गुरुवार, 23 जुलाई 2015

दम्भ -पाखंड की जद में क्यों आ गए हम ?



  निकले  थे  घर से जिसकी  बारात  लेकर ,  उसी के जनाजे में  क्यों आ गए हम ?

  चढ़े  थे  शिखर पर  जो  विश्वास् लेकर ,   निराशा  की खाई में क्यों आ गिरे हम ?


  गाज  जो गिराते हैं नाजुक  दरख्तों पै , उन्ही  की  पनाहों  में   क्यों   आ गए हम ?

   फर्क ही नहीं जहाँ नीति -अनीति का , उस संगदिल  महफ़िल  में क्यों आ गए हम ?


    खींचते है  चीर गंगा जमुनी तहजीव का , ऐंसे कौरवों के शासन में क्यों आ गए हम ?

    लगती  रहती  जिधर  दावँ  पर पांचाली ,शकुनियों के जुआ घर में क्यों आ गए हम  ?


     कर सकते नहीं कद्र अपने ही बुजुर्गों की , दम्भ -पाखंड की जद में  क्यों आ  गए  हम ?

     जो  है बर्बर अमानवीय भयानक अँधेरी ,   उस  विषधर की वामी में क्यों आ गए हम ?


                                                      श्रीराम तिवारी


  
 

व्यापम के दोहे ;-श्रीराम तिवारी



 [१]  मामागिरी  के फेर में ,पस्त  हुए सरकार।

   मध्यप्रदेश का कर चले ,जमकर बंटाढार।।


[२]  झूँठ-कपट छल -छंद के ,चूके तीर कमान।

       व्यापम गच्चा दे गया ,चूक गए चौहान।।


[३]   सत्ता मद का सदा ही ,होता सूरज अस्त।

      पाप की हाँडी  फोड़ने ,नियति रही अभ्यस्त।।


[४]     भृष्टाचार के ताप की , रंग लाएगी आँच।

         अभी तो ये शुरुआत है ,सीबीआई जाँच।।


[५]  कर-कर वादे खोखले ,नेता  ठोकें  पीठ।

     भारत के  इतिहास में ,हुए न ऐंसे  ढीठ।।


                    श्रीराम तिवारी


     

       

यदि अच्छे दिन देश के आये ,फिर क्यों मना रहा है मातम ?


           

            

  व्यापम -श्यापम  बोल रहा है , सिस्टम कितना हुआ नराधम ?

  रिश्वतखोरी -  सीनाजोरी ,  मंत्री  अफसर  लूटम- पाटम  !!


    दम्भ  जिन्हे था देशभक्ति  का , वे  निकले  नैतिकता घातम्।

    चाल -चरित्र -चेहरे  पर उनके   ,व्हिसिलब्लोवर मारी लातम।।

 
    
       गटर गंग  के मगरमच्छ कुछ   ,  दिखा रहे आँसू सन्तापम् ।

      किये-धरे की लाज शरम ना  , अधम स्वार्थी विकट  पिशाचम।।


       अच्छे दिन यदि  देश के आये ,फिर क्यों  मना  रहा है मातम ?

        कितनी  जाने  लील  गया है  , फर्जीबाड़ा   व्यापक   व्यापम ? ?


       फँसे  हजारों- मरे  पचासों, जिम्मेदार है कौन  नराधम ?

       रिश्वत  लेने   देने  वाले  ,  नर हत्यारे   जन गण घातम।।


      कुटिल  कलंकी  व्यभिचारिणी ,  पूँजीवादी माया व्यापम।

      लिए -दिए बिन काम चले न ,फोकट काम बिगाड़ू हाकिम  ।।


     मुन्ना  भाई बने डाक्टर , यमदूतों की फौज चमाचम ।
   
    आरक्षण ने बाट  लगाई   ,प्रतिभा क्षमता सत्यनाशम्।।


        श्रीराम तिवारी



  




 

मंगलवार, 21 जुलाई 2015

यदि ईद मुबारक धर्मनिरपेक्ष है तो 'जय जगन्नाथ' साम्प्रदायिक कैसे हो सकता है ?

   भारत के  बहुसंख्यक  'अहिंसक 'समाज  की अनदेखी और अल्पसंख्यकवाद के लगातार कुपोषण से न केवल   भारत रुपी यह पुरातन राष्ट्र रुग् छत-विक्षत हो रहा है । बल्कि वामपंथी धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी कमजोर होती जा रही हैं। कतिपय नौसिखिये तथाकथित प्रगतिशील स्वनामधन्य वामपंथियों ने अपनी वैचारिक संकीर्णता से  बहुसंख्यक हिन्दू समाज को पूरी तरह साम्प्रदायिक तत्वों के हवाले करदिया है। इसीलिये इस दौर में अधिकांस  हिन्दू केवल मोदी -मोदी किये जा रहे हैं।भले ही मंदिर न बने ,धारा -३७० न हटे ,समान नागरिक संहिता लागू न हो ,कश्मीरी पंडित मारे -मारे ही  फिरते रहें किन्तु अभी १०-१५ साल तक तो  एनडीए के अच्छे दिन ही बने रहेंगे क्योंकि कांग्रेस के पाप क्षरण के लिए इतना वक्त तो अवश्य ही चाहिए। जनता परिवार या  तीसरा  मोर्चा तो २१ चूहों को  तराजू  के एक पलड़े पर तौलने जैसा ही है। वे सत्ता में न ही आएं तो ही इस देश  की भलाई है।

                       इस स्थति में  वाम पंथ को अपनी उस जड़ता से मुक्त होना ही होगा जिसके चलते उसे बंगाल में  कंगाल होना पड़  रहा है। उसे  केरल में बदनाम  कांग्रेस  से भी पराजित  होना पड़ रहा है। कांग्रेस ने चतुराई से अधिकांस अल्पसंख्यकों- ईसाइयों,मुसलमानों को अपने पक्ष में कर रखा  है। उधर हिन्दुओं का पेटेंट तो अभी भी'संघ' ही है। जिसने  'नमो' नाम का सिक्का चला रखा है। बंगाल - केरल में ही नहीं बल्कि पूरे देश में वामपंथ  को अपनी  वापिसी के लिए न केवल अल्पसंख्यक बल्कि  बहुसंख्यक वर्ग के  मजदूरों -किसानों के समर्थन  को  भी जुटाने की कोई खास पहल  करनी ही होगी ।  क्योंकि भारत एक धर्म-मजहब प्रधान देश है ,और जातीयता भी यहाँ एक वास्तविक सच्चाई है, अतएव यदि जरुरत पड़े तो सभी वर्गों और समाजों के शोषित पीड़ित-किसान  -मजदूरों को उनकी जातीय और धार्मिक  भावना का सम्मान किया जाना चाहिये। उनकी मजहबी व जातीय  पहचान बनाये रखने के आग्रह पर  वामपंथ द्वारा कटटर रवैया अख्तयार  नहीं किया जा सकता है।

 चूँकि  आरएसएस और ओवेसी जैसे लोग कम्युनिस्टों को धर्म विरिुद्ध या समाज विरुद्ध  प्रचारित करते रहते हैं। इसलिए उन  स्वनामधन्य वाम पंथियों को चाहिए कि आरएसएस और आईएसएस को एक ही तराजू पर तौलने  की कसम  नहीं खाएं । कतिपय वामपंथियों के  इस हठधर्मी व्यवहार से बहुसंख्यक हिन्दू जो गरीब भी है वह  आईएसएस के कहने पर गोधरा में तो जल-मरने या अयोध्या में मस्जिद तोड़ने के दौरान  बेमौत मरने को भी  तैयार है। जबकि वामपंथ के क्रांतिकारी आंदोलन में नारे-लगाने की  भी उसे फुर्सत  नहीं  है। साम्प्रदायिकता की आग से  यदि कोई गरीब हिन्दू ज़िंदा बच भी गया तो वह  'हर-हर मोदी -घर-घर मोदी 'के नारे लगाकर भाजपा को और उसके व्यापम वालों को सत्ता  बिठाने  के  लिए सब कुछ कर ने के लिए तैयार है।

        वामपंथ ने विगत ७० सालों में अल्पसंख्यकों की लड़ाई  ही ज्यादा लड़ी है । यदि यह अन्याय देखकर   अधिकांस हिन्दू आरएसएस के  दड़वे  में चले गये और अधिकांस  अल्पसंख्यक - खास तौर से अधिकांस  मुसलमान यदि  कांग्रेस ,ममता, मुलायम ,माया, मुफ्ती या ओवेसी की ओर  चले गए और उस वामपंथ को मझधार में  छोड़ गए ,जिसने अपना सर्वस्व  सबके लिए  अर्पण किया  है तो इस दुरावस्था पर पुनर्विचार करने में क्या बुराई है ?वामपंथी पार्टियों के अधिवेशनों में ,प्लेनंस में या उनकी विभिन्न स्तरीय मीटिंग्स में  जो तय होता है वह विगत शताब्दी की शीतयुद्धकालीन धुंध से आगे देख सकने की क्षमता से रहित है। यही वजह है कि वामपंथ की अग्रिम कतारों में भी यह मान लिया गया है कि  प्रत्येक हिन्दू प्रतीक ,नाम,रूप और उसका ग्रन्थ ही साम्प्रदायिकता से परिपूर्ण है। बाकी सभी धर्म मजहब चूँकि अल्पसंख्यक हैं इसलिए  वे सहज ही प्रगतिशील हैं।  भले ही वे  वे पंजाब में ,कश्मीर में ,महारष्ट्र में और  सिंगूर में  केवल वामपंथी कार्यकर्ताओं को ही चुन-चुनकर मारते रहे हों ।

                                     पता नहीं उन्हें किसने कब  यह तय कर दिया कि  'जय श्रीराम ' कहना पाप है। ये तो 'आरएसएस का  नारा है। यदि कोई हिन्दू या नास्तिक भी 'जय जगन्नाथ ' कहता है तो ये संकीर्णतावादी फतवा जारी आकर देंगे कि  ये तो साम्प्रदायिकता है। यदि मैने  कहा कि 'ईद मुबारक ' तो मेरी धर्मनिरपेक्षता पर किसी को कोई संदेह नहीं ।  किन्तु यदि मैंने कहा 'हर-हर महादेव' तो गजब हो जाएगा। मुझे प्रगतिशीलता के मंच से उठाकर हिन्दुत्तवादी खारे  महासागर में उठाकर फेंक दिया जाएगा। किसी पुरातनपंथी दकियानूसी खाप की तरह ही आजकल प्रगतिशील -जनवादी लोग भी धर्मनिरपेक्षता और छुआछूत का  पैमाना तय करने लगे हैं।यही वजह है कि  जब कांग्रेस या भाजपा रैली होती है तो लाखों लोग जुट जाते हैं. किन्तु वामपंथ के आंदोलन में दस-बीस जून -पुराने या रिटायर कर्मचारी ही खड़े दीखते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती  है ? वामपंथी तो बड़े ईमानदार और जनहितकारी ही होते हैं। फिर जनता उनके आह्वान की या उन्हें चुनने में अनदेखी क्यों करती है ?इसका एक उत्तर तो मुझे कुछ उदारवादी हिन्दू बुजुर्गों ने ही दिया। उनके सुझाव का सार  की 'जिसका पेट जितना बड़ा उसको उतना खाने को मिले '। चूँकि हिन्दू बहुसंख्यक हैं  वे चाहते हैं कि कम  उन्हें अल्पसंख्यकों जितना तवज्जो तो  चाहिए।
                            मेरा सवाल है कि  यदि ईद मुबारक धर्मनिरपेक्ष है तो 'जय जगन्नाथ' साम्प्रदायिक कैसे हो सकता है ?जब देश और दुनिया में ईद मनाई  जा रही  थी और  पुरी -अहमदावाद में जगन्नाथ  यात्राएं  जारी थीं तो मैंने दोनों का इस्तकबाल किया। दुनिया भर के  मुसलमानों  ने एक  दूसरे के गले लगकर ईद मुबारक कहा ! हिन्दुओं ने भी तहे दिल से मुसलमानों को 'ईद मुबारक कहा । न केवल समाजवादियों ने ,वामपंथियों ने इस बार तो 'संघियों' ने भी 'ईद मुबारक कहा। भाजपा और संघ ने ,कांग्रेस ने तो  इफ्तार पार्टी भी दी। जबकि  कश्मीर  में पत्थरबाजी के साथ एवं इराक- यमन में अनेक बेकसूरों की गर्दने  रेतने के बाद  कटटरवादी युवाओं ने  ईद की मुबारकवाद दी। मैंने भी  हर साल की तरह इस बार भी मुसलमान भाइयों को ईद की मुबारकबाद दी  ! इसके  साथ ही श्रद्धालु - हिन्दुओं को भी 'जय जगन्नाथ 'का सन्देश भी  पोस्ट कर दिया।यहाँ तक तो  सब ठीक ठाक रहा। लेकिन एक शुद्ध प्रगतिशील  मित्र को  मेरी इस 'हरकत' पर एतराज है।उन्हें मेरे  'जय जगन्नाथ 'लिखने मात्र में ही  साम्प्रदायिकता की 'बू' आ रही है तो बोलने का आलम  क्या होगा ?

