रविवार, 31 अगस्त 2014

अभी तो उनका 'हनीमून पीरियड शुरू ही हुआ है। ;- श्रीराम तिवारी ;-

   मार्फ़त श्री जेटली जी -केंद्रीय मंत्री ,भारत सरकार ,नई  दिल्ली ,

  देश की आवाम  को -एक अच्छी खबर है कि -देश के अनाज गोदाम अन्न से  भरे पड़े हैं।

  देश की आवाम को  मानसून की बेरुखी से चिंता करने की  या महँगाई  से डरने  की कोई बात नहीं  है।

  चलो भाई   हमारी चिंता  दूर हुई  आवाम को ये भी याद रखना चाहिए   कि  ये  चमत्कार  -महज तीन

 महीनों  में संभव नहीं हुआ !तीन महीने पहले सत्ता में आई एनडीए सरकार- बनाम मोदी सरकार- बनाम 'संघ

सरकार' -के  सत्ता में आने और कुछ कर  दिखाने  में कुछ बक्त लगेगा , उन्ही  के किसी नेता का तर्क है की

 अभी -अभी तो शादी ही  हुई है,अभी तो हनीमून भी नहीं सम्पन्न हुआ।  क्या  इतने जल्दी बच्चा संभव है ?

 वेशक समझदार लोग भी मानते हैं कि  इस सरकार के एक साल होने के बाद ही पता लगेगा कि  अन्न भंडारण

की क्षमता  और महँगाई  की स्थति क्या है ? यह \बात   जुदा  है कि  इस सरकार के आते  ही मानसून  भी  दगा

 दे गया  ! न केवल मानसून  दागा दे गया बल्कि पाकिस्तान का शरीफ  भी कौल का कच्चा निकला और  गच्चा

 दे गया।  अभी -अभी २-४ दिन पहले ही   प्रधानमंत्री जी ने  एक  विशालकाय नवीनीकृत  युद्धपोत नौसेना को

 समर्पित किया।  चारणों ने  शौर्य ,यश ,सुशासन और विकाश  के मंगल  गीत गाये।  चापलूसों ने  नेतत्व

की चरण वंदना की। पता लगा कि  इसे  भारत -रूस सहयोग से बनाया गया है [वास्तव में यह  सेकिण्ड हेंड-

पुराना रुसी युद्धपोत है जिसे साज-संवार कर नया भारतीय  रूप दिया गया है  और इसे बनाने में पूरे १० साल

लगे हैं[यूपीए -१ और यूपीए-२ का १० बर्षीय कार्यकाल ] यह  भी इंदिरा गांधी के नेतत्व में सम्पन्न -

 'भारत -सोवियत' मैत्री  की शायद  यह अंतिम  सामरिक निशानी है।  वर्तमान  सरकार  आइन्दा  इसे और

 बेहतर तो बना सकती है किन्तु इसका पूरा श्रेय नहीं ले सकती। अब यदि   आवाम सवाल करे  कि  इसका श्रेय

  किसे जाता है ? तो सही जबाब  क्या है? कांग्रेसी कह सकते हैं कि  ये तो  हमारी  नीतियों -कार्यक्रमों का

परिणाम  है। लेकिन  यूपीए केअलायन्स पार्टनर  भी कह  सकते हैं कि यदि   हम समर्थन नहीं देते तो यूपीए की

 सरकार ही नहीं बनती औरतब  कांग्रेस सत्ता में कैसे आती ?  जब  कांग्रेस को सत्ता में बिठाने का श्रेय उसके

 अलायन्स पार्टनर्स को है तोउपलब्धियों का क्यों नहीं ? अकेले -अकेले किसी  को भी उपलब्धि का श्रेय लेने का

सवाल ही नहीं उठता । एनडीए  सरकार  बनाम  भाजपा  सरकार बनाम मोदी सरकार को फिल्बक्त तो  किसी

भी इस या  उस उपलब्धि या निर्माण का श्रेय  कदापि नहीं  मिल सकता ,जिसके सृजन या निर्माण में ३ माह से

 ज्यादा  का वक्त लगा हो  !  क्योंकि  बकौल उन्ही के किसी प्रवक्ता के - बच्चा पैदा होने में  भी ९ माह तो

 अवश्य ही लगते हैं। जबकि अभी तो उनका 'हनीमून पीरियड  शुरू ही हुआ  है।             श्रीराम तिवारी

                   






  किसानों के अथक परिश्रम की मेहरवानी से ,

  अनाज के गोदाम भरे पड़े हैं।

    चूँकि दो महीनों में तो यह सम्भव नहीं ,

  

   

      एक बहुत  बुरी खबर है की,

       गोदामों में अनाज सड़  रहा है -

        फिर  क्यों  निर्धन जनता पर भूंख की  परछाई है?

         एक अच्छी खबर है  कि ,

        अब अलायन्स  के सामने झुकने की बाध्यता नहीं -

        फिर क्यों स्पष्ट बहुमत की सरकार रोकती नहीं महँगाई  है ?

         एक अप्रिय खबर है कि ,

        वर्तमान सरकार कहने को तो है 'मोदी सरकार ',

        किन्तु नीति -नियत और कार्यक्रमों से लगती  यह यूपीए-३  यही सच्चाई है।

      
               श्रीराम तिवारी


    

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

अब चेते का होत है ,काँटन लीनी घेर।



       आदरणीय आडवाणी जी ,मुरली मनोहर जोशी जी ,राजनाथ जी,सीपी ठाकुर जी ,सदानंद  गौड़ा   जी ,रामलाल  जी    और तमाम उन  भाजपा -नेता /नेत्रियों को - जिनके सितारे  भाजपा की प्रचंड जीत के वावजूद गर्दिश में हैं -उन सभी को  एक दोहा सादर समर्पित ;-

                केरा तबहुँ  न चेतिया ,जब ढिग जामी बेर। 

              अब चेते का  होत  है ,काँटन  लीनी घेर। । [अज्ञात]


        एक था केला। बड़ा प्यारा सुकुमार।  उसके बड़े-बड़े चिकने और साफ़-सुथरे  पत्ते।  केले के मीठे -मीठे फल  उसमे लगते । कालान्तर  में उसकी छाँव में किसी ने बेरी की झूंठी गुठली फेंक दी। बेर का पौधा परवान चढ़ने लगा.हवा चलने पर बेर के काँटों से केले के नाजुक पत्ते फटने लगे । केला  छत-विक्षत होकर उदास होकर  रोने जैसा दिखने लगा। एक  कवि वहाँ से गुजरा। केले की मर्मान्तक पीड़ा  और बेर के पेड़  का खुंखार रौद्र रूपदेखा।  केले  के पत्तों पर बेर  का  निरंतर घातक  प्रहार का  मार्मिक दृश्य देखकर संभवतः  उस कवि ने  उक्त दोहे की   रचना की होगी।    इस दोहे का अर्थ बिलकुल सीधा सा है कि " हे केला तूँ  तब क्यों   नहीं चेता जब यह बेर तेरी छाँव में  ही पनप  रहा था। अब तेरे चेतने से या समझदार होने से कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अब  इस बेर  ने  भयानक रूप धारण कर लिया है। तूँ  अब काँटों से घिर  चुका  है। "

          श्रीराम तिवारी 

बुधवार, 27 अगस्त 2014

आइन्दा यह सोचने की बात ये हैं कि पुरानी[!] संसद और पुराना[!] लोकतंत्र कब तक खैर मनाता है ?



