वे भारत के विकास में  खाक योगदान करेंगे ?

 यदि  भूले -भटके तमाम युवा  कठमुल्लों  के बह्काबे में आकर संविधान  दायरे में अपनी-अपनी बात रखेंगे तो 'भारत राष्ट्र ' का निर्माण सम्भव है। आधुनिक सोशल मीडिया  तो मानवता के लिए वरदान बन सकता है  वशर्ते  नियति नीति और नेता अच्छे हों। हम सभी को  इतिवृत्तात्मक आलेखों और प्रतिरोधी आवाजों को  नकारात्मक रूप में नहीं बल्कि स्वश्थ आलोचना के रूप में देखने की आदत डाल लेनी  चाहिए। सरकारों के कार्यक्रम और नीतियाँ   हों उनमें  हमें  सामाजिक पुनर्रचना और सर्वसमावेशी सामूहिक विकास के सूत्र खोजना  चाहिए। यदि  कोई सरकार किसी खास वर्ग या कौम को छोड़कर विकास की गाड़ी आगे  बढ़ाती है तो  गाड़ी के आगे बढ़ने  की कोई गुंजाइश  नहीं। लोकतान्त्रिक तरीकों से जनांदोलन चलाने वालों को , नीतियों -कार्यक्रमों से असहमत लोगों  को सनातन विरोधी मानकर ,विकाश की गाड़ी से नीचे नहीं उत्तर जा सकता। यदि  जबरन गया तो पांच साल में सत्ता पलटने का अधिकार तो जनता को है ही।

  देश और दुनिया में कहीं भी किसी भी तरह की एकल या सामूहिक हिंसा पर ,सरकार या समाज की,कवियों - साहित्यकारों या बुद्धिजीवियों की न तो चुप्पी बर्दास्त की जानी  चाहिए  और न ही परस्पर के परम्परागत   विरोधियों को  कमजोर समझना चाहिए। क्योंकि द्वंद्वात्मकता का सिद्धांत वाद-प्रतिवाद और संवाद की हाइपोथीसिस पर ही टिका हुआ है।  द्वन्द में शक्तिशाली की ही विजय होती है । लेकिन ह्म चाहते हैं की विजय मानवता की हो ,इंसानियत की हो!  हमारा नारा है कि बेइमानी  और बर्बरता परास्त हो ! हमारी तमन्ना है कि  श्रम  का सम्मान हो और सत्य की विजय हो ! श्रीराम तिवारी

                                                          

तस्लीमा नसरीन को १६ वीं सदी छोड़कर २१ वीं में आ जाना चाहिए !

 यद्द्पि तस्लीमा नसरीन अपने मादरे -वतन 'बांग्ला देश ' में वहाँ  के अल्पसंख्यक हिन्दुओं -ईसाइयों  के सामूहिक कत्लेआम की गवाह रहीं हैं।उन्होंने नस्लीय और मजहबी उन्मादियों के हिंसक हमलों को भी अनेक बार भुगता है।ऐंसा लगता है की उन्होंने  भारतीय उपमहाद्वीप में  हिन्दुओं की दुर्दशा को बहुत नजदीकी से देखा है। इसीलिये नियति ने उन्हें इस्लामिक आतंक  का  कट्टर आलोचक बना दिया  है। लेकिन  इस विमर्श में उनका जस्टिफिकेशन  निहायत ही  खतरनाक और प्रतिक्रियावादी है। क्या वे यह  कहना चाहतीं हैं कि ईंट का जबाब पत्थर से  दिया जाए  ?

याने  जिस तरह पाकिस्तान व बांग्ला देश के इस्लामिक कटट्रपंथियों ने वहाँ के अल्पसंख्यक  हिन्दू समाज को चुन-चुनकर खत्म  कर दिया है ,ठीक उसी तरह  भारतीय बहुसंख्यक  हिन्दू समाज  भी हिंसक आचरण करने का हकदार है ? यदि तस्लीमा  ने भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत  पढ़े होते ,यदि  उन्होंने  गौतम , गांधी ,महावीर, नानक ,अम्बेडकर  के  उच्चतम सिद्धांत  रंच मात्र भी पढ़े होते तो वे इस तरह की भोंडी- उथली परिकल्पना पेश नहीं करतीं। सम्मान वापिसी वाले साहित्यकर हिन्दुविरोधी या मुस्लिम समर्थक नहीं हैं।  वे तो भारतीय सम्विधान और उसकी मूल अवधारणा की रक्षा के लिए कृत संकल्पित हैं। यह 'सम्मान वापिसी ' तो  क्रांतिकारी साहित्यकारों का एक  'सत्याग्रह' शस्त्र मात्र  है। तस्लीमा इस ऊंचाई पर अभी तक तो नहीं पहुँची।
वास्तव में उनकी  हालत उस मूर्ख अंगरक्षक जैसी है जो सोते हुए राजा की गर्दन पर बैठी मख्खी भगाने के लिए तलवार चला देता है। मख्खी उड़कर भाग जाती है। राजा मारा जाता है। तस्लीमा जैसे शुभ चिंतक  या मित्र  जिनके पास   हों उन्हें दुश्मनों की जरुरत नहीं।

 हालाँकि  वे एक तरह से एक विशुद्ध  साहित्यक  हस्ती के रूप में ,सरसरी तौर  पर  बँगला देश में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की पैरोकार और पक्षकार  रहीं  हैं। तो ठीक है न !  भारतीय साहित्यकार  और खास तौर  से उच्च मान  - सम्मान  प्राप्त बुद्धिजीवी  भी  कर रहे हैं। वे  तस्लीमा से गए गुजरे नहीं  हैं। कलि बुर्गी  ,पानसरे दावोल्कर और बेक़सूर निरीह लोगों  की हत्या के जिम्मेदार लोग यदि खुले आम राष्ट्र के संविधान को चुनौती दे रहे हों ,  यदि राज्य सरकारें  लोगों के जानमाल की हिफाजत  में असफल  हों  तो केंद्र सरकार की ड्यूटी क्या  बनती है , यह तो  पढ़ा लिखा साहित्य समाज  ही  बताएगा न !  जब  विचार अभिव्यक्ति  के प्रचेता  साहित्यिक लोग   निरंकुश धर्मांध हत्यारों  के हाथों मारे जा रहे हों तो क्या  शेष भारतीय साहित्यकारों को सत्ता की आरती उतारते  रहना  चाहिए ?  क्या बाकई   देश में  दमित-शोषित , गरीब और अल्पसंख्यक वर्ग पर अत्याचार   नहीं हो रहे ?  क्या वो अपने घर की बैठकर  सम्मान पदक  को निहारता रहे ?    

 तस्लीमा  को  लगता होगा कि इस तरह के  धमाकेदार  वाहियात बयान से  वे न केवल  भारत का नमक  अदा कर सकेंगी ,अपितु  इस्लामिक कट्टरपंथ को भी आइना दिखाने में कामयाब होंगी । इस तरह की खोखली और  तोतली बातों से नसरीन  बच्चों को बहला सकतीं। क्या नसरीन का  यही  बौद्धिक  स्तर है कि  वे विराट भारतीय लोकतंत्र के  उदार और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की तुलना   पाकिस्तान -बांगला देश की कटटरपंथी अनुदार -बहशी  फौजी  व्यवस्थाओं से   करना चाहती हैं ? जहाँ केवल   दिखावे मात्र का लोकतंत्र है। बँगला देश और पाकिस्तान के कटटरपंथी यदि आदमखोर नरभक्षी हैं तो क्या हम भारत के लोग भी वही करें ?  भारत ने बुद्ध ,महावीर,गांधी और मौलाना आजाद के उसूलों को चुना है। वेशक   पाकिस्तान और बांग्ला देश  के उग्रवादियों ने  घृणा का मार्ग चुना होगा।  इसीलिये वे उसके शिकार हैं। वे भारत  के लिए  न तो तुलना के योग्य हैं और न ही   इतने ऊँचे कद के हैं कि  उन्हें भारतीय साहित्यकरों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया जाए। भारतीय साहित्यकार ,लेखक और  बुद्धिजीवी  राष्ट्रीय स्वाधीनता  संग्राम के मूल्यों  और भारत की गंगा -जमुनी तहजीव के बरक्स ही सृजन करता  है।  भारतीय साहित्यकारों को तस्लीमा से नसीहत की जरुरत नहीं है।

आजादी के बाद जब -जब पाकिस्तान या उनके एसोसिएट मजहबी  कटटरपंथी वर्ग ने भारतीय मुसलमानों को बरगलाने ,फुसलाने की कोशिश की या उनके लिए मगरमच्छ के आंसू बहाये ,तब-तब भारत के अधिकांस मुस्लिम धर्म गुरुओं,उलेमाओं ने शिद्द्त से केवल उन्हें फटकार लगाईं ,बल्कि इस्लाम की सही व्याख्या करते हुए अपनी राष्ट्रनिष्ठा और काबिलियत का प्रमाण पेश किया है। यदि कुछ राजनीतिक दल या व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए इधर-उधर अल्पसंख्यक वर्ग को उकसाता है या भरमाता है तो वो  'मदरसा वाला जमाना  भी अब  लद  चुका  है।  मुस्लिम युवा भी अब हाई  हो चुके हैं। वे भी  समझने लगे  हैं कि  धर्म-मजहब -इबादत को राजनीति में घुसेड़ना  एक किस्म की बेईमानी है। यदि कुछ  बेरोजगार युवा प्रलोभन में आकर नावेद या कसाब बन जाए  भी तो यह बाजारबाद और पूँजीवादी  विफलता के अवश्यम्भावी परिणाम हैं। यह वैश्विक चेतना का संकट भी हो सकता  है।  भारतीय साहित्यकार यदि  भारत समेत   वैश्विक आतंकवाद और निरंकुश सत्ता प्रतिष्ठान को सभ्य तरीके से आइना दिखा रहे हैं ,तो इसमें तस्लीमा  की समस्या क्या है  ? दरसल नसरीन को १६ वीं सदी  छोड़कर २१ वीं में आ जाना  चाहिए