      चूँकि इस बार ईद के दिन  ही  पुरी [ओडीसा ] और अहमदाबाद[गुजरात]  में भगवान  यात्रा का 'पर्व भी था। अतः  मैंने एफबी पर " हिन्दू -मुस्लिम सभी को एक साथ "सुप्रभातम …… जय जगन्नाथ … ईद मुबारक ' का संदेश पोस्ट किया था।  वैसे तो मेरा सदैव  यही प्रयास रहा है कि  धर्म-मजहब और तीर्थाटन के गोरखधंधे से ही  पर्याप्त दूरी बनी रहे।  इसीलिए मैंने कभी दीवाली नहीं मनाई।   होली को तो मैं हुड़दंगियों का त्यौहार ही  मानता हूँ।  लेकिन त्योहारों पर जो मानते हैं उन्हें शुभकामना संदेश जरुर देता हैं।  हिन्दू -मुस्लिम दोनों को एक साथ  शुभकामना सन्देश का मेरा  यह अभिनव प्रयोग  अधिकांस मित्रों और संबंधीजनों को पसंद आया। किन्तु  मेरे  एक प्रगतिशील  मित्र  को  सिर्फ  'ईद मुबारक ' ही  पसंद आया। उन्हें मेरा  'जय जगन्नाथ '  लिखना पसंद नहीं आया  और फेस बुक पर उन्होंने मेरी क्लाश  भी ले डाली।

 वैसे भी मुझे  स्वास्थगत कारणों से धुल ,धुंआँ ,अगरबत्ती ,धुप ,हवन ,लोभान व  तमाम धार्मिक आडंबरों से ,धर्मांध भीड़ से  -धार्मिक  तीज त्योहारों से बहुत कोफ़्त हुआ करती है। यदा-कदा यूनियन के अखिल भारतीय अधिवेशनों में शिरकत  के दौरान जब कभी उत्तर -दक्षिण ,पूर्व पश्चिम  जाना  हुआ तो तीर्थों को दूर से ही नमन - किया। मैंने कभी  भी  गंगा ,यमुना ,नर्मदा ,कावेरी या  गोदावरी  जैसी तथाकथित परम पवित्र नदियों में स्नानं तो क्या हाथ भी नहीं धोये। रामेश्वरम ,तिरुमला -काशीविश्वनाथ ,प्रशांति -निलियम ,सोमनाथ , जगन्नाथ- पूरी में हफ्तों रहते हुए भी किसी मंदिर या मस्जिद की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा। उज्जैन - महाकालेश्वर और ओंकारेश्वर के परमेश्वरम् तो इंदौर  से ६० किलोमीटर की दूरी पर हैं। किन्तु मैं कभी उनके निकट भी नहीं गया। कभी कहीं एक आध बार उलझा भी तो अजंता-एलोरा या एलिफेंटा के पुरातत्वीय अवशेषों के वैज्ञानिक   नजरिये  से  ही  इन 'तीर्थों' को देखा  होगा। मैंने कभी किसी को उसकी धार्मिक आस्था या जीवन शैली पर भी कोई एतराज नहीं किया। लेकिन स्वयं पूरी कोशिश रही कि  जितना भी  सम्भव हो अंधश्रद्धा और पाखंड से दूर रहा जाये।मैं  यगोपवीत धारण नहीं करता क्योंकि उसकी सार्थकता और उपयोगिता कभी भी मेरे पल्ले  ही  नहीं पडी। मेरी चोटी -शिखा भी  गायब है । इस सबके वावजूद मैंने  कभी किसी अन्य व्यक्ति के जनेऊ पहनने या  चोटी रखने पर उसका उपहास नहीं  किया । इसीलिये मेरे सैकड़ों मित्र हैं जो किसी भी विचारधारा- सम्प्रदाय के होते हुए भी - मुझे एक वामपंथी जानते हुए भी -ना पसंद  नहीं करते ।  यही क्या कम है ?

                 बंगाल और केरल में वामपंथ की लगातार चकाचक धुलाई के बाद मुझे लगा कि वहां के राजनैतिक  परिदृश्य में वामपंथ की खामियों का भी संधान करूँ। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि बहुसंख्यक हिन्दू भाजपा की ओर  जा रहे हैं। अल्पसंख्यकों को वाम से ज्यादा ममता पर भरोसा है। दोनों ही समुदायों ने   वाम पंथ की धर्मनिरपेक्षता  को नकार दिया  है । पश्चिम बंगाल  और केरल में ही नहीं  बल्कि पूरे देश में  वामपंथ  ने विगत ७० साल से अल्पसंख्यक वर्गों की रक्षा के लिए हजारों कुर्बानियां दी हैं। किन्तु अब ये हालत हैं की बहुसंख्यक  तो भाजपा के साथ हो लिए और अल्पसंख्यक ममता,मुलायम ,लालू या नीतीश के साथ  हो लिए वाम को तो "दोई दीन  से गए पांड़े !" इतने पर भी हमने  यदि आत्मालोचना  से मुँह  चुराया तो यह दुनिया की महानतम  विचारधारा  के प्रति हमारी अवैज्ञानिक विवेचना ही हो सकती है।

                                                             श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 20 जुलाई 2015

विपक्ष चाहे तो जनता के सवालों को संसद में मुँह पर पट्टी बांधकर पुरजोर और अहिंसक तरीके से भी उठा सकता है।





संसद के मानसून सत्र  में विपक्षी दलों को संसदीय मर्यादा के अंदर रहकर ही जन-मुद्दों और  उन तमाम  सवालों पर अपनी लोकतान्त्रिक भूमिका अदा करनी चाहिए- जिन मुद्दों को लेकर  देश भर में -सड़कों पर संघर्ष किया जा रहा है। वैसे भी खंड -खंड बिखरे हुए विपक्ष  की  नाराजगी से  जनता को कोई लेना देना नहीं है। यदि कुछ वास्ता  या लेना-देना होता तो अधिकांस उपचुनावों में सत्तापक्ष की ही जीत क्यों होती ? बटे  हुए  विपक्ष की विभिन्न मुद्दों पर सत्तारूढ़  वर्ग से मुठभेड़ से आम  जनता  का कोई भला नहीं होने वाला । विपक्ष की इस आपसी फूट के कारण ही जनता तो यह भी भूल गयी कि -सूचना का अधिकार ,मनरेगा अधिकार ,खाद्य सुरक्षा का अधिकार  शिक्षा का अधिकार दिलाने में किसकी भूमिका रही। जनता के इन सवालों को लेकर  जिस वामपंथ और ट्रेड - यूनियन आंदोलन ने पीढियां कुर्वान कर दीं उसीके साधनहीन -धनहीन  ईमानदार प्रत्यासी आजकल दिल्ली , मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र,गुजरात ,यूपी ,बिहार और उड़ीसा  में जमानत भी नहीं बचा पाते।
               कुछ लोग  कह सकते हैं  कि इसमें  जनता का कोई  कसूर नहीं।  ये तो साम्प्रदायिक शक्तिओं का उभार और जातीयता की बदबू है जो लाल महक को फलने फूलने नहीं दे रही। विगत  मई-२०१४ में हुए सत्ता परिवर्तन को भी कुछ लोग कांग्रेस की काली करतूतों और उसकी  बदनामी  से जोड़कर देखते हैं। कुछ लोग यह  भी  मानते हैं कि  भाजपा के दुष्प्रचार  - मीडिया मैनेजमेंट  और अम्बानी-अडानी का  ही यह  कमाल है कि केंद्र में एनडीए को प्रचंड बहुमत मिल गयाहै । कुछ लोग मानते हैं कि  जिन्होंने  जनता  के सवालों पर संघर्ष नहीं किया ,वही  हासिये पर धकेल दिए गये। ऐसा  कहने वाले वही हो सकते हैं जो केवल भाषणबाजी कर सकते हैं या  कभी खुद किसी संघर्ष में शामिल नहीं हुए। कभी किसी धरना या  भूंख हड़ताल पर भी नहीं बैठे ।
                                                  यदि विपक्षी एवं  सत्ता वंचित पार्टियाँ  और लोग केवल सत्ता पक्ष के दोषों का ही बखान करते रहेंगे या उनकी भूरि-भूरि आलोचना ही करते रहेंगे  तो इससे  सत्ताधारी वर्ग का  ही फायदा होगा।  क्योंकि उन्हें अपने पापों को छिपाने और दोषों को दूर करने का पर्याप्त मौका मिलेगा। जनता भी आम तौर  पर सत्तापक्ष को 'संदेह का लाभ' देने में यकीन रखती है। जबकि विद्रोही मीडिया एवं अविश्वश्नीय विपक्ष को आम जनता  इन दिनों शक और संदेह की नजर से देख रही  है।इस संदर्भ में मेरी साधारण चेताती है कि मैं  व्यक्तिश ; यथासम्भव  शोषण  -उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ  लड़ने वालों का साथ दूँ । अपनी निजी  और वर्गीय  हैसियत  मुझे यह एहसास  भी कराती रहती  है कि तमाम अधुनातन  वैज्ञानिक संसाधनों को हथियार  बनाकर यह अधोगामी कुव्यवस्था अपने चरम पतन के दौर में है। इसका कोई तो तोड़  होना चाहिए ,या  कोई तो सार्थक विकल्प अवश्य चाहिए। तमाम दार्शनिक और चिंतकों  द्वारा समीक्षित तथा अनेक सर्वहारा क्रांतियों द्वारा  परिष्कृत  मानवीय वैज्ञानिक  वैचारिकश्रेष्ठतम  विकल्प सिर्फ वामपंथ अर्थात  मार्क्सवाद -लेनिनवाद -सर्वहारा  अंतरराष्ट्रीयतावाद  ही है। यही  इस वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था का  बेहतरीन विकल्प हो सकता है।

                    मेंरा यह भी मानना है कि दुनिया भर के तमाम राजनैतिक दल और शासक वर्ग  अपने सिद्धांतों - नीतियों और विचारों को  ही अंतिम सत्य मानते हैं। अतएव वे इस अर्थ में अपूर्ण हैं या कदाचित दोषी भी हैं कि अपनी खामियों को अव्वल  तो मानते ही नहीं । यदि  कभी रँगे  हाथ पकड़े भी गए तो सारा दोष जनता  के सिर  पर  मढ़ देते हैं। जैसे कि आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कहा था कि  'भारत और चीन के लोग ज्यादा खाने लगे हैं " जबकि एक दुष्परिणाम के रूप में अमेरिकन आर्थिक मंदी की वजह उसका खुद का किया धरा ही था। भारत के ३० %  नर-नारी तो आज भी भयानक कुपोषण और दरिद्रता के शिकार हैं। दसबीस अम्बानियों -अडानियों की बढ़ती चमक-दमक से भारत की आर्थिक दुर्दशा को ढका नहीं जा सकता। अच्छे दिनों की नारेबाजी से या झाड़ू लेकर फोटो खिचाने से या मीडिया के दुरूपयोग से शासक वर्ग को  अस्थायी सफलता मिल सकती है. किन्तु जनता-जनार्दन के लिए तभी कुछ हो सकेगा जब उसकी तरफदार नीतियों पर  देश की शासन व्यवस्था चलेगी। यदि शासक वर्ग यह काम नहीं करता तो विपक्ष की यह जिम्मेदारी है कि  न केवल सड़कों पर बल्कि संसद में जनता के लिए संघर्ष करे।संघर्ष से मेरा अभिप्राय माइक या कुर्सियां उखाड़ने से नहीं है ।  बल्कि यदि विपक्ष चाहे  तो जनता के सवालों को संसद में मुँह  पर पट्टी बांधकर  पुरजोर और अहिंसक तरीके से भी उठा सकता है। यह तरीका  ज्यादा असरकारक और राष्ट्रहितकारी  होगा।