  किसी भी  सिस्टम ,संस्थान  या  राष्ट्र- राज्य के संचालकों   द्वारा  समय की मांग के अनुसार उपलब्ध  -  संसाधनों , व्यक्तियों ,संस्थाओं और कार्य संस्कृति में सप्रयास बदलाव से मौजूदा  व्यवस्था में  बदलाव की संभावनाएं अवश्य ही मौजूद रहतीं  हैं । किन्तु यह बदलाव किसके  हित  में होगा? कितना होगा ? कैसे होगा ?  यह साधनों की शुचिता , नीति-नियत और नेतत्व के साहस  पर भी  निर्भर  है ।
        देश पर आंतरिक बाह्य चुनौतियों के बरक्स - वर्तमान में- केंद्र की 'मोदी  सरकार' की तमाम तात्कालिक  सफलताओं के  निहतार्थ समझने के लिए बहुत ज्यादा प-रामदेव ढ़ा -लिखा होना जरुरी नहीं है। राजनीति  शास्त्र  का अद्ध्येता  होना  भी जरुरी नहीं है ।एक बहुत पुरानी कहावत है कि " यदि किसी मनुष्य का चाल-चलन जानना समझना है  या उसकी रीति और नियत समझना है तो उसके इर्द-गिर्द के लोगों को जानो" अब यदि  मोदी जी के सलाहकार अडानी,अम्बानी, सुनील मित्तल  भारती होंगे  या अन्य  मुनाफाखोर -अवसरवादी नव-धनाढ्य  होंगे  जब यही कार्पोरेट सेक्टर के काइयाँ लुटेरे देश के नीति निर्माता होंगे तो  समझा जा सकता है कि  किसके अच्छे दिन आने वाले हैं ?कथनी करनी का फर्क तो इसी से समझा जा सकता  है कि  दागी सांसद और दागी मंत्री तो  मजा मौज कर रहे हैं जबकि  ईमानदार -देशभक्त जनगण  कुशासन और मँहगाई  की मार झेलने को अभिशप्त हैं।  जनता पूंछ रही है कि क्या  कालाधन वापिस लाओ - आंदोलन केवल सत्ता परिवर्तन  का अण्णा -रामदेव अभिनीत पाखण्डप्रेरित नाटक मात्र था ? क्या 'आप'का संघर्ष केवल भाजपा और पूँजीपतियों के हितों का पोषक मात्र था ? क्या संघ परिवार और गैर कांग्रेसी विपक्ष का  संघर्ष  केवल अमीरों के मुनाफों की  अबाध बढ़त के लिए ही समर्पित था ?
       आगामी दिनों में प्रधानमंत्री जी का विदेशों का सैर-सपाटा जिनके साथ होगा- उनकी नीति और नियत जग जाहिर है। उनके साथ इंफ्रास्ट्रक्टचर या वित्तीय प्रयोजनों में रणनीतिक साझेदारी का  जब जाहिराना  तौर पर शंखनाद किया जा  रहा हो तो  समझा जा सकता है कि  नीति  क्या है ? नियत  क्या है ? सवाल सिर्फ योजना आयोग को ध्वस्त करने का ही नहीं है ,नव-धनाढ्यों की टोली को अपना हमराह -हमसफ़र बनानें का  का ही  नहीं है,बल्कि सवाल ये भी है कि  इन तमाम कार्य -निष्पादनों की वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है ? जनता के अच्छे दिनों को लाने के लिए  कार्यक्रमों का  रूप  और आकार क्या है ? अभी तो पार्टी स्तर पर और कैविनेट स्तर पर भी'एकचालुकानुवर्तित्व' का ही बोलबाला है। याने की 'नमो नाम केवलम्' !
             दिल्ली में अमित शाह की  भाजपा अध्यक्ष पद पर ताजपोशी  जिनकी  असीम अनुकम्पा से हुई  उन परमश्रेष्ठ सहित जब  सभी ने  एक  दूसरे  के चारण  गीत गाये  तो 'संघ' भी  दंग रह गया। कुछ ने जो  अमित शाह की तारीफ़ की इसमें कोई बुराई नहीं। किन्तु  उनकी नजर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इतना वेचारा हो गया कि उसका परोक्ष जिक्र तो दूर की बात किसीने -न केवल मंदिर निर्माण , न केवल यूनिफार्म  सिविल कोड, न केवल धारा  ३७०, न केवल  स्वदेशी आंदोलन , बल्कि संघ का  'त्याग-तपस्या - बलिदान'  भी  भुला दिया।सत्ता मद में चूर नेताओं की इस उपेक्षा से  संघ इतना गर्म  हो गया  कि  स्वयं  संघ प्रमुख मोहन राव  भागवत को  भी भोपाल प्रवास के दौरान कहना पड़ा कि  "भाजपा को  यह संसदीय महाविजय न तो किसी नेता की 'महानता' से  मिली और न  ही  पार्टी की रीति-नीति   से यह विजय हासिल हुई।  बदलाव या सुशासन के नारों से  भी विजय नहीं मिली ,बल्कि इस विजय का श्रेय तो देश की  उस जनता को जाता है जिसने 'कांग्रेस के कुशासन से आजिज आकर  मजबूरी में भाजपा को सत्ता में बिठाया है" वेशक यह बयान बेहद तार्किक और सटीक है  उनके इस बयान के मार्फत सन्देश  भी उन्ही के लिए  है  जो   गुजरात मॉडल,सुशासन और पश्चिमी जगत की चकाचौंध से  भिंदरयाये हुए है या रतौंध्याये हुए हैं।
                  विगत १०० दिनों में इस सरकार ने जो भी किया है  उसका थोड़ा सा आकलन  राज्यों में सम्पन्न  अभी हाल के उपचुनावों में  - उसके परिणामों में भी झलक रहा है। विपक्ष को तो मानों संजीविनी ही मिल गई है। भाजपा के नेता अपनी आधी-अधूरी हार-जीत को  हँसी  में उड़ाने का प्रयास कर रहे हैं।  जब देश का मीडिया  इन चुनावों में भाजपा की दयनीय स्थति पर चर्चा कर रहा था,ठीक तभी पार्टी के खुर्राट नेताओं ने जानबूझकर  देश का और मीडिया का ध्यान उधर से  हटाकर अपने संसदीय  बोर्ड  के नवीनीकरण और 'मार्गदर्शक मंडल'जैसे बृद्धाश्रम का निर्माण कर  सभी को  चौंका दिया।   भाजपा नेतत्व ने सफलतापूर्वक न केवल मीडिया में  बल्कि राष्ट्रीय फलक पर अपनी पार्टी को पुनः केंद्र में खड़ा कर दिया। संसदीय बोर्ड में किन- किन - को हटाया गया ? नवगठित बोर्ड में किन-किन को  उपकृत किया गया ? किन-किन  बुजुर्ग नेताओं को 'बृद्धाश्रम ' में  भेजा गया ? यह चर्चा मीडिया में प्रमुखता से जानबूझकर चली गई।  वैसे तो मोदी सरकार  के लिए  इन उपचुनावों से कोई खास लेना देना नहीं था। क्योंकि इन  परिणामों का केंद्र सरकार के  क्रिया -कलापों से या उसकी नीतियों  से कोई खास सावका  नहीं था।  किन्तु केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी केअलावा विपक्ष के  स्थानीय नेताओं की वैयक्तिक '  पकड़'तथा विभिन्न राज्यों में  भाजपा की  राजनैतिक -समाजिक स्थिति का  पता तो चल ही गया।  फिर  यदि इन परिणामों से भाजपाई सबक नहीं लेते तो यह तो वर्तमान विपक्ष की सेहत के लिए  और भी अच्छा है । देश के लिए भी कुछ तो अच्छा  सगुन है।  क्योंकि इन परिणामों से  उत्साहित -भारत का विपक्ष  यदि एकजुट हो जाए तो कोई अचरज की बात नहीं। यदि आगामी ५ साल बाद  केंद्र में किसी और पार्टी या गठबंधन की सरकार बन जाए तो भी कोई अचरज नहीं। यदि  मोदी सरकार इन अद्द्यतन परिणामों  का मंथन कर जनकल्याणकारी नीतियों और  जनहितैषी कार्यक्रमों को तबज्जो देती है तो  ही वह दुबारा सत्ता में आ पाएगी। इस तरह दोनों ही सूरत में ये उपचुनाव देश की जनता को आशा का सन्देश देने के लिए  सराहनीय हैं।
               लकिन  नमो अभी तक [१०० दिनों] में जो करते आये हैं यदि आइन्दा भी  वही करने जा रहे हैं  तो 'संघ' या  भागवत जी भले ही  उन्हें माँफ कर दें ,किन्तु  'राम लला ' के नाम पर जिनको ठगा जा रहा  है वे  करोड़ों मतदाता  तो कदापि बख्सने वाले नहीं हैं।अभी तक कार्यान्वन में प्रयुक्त ,मोदी सरकार की कोई भी तजबीज ,योजना कार्यक्रम या नीति भारत  के'आम आदमी' के अनुकूल  तो कदापि प्रदर्शित नहीं  हुई है। जिस कार्पोरेट लाबी को वे सर-आँखों पर बिठाये जा रहे हैं ,जिस तेजी से वे देश की सम्पदा को विदेशी हाथों में सौंपने को बैचेन हैं वो  मोदी सरकार की अवैज्ञानिक चेष्टाओं का नग्न प्रदर्शन ही कहा  जा सकता है।  इसी तरह  मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और अभी-अभी भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य बने श्री  शिवराजसिंह  चौहान ने  भीं दुबई  तथा यूएई में  जो एजेंडा प्रस्तुत किया  है।  निकट भविष्य में जापान -कोरिया की यात्राओं में पीएम महोदय भी वही करने जा रहे हैं। इस प्रयोजन का  महँगाई की मार से पीड़ित असहाय  गरीब जनता के विकाश से  कोई लेना-देना नहीं है। सर्वविदित है कि  पूँजीपतियों  के दवाव में तमाम श्रम  क़ानून आनन-फानन  भोंथरे किये जा रहे  हैं। सार्वजनिक उपक्रमों को आईसीयू में भर्ती किया जा रहा है । लाख टके  का सवाल है कि  मोदी जी और उनकी सरकार  किसके  पक्ष में खड़े हैं ? 
                      जब सरकार  का मतलब -नमो-नमो ! भाजपा का मतलब-नमो-नमो ! संसदीय बोर्ड का मतलब नमो-नमो !नीतियों का मतलब -नमो-नमो ! सिद्धांतों का मतलब - नमो -नमो और विकाश -सुशासन का  मतलब 'नमो-नमो'  है तो फिर चुनाव में जीत-हार का मतलब  'नमो-नमो' क्यों नहीं होना चाहिए ?जब कभी  मोदी जी को इल्हाम  हुआ  होगा कि 'पुराना सब कुछ बदल  देने से नया अपने आप आ जाएगा तब शायद उनके जेहन में  निजी तौर पर  पुराने पितृगण  ,पुराना स्वाधीनता संग्राम ,पुराने महापुरुष और पुराना त्याग-बलिदान, पुराना  हिमालय ,पुरानी गंगा और पुरातन भारतवर्ष तो अवश्य  ही रहा होगा।  तभी तो उन्होंने पुराना संसदीय बोर्ड ,पुराना  योजना आयोग,पुराने  राज्यपाल ,पुराना अध्यक्ष [राजनाथसिंह] और पुराने नेता [आडवाणी-जोशी -अटल और सभी]  ही नहीं बल्कि१९२५ से  संघ का , १९५२ से जनसंघ का और  १९८० से भाजपा का वह एजंडा भी कूड़ेदान में फेंक दिया गया है  जो  राष्ट्रवाद ,हिंदुत्व और स्वदेशी पर आधारित था।  चूँकि वह भी   बहुत पुराना हो गया था इसलिए उसे भी वरिष्ठ नेताओं की मानिंद हासिये पर हाँक दिया गया।  अब नया तो बस  'नमो नाम केवलम' है।  इसलिए आइन्दा देखने की बात ये हैं कि  पुरानी संसद और पुराना लोकतंत्र कब तक खैर मनाता  है ?की मनसा है कि न केवल  कांग्रेस,कम्युनिस्ट  और अन्य धर्मनिरपेक्ष दल बल्कि  देश को भी ठिकाने लगाना है क्योंकि वो भी बहुत पुराना हो  चुका है।  यह सब करने के लिए सत्ता में रहना जरुरी है  ,सत्ता में रहने के लिए चुनाव जीतना जरुरी है ,चुनाव जीतने के लिए पैसा जरुरी है ,पैसे के लिए भृष्ट बेईमान  पूँजीपतियों  का सानिध्य जरुरी है। इसीलिए  तोअब  नीतियों और सिद्धांतों में कट्टर 'पूंजीवाद  नाम केवलम ' का जाप चल  रहा है।


                      - ; श्रीराम तिवारी ;-
       

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

जब संसद में विपक्ष है ,तो नेता विपक्ष क्यों नहीं होना चाहिए ?

    
  भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार और लोक सभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन  से पूंछा है कि जब  कोई विपक्ष का नेता ही नहीं   है तो  लोकपाल  कैसे चुना जाएगा।क्योंकि लोकपाल के चयन की प्रक्रिया में तो 'नेता  विपक्ष' एक अति आवश्यक फेक्टर है।  वास्तव में सुप्रीम कोर्ट को तो  पूंछना चाहिए  था  कि न केवल लोकपाल अपितु -न्यायिक कॉलेजियम  पार्लियामेंट्री स्टेंडिंग कमिटी,लोक लेखा  समिति,तथा तीनों सेनाओं के प्रमुखों   के अलावा अन्य अतिमहत्वपूर्ण संवैधानिक पदों की  स्थापनाओं के  चयन की प्रक्रिया में जहाँ- जहाँ   नेता विपक्ष की राय  बहुत जरुरी है वहां का निर्णय कैसे होगा ? चूँकिअब तो   परम्परा और सिद्धांत  दोनों ही  इसके पक्षधर हैं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष की सहमति [मार्फत विपक्ष  नेता ]  से ही सर्वश्रेष्ठ फैसले  लिए जाने चाहिए ।  लेकिन जब विपक्ष का नेता ही  नहीं होगा तो राय  किसकी ली जाएगी ?  ऐंसा लगता है कि  सत्तारूढ़ पार्टी को मिले प्रचंड बहुमत के वावजूद  उसे अपनी संसदीय रणकौशल पर भरोसा  अभी भी नहीं है। वरना  भाजपा के इस नए  नेतत्व को  मात्र एक 'नेता  विपक्ष' से इतना भय  क्यों है?  कहीं उनका इरादा यह तो नहीं कि  वे इस पद को किसी भी तरह से ज़िंदा  ही नहीं रखना चाहते ? यदि वे वास्तव में  सच्चे राष्ट्रवादी  हैं और भारत के लोकतंत्र को बुलंदियों पर  देखना चाहते हैं तो  उन्हें  चाहिए कि  फ़ौरन से पेश्तर सुप्रीम कोर्ट के  समक्ष -अटार्नी जनरल की  नकारात्मक राय नहीं बल्कि  भारत के सम्पूर्ण विपक्ष  की   [लगभग ६९% की ]  राय  को   तत्काल पेश करें।
                                 भाजपा नेतत्व को  नहीं भूलना चाहिए  कि  उनकी पार्टी  को   १६ वीं  संसद में ३३२ सीटें तो अवश्य मिली  हैं  किन्तु  वोट तो ३१ % ही मिले हैं।  इस स्पष्ट किन्तु  आभासी जनादेश का तात्पर्य यह नहीं कि  विपक्ष के रूप में देश की ६९ % जनता की आवाज को नजर अंदाज  कर दिया जाए ?  यह न तो मौजूदा सरकार के लिए उचित होगा और  संसदीय लोकतंत्र के हित में  तो कदापि नहीं होगा।  
                            वैसे तो  किसी पार्टी विशेष  के  एक खास व्यक्ति को  नेता प्रतिपक्ष  का दर्जा  मिल जाने से  उसकी संसदीय क्षमता पर या उसके  जनतांत्रिक जनाधार पर कोई खास असर नहीं पड़ता किन्तु फिर भी नेता प्रतिपक्ष  के होने से  सत्ता पक्ष के लिए भी गाहे-बगाहे , शासन-प्रशासन चलाने में काफी सहूलियतें  हुआ  करतीं   हैं ।  इससे भी अधिक सकारात्मक और सार्थक तथ्य यह भी  है कि  देश को एक बेहतर लोकतांत्रिक राष्ट्र होने का गौरव भी  प्राप्त  होगा । नेता प्रतिपक्ष के बहाने   संसद में   बिखरे  हुए  विपक्ष को महत्व  मिलने से  फासिज्म  और तानशाही की  संभावनायें  भी  नहीं रहेगी ।  भारत में अभी तक चली आ रही परम्परा  के अनुसार  कुछ अपवादों को छोड़कर लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष - विभिन्न महत्वपूर्ण सांविधानिक पदों के चयन-मनोनयन  वाली -अधिकांस  महत्वपूर्ण समितियों का सम्मानित सदस्य  होता है । वर्तमान सत्ताधारी नेतत्व ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती के लिए यदि  नेता  प्रतिपक्ष के पद  को विलोपित करने का दुस्साहस किया तो  यह वास्तव में  'बनाना लोकतंत्र' बनकर रह जाएगा।  यदि सत्ता पक्ष ने -लोक सभा अध्यक्ष  श्रीमती सुमित्रा महाजन  के कंधे पर बन्दूक   रखकर विपक्ष पर निशाना  साधा तो इससे मृतप्राय कांग्रेस और गैर  कांग्रेसी विपक्ष  को पुनः  संजीवनी मिलने  की पूरी संभावनाएं हैं।  पराजित कांग्रेस  तो   अपना दामन बचाने  के लिए  ठीक ऐंसे ही मौकों की तलाश में है। वैसे भी लगता है कि  राहुल  गांधी को  तो 'नेता विपक्ष' जैसे पद की कोई तमन्ना नहीं है। जहाँ तक सोनिया गांधी का सवाल है ,वे तो प्रधानमंत्री भी नहीं बनना चाहतीं तो नेता विपक्ष का उन्हें कोई   मोह होगा  इसमें संदेह है  ! रही बात मल्लिकार्जुन खड़गे या कांग्रेस पार्टी की तो यह केवल उनकी एक  संवैधनिक विवशता मात्र है कि  'नेता  विपक्ष' की मांग करें ।उन्हें सुप्रीम कोर्ट का  यह  फरमान एक अवसर  बनकर आया है कि  -सत्ता पक्ष को  सुप्रीम कोर्ट से  जारी सम्मन का जबाब दो हफ़्तों में  देना है। यदि  भाजपा नेतत्व  ने -नेता विपक्ष पर अड़ियल रुख अपनाया तो  उन्हें याद रखना चाहिए कि भविष्य में  सत्ता पक्ष को भी संसद में और खास   तौर  से राज्य सभा  में  कोई भी कामकाज या विधेयक पास करवाना  मुश्किल हो जाएगा। वैसे भी भारतीय  संसद  में होती  रहतीं  अप्रिय कार्यवाहियों  पर देश की आवाम को कई वजहों से नाराजी है। नेता विपक्ष के  अभाव में कई काम पेंचीदे हो जाएंगे।   
                                  
