शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

''दलीय स्वार्थ ,और अफसरशाही संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक है।'':-नरेंद्र मोदी



प्रधान  मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने  इस साल ३ मार्च को संसद के बजट सत्र में  राष्ट्रपति महोदय के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए जब संसदीय बहस में हस्तक्षेप किया तो वे  कहीं से भी फासिस्ट ,साम्प्रदायिक और अहंकारी नजर  नहीं आ  रहे थे। उन्होंने अपनी एनडीए सरकार की  विहंगम  कार्ययोजनाओं  पर देश की जनता  और विपक्ष  का ध्यान आकर्षित करने की  पुरजोर कोशिश की । अपना विस्तृत पक्ष शालीनता से प्रस्तुत करते हुए उन्होंने नेहरू, इंदिरा और राजीव को भी ससम्मान उद्धृत किया। मोदी जी ने राहुल गांधी तथा अन्य  विपक्षी नेताओं  के आक्रामक और तीखे हमलों  का जबाब भी अपनी परम्परागत आक्रामक शैली से  कुछ हटकर बड़ी  शालीनता से ही दिया। उनके इस  भाषण की विषय वस्तु के केंद्र में - बढ़ती जा रही अफसरशाही और घटती जा रही 'संसदीय गरिमा' भी चिंतनीय विषय परिलक्षित हुए।  उन्होंने पक्ष-विपक्ष के नेताओं की आपसी तूँ -तूँ , मैं-मैं के बरक्स वैयक्तिक और आपसी सौहाद्र पर काफी जोर दिया। उन्होंने दुहराया कि  ''दलीय स्वार्थ और भृष्ट  अफसरशाही इस संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक  है।''। देश और दुनिया के जो लोग राष्ट्रीय परिदृश्य की इन  घटनाओं पर पैनी नजर रखते होंगे ,उन्हें मोदीजी के इस 'महाबोधिसत्व' अवतार पर कुछ अचरज अवश्य हुआ होगा। मोदीजी के बहुतेरे आलोचक भी एक दूसरे से पूंछ रहे होंगे कि कहीं ये मोदी जी का तात्कालिक -क्षणिक श्मशान वैराग्य  तो नहीं है  ?

 यदि है भी तो मोदी जी का यह काल्पनिक या आभासी श्मशान वैराग्य अकारण  भी  नहीं है। जबसे वे केंद्र की सत्ता में आये हैं ,उन्होंने खुद कोई ऐंसा वयान नहीं दिया कि साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने या जातीय उन्माद फैलाने का उन पर कोई सीधा-सीधा आरोप लगाया जा सके। बिहार विधान सभा चुनाव में भी उन्होंने केवल आर्थिक  मुद्दों और विकास - सुशासन पर ही अपनी बात रखी थी। लेकिन भागवत जी के आरक्षण संबधी बयान और संघ के अन्य ढपोरशंखियों के बयानों को लालू  ले उड़े। लालू और मण्डलवालों ने उसी आधार पर  बिहार में मोदी जी को असफल कर दिया। वेशक  जैसा बिहार चुनाव के दौरान 'संघ' भाइयों ने मोदी जी के साथ किया था वैसा ही आत्मघाती  काम उनके  कुछ संकीर्ण  समर्थक अभी भी किये जा रहे हैं। उन्ही के कारण  मोदी जी पर यह आरोप भी  चस्पा है कि  वे इन क्रिटिकल मामलों  में सदा मौन धारण कर लेते  हैं। कुछ ऐंसे आरोप भी लगे हैं कि मोदी जी रोमन सम्राट नीरो की तरह हैं जो रोम के जलने पर भी  निश्चिन्त होकर बांसुरी बजाये जा रहा था ।  मोदी जी ने जब संसद में स्पष्ट  तौर पर अफसरशाही पर नितांत उत्तरदायित्व हीनता का आरोप लगाया तो समझदार लोगों को अंदर की थाह पाने में देर नहीं लगी। ''दलीय स्वार्थ ,और अफसरशाही  संसदीय लोकतंत्र के लिए घातक  है।'' यह सूक्त वाक्य राजीव गांधी का है जो मोदी जी ने राहुल को नसीहत देने की मंशा से संसद में दुहराया।