       जबकि इसके बरक्स साम्यवाद और उसकी मार्क्सवादी वैज्ञानिक व्याख्या में यह जन कल्याणकारी और  सर्वोत्तम गुण  निहित है कि वह अपनी  कमियों और दोषों के निवारण में कोई संकोच नहीं करती।  इसका एक और  महत्वपूर्ण गुण यह है कि इस विचारधारा और दर्शन पर  आधारित  कोई भी जनवादी  पार्टी किसी भी देश विशेष की जनता के बहुमत की आकांक्षाओं के बिना जबरिया  नहीं थोपी जा सकती ।नक्सलवादी या माओवादी तरीके से तो कदापि नहीं। जबकि  प्रायः सभी  पूँजीवादी  और साम्प्रदायिक पार्टियाँ   छल-बल-धन इत्यादि  प्रपंचों का इस्तेमाल करके सत्ता पर काबिज हो जातीं हैं।  किसी भी जनवादी - साम्यवादी विचारधारा की पार्टी का लक्ष्य जनता की जनवादी क्रांति ही है। इसीलिये वामपंथी कार्यकर्ता इसकी परवाह नहीं किया करते कि  संसदीय  लोकतंत्र के मंच पर उनकी प्रस्तुति  कब और कैसी है ? जनतांत्रिक तौर  तरीकों से भी यदि देश की या किसी राज्य विशेष की राज्यसत्ता पर किसानों-मजदूरों का कोई वर्चस्व  इन दिनों नहीं दिख  रहा है तो उसके लिए बाकई  उनके ही संघर्षों और जद्दोजहद में कोई कमी रही होगी !
                                 खैर इस संदर्भ में मेंरा वैचारिक दृष्टिकोण अनगढ़  या अपरिपक्व भी हो सकता है। किन्तु इसमें वामपंथी विचारधारा का कोई दोष नहीं।वेशक  इसीलिये उसके प्रति मेरी प्रतिबध्दता अक्षुण है।  मेरा व्यक्तिशः मानना है कि  भारत  के  संसदीय या विधान सभा चुनाव में  धर्म-मजहब और जाति  जैसे मुख्य कारकों पर वामपंथ का नजरिया दुरुस्त   नहीं है। चीन ,रूस ,वियतनाम या क्यूबा जैसी सामाजिक स्थति हमारी नहीं  है। उनके बरक्स भारत में दुनिया के सर्वाधिक अल्पसंख्यक रहते हैं।  भारत ही दुनिया का ऐसा देश है जहाँ बहुलतावादी  सांस्कृतिक और  जातीय बहुलतावादी समाज है।यहाँ  लाखों जातियां और हजारों धर्म-मजहब हैं। इसी वजह से दुनिया में भारत ही  एकमात्र ऐंसा  देश है जो अंदर से खोखला और बाहर से असुरक्षित है।  भारत ही एकमात्र ऐंसा देश है जहाँ दुनिया के सर्वाधिक अमीर रहते हैं। भारत ही दुनिया  का एकमात्र देश है जहाँ दुनिया की सर्वाधिक गरीब आबादी रहती है। भारत ही एकमात्र देश है जहाँ 'अहिंसा' को मानने  वाले भी रहते हैं. और भारत ही एक मात्र ऐंसा देश है जहाँ हिंसक प्रवृत्ति के संहारक तत्व भी  बहुतायत से पाये जाते हैं।

            भारत के  बहुसंख्यक  'अहिंसक 'समाज  की अनदेखी और अल्पसंख्यकवाद के  लगातार कुपोषण से  भारत रुपी यह पुरातन राष्ट्र रुग्ण और  छत-विक्षत हो चूका है । कतिपय नौसिखिये  तथाकथित प्रगतिशील  वामपंथियों ने अपनी वैचारिक संकीर्णता से बहुसंख्यक  हिन्दू समाज को साम्प्रदायिक तत्वों के हवाले करदिया है।  अभी भी केवल मोदी -मोदी किये जा रहे हैं।  वाम पंथ को अपनी उस जड़ता से मुक्त होना ही होगा जिसके चलते उसे अब  बंगाल में  कंगाल होना पड़  रहा है।  केरल में कांग्रेस ने चतुराई से अधिकांस अल्पसंख्यकों- ईसाइयों,मुसलमानों को भरपल्ले से संतुष्ट किया है। उधर हिन्दुओं का पेटेंट तो अभी भी मोदी जी के नाम ही हो चला है ,अतः केरल में भी वाम को अपनी  वापिसी के लिए,वहाँ  के बहुसंख्यक वर्गीय मजदूरों -किसानों के सक्रिय  समर्थन  को जुटाने की कोई खास पहल  करनी ही होगी । यदि जरुरत पड़े तो सभी वर्गों और समाजों के शोषित  पीड़ित-किसान -मजदूरों को उनकी जातीय और  -धार्मिक पहचान बनाये रखने के आग्रह पर कोई उदार रवैया अख्तयार किया जा सकता है। ताकि आरएसएस और ओवेसी जैसे लोग कम्युनिस्टों को धर्म विरिुद्ध या समाज विरुद्ध न बता सकें। लेकिन कुछ  स्वनामधन्य वाम पंथियों ने आरएसएस और आईएसएस को एक ही तराजू पर तौलने की कसम खा रखी  है। उनके इस हठधर्मी व्यवहार से बहुसंख्यक हिन्दू गरीब भी आईएसएस के कहने पर गोधरा में जल-मरने या मस्जिद तोड़ने के दौरान  बेमौत मरने को तैयार है। और यदि ज़िंदा बच गया तो 'हर-हर मोदी -घर-घर मोदी 'के नारे लगाकर भाजपा के व्यापम वालों को सत्ता  बिठाने  के  लिए सब कुछ कर ने के लिए तैयार है। वामपंथ ने विगत ७० सालों में अल्पसंख्यकों की लड़ाई हमेशा लड़ी। यदि वामपंथ को हिन्दू आरएसएस के  कारण छोड़ गए  तो अल्पसंख्यक और खास तौर  से अधिकांस मुसलमान कांग्रेस ,ममता  और मुलायम की ओर  चले गए और उस वामपंथ को मझधार में  छोड़ गए ,जिसने अपना सर्वस्व  सबके लिए  अर्पण किए है।

   श्रीराम तिवारी
                                   
 

रविवार, 19 जुलाई 2015

"मध्यप्रदेश एवं देश के प्रायवेट मेडिकल कालेजों पर मुझे भरोसा नहीं रहा। "



  मेदांता ग्रुप के चैयरमेन डॉ नरेश त्रेहन का -मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार को और व्यापम फर्जीबाड़े के  आयोजकों को सबसे 'मारक 'जबाब !आज इंदौर में उन्होंने कहा -"मैंने तो इंदौर में मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलने का प्लान तैयार किया था। इसके लिए इंदौर में जमीन भी देख ली थी। परन्तु व्यापम घोटाले ने मुझे एक बार फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया है। अभी तो इंदौर में 'मेदांता' का जो अस्पताल है उसके  सभी डॉक्टर्स - खासकर  मध्यप्रदेश के मेडिकल कालेजों से डिग्री लेकर जिनकी भर्ती की गयी होगी ,उनके दस्तावेजों की जांच बारीकी से करूंगा।  मेडिकल यूनिवर्सिटी खोलना मेरा सपना है किन्तु व्यापम जैसी गड़बड़ियों से मेरा विश्वास डगमगा रहा है। बहरहाल आइन्दा  मेदांता समूह के अस्पतालों में सरकारी मेडिकल कालेज से निकले डॉक्टर्स को ही प्रिफर किया जाएगा। उनकी भी गहन जांच पड़ताल होगी। मध्यप्रदेश  एवं  देश के  प्रायवेट  मेडिकल कालेजों पर मुझे भरोसा नहीं रहा। "
                     
जाने -माने ह्रदय रोग विशेषज्ञ और मेदांता के सर्वेसर्वा डॉ त्रेहन  से जब पत्रकारों ने व्यापम फर्जीबाड़े और उसके दूरगामी दुष्प्रभावों पर उनकी प्रतिक्रिया जानने चाही तो उन्होंने  स्पष्ट कहा कि "न केवल  सचाई सामने आना चाहिए , बल्कि मेंडिकल कौंसिल ऑफ़  इण्डिया को भी चाहिए कि अन्य साल्वर से परीक्षा दिलाने या पैसे देकर  सीट हासिल करने या आरक्षण के चलते सिर्फ ६ नंबर पाने वाले को  मेडिकल कालेज में  एडमिशन दिया जा रहा है तो वो इलाज कैसा  करेगा ?उनका आशय था कि  मेडिकल कॉलजों में काबिलियत के आधार पर ही एडमिशन हो।  वर्ना  न केवल व्यापम जैसे घोटाले होते रहेंगे बल्कि जन स्वास्थ  से भी खिलवाड़ होती रहेगी।

                                       श्रीराम तिवारी
 

मंगलवार, 14 जुलाई 2015

''सिंह भले ही चला जाए पर 'गढ़'नहीं जाना चाहिए" !



                 ताजा खबर है कि  कुख्यात  व्यापम फर्जीवाड़े की जांच के लिए सीबीआई के आला अफसर दिल्ली से मध्यप्रदेश की सरजमीं पर अपने पैर रखते ,उससे पहले ही केंद्र और राज्य सरकार  द्वारा इस व्यापम फर्जीवाड़े को न्यूट्रलाइज करने और जनता में अपनी घटती साख को बचाने की अंतिम  कार्यवाही की जा रही है। एमपी के  प्रत्येक संभागीय मुख्यालय पर केंद्र सरकार के प्रकाश जावड़ेकर जैसे तेज तर्रार मंत्रियों को आपात्कालिक  प्रवक्ता बनाकर अपने पक्ष में  मीडिया ट्रायल लिया जा रहा है। व्यापम फर्जीवाड़े के लिए  जिम्मेदार शिवराज सरकार को बचाने के लिए 'संघ' भी मैदान में आ गया है। शिवराज के त्याग  पत्र की मांग को लेकर  कांग्रेस ,वाम मोर्चा और जन संगठनों ने  सोलह जुलाई को  मध्यप्रदेश बंद  का आह्वान किया है। विपक्ष के इस लोकतान्त्रिक आंदोलन को कुचलने और असफल करने के लिए ,सरकार समर्थकों -व्यापम काण्ड के दोषियों ने आंदोलन के  खिलाफ न्यायालय  में याचिकाएं  भी दाखिल की हैं ।  सरकार और आपराधिक तत्वों  की मिली भगत से केंद्र सरकार के  मंसूबों पर कुछ  भी कुछ लोगों को अब शंका -कुशंका होने लगी है। लोगों को लगने लगा है कि - सी बी आई जांच तो इस भृष्ट शिवराज सरकार को बचाने का एक बहाना  मात्र है।

                                     अब तो सभी को लगने लगा है कि  शिवराज सरकार और  भाजपा की धूमिल हो रही छवि को बचाने के लिए ही इस  सीबीआई को ढाल बनाया  गया है। इसीलिए पूरा कुनवा  एकजुट कार्यवाही में व्यस्त हो गया है। मोहनराव भगवत  ने भी संगठन स्तर पर अपनी  अंतिम योजना  पर काम शुरू कर  दिया है। अंतिम इस अर्थ में कि  इस बार  'सिंह भले ही चला जाए पर 'गढ़ 'नहीं जाना  चाहिए '.इससे पहले कि सीबीआई वाले मध्यप्रदेश के  इंदौर  , भोपाल ,ग्वालियर ,जबलपुर और भिंड -मुरैना में जाकर बेसिक जानकारी हासिल करते ,उससे पहले ही केंद्र सरकार के सात-सात महारथियों ने इस सीबीआई रुपी अभिमन्यु को घेरने की योजना पर काम शुरू कर दिया है।इशारे किये जा रहे हैं कि सीबीआई तो अपनी है जी ,उससे डरना नहीं है जी ! और सच उसे  कभी बताना  नहीं  है जी !
                       लोक सभा अध्यक्ष और अधिकांस वरिष्ठ भाजपा नेता अभी तो शिवराज को 'अक्षत' देखना   चाहते हैं। अब तो ' संघ ' के ही कुछ बौद्धिक भी कहने लगे हैं कि  ऐंसी विषम  स्थिति में कांग्रेस ने दर्जनों बार अपने मंत्रियों /मुख्यमंत्रिओं को सत्ताच्युत किया है। किन्तु लगता है कि  मोदी जी और अन्य वरिष्ठ भाजपा  नेताओं  का अपना ही स्वाभिमान ,जन भावना या लोक लाज से कोई लेना-देना नहीं है। कल्पना कीजिये कि  दिल्ली में कांग्रेस की सरकार है,और मध्यप्रदेश में भी  कोई कांग्रेसी मुख्यमंत्री इस तरह के फर्जीवाड़े में फंसकर पार्टी को बदनाम कर रहा है ,तो  कांग्रेस  का हाई कमान उसे फौरन 'बाइज्जत'  गुमनामी के अंधरे में फेंक देता। किन्तु भाजपा -जिसका चाल चेहरा चरित्र जुदा है ,जो पार्टी विथ डिफ़रेंस 'है ,उसे तो लगता है  की सत्ता रुपी  जोंक  ने जकड़ रखा है।
 