                                          नियमानुसार भारत की  संसदीय  परम्परा में  'नेता विपक्ष' की हैसियत पाने के लिए लोक सभा  चुनाव में संसदीय संख्या के अनुसार दूसरे नंबर पर आने वाली  किसी भी पार्टी के  कम -से-कम १०%  सांसद अथवा न्यनतम  ५५ [कुल संसदीय संख्या ५४३ का दशमांश]  होने चाहिए। १६ वीं लोक सभा में कांग्रेस दूसरे  नंबर पर तो है किन्तु उसकी सीट संख्या मात्र ४४ है।  वेशक अतीत में जब कांग्रेस सत्ता में रही तब उसने भी विपक्ष को कोई खास तबज्जो नहीं दी। लेकिन १९७७ में जनता पार्टी की सरकार आने के बाद लोक सभा ने यह सुनिश्चित किया कि  बहुमत दल  की सरकार  कोई भी हो ,किन्तु लोक सभा की सर्वोच्चता  और  वास्तविक  डेमोक्रेसी के बरक्स विपक्ष की शक्ति  को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए ।उसके बाद नेता विपक्ष  के मनोनयन का सिलसिला चला पड़ा। बाद में फिर ऐंसे  कई मौके आये जब किसी भी विपक्षी पार्टी को उचित या वांछित संसदीय बल प्राप्त नहीं हो  सका और  किसी को भी  नेता विपक्ष का पद नहीं मिल पाया ।  १९८४ में कांग्रेस को ४१२ और भाजपा को मात्र दो सीट मिली थी तब  माकपा के नेतत्व में वाम मोर्चा[सदस्य संख्या[ ४९] दूसरे नंबर पर थी।   किन्तु उनकी अलग-अलग संसदीय  गणना के कारण नेता विपक्ष का पद उन्हें भी  नहीं दिया गया। इसी तरह तत्कालीन  तेलगु देशम [सदस्य संख्य -२९]को   भी 'नेता विपक्ष' का पद नहीं  दिया गया। लेकिन इसका तातपर्य यह नहीं की जो गलती अतीत में की जाती रही  हो ,उसे फिर से वापिस दुहराया  जाए !  यदि भारत को मजबूत बनाना  है तो  भारतीय संसद को तथा भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाना होगा।  इसके लिए सतत  सकारात्मक और क्रांतिकारी कीर्तिमान स्थापित  करने होंगे। ऐंसा नहीं कि  जो सकारात्मक अवयव हैं उन्हें ही नष्ट कर दिया जाए। जब संसद में विपक्ष है तो नेता विपक्ष  क्यों  नहीं  होना  चाहिए ? क्या यह उस महानतम  जनादेश का अपमान नहीं  होगा  जो  कि लोकशाही  का मूल आधार है? 

                     पूर्व वर्ती परम्पराओं और अटार्नी जनरल की राय के आधार पर वर्तमान  स्पीकर महोदया ने भले ही  कांग्रेस द्वारा की जा रही  नेता प्रतिपक्ष की माँग   को ठुकरा दिया  हो , किन्तु यहां कांग्रेस या भाजपा  के  चाहने या नहीं चाहने का प्रश्न नहीं  है।  स्पीकर का यह  कहना है कि  वे नियमों और परमपराओं से बंधी हुईं हैं ,यह   एक चलताऊ सा  जबाब है। जबकि उनके समक्ष  तो अपने संसदीय जीवन का श्रेष्ठतम कीर्तिमान  बनाने का सुअवसर मौजूद है ।  इस   संबंध में  वे दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर  उठकर न केवल विपक्ष को बल्कि वर्तमान सत्ता पक्ष की भूमिका  को भी राष्ट्रहित कारी बना सकती हैं। दलगत प्रतिबद्धताओं के कारण  कुछ इस तरह मंसा  जाहिर हो रही  है किमानों  सर्वोच्च नेताओं के  अपने  निजी   हित  या उनकी अपनी  पार्टी भाजपा  के हित  ही , उनकी तात्कालिक  प्राथमिकता में हैं। यह आभाषित होता है कि राष्ट्रहित  तो केवल भाषणबाजी में या नारों में  ही उद्घोषित होते रहते हैं। पार्टी प्रतिबद्धता को  इससे कोई सरोकार नहीं कि  भारतीय संसदीय प्रजातंत्र के हित  में क्या है ?भारतीय  संसद की  प्राथमिकता में क्या है?भारत के लिए उसकी बहुलवादी -बहुभाषी-बहुसंस्कृतिवादी तथा बहुधर्मी अनेकता में एकता के लिए  उचित  क्या है ? यदि इन सवालों के मद्देनजर वर्तमान शासक वर्ग खुद आगे होकर नेता विपक्ष की वकालत करता  है तो  न केवल यह भारतीय लोकतंत्र के लिए महानतम होगा  बल्कि भाजपा के लिए भी आशातीत वरदान बन सकता है । आशा की जा सकती है कि  न्याय पालिका और जनता के हस्तक्षेप से 'नेता   विपक्ष' का पद कायम रहेगा और भारतीय लोकतंत्र और  अधिक  समृद्ध होगा। कांग्रेस और सम्पूर्ण विपक्ष को चाहिए कि  लोकतंत्र के हित  में   संसद के अंदर व्यापक   एकता कायम करें। संसद में एक मत होकर सत्ता पक्ष  को बाध्य करें  कि  संसद में कभी भी   'एकचालुकानुवर्तित्व' नहीं चलेगा। 'नेता विपक्ष ' तो होना  ही चाहिए ! यह लोकतंत्र के  हित में है।

        १५ अगस्त को  लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अपने प्रथम भाषण में एक बहुत सार्थक और सटीक बात कही है की" हम अपने प्रचंड बहुमत के मद में चूर होकर नहीं बल्कि  'सबको साथ लेकर 'चलेंगे ! हम 'सबका साथ -सबका विकाश 'के साथ देश को समृद्ध बनायेंगे" सभी को मालूम है कि  श्री नरेंद्र  मोदी जी  इस समय जब अपने ही सांसदों और मंत्रियों पर पैनी निगाह रख सकते हैं , वे जब आडवाणी  , मुरली मनोहर जोशी  ,यशवंत सिन्हा और जशवन्तसिंह को घर बिठा सकते हैं,वे जब अमित शाह को शिखर पर बिठा सकते हैं ,वे जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेंडे  को -धारा ३७०,राम-लला मंदिर निर्माण  तथा एक समान क़ानून सहित सभी पुरोगामी आकांक्षाओं को तिलांजलि दे सकते हैं , वे जब   सुशासन और विकाश के बलबूते इतना प्रचंड बहुमत हासिल  कर सकते हैं तो फिर एक अदने  से  'नेता विपक्ष'  के पद से उन्हें इतना डर  क्यों  है ?  विपक्ष की  कम सीटों   का  बहाना क्यों बनाया जा रहा है  ?वास्तविक जनादेश का सम्मान क्यों नहीं  किया जा रहा है ?
                                    
                    - ; श्रीराम तिवारी  ;-

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार से बात नहीं करना कहाँ तक उचित है ?



    भारत और पाकिस्तान के बीच  प्रस्तावित  सचिव  स्तर की  द्विपक्षीय वार्ता अर्थात  'फ्लेग मीटिंग'से  पूर्व भारत  स्थित  पाकिस्तान  उच्चायोग  द्वारा कश्मीरी-अलगाववादियों और उग्रवादियों से चर्चा करने  की हिमाकत से  नाराज भारत सरकार ने पाकिस्तान से आइन्दा  कोई  बातचीत  नहीं करने का ऐलान किया है। भारत में कुछ लोग इस नीति का समर्थन कर रहे हैं। उधर  भारत - सरकार के इस कदम को पाकिस्तान  की   नवाज शरीफ  सरकार ने भी  निराशजनक बताकर अपना पल्ला  झाड़ लिया  है। चूँकि मियाँ नवाज शरीफ इस समय इमरान खान और जनाब कादरी साहिब के आंदोलनों के बीच सेंडबीच' जैसे बन चुके हैं।  इसलिए उनकी हालत तो  सांप छछूंदर की हो गई है। पाकिस्तान  स्थित भारत  के सनातन   दुश्मनों - आतंकियों और कश्मीरी अलगाववादियों को ,आईएसआई और आदमखोर सेना को -नवाज  शरीफ और उनकीब लोकतांत्रिक सरकार का भारत से बातचीत करना बिलकुल  पसंद नहीं है।शरीफ का  भारत से दोस्ती की चर्चा  करना और खास  तौर  से भारत के वर्तमान  बड़बोले शासकों से कश्मीर पर बात करना  पाकिस्तान की फौज को  कतई  पसंद नहीं है। यही वजह है कि  खुद पाकिस्तान का मौजूदा निजाम अर्थात 'हुकूमत-ए -पाकिस्तान '  ही नहीं चाहता कि  कश्मीर पर  भारत के साथ  कोई सार्थक बातचीत हो। इस बातचीत में तीसरे पक्ष के रूप में अलगाववादियों को लेना उसकी  साम्प्रदायिक मजबूरी हो सकती  है।एक रणनीति के तहत ही पाकिस्तान ने वर्तमान दौर की बातचीत को उसी पुराने ढर्रे पर आरम्भ किया कि वार्ता  ही न हो और  यदि हो तो पाकिस्तान की आवाम  के सामने शेर बनकर जाएँ  ताकि  इमरान खान या मुल्ला कादरी के आन्दोलनों से आवाम को दूर कर सकें।