मोदी जी ने उक्त   वाक्य दो कारणों से दुहराया। एक तो राहुल गांधी ने उन्हें  एक दिन पहले संसद में घेरने की कोशिश की ,और दूसरी वजह यह कि पूर्व एसआईटी जांच प्रमुख रहे सतीश वर्मा ने मोदी जी के गुजरात वाले स्याह  अतीत को उकेरने की कोशिश की है। इशरत जहाँ एनकाउंटर केश में संलग्न लोगों की सूची में अफसरों की पूरी की पूरी फ़ौज शामिल है। और इन अंटाग़ाफ़िल चालाक  अफसरों ने अपनी खाल बचाने के लिए यूपीए के राज में  मोदी जी को  संदेहास्पद बनवा दिया था। उनमें से कुछ तो रिटायर होने के बाद भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। ये अधिकारी इशरत जहाँ एनकाउंटर केश में नए-नए खुलासे कर  रहे हैं। गृह मंत्रालय के रिटायर्ड सेक्रेटरी आरवीएस मणि ने जब अपने एसआईटी अफसर सतीश वर्मा व  तत्कालीन ग्रह मंत्री चिदंबरम पर आरोप लगाया की  इन लोगों के दबाव में रिपोर्ट बदली गई तो  पूर्व एसआईटी जांच प्रमुख सतीश  वर्मा ने इशरत जहाँ को निर्दोष ठहराते हुए न केवल  ततकलीन  मुख्यमंत्री मोदी जी अपितु उनके बगलगीर  अफसरों को  ही हत्यारा बताया है।अब फिर से सारा मामला सुप्रीम कोर्ट में हैं ,यही वजह है कि मोदी जी  बैचेन हैं। और उन्हें राजीव गांधी का सहअस्तित्व सिद्धांत याद आ रहा है।

 जो अफसरशाही  मोदी जी के राज में चिदंबरम ,शिंदे  या कांग्रेस को भी लपेटने की जुगत में है उसका दूसरा सिरा खुद सत्तारूढ़ नेतत्व को आंच पहुंचाए बिना नहीं रहेगा। हालाँकि  इस जांच की आंच कांग्रेस आला कमान पर भी आ सकती है। उधर पूर्व  एसआईटी अफसर सतीश वर्मा ने तत्कालीन गुजरात एडमिनिस्ट्रेशन और उच्च अफसरशाही पर  इशरत जहाँ  के मर्डर का सख्त आरोप लगाया है। प्रकारांतर से वर्मा का यह रहस्योद्घाटन अब मोदी जी की सेहत पर  बुरा असर डाल सकता है।  बिना कुछ किये धरे ही मोदी जी को विश्व विरादरी में एक क्रूर शासक सिद्ध किया जा सकता  है। इससे  आईएसआईएस वालों ,जेश -ऐ- मोहम्मद और पाकपरस्त  इस्लामिक  आतंकियों को और  पाकिस्तान को भी अपने आतंकी गुनाह जस्टीफाई करने का बहाना  मिल जाएगा। शायद अपने अफसरों की इन्ही हरकतों से आहत होकर  ही मोदी जी किंचित क्षणिक श्मशान वैराग्य को प्राप्त हो गए !और इसीलिये उन्होंने नेहरू जी ,इंदिराजी और राजीव गांधी याद करते हुए  देश की संसद में पहली बार अपनी ही भृष्ट  अफसरशाही पर हल्ला बोला है । सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि विपक्ष को भी पीएम मोदी जी ने इस भृष्ट और  गैरजिम्मेदार अफ़सरशाही से आगाह किया है । और संसद को जनता का सर्वोच्च सत्ता संचालन संस्थान माना है। अर्थात  मोदी जी को इल्हाम हो चुका है कि  'संघ' सर्वोच्च नहीं है बल्कि संसद ही सर्वोच्च है।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए मोदी जी ने विपक्ष को उकसाने के बजाय,तीखे हमले करने के बजाय  सहमति और साहचर्य पर ज्यादा जोर दिया ।  उनके समर्थक अथवा एनडीए समर्थक तो मोदी जी की इस साफगोई पर अवश्य फ़िदा हुए होंगे ! किन्तु कोई कितना ही मोदी विरोधी हो क्यों न हो वह भी इस  राष्ट्रीय चिंता से इंकार नहीं कर सकता कि "संसद में बहस का स्तर गिरता जा रहा है '' ! संसदीय लोकतंत्र का प्रमुख स्तम्भ दरकने को है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने विपक्ष और ख़ास तौर से राहुल गांधी के  तीखे हमलों का जबाब संयत स्वर और संसदीय गरिमा के साथ दिया।  देश के विकास और सुशासन के लिए ,आम सहमति के हितार्थ उन्होंने अपना मंतव्य बार-बार दुहराया।   वेशक उनके इस गंभीर भाषण में अनेक प्रश्न अनुत्तरित रह गए किन्तु  उन्होंने  ऐंसा कुछ नहीं कहा जिससे पक्ष-विपक्ष की दूरियाँ और बढ़ें। 