तस्लीमा के  बयान से जाहिर होता है की  वे डॉ भीमराव अम्बेडकर  को भी चुनौती दे रहीं हैं। उन्हें लगता है कि    उन्होंने बहुत बड़ा तीर  मारा है। पाकिस्तान में सैकड़ों पत्रकार ,लेखक  बुद्धिजीवी हिन्दुओं की आवाज उठाते-उठाते वेचारे खुद ही उठ गए। और जब खुद  तस्लीमा  जी भी  बँगला देश  में हिन्दुओं पर हुए अत्याचारों पर दुनिया भर में अपना विरोध दर्ज कराती रहीं हैं  तो भारत  के  साहित्यकर  से उस पुनीत कर्तव्य की उम्मीद क्यों नहीं की जानी चाहिए ?  क्या भारत में बढ़ती जा रही दरिंदगी , कटटरता पर साहित्यकारों को मुशीका लगा लेना चाहिए ? क्या सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान , शहादत हसन  मुन्टो ,इस्मत चुगताई ,सरदार जाफरी ,राही मासूम रजा ख्वाजा अहमद अब्बास मुस्लिम होते हुए भी हिन्दुओं के हमदर्द  नहीं थे ? अब यदि  तस्लीमा जी  ने भी यदि हिन्दुओं  के पक्ष में बयान दिया है तो यह  कोई नयी बात नहीं है। 

 वेशक  सम्मान वापिसी 'आंदोलन की आलोचना कर तस्लीमा ने एक  उपकार  तो अवश्य ही इस लेखक विरादरी पर किया है। अभी तक तो  अभिव्यक्ति के  खतरे और असहिष्णुता का दायरा केवल भारत ही था  लेकिन  तस्लीमा नसरीन  ने न केवल उसका दायरा  बढ़ाया है बल्कि विमर्श में ताजगी भर दी है। अब ये बात जुदा  है कि तस्लीमा की बात को हवा में उड़ा दिया जाता है या उसकी तार्किक समीक्षा की जाने की जरुरत है !
यह सच है कि  भारत -पाकिस्तान की जुड़वा आजादी के  पूर्व ही  जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान  की माँग अंग्रजों  के समक्ष  रखी तो  सिंध ,बलुचस्तान, पख्तुनिस्तान और सीमान्त क्षेत्रों में अहिंसक हिन्दुओं  और  कांग्रेसियों  को चुन-चुन कर मार दिया गया। अधिकांस गरीब और मजबूर हिन्दू कत्ल कर दिए गए। पश्चिमी  पंजाब में कुछ मुस्लिम और सिख भी लड़ मरे। पाकिस्तान में  हिन्दुओं पर अत्याचार तो  आज तक नहीं रुके। उन्होंने तो कश्मीरियों के हाथों  बन्दुक थमा दी और कश्मीर से लाखों हिन्दू पलायन कर गए या वहीं मारकर दफन कर दिए गए। लेकिन बात जब  भारतीय मूल्यों की  होगी तो धर्मनिरपेक्षता ,समानता ,लोकतंत्र उसके प्रमुख  स्तम्भ होंगे। पाकिस्तान फौज तो खुद उनके बच्चों की रक्षा भी उन्ही के देश में नहीं कर सकी तो वे पाकिस्तान की क्या खाक रक्षा कर सकेंगे ?  भारत से लड़ने की उनकी क्षमता तो १९७१ और १९६५ में वे देख ही चुके हैं। बांग्ला देश  के गुमराह फौजी भी इसी तरह मुँह  की खा चुके हैं। भारत में भी बहुसंख्यक वर्ग को उन्मादी भीड़ बनाकर सामूहिक नर संहार  करने के कई उदाहरण हैं।  यदि साहित्यकारों की पैनी नजर उस धर्मान्धता और हिंसक प्रवृत्ति पर  है तो  यह तो भारत के लिए अमूल्य वरदान है। 

स्वामी विवेकानंद  से  किसी ने  शिकागो के विश्व धर्म  सम्मेलन में  पूंछ लिया कि  "स्वामी जी जब आपके  देश भारत  में आप जैसे  महानतम ज्ञानी  और महात्मा लोग  हैं  तब  आपका देश  गुलाम क्यों  बना हुआ है ? " प्रश्न सुनकर स्वामीजी न केवल आहत हुए ,बल्कि गंभीर हो गए। उन्होंने तब तो प्रश्न कर्ता का  उत्तर नहीं दिया किन्तु अगले रोज उन्होंने विश्व धर्म मंच से सिंह गर्जना करते हुए -उसी सवाल का सार्वजानिक रूप से  ऐतिहासिक जबाब पेश किया। मेरे प्रस्तुत  आलेख में स्वामी जी के  पूरे  भाषण को उदधृत  करना सम्भव नहीं।  फिर भी जो लोग विस्तार से जानना चाहें वे स्वामी जी के शिकागो धर्म महा सभा के भाषणों को अवश्य पढ़ें।  जिनका सार संक्षेप यह है कि ' भारत  में ज्ञान की कोई कमी नहीं है। खास  तौर  से हिन्दू दर्शन को जानने - समझने वालों को  दुनिया के अन्य  किसी ध्रर्म प्रवर्तक से  कोई धर्म  अध्यात्म ,राजनीति ,आयुर्वेद या सभ्यता संस्कृति  का ज्ञान  सीखने  की कोई जरुरत  नहीं है। अध्यात्म  से परिपूर्ण भारत में दुनिया के लोग जा-जा कर  धर्म -प्रचारक भेजते हैं। फिर  वे हथियार और असलाह भेजकर गुलाम बना लेते हैं ". भारत को  ज्ञान नहीं  स्वाधीनता चाहिए ,रोटी चाहिए ,उसका स्वाभिमान वापिस चाहिए "

ऐंसा   लगता है कि तस्लीमा नसरीन ने अपने ही भाषायी सहोदर स्वामी जी को ठीक से नहीं पढ़ा। यदि पढ़ा होता तो वे  प्रगतिशील भारतीय साहित्यकारों का इस  प्रकार अवमूल्यन  नहीं करतीं। अव्वल तो भारतीय साहित्य कारों को किसी से ज्ञान उधार लेने की जरूरत ही नहीं है। दूसरी बात  उनका यह आकलन गलत है कि
साहित्यकार सिर्फ प्रोमुस्लिम ही हैं। तस्लीमा पर भी  कट्टरपंथी इस्लामिक मूवमेंट की ओर  से प्रोहिंदु होने  के  आरोप  लगे हैं तो इसमें  गलत क्या  है ? यदि  तस्लीमा सही तो  भारतीय साहित्यकारों का आचरण गलत  कैसे हो सकता है ?

बांग्ला देश से निष्काषित और  इस्लामिक कट्टरवाद से आजीवन संघर्ष  करने वाली बहादुर बांग्ला लेखिका  तस्लीमा नसरीन  से अधिकांस भारतीयों और खास तौर  से हिन्दुओं को हमदर्दी रही हैं।  शायद उनके पाठक मुसलमान कम हिन्दू ज्यादा  ही होंगे। उनकी 'लज्जा' जैसी कुछ किताबें तो  मैंने  भी  पढ़ी हैं । अब  खबर है कि तस्लीमा ने   भारतीय लेखकों -चिंतकों   -साहित्यकारों  की खूब   खिचाई  की  है। इन साहित्यकारों की  धर्मनिरपेक्षता  को  विशुद्ध हिन्दू विरोधी और इस्लाम परस्त बताकर  तस्लीमा नसरीन ने  अपनी शोहरत को बुलंदियों पर मुकाम दिया है। उन्हें और उनके प्रशंषकों को बधाइयाँ !    श्रीराम तिवारी

                    

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

हर मुश्किल दौर में जो कुछ बलिदान करने की क्षमता रखते हैं , हीरो भी वही हुआ करते हैं।

देश के सत्तारूढ़ नेतत्व  को अचानक इल्हाम हुआ है कि साहित्यकारों के 'विरोध  प्रदर्शन' से दुनिया भर में  भारत  की साख घटी  है।बकौल बैंकैया नायडू - 'छोटी -मोटी -घटनाओं' के बहाने सरकार के समक्ष अपना विरोध प्रकट करने वाले साहित्यकारों के 'सम्मान वापिसी' प्रचार से दुनिया में भारत की  बहुत बेइज्जती हो रही है। बयोबृद्ध  खब्ती,डेढ़  पसली के कलिबुर्गी  ,पानसरे ,दाबोलकर जैसे रेशनलिस्ट चिंतकों , बुद्धिजीवियों  और  विचारकों की  हत्याओं पर इतना  हंगामा क्यों बरपा है ?दादरी में भीड़ द्वारा मार दिया गया अख्लाख़ क्या  इतना बड़ा आदमी था  कि उसके लिए ये नामचिन्ह -बड़े बड़े साहित्यकार हलकान  होते रहें  ? सम्मान पदक और उपाधियाँ लौटाने लग जाएँ । वेंकैया जी को  और उनके आकाओं को विदित हो कि  जिसके पास जो होगा  वही  तो लौटाएगा न  ! दरसल जिनके पास सम्मान है वे सम्मान लौटा रहे हैं। जिनके पास  नस्लीय गालियाँ  हैं ,मजहबी  घृणा है ,वे  वही लौटा  रहे हैं।