    यही तजवीज आजमाने के लिए  नवाज सरकार ने  कश्मीरी अलगाववादियों और तमाम आतंकवादियों को निमंत्रण दे दिया। नतीजा सामने है।   इसी तरह भारत में भी कुछ 'स्वयंभू देशभक्त'  विद्वानों का   ,मीडिया - मुगलों का  और साम्प्रदायिकता का चस्मा लगाए बैठे  महानुभावों  का  पाकिस्तान  के नेताओं और  वहाँ की हुकूमत पर रंचमात्र भरोसा नहीं रहा । इसीलिये वे मौजूदा सरकार के इस कदम को कि पाकिस्तान से  'कोई बातचीत नहीं ' को   सही ठहरा रहे हैं।  बेशक जो लोग भारत -पाकिस्तान के बीच शान्ति-मैत्री और भाईचारे के हिमायती है वे मायूश हैं।पाकिस्तान में  करोड़ों मेहनतकश  -मजदूर -किसान हैं जो भारत पाकिस्तान के बीच अम्न शान्ति और मैत्री चाहते हैं। इसी तरह  भारत  की अधिसंख्य आवाम और  करोड़ों मेहनतकश मजदूर  - किसान भी इन दोनों मुल्कों के बीच स्थाई शांति और अमन चाहते हैं। इस लक्ष्य को पाने के  लिए बहुतही गंभीर, संजीदगी  औरखुले दिमाग के  कूटनीतिक प्रयाशों  की सख्त आवश्यकता है। बिना बातचीत,बिना संवाद  और  बिना  संपर्कों   के यह संभव नहीं।जब वर्तमान भारत सरकार के एक प्रशंशक और हिमायती स्वयंभू  कूटनीतिज्ञ कम-पत्रकार पाकिस्तान में दुर्दांत हत्यारे हाफिज सईद से बातचीत करने जा सकते हैं तो एक चुनी हुई सरकार से बात  नहीं करना कहाँ तक उचित है ?
                  केवल इस बिना पर कि  पाक उच्चायोग ने कश्मीरी  आतंकियों से बातचीत का प्रोग्राम क्यों बनाया तो यह   बहाना बेहद बचकाना है। दरसल विगत ६८  साल से भारत की लोकतांत्रिक  सरकारें   बड़ी  संजीदगी से  जिस हुकमत-ए -पाकिस्तान से  लगातार द्विपक्षीय चर्चा करती रही हैं। वो पाकिस्तान सरकार तो  खुद ही दुनिया में आतंकवाद और साम्प्रदायिकता की सबसे खतरनाक निशानी है।  भारत ने  बड़ी से बड़ी   मुश्किल के दौर  में  भी बातचीत का  अर्थात 'अम्न और  शांति ' का दामन नहीं छोड़ा। इसीलिये हर बार पाकिस्तानी पाखंडी सरकारों, नेताओं  और पाकिस्तानी फौज को मुँह  की  खानी पड़ी है।  आज सारे संसार में भारतीय लोकतंत्र को सम्मान से देखा जाता है जबकि  पाकिस्तानी लोकतंत्र और वहाँ  के  चुनाव का आलम तो  ये है कि इमरान खान और कादरी जी के लाखों समर्थक आज इस्लामावाद  को घेरे बैठे हैं। नवाज शरीफ  तो खुद ही सऊदी- अरब  , अमेरिका और पाकिस्तानी  फौज के रहमो करम से  अपनी जान बचा पाये थे। वे  तो कठपुतली हैं  जिसकी डोर सेना के हाथ में है। यह दुनिया जानती है कि  पाकिस्तानी फौज क्या  चाहती  है ? पाकिस्तान के कटटरपंथी और कश्मीरी अलगाववादी क्या चाहते हैं ? वे भारत -पाक वार्ता के पक्षधर नहीं हैं। वे चाहते हैं कि  भारत को बाहर से और भीतर से  कमजोर कर परमाणुविक  युद्ध की आग में धकेल दिया जाए। लेकिन हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है की हम क्या चाहते हैं ?  पाकिस्तान की आवाम क्या चाहती है ? दरसल भारत -पाकिस्तान के बहुसंख्य जन-गण युद्ध और आतंक से घृणा करते हैं। वे अमन और विकाश के लिए लालायित हैं। इसके लिए हरकिस्म  की फितरत  उन्हें मंजूर  होगी।  जो पाकिस्तान के दो टुकड़े कर  यदि अयूब खान जैसे  खूखार पाकिस्तानी जनरल  की युद्ध पिपासा शांत कर सकते हैं , जो परवेज  मुसर्रफ को आगरा बुलाकर बिरयानी खिला कर कारगिल के बहाने पाकिस्तान में  सत्ताच्युत करवा  सकते हैं, जो  बेनजीर  भुट्टो  के बाप को  भी  भारत से एक  हजार साल तक लड़ने  की तमन्ना से वंचित कर सकते हैं , वो  धीर-वीर- गंभीर -जिम्मेदार भारत की जनता और फौज क्या पाकिस्तान की  इस  वर्तमान हुकूमत , उसके  उच्चायोग और  मुठ्ठी भर  बिगड़ैल - कश्मीरी उग्रवादियों  -  अलगाववादियों की मीटिंग  मात्र से छुइ-मुई हो जाएगी? बल्कि  इस तरह के प्रयोजनों से भारत की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। भारत  जैसे दुनिया के महानतम  लोकतांत्रिक राष्ट्र  के लिए  तो  यही ठीक होगा कि  वो पाकिस्तान के उकसावे में न आये।  सीना ठोककर बातचीत  के 'एरिना ' में जोहर दिखाए।   दुनिया को  जताए कि   भारत  तो  हर हाल में बातचीत  को  ही प्रमुखता  देता है। किन्तु उसकी विफलता के लिए पाकिस्तान पहले से ही मंसूबे बांधकर चल रहा है।  भारत को  अपनी असल इमेज  दुनिया को बार-बार बताना  चाहिए कि  वह पाकिस्तान की तरह जंगखोर ,रक्तपिपासु और दोगला नहीं है।  बल्कि भारत  तो अहिंसा , न्याय और बंधुत्व का अलम्बरदार है। युद्ध  तो   भारत  के लिए  अंतिम  विकल्प  है।  वह पाकिस्तान की जनता से आह्वान  करे  कि  वो अपनी फौज की युद्ध पिपासा का साधन न बने।  भारत की आवाम को  भी शिद्द्त से   यह सुनिश्चित करना चाहिए कि  अपने नेताओं को  पड़ोसियों से विद्वेश के लिए  प्रेरित न करें।  दुनिया के  किसी  भी मुल्क से बातचीत के दरवाजे बंद  न किये जाएँ।  'वसुधैव कुटुंबकम' का नारा  जिस  भारत ने  विश्व  को दिया  हो उसे अपने सनातन पड़ोसी और  घर के ही बिग्ड़ेलों की वजह से 'पथ विचलित' होने की जरुरत नहीं है।
                                    
                                    श्रीराम तिवारी           

रविवार, 17 अगस्त 2014

 दैवीय अंधश्रद्धा  बनाम  तार्किक आस्तिकता का सिंहावलोकन !

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    सरसरी  तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं  किन्तु  वास्तव में वे विपरीत ध्रुव  ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त रहा  है । वेशक  'मानव' मष्तिष्क  ने ही  अन्य प्राणियों  के सापेक्ष  वैचारिक और उद्द्यमशीलता  के  क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. उसके मूल में भी  वैज्ञानिक युग की  इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की  तथाकथित 'अनास्था'  ही विद्द्य्मान रही  है ।  इस अनीश्वरवादी अर्थात भौतिकतावादी  वैज्ञानिक विचारधारा ने  ही संसार को अनेकों वैज्ञानिक वरदान  दिए हैं। आज का भूमण्डल  जैसा भी वह  मनुष्य की  नास्तिक बुद्धि की  प्रकृति पर विजय का जज्वा जाता रहा है। यदि इस भौतिकतावाद का आविर्भाव नहीं हुआ होता और मनुष्य मात्र केवल;-इस भारतीय चिंतन पर  कि ;-

 "अजगर करे न  चाकरी ,पंछी करे न काम "

 टिका रहता तो वह  भले ही आज बंदरों के साथ  भयानक जंगलों में उछल कूंद ही  कर रहा होता। तब उसका पाषाणयुग कभी खत्म नहीं होता और  गुफाओं में उसका अनंतकाल तक  डेरा होता। इसमें कोई शक नहीं कि  न केवल धरती का पर्यावरण अपितु सौरमंडल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी  तब और ज्यादा सुरक्षित होता।  चूँकि वैज्ञानिक  उथ्थान-पतन का कारक तो भौतिकतावाद ही है,अर्थात प्रकांरातर से तो यही आभासित होता है कि भौतिकतावाद से आस्थावाद याने भाववाद  ही श्रेष्ठ  है। सोचिये कि  मध्ययुग की अर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप  या खलीफा जैसे  अधिनायकवादी ईश्वरीय ठेकेदारों  की  प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले- साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार कौन थे ? जिन्होंने प्रकृति का अध्यन  किया ,उसके नियमों का अनुशंधान कर  प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया वे प्रतिभाशाली  वैज्ञानिक  जो आज की इस दुनिया के सर्जनहार माने जाते  हैं ,वे कौन थे ? दोनों सवालों का एक ही उत्तर है वे 'नास्तिक' थे ! वे अनीश्ववादी याने भौतिकतावादी थे !अब  एक सवाल और उठता है कि  नास्तिकता  या अनीश्वरवाद जब इतना सृजनशील और समाज हितकारी है तो वह 'हेय' क्यों है ?जो  आस्तिकता या ईश्वरवाद -तमाम पाखंडों,साम्प्रदायिक -आतंकी खुरपातों के लिए कुख्यात है वह  इस महा वैज्ञानिक युग में -अभी भी इस धरती पर 'प्रेय' क्यों है ? 
                  आम तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं  किन्तु  वास्तव में वे एक दूसरे  के पूरका  ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को  अधुनातन रूप में ढाला है। उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद  या नास्तिकता के अस्तित्व  से कोई इंकार कर ही नहीं सकता। वह तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक  'मानव' ने  ही अन्य प्राणियों  के सापेक्ष आस्तिकता या भाववादी  वैचारिक  उद्द्यमशीलता  के   बिजूके गाड़े हैं।  आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है ।  मध्ययुग की अर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सभ्य संसार में  जब यह आस्तिकता 'धर्मोन्माद' में बदल गई तो इन्ही नासिक्तवादियों-वैज्ञानिकों और साहित्यकारों को कुर्वानी देकर मानवता को बचाना पड़ा। धार्मिक और मजहबी पाखंडवाद  के खिलाफ -रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों  से जूझने वाले नास्तिक लोग ही वास्तव में 'ईश्वर के असली पुत्र' हैं। महान साहित्यकार जब  तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखा रहे थे तब धर्मांध लोग सामंतवाद की चरण वंदना में लगे  हुए थे।  जो प्रजातंत्र,समाजवाद  या साम्यवाद के लिए -बराबरी ,स्वतंत्रता ,समानता और बंधुता के लिए संघर्ष कर रहे थे ,उनमे  से अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी  ही थे।
           न केवल  प्लेटो ,सुकरात ,अरस्तु ,इलियट ,गेटे ,वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी  ,मार्क्स -एंगेल्स ,ओवन या मैक्सिम गोर्की  जैसे अनीश्वरवादी , बल्कि आर्कमिडीज ,पाइथागोरस , कोपरनिकस,पियरे ,थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग,राइट बंधू  तथा  न्यूटन  इत्यादि यूरोपियन यूनानी-अमेरिकी   नास्तिकों ने  बल्कि  भारतीय उपमहादीप में भी  कपिल , कणाद , अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक करहपा  जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने  मानव  को प्रकृति पर विजय दिलाई है । इन अनीश्वरवादियों ने   ही महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई  तथा सूरज का गुरुत्व नाप डाला है। शून्य की खोज करने  वाला  , धरती   को  गोलाकर बताने वाला  , सूरज को  स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाला हर   शख्स नास्तिक और भौतिवादी था। वराहमिहिर , आर्यभट्ट, नागार्जुन तथा  आचार्य चाणक्य  जैसे अनीश्वरवादी  ही प्रकृति के अन्वेषक हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की  देंन  है। अधिकांश  इस  नास्तिक विचारधारा   में  ही मनुष्य का अहोभाव  और उसकी महानता का  प्रशश्ति गान  होता रहा है। इसी ने  मनुष्य  मात्र  के भौतिक सुख संसाधन बढाए  हैं और इसी ने इस भूमण्डल को विनाशकारी परमाण्विक विध्वंश के कगार पर ला  खड़ा किया है।  इसी ने  मनुष्य को महायुद्ध सिखाये ,इसी ने धरती  को  पर्यावरण विनाश के मुँह  में धकेलने का दुष्कर्म किया है।यदि  मनुष्य की इस नास्तिक और वैज्ञानिक  मानसिक फितरत  को नैतिकता या आस्तिकता के अंकुश सेनियंत्रित नहीं किया गया होता तो अब तक धरती  भी  ब्रह्माण्ड का एक मृत्पिंड बन  चुकी होती। यदि मनुष्य की भौतिक लालसा को आस्तिक बुद्धि से  शासित किया जाता रहा  है तो उस सार्थक 'आस्तिकता' को सम्मानित किया जाना चाहिए।  शायद  इसी सार्थकता के कारण संसार में वैज्ञानिकों और आविष्कारकों से भी ज्यादा  सम्मान 'आस्तिक'जगत के  'अवतारवाद'  को मिलता रहा है।मानवीय मूल्यों को  सर्वश्रेष्ठ मानने  वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।

   जहां तक 'आस्तिकता'  के पाखंडवाद  बन जाने का या शोषण का शस्त्र बन जाने का प्रश्न है तो वेशक  यह भी  मानव  की  वैज्ञानिक  फितरत  ही कही  जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन'  को  मानव   मष्तिष्क  ने  सतत -एकल  या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने में असमर्थता की स्थति में आविष्कृत किया होगा  !   व्यक्तिशः या  सामूहिक  रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में  हुई विफलता या  संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का  अनुसंधान किया होगा। कब ,कहाँ और कैसे किया  ये तो धरती की सृष्टि की तरह और डायनासोर जैसी प्रजातियों के विनाश की तरह  अभी तक अबूझ ही है ।  अन्य  क्रांतिकारी खोजों  की तरह इस ओर  भी अनुसंधान होना चाहिए कि मानवता के लिए  दैवीय अंधश्रद्धा खतरनाक है या कि  भयानक वैज्ञानिक  भौतिकवादी  संहारक अनुसन्धान।  दुनिया में मच रही विनाशकारी संहारक  हथियारों की होड़ और धर्मान्धता  - साम्प्रदायिकता की धधकती ज्वाला को देखकर मुझे यकीन है कि  इस धरती को  आइन्दा   आस्तिकता याने धर्म-मजहब के पाखंडवाद और नास्तिकता याने  वैज्ञानिक भौतिकवादी अनुसंधान दोनों से ही समान रूप से खतरा है। क्या कोई और रास्ता है ?
                                                        
                                                                       श्रीराम तिवारी  

शनिवार, 16 अगस्त 2014

नहीं चलेगा लालकिले से भाषण -लालीपाप मंगलम्।

     आजादी के दिन  का  इंतज़ार मंगलम्।

     पर उपदेश कुशल बहुतेरे हैं  हजार  मंगलम्।।

      कोरे भाषण से  न  होगा   बेड़ापार मंगलम्।

      ऐंसे ही उपदेश सुनेगी जनता पांच साल मंगलम्।। 

    'प्रधान सेवक' जी  का भाषण धुआंधार मंगलम् ! 