मोदी जी ने अरुण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट को यूपीए से बेहतर बताया  तो क्या गलत किया ?यही आरोप तो वामपंथी  भी लगा रहे हैं कि एनडीए के  बजट में नया कुछ  नहीं है। केवल  बोतल  नईं है और  शराब वही पुरानी है !हाँ मोदी जी की एक बड़ी चूक यह कही जा सकती  है कि उन्होंने प्रस्तुत  बजट को यूपीए से बेहतर मान लिया लिया। बिना जाँचे  परखे ही इस बजट को बेहतर मान लिया। जबकि  यह  बजट यूपीए से 'बेहतर' है या बदतर यह तो उसके  लागू होने से पहले केवल अनुमानित ही किया जा सकता है।  चूँकि हर बजट अनुमानित ही होता है।  अतः यह संसद में पढ़ते ही बेहतर हो  गया यह कैसे मानें ? बजट इम्प्लीमेंट होने के बाद साल छः महीना बाद जब बजट की नीतियों के परिणाम सामने होंगे ,तब ही उसे यूपीए से अच्छा या बुरा कहा जा सकता है। मोदी जी ने कुछ और भी बड़ी चूकें की हैं। यह खेद की बात है कि  रोहित वेमूला की  आत्महत्या , निर्दोष कन्हैया की नाजायज गिरफ्तारी ,कोर्ट में वकीलों -गुंडों द्वारा उसकी पिटाई ,खदु पी एम  की अविचारित पाकिस्तान-चाय यात्रा ,अरुणाचल ,नार्थ ईस्ट ,काश्मीर में अस्थिरता ,महँगाई, काला धन ,असहिष्णुता और किसानों की दुर्गति पर कुछ  मोदी जी कुछ भी नहीं बोले। लगता है कि  उन्हें सिर्फ कार्पोरेट सेक्टर की  चिंता है कि संसद में उनके हितार्थ वे जो भी बिल या विधेयक प्रस्तुत करें वह बिना किन्तु-परन्तु के पारित होते रहें  ! लेकिन यह अभीष्ट  तभी सम्भव है जब मोदी जी विपक्ष के सवालों का भी माकूल जबाब दें। और संघ परिवार के कुछ बिगड़ैल तत्वों द्वारा देश के बुद्धिजीवियों ,साहित्यकारों ,फिल्मकारों,पत्रकारों और छात्र-छात्राओं पर  हो रहे अत्याचार बंद हों !

श्रीराम तिवारी


 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016



बांग्लादेश टीम को हार का स्वाद चखाने के लिए - धन्यवाद मिस्टर रोहित शर्मा ! बधाई मिस्टर धोनी और भारतीय क्रिकेट टीम !लेकिन एक सवाल  आप से भी है मिस्टर रोहित  शर्मा -यदि आप ५३ बाल पर ८३ रन ठोकते रहोगे और  अपनी हरल्ली टीम को यों ही जिताते रहोगे तो किसी किस्म का  आरक्षण आपको  क्यों  मिलेगा ? क्योंकि  जब तक आप एक -दो  रेल की पटरियाँ  नहीं उखाड़ देते  ,जब तक एक-दो पुल नहीं उखाड़  देते ,जब तक आप दो-चार बसें नहीं जला देते ,जब तक आप दस बीस निर्दोषों की जाने नहीं ले लेते तब तक आपको या आपके किसी  सपरिजन या सजातीय बंधुओं को  आरक्षण हरगिज नहीं मिलेगा !  

बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

स्मृति ईरानी ने बहिन जी को बुरी तरह निपटा दिया। अच्छा किया !

 देश के दलितों को और दलित वर्ग के सच्चे समर्थकों को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि उनकी 'अधिष्ठात्री देवी'मायावती  ने हजार-हजार के नोटों की 'वरमाला' कई वार पहनी है। यह भी सोचें कि  वे एक मामूली पोस्टल क्लर्क की 'सुपुत्री' के नाते देश की राजनीति में आतीं तो  कितना पुरुषार्थ बटोर पातीं?  कौन नहीं जानता कि इन  मायावती को और उन जैसे अन्य सभी दलित नेताओं को  दलित वर्ग की अथवा  वंचित शोषित बहुजन समाज की  कितनी चिंता है ? दरसल किसी को कोई  चिंता नहीं है। बल्कि  सभी को सिर्फ और सिर्फ अपने  वोट बैंक की और निजी  आर्थिक स्वार्थ की  ही फ़िक्र है। चूँकि मायावती  जी ने संसद के बजट सत्र -२०१६ के प्रथम दिवस ही असत्य का सहारा लिया और उन्होंने उसे राजयसभा में  परोसा  दिया । अतिउत्साह में  वे खुद के फेंके  जाल में फँसतीं  चली   गईं । इसीलिये  उन्हें  संसद में एक औसत दर्जे की  भूतपूर्व  एक्ट्रेस और  नौसिखिया अर्धशिक्षित 'तुलसी' के शब्द बाणों से घायल होना  पड़ा। मंत्री स्मृति ईरानी ने बहिन जी को न केवल  बुरी तरह निपटा दिया। बल्कि अपने  शैक्षणिक तापमान का सूचकांक भी सबको बता दिया। यह  स्मृति ने बहुत अच्छा किया  !
 
कल जब स्मृति ईरानी  संसद में मायावती को 'फींच'रही थी तो मुझे लगा की  वह मायावती से  हर मामले में बेहतर ही  है। यदि भाजपा - संघ वाले यूपी  विधान सभा चुनाव में स्मृति  को मुख्यमंत्री डिक्लेयर कर दें तो मुलायम परिवार और वसपा के मायाजाल  का अंतिम अवसान सुनिश्चित है। और  तो यह होना भी चाहिए ! क्योंकि यूपी की बर्बादी के लिए सपा-वसपा दोनों जिम्मेदार हैं। यूपी के जंगल राज को सहन करने के लिए यूपी की जनता किसी महान 'सर्वहारा' क्रांति का इंतजार  कब तक करती रहे ? 