                  मध्यप्रदेश में इन दिनों  व्यापम फर्जीवाड़े  के खिलाफ चिन्हित गवाहों और  व्हिसिलब्लोअर को ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ नेताओं और अफसरों को भी अपने प्राणों की चिंता सत्ता रही है। शनेः -शनेः  जिस तरह  कुख्यात बलात्कारी आसाराम के खिलाफ  सारे सबूत और  गवाह   खत्म कर दिए गए,जिस तरह व्यापम से संबंधित आधा सैकड़ा लोग मारे गए उससे  सभी को लगता है कि व्यापम  से संबंधित  कोई भी सुरक्षित नहीं है।

                                सभी जानते हैं कि वर्तमान महाभृष्ट निजाम और अधोगामी व्यवस्था  के सौजन्य से उन  सबका असमय कलवलित होना तो तय  ही था ।  लेकिन यह व्यापम महामारी तो  मध्यप्रदेश ,छग यूपी ,बिहार, राजस्थान ,महाराष्ट्र, कर्नाटक ,बंगाल और  गुजरात  तक फैली हुई  है। फिर सीबीआई कब तक कहाँ-कहाँ भटकती रहेगी। सीबीआई की सूचनाओं का आधार भी तो यही भृस्ट  अफसरशाही और बदनाम मशीनरी ही है न ! व्यापम काण्ड तो इस व्यवस्था रुपी हांडी का  एक चावल का दान मात्र है।  मोदी सरकार हो या शिवराज सरकार ,यूपी की महाभृस्ट अखिलेश सरकार सभी  के राज में यह केवल संयोग नहीं है कि  देश भर के अंधश्रद्धा  केन्द्रों  -पैसा बटोरू मजहबी संस्थानों, विश्वविद्यालयों ,मंत्रालयों ,सरकारी विभागों  ,अकादमिक - संस्थानों  तथा चिकित्सा  क्षेत्रों में जगह - जगह विभिन्न  रूपों में भयानक  'व्यापम' ही  व्याप्त है। इनमें जिनकी जहाँ  जितनी  पैठ है उन  महाठगों  -महाधुर्तों के ही  अच्छे दिन आये हैं। योग्यता वाले को हर किस्म के  विकास  व  शिक्षा ,सेवा क्षेत्र में कहीं कोई सम्मान या अवसर नहीं हैं। आरक्षण वालों को , मुन्ना भाइयों -मुन्नी बहिनों को और अनैतिक रिश्तों  के रुतवे - रूप सौंदर्य वालों को , पैसे धइले और वोट  कबाड़ू क्षमता वालों को,जातीय  - साम्प्रदायिक आधार पर जनता को आकर्षित करने वालों को -उनकी  उपादेयता  के आधार पर इस व्यवस्था में सब कुछ उपलब्ध है । यहाँ तक की नकली डिग्री वाले या 'वालियों'  को मंत्री पद भी उपलब्ध है। जनता को केवल सीबीआई का झुनझुना मुबारक या बाबाजी का ठुल्लु। शायद अच्छे दिनों का दृश्य यही है !

                                श्रीराम तिवारी

                       

रविवार, 12 जुलाई 2015

मानसिक गुलामी और भृष्टाचार का अक्स तो भारतीय परम्परा में सनातन से मौजूद है।

   अक्सर देखा गया है कि इमारती लकड़ी के लिए जंगल में सबसे पहले सीधे -सुडौल और सुदर्शन पेड़ को ही काटा जाता है। उबड़- खाबड़ -आड़े-टेड़े पेड़ों की तरफ तो लकड़ी काटने वाला नजर उठाकर भी नहीं देखता ।  मानव  समाज में भी सीधे  -सरल  नर-नारियों  की  कुछ यही दशा है। शराफ़त  और कायदे से जीवन यापन करने वाले  व्यक्ति को शासन-प्रशासन में बैठे लोग- वर्गीय समाज के धूर्त-बदमास तत्व चैन से नहीं जीने देते। विधि व  क़ानून  का सम्मान करने वाले को 'चुगद' याने  बौड़म समझा जाता है। बदमाश तत्व  सबसे पहले इन्हे ही शिकार बनाते हैं। यह अमानवीय -असामाजिक  बीमारी  सारे 'सभ्य' संसार में समान रूप से व्याप्त है। भारत भी इस बीमारी  के गर्त में आकंठ डूबा हुआ है। भारतीय निरीह जनता दुनिया में सर्वाधिक आक्रान्त है।यहाँ की लोकशाही का वैसे तो दुनिया में बड़ा नाम है किन्तु अंदरूनी स्थति बहुत  भयावह और निष्ठुर है।

                   भारत की अधिकांस  पूँजीवादी राजनैतिक पार्टियाँ -भाजपा,कांग्रेस ,सपा ,तृणमूल कांग्रेस इत्यादि के निरंकुश   शासन-व्यवस्था  के वीभत्स दौर में  शरीफ  प्रजाति के नागरिकों ,छात्रों, युवाओं, मजदूरों, किसानों  तथा आम आदमी का कहीं भी बिना रिश्वत दिए जीवित रहना दूभर हो  चुका  है।आप यदि धनवान हैं तो रिश्वत  देकर उल्लू सीधा कर सकते हैं। ये  आप बाहुबली और 'दवंग' हैं तो आप मंत्री -सांसद के खास हो सकते हैं यदि आप सत्ता की चूल हिलाने की ताकत रखते हैं तो  शौक से हत्या ,बलात्कार,लूट -शोषण कुछ भी कीजिये। आप  का कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। लोकपाल ,लोकायुक्त,एसटीएफ ,सीबीआई या ईडी कोई भी आपकी निजी जीवंतता  पर -आपके आचरण पर अंगुली नहीं उठा सकता। यदि आप सत्तारूढ़ पार्टी के कर्णधार हैं तो लोकतंत्र  - सम्विधान और व्यवस्था सभी आपके सामने भूलुंठित होने को आतुर हैं।

                              यदि आप  इस वर्गीय समाज  की राज्य सत्ता के नापाक चलते -पुर्जे हैं, तो आप की बीसों अंगुलियाँ घी में हैं। आपका  सर कढ़ाई मे पक्का समझिये । आपके हरेक  जायज - नाजायज और  उलटे -सीधे काम  चुटकियों में  घर बैठे हो जायंगे। 'खास' लोगों के लिए यही इस पूँजीवादी  व्यवस्था का चलन है। लेकिन  यदि आप  'आम' आदमी हैं ,सत्तासीन वर्ग द्वारा किये जा रहे दुराचार,व्यभिचार और लूट के विरोधी हैं तो आप को  चाहे-अनचाहे एमपी  जैसे   'व्यापम ' के भूत याने 'व्यवसायिक परीक्षा मंडल 'की वैतरणी में डुबकी लगाने  और  मरने को विवश किया जा सकता है।

                  मध्य प्रदेश में इन दिनों व्यापम फर्जीवाड़े  के खिलाफ चिन्हित गवाहों और  व्हिसिलब्लोअर को ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ नेताओं और अफसरों को भी अपने प्राणों की चिंता सत्ता रही है। शनेः -शनेः  जिस तरह  कुख्यात बलात्कारी आसाराम के खिलाफ  सारे सबूत और  गवाह   खत्म कर दिए गए ठीक उसी तरह व्यापम  से संबंधित  कोई भी सुरक्षित नहीं है। सभी जानते हैं कि वर्तमान महाभृष्ट निजाम और अधोगामी व्यवस्था  के सौजन्य से इन सबका असमय ही कलवलित होना तय है।यह व्यापम महामारी - मध्यप्रदेश ,छग यूपी ,बिहार, राजस्थान ,महाराष्ट्र, कर्नाटक ,बंगाल और  गुजरात  तक फैली हुई  है। यह केवल संयोग नहीं है कि  देश भर के अंधश्रद्धा केन्द्रों ,पैसा बटोरू मजहबी संस्थानों, विश्वविद्यालयों ,मंत्रालयों ,सरकारी विभागों ,अकादमिक - संस्थानों  तथा चिकित्सा  क्षेत्रों में जगह -  जगह व्याप्त है। इनमें जिनकी पैठ है उन  महाठगों  -महाधुर्तों के ही  अच्छे दिन आये हैं। योग्यता वाले को हर किस्म के विकास व शिक्षा ,सेवा क्षेत्र में कहीं कोई सम्मान या अवसर नहीं हैं। आरक्षण वालों को , मुन्ना भाइयों -मुन्नी बहिनों को और अनैतिक रिश्तों के रुतवे - रूप सौंदर्य वालों को , पैसे धइले और वोट  कबाड़ू क्षमता वालों को ,जातीय -साम्प्रदायिक आधार पर जनता को आकर्षित करने वालों को -उनकी  उपादेयता  के आधार पर इस व्यवस्था में सब कुछ उपलब्ध है।यहाँ तक की नकली डिग्री वाले या वाली को मंत्री पद भी उपलब्ध है।

                   यदि इस बदनाम व्यवस्था रुपी काजल की कोठरी में कोई भगतसिंह,राजगुरु,सुखदेव या बिस्मिल   जैसा क्रांतिकारी , गाँधी -लाल बहादुर शाश्त्री जैसा देशभक्त  'धर्मपुत्र' वहाँ  किसी तरह पहुँच भी गया तो इस व्यवस्था के प्रभुत्ववादी  नकारात्मक तत्व उसे बलात   दागदार बनाकर आत्महत्या करने पर ही मजबूर कर देंगे। यदि कोई इस चाल से भी बच गया तो उसके सीने पर सुभाषचन्द्र बोस या चंद्रशेखर आजाद जैसा शहादत का तमगा चिपकाकर श्रद्धासुमन चढ़ाने लग जायेंगे। यदि  कोई इस फेर में नहीं आया तो उसे  अपने दानव कुल अर्थात 'बुर्जुआ कुनवे ' में जबरन शामिल  कर- जयप्रकाश नारायण या अटलबिहारी बना देंगे।इतने पर भी यदि  कोई सिरफिरा इस अधोगामी व्यवस्था के  हितों के अनुरूप आचरण नहीं करता तो उसे जहरीले व्यापम काण्ड  के 'मृत' गवाहों या दुष्कर्मी आसाराम के 'स्वर्गीय' गवाहों की तरह असमय ही  'यमलोक'  पहुंचा दिया जाएगा ।

             वर्तमान व्यवस्था में  यदि कोई नेता या सामाजिक कार्यकर्ता  अपराधी नहीं भी लेकिन यदि वह औरों के अपराधों अनदेखी करता है  तो उसे जबरन 'मोनी' याने मन मोहनसिंह बना दिया जाता है। ऐंसा लगता है कि  इस राक्षसी संहारक व्यवस्था से आक्रान्त होकर ही वर्तमान  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 'मौन' धारण किया हुआ  है। पापी आसाराम  दुष्कर्म काण्ड के  गवाहों को तो मोदी जी भी नहीं बचा पाये।  वे व्यापम घोटाले में मारे गये , पकडे गए या गायब किये गए  गवाहों  को नहीं बचा पाये। जब मोदी जी नहीं बचा पाये तो शिवराजसिंह चौहान कैसे बचा पाते। मारे गए गवाह या अन्य संबंधित  शख्स सबके सब पैदायशी बदमाश या अपराधी नहीं थे। वेशक इस भृष्ट वर्गीय  समाज में पूर्व से ही पैठ बना चुके आपराधिक  नेटवर्क ने ही उन्हें मारा है।

   आसाराम  के खिलाफ या  व्यापम काण्ड के  गवाह विशेष  को यदि  राज्य सरकारें और केंद्र सरकार सुरक्षा ही नहीं दे सकी  तो इसमें अब  सीबीआई जाँच से किसे लाभ होने जा रहा है ?    उन्हें क्या लाभ  हो सकता है  जिनका जीवन ही बर्बाद  हो चूका है ?  इन मारक  घोटालों-फर्जीवाड़ों की सीबीआई  जांच  के द्वारा यह जान लेने पर कि  गुनहगार कौन है ? पीड़ितों का क्या फायदा होगा ? किसी अपराधी को साल-दो साल की सजा मिल जाने से मारे गए  निर्दोषों को और भारतीय लोकतंत्र को क्या हासिल होगा।?