 
        बढ़ रहे  भूँख -महँगाई - व्यभिचार मंगलम्।

        उफान पर है  कालाधन -कालाबाजार मंगलम्।।

        बेकारी   का नहीं रहा  पारावार  मंगलम्।

        पहले से  भी ज्यादा हो  रहे -अनाचार मंगलम्।।

       'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् ! 

      

        पूँजीवाद हुआ और ज्यादा  खूंखार  मंगलम्।

        हो रहे  घोटाले व्यापम  -भृष्टाचार मंगलम्।।

       सिस्टम में  नई -नई  जोंकें  हजार मंगलम्।

       खाद्दयान में घुसा रहा  सट्टा- बाजार मंगलम् ।

       'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् !



       ऍफ़ डी आई की छूट है  अपार  मंगलम् ।

      सत्ता  के दलालों  का आधार मंगलम्।।

      अमीरों  ने मचाई   लूटमार मंगलम्।

      आर्थिक नीति  है बदकार  मंगलम्।।

     'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् !



        सिस्टम में कैसे हो  सुधार मंगलम्।

       जगह -जगह  छेद हैं  अपार  मंगलम्।।

       आयात का बढ़ रहा  उधार मंगलम्।

      घरेलू उत्पादन  हुआ बंटाढार मंगलम्।।

       'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् !



         सुधार के कुछ तो दिखाओ  आसार मंगलम्।

        अच्छे दिन जल्दी  लायें - आभार  मंगलम्।।

        अभी तो है जनता आपसे निराश  मंगलम्।

       कहाँ का  सुशासन और विकाश मंगलम्।।

       'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् !



        बक्त माँगता कुर्बानी तो  देंगे बलिदान मंगलम्।

       तेज  होगी  फिर से  जनता के संघर्ष की धार मंगलम्।।

        विनाशकारी नीतियों के खिलाफ होगा   सिंहनाद मंगलम्।

        नहीं चलेगा लालकिले से  भाषण -लालीपाप  मंगलम्।

         'प्रधान सेवक'  जी का भाषण धुआंधार मंगलम् !


                    श्रीराम तिवारी     

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

स्वाधीनता संग्राम के शहीदों को नमन !शब्दांजलि !


 
    शहीदों के सपनों का ,इस मुल्क से  मिलन  हो गया।

    ऊषा की  लालिमा लिए , प्रभात का नमन हो गया।।

    क्षण - क्षण  गौरव  के   ,दिव्यता  से  हम  को मिले  ।

    हरी-भरी  हो गई  धरा,  राष्ट्र सारा मगन हो गया।।

    मुक्ति संग्राम   का लहू  ,आज फिरसे  जवां  हो गया।

   शहीदों के सपनों  का ,इस मुल्क से  मिलन  हो गया।


     संघर्ष  द्वन्द ग्रन्थ के सभी  ,सर्ग इस  देश ने पढ़े।

      देश का विधान बन गया  ,  लोकतंत्र बन  गया।।

     पड़ोस की  कुचालों से ,घायल  भी कम न हुआ  ।

     आतंकी फितरत  का , मर्ज वेशरम  हो गया।।

  शहीदों के सपनों  का ,इस मुल्क से  मिलन  हो गया।

    

      धांधली- चुनावों की , अब अभिशाप हो गई ।

      जाति -पाँति -मजहब का ,चलन  आम हो गया।

       खम्बे  लोकतंत्र के  ,चारों  ही रुग्ण  हो चुके  ,

        वित्तीय  गुलामी से  , राष्ट्र नीलाम हो गया।।

   शहीदों के सपनों  का ,इस मुल्क से  मिलन  हो गया।



        शोषण के व्योम में हम  ,प्रश्न बनके घूमने लगे  ,

        क्रान्ति  अधूरी रही, संघर्ष  कुछ मंद   हो  गया।।

       मँहगाई  की सुरसा  से  मुल्क परेशान  हो  रहा ।

       भृष्टाचार -रिश्वत का ,व्यभिचार आम हो गया।।

   शहीदों के सपनों  का ,इस मुल्क से  मिलन  हो गया।

                                                       ;-श्रीराम तिवारी-:
  

  




   


  

  

 

   


  


   

  

  

   

रविवार, 10 अगस्त 2014

सच्चाई और न्याय के रास्ते पर भीड़ नहीं होती !



       सच और ईमानदारी के रास्ते  पर चलने  के अनेक फायदे हैं। बार-बार झूंठ नहीं बोलना पड़ता। सदैव सशंकित नहीं रहना पड़ता। सत्पथ पर अग्रसर मानव को -किसी व्यक्ति,संगठन,धर्म- मजहब और ईश्वर जैसी  परा  शक्ति की दासता का  भय   नहीं रहता।  देवता  तो क्या  शैतान   की भी  हैसियत नहीं कि  ऐंसे नरपुंगव  - सत्यानुरागी का बाल -बाँका  कर सके ।  इस रास्ते पर चलने का सबसे बड़ा फायदा ये है कि इस रास्ते पर ज्यादा भीड़ भी नहीं होती। जो असत्य आचरण  में लिप्त हैं ,उन्हें यह पथ बेहद डरावना और कंटकाकीर्ण नजर आता है ,किन्तु न्याय -समानता -मानवता और सच्चाई  से लेस क्रांतिकारियों को यह पथ  अति सुगम ,मनोरम  और   खुशनुमा हरी-भरी वादियों से गुजरते हुए  'स्वर्गारोहण'जैसा है। जिसे यकीन न हो आजमा कर देख ले !
  
                                   श्रीराम तिवारी

 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

किसी की व्यक्तिगत धार्मिक आस्था या गीता जैसे धर्मग्रंथों पर अनावश्यक टिप्पणी करने से कोई प्रगतिशील नहीं हो जाता।