नोट :मेरी इस पोस्ट को पढ़कर  मेरे संघी मित्र इस गलतफहमी में न रहें  कि  मैंने अपना वैचारिक स्टेण्ड बदल लिया है या साम्प्रदायिकता और फासिज्म को हरी झंडी दे दी है। उनकी  फासीवादी सोच के खिलाफ  मैं अंतिम सांस तक लड़ुँगा। किन्तु जब कभी  भी शत्रु शिविर में सच प्रतिध्वनित होगा तो मैं  उसकी तारीफ करने में कँजूसी   भी नहीं करूंगा। क्योंकि यह भी मेरा विशेषाधिकार है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता  का प्रमाण भी यही  है।  स्मृति बनाम मायावती का यह संदर्भ एक बड़ी बुराई के सापेक्ष छोटी बुराई को मजबूरन स्वीकारने जैसा है। और जो सही  है वह किसी एक खास के  समर्थन का मोहताज भी नहीं है।  श्रीराम तिवारी 

भारतीय राष्ट्रवाद इतना छुई -मुई नहीं कि दो-चार नारों से ही कुम्हला जाए !

जेएनयू परिसर में जिन छात्रों ने अफजल गुरु की पुण्य तिथि मनाई ,उसे शहीद बताया और ततसंबंधी अप्रिय नारे लगाए वे देशद्रोही तो नहीं कहे जा सकते  किन्तु नादान  अवश्य कहे जा सकते हैं। इन छात्र नेताओं से चूक तो अवश्य हुई  है। किन्तु यह गंभीर अपराध नहीं बल्कि महज  'मुर्गा बनाने'के दंड  लायक भर है ।  दरसल होना तो यह  चाहिए था कि जेएनयू प्रशासन या वीसी साहब इन छात्रों को बुलाकर डाँटते उन्हें मुर्गा बनाते और कड़ी चेतावनी देकर घटना का पटापेक्ष कर देते। किन्तु एवीबीपी को तो जेएनयू में  बंदर छाप धमाचौकड़ी मचाने का मौका चाहिए था । और सरकार समर्थक मीडिया ने उन्हें यह अवसर प्रदान कराने में महती भूमिका अदा की है। इसलिए जेएनयू प्रसंग अब विश्व व्यापी हो गया है। मोदी सरकार के राज में यह एक और दागदार कड़ी शामिल हो गयी है। इससे पहले नरेंद्र दाभोलकर ,पानसरे ,कलीबुरगी ,अख्लाख़ की हत्या को देश की असहिष्णु राजनीति का परिणाम माना जा चुका है। और उसके बाद  हैदरावाद केंद्रीय  विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने न केवल वर्तमान मोदी सरकार को बल्कि भारत की सामंती-जातीय व्यवस्था को भी दुनिया भर में शर्मशार  किया है।

जेएनयू परिसर में अफजल गुरु की पुण्य तिथि मनाने , उसकी फांसी की सजा को कायरता बताने और कुछ अप्रिय  भारत विरोधी नारे लगाने से किसी भी देशभक्त भारतीय को अच्छा नहीं लगा। किन्तु इस संदर्भ को देश के दक्षिणपंथी मीडिया और सरकार समर्थक साम्प्रदायिक लोगों ने  जिस तरह उत्तेजक ढंग से झूंठ परोसकर देश  को गुमराह किया वह नाकाबिले बर्दास्त है । संघ समर्थकों ने  'संघ परिवार' से बाहर के सभी भारतीयों को जो  देशद्रोही पेश किया वह भी शर्मनाक है। भाजपा संगठन  और मोदी सरकार की दिल्ली पुलिस की यह दलील है कि ''चूँकि कोर्ट ने अफजल गुरु को फाँसी की सजा सुनाई ,इसलिए उस पर एतराज उठाना देशद्रोह है ''! यह सब भारतीय कानून अर्थात संविधान के अनुरूप ही  हुआ है। वेशक यही सच है। किन्तु संघ और उनके समर्थक मीडिया को यह भी याद रखना चाहिये कि महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को भी आजाद भारत की ही  कोर्ट ने मृत्यु दंड दिया था। जब तथाकथित 'हिन्दुत्ववादी' लोग गोडसे की बरसी या पुण्य तिथि मनाते हैं या उस हत्यारे के मंदिर बनाने की बात करते हैं तो देश की धर्मनिरपेक्ष जनता को  बहुत बुरा लगता है किन्तु 'कभी भी  किसी  ने इन  'गोडसे भक्तों ' को फांसी देने की मांग  नहीं की ! यदि जेएनयू में अफजल के समर्थन में नारे लगाना देशद्रोह है तो ;गोडसे जिंदाबाद 'और गांधी जी को गाली देना भी देशद्रोह है।