बार-बार कहा जा रहा है कि  कश्मीरी पंडित मारे जा रहे थे तब साहित्यकार कहाँ थे ? जब  १९८४ के सिख कौम  विरोधी दंगों में देश धधक रहा था तब साहित्यकार कहाँ थे ? इन सवालों को हवा में उछालकर वे यह भूल जाते हैं कि  इतिहास के किसी भी  कठिन दौर में  साहित्यकार की कलम नहीं रुकी। गड़े-मुर्दे उखाड़कर अंततोगत्वा संघ श्रीमुख से वह चीज बाहर आ ही जाती है , जो इस परिवार के अंदर पूरे उफान पर  है। उनकी इस प्रतिक्रिया से सिद्ध हो गया कि साहित्यकारों  ने साम्प्रदायिक और असहिष्णुता की सत्ता के मर्म  को  गंभीर चोट पहुँचाई  है। जेटली जी ,वेंकैया जी ,राकेश सिन्हा जी ,संबित पात्रा  जी ,सुधांशु जी समेत तमाम सत्ता के चारणों -भाटों ने  मीडिया  के माध्यम  से जो अनवरत  स्पष्टीकरण - सफाई अभियान  चला रखा है ,उसमें 'भारत की बदनामी' जुमला शतक बना चुका है। उससे  देश की आवाम को भी अब एहसास होने लगा है कि मुठ्ठी भर  साहित्यकारों के इस प्रतिरोध से देश की बदनामी तो नहीं हुई ,किन्तु मोदी सरकार की बदनामी जरूर  हो रही है। यकीन न हो तो 'रा' वालों से तस्दीक करलें।

यद्द्पि साहित्यिक विरादरी  भी पूरी की पूरी  विप्लवी या  शहीद भगतसिंह  के उसूलों वाली  नहीं है। यहाँ  भी  कुछ जाति  विमर्श वादी हैं ,कुछ पूँजी विमर्शवादी हैं  कुछ केवल स्त्री विमर्शवादी हैं। बचे खुचे बाकी सब  पूरे सौ फीसदी दक्षिणपंथी प्रतिक्रयावादी हैं। अब यदि दस- बीस साहित्यकार अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं तो यह उनका सहज सैद्धांतिक स्वभाव और दायित्व है। वैसे भी  हर मुश्किल दौर में जो कुछ बलिदान करने की क्षमता रखते हैं , हीरो भी वही  हुआ करते हैं। इस विषम दौर में भारत के असली हीरो वही  हैं जो सत्ता को आइना दिखा रहे हैं।

दरसल भारतीय सत्ताधारी नेतत्व और उसके पिछलग्गू  जो सोच रहे हैं,बात वैसी नहीं है। सच्चे देशभक्तों को  यह जानकर ख़ुशी होगी कि साहित्यकारों के इस फैसले से भारत की  'साहित्यिक  बौद्धिक चेतना' को  नए पंख लग गए हैं। साहित्यकारों ने अनायास ही  भारत को विश्व के उच्चतर सोपान पर खड़ा कर दिया है। भारत में लेखकों  साहित्यकारों ,विचारकों  चिंतकों की संख्या करोड़ों में होगी । किन्तु भारतीय गंगाजमुनी तहजीव   की  रक्षा के  वास्ते , धर्मनिरपेक्ष मूल्यों  की हिफाजत के वास्ते और लोकतान्त्रिक गणराज्य की मूल अवधारणा के वास्ते -सम्मान पदक लौटाने वाले जावाँज -भारत के ये ४० सितारे  सारे संसार में भारतीय 'बौद्धिक चेतना' की  दिव्यतम छटा  बिखेर रहे हैं।

वेशक साहित्यकारों के  इस अवदान से भारत का और भारतीय साहित्य का तो दुनिया में मान बढ़ा है। किन्तु संघ परिवार और मोदी सरकार की साख तेजी से गिर रही है। अपने बचाव में संघ और भाजपा  के प्रवक्ता गण  साहित्यकारों को कांग्रेस की माँद  में  जबरन धकेलने की कोशिश  कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि  इन परम  कूड़मगज बौद्धिकों ने सिर्फ गुरु  गोलवलकर का 'विचार नवनीत' ही पढ़ा है।  वास्तविक साहित्यकारों की शायद ही कोई पुस्तक इन्होने नहीं पढ़ी। काली बुर्गी  दाभोलकर या पानसरे तो बहुत दूर की बात है इन्होने तो शायद कभी   मुनव्वर राणा  और राजेश जोशी  को भी  नहीं पढ़ा। अन्यथा वे साहित्यकारों पर कांग्रेसी होने का  आरोप नहीं  लगाते। यदि  संघ परिवार में कोई साहित्य का ककहरा भी  जानता है तो बताये कि मुनव्वर राणा  और राजेश जोशी की  किस रचना  में संघ' प्रवक्ताओं ने  कांग्रेसवाद पढ़ लिया ?  कृपया सूचित करें। ताकि इनके बारे में हम भी अपनी धारणा  दुरुस्त कर सकें।    

श्रीराम तिवारी

                                 

बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

सवाल यह नहीं है कि किसने किसका मुँह काला किया ? सवाल ये होना चाहिए कि क्यों किया ?


मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही देश में यत्र-तत्र सामाजिक असहिष्णुता ,अंधश्रद्धा और पाखंडवाद प्रेरित हिंसक घटनाएँ बढ़ती ही जा रहीं हैं । इस दौर के निजाम और नीतियों से असहमत साहित्यकारों ,लेखकों कवियों, बुद्धिजीवियों पर  कट्टरपंथी संगठनों द्वारा जान लेवा हमले किये जा रहे हैं । चूँकि शासन-प्रशासन और अकादमिक संस्थान इस हिंसक  प्रवृत्ति  पर कोई कारगर कदम नहीं उठा सके ,अतएव देश के चुनिंदा नामचीन लेखक ,कवि और साहित्यकार अपने सम्मान पदक और पदवियाँ लौटाने लगे हैं। हालाँकि नामवरसिंह ,चंद्रकांत देवताले जैसे मूर्धन्य आलोचक-कवि -साहित्यकार अभी  सम्मान पदक आदि लौटाने के पक्ष में नहीं हैं। ये लोग अभिव्यक्ति पर बढ़ते हमले और कट्टरपंथ के बढ़ते हिंसक स्वभाव पर चिंतित तो हैं किन्तु साहित्य अकादमी या अन्य मंचों द्वारा दिए गए सम्मान की वापिसी को उचित नहीं मानते।वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व  अन्य लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए साहित्य  की ताकत को पर्याप्त मानते हैं और इसके प्रयोग  किये जाने के पक्ष में हैं। मुझे भी नामवरसिंह और चंद्रकांत देवताले का नजरिया पसंद आया।

 विगत दिनों देश  भर में  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  और खाने-पीने ,पहिनने ओढ़ने की आजादी पर जो हमले हुए हैं। इन हमलों में कुछ  चुनिंदा  प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ताओं और साहित्यकारों की निर्मम हत्याओं हुईं हैं। कुछ निर्दोष अल्पसंख्यक और कमजोर वर्गों के लोगों को भी उन्मादी भीड़  द्वारा हलाक किया गया है। इस तरह की अनवरत  हिंसक घटनाओं  से 'बौद्धिक जगत' में खलबली मची  है। देश के  संवेदनशील लोगों में भी  बहुत बैचेनी है ।दादरी में एक  मुस्लिम  परिवार के तथाकथित  बीफ खाने  की बात पर हिंसक हमले  के बाद  तो देश के न केवल   वामपंथी बुद्धिजीवी  और   साहित्यकार  बल्कि मध्यममार्गी  उदारवादी  जमातों में भी आक्रोश का स्वर गूँजने लगा है। बद  हालात के मद्दे नजर अधिकांस बौद्धिक प्रतिभाओं ने अपने आक्रोश को  भी अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया है। साहित्य अकादमी सम्मान पत्र,पदक और तमगे वापिस किये जा रहे हैं। किन्तु  सत्ता प्रतिष्ठान के सोपान पर बैठे  बाचाल शुक  इस कलंक कथा पर मौन हैं।  
 
इन घटनाओं पर  वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व ने चतुराई पूर्ण चुप्पी साध रखी है। जबकि  अभिव्यक्ति का खतरा उनके घर तक  भी जा पहुंचा है। जो लोग खुद इस  दक्षिणपंथी असहिष्णुता रुपी खतरे के सृजनहार  हैं। उन लोगों में से ही एक -भाजपा के संस्थापकों में  से एक -संघ  प्रशिक्षित  और अटल-आडवाणी के परम सहयोगी रहे  श्री सुधींद्र  कुलकर्णी जी जब सोमवार को मुंबई शहर के एक बौद्धिक कार्यक्रम में अपना 'काला मुँह ' लिए हुए देखे गए। तो न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान के मीडिया पर सिर्फ उन्ही का जलवा था। चूँकि कुलकर्णी जी  पाकिस्तानी पूर्व विदेशमंत्री कसूरी की पुस्तक के विमोचन के लिए अपना  मंच देकर उस पर सुशोभित हो रहे थे। सरसरी तौर पर मीडिया को और कलमघिस्सू  अबूझ पत्रकारों को  यह सब शिवसेना और भाजपा का अंदरुनी झगड़ा लगता है।  किन्तु  कुछ विवेकशील लोगों को  इसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  को खतरा और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के  हनन का मामला  स्पष्ट दिख रहा है।  
 
कुलकर्णी का  कृष्णमुख किये जाने  की  घटना से यह तो  प्रमाणित हो गया कि  भारतीय लोकतंत्र की नैया डांवाडोल हो रही है। यह भी जाहिर हो गया कि भारत-पाकिस्तान मैत्री कायम करने का सपना केवल 'कामरेड' या कांग्रेस का ही विजन नहीं रहा। बल्कि संघ के  भी कुछ लोग दवे  सुर में भारत-पाक मैत्री राग गाने लगे हैं। शायद वे  भी चाहते हैं कि भारत-पाक में बढ़ती  दूरियाँ कुछ तो कम हों।इसीलिये  कालिख पोते जाने के  बहाने सुधींद्र जैसे बुजुर्ग 'संघी 'भाई  भी  नाखून कटाकर शहीदों में शामिल  हो गए   हैं । इससे पहले इन्द्रेसकुमार भी अपने तई  कुछ इसी तरह की जुगाड़ करते रहे  हैं । भाजपा और संघियों को  इस बात की बधाई कि उनके कुनबे में कोई तो  'मर्द'  निकला ।  शिवसेना की गुंडई के सामने न झकते हुए,कालिख पुते चेहरे से ही कुलकर्णी ने  कसूरी की किताब को विमोचित करके  न केवल शिवसेना बल्कि  पाकिस्तान  में  बैठे आतंकियों  को भी  जता  दिया कि अभी तो लोकतंत्र  और सहिष्णुता ही सिरमौर है।   कुलकर्णी की यह  पवित्र जिद  उनके 'रामराज्य ' की स्थापना में काम आये न आये किन्तु 'भारत -पाकिस्तान' मैत्री के बहुत  काम आएंगी । बधाई-शुभकामनायें !
 
कुलकर्णी कृष्णमुख कलंक कथा की बदनामी का ठीकरा शिवसेना के माथे भले ही फूटा हो, किन्तु अब यह सिद्ध हो  चुका है कि भारत -पाकिस्तान मैत्री के समर्थक सिर्फ वामपंथी बुद्धिजीवी या मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते ही नहीं  बल्कि  अब  तो भाजपा और संघ परिवार में भी कुछ  'चिंतक' पैदा हो चुके हैं। हालाँकि उनके इस क्रांतिकारी  बदलाव के तथ्य का संज्ञान लेवा उधर के  ठस दिमागों में कोई नहीं है। पाकिस्तान में भी उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। दरअसल यह सर्वहारा अंतरराष्टीयताबाद का फंडा मूलतः वामपंथी मार्क्सवादी  बुध्दिजीवियों के दिमाग की उपज  है।यह कठिन  अग्निपथ है,जिसपर चलकर  फैज-अहमद -फैज होना पड़ता है। जीएम सईद  होना पड़ता है । आसफा जहांगीर होना पड़ता है। कभी-कभी  वेदप्रताप वैदिक और हामिद मीर भी होना पड़ता है। अंतर्राष्टीय सीमाओं की जमीनी हकीकत और भारतीय उपमहाद्वीप के समानधर्मी डीएनए के वावजूद यदि दोनों ओर से गोले बरस रहे हैं,तो हर वह शख्स जिसके सीने में इंसानियत का जज्वा है वो सुधींद्र कुलकर्णी होकर तो  गौरवान्वित  ही होगा । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह  'संघी'  हैं।  माओ ने कहा था '' बिल्ली काली हो या सफेद यदि चूहे मारती है तो हमारे काम की है " यदि कुलकर्णी -कसूरी  ने भारत -पाक की तनातनी कम करने के लिए  कोई मंतव्य  रचा है ,तो महज एक पत्थर ही उछाला है।  तो  पुस्तक विमोचन के बहाने भी वह इस दिशा में उनका एक सराहनीय योगदान है। 
 
देश और दुनिया में   बढ़ रही अंधाधुंध साम्प्रदायिक कटटरता ,अंध श्रद्धा ,अंध राष्ट्रवाद और असहिष्णुता न केवल  भारत के लिए घातक  है ,बल्कि पाकिस्तान के लिए तो और भी  ज्यादा खतरनाक है। भारत तथा पाकिस्तान के मजदूर-किसान और  वामपंथी बुध्दिजीवी इन खतरनाक प्रवृत्तियों के खिलाफ बहादुरी से अपना गरिमामय आक्रोश व्यक्त करते आ  रहे हैं।  कुर्बानियाँ  भी दे रहे हैं। जबकि भारत -पाकिस्तान के कटरपंथियों ने  हमेशा केवल रायता ही ढोला है।  भारतीय उपमहाद्वीप  का अधिकांस  जड़तावादी समाज  अभी भी १६ वीं शताब्दी में ही जी रहा है। चूँकि भारत के  दक्षिणपंथी साहित्यकार और पाकिस्तान के भारत विरोधी लेखक  और बुद्धिजीवी भी यथास्थतिवादी तथा  सत्ता के चारण -भाट ही हैं। ये लोग   न तो व्यवस्थाओं की  कोई आलोचना कर सकते हैं और न वे  समाज विज्ञानी हो सकते  हैं। वे तो  वैज्ञानिक और तर्कवादी लोक चेतना का ककहरा  भी नहीं जानते । उन्हें  केवल  अतीतकालीन  काल्पनिक स्वर्णिम इतिहास का नास्ट्रेजिया ही सुहा  रहा है। इसीलिये  जब  पाकिस्तान में जनतंत्रवादियों को पीटा जाता है ,पत्रकारों और सोशल वर्कर्स को मारा  जाता है तब  भारत के लोग चुप रहते हैं। जब  भारत में सुधींद्र  कुलकर्णी का मुँह काला  किया जाता है तो पाकिस्तान में पत्ता भी नहीं हिलता।  सभी एक दूसरे  का मुँह  तक  रहे  होते हैं ।

सवाल यह  नहीं है  कि किसने किसका मुँह काला किया ? सवाल ये होना चाहिए  कि क्यों किया ?  क्या किसी पुस्तक का विमोचन सिर्फ इसलिए अपराध है की लेखक पड़ोसी राष्ट्र का पूर्व विदेश मंत्री रहा है ? वेशक  हर दौर में पाकिस्तान  के  हर निजाम ने  भारत को बार-बार बिच्छू बनकर काटा है। जब उसने अपना 'बिच्छू स्वभाव' नहीं छोड़ा तो  भारत को अपना बन्धुतावादी सात्विक साधु चरित क्यों छोड़ना चाहिए ?  क्या दोनों मुल्कों के बीच बढ़ रही गलतफहमी दूर करना गुनाह है ? क्या सुधीन्द्र  कुलकर्णी  ने कोई देशद्रोह का काम किया है ? कि आव देखा न ताव और उनका मुँह  काला कर दिया।  उनकी  स्थति पर संघपरिवार' और सत्ता के गलियारों में जो 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ' वह बेहद शर्मनाक है।  जबकि वामपंथी  लेखक बुद्धिजीवी और साहित्यकारों ने ततकाल उसका संज्ञान लेकर अपना आक्रोश  दिखाया।  
 
मेरा तो  गजेन्द्र मोक्ष वाली मोदी सरकार को यह सुझाव है की  विज्ञानवादी ,अन्तर्राष्टीयतावादी- बौद्धिक सृजन के क्षेत्र में भी आरक्षण दिया जाना चाहिए।  ताकि वे भी सम्मान पदक प्राप्त कर सकें। चूँकि वामपंथी और वैज्ञानिक विचारधारा के बुद्धिजीवी -साहित्यकार  अपनी  योग्यता और संघर्ष की कसौटी पर खरे उतरने के बाद ही यह सब सम्मान और उपाधियाँ पाते रहे हैं। वे इस मुश्किल दौर में अपने-अपने पदक और सम्मान पत्र लौटकर अपनी शानदार ऐतिहासिक  और  क्रांतिकारी  भूमिका का बखूबी निर्वाह कर रहे हैं। संघ प्रशिक्षित बौद्धिकों को चाहिए कि वे अंगुली कटाकर  शहीद होने के बजाय ,सफ़दर हाशमी, नरेंद्र दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे या कालीबुरगी होकर दिखाएँ।   श्रीराम तिवारी 
           
 
 

शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

भारतीय दर्शन, इतिहास,पुराण ,मिथ या वाङ्ग्मय- सभी में गौ माँस का निषेध है !




 बिहार विधान सभा चुनाव् प्रचार में व्यस्त सभी पूँजीवादी पार्टियों का 'अभद्र' नेतत्व लगभग अपनी नंगई पर उत्तर आया । खेद की बात है कि बिहार में  सत्तारूढ़ महागठबंधन के बदजुबान नेताओं के 'बंदरिया नाच ' पर उनके अंध समर्थक तमाशबीनों की तरह फोकट में तालियाँ  बजाते रहे । इन दम्भी  और असत्याचरणी नेताओं का बौद्धिक स्खलन ही  उनकी प्रशासनिक अक्षमता  का सटीक उदाहरण है। बिहार की चौतरफा बर्बादी ही  इनके थोथे तथा उथले ज्ञान की  गवाही दे रही  है। इनका  नितांत झूँठा सांस्कृतिक इतिहास बोध किसी भी तरह मान्य नहीं किया जा सकता। जो नेता जाति को अपने स्वार्थ का हथियार बनाकर आरक्षण की मलाई खाते  रहे हों ,जो  फासिज्म का डर  दिखाकर सांस्कृतिक  बहुलता की  दुहाई देते रहे हों , जो वर्षों तक बिहार की सत्ता पर काबिज रहे हों ,जिन्होंने बिहार में जंगलराज का जमकर विकास किया हो,उनके प्रति जनता  के दिलों में यदि अभी भी कोई  हमदर्दी  है तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।

  विचारधारा विहीन ,उजबक और  निहित स्वार्थी नेता अपना जनाधार खिसकता देख निहायत  टुच्चई पर उतर आया करते हैं। वे जनता से ठिलवई करने लगते हैं। वे  जातीय आरक्षण  की धार को सामाजिक संघर्ष की  शान पर चढ़ाकर रावण जैसा अठ्ठहास  करने लग जाते हैं। वे गौमांस जैसे विषयों को  विमर्श के केंद्र में रखकर जनता को बरगलाने  में जुटे जाते  हैं।  लेकिन यह सिर्फ  यूपी -बिहार का ही  दुर्भाग्य नहीं है।  बल्कि सम्पूर्ण भारतीय उप महाद्धीप ही  प्रकारांतर से इस रोग से ग्रस्त  है। इसीलिए वास्तविक जनतंत्र अभी भी इस महाद्धीप  में कहीं भी नहीं है। भारत में भी आदर्श लोकतंत्र कहाँ है ? बिहार तो अभी जनतांत्रिक आचरण से  मीलों दूर है।

 बिहार को जंगलराज में बदलने  के लिए जिम्मेदार नेता न केवल विकृत मानसिकता वाले हैं बल्कि वे आरक्षण की जूँठन पर बौराये हुए हैं। ये लोग अपने राजनीतिक  स्वार्थ को स्थायी रूप से देश पर थोपे रखना  चाहते हैं।ये  सामाजिक संघर्ष की ज्वाला भड़काने पर भी  आमदा हैं। संघ -भाजपा या एनडीए की आंधी  को रोकने  के लिए कोई 'कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ' पेश करने के बजाय ,नीतीश ने  भृष्ट लालू और बदनाम  कांग्रेस की वैशाखी  पर ज्यादा भरोसा किया है। नीतीश  यदि प्रारम्भ से ही एनडीए के चककर में न पड़ते और  बिहार  विकास की कोई नई  वैकल्पिक नीति  प्रस्तुत करते ,भूमि सुधार क़ानून लागु करते  और माझी को बीच में न लाते तो वे भारत के दूसरे ज्योति वसु  हो सकते थे।  जदयू वाले यदि  बिहार राज्य की  प्रति वयक्ति औसत आय  की बृद्धि पर कोई  सार्थक बहस करते और भाजपा - नरेंद्र मोदी की घोर  पूँजीवाद  परस्त  आर्थिक नीति पर ईमानदारी  से  आक्रमण करते तो  शायद उन्हें  'महागठबंधन' की नौबत ही न आती। महज  अल्पसंख्यक वोटों की खातिर  केवल अंध मोदी विरोध में रतौंध्याये हुए महा बदनाम लालू , रघुवंश और उनके ढिंढोरची चमचे अपनी बिहारी खुन्नस से बाज नहीं आ रहे हैं। अपनी नादानी और अज्ञानता  का ठीकरा  'भारतीय संस्कृति'  के सिर पर  फोड़े  जा  रहे हैं।  इसी बहाने वे उन मूल्यों पर  भी हमला किये जा रहे हैं जो भारत भूमि को  एक  जीवंत 'राष्ट्र'  बनाये रखने की ठोस गारंटी  है। महागठबंधन के अर्ध शिक्षित -बदनाम नेता  और पार्टियाँ  नरेंद्र  मोदी की कुख्यात पूँजीवाद परस्त  नीतियों पर  तो  रंचमात्र हमला नहीं करते !बल्कि 'महागठबंधन' के लालू-नीतीश और राहुल जैसे नेता ऐंसे पाहुने हैं जो  साँप को मारने के बजाय बाँबीँ ही  कूटे जा रहे हैं।

 ये  बिहारी नेता उस लडंखु सास की तरह हैं जो अपनी  बहु  से तर्क या बहस में तो जीत नहीं पाती किन्तु  अपनी बहु को 'विधवा 'होने का श्राप अवश्य  देती रहती  है। ऐंसी  कुटिल सास  गुस्से में यह भूल जाती है कि  अपनी बहु को विधवा  रूप में देखने  की कुत्सित लालसा में वह सास अपने ही  बेटे की मौत का इन्तजार कर रही होती है। क्रोधांध सास अपनी बहु को नुक्सान पहुंचाने के बजाय  अपने बेटे को ही निपटाने पर तुल जाती है। जबकि बहु को  शाप देने वाली लडंखु सास  का कर्तव्य था कि अपने बेटे को दीर्घायु होने का वरदान देने के लिए वह  बहु को   सौभाग्यवती होने का आशीवाद देती ।खाँटी बिहारी  एवं पिछड़े वर्ग के  नेता लोग अब नरेंद्र मोदी रुपी नयी बहु को टोंचने की घटिया फिराक में हैं। वे  भाजपा और नरेंद्र मोदी  की दिवालिया आर्थिक नीति पर  कोई सवाल दागने के बजाय 'गौ मान्स' भक्षण या  जाति -आरक्षण के व्यंग बाण छोड़ने में जुटे हैं। उनका यह कदाचरण   कदापि शोभनीय नहीं  है। क्योंकि उनकी इस  नापाक हरकत से नरेंद्र मोदी को तो कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि भारत राष्ट्र की पूँजी 'एकता  में अनेकता' को ही खतरा है।

 जो नेता १५ साल तक बिहार प्रदेश का मुख्यमंत्री रहा हो , वो यदि अपने बच्चों को हाई  स्कूल तक की  शिक्षा भी नहीं दिलवा  सके अपने बच्चों की जन्म तारीख भी सही नहीं बता पाये, ऐंसे  मंदमति के साथ खडे होकर नीतीश बाबू  सही निर्णय कैसे ले पाएंगे  ? वैसे भी  महागठबंधन के बदनाम नेताओं को बार-बार सत्ता क्यों दी जाने चाहिये ?जिसको  इतिहास और मिथ का भी  अंतर बोध  मालूम न हो ,जिसे भारतीय   मूल्यों का ज्ञान ही न हो, जिसे  राष्ट्रीय  सांस्कृतिक चेतना  और विकासक्रम  का  रंचमात्र ज्ञान न हो , उसे और उसके साथियों को  बिहार जैसे ऐतिहासिक  सूबे  का क्षत्रप  दोबारा-तिबारा  क्यों बनाया जाए ? वेशक संघ -एनडीए और भाजपा की नीतियां पूँजीवाद  परस्त हैं। वेशक  श्री  नरेंद्र मोदीजी  के व्यक्तित्व में  भी कुछ इसी तरह की अनेक  बौद्धिक और वैचारिक खामियों हैं। किन्तु  फिर भी उनकी  व्यक्तिगत प्रचार शैली  का और धनबल का ही आलम है की उनके पक्ष में  प्रचंड  लहर का कुछ असर तो बिहार में जरूर है। जिस से घबराकर  लालू ,रघुवंश जैसे नेता संघ  के बहाने  भारत की अस्मिता पर ही  हमले किये जा रहे हैं।

 भाजपा के गिरिराजसिंह जैसे 'बड़बोलुओं'को चिढ़ाने के बहाने लालू ,रघुवंश जैसे लोग अपने अधकचरे ज्ञान का कूड़ा करकट  देश के  समग्र मीडिया पर उड़ेल रहे हैं। उनका यह कृत्य न तो देशभक्तिपूर्ण  है. और न वैज्ञानिक -  प्रगतिशीलता के दायरे में आता  है।  कोई बाजिब  वैज्ञानिक तथ्यान्वेषण भी उनके पास नहीं है। नेताओं के इस अनैतिक कदाचरण की सभी को निंदा करनी चाहिए।जिसमें लालूयादव  कहते हैं कि 'सभी हिन्दू गोमांस'  खाते   हैं। रघुवंश प्रसाद कहते हैं कि 'ऋषि मुनि भी गो मांस खाते  थे। ऋषि कपूर  कहते हैं की मैं 'बीफ' खाता हूँ। केंद्रीय मंत्री किरण रिजूजी कहते हैं कि  मैं  गौमांस खाता हूँ। ये बयान  किन  कारणों से दिए गए हैं ? इनके  दूरगामी  निहतार्थ क्या हैं ? इस पर भारतीय जन -मानस  के बहुत बड़ा तबके  को कोई लेना देना नहीं है। सिर्फ दो-चार हिन्दुत्ववादी नेताओं  और सौ-पचास सोशल मीडिया वालों को ही इस विमर्श से  कुछ  मौसमी अभिरुचि हो सकती है। ऋषि कपूर या किरण रिजूजी जैसे लोग यदि  गौमांस  भक्षी हैं ,तो यह उनका मौलिक अधिकार है। वे कुछ भी खाते -पीते  रहें इससे  भारतीय संविधान की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता।  किन्तु लालू ,रघुवंश  जैसे जन -नेता जब ये बयान देंगे तो उन  वोटर्स को उनके बारे में अवश्य सोचना पडेगा।  जिन  को अपने  'शाकाहारी होने पर नाज है वे लालू,नीतीश या रघुवंशप्रसाद को वोट क्यों देंगे ? सबको अपनी अस्मिता और संस्कृति की रक्षा का अधिकार है।  जो  लोग गाय या किसी भी पशु का मांस नहीं खाते और व्यर्थ ही जिनके पूर्वज बदनाम किये जा  रहे हों ,उन्हें शिद्द्त से लालू ,रघुवंश जैसे नालायकों का प्रतिकार करना चाहिए  ।

 संविधान  ने सभी  को समान  अधिकार दिया है कि  कोई क्या खाए ,क्या न खाए। क्या पहिने ,क्या न पहिने। इस पर किसी अन्य को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। विविधता और बहुलतावादी संस्कृति केवल आरक्षित  या अल्पसंख्यक वर्गों के लिए ही नहीं है। बल्कि बहुसंख्यक वर्ग के लिए भी उतना ही बराबरी का सम्मान सुरक्षित  मिलना चाहिए।यदि कोई  नेता या आम आदमी बहुसंख्यक वर्ग पर झूंठा इल्जाम लगाये,अपमानित करे तो अपने आत्म सम्मान की रक्षार्थ बहुसंख्यक  वर्ग को भी अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करने का हक है।देश का कोई भी नेता या पार्टी 'बहुसनख्यक' हिन्दू समाज  की अवहेलना या अपमान नहीं कर सकता। वोट के लिए जो नेता और पार्टी हिंदुत्व का झंडा थामे हुए  हैं ,वे भी याद रखें कि अभी तो शिवसेना के लोग ही भाजपा वालों का चेहरा काला  कर रहे हैं। आइन्दा यदि राजनीति  की हांडी के लिए हिंदुत्व या हिन्दू धर्म  को ईधन बनाया गया तो चूल्हा ही बिखर जाएगा। वे यह भी याद रखें कि  रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार !

    जब  लालू जी ने कहा  कि 'सभी हिन्दू मांस खाते हैं ' तो भाजपा और संघ वालों की बोलती बंद क्यों हो गयी ? जबकि मेरे जैसे 'धर्मनिरपेक्षतावादी' की  भी  इच्छा हुई  कि गौ मांस भक्षण का समर्थन करने वालों  को १०० जूते  मारूं। यद्यपि  मैं विहिप या आरएसएस से प्रेरित धर्मांध हिन्दू नहीं हूँ। शिव सेना और 'सनातन सभा जैसे हत्यारे - लुंगाडा संगठनों  से भी मेरा कोई सरोकार नहीं है। मैं भाजपा और  मोदी जी की नीतियों के  विरोध में लगभग १० हजार पेज लिख चूका हूँ। वामपंथ के अलावा किसी और के समर्थन  का तो सवाल ही नहीं है। फिर भी मैं गाय समेत अन्य पशुओं की हत्या का पक्षधर नहीं हूँ। कार्ल मार्क्स ने 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' या 'दास केपिटल' में कहीं नहीं लिखा कि गौ मांस खाने वाला बड़ा क्रांतिकारी होता है। जब  मैंने  कभी सपने में भी गौ मांस या  'अंडा'  नहीं खाया। मेरे कुटुंब परिवार  में  भी दूर-दूर तक  किसी ने कभी भी गौ मांस तो क्या अनजाने में  गाय को पैर भी नहीं लगने दिया। यदि लग जाये तो 'राम-राम'  कहते हुए गाय से माफी मांग ली जाती है।

जब लालू कहता है कि  सभी 'हिन्दू गौ मांस खाते हैं ' तो मुझे अच्छा नही लगा। मेरे दो अहम  सवाल  हैं।  पहला सवाल यह  है कि जब  इस २१ वीं सदी  के मेरे जैसे  अधुनातन प्रगतिशील भी  गौ  मांस  नही खाते बल्कि  अंडा भी नहीं खाते। तो हमारे परम 'देवतुल्य' पूर्वज [ऋषि-मुनि] गौ मांस भक्षी क्यों रहे  होंगे ?  वैसे भी किसके पूर्वज क्या खाते  थे? यह जान  लेना  तो अब विज्ञान के बाएं हाथ का काम हो गया है। किन्तु यह जाहिर करना उस का काम  नहीं जो  खुद चारा खोर हैं। दूसरा सवाल  यह है कि  लालू-रघुवंश और अन्य  गोमांस भक्षण समर्थकों ने  किस  तरह के भारतीय भारतीय दर्शन ,इतिहास,पुराण ,मिथ या  वांग्मय का सांगोपांग अध्यन  किया है ?यह   उन्होंने  कहाँ पढ़ लिया कि  उनके पूर्वज [श्रीकृष्ण] मांसाहारी थे ? क्या वामनों का पूर्वज सुदामा गौ मांस भक्षी था। क्या वह श्रीकृष्ण से मिलने जब द्वारका गया तो 'गौ मांस' ले गया था ? मैंने तो यही पढ़ा है कि  वह गरीब ब्राह्मण पड़ोस से मुठ्ठी भर चावल माँग  कर ले गया था।  ये बात भी काबिल-ए  गौर है कि श्रीकृष्ण के वंशज इस २१ वीं शताब्दी में भी आरक्षण की बैशाखी पर चल रहे हैं। जबकि  सुदामा के वंशज [राकेश शर्मा]जैसे अंतरिक्ष  वैज्ञानिक बिना किसी आरक्षण के  ही अंतरिक्ष की  यात्रा कर चुके हैं। कई भिखमंगे वामन तो आज भी भृगु ऋषि की तरह 'लक्ष्मीपति'  को लात मारने की तमन्ना रखते हैं।

भारतीय  सभ्यता ,संस्कृति,इतिहास और दर्शन की कुछ पुस्तकें मैंने  भी पढ़ी हैं। लेकिन मुझे  हर जगह यही लिखा मिला  कि "जियो और जीने दो '!  प्रत्येक भारतीय धर्म  ग्रन्थ  में -गाय ,गंगा ,हिमालय समुद्र,सूर्य और धरती को देवतुल्य माना गया  है।  बीस बिस्वे के श्रेष्ठ ब्राह्मण  कुल में जन्मना होते हुए भी मैंने  स्वयं मनु स्मृति ,पौराणिक आख्यायकाओं और अन्य मिथकीय  ब्राह्मण ग्रंथों  में उल्लेखित अवैज्ञानिक अवधारणों की खुलकर  आलोचना की है।  धार्मिक पाखंडवाद और अंधश्रद्धा के बरक्स मैं अपने  नाते-रिश्ते  कुटुंब -परिवार के सैकड़ों सपरिजनों  के मध्य में  सम्भतः  एकमात्र ' विद्रोही ' हूँ। जबकि बाकी अधिकांस घोर परम्परावादी, शुद्ध  कर्मकांडी  और  यज्ञोपवीतधारी  हैं।  मैं जीवन भर उन लोगों के साथ सरकारी सेवाओं में रहा ,जिनके यहाँ  मांस-मदिरा  के खानपान का  खानदानी रिवाज  था। उन्होंने मुझे अपने साथ मिलाने की खूब कोशिशें की , किन्तु  फिर भी मैं उनका अनुयायी न बन सका। आग्रह करने वाले भी उसी वर्ग के  हुआ करते थे  जो  इन दिनों दूसरों पर तोहमत लगाकर अपने कदाचरण को जस्टीफाइड कर रहे  हैं। ठीक लालू और रघुवंशप्रसाद की तरह।  वेशक देश और दुनिया में ऐंसी कोई जात या मजहब नहीं है , जिसमें कुछ लोग मांसाहारी न हों ! किन्तु 'सब हिन्दू गौ मांस खाते हैं ' ऋषि मुनि भी गौ मांस खाते  थे ' इस तरह के घटिया  और झूंठे बयान  कदापि स्वीकार्य  नहीं  हैं  !   ,,,,,,,,   श्रीराम तिवारी ,,,,,,,,,!

                                                                                           

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

सभी धर्म - मजहबों के प्रमुख कर्ता -धर्ता, पोप फ्रान्सिस से भी कुछ सीखें !

वैसे  मुझे  किसी भी धर्म-मजहब से कोई लगाव या दुराव नहीं है। बल्कि  मुझे तो सभी धर्मगुरु ,खलीफा और मठाधीश एक जैसे लुच्चे-लफंगे नजर आते हैं। किन्तु विगत दिनों जब कैथोलिक धर्मगुरु पोप  फ्रांसिस ने दुनिया के शोषित-पीड़ित  मजदूरों -किसानों की दुर्दशा पर  फिक्रमंदी जताई तो मेरे अंतर्मन में उनके प्रति असीम श्रद्धा का संचार हुआ । हालाँकि इससे पूर्व  पोप  जान पाल द्वतीय और अन्य कैथोलिक धर्मगुरुओं ने पोलेंड ,जर्मनी और पूर्व सोवियत संघ में  पूँजीवादी प्रतिक्रांतियों का जमकर साथ दिया है। किन्तु वर्तमान वेटिकन प्रमुख   सम्माननीय पोप फ्रान्सिस ने न केवल सर्वहारा वर्ग की बदहाली पर चिंता जाहिर की बल्कि स्वयं  क्यूबा जाकर ९३ वर्षीय भूतपूर्व राष्ट्रपति फिडेल कास्त्रो से  इस विमर्श बाबत मुलाकत  भी की। विगत ६० सालों में  शायद यह पहला अवसर होगा  कि जब किसी पोप या  वैश्विक धर्म गुरु  ने  किसी कम्युनिस्ट शासन वाले देश  में पदार्पण किया हो। पोप  फ्रांसिस ने क्यूबा में  फिडेल कास्त्रो के घर जाकर उनसे सौजन्य  भेंट की। दुनिया जानती है कि  कामरेड  चेगुवे वेरा के अनन्य साथी कामरेड फीदेल कास्त्रो  और उनके क्रांतिकारी शहीद  साथियों ने  लगातार ६० साल तक नापाक  नाटो एवं क्रूरतम अमरीकन  साम्राज्य वाद से जमकर लोहा लिया है। शीत  युद्ध के दौरान  कास्त्रो को  न केवल अमेरिकन सम्राज्य्वादी पूँजीवाद से बल्कि पूर्ववर्ती समस्त  पोप और धर्म गुरुओं  के कोप का भाजन बनना पड़ा है। अपितु  समस्त  विश्व धर्मांध  समुदाय की धार्मिक कटटरता का  भी सामना करना  पड़ा है ।

अब जबकि  फीदेल  कास्त्रो पदमुक्त होकर अपने  जीवन की  सांध्य वेला  में अवस्थित हैं। तब स्वयं महान पोप फ्रांसिस ने कास्त्रो से मिलकर  जो सौजन्यता दिखाई है वह वेमिशाल है। इस मुलाकत से  फिडेल  कास्त्रो का तो मान बढ़ा ही है किन्तु पोप  का  सम्मान तो  कई गुना बढ़ गया  है। पोप फ्रांसिस का बड़प्पन दुनिया के समस्त आस्तिकों-  नास्तिकों ,अनीश्वरवादियों - कम्युनिस्टों और  प्रगतिशील तबकों  की नजर परवान चढ़ा है  इसमें कोइ संदेह  नहीं। पोप फ्रांसिस का सिर्फ  यही एक अवदान  काबिल-ए -तारीफ़ नहीं  है। बल्कि इससे पहले भी वे वेनेजुएला ,तुर्की ,चिली , ब्राजील और कनाडा  अमेरिका  इत्यादि देशों में भी  खुलकर  वर्तमान  आक्रामक नव  - पूंजीवाद  व  साम्प्रदयिक कटटरवाद  की आलोचना कर चुके  है। उन्होंने विश्व सर्वहारा की घोर उपेक्षा के लिए  भूमंडलीकरण,उदारीकरण और  आवारा वित्त पूँजी के  भौंडे नग्न नर्तन पर भी अपना आक्रोश व्यक्त  किया है। वेशक पोप  कोई कम्युनिस्ट या क्रांतिकारी नहीं हैं। किन्तु जिस तरह पोप  फ्रांसिस ने  विश्व के निर्धन लोगों की चिंता व्यक्त की है। उससे आशा  की नयी किरण का संचार अवश्य हुआ है।

काश अन्य धर्म-मजहब के धर्मगुरु,मठाधीश ,खलीफा ,शंकराचार्य और  पंथ प्रमुख  भी पोप की  तरह  ही सोचते होते ! काश भारत के धर्मध्वज भी पोप  की तरह देश व दुनिया के  'दरिद्रनारायण ' की चिंता  करते और  उनके पक्ष में कोई  सिंहनाद  करते तो  आज  भारत की स्थति  इतनी क्रूर और खौपनाक  न होती। भारत में कतिपय अल्पसंख्यक वर्ग के धर्म गुरुओं  को देश की या देश के मेहनतकश वर्ग की नहीं बल्कि  'संथारा' संलेखना की चिंता है। किसी मजहब विशेष के धर्म गुरु  वैसे तो  हर बात पर 'फ़तवा' जारी कर देते हैं। किन्तु वे आवाम की मुश्किलों  पर चुप हैं। युवाओं की  गरीबी,बेकारी  पर ,आईएसआईएस ,अलकयदा ,आतंकवाद पर  ये कठमुल्ले  एक शब्द  भी नहीं बोलते। जेहाद के नाम पर दुनिया भर में चल रही  मारकाट की खबरों पर वे मुँह  में दही जमा ये  रहते हैं। देश की और किसानों की चिंता तो मानों उनकी मजहबी किताब में कुफ्र  ही है।

इसी तरह  भारत के बहुसंख्यक धर्म वाले गुरु  घंटाल  भी केवल अपने स्वार्थ संसार में लींन हैं। वे तो  अपने आपको  ईश्वर से भी  बड़ा बताते हैं।  तभी तो वे कहते  हैं ;-

गुरु बड़े गोविन्द से ,मन में देख विचार' अर्थात गुरु के सामने भगवांन की क्या औकात ?

तभी तो कोई 'महायोगी ' नमक मिर्च मशालों से लेकर  साबुन तेल तक बेच रहा है। कोई  शिर्डी के साईं  बाबा को ललकारता है। कोई महा घटिया  फिलिम बनाकर  खुद  ही हीरो बन जाता है। कोई मीडिया के मंच पर पब्लिक याने श्रोताओं-भक्तों के सामने हाथापाई  पर उतर आता  है। कोई  चालाक -धूर्त महिला राधे माँ बनकर ठगी में शामिल हो जाती है। कोई रेपकांड में मशहूर आसाराम हवालात में जमानत के लिए रो  रहा है। कोई पूंजीपतियों के अन्तःपुर में रंगरेलियाँ  मना  रहा है। कोई राजनीति  में नेता बनकर अल्पसंख्यकों पर  ही भोंक रहा है। कोई दवंग मठाधीश बनकर कालेधन को सफ़ेद करने में जुटा  है।  कोई मांसाहार-शाकाहार की फ़िक्र में दुबलाया हुआ  है। अधिंकाश भारतीय धर्मगुरु और पूँजीवादी दलों के नेता मिलकर  देश को  खोखला कर रहे हैं। इतना ही नहीं भारत में तो पोप  फ्रांसिस के अनुयायी भी  दूध के धुले नहीं हैं। वे भी केवल धर्मांतरण की फ़िक्र में  लगे रहते हैं। मेरा दावा है कि भारतीय ईसाई मिशनरीज वाले  कम से कम पोप  फ्रांसिस जितने ईमानदार  और गरीब परस्त तो अवश्य नहीं हैं। जब वे  स्वयं भी अपने ही धर्म गुरु के विचारों को सही प्रचार  अनुपालन नहीं करते तो दूसरों से उन्हें कोई उम्मीद क्यों रखनी चाहिये ?

 विगत दिनों विख्यात न्यूज चैनल आईबीएन-7  पर  एक हिन्दू साधु और एक  साध्वी के मध्य  हुई हाथापाई और गाली-गलौज की खबर भी  अन्तर्राष्ट्रीय फलक तक जा  पहुँची  है ।  न्यूज चैनल पर  तथाकथित साध्वी  'राधे माँ ' और विगत डेड साल से जेल में बंद आसाराम एंड सन्स जैसे ढोंगी बाबाओं के चाल - चरित्र-चेहरे का लब्बो-लुआब यह है   कि  उनके  अंध समर्थक  तर्क बुद्धि  की भाषा नहीं समझते।  वे अपनी पाखंडजनित आस्था को नंगा होते देख कर आक्रामक  हो  रहे हैं। दरअसल वे साधुपथ  या साध्वीपथ छोड़कर अपनी असल  व  घोर सांसारिक औकात पर आ रहे  हैं। आईबीएन-7  के उस कार्यक्रम में गनीमत ये रही  विमर्श  में कोई  प्रगतिशील वामपंथी विचारक  या भौतिकवादी  नास्तिक  दर्शनशास्त्री  मौजूद नहीं था। परिचर्चा में केवल स्वनाम धन्य  हिन्दू -धर्मावलम्बी 'आस्तिक'  साधु -संत और  कुछ सामाजिक  कार्यकर्ता ही उपस्थ्ति थे। ये सभी चीख-चीख कर आपस में केवल  कुकरहाव किये जा रहे थे। उसकी  चरम परिणीति हाथापाई के रूप में अधिकांस दर्शकों ने खुद देखी है। दरसल  यह दुखद दृश्य हिंदुत्व रुपी हांडी का एक चावल मात्र है। वर्ना  पूरा का पूरा धर्मांधी पाखंडी वैश्विक डोबरा  खदबदा रहा है।

आपस में गुथ्थम गुथ्था होने वाले  ये  'हिन्दू' धर्मांध अंधश्रद्धालु  यह स्वीकारना  ही नहीं चाहते कि उनके गुरु घंटाल -स्वयंभू  धार्मिक मठाधीश किस कदर अध :पतन को प्राप्त हो रहे हैं ? वे नहीं जानते कि उनकी  धार्मिक अंधश्रद्धा व साम्प्रदयिक  संगठनों को जब राजनीति  के  पर लग जाते हैं तब फासिज्म का जन्म होता है। धर्म-मजहब को जब राजनीति में  इस्तेमाल किया जाने लगता है ,और लोकतान्त्रिक -धर्मनिरपेक्ष जन समूह द्वारा  जब इस पर  आपत्ति ली जाती है, तो अपने वचाव में ये  हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक संगठन अन्य अल्पसंख्यक या विधर्मी संगठनों के आचरण उदाहरण पेश करने लगते हैं। उनकी ओर से  एक प्रतिप्रश्न  हमेशा उठाया जाता  है. कि  क्या हिन्दुत्ववादी भी उतने ही हिंसक या खूंखार हैं जितने हिंसक और खूँखार  इस्लामिक चरमपंथी हैं ? क्या  हिन्दुओं का आपसी पंथिक  संघर्ष या जातीय द्वन्द शिया -सुन्नी  के जितना भयावह है ? सचेत हिन्दूओं का  दावा है कि सच का सामना करने की समर्थता - सहनशीलता व मानवीयता  जितनी   हिन्दुओं  में  है, उतनी दुनिया की किसी और कौम में नहीं है। वैश्विक पटल पर  ईसाइजगत  और इस्लामिक जगत  का  साम्राज्य्वादी विस्तार तो वैसे भी मशहूर है। ईसाई बहुल राष्ट्रों में चर्च और पोप  को  राजकीय सम्मान दिया जाता है। दुनिया के सभी मुस्लिम बहुल देश इस्लामी क़ानून शरीयत से संचलित  हो रहे हैं। उनके धर्म गुरुओं का सम्मान और उनकी राजनैतिक ताकत के जलवे  देखकर तो  किसी भी हिन्दू को अपने 'हिंदुत्व' की दुर्दशा पर तरस आ सकता है।  इसीलिये हिटलर या हेडगेवार से प्रेरित होकर नहीं बल्कि ईसाईयत और इस्लामिक साम्राज्य्वाद से प्रेरित होकर  इन दिनों  भारत के अधिकांस  हिन्दु भी राजनैतिक शक्ति बनने की ओर  अग्रसर हैं।

 एक साथ अनेक उत्तर मिलेंगे कि  इस्लामिक जेहादी' तो इनसे भी हजारों गुना वीभत्स और नृशंस आदमखोर हैं। अभी -अभी  भारत में जिन्दा पकड़ा गया आतंकी  नावेद  और याकूब मेमन -कसाब जैसे  पाकिस्तान प्रेरित आतंकियों ने सावित कर दिया है कि  वे इस्लाम का ककहरा भी नहीं जानते हैं । बल्कि उनकी गरीबी ,निरक्षरता का बेजा फायदा उठाकर ,उन्हें मजहबी अफीम खिलाकर , 'मानव बम' बनाकर भारत में  जबरन मरने -मारने के लिए धकेल दिया जाता है ।  पेशावर ,लाहौर  और पख्तुनरवा में सैकड़ों पाकिस्तानी मुस्लिम बच्चों के हत्यारे सिर्फ भारत के  हिन्दुओं के ही कातिल नहीं हैं। बल्कि वे सम्पूर्ण मानवता के दुश्मन हैं। इनकी तुलना दुनिया के किसी भी अन्य साम्प्रदायिक संगठन से करना सरासर बेईमानी है।

  आम तौर  पर अधिकांस मजहबी  या  सच्चे धार्मिक  मनुष्य बड़े भावुक और धर्मभीरु हुआ करते हैं। उन्हें  मानसिक रूप से इस कदर गुलाम बना दिया जाता है कि अपने 'गॉडफादर' या गुरु के इशारों पर अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तैयार रहना चाहिए । फिदायीन हमले  इस हाराकीरी की सबसे बड़ी मिसाल हैं। पेशावर स्थित  आर्मी स्कूल के बच्चों के हत्यारे, लाखों सीरियाई शरणार्थी सहित - बालक अलायन के हत्यारे, किस मजहब और किस  कुर्बानी का  प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ?  जब उनके उस्तादों  को देश समाज और धर्म से कोई लेना देना नहीं है तो उनके प्रति यह अंधश्रद्धा  और मजहबी पाखंड क्यों ? यह प्रवृत्ति  केवल 'हिन्दू -मुस्लिम मठाधीशों ' तक ही सीमित नहीं है। बल्कि सारा संसार जानता है कि आईएसआईएस ,तालिवान और अलकायदा वाले  तो हिन्दू अंध श्रद्दालुओं से भी  हजारों गुना कट्टर और हिंसक सावित हो रहे  हैं। हिन्दू धार्मिक साधु -साध्वियां  तो महज तूँ -तड़ाक  या हाथापाई  तक ही सीमित  रहते हैं। जबकि  इस्लामिक आतंकी -जेहादी  तो इनसे  बहुत आगे हैं। वे तो मजहबी 'असहमति' के लिए निर्दोषों का नर संहार करने ,पत्रकारों और मीडिया वालों की मुण्डियाँ  काटकर  एफबी पर सेल्फ़ी पोस्ट करने  के लिए दुनिया  भर में  कुख्यात हैं। वे आतंकी  रोज-रोज  जिन लोगों की  भी  हत्याएँ कर  रहे हैं उन में नास्तिकों  ,काफिरों   की कोई खास गिनती नहीं है। बल्कि इन  संगठित फिदायीन-जेहादियों -आतंकियों के हाथों ज्यादातर निर्दोष मुस्लिम  ही मारे जा रहे हैं ।

जो  खूंखार आतंकी - सीरिया , इराक ,अफगानिस्तान,  फिलिस्तीन , लेबनान ,सूडान ,अल्जीरिया,पाकिस्तान और यमन  में  ईसाईयों , गैर सुन्नी मुसलमानों -शियाओं , कुर्दों,यज़ीदियों व अहमदी  मुसलामनों  को  ही चुन-चुन  कर मार रहे हैं। क्या इन  वैश्विक  हत्यारों  की बराबरी का कोई और घातक संगठन दुनिया में है ?भारत के  मुठ्ठी भर कटटरपंथी  हिन्दू सिर्फ अपने घर याने  भारत में ही शेर हैं । सिर्फ  वीर रस की कविता पढ़नेवाले - शुद्ध  शाकाहारी संगठन' आरएसएस की तुलना  उस आईएसआईएस या अलकायदा से कैसे की जा सकती है जो पल भर  में अमेरिका की वर्ल्ड ट्रेड बिल्डिंग को धराशायी कर सकते हैं। जो लोग पाकिस्तान के परमाणु बम्ब और  इराक का पेट्रोल हथियाने की फिराक में हैं,जिनकी  ताकत के सामने  अमरीका और नाटो देश भी बौने सावित हो रहे हैं। जिनकी  शै पर  भारत के कश्मीर में आईएस  और पाकिस्तान के झंडे फहराये जा रहे हों ,जिनकी नापाक  हरकतों पर  भारत विरोधी मन ही मन गदगदायमान हो रहे हों। उन हाफिज सईद,दाऊद ,जिस-ए -मोहम्मद वालो या   अकबरुद्दीन और  असदउद्दीन ओवेसी  जैसे साम्प्रदायिक तत्वों की तुलना  मोहनराव भागवत जैसे निरीह प्राणी से  करना  कदापि न्याय संगत नहीं है। यह तो मानों आदमखोर चीतों से हिरण की तुलना करने जैसा है।

प्रत्येक  वैज्ञानिक तर्कवादी को अपनी प्रगतिशीलता पर पुनः चिंतन कर लेना चाहिए। बराबरी पर कभी कभार जब कोई उन्हें ज्यादा कुरेदता है तो वे आक्रामक हो जाते हैं।अन्यथा  अधिकांस हिन्दू सहिष्णु और 'अहिंसावादी' ही हैं। आरएसएस  तो केवल हिंदुत्व के नामपर भाजपा को सत्ता में बिठाने  का महज सामाजिक  -सांस्कृतिक उपादान मात्र  ही है।  वैसे तो संघ  देशभक्ति की बात करता है। किन्तु जब 'हिन्दुत्ववादी ही देश को लूट रहे हों  , नदियों को बर्बाद कर रहे हों तब  'संघ' की बोलती बंद  क्यों रहती है ?  इसीलिये लोगों को लगता है कि संघ तो  खुद ही प्रतिक्रयावादी है । संघ की  हिन्दू बाबाओं या हिन्दू धर्मावलम्बी -धर्मभीरु  प्रतिक्रयावादी जनता पर कोई पकड़ नहीं है।जो जितनी ज्यादा धर्मान्धता की अफीम बेच सकता है वो संघ को उतना ही अपरम प्रिय है। यह स्थति भारत राष्ट्र के पक्ष में कदापि नहीं है।  होता है कि  संघ के लोग वैज्ञानिक तर्कवाद से पृथक केवल कोरे अंध  राष्ट्रवादी मात्र हैं।

       वाराणसी के गंगा घाट पर गणेश प्रतिमा विसर्जन की जिद कर रहे साधु -महात्मा जब आक्रामक हो उठे तो पुलिस को उन पर लाठी चार्ज करना पड़ा। यह सर्व विदित है कि गंगा में हर किस्म के प्रदूषण  को रोकने के उद्देश्य से इलाहाबाद  हाई  कोर्ट ने प्रतिमा विसर्जन पर रोक लगा रखी  है।गंगा की दुर्दशा देखकर विदेशी श्रद्धालु और सैलानी  तो दुखी हो रहे हैं। किन्तु  गंगा मैया की जय बोलने वाले तथाकथित  हिन्दू धर्मावलंबी गंगा को गटर गंगा बनाने  में जुटे हैं। जब भी कोई सरकार ,कोर्ट या प्रगतिशील वैज्ञानिकतवादी निवेदन करता है कि  नदियों को बचाओ तो गंगा को बर्बाद करने वाले और आक्रामक ढंग से गंगा की ऐंसी- तैंसी  करने में जुट जाते हैं। यह महज गंगा विमर्श ही नहीं है। दरसल यही  आधुनिक अवैज्ञानिक हिंदुत्व का असली चेहरा है। उत्तर भारत की अधिकांस नदी-नाले ,कुएँ  बावड़ी ,ताल-सरोवर ५० % तो औद्योगिक प्रदूषण की भेंट  चढ़ गए बाकी ५० % को धर्म-मजहब के पाखंडियों ने बर्बाद कर दिया है। न केवल इतना ही बल्कि  यज्ञ -हवन इत्यादि में लाखों क्विंटल अनाज घी-तेल -लकड़ी स्वाहा  करने वाले 'धर्मध्वज' अपने इस दुष्कर्म को वैज्ञानिकता से जोड़ने के लिए  टीवी पर  धार्मिक चैनलों के माध्यम से   महाप्रदूषण पैदा कर रहे हैं।

                  जो  सच्चे राष्ट्रवादी  हुआ करते हैं । वे साम्प्रदायिकता और  जातीयतावाद के जहर को कभी बर्दास्त नहीं कर सकते । क्योंकि  वे  जानते हैं कि राष्ट्रीय एकता -अखंडता के लिए  -कौमी एकता  जरूरी है।  इसलिए वे धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के सिद्धांत का अनुशीलन करते हैं। सच्चे वतन  परस्त वो नहीं जो अपनी अस्मिता को देशी -विदेशी पूंजपतियों के हाथों बेच रहे हैं। जो लोग धर्म-मजहब ,जाति  के आधार पर जनता को विभाजित कर वोट हथियाते हैं वे सत्ता भले ही हासिल कर लें  किन्तु  वे  सच्चे राष्ट्रवादी नहीं हो सकते।  इसी तरह जिसे अपने  देश की नदियों की ,पहाड़ों की , झीलों की, वायुमण्डल की  और जिसे  अपने राष्ट्र के स्वास्थ्य की चिंता नहीं वो सच्चा धर्म गुरु हो ही नहीं सकता। एक तरफ तो कुछ हिन्दुत्ववादी नेता और उनके सत्तासीन मंत्री अपने वयानों से देश के अल्पसंख्यकों पर निशाना साधते रहते हैं।

 यह कौन वेवकूफ नहीं  जानता कि औरंगजेब बड़ा बदमाश और घटिया बादशाह था। कार्ल मार्क्स ने तो यह सिद्धांत पेश किया है कि  पूरा-का पूरा सामन्तकालीन युग  ही मानवता का हत्यारा था। वे तो यह भी कहते हैं कि  अतीत का इतिहास केवल राजाओं-रानियों के युध्दों-ऐयासियों की दास्ताँ है। आम आदमी का इतिहास तो  नदारद  ही है। यह तो पूँजीवादी क्रांति  का कमाल है कि   दुनिया को क्रूर राजाओं और बादशाहों से छुटकरा मिला। किन्तु पूंजीवाद के  आगमन से दुनिया के मेहनतकशों को अभी भी आजादी नहीं मिली। उसे क्या औरंगजेब और क्या कलाम सब एक जैसे हैं। औरंगजेब रोड को अब्दुल कलाम रोड कहने से  किसी वेरोजगार युवा को काम नहीं मिलने वाला। किसी भूंखे को रोटी और प्यासे को पानी नहीं मिलने वाला। वेशक ' कलाम साहब  बहुत महान  थे। किन्तु किसी मंत्री का यह कहना कि 'एक   मुसलमान होते हुए भी  कलाम साहब बड़े राष्ट्रवादी थे '। बहुत ही शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है। इसीतरह मोदी जी ने भी एक बार बँगला देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की तारीफ में खा था " आप एक  महिला होते हुए भी बहुत बहादुर हैं "  जो लोग धर्म-जात  से ऊपर  केवल अपने वतन को ही मानने का  दावा करते होने वे अपनी इन स्थापनाओं पर पुनः चिंतन  करें। उनकी सुविधा के लिए  मैं बता दूँ कि देशभक्ति का ठेका  किसी खास धर्म-मजहब ने नहीं ले रखा है। इसी तरह वीरता और बहादुरी भी केवल पुरुषों की बपौती नहीं है। पोप  फ्रांसिस की तरह कोई और धर्मावलबी भी सोच सकता है।

       लेकिन संदेह है कि  पोप  फ्रांसिस के सामने ये  जुमलेबाज,फतवेबाज और आरक्षणबाज शायद नहीं   टिक सकेंगे  ? शुचिता ,सहिष्णुता और क्षम्यता में तो कदापि नहीं !


श्रीराम तिवारी