  भारत में इन दिनों  सोशल मीडिया ही नहीं बल्कि डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी चारों तरफ से खास तौर  से  प्रोग्रसिव पक्ष की ओर  से - कुछ  गैर जरुरी -अनुत्पादक या फ़ालतू  मुद्दों पर काफी कुछ कहा- सुना  जा रहा है। एक  तरफ जबकि शासक वर्ग की ओर  से कार्पोरेट जगत  को लूट की खुली छूट दी जा रही है, मानसून की अस्थिरता और भृष्टचारी निजाम की बदौलत -आसन्न खाद्द्यान्न संकट ,जीवकोपार्जन की मारामारी  की संभावनाएं बढ़ती जा रहीं हैं। धरती के  अनाप-शनाप दोहन उसका  तटदनुरूप पर्यावरण असंतुलन ,जनसंख्या विस्फोट और भूमंडलीकरण  इत्यादि के भयावह दुष्परिणामों की और से आँख मींचकर  कुछ तथाकथित वुद्धिजीवी  आजकल  फ़ोकटिये  विमर्श में   उलझ रहे हैं।   उन्हें किसी संगठित जनांदोलन की चर्चा के बजाय यह  चिंता है कि  किस  शंकराचार्य  ने क्या कहा ?  प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी को  नेपाल  के पशुपतिनाथ मंदिर में  जाना चाहिए था या नहीं ? उन्हें भगवा वस्त्र  पहनना चाहिए था या नहीं  ?  वे  अयोध्या  स्थित - टाट में विराजे 'राम लला ' को थेंक्स कहने  क्यों नहीं गए  ? उन्हें किस  मंदिर में जाना चाहिए ,किसमे  नहीं जाना चाहिए ?  इस तरह के  निम्नस्तरीय  विमर्श के अलावा  किस जज ने गीता की तारीफ  की ,किसने उसे विद्द्यालय के पाठ्क्रम में शामिल करने की वकालत की   इन गैरजरूरी मुद्दों पर कुछ  स्वयंभू क्रांतिकारियों  या  दिग्गज प्रगतिशीलों ने इतनी उतावली  दिखाई मानों भारत में भी अभी फ़ौरन से पेश्तर कोई 'महान  सांस्कृतिक क्रांति'  ही असफल होने ही जा रही हो ! कुछ तथाकथित  'धर्मनिरपेक्षों' ने तो  इन  वैयक्तिक किन्तु  संवेदनशील मामलों में बहुत घटिया टिप्पणी  तक   कर डालीं। अपने आपको  प्रगतिशील या जनवादी  कहने वाले ऐसे अधकचरे शख्स जिनके पैरोकार हों उन्हें दुश्मनों की  क्या जरुरत ?
    वेशक   धर्म -मजहब के पाखंडी -आडंबरों और उसके  दकियानूसी   चेहरे से न केवल मार्क्सवाद  को बल्कि लोकतांत्रिकता ,धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद को भी परहेज है।  दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्मनिरपेक्ष देश होते हुए भी  भारत एक धर्मप्राण राष्ट्र है। यहाँ  न केवल हिन्दू धर्म अर्थात सनातन धर्म मौजूद है बल्कि  उसकी अनेक शाखाओं  की जड़ें  भी मजबूत हैं।  इसी तरह तथाकथित - आयातित -ईसाईयत ,इस्लामिक , पारसीक तथा अनीश्वरवादी नास्तिकता याने  अज्ञेयवाद को  भी यहां शताब्दियों से  भरपूर सम्मान मिलता  रहा है। ईश्वर में आस्था  का पौराणिक तात्पर्य -मानव  जीवन की सम्पूर्णता  में निहित था। संसार से मुक्ति  , दुखों  -  कष्टों से मुक्ति का लक्ष्य  उसकी  उत्कर्षता में निहित  है।  तदुनसार धर्म-मजहब में उसके पावन ग्रंथों में भी  "बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय  " जैसी धारणा की   सफलता की गारंटी  के  गुण सूत्र  किसी फ्रांसीसी क्रांति  या वोल्शेविक क्रांति के आदर्शों से कमतर नहीं हैं।
          दरसल  सारा झगड़ा शोषक शासक वर्ग  द्वारा  आध्यात्मिक दर्शन -धर्म-मजहब के दुरूपयोग से शुरू   हुआ  है।  धर्म-दर्शन -मजहब -पूजा पाठ और कर्मकांड का  जितना  दुरूपयोग   भारत में  किया जाता रहा  है उसकी मिसाल दुनिया में अन्यत्र कहीं भी देखने -सुनने में नहीं आती। अब तो  भारत  के  आम चुनाव और   संसदीय प्रजातंत्र में  यह सत्ता प्राप्ति का अमोघ अश्त्र ही बन चूका है। यही वजह है कि कुछ प्रगतिशील   विद्वान भारतीय इस विमर्श से सशंकित होकर, धार्मिक ग्रंथों या उनके सिद्धांतों पर ही  आक्रामक हो जाया करते  हैं। चूँकि वे जानते हैं कि  आत्मा,परमात्मा या ब्रह्म-जीव-माया के परस्पर सम्बन्ध और धर्मान्धता में डूबे हुए भारत को विदेशी यायावर आतताइयों  के सामने बार-बार घुटने टेकने पड़े हैं। जो लोग भारतीय गुलामी का इतिहास  जानते-समझते हैं ,जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम  में शहीद हुए बलिदानियों का इतिहास पढ़ा है वे शायद  आजाद भारत को आइन्दा धर्मान्धता या साम्प्रदायिकता की अंधी सुरंग में धकेले जाने के खिलाफ हैं।  इसीलिये अपनी  राष्ट्रीय चिंताओं के बरक्स   वर्तमान दौर  में  कुछ  प्रगतिशील और देशभक्त चिंतकों को  राज्यसत्ता में विराजे नेताओं का  राजनैतिक  रूप से  धर्म सापेक्ष होते जाना मंजूर यहीं  है। मध्य एशिया और मध्यपूर्व में उन्हें जो  खतरे की घंटी सुनाई दे रही  है, वही भारतीय प्रायद्वीप को भी आप्लावित करने को काफी है।   न केवल  एथनिक बहुसंख्यकवाद  के संदर्भ में अपितु आक्रामक अल्पसंख्यकवाद और फासिज्म विषयक  उनकी यह आशंका निर्मूल  भी  नहीं  है।  प्रगतिशील और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लोग  अच्छी तरह से जानते हैं कि  धर्म -मजहब -आस्तिकता इत्यादि शोषण -उत्पीड़न के साधन  नहीं बनाये जा रहे हैं । उनपर  पाखंड तथा वितंडावाद का मुलम्मा  चढ़ाया जा रहा है ।  वे  यह भी  जानते हैं कि  गीता,कुरान जैसे  कुछ धर्म ग्रंथों के निर्देश  मानवता के लिए अमोघ  अश्त्र भी सावित  हो सकते  हैं। कुछ पुरातन  दार्शनिक सिद्धांत  इंसानियत के लिए  अभी भी  अभय वरदान   साबित हो सकते हैं। धर्म-मजहब -दर्शन तथा    ततसम्बन्धी -  पवित्र   ग्रन्थ  - गीता  -कुरान -बाइबिल ,गुरु ग्रन्थ साहिब तथा  जेंदा -अवेस्ता जैसे पवित्र ग्रन्थ -मानवीय मूल्यों  के संवाहक  भी हो सकते  हैं। किन्तु यह  भी सही है कि कोई भी  वास्तविक  प्रगतिशील और वामपंथी  चिंतक अच्छी तरह से  जानता है कि  किसी भी  धार्मिक ग्रन्थ की अवैज्ञानिक  आलोचना  करने से  न तो  कभी कोई  क्रांति  संभव हुई  है और न ही कोई क्रांतिकारी बन  पाया है।  उसे मालूम  है कि  यह वक्त किन्ही धर्म ग्रंथों की आलोचना का नहीं  बल्कि शासक वर्गों के द्वारा की जा रही  राष्ट्रीय सम्पदा की लूट के खिलाफ आवाज बुलंद किये जाने का  है। इतिहास साक्षी है कि  धर्म ग्रंथों को पढ़कर ही देश और  दुनिया में क्रांतिकारी  -  महानायकों का आविर्भाव  हुआ  है।  भारत के तिलक, गांधी  , श्रीपाद अमृत डांगे  , नम्बूदरीपाद  , अरविन्द  ,  राधाकृष्णनन , लाजपतराय,अबुल कलाम ,डॉ बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर तथा  दक्षिण अफ्रीका के आर्च विशप   डेसमंड  टूटू जैसे अनेक राजनेता या विचारक - क्रांतिकारी बाद में  बने। 'धर्मयोद्धा' पहले बने। 'धर्म -मजहब एक अफीम है ' मार्क्स के इस शाश्वत सूत्र  का तात्पर्य  पूँजीवादी  साम्प्रदायिक तत्व अच्छी तरह जानते हैं।  वे इसका दोतरफा दुरूपयोग कर रहे हैं। एक तरफ  वे  इसे साम्यवाद को धर्म विरोधी सावित करके बदनाम करने  में कर रहे हैं  . दूसरी तरफ ये पाखंडी  साम्प्रदायिक तत्व -पूँजीवादी -सामंती  शासक वर्ग - और बाजार की शक्तियों के मार्फ़त मेहनतकश आवाम को धर्म-मजहब की अफीम  चटा  रहे हैं । यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में  सर्वहारा की लड़ाई लड़ने वालीं धर्मनिरपेक्ष  वामपंथी पार्टियों   को ठुकराकर ,  'मजहबी उन्माद में डूबकर'  कुछ अलसंख्यक लोग तृणमूल को  जिता देते हैं। इसी तरह   हिंदुत्व और हिन्दुराष्ट्रवाद  की अफीम  घोंटकर -उन्मादी बहुसंख्यक  वर्ग को पिलाई गई ताकि   भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी  निरंतर सत्ता में  बनी  रहे।   मार्क्स के उद्धरणों  से वामपंथ ने कितना सीखा ये तो  नहीं मालूम किन्तु  मेहनतकशों को लूटने वाले जरूर मार्क्सवाद के कायल हैं। इसीलिये वे मार्क्सवाद का  नहीं मार्क्सवादियों का विरोध करते हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिल रही है। दूसरी ओर वामपंथ के  कुछ  अनुयाई  -शिक्षक  , समर्थक , विचारक   और नेता न केवल  वैचारिक संकीर्णतावाद के शिकार हो रहे  हैं , बल्कि धर्म-मजहब रुपी सर्प की पूंछ पर  आघात करके आत्महंता  भी हो रहे  हैं ।  कुछ इतने कूप मंडूक हैं कि अपने कमजोर कन्धों पर सिद्धांतों की सलीब  ढोने  के लिए आजीवन अभिशप्त हैं ।
             सैद्धांतिक रूप से  रूप या आकार में आस्तिकता और नास्तिकता में कोई भेद नहीं।  ये  दोनों ही एक जैसे लगते हैं  किन्तु   प्रयोग  में वे विपरीत ध्रुव  हैं। पूँजीवादी  समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में जब जैसी जरुरत पड़ी  इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका  अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा ही  है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से  विद्द्मान है । वेशक  'मानव' ने अन्य प्राणियों  के सापेक्ष  वैचारिक और उद्द्यमशीलता  के  क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग  इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की 'तपस्या'का  परिणाम है ।  कार्ल मार्क्स ने ही सबसे पहले  इसे सम्मान से नवाजा था।  उनकी इस  वैज्ञानिक  और क्रान्तिकारी विचारधारा ने  ही संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य  को प्रकृति पर विजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग की अर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सामंती  संसार  में रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले ,पूँजीवाद  को खाद-बीज देने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों  की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले-केवल  साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार  ही नहीं थे बल्कि जिन्होंने प्रकृति का अध्यन कर उसके नियमों का अनुशंधान कर  प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया, वे महान अनीश्वरवादी  वैज्ञानिक भी   सरसरी  तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद  के अर्धनारीश्वर जैसे  ही तो थे।  मानव समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका अदा की है । अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक  'मानव' ने अन्य प्राणियों  के सापेक्ष  वैचारिक और उद्द्यमशीलता  के  क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है ।   इस वैज्ञानिक विचारधारा ने संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य  को प्रकृति परविजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग कीअर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों को , तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखाने वाले  वे कोई कोरे नास्तिक ही नहीं थे। बल्कि  इनमे से  अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी  भी थे। केवल वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी  या मार्क्स -एंगेल्स जैसे अनीश्वरवादी ही नहीं बल्कि थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग,  न्यूटन ,आर्कमिडीज ,पैथागोरस  इत्यादि  से लेकर  कपिल , कणाद , ,अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक, करहपा तथा नागार्जुन   जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई  तक नापी है । शून्य की खोज करना वाले ,धरती  को  गोलाकर बताने वाले  , सूरज को  स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाले आर्यभट्ट जैसे भारतीय मनीषी भी  प्रारम्भ में   अनीश्वरवादी  ही हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की महानतम देंन  है। वेशक  इस अनीश्वरवादी विचारधारा के  कारण ही  मनुष्य मात्र में  अहोभाव  और उसकी महानता का  प्रशश्ति गान  होता रहा है। मनुष्य या मनुष्य की 'विवेक शक्ति'  और उसके गौरव को ही इस संसार में सर्वश्रेष्ठ मानने  वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।
       जहां तक 'आस्तिकता' का प्रश्न है तो वेशक  यह मानव मात्र की एक महान क्रांतिकारी वैज्ञानिक 'रचना' कही जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन' के आविष्कार को  मष्तिष्क ने  सतत -एकल  या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने   के आदिम संघर्ष में,असहाय ,निरुपाय और  असमर्थता की स्थति में ,व्यक्तिशः या  सामूहिक  रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए ईश्वरत्व का संधान  किया होगा।  मनुष्य ने संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का  अनुसंधान किया होगा। कब -कहाँ और कैसे किया  ये तो अभी तक अबूझ ही है ? किन्तु कालांतर में  पाखंडी शासकों  ने इसे   'आध्यात्मिक दर्शन '  का बाना पहनाया। बाद में  उसे शोषण का साधन बना डाला। सामंतों और शक्तिशाली पर्भु वर्ग ने , उनके चाटुकारों ने ,चारणों -भाटों ने  इसे धार्मिक उन्माद और अंधश्रद्धा में बदल डाला।  इसीलिये विज्ञानिक  चेतना ने  सदैव ही  इस  ईश्वरीय  -  आस्तिकता  को -धर्म -मजहब और आध्यत्मिक दर्शन को , क्रांतिकारी खोज मानते  हुए भी  संदेह और पाखंड का जन्मदाता   माना है।
           शायद  इन्ही  वजहों से  तथा  यूरोप स्थित  तत्कालीन पोप और अरब  स्थित  खलीफाओं  की प्रभुसत्ता से  आक्रान्त जनता की आवाज बनकर - कार्ल  मार्क्स को  भी कहना पड़ा कि  'धर्म  - मजहब  एक अफीम है "! हालाँकि  भारतीय दर्शन  या गीता के संदर्भ  में किसी  भी मार्क्सवादी  विचारक ने कोई विरोध नहीं किया।  केवल गांधी जी ही नहीं बल्कि तिलक ,विवेकानंद , स्वर्गीय रामविलास शर्मा ,निराला ,ईएमएस  और डांगे ने तो गीता और  अन्य  भारतीय  दार्शनिक ग्रंथों  के मूल्यों और सिद्धांतों  को 'साम्यवाद' का पोषक ही सिद्ध किया है।  आजकल के वामपंथियों से निवेदन है कि  साम्प्रदायिकता का विरोध तो करें किन्तु किसी की व्यक्तिगत धार्मिक आस्था या  गीता जैसे धर्मग्रंथों पर अनावश्यक टिप्पणी करने से कोई प्रगतिशील नहीं हो जाता।

       श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

इन दिनों कांग्रेस -भाजपा जैसी और भाजपा -कांग्रेस जैसी हो रही है !