यह स्वाभाविक है कि जब कश्मीर सहित  पूरे भारत  में ही  विदेशी आतंकी घुसे हैं और यदि  दो-चार गुमराह  छात्र  जेएनयू में भी पनपते पाये जाएँ तो इसमें क्या अचरज  है ? लेकिन सनातन यक्ष प्रश्न यह है कि राष्ट्र - राज्य अथवा 'राष्ट्रवाद' की अंतिम परिभाषा कौन तय करेगा ? उसका दायरा कितना -कहाँ तक  होना चाहिए ?भारतीय संविधान  के अनुसार तो इस तरह की नारेबाजी 'देशद्रोह' का आधार कदापि नहीं हो सकता। भारतीय  राष्ट्रवाद  इतना छुई -मुई नहीं कि दो-चार नारों से  ही कुम्हला जाए ! यदि नारे लगाना  देशद्रोह है तो क्या रेलवे की पटरियाँ उखाड़ना ,बसें जलाना ,दुकाने जलाना ,निर्दोष को पीटना क्या देशभक्ति है ?  हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्रांतिकारियों ने नारे लगाकर ही देश को आजादी दिलाई है । आजादी के बाद ,देश के हर संगठन ,हर आंदोलन में रोज -रोज हजारों नारे लगते आ रहे हैं ,और हर पार्टी हर छात्र संगठन के अपरिपक्व नेताओं ने  भूल से एक दो नारे कभी-कभार 'गलत' भी अवश्य लगाये होंगे। उनमें  कुछ  तो मंत्री भी बनते आ रहे हैं और कुछ तो देशभक्ति के तमगे भी अपने सीने पर लटकाये घूम रहे हैं। जेनएयू में हुई  छात्र नारेबाजी पर कोहराम मचाने वालो से आग्रह है कि अपने-अपने गिरेबाँ में झाँककर  भी देखो !

 यदि जुबान पकड़ना शुरुं करोगे तो अमित शाह, योगी आदित्यनाथ ,साक्षी महाराज और तमाम कुबक्ता-प्रबक्ता  जाने-अनजाने 'देशद्रोह' के 'बाड़े' में धकेल दिए जाएंगे। यदि  धर्मनिपेक्ष-लोकतान्त्रिक भारत में  'राष्ट्रवाद' की कोई संकीर्ण और तंग नजीर पेश की गयी तो इस देश में कोई भी 'राष्ट्रवादी' नहीं होगा !हमारे  विद्वान न्यायधीश भी शायद  यह  अवश्य जानते होंगे। दुनिया में शोषण विहीन राष्ट्र राज्य की अवधारणा से किसे इंकार है ? वेशक इससे  वही इंकार कर सकता है जो जागते हुए भी सोने का बहाना कर रहा हो ! क्योंकि बिना राष्ट्रवाद के सामाजिक  , आर्थिक व राजनैतिक असमानता से मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता !राष्ट्रवाद तो सभी देशवासियों का जीवन अमृत है ,उनका भी जो अलगाववादी या आतंकी हैं। लेकिन यह 'राष्ट्रवाद'जनता के लिए ही हो। यदि 'राष्ट्रवाद ' की अवधारणा को राजनीती में बढ़त हासिल करने के लिए हिटलर-मुसोलनि जैसे  फ़ासीवादियों का ब्रह्माश्त्र बना दिया जाये तो बड़ी मुश्किल होगी ! तब केवल ग्रह युद्ध ही नहीं ,विश्व युद्ध भी सम्भव है। इस संदर्भ में  कुछ जिम्मेदारी उनकी भी है जो गलत-नारेबाजी या बयानबाजी  करते रहते हैं । और  उनकी भी कुछ जिम्मेदारी है जो दोनों ओर के अन्धसमर्थक हैं ! 

मानलो कि भारतीय संविधान की मौजूदा  अवधारणा के अनुसार जेनएयू के नारेबाज छात्र निर्दोष हैं । किन्तु शतप्रतिशत शुद्धता की गारंटी कोई  कैसे दे सकता है  ? क्योंकि  न केवल भाववादी बल्कि वैज्ञानिक तथ्य भी चीख-चीख कर कह रहे  हैं की 'इस सचेतन जगत में कोई भी व्यक्ति,वस्तु अथवा संस्था पूर्णतः निर्दोष नहीं है ' साइंस का 'टेंड्स टू जीरो एरॉयर ' और उपनिषद का  'ब्रह्मसत्यम जगन्मिथ्या'' दोनों ही सिद्धांत किसी की शुद्धता की गारंटी नहीं देते। जेएनयू प्रकरण में सत्तारूढ़ दल ,दिल्ली पुलिस अथवा काले कोट वाले गुंडों ,आरोपी छात्र कन्हैया कुमार  को पुलिस के समक्ष पीटने वाले और  संविधान का मखौल उड़ाने वाले फासिस्टों के पापों पर पर्दा डालना निहायत ही नीच कर्म है । लेकिन न्याय के तरफदार लोगों का और वास्तविक राष्ट्रवादियों का  मकसद यह होना चाहिए कि जेएनयू बनाम फासीवाद की  द्वंदात्मकता का कोई ठोस नतीजा जरुर निकले ! प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवियों का मकसद भी यही रहे कि'सिर्फ हंगामा खड़ा करना हमारा मकसद नहीं और , हमारी फितरत है कि ये  सूरत बदलनी चाहिए 'जेएनयू के छात्रों -प्रोफेसरों का  मकसद  भी इससे अलग कुछ भी नहीं होना चाहिए ! उन्हें संघियों की बेजा आलोचना का संयत स्वर में तार्किक जबाब देना चाहिए !