                                 जब  मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल का दिवंगत  पुत्र ही  व्यापम भृष्टाचार की भेंट  चढ़ गया  तो बाकी की क्या  बिसात है ?  सत्तारूढ़ नेता ,अफसर , पैसे वालों  के रिश्तेदार और  उनकी ओलादों को उपकृत  किये  जाने की खबरें कोई नयी और आकस्मिक  नहीं है। मानव सभ्यता के इतिहास में सबल मनुष्य द्वारा निर्बल मनुष्य का शोषण ,सबल समाज द्वारा निर्बल समाज का शोषण और सबल राष्ट्र  द्वारा निर्वल  राष्ट्र के शोषण का सिलसिला जितना पुराना है। भाई-भतीजावाद और भृष्ट तत्वों के संरक्षण का इतिहास भी उतना ही पुराना है। यही दस्तूर आजादी और लोकतंत्र से भी पहले  भारत में भी चला आ रहा है। ये सिलसिला  तो तुगलकों, खिुलजियों और  सल्तनतकाल  जमाने से ही चला आ रहा है । सात समंदर पार से जब योरोपियन  और अंग्रेजों  पधारे  तो  उन्होंने भी २०० साल तक भारतीय जनता को 'क्लर्क'   के लायक  भी नहीं समझा। जब १८५७ की क्रांति या विद्रोह असफल  हुआ तो  महारानी विक्टोरिया ने चंद  हिन्दुस्तानियों को और कुछ  देशी  राजाओं   को अपनी नौकरशाही में छोटे पदों पर 'सेवाओं' की इजाजत दी। उन्हें में से कुछ वकीलों और बॅरिस्टरों ने देश को आजाद कराने का सपना देखा।आजादी के बाद कांग्रेस और भाजपा के नेताओं नेताओं ने  तथा  देश के चालाक  सभ्रांत वर्ग ने इसी परम्परा को परवान चढ़ाया।

                         आज  कांग्रेस बड़ी हरिश्चंद्र बन रही है। ,व्यापम के खिलाफ भारत बंद में 'वाम मोर्चे' की नकल कर रही है। इसी  कांग्रेस के ६० सालाना  दौर में आजादी के बाद देशी पूंजीपतियों -भूस्वामियों और कांग्रेस के नेताओं के खानदानों को ही शिद्द्त से उपकृत किया जाता रहा है। एमपी छग में द्वारिकाप्रसाद मिश्रा से लेकर  - शुक्ल बंधूओं तक ,अर्जुनसिंहसे लेकर  ,प्रकाश चंद सेठीतक  ,सोलंकी ,जोगी से लेकर   दिग्विजयसिंह तक कोई भी उस 'अग्निपरीक्षा' में सफल होने का दावा नहीं कर सकता। जिसके लिए उन्होंने बार-बार संविधान की कसमें खाईं  होंगी कि - ''बिना राग द्वेष ,भय,पक्षपात के अपने कर्तव्य का निर्वहन करूंगा  ......."     

                                  यदि  'संघ परिवार' वाले और उसके अनुषंगी भाजपाई भी उसी 'भृष्टाचारी परम्परा' का शिद्द्त से  निर्वाह  किये जा रहे हैं ,जो  परम्परा और 'कुलरीति' कांग्रेस ने बनाई है तो किसी को आश्चर्य  क्यों  ?  सवाल किया जा सकता है कि  कांग्रेस और भाजपा के भृष्टाचार में  फर्क  क्या है ?  जो लोग कभी कांग्रेस को 'चोर' कहा करते थे वही लोग  इन दिनों भाजपा को 'डाकू' कहने  में जरा भी नहीं हिचकते।  चोर और डाकु में जो भी फर्क है वही कांग्रेस और भाजपा का चारित्रिक अंतर है।  कुछ  लोगों को इन दोनों में एक फर्क  'संघ' की हिंदुत्व वादी खंडित मानसिकता का भी दीखता है। वैसे तो  कांग्रेस ने पचास साल तक  पैसे वालों व जमीन्दारों को ही  तवज्जो  दी है। किन्तु यूपीए के दौर में वाम के प्रभाव में कुछ गरीब परस्त काम भी किये गए। यदि आज आरटीआई ,मनरेगा और मिड डे मील  दुनिया में  प्रशंसा पा रहे हैं  तो उसका कुछ श्रेय तो अवश्य ही  वामपंथ को जाता है ।
        
               भाजपा नेताओं  द्वारा अम्बानियों-अडानियों  को साधने और उनकी मनुहार या सदाशयता का भी  कुछ अंतर  तो जरूर कांग्रेस से जुदा  है। सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं के अपने निजी  चाल-चरित्र-चेहरे  का भी कुछ  अंतर तो अवश्य  है। राष्ट्रवाद की  झूंठी दुहाई और बड़बोलेपन का भी कुछ अंतर तो अवश्य  है। लेकिन कांग्रेस  और भाजपा के सत्तासीन होने उपरान्त किये गए भृष्टाचारी आचरण में रत्ती  भर का अंतर नहीं है। यह तो वक्त की मार का तकाजा था कि मनमोहनसिंह जैसा ईमानदार व्यक्ति बदनाम किया गया। जबकि खाया-पीया खाँटी बिचोलियों ,जीजाओं और धरतीपकड़ कांग्रेसियों  ने। इसी तरह अब मोदी जी भले ही कहते रहें कि  'न खाऊंगा और न खाने दूंगा 'किन्तु खाने वाले तो खा रहे हैं। मध्यप्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में कौन कितना खा रहा है ? ये सब भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र  मोदी जी को अवश्य  मालूम  होना चाहिए । मुझे विश्वाश है कि उन्हें सब कुछ मालूम है। चूँकि बताने से उनके ही कथन की रुसवाई होगी ,इसीलिये शायद  वे भी अब महज भृष्टाचार के बरक्स  'मनमोहनसिंह जैसे  मौनी बाबा हो गए हैं।

                         कांग्रेस और भाजपा के या यों  कहैं कि  मोदीजी  और मनमोहनसिंह जी के दौर के भृष्टाचार में एक फर्क  'प्रोपेगेंडा' का  भी  है। मोदी जी ने सूचनाएवं  संचार तंत्र का  भरपूर इस्तेमाल करते हुए  कांग्रेस मुक्त भारत का एजेंडा आगे  बढ़ाया है। जबकि कांग्रेस के नेता  अपने  अपरिपक्व ' हाई कमान' के आगे सिर्फ  'गणेश परिक्रमा' में ही लींन  रहे। वे देश जनपथ के आगे ही  नत्मस्तक होते रहे।जीजा जी ने भी कांग्रेस को कुछ  रुस्वा  ही किया है।  इसके अलावा इस दौर में  एक फर्क आरटीआई -मीडिया तथा संचार तंत्र की आधुनिक सम्पन्नता का भी  है। जिस तंत्र ने कांग्रेस को उसके गर्त के अंजाम तक पहुँचाया उसी तंत्र ने १६ मई-२०१४ को एनडीए याने मोदी सरकार को  अब उच्च शिखर पर बिठाया है । मोदी जी की पार्टी  की सरकार मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी  है। दोनों जगह महत्वपूर्ण गवाहों को मरा जा चुका  है। मध्यप्रदेश में  व्यापम भृष्टाचार  रुपी  भुजंग ने शिव  राज का गला दवोच रखा है और राजस्थान में न केवल ललित मोदी की दोस्ती ने बल्कि बलात्कारी आसाराम  की  जहरीली  नागफाँस ने वसुंधरा जी को जकड़ रखा है ! अभी तो ये दोनों ही नरेंद्र मोदी की कृपा के पात्र हैं।

                       मनोवैज्ञानिक कहते आ रहे हैं कि  साधारण नागरिक न तो  कोई   बड़े क्रांतिकारी  बन सकते हैं और न ही  वे कोई बहुत बड़े अपराधी ही बन सकते हैं।औसत बुद्धि वाले  नर-नारी  अपनी अक्ल  का बहुत थोड़ा हिस्सा ही इस्तेमाल  करते हैं। इसके विपरीत रेवोलुशनरी या अराजक तथा आपराधिक और अनीतिगत जीवन जीने वाले शख्स  उससे कई  गुना अधिक बुद्धि का 'सदुपयोग' या 'दुरूपयोग' करते देखे गए हैं। मुझे उम्मीद है  कि मेरे इस अध्यन  से मनोवैज्ञानिक ,समाजशास्त्री और  आधुनिक शरीर - विज्ञानी भी शायद कुछ तो सहमत होंगे। स्वाधीनता संग्रामों और विभिन्न समाजवादी क्रांतियों का इतिहास हमें बताता है कि  समाज में कुछ खास किस्म की बौद्धिक तथा जीवटता के शख्स जब अपनी जिद पर आते हैं तो वे समाज से ,देश से गुलामी की जंजीरे भी तोड़ डालते हैं। इस दौर में भी ऐंसे क्रांतिकारी लोग हैं जो देश ,समाज  को शोषण मुक्त करने के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। भले ही वे मुठ्ठी भर वामपंथी ही क्यों न  बचे हों ?

                   इतिहास के हर दौर में अपराधिक और अराजकता का शैतानी परचम फहराने वाले भी असाधारण बौद्धिक प्रतिभा के  धनी  हुआ करते हैं। वे चाहे सीरिया -इराक  के आईएसआईएस वाले हों ,वे चाहे यमन -सूडान  में बोको हरम वाले हों , वे चाहे अफगानिस्तान-  पाकिस्तान के  तालिवान वाले हों , वे चाहे अलकायदा -लश्करे तोइबा वाले हों  ,वे चाहे जमात-उड़ दावा वाले हों ,वे चाहे कश्मीर के अलगाववादी और भारत के नक्सलवादी हों , वे चाहे सिमी-मुजाहदीन वाले हों, वे चाहे जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान का झंडा फहराने वाले हों ,वे चाहे मिल्लत  या  'दुख्तराने -हिन्द' वालियां हों, ये सभी असाधारण  बुद्धि-चातुर्य  वाले नर-नारी ही  शैतान के वशीभूत होकर  सीधे और सरल समाज को ध्वस्त  करने में जुटे रहते हैं। वेशक इन विध्वंशकों की  बौद्धिक प्रतिभा आम आदमी से उग्र और क्रियाशील हुआ करती है। किन्तु संहार और सृजन में या संहार या पालन में फर्क तो होता ही है।

                     हालाँकि  ऐसा नहीं है कि एक आम और शरीफ इंसान की  बुद्धि  किसी बदमाश से कमतर होती है। दरसल उससे कई गुना ज्यादा पाई जाती है। किन्तु सामान्य बुद्धि वाले को  अहिंसा  ,दया  ,सत्य  ,करुणा ,क्षमा  और  लोक-परलोक  की  मानवीय  सम्वेदनाएँ जो वंशानुगत  मिलती हैं वे उसे नकारात्मक और विध्वंशक तत्वों के समक्ष  शिथिल कर देतीं हैं। एक  सज्जन व्यक्ति को मानवीय मूल्यों की उच्चतर  धारणाएं 'धर्मभीरु' बना देती  हैं। जबकि घल्लू घारा वाले उग्रवादी - भिंडरावाले , इंदिराजी की हत्या करने वाले अन्ते-बनते ,१९८४ के दंगों  वाले ,चिकमगलूर हत्याकाण्ड  वाले ,मुंबई हत्याकांड वाले , २६/११ वाले ,९/११ वाले ,कंधार वाले , बिरयानी वाले , गोधरा काण्ड वाले ,गुजरात  दंगे वाले ,कश्मीर में नरसंहार वाले , सीमाओं पर धोखे से सैनिकों की मुंडियां काटने वाले ,नकली बुलेटप्रूफ जैकेट वाले , ताबूत की दलाली खाने वाले , अमरनाथ यात्रा पर गए निहत्ते हिन्दू  तीर्थयात्रियों पर पथराव  करने वाले ,कोकराझार वाले  ,सीरम घाटी में नरसंहार करने वाले, हवाला घोटाला वाले  चारा  वाले ,कोयला वाले ,तेल -खेल-टूजी -  थ्रीजी स्पेक्ट्रम घोटाला वाले,  चिट फंड वाले,स्विश बैंक खाते वाले  और ये मध्यप्रदेश के 'जांवाज' व्यापम फर्जीवाड़े वाले - सब के सब असाधारण प्रतिभा सम्पन्न ही थे या हैं। ये बात अलहदा है कि  इन शैतानी ताकतों को दुनिया की विभिन्न राजयसत्ताओं  के द्वारा  निहित स्वार्थपूर्ति के लिए ही  पाला -पोषा जाता है।  नेकनीयत  और अमनपसंद  आवाम  की यह बुर्री आदत है कि इन  नापाक  और  पाशविक शक्तियों  से खुद एकजुट होकर  लड़ने की बजाय किसी 'हीरो' अवतार ,अण्णा  या 'नमो' पर ज्यादा निर्भर हो जाया करते है। खुद को अकिंचन और निर्बल जानकर ,अपने आप को  मंदिर के बाहर का दींन -हीन  निर्धन सुदामा मानकर-  बेईमान शासकों को कृष्ण की मानिंद  मंदिर के गर्भगृह में बिठा देती है ?

                                                     :-श्रीराम तिवारी :-   

शनिवार, 11 जुलाई 2015

व्यापम गच्चा दे गया , चूक गए चौहान !



    मामा  गिरी  के फेर में ,व्यस्त रही  सरकार।

    मध्यप्रदेश  का कर दिया , जमकर  बंटाढार।।


    झूंठ कपट छल छंद के , नकली तीर कमान।

    व्यापम गच्चा  दे गया , चूक  गए  चौहान ।।



    सत्ता मद  का शीघ्र ही ,  होगा  सूरज अस्त।
   
    तंत्र -मन्त्र की शरण में , चाहे जो हों  व्यस्त।।


     भृष्टाचार की तपन से , जिन  पर आयी आंच ।

      उनकी  सीबीआई  को , करनी  चाहिये जांच।।


                                                ;- श्रीराम तिवारी :-

   


    


  

     

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

फर्जीवाड़ा व्यापक व्यापम !



     मध्यप्रदेश में  मची धमाधम।

     फर्जीवाड़ा  व्यापक  व्यापम।।

      हो  रहीं  मौतें  रोज   धड़ाधड़ ,

     भृष्टाचारी   पतित  नराधम  ।

     इस  सिस्टम  के  बने पहरुए ,

    अफसर  मंत्री भृष्ट समागम।

     रिश्वत  देकर   बने  डाक्टर ,

    सकल कौम के वे  अभिशापम।

    विकट दैत्य व  नरपिशाच है,

    ये जालिम हत्यारा व्यापम ।

    रिश्वत के दम  पाई  नौकरी ,

    क्यों न रिश्वत लेंगे  हाकिम ।

    मध्यप्रदेश में मची धमाधम,

    फर्जीबाड़ा व्यापक व्यापम । 

              श्रीराम तिवारी

      

  

  

   


  

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

''मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए" ?


  विगत ग्रीष्मकालीन परिचर्चाओं  में  सीनियर सिटिजंस फोरम  ऑफ़ 'आनन्दम्' इंदौर के बौध्दिकों ने  "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है'' ? नामक  विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया था । यद्द्यपि  आयोजकों के  द्वारा पूर्व से  ही  निर्धरित यह विमर्श मुझे  विशुद्धत:  व्यक्तिनिष्ठ , भाववादी ,और तथाकथित कोरे  अध्यात्मवाद  से प्रेरित जान पड़ा। किन्तु  इस विषय पर जब मैंने  कुछ  पारंगत साथियों  से अपनी अज्ञानता  व्यक्त की तो उन्होंने  अपना -अपना  वही पुराना घिसा-पिटा अलौकि ज्ञान मुझ अकिंचन पर उड़ेल दिया ,जो मैं  बचपन में खेतों की मेड पर और 'पिड़रुवा' के महा भयानक जंगल  में छोड़  आया था।  जब उन्होंदे भाव वादी अभिमत को  कल्पना की चासनी में लपेटकर प्रस्तुत किया तो मेरी आशंका को और बल मिला । अपनी बारी आने पर मैंने भी  इस सब्जेक्ट को जो नितांत शीर्षाशन की मुद्रा से पैरों के बल खड़ा किया । मैंने आनंदम के  इस  तयशुदा विमर्श को किंचित  प्रोग्रेसिव और वैज्ञानिक  भौतिकवादी बनाने की यथासंभव  कोशिश की। परिणामस्वरूप मेरी दॄष्टि में यह  विमर्श  अब न केवल समष्टिगत  रहा अपितु पर्याप्त  वैश्विक और यथार्थवादी भी  हो गया ।

                          इस विमर्श पर जब  मुझे अपना पक्ष रखने को कहा  गया तो मैंने सर्वप्रथम विमर्श का शीर्षक बदलना ही उचित समझा। कतिपय दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी  बौद्धिकों ने तो  टोकाटाकी भी की। हालाँकि उन में भी  अधिकांस  श्रोताओं  का मंतव्य  और प्रतिक्रिया सकारात्मक  ही थी। कुछ कहने लगे  कि  'इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं था '! दरसल मैंने उस तयशुदा सीमित विषयवस्तु में अन्तर्निहित  व्यक्तिवाद की जगह समाजवाद को ही  समाविष्ट कर दिया । मैंने  शिद्दत से  उस प्रस्तुत  विमर्श को -"मेरे जीवन का उद्देश्य क्या होना चाहिए "? से बदलकर  - ''मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना  चाहिए "  कर दिया। उपलब्ध  मंच  और प्रस्तुत विमर्श पर उस  समय मुझे  यही  बेहतर जचा कि मैं अपने  पूर्व वक्ताओं की नितांत संकीर्णतावादी  - तमाम  आदर्शवादी और उटोपियाई -सामंतयुगीन वैयक्तिक स्वार्थपूर्ति वाली  अवधारणों से हटकर व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त एक  क्रांतिकारी वर्गीय चेतना के निर्माण की बात करूँ। आयोजकों ने समयभाव का  बहाना करके मुझे बाधित किया। जिससे मैं  अपना पूरा  वक्तव्य  पेश  नहीं कर सका।  अब उसी  विमर्श को  सारांश रूप में अपने ब्लॉग- www. janwadi.blogspot.com  पर  प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

                                यहाँ प्रस्तुत विषय 'मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है  ?' को मैं नवीनीकृत किये जाने का सुझाव रखता हूँ। मेरा अनुरोध है कि इस  प्रसंग को  'मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या होना चाहिए?'  के रूप में प्रस्तुत किया जाए। क्योंकि 'मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है ' यह शीर्षक  स्कूली छात्रों के अध्यन -प्रशिक्षण के   लिए तो ठीक है किन्तु जो वरिष्ठजन अपनी  जिंदगी के  उत्तरार्ध में भी इस तरह के  विमर्शों को नितांत निजी  और स्वान्तःसुखाय में  अंगीकृत किये जा  रहे हैं। वे हकीकत से आँखें चुरा रहे  हैं। मेरे पूर्व वक्ताओं  में से कुछ ने मूल्यों की गिरावट पर चिंता व्यक्त की है। किसी को अपने सपरिजनो की उपेक्षा का शिकार होना अखर रहा है।किसी को सम्पूर्ण युवा और आधुनिक पीढ़ी ही  युवाओं की मोबाईल दीवानगी  पसंद  नहीं। किसी को नकली दवा की शिकायत है। किसी को बिजली के बड़े दामों की शिकायत  है। किसी  को  नलों  में ड्रेनेज के गंदे पानी की शिकायत है। किसी को व्यापम जैसे घोटाले से आपदा हुए डाक्टरों,इंजीनियरों और कारकुनों  की अक्षमता और रिश्वतखोरी से शिकायत है। किसी को अपने आसन्न बुढ़ापे में बच्चों की उपेक्षा की शिकायत है।
              इन समस्याओं से निजात पाने के लिए मेरे कुछ विदवान बुजुर्ग साथियों ने ,राजयोग -यम ,नियम आसन  ,प्रत्याहार,प्राणायाम ,ध्यान ,धारणा, और समाधि में -समाधान उपेक्षा का  शिकार  वर्तमान दौर के क़ानून - व्यवस्था तथा भृष्ट सिस्टम को  तो कोसते  हैं किन्तु  वर्तमान शासक वर्ग के द्वारा अपनाई जा रही प्रतिगामीऔर कार्पोरेटपरस्त आर्थिक  नीतियों  पर  कहने से हिचकते हैं।    सामाजिक,राजनीतिक,और आर्थिक   सही सोच का दावा नहीं कर सकते। उनके लिए यह विमर्श नितांत  गफलत भरा और  निष्प्रयोजनीय  ही  है। वैसे भी  यह वाक्य संदर्भित विमर्श को भी किसी सार्थक अंजाम  तक नहीं पहुंचाता । चूँकि व्यक्ति विशेष अपनी निजी ,पारिवारिक ,आर्थिक ,सामाजिक और बौद्धिक चेतना के मिले-जुले  'इनपुट'से ही किसी खास विषय पर अपना 'आउटपुट' प्राप्त करता है। अपना नजरिया या दृष्टिकोण निर्धारित करता है। खास तौर से  भाववादी सोच के अच्छे -खासे  खाते -पीते अधिकांस वरिष्ठजन तो पुरातन भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के ही कायल होने के कारण  अभी भी अन्नमय कोष ,प्राणमय कोष ,मनोमय कोष ,विज्ञानमय कोष और तथाकथित आनंदमय कोष की मानसिक अवस्थाओं में विचरण कर रहे हैं। वे अपने मंतव्य को घेर-घारकर उसी 'ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास' पर ले जाकर ही अपना  जीवन  उदेश्य समाप्त कर  देते  हैं।उनके  दुराग्रहों  पर सीधे -सीधे चोट करने या विशुद्ध प्रगति-  शीलता  या क्रांतिकारिता झाड़ने से भी  किसी का कोई फायदा नहीं। इसलिए  मैंने आप लोगों के समक्ष विषय शीर्षक परिवर्तन की गुस्ताखी की है।  आप सभी जानते हैं कि  कबीरदास के इस सिद्धांत   'अंदर हाथ सहार दे ,बाहर मारे चोट' का  प्रयोग ही हमें विमर्श  सकरात्मकता तक ले जा सकता है। 
                 हर समय व   बार-बार यह दुहराने से की व्यक्ति,संस्थाएं , चीजें  या वर्तमान  व्यवस्था अच्छी -बुरी   ऐंसी-वेंसी है ,इससे पुनरावृत्ति दोष के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। वैसे  भी  इससे  क्या फर्क पड़ता है कि व्यक्ति या चीजें  किसी के लिए कितनी अनुकूल हैं या किसी के  कितनी प्रतिकूल हैं ? बम-बारूद और मारक हथियारों  के उत्पादनकर्ताओं  को उनके उत्पादित माल खुशनुमा लगते हैं तो उनका उदेश्य 'नरसंहार' भी हो सकता है। किन्तु अमन -शान्तिकामी जनता को ये संहारक अश्त्र यदि काल समान दीखते है तो उसका उदेश्य  'युद्द नहीं शांति चाहिए' हो सकता है।  व्यक्ति ,समाज या चीजों  के अलहदा उपादेय हो सकते हैं। उनके यथावत रहने  से यदि अभीष्ट सिद्ध होना  होता तो फिर ये कोहराम  ही क्यों मचता  ? यदि अभीष्ट सिद्ध नहीं हो सकता तो उसके पुनर्बखान की जिद ही क्यों ? मानवता के मार्ग में बाधक कारकों को  यदि नजरअंदाज नहीं किया जा सकता तो उसका निवारण व्यक्तिगत  चेष्टाओं या आत्मकेंद्रित प्रयाशों से कैसे सम्भव है।
                      इसलिए मैंने उक्त  शीर्षक को बदलकर  ''मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या होना  चाहिए  " कर दिया। उसका व्यक्तिकरण से समाजिैकरण ही नहीं वरन जगतीकरण ही आकर दिया। जिसका  वास्तविक तातपर्य यही है कि बदमाशों या समाजद्रोहियों को उनके अनैतिक  जीवन का उद्देश्य तय करने का अधिकार उन्ह नहीं मिलना चाहिए। क्या व्यक्ति स्वतंत्रता के बहाने हम असुरों को 'अमृत' पिलाने का काम करते रहें  ?  हमें तो इंसानियत , बंधुता, करुणा और समानता के उदयगान की प्रतिध्वनि  सुनने वालों के जीवन का उद्देश्य तय करना  चाहिए । यदि  हम यह तय कर लें कि मनुष्य को 'संहारक' शक्तियों की चिंता या उद्देश्य तय करना नहीं   बल्कि सृजन की शक्तियों  को पुष्ट करने और  मूल्य निर्धारण करने के लिए  उनके सर्वकालिक उद्देश्य तय करने चाहिए।  यह तय होने के उपरान्त ही  हम जान सकेंगे  कि  ' मानव जीवन का सर्वश्रष्ठ उद्देश्य  क्या हो सकता है ? यह जान लेनें और तय करने के बाद  उस महत उद्देश्य की आपूर्ति में जुट  जाने के लिए कोई भी मानवतावादी इंकार नहीं कर सकता। यही हमारी 'सर्व मंगल मांगल्ये..... वाली अभिलाषा होना चाहिए !

        मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या है ? यह प्रश्न  मूलतः दार्शनिक प्रकृति का है। मनुष्यमात्र  की निजी और  सामूहिक आवश्यकताओं के बरक्स  तथा  इतिहास ,भूगोल एवं प्राकृतिक परिवर्तनों - झंझावतों की असंख्य  श्रृंखलाओं  के मद्देनजर  इस प्रश्न का बेहतर  समाधान  खोजना ही धरती के  श्रेष्ठतम मानवों का उद्देश्य रहा है। किसी  व्यक्ति,समाज या राष्ट्र का उद्देश्य यदि उनके निहित स्वार्थ तक सीमित है तो उनकी नजर में  मानव  जीवन का उद्देश्य सीमित  हो सकता है।  इस संदर्भ में  चिंतनशील  वैश्विक मनुष्य के अनगिनत जबाब हो सकते हैं। यदि कभी  नादिरशाह दुर्रानी, हलाकू ,चंगेज खान या तैमूर लंग  या ईदी  अमीन से यह सवाल किया जाता कि उनके जीवन का उद्देश्य क्या है ? तो उनका जबाब  होता "वयम भक्षाम  : "  शायद   यदि उन्हें अमरत्व मिला होता तो वे कयामत के दिन तक  'असहमतों का कत्ले आम और दुनिया की लूट'  के उदेश्य में संलग्न रहते।
   यदि  ईसा मसीह , बुद्ध,  महावीर,स्रहपपा ,हजरत निजामुद्दीन ओलिया या हजरत शेख सलीम चिस्ती से यही प्रश्न पूंछा जाता  तो  वे वही जबाब देते जो  पौराणिक काल मेंवैदिक ऋषियों-मुनियों और    हरिश्चन्द्र,रघु ,दिलीप,भगीरथ  ,शिवि ,दधीचि ,अत्रि ,अनुसुइया ,गार्गी ,मैत्रयी ,गौतमी ,अगस्त, लोपामुद्रा, कश्यप  ,जाबालि  , वशिष्ठ, याग्यब्ल्क्य ,भरद्वाज ,दत्तात्रेय  जनक या नचिकेता इत्यादि मानवतावादियों से  पूंछा जाता  की 'मनुष्य जीवन का उदेश्य क्या है ?'  तो शायद  उनका जबाब होता  -'सत्यं  शिवम सुंदरम ' या सर्वे भवन्तु सुखिनः ,,सर्वे सन्तु निरामया …या वसुधैव कुटुंबकम …! जिनका मनसा-वाचा -कर्मणा से मानव  मात्र  का कल्याण  ही  'मानव जीवन का श्रेष्ठतम उद्देश्य है'। यदि  किसी सांख्यशास्त्री या अनीश्वरवादी से यही प्रश्न किया जाता तो उसका उत्तर होता -मानव जीवन तो प्रकृति प्रदत्त कोरा कागज जैसा है। इसे मानव द्वारा  बेहतरीन रंगों से भरने की कला ही मानव जीवन का श्रेष्ठतम उद्देश्य हो सकता है।

                  विश्व के ज्ञात इतिहास और पौराणिक आख्यानों में जितने भी पात्र-कुपात्र हुए हैं ,उनके 'उद्देश्यों' पर नजर डालने पर यह  परिणाम निकलता है कि जिस तरह यह सृष्टि नित्य नाशवान  और नित्य  परिवर्तनशील है, उसी तरह मनुष्यमात्र का मन और स्वभाव  और उसकी संवेदनाएं भी नित्य परिवर्तनशील है। जिस तरह से  संसार  की सभ्यताएं परिवर्तनशील हैं ,उसी तरह मनुष्य मात्र  की अभिलाषा और उनके जीवन का उद्देश्य भी नित्य परिवर्तनशील है।जो-जो वास्तविक और मानवीय है वो-वो सब का सब नित्य परिवर्तनशील है। इसके अलावा  जो-जो  अमानवीय है ,अलौकिक है या अपौरषेय है, उसके बारे में सिर्फ अंदाज ही लगाया जा सकता है. कि  उसके 'टाइम फ्रेम' में वह सब भी नित्य परिवर्तनशील ही  होगा।

                     जब कोई प्राणी या इंसान भूँखा होता है तो उदरभरण ही  उसके जीवन का प्रथम उद्देश्य होता है। जब कोई प्यासा  होता है तो प्यास बुझाना ही उसका प्रथम उद्देश्य होता है। यदि किसी आम या ख़ास आदमी की सायकल ,स्कूटर या कार  बीच रास्ते  में पंचर हो जाए तो उसके जीवन का प्रथम उद्देश्य 'पंचर 'सुधारना ही होगा तब उसे विश्व की या खुद की अन्य समस्याओं की तरफ देख पाने की फुर्सत  ही कहाँ ? तब उसका उद्देश्य शुद्ध  एकांगी ,तात्कालिक  और निजी ही होगा । इसी तरह प्रत्येक मनुष्य का उद्देश्य उसकी मांग और पूर्ती के अनुसार   परिवर्तित होता रहता है। इसीलिये इस नित्य परिवर्तनीय दशा में  किसी  का  कोई वश  नहीं कि  अपने किसी खास उद्देश्य पर स्थिर रह सके।वक्त किसी को भी मजबूर कर सकता है कि वह जान ले कि मनुष्य परम  स्वतंत्र  या सर्वशक्तिमान नहीं है।

      श्री कृष्ण  के जीवन का उनकी  किशोर अवश्था में उद्देश्य या निहतार्थ क्या था ? राधा सहित अन्य गोपियों के साथ 'रासलीला' करना ! कभी गेंद खेलना ,वाँसुरी बजाना और ग्वाल वालों के साथ मिलकर गोप-गोपियों को सताना। युवा होने पर जब उन्हें बताया गया  की उनके माता -पिता को बंदीगृह में डालने वाला उनका मामा दुष्ट कंस ही है तो उनका जीवन उद्देश्य 'कंस बध ' हो गया। जब उनके हाथों कंस मारा  गया  तो  उनका उद्देश्य बदल गया। तब कंस के  साले जरासंध और मित्र कालयवन  से सम्पूर्ण यादव कुल  की रक्षा करना श्रीकृष्ण का उद्देश्य हो गया। भले ही  उसके लिए उन्हें रणछोड़ीलाल बनना पड़ा। उन्हें रातोंरात  बृज ,मथुरा -गोकुल -वृन्दावन राधा  को छोड़कर  द्वारिका   में शरण लेनी पडी । हालाँकि कंस बध  से पूर्व  वास्तव में उन का उद्देश्य यह  नहीं था ।  लेकिन कंस बध  के उपरान्त चूँकि उनका इतिहास,भूगोल  परिस्थितियां सब तेजी से बदलते गए तो कृष्ण के उद्देश्य भी बदलते गए। यही हाल दुनिया के हर उस इंसान का,महानायक का या अवतार का  है जो नहीं मानता  कि "रिपट  पड़े तो हर-हर गंगे "

    हो सकता है सिकंदर का उद्देश्य दुनिया को जीतने का  रहा हो ! किन्तु जब भारत में प्रवेश करते ही वह बुरी तरह  घायल हुआ तो जीवित रहकर  सुदेश मकदूनिया लौटना उसका मकसद हो गया। वेशक वह जीवित नहीं लौट पाया लेकिन उसका उदेश्य भी कुछ का कुछ होता चला गया । अरब  खलीफा ने उद्देश्य लिया  कि  फारस और हिन्दुस्तान को 'कफ़िरों' से मुक्त किया जाए। इसके लिए उसने  मुहम्मद बिन कासिमको चुना। कासिम  ने  फारस और  'सिंध' को लूटने उपरान्त  विजय की सूचना अपने खलीफा को देना उचित समझा। इसके लिए  उसने  खलीफा को खुश करने  का उदेश्य बनाया। उसके लिए खलीफा के हरम में कुछ सुंदर राजकुमारियाँ भेजीं, राजकुमारियों ने खलीफा को बताया कि  'हम आप के काबिल नहीं हैं 'क्योंकि मुहम्मद-बिन-कासिम ने हमें पहले  ही  'जूंठा' कर दिया है। तब खलीफा  का उद्देश्य 'कासिम बध'  हो गया। उसके आदेश पर अन्य  इस्लामिक सेनानियों  ने मुहम्मद  बिन कासिम के  टुकड़े-टुकड़े कर जमीदोज कर दिया। न खलीफा का उद्देश्य  सफल हुआ और न मुहम्मद बिन कासिम का कोई उदेश्य सफल रहा। जिनका  उद्देश्य इस्लाम को बुलंदियों पर ले जानाथा वे आपस में लड़-मर गए। उनका उदेश्य  इस्लाम विस्तार  की जगह सुन्दर नारियों के द्वारा हरम विस्तार होता चला गया।

                       नेपोलियन का पहला उद्देश्य था फ़्रांस की खोई हुई गरिमा को लौटाना ।  पूर्ववर्ती दुश्मन राष्ट्रों को विजित  कर अपनी  खोई हुई फ्रांसीसी सरहदों को  वापिस हासिल करना।जर्मनी,हालेंड,बेल्जीएम और इटली को विजिट कर नेपोलियन  जब इंग्लैंड पर दुबारा आक्रमण करने पहुंचा तब अंग्रेज जनरल बेलिंगटन की सैन्य  टुकड़ियों ने उसे सेंट हेलेना टापू पर कैद कर लिया। अब नेपोलियन का पहले वाला उद्देश्य हवा हो चुका  था।  अब   उसका उद्देश्य हो गया कि कैद से छुटकारा   कैसे पाया जाए ?  हालाँकि  इस 'श्मशान वैराग्य' वाले उद्देश्य में भी वह सफल नहीं रहा । और वहीँ बीमार होकर मर गया। मानव सभ्यता में जो लोग अपने निहित स्वार्थी उद्देश्यों को लेकर चले वे अंत में घोर रुसवाई को प्राप्त हुए।

  हिटलर -तोजो और मुसोलिनी का प्रथम उद्देश्य यह था कि  अमेरिका,इंग्लैंड और फ़्रांस जैसे साम्राज्य्वादी मुल्कों -के वैश्विक उपनवेशीकरण  में  से अपना हिस्सा  लड़कर हासिल किया जाए। इसके लिए यूरोप में  शुरू हुई लड़ाई  दुनिया भर में फ़ैल गयी। जिसे बाद में द्वतीय  विश्व युद्ध कहा गया।हिटलर ,मुसोलनि के प्रारम्भिक उद्देश्य  सिर्फ रक्षात्मक और गरिमा -अस्मिता से ओत -प्रोत थे। बाद में जब  छोटी-छोटी झड़पों में उन्हें कुछ  सफलता मिली तो वे चूहे से शेर हो गए। उनके उद्देश्य बदल गए। वे नायक से  अधिनायक होते चले गए । अंत में खलनायक होकर वीरगति को प्राप्त भये।

  इन ऐतिहासिक और पौराणिक घटनाओं के उल्लेख से सावित होता है कि 'मानव जीवन का कोई भी उद्देश्य' अंतिम सत्य नहीं है।  असल तथ्य यह है कि देश काल परिश्थितियों  इंसान को मजबूर कर  देती हैं कि  वे अपना कोई स्वतंत्र लक्ष्य -उद्देश्य या 'एम'  साध  ही नहीं सकते !और यही एक चीज है जो  मानव मात्र को  ईश्वर  नहीं  होने देती।  मनुष्य की स्रावश्रेष्ठता पर भी यही असम्भाविता ही  प्रश्न चन्ह लगाती है। 'महाभारत' के संग्राम में  शोक संतप्त अर्जुन को  श्रीकृष्ण ने अपने अवतार  लेने या ईश्वर होने का  निरूपण करते हुए अपने जीवन के 'एम' या उद्देश्य को  भी व्यक्त किया है।
             सभी जानते हैं …   परित्राणाय साधुनाम ,विनाशाय च दुष्कृताम …! \

किन्तु   वह चिटफण्डिया सुब्रतो राय  सहारा , कथाबाचक बलातकारी आसाराम ,दुराचारी नारायण साईं ,एक्टर संजू या सल्लू ,भृष्ट नेता -मंत्री -मन्त्राणियां और मुनाफाखोर पूँजीपति यह सब  नहीं जानते। यदि इन्हे मालूम होता कि  जिस अपावन उद्देश्य को लेकर वे मानवता का शोषण कर रहे हैं ,तो वे यह अब करने से बाज आते। इन  सभी के स्वर्णिम दिनों में जीवन का  उद्देश्य या अभिप्राय भले ही कुछ और रहा होगा किन्तु नियति और काल  -चक्र  ने  अब उनका उद्देश्य बदल डाला है। अब इन सभी का उद्देश्य है कि किसी तरह 'बेल'याने जमानत ही मिल   जाए तो  गनीमत होगी।

    विगत लोक सभा चुनाव में यूपीए - कांग्रेस को हराने के लिए और सत्ता में आने के लिए  'संघ परिवार' भाजपा और मोदी जी का उद्देश्य क्या था ? क्या आज भी उनके उद्देश्य वही हैं ?  क्या कालेधन पर  स्वामी रामदेव जैसों के वक्तव्य कालातीत नहीं हुए हैं ?क्या धारा  ३७० ,एक समान क़ानून ,राम लला  मंदिर या कोई भी पूर्वघोषित सौगंध कहीं भी कार्यान्वित की जा रही है ?क्या अपनी असफलता, अज्ञानता को छिपाने के लिए कभी गंगा मैया ,कभी गौमाता ,एकभी योगक्रिया जैसे  नए-नए फंडे  जनता के सामने परोसे जाने का उद्देश्य पहले भी था ?

इस तरह की  बिडम्ब्नाओं पर ही किसी ने कहा है कि :-


   पुरुष बलि नहिं  होत  है ,समय होत  बलवान।

   भिल्ल्न लूटी गोपिका ,बेई अर्जुन बेई बाण।।

                                                                                श्रीराम तिवारी


 

इसीलिये शायद बड़े मोदी जी ने छोटे मोदी की 'तोतली बातों' पर मौन धारण कर रखा है !



  ' रोम जल रहा था और नीरो वाँसुरी बजा रहा था' - यह बहुश्रुत आप्तवाक्य हो चूका है। भारत की  भी अभी तक  तो यही नियति  रही है। शाइनिंग इंडिया और फीलगुड जैसे  नारों के दौर में ठगे जाने के वावजूद देश की आवाम ने  यूपीए सरकार  की गफलतों से आजिज आकर पुनः  एनडीए पर दावँ लगाया। लेकिन महज तेरह  महीने बाद ही  'मोदी सरकार'रुपी पूत के पाँव पालने  में ही दिखने लगे हैं।  वैसे तो आत्मघाती नीतियों के चलते वर्षों पहले से ही इस देश पर आर्थिक ,सामजिक और विदेश नीति गत संकट मंडराते आ रहे हैं। लेकिन अब वर्तमान मोदी  सरकार भी इन  बिकट चुनौतियों से आँखे चुरा रही है। मध्यप्रदेश में तो  व्यापमकांड ,डीमेट कांड में हो रहीं निर्मम  हत्याओं को आत्महत्या बताया जा रहा है। उधर कंन्द्र में  ललितगेट कांड  घोटालों में फंसी  नेत्रियों  - मन्त्राणियों की   काली करतूत पर कालजयी चुप्पी धारण की जा रही है।भाजपा शासित प्रदेशों में किसानों - मजदूरों के आन्दोलनों पर  पुलिसिया अत्याचार किये जा रहे हैं। जनता के सवालों  की अनदेखी की जा  रही  है। वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व अपने अंदरूनी संकट को भी  देश पर लादने की भरसक कोशिश कर रहा  है।

       प्रायः देखा गया है कि  जब भी किसी भाजपाई नेता या मंत्री के  'सतकर्मों' का भांडा फूटता है तो वह स्वयं   शुतुरमुर्ग हो जाता है। नेता या नेत्री  विशेष की इस संकटापन्न अवस्था में उसके सहोदर भाजपाई सबसे ज्यादा खुश होते हैं।  महाराष्ट्र में  यदि पंकजा  मुण्डे  या  मिस्टर तोड़ासे  पर  भृष्टाचार के आरोप  लगते हैं तो सीएम  फड़नवीस मन ही मन प्रमुदित होते हैं।  क्यों की महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव उपरान्त जब फड़नवीस को  मुख्यमंत्री नामजद किये जाने की तैयारी चल रही थी, तब पंकजा  गोपीनाथ मुण्डे  और तावड़े  -दोनों ही मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल थे। फड़नवीस यदि अब खुश हैं तो उनकी चुप्पी से यह जाहिर  भी हो रहा है। इसी तरह  सुषमा ,वसुंधरा ,सुधांसु मित्तल या वरुण गांधी पर आरोप लगने  की स्थति में बीजेपी  के अंदर और सत्ता के अंदर सबके अपने -अपने बहाने हैं। कौन किसके संकट पर खुशियाँ  मना रहा है यह सब स्पष्ट दिख रहा है।

  सिर्फ  'न खाऊंगा न खाने दूँगा ' की भीष्म प्रतिज्ञा खंडित होने पर  ही नहीं, बल्कि राह के कांटों से बिन मांगे मुक्ति की सफलता पर कौन है जो 'मौन'  धारण नहीं कर लेगा  ? आडवाणी  , सुषमा,ठाकरे ,वसुंधरा में से कोई भी कभी भी 'नमो' समर्थक नहीं रहा। सुधांसु मित्तल ,वरुण और अन्य जो  इन दिनों ललित मोदी के निशाने पर हैं वे सभी कभी न कभी नरेंद्र मोदी के मूक  आलोचक  ही रहे हैं। इसीलिये अब बड़े मोदी जी ने छोटे मोदी की  'तोतली बातों' पर मौन धारण कर रखा है। अम्बानी-अडानीया स्मृति ईरानी  के आलावा जो कोई भी खाता  - पीता  फंसा की उसकी शामत  आयी समझो !

       स्मृति ईरानी को नकली डिग्री के फेर में संकट ग्रस्त देख अकेले मुरली मनोहर बाबा ही नहीं बल्कि सैकड़ों खानदानी 'संघी' और 'संघमित्राएं',मन ही मन प्रमुदित हो रहीं  हैं। मानों ये सब के सब पृथापुत्र या पुत्रियाँ हों  व्  स्मृति ईरानी  रुपी कर्ण के रथ का पहिया  रक्तरंजित कुरुक्षेत्र के मैदान में  धस  गया हो !जब कोई भाजपा प्रवक्ता इन अपराधग्रस्त नेताओं या नेत्रियों की वकालत के लिए अपना मुँह  खोलता भी  है तो उसकी हालत राम माधव जैसी हो जाती है। राम माधव जो संघ से भाजपा का उद्धार करने पार्टी में भेजे गए हैं ,उन्होंने योग दिवस पर उपराष्ट्रपति को भी लपेट लिया।  इन राम माधव की लू और किसी ने नहीं बल्कि उन्ही की  सरकार के 'आयुष' मंत्री ने  उतारी है। उन्ही की पार्टी की सरकार के   मंत्री जी ने खुलासा किया कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को तो प्रोटोकॉल के तहत बुलाया ही नहीं गया। विपक्ष  के  हमलों के आगे  'पार्टी विथ डिफ़रेंस' -भाजपा  और विकास -सुशासन के नारों वाली -मोदी  सरकार दोनों ही का चाल -चरित्र -चेहरा विद्रूप हो चला है। देश के   स्वतंत्र मीडिया ने भी सत्ता के  घात-प्रतिघात और आघात  सहते हुए भी अपनी शानदार भूमिका का निर्वहन किया है। लेकिन भाजपा नीति मोदी सरकार  के मंत्री  मुख्यमन्त्री की कीर्ति पताका पूंछ रही है कि  क्या संघ की शाखाओं में यही सिखाया जा रहा है? 'किम  तस्मात् त्वं  बंधुहन्ता' भव !'
               
   यूपीए के दौरान दस वर्षीय शासनकाल में देश को दिशाहीन नीतियों  देकर ,घोटालों के जंजाल  में फंसाकर कांग्रेसी 'हाईकमान'  भी  इन दिनों मानसून की तरह मानचित्र से गायब है।  दिग्विजयसिंह ,जयराम रमेश  जैसे दो-चार कांग्रेसी ही किला लड़ा रहे हैं। बाकी सब तो  अतीत के सत्ता सुख  भोग के नॉस्टेलजिया में  ही मस्त हैं। विगत सत्र के दरम्यान  राहुल  गांधी ने कुछ अधकचरे  वामपंथी तेवर दिखाए थे. किन्तु उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि  भाषण देना  आसान  है लेकिन नीतियों -कार्यक्रमों  का जनतंत्रीकरण कठिन है।  कांग्रेस को पहले अपने राष्ट्रीय अधिवेशनों में यह तय करना होगा कि उनकी यूपीए -२ की  मनमोहनी नीतियां गलत थीं। उन्हें देश की    आवाम  के समक्ष -मजदूर -किसान परस्त वैकल्पिक नीतियों का खाका  प्रस्तुत करना होगा। अकेले दो-चार लच्छेदार वामपंथी जुमले जड़ देने से वे सर्वहारा के नायक नहीं बन  जाएंगे !जातीयता और साम्प्रदायिकता पर भी उन्हें बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं का  ख्याल रखना होगा।  कांग्रेस द्वारा  सिर्फ अल्पसंख्यक राग गाते रहने से बहुसंख्यक  हिन्दू समाज कांग्रेस से कोसों  दूर हो गया है। इसी तरह  वामपंथ और तीसरे मोर्चे की भी हालत कुछ ज्यादा आशाजनक नहीं है। जनता परिवार वाले  भी जनता के समक्ष विश्वश्नीयता खो चुके हैं।

  केवल देश का मजदूर और किसान  आंदोलन  ही जागृत है। केंद्रीय श्रम  संघों की अभियान समिति  के  आह्वान पर आगामी दिनों में विशाल पैमाने पर राष्ट्रव्यापी हड़तालों का आह्वान किया गया  है। न केवल सीटू-एटक जैसी वामपंथी ट्रेड यूनियन बल्कि कांग्रेस समर्थित इंटक और भाजपा समर्थित ' भारतीय मजदूर संघ' भी इस संघर्ष में शामिल हैं।  केंद्रीय स्वतंत्र फेडरेशन और राज्य सरकारों के कर्मचारी तथा ठेका मजदूर भी अब अत्याचार के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। हायर-फायर की नीति और जमीन हड़पो की नीति  पर देश के अधिकांस  मजदूर -किसान कोई समझौता नहीं करने वाले हैं  ! वर्तमान मोदी सरकार यदि इसी तरह पूंजीपतियों और घोटाले  बाज तत्वों की हितकारिणी बनी रही और उसके मंत्री मंडलीय साथी  इसी तरह घोटाले बाजों का साथ देते रहे तो यह संघर्ष और तेज होगा।  मध्यप्रदेश के व्यापम  जैसे भयानक कांडों में   हो रही दर्जनों मौतों  पर  मुख्यमंत्री की ओर  भी  अंगुली उठ रही है  ,राजस्थान में सरकारी सम्पदा पर नेताओं का निजी कब्जा हो रहा है  और महाराष्ट्र में ठेकों के घोटाले हो रहे हैं । यदि यह सब  इसी तरह होता रहा  तो 'मोदी' सरकार' अगले चुनाव में जनता को मुँह  दिखाने  लायक  नहीं रहेगी !१९८४ में भाजपा के सिर्फ दो  ही सांसद जेट पाये थे। कहीं २०१९ में भाजपा का  पुनर्मूषको  भव : तो नहीं होने जा रहा है ?

                                     श्रीराम तिवारी  

               

बुधवार, 1 जुलाई 2015

चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रहीं हैं ?



    मौसम खुशगवार है तो ये धूल -धुआँ -धुंध और गर्द क्यों उड़ रही है ?

    यदि अच्छे दिनों का आगाज है तो सत्ता के नीचे जमी क्यों धस रही है ?

   ' मन की बात' मन बहलाव जन -सवालों पर  'मौन' की मार क्यों पड़  रही है ?

    खलनायिकाएँ मानों  चियर गर्ल्स उनके  चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रहीं हैं ?

                                                         श्रीराम तिवारी