   वैसे तो   भाजपा की  दोगली आर्थिक नीति  को परिभाषित  करना कोई मुश्किल काम नहीं है।  यह सुविदित है कि  यूपीए-१ और यूपीए-२ के दरम्यान जब भाजपा विपक्ष में थी  तो उसने तत्कालीन मनमोहन सरकार  को तथा संसद को परेशान  करते हुए  न तो कोई सार्थक भूमिका अदा की और न ही कोई   प्रत्यक्ष मदद की थी   ।  किन्तु वह  अपने वित्तपोषक आकाओं के  हित  में  तथा अमेरिकी दवाव में  निरंतर मजदूर -किसान के विरोध में लिए जाते रहे  हर फैसले में  परोक्षतः भागीदार रही है। यूपीए सरकारों का  को कोई भी काम -संसद और उसके  बाहर आसान नहीं रहा।  यूपीए -२  द्वारा जब २००८ में बीमा विधेयक लाया गया तब , जब वन-टू- थ्री - एटमी  करार लाया गया तब और  विगत लोक सभा के  सत्र समापन के दरम्यान   लोकपाल  बिल  लाया गया तब -इन  सभी मौकों पर भाजपा के सांसदों ने संसद में जो उत्पात मचाया -संसदीय इतिहास में तो  उसकी कोई  सानी  नहीं है।  उसके सापेक्ष आज  के विपक्ष  - कांग्रस  -लेफ्ट और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों का  संयुक्त प्रतिरोध १९ भी नहीं है। शहीद भगतसिंह और उनके महान क्रांतीकारी  साथियों  ने जिस ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट तथा अन्य श्रम  विरोधी कानूनों  के खिलाफ  तत्कालीन अंग्रेज सरकार के खिलाफ और  गुलाम भारत की जनता को जगाने के लिए असेम्ब्ली में बम फेंके थे। वर्तमान मोदी सरकार उन्ही कानूनो को धड़ाधड़ पारित कर रही है। केंद्र सरकार के इन नकारात्मक मंसूबों के खिलाफ वामपंथ तथा अन्य गैर कांग्रेस -गैर भाजपाई  विपक्ष का  संघर्ष  तो शिद्द्त से जारी है। किन्तु  कांग्रेस और उसका शीर्ष नेतत्व  किसी भी मोर्चे पर गंभीर नहीं है
                              लगता है कि  कांग्रेस ने भाजपा की  ही भूमिका दुहराना शुरू कर दिया है। अतीत में जब  भाजपा  विपक्ष में रही  और उसने जिस तरह लगातार संसद की कार्यवाहियों को बाधित किया  है  वही अब कांग्रेस  दुहराने का रोल कर रही है  ,स्पीकर को अपमानित करना   ,टेबिलें उखाड़ना   ,माइक तोड़ना  , मीडिया के समक्ष नोटों की गड्डियां उछालना  और संसद में पेश किये गए बिल इत्यादि के  कागज फाड़कर मंत्रियों के मुँह  पर फेंकना  , ये  कीर्तिमान तो अभी तक   खंडित नहीं हुए हैं। लेकिन यदि कांग्रेस  सांसदों ने या राहुल गांधी ने   मजबूरन भाजपा का ही अनुशरण  किया और थोड़ा सा  आक्रामक रुख अपनाया है  तो   जेटली जी को मिर्ची नहीं लगनी चाहिए।सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को विपक्ष की आवाज नहीं  दवाना  चाहिए। स्पीकर की मनमानी का आरोप लगने की नौबत नहीं आनी  चाहिए।
              हालाँकि    देश के बहुमत जन की कांग्रेस और भाजपा में कोई आष्था नहीं है , लेकिन दाँव -पेंच और मतों के ध्रुवीकरण से ये दो बड़े  दल  ही  देश  की सत्ता पर बारी-बारी से काबिज हो रहे हैं। यदि १६ वीं लोक सभा के सकल मतों  के प्रतिशत पर दृष्टिपात किया जाए  तो स्पष्ट हो जाएगा कि भाजपा के ३० %और कांग्रेस या यूपीए के १८ % मिलकर भी  बहुमत  में नहीं हैं। शेष विपक्ष के  ५२ %  मत प्रतिशत बहुमत में होते हुए भीउसकी भूमिका  सरकार और संसद में नाकाफी   है। कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया , देश का पूँजीपति  और सामंत वर्ग ही नहीं बल्कि विदेशी  आवारा पूँजी  का सभ्रांत लोक भी यह  मानकर भाजपा के साथ हो लिया था कि  कि   वह उनके लिए  कांग्रेस से बेहतर 'हितसंवर्धक' है। संघ परिवार और उसकी आनुषंगिक राजनैतिक शाखा के रूप में  भाजपा   का  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और उद्दाम पूँजीवाद अब कांग्रेस के 'सर्व-धर्म-समभाव'और ढुलमुल पूंजीवाद पर भारी  पड़ रहा  है।  वैचारिक धरातल पर सोनिया गांधी या राहुल गांधी भले ही कंगाल हों किन्तु  स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों  का असर कांग्रेस की जड़ों में अभी भी बाकी है।  कांग्रेस  को यदि फिर से उठ खड़ा होना है तो उसके नेतत्व को  चाहिए कि  अपने किये धरे के  लिए  और अपनी अधोगामी-विनाशकारी नीतियों के लिए देश की जनता  से  माफ़ी मांगे। कांग्रेस को और उसके नेतत्व को समझना होगा कि  मंहगाई  , कुशासन  ,  साम्प्रदायिक -उन्माद ,भृष्टाचार और फासिज्म से लड़ने के लिए  देश और दुनिया में केवल वामपंथ ही  सही  मायनों में ईमानदारी  से  संघर्ष करता रहा है । इस लड़ाई में कांग्रेस को  वामपंथ का साथ  देना चाहिए।
                  राहुल गांधी को संसद में वो व्यवहार नहीं करना चाहिए जो उन्होंने विगत ६ अगस्त को संसद में किया। उनकी  नारेवाजी  में वनावटीपन  झलकता है  "यहाँ  एक व्यक्ति की ही सुनी जाती है ""स्पीकर सुमित्रा महाजन पक्षपाती हैं " "वी वान्ट जस्टिस " ये सब नारे सही भी हों तो  भी इनका  उपयोग कर संसद  की  कार्यवाही  बाधित करना उचित नहीं है। अन्यथा आवाम की नजर में  भाजपा और कांग्रेस में क्या फर्क रह जाएगा ?वैसे भी कांग्रेस और भाजपा को एक  ही पायदान पर खड़ा किया जाता रहा है।  किन्तु भाजपा के सर्वसत्तावाद और  आक्रामक पूँजीवाद के सापेक्ष  कांग्रेस का उदारवादी -जनवादी और लोकतांत्रिक चेहरा  ही ज्यादा स्वीकार्य किया जाता  रहा  है।  कांग्रेस में  राहुल गांधी हों या और कोई नेता हों   उन्हें कांग्रेस के वेसिक सिद्धांतों  की और विनाशकारी  मनमोहनी अर्थशाश्त्र  की खामियों की ठीक से  जानकारी होनी चाहिए। बहुत सोच समझकर  संयम  के साथ संसद में अपनी  भूमिका अदा करने से जनता  जिम्मेदार वर्तमान विपक्ष  को  आइन्दा पुनः सत्ता सौंप सकती है। क्योंकि  देशी-विदेशी पूँजीपतियों  के अलावा -मोदी सरकार से कोई भी खुश नहीं है। देश में चारों ओर  हा-हा-कार मचा है।  धर्मान्धता ,साम्प्रदायिक दंगे ,कुशासन ,हत्याएँ ,महँगाई , बेकारी ,निजीकरण ,ठेकाकरण ,और माफिया राज का दौर जारी है। कांग्रेस को या उसके नेतत्व  को  हताशा या निराशा में ज्यादा उत्तेजित होने की जरुरत नहीं है। उन्हें अपनी पार्टी से वंशवाद और चमचावाद को   खत्म करने की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। कांग्रेस को  थोड़ा सा सब्र और थोड़ा सा नीतिगत  आत्मालोचन जरुरी है। बाकी का काम तो  भाजपा और एनडीए सरकार से नाराज जनता खुद  ही आसान  कर देगी। दरसल  इन दिनों  कांग्रेस -भाजपा  जैसी और भाजपा -कांग्रेस  जैसी हो रही  है ! यह देश के हित  में नहीं है।