मान लो कि मैं  शरीर से लम्बा तड़ंगा,हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ  हूँ। और यदि कोई ठस  दिमाग वाला मुझे मरियल या रुग्ण कहे तो  मुझे बुरा नहीं मानना चाहिए । क्योंकि मुझे मरियल या रुग्ण बताने वाला न केवल  सरासर  झूंठ बोल रहा है,बल्कि वह असंज्ञेय भी है। उसके झूँठ को सभी न्याय प्रिय लोग साक्षात देख  भी रहे होते हैं। इसलिए मुझे अपने क्रूर  निंदक की असत्य निंदा या आलोचना पर आपा खोने की जरुरत नहीं है। और यदि मैं वास्तव में मरियल-रुग्ण शरीर वाला हूँ ,तब तो मुझे अपने  'प्रिय निंदक' की बात का बुरा कदापि  नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह सच  ही तो कह रहा  है। भले ही वह नितांत कटु ही क्यों न हो किन्तु उसकी सच बयानी  का  आदर सहित स्वागत किया जाना  चाहिए ! महर्षि वेद व्यास जैसे परम वीतरागी का भी यही परम उपदेश है कि - 'सम शत्रौ च मित्रे च तथा  मान अपमानयो ' [भगवद् गीता] । इस सूक्त अर्ध श्लोक को शब्दश : मानने लेने की क्षमता ही धीरोदात्त  चरित्र के व्यक्ति को प्रगतिशील,धर्मनिरपेक्ष और क्रांतिकारी बनाती  है।और सत्य भले ही परेशान किया जाता रहे किन्तु अंततोगत्वा  जीत सत्य की ही होती है।

जेएनयू के मामलों में जब तथाकथित पढ़ने-लिखने वाले - एबीवीपी वाले और दक्ष्णिपंथी मीडिया वाले ही खुद जानबूझकर देश को  गुमराह कर  रहे हैं। तो देश की आवाम के मष्तिष्क में क्या चल रहा होगा ? उधर जेएनयू में भी सब कुछ तो सही नहीं हो सकता।वेशक ९९% छात्र देशभक्त और अनुशासित  होंगे ,किन्तु वामपंथ  के  धनिया -पोदीना में १% खरपतवार 'आतंकी' खरपतवार मान लेने में क्या हर्ज है ?   कुछ अभी जेएनयू यदि शुद्ध सात्विक है तो उसके हितग्रहियों -छात्रों ,प्रोफेसरों और समर्थकों को अनावश्यक प्रतिक्रियावाद में नहीं उलझना चाहिए। बल्कि इस महाभृष्ट सिस्टम खदबदाते 'खोखले राष्ट्रवाद में रहते हुए भी  शालीनता और    पर या उसके समर्थकों पर 'संघ अपरिवार' यदि देशद्रोह का आरोप लगाये जा रहा है। प्रतिवाद में छात्र और ज्यादा आंदोलित हो रहे  हैं। इंग्लैंड ,अमेरिका ,पाकिस्तान और दुनिया भर के अन्य विश्विद्यालय जेएनयू के पक्ष में खुलकर आ गए हैं।  तो इसमें विचलित होने की क्या बात है ?  सनातन से झूँठ बोलते आ रहे लोगों के झूंठे आरोपों से किंचित बिचलित क्यों होना ?

आदर्शवादी या उटोपियाई ही  सही किन्तु उपरोक्त सिद्धांत के अनुसार ही  जेएनयू समर्थकों और जेएनयू विरोधियों के द्वन्द समाप्त किया जा सकता है। वरना मीडिया द्वारा स्थापित आरोप -प्रत्यारोप का निदान आसानी से नहीं किया जा सकता है। सब जानते  हैं कि न्याय के समक्ष भी प्रशासनिक बेईमानी का अवतरण हमेशा से  होता चला आ रहा है।  नौ फरवरी -२०१६ को जेएनयू परिसर में घटित अप्रिय [?] घटना के मुद्दे पर भारतीय समाज दो वर्गों में वट गया है। केंद्र सरकार ,संघ परिवार और जेएनयू  से ईर्ष्या करने वाले कुण्ठित  अमर्यादित लोगों को लगता है कि जेएनयू  से भारत को खतरा है। और जेएनयू का स्वायत्तशाशी स्टेट्स खत्म किया जाना चाहिए ! इस पक्ष के सब लोगों को  अपने जेहन में सदा के लिए यह लिखकर रख लेना चाहिए कि जेएनयू के अधिकांस  छात्र, प्रोफेसर, और समग्र स्टाफ  शतप्रतिशत देशभक्त है। जेएनयू से देश को या दुनिया को  कोई खतरा नहीं।  देशभक्ति के लिए जेएनयू  किसी ऐरे-गैरे -नथ्थू खैरे के सर्टिफिकेट का  मोहताज नहीं !

वेशक जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थानों के रहते भारत में फासीवाद या नाजीवादकी स्थापना  सम्भव नहीं !शायद यही वजह है कि सत्तारूढ़ -नव-फासीवादी और असहिष्णुतावादी खरपतवार ने जेनएयू की इस हरी -भरी फसल को चौपट करने का काम एबीवीपी के माध्यम से प्रारम्भ कर दिया है। दरअसल दुनिया की तमाम मानवतावादी क्रांतियों का जो अक्श जेएनयू में चमक रहा है वह भारत के संकीर्णतावादियों की आँखों में खटक रहा है!
       
                                                                       श्रीराम  तिवारी   

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

आग लगाता हरित प्रदेश में ,आरक्षण का नारा है।


   इक्कीसवीं शताब्दी के सोलहवें साल में ,छप्पन इंची सीने वालों के राज में  यदि शोषण-उत्पीड़न -अन्याय के खिलाफ नारे  लगाओगे तो 'देशद्रोही-कन्हैया' कहलाओगे ! किन्तु  यदि कोई बदमास -लफंगा नेता कोर्ट परिसर में ही  कानून को अपने हाथ में लेकर उस 'इंकलाबी' छात्र को थप्पड़ मारेगा तो वह 'देशभक्त' कहलायेगा  !यदि जातीय  आधार पर आरक्षण की मांग को लेकर कोई रेलें रोकता हो ,पटरियाँ  उखाड़ता हो ,बसें जलाता हो ,पुल तोड़ता हो और  सरकार को वोट बैंक की सेंधमारी के लिए ब्लेक मेल करता हो ,वह 'अराजक' फिर भी 'देशभक्त' ही कहलायेगा !यह सब  साम्प्रदायिक  और जातीय मंत्रशक्ति का चमत्कार  है। 'वन्दे मातरम ' या 'जय-जय सियाराम ' के नारे लगाकर कोई भी ठग, चोर, हत्यारा -भगवा कपडे पहनकर साधु-सन्यासी हो सकता है. परम राष्ट्रवादी का तमगा उसे सहज ही उपलब्ध है। कार्पोरेट पूँजी के दलाल - मुनाफाखोर, मक्कार मिलाबटिया,एवं  भूमाफिया, बिल्ड़रमाफिया ,भृष्ट - रिश्वतखोर,ठेका माफिया ,सरमायेदार और साम्प्रदायिक आतंकी  भी इस देश में  'देशभक्त' होने का स्वांग भर रहे हैं । जो लोग राष्ट्रवाद के  नारों की आड़ में  देश को चूना लगाये जा रहे हैं। जो  सरकारी योजनाओं का ८५% पैसा डकार रहे  हैं,जो आरक्षण आंदोलन के बहाने  राष्ट्रीय सम्पत्ति को आग लगा रहे हैं , वे सभी देशभक्त  बने रह सकते हैं। वशर्ते वे जेएनयू की राह पर न चलें और सत्ता के चारण  - भाट हो जाएँ।  जय श्रीराम !

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016



 देशभक्तों के राज में  ,नेता खुद जज बन  रहा है।

 निर्दोष छात्र को पीटने वाला ,खीसें निपोर रहा है।।


 जेएनयू सुलग रहा और ,हरियाणा जल रहा है।

 अच्छे  दिनों  का  आमद ,क्या खाक हो रहा है।।  
 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

शाखा मृगों की औकात नहीं कि वामपंथ को देशभक्ति सिखायें !


 गनीमत है कि  नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। और वहां कम्युनिस्ट सत्ता में हैं।  राष्ट्रपति कामरेड विद्या भंडारी हैं. प्रधानमंत्री कामरेड केपी शर्मा 'ओली' हैं ,दिलचस्प बात ये हैं कि दोनों ही ब्राह्मण हैं। लेकिन शुक्र है कि वे धर्मांध नहीं हैं। भारत के  साम्प्रदायिक नेताओं जैसे बगुलाभगत तो वे कदापि नहीं हैं। बल्कि धर्मनिपेक्षता - मानवतावाद ही उनके नीति निर्देशक सिद्धांत  हैं। अति उत्साही दक्ष्णिपंथी भारतीय नेताओं को तो इन मानवीय मूल्यों का अर्थ भी नहीं मालूम। भारत के स्वनामधन्य नेताओं ने तो पड़ोसी देश नेपाल में 'रायता ढोलने' की पूरी कोशिश की है । उन्होंने पशुपतिनाथ को पटाया ,उनके सामने खूब शंख भी बजाया ,भूकम्प के समय खूब सेल्फ़ी खीचीं ,सहायता का ढिंढोरा पीटा ,मधेशियोँ को खूब उकसाया ,किन्तु कुछ  भी काम ना आया !वेशक इस झगडे - झट में कुछ गलती या चूक  नेपाल के अज्ञानी नेताओं की भी रही है।

 खैर जो भी हो !  इतने सारे धतकरम भारत-नेपाल  दुश्मनी के लिए पर्याप्त थे। लोगों ने कयास लगाने शुरू कर दिए थे कि नेपाल तो अब चीन की गोद में बैठ जाएगा। धुंध फैलाई गयी कि नेपाल के प्रधान मंत्री 'ओली 'जी या राष्ट्रपति  विद्या भंडारी जी अब भारत को तबज्जो नहीं देंगे ! चूँकि अभी तक यही  परम्परा थी कि  नेपाल  के राजतन्त्र में जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ या लोकतंत्र की स्थापना के बाद वहाँ जब भी  कोई नया प्रधान मंत्री - राष्ट्रपति चुना गया ,तो वह अपना वैदेशिक अभियान भारत से ही प्रारम्भ करता था।  विगत वर्ष नेपाल में जब नया संविधान लागु हुआ और नया कम्युनिस्ट नेतत्व सत्ता में आया तो आशंका व्यक्त की गयी कि वे अपनी पहली विदेश यात्रा बीजिंग से ही शुरुं करेंगे।क्योंकि चीन और नेपाल में एक ही विचारधारा के लोग सत्ता में हैं !

लेकिन  नेपाल के प्रधान मंत्री कामरेड के पी शर्मा 'ओली' ने अपना पहला मित्र  भारत को ही माना है! और चीन जाने के बजाय वे भारत यात्रा पर आये हुए हैं। अब जो स्वयंभू राष्ट्रवादी  लोग भारत में  वामपंथ को 'देशभक्ति का पाठ पढने में जुटे हैं ,वे नेपाल के इन  कम्युनिस्ट नेताओं को क्या कहेंगे ? क्या नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं ने  अपने देश नेपाल को चीन के हाथों सौप दिया ? और यदि वहाँ  हिन्दू राष्ट्र भी था तो क्या उन्होंने अपना सब कुछ  भारत को सौंप दिया था ? भारत के जो  धर्मांध और संगठित लठैत यह प्रचारित करते रहते  हैं कि प्रगति- शील वामपंथी या धर्मनिरपेक्ष लोग वतनपरस्त नहीं होते। उन्हें कामरेड फीदेल कास्त्रो से , कामरेड ,शी  जिन पिंग से नहीं,बल्कि कामरेड के पी शर्मा 'ओली' से यह तस्दीक करना चाहिए कि साम्यवादियों का  'राष्ट्रवाद'  क्या चीज है ? वावले संघियों और शाखा मृगों की औकात नहीं कि वामपंथ और सर्वहारा वर्ग  को देशभक्ति  सिखायें !

 भारत की प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष  आवाम को ,मेहनतकश-सहिष्णु जनता को  ,लोकतान्त्रिक -जनवादी राजनीतिक कतारों को  और वामपंथ को अपने साथी कामरेड के पी शर्मा 'ओली' का तहेदिल से इस्तकबाल करना चाहिए !उम्मीद नही कि  भारत सरकार व  उसके सरपरस्त साम्प्रदायिक दक्षिणपंथी संगठन इस अवसर का लाभ दोनों देशों की जनता के हित में उठायेंगे! अनावश्यक  'बिघ्न बाधा' उतपन्न करना उनकी फितरत है ! हे ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि देना ! जय  पशुपतिनाथ ! जय महाकाल !  कामरेड  के पी शर्मा ओली को और नेपाल की जनता को ,,,,,लाल सलाम  ! श्रीराम तिवारी !

बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

फासिज्म की कृपा से ,सब काम हो रहा है।।


 नस्लवादियों  का चेहरा ,खूँखार  हो रहा है।

  महकमा -ए -अदालत , शर्मशार  हो रहा है।।


  क्रूरकाल ने  लिखा था  ,कश्मीर का फ़साना।

  अफजल गुरु की फांसी ,इंतकाम का बहाना।।


   जे एन  यु का परिसर ,बदनाम हो  रहा है।

   फासिज्म की कृपा से ,सब काम हो रहा है।।


   देश छोड़ भागे बदमाश ,अफजल गुरु के साले।

   दिल्ली पुलिस ने पकडे कुछ ,पढ़ने -लिखने वाले।।

   
   पिटते  हो तुम कन्हैया, तुम्हारा नाम हो रहा है।  

   लेकिन  वाम पंथ  फ़ोकट,  बदनाम हो रहा है।।

                                       श्रीराम तिवारी

                     

 


  

 

इतने पर भी यदि कोई जिन्दा है ,तो वो देवता है इंसान नहीं !


       जहाँ  दाँत हुए  वहाँ  चने नहीं  ,जहाँ  चने  हुए  वहाँ  दाँत नहीं।

       जहाँ  स्वारथ  है  वहाँ  प्रीत नहीं  ,जहाँ चाहत  है वहाँ घात नहीँ।।


       जहाँ  हेलमेट नहीं वहाँ  पेट्रोल नहीं ,शौचालय नहीं तो गैस नहीं। 

       राशनकार्ड नहीं तो राशन नहीं, आई डी प्रूफ नहीं तो आधार नहीं।।


       आधार नहीं तो सब्सिडी नहीं ,