                        श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

  " संघर्ष से ही इंसान बनता है "
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आधुनिक साइंस और टेक्नॉलॉजी ने  ,सूचना एवं  संचार क्रांति  ने तथा अधुनातन मेडिकल साइंस ने, न केवल मौजूदा विश्व की आवादी को अपितु वर्तमान मानव की सकल - औसत -दीर्घजीविता को  भी  अपने अतीत के किसी भी  पूर्ववर्ती कालखण्ड  के सापेक्ष बेहतरीन बनाया है। प्रत्येक  दौर के श्रेष्ठतम मानवों ने अपने अप्रतिम - त्याग,तपस्या,बलिदान और  संघर्ष से सार्वभौमिक हितों के बरक्स -भावी पीढ़ियों को न केवल सर्व -साधन- सम्पन्न  बनाया  अपितु  'सितारों से आगे' जाने का  मार्ग भी  प्रशस्त  किया  है। सहज मानवीय जिजीविषा ,प्रकृति से तादात्म्य और अदम्य  साहस की अनवरत यात्रा से मानव मात्र ने पाया कि  'संघर्ष ही जीवन है 'उसी से आधुनिक दुनिया का निर्माण  हुआ है। आदिकाल से अब तक की तमाम मानवीय उपलब्धियों के मूल में इस 'संघर्ष' का ही बोलबाला रहा है उसी से  यह सब संभव हुआ है।
      मानव की इस  संघर्ष शील बौद्धिक चेतना ने  ही उसकी  आवश्यकताओं  को साधा है । मानवीय संघर्ष  ने सभ्यताओं  के विकाश  के हर  दौर में अपनी भावी पीढ़ी को  न केवल सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुंचाया  बल्कि  'सितारों से आगे जहां और भी हैं 'को जानने -समझने की क्षमता भी  विकसित की  है। इसमें कोई शक नहीं है  कि मानवीय  चेतना ,अविरल संघर्ष और श्रम शक्ति ने  ही  प्रकृति पर इंसान को  बेहतरीन बढ़त  हासिल कराई है। प्रत्येक संघर्षशील और क्षमतावान व्यक्ति ने , श्रेष्ठतम मानवों के  समूह ने ,सभ्य  समाजों ने और  भारत जैसे जीवंत राष्ट्रों   ने  न केवल अपनी  असीम संभावनाओं  को तराशा  है बल्कि  शेष विश्व को  भी अपने ज्ञान और संघर्ष  की समष्टिगत चेतना से आप्लावित किया है।  जिन व्यक्तियों ने ,समाजों ने और राष्ट्रों ने अपने पवित्र  'साध्य  ' के निमित्त 'साधनों' की शुचिता का और  संघर्ष के स्वरूप की विशालता का  ध्यान रखा  है ,वे सभ्य संसार  के लिए आज भी वंदनीय हैं । उनके संघर्षों के  अवदान आज भी पथप्रदर्शक हैं और आइन्दा भी प्ररेणा देते रहेंगे।    
             जिन्होंने भी  उच्चतम मानवीय मूल्यों  की स्थापना का स्वमेव निर्धारण किया  वे  क्रांतिकारी  महामानव आज  भी  इतिहास के  पन्नों पर -स्वर्णाक्षरों में  शिखर पर देदीप्यमान हो रहे हैं।वेशक  व्यवस्थाओं के विद्रूपण ,राजसत्तात्मक विचलन ,निहित स्वार्थ  तथा  धनबल-बाहुबल-जनबल  के दुरूपयोग से कुछ खास चुनिंदा नर-नारी  बिना संघर्ष किये ही या किसी शॉर्टकट के मार्फ़त -तदर्थत : अपने हिस्से से ज्यादा  का,अपनी वैयक्तिक योग्यता से अधिक का , आसमान  ,हवा,पानी और सूरज  हड़प लिया करते हैं  ।  यही असली शोषक वर्ग है । ये न केवल मानवता  के दुश्मन हैं ; बल्कि प्रकृति बनाम ईश्वरीय आदेशों के भी  शत्रु हैं।जो साहसी और बलिदानी मनुष्य  इनसे संघर्ष करते हैं वही सच्चे  क्रांतिकारी कहलाते हैं। 
              बहुधा  ऐंसा भी पाया जा सकता है कि  अनथक संघर्ष ,त्याग और बलिदान के वावजूद किसी व्यक्ति विशेष को उसकी  मेहनत तथा योग्यता का बाजिब या अपेक्षित  परिणाम नहीं मिल पाता । यदि वह मनुष्य   परिस्थितियों से समझौता कर दासत्व भाव  स्वीकार कर लेता है तो वह आत्महंता और कायर है। लेकिन  यदि  उसने संघर्षों के रास्ते पर चलने का प्रण  लिया तो तत्काल भले ही उसे कोई सुख या उपलब्धि न मिल सके किन्तु  अंततोगत्वा  उसके  संघर्ष की  कीर्ति पताका  फहराने  के लिए सारा आसमान  मौजूद रहेगा । बिना संघर्ष  वाला  'शार्ट कट ' तो फिर भी घातक जहर ही है। जो  किसी  को भी सार्थक जीवन नहीं दे सकता।  बाज मर्तवा तो  जेल की दीवारें उन्हें अपने आगोश में पनाह देने को बाध्य  हुआ करती  हैं।   जिन्होंने  'मेहनत  की रोटी' के संघर्ष का  सबक नहीं सीखा ,जिन्होंने दासता से मुक्ति के संघर्ष का अनुशीलन नहीं किया  या  जिन्होंने जीवन के कठिन संघर्ष से  सदैव पलायन किया या  जिन्होंने  सिर्फ अपना स्वार्थ साधा  वे न केवल  जहालत-गुलामी  के हकदार रहे बल्कि उनकी कायराना जिंदगी भी  शोषित-वंचित की मानिंद  वियावान  में दम  तोड़ते  रहने को अभिशप्त  रही  है ।न केवल  सफल इंसान के लिए  ,न केवल सफल परिवार के लिए बल्कि सम्पूर्ण कौम और राष्ट्र के लिए भी  जीवन का  एक मात्र मूल मन्त्र  'संघर्ष' ही है। स्वामी विवेकानंद,महात्मा गांधी , डॉ साहिब  भीमराव् आंबेडकर ,कार्ल मार्क्स  ,लेनिन , भगतसिंह ,हो चिन्ह मिन्ह जैसे अनेकों संघर्ष शील महा मानवों ने न केवल वैयक्तिक सफलता के लिए'चरैवेति-चरैवेति ' का संधान किया बल्कि ' उत्तिष्ठत प्राप्य वरान्निवोधत 'का नारा  भी बुलंद किया।  संघर्ष के नायकों ने ही  'बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय '  और राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम के लिए सामूहिक संघर्ष  का सिद्धांत  भी पेश किया था । मध्ययुगीन बर्बर गुलामी के बंधनॉ से  तथा  साम्राज्यवाद  के चंगुल से विभिन्न गुलाम  राष्ट्रों की  मुक्ति का और कालजयी प्रजातांत्रिक  क्रांतियों का सूत्रपात भी इन्ही बेहतरीन संघर्षों और  श्रेष्ठतम मानवीय विचारधारा के अनुशीलन का परिणाम है।
                वैसे तो इस धरती पर  संघर्ष की  नकारात्मक  तस्वीर भी मौजूद है। इस आधुनिक और वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में शक्तशाली  व्यक्तियों ने ,सबल समाजों ने तथा   सबल राष्ट्रों ने  छल-बल के संघर्ष से निर्बल  व्यक्तियों , निर्धन -असंगठित  समाजों और  पिछड़े  ऋणग्रस्त  राष्ट्रों  को  प्रतिस्पर्धा के 'नॉन  यूनिफॉर्म  लेवॅल  प्लेइंग फील्ड'में  जबरन धकेल दिया है ।  'सभ्यताओं के संघर्ष' के बहाने तमाम  वंचित मानवों  ,समाजों और राष्ट्रों  के समक्ष 'धर्म-मजहब की अफीम'  परोसी  जा रही है। राष्ट्रीय और प्राकृतिक  संसाधनों की लूट के लिए और अपने स्वार्थों की पूर्ती के लिए  दुनिया भर के तमाम  'मौत के सौदागर ' हथियारों के निर्माता और पेट्रोलियम'पर काबिज शक्तियाँ  आधुनिक युवाओं को  नकारात्मक संघर्ष  के  लिए लामबंद किये जा रहे हैं। जो संघर्ष मानव से मानव के शोषण से मुक्ति के लिए किया जाना चाहिए था, जो  संघर्ष जल-जंगल-जमीन और अवसरों की समानता के  लिए किया जाना चाहिए था ,जो संघर्ष प्रकृति के नैसर्गिक संसाधनों के  न्याय  संगत  वटवारे के लिए किया जाना चाहिए था वो संघर्ष  -  वैश्वीकरण-बाजारीकरण -आधुनिकीकरण की चपेट में आकर इतिहास के किसी अँधेरे  कोने में घायल  सा पड़ा है । आज  'हैव्स एंड हैव्स नाट'   के लिए संघर्ष की कोई चर्चा नहीं होती। जबकि इसका  दायरा  न केवल  बिकराल हुआ है बल्कि उसका चेहरा और भी  ज्यादा  आदमखोर और खूखार  ही हुआ है।
     यह नव्य  उदारवाद कहता है  'वही जियेगा जो शक्तिशाली है , वही जीतेगा जो ताकतवर है ' 'कर लो दुनिया मुठ्ठी में' ''छू लो आसमान को ''  इत्यादि अनुत्पादक और  सफेदपोश - प्रबंधकीय नारों के कोलाहल में कमजोर वर्गों के  आधुनिक युवाओं  की वास्तविक संघर्ष क्षमता  को सस्ते में खरीदा जा रहा है। उनके  निजी और पारिवारिक भविष्य को  अनिश्चितता की  अँधेरी सुरंग में धकेला जा रहा है। सभ्रांत लोक के  भारतीय युवाओं   की ऊर्जा अर्थात  वास्तविक प्रतिभा अमेरिका ,इंग्लैंड और विदेशों में खपने को उद्द्यत रहा करती है।जबकि   दूसरी ओर नकारात्मकता के संघर्ष में राजनैतिक भृष्टाचार उत्प्रेरक का काम कर रहा है।  उदाहरण के लिए  मध्यप्रदेश में ही  विगत १० सालों में हजारों योग्य,परिश्रमी और संघर्षशील युवाओं को उनके हिस्से का हक नहीं मिल पाया है , जिन्हें कोई आरक्षण नहीं ,जिनका  कोई 'पौआ' नहीं उन बेहतरीन  योग्य और मेघावी   युवाओं  की  संघर्ष क्षमता  को निजी क्षेत्र में १२-१२ घंटे खपकर सस्ते में समेटा जा रहा है। अयोग्य,मुन्ना भाई ,रिश्वत देने की क्षमता वाले - अयोग्य और  बदमाश  किस्म के लोग आरक्षण की वैशाखी या सत्ता का प्रसाद पाकर अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाया करते हैं।  भृष्टाचार के ' गर्दभ ' पर सवार निक्म्मे लोग जब डॉ,इंजीनियर,पुलिस, प्रोफ़ेसर,प्रशासक,प्रोफेसनल्स  ,खिलाडी या नेता होंगे तो देश और समाज की बदहाली  पर आंसू बहाने का नाटक क्यों ?व्यवस्था के  उतार या 'मूल्यों की गिरावट' पर इतना कुकरहाव  क्यों? भृष्ट  अफसर ,मंत्री ,नेताओं के निठल्ले-अकर्मण्य रिस्तेदार  ही जब पूरे सिस्टम पर काबिज हो चुके  हों तो ईमानदार,योग्य और चरित्रवान युवाओं के समक्ष संगठित 'संघर्ष' के अलावा कोई रास्ता नहीं। मध्यप्रदेश में 'व्यापम' भृष्टाचार की अनुगूंज  या यूपीए सरकार के जमाने में भृष्ट जज की न्युक्ति का खुलासा तो  देश की  भृष्टतम व्यवस्था की  हाँडी  के एक-दो  चावल मात्र  हैं।  कैरियर  निर्माण के व्यक्तिगत   संघर्ष में  -  सामाजिकऔर राष्ट्रीय सरोकार  पूर्णतः तिरोहित होते ही जा रहे हैं ,साथ ही मौजूदा  नई  दुनिया का उत्तर आधुनिक  ग्लोबल  युवा -अपने पूर्वजों से भी ज्यादा असंरक्षित ,धर्मभीरु , लम्पट और दिशाहीन  होता जा रहा है। धूर्त शासक वर्ग द्वारा उसे प्रतिस्पर्धा की अँधेरी सुरंग में धकेला जा रहा है। उसे  भौतिक और निजी सम्पन्नता की  मरुभूमि में नख्लिस्तान   बनाकर  दिखाने और कार्पोरेट जगत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने  का पाठ  पढ़ाया  जा  रहा है। उसके हाथ पैर बांधकर गहरे कुँए  में  फेंककर तैरने और सबसे पहले आत्मउत्सर्ग के लिए हकाला जा रहा है। शातिर स्वार्थी प्रभू  वर्ग  का कहना है ' की बहाव के विपरीत  तैरकर जो पहले बाहर आएगा  उसे 'सफलता ' की सुंदरी वरमाला पहनायेगी। व्यक्तिगतआकाँक्षा ,महत्वाकांक्षा  की मृगमरीचिका के मकड़  जाल में फंसे हुए युवाओं को   यह समझने का अवसर ही नहीं दिया जा  रहा कि  नैसर्गिक -प्राकृतिक संसाधन , जीवकोपार्जन के  संसाधन ,शैक्षणिक-प्रशिक्षिणक सुविधाएँ,प्रोन्नति के अवसर , जीवन यापन की  मानवीय शैली और अभिरुचियाँ उनसे कोसों दूर होतीं चलीं जा रहीं हैं। उसे नहीं मालूम की उनके लिए नैगमिक और  राज्य सत्तात्मक संरक्षण का अनुपात किस हालात में है।  उत्तर भारत में और  खास तौर  से हरियाणा -पंजाब में स्त्री -पुरुष के लेंगिक अनुपात के क्षरण की ही   तरह आधुनिक  युवा पीढ़ी  के लिए  भी राज्य  सत्ता के संरक्षण का   अनुपात अर्थात  संवैधानिक  अधिकारों -अवसरों  का  अनुपात दयनीय है। जिस तरह  इंदौर सराफा बाजार की गन्दी नालियों  से कुछ निर्धन और  वेरोजगार युवा-नर -नारी बाल्टियों में कीचड भरभर कर अपने झोपड़ों में ले जाते हैं, ताकि उसमें तथाकथित 'संघर्ष' करते हुए गोल्ड' का कोई टुकड़ा या कण उन्हें  मिल जाए। इसी तरह की हालात जिजीविषा के लिए  संघर्षरत आधुनिक सम्मान आक्षांक्षी युवा पीढ़ी की है, जो अपराध जगत को पसंद नहीं करते ,जिन्हे शार्ट कट  पसंद नहीं वे ही निरीह  और मेघावी युवा  प्रतिस्पर्धा की   भट्टी में झोंके जा रहे  हैं। ये युवा न केवल भारत  में  बल्कि  दुनिया के उन  तमाम राष्ट्रों में भी संघर्ष कर रहे हैं , जहाँ  उनके किशोर  हाथों में बन्दुक पकड़ाई जा रही है।  उनके खून के प्यासे सिर्फ मजहबी उन्मादी ही नहीं हैं , बल्कि वे भी हैं जो  बाजारीकरण -वैष्वीकरण तथा निगमीकरण के तलबगार हैं.उन्हें यह जानने की फुर्सत ही नहीं कि  इस तरह के संघर्ष से इंसान नहीं हैवान पैदा हुआ करते हैं।

        श्रीराम तिवारी

ईश्वर में आस्था बनाम  जीवन में सफलता की गारंटी:-

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    सरसरी  तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं  किन्तु  वास्तव में वे विपरीत ध्रुव  ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक  'मानव' ने अन्य प्राणियों  के सापेक्ष  वैचारिक और उद्द्यमशीलता  के  क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है ।   इस वैज्ञानिक विचारधारा ने संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य  को प्रकृति पर विजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग कीअर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों  की प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले-केवल  साहित्यकार-कवि,लेखक या नाटककार  ही नहीं थे बल्कि जिन्होंने प्रकृति का अध्यन कर उसके नियमों का अनुशंधान कर  प्राणिमात्र से संबंध उजागर किया वे महान अनीश्वरवादी  वैज्ञा    सरसरी  तौर पर आस्तिकता और अनीश्वरवाद दोनों ही एक जैसे लगते हैं  किन्तु  वास्तव में वे विपरीत ध्रुव  ही हैं। सभ्य मानव समाज की ऐतिहासिक  विकाश यात्रा में इन  दोनों ही  'वैचारिक -गुणों'ने सार रूप में  इंसान  को उसकी  दैहिक-दैविक और भौतिक ऊंचाइयों पर स्थापित कराने में  समान  रूप  से महती भूमिका अदा की है।अनीश्वरवाद तो मानव मात्र की रग़ों  में उसके आदिम युग से ही विद्द्य्मान  रहा है। यह गुण न केवल मनुष्य बल्कि सभी अन्य  चैतन्यशील  प्राणियों में भी आनुवंशिक रूप से सदैव प्रकृति प्रदत्त है । वेशक  'मानव' ने अन्य प्राणियों  के सापेक्ष  वैचारिक और उद्द्यमशीलता  के  क्रांतिकारी झंडे गाड़े हैं. आज का वैज्ञानिक युग इसी 'नास्तिक' विचारधारा  के महानतम वैज्ञानिकों की खुरापात का परिणाम है ।   इस वैज्ञानिक विचारधारा ने संसार को अनेकों वैज्ञानिक दिए हैं। मनुष्य  को प्रकृति परविजय पाने का जज्वा दिया है। मध्ययुग कीअर्ध गुलाम  दुनिया  में और यूरोप  समेत  सारे सभ्य संसार में रैनेसाँ  को  उभारने वाले ,सामंतवाद पर प्रजातंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष करने वाले तथा पोप -खलीफा -मठाधीश जैसे ईश्वरीय ठेकेदारों  निक भी तत्कालीन निरकुंश शासकों को 'मानवीय मूल्यों' का आइना दिखा रहे थे। इनमे अधिकांस नास्तिक या बुद्धिवादी थे। केवल वाल्तेयर ,रूसो, गैरी बाल्डी  या मार्क्स -एंगेल्स जैसे अनीश्वरवादी ही नहीं बल्कि थॉमस अल्वा एडिसन,जार्ज स्टीवेन्सन ,रदरफोर्ड,फ्लेमिंग,  न्यूटन ,आर्कमिडीज ,पैथागोरस  इत्यादि नास्तिकों ने यूरोप -अमेरिका को विज्ञान के उजास से आलोकित किया तो भारतीय उपमहादीप में भी  कपिल , कणाद , ,अश्वघोष, ,भवभूति,चरक चार्वाक करहपा  जैसे नास्तिक वैज्ञानिकों ने महासागरों का घनत्व - धरती का वजन -लम्बाई-चौड़ाई  नाप  डाली थी । शून्य की खोज करना वाला ,धरती  को  गोलाकर बताने वाला  , सूरज को  स्थिर और धरती को गतिमान बताने वाले आर्यभट्ट अनीश्वरवादी हुआ करते थे। आज का अधिकांस उन्नत भौतिक संसार इन्ही तथाकथित 'नास्तिकों' की महानतम देंन  है।  इस विचारधारा में मनुष्य का अहोभाव उसकी महानता का  प्रशश्ति गान  होता रहा है। मनुष्य या मनुष्य की 'विवेक शक्ति' को ही इस संसार में सर्वश्रेष्ठ मानने  वालों का इसमें सदैव सम्मान होता रहा है।
   जहां तक 'आस्तिकता' का प्रश्न है तो वेशक  यह मानव मात्र की एक महान क्रांतिकारी वैज्ञानिक 'रचना' ही जा सकती है। इस आस्तिकता के 'दर्शन' के आविष्कार को  मष्तिष्क ने  सतत -एकल  या संगठित रूप से प्रकृति पर विजय पाने में असमर्थता की स्थति में ,व्यक्तिशः या  सामूहिक  रूप से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में आई संकटापन्न स्थति में 'ईश्वर' तत्व का  अनुसंधान किया होगा। कब ,कहाँ और कैसे किया  ये तो अभी तक अबूझ ही है र  क्रांतिकारी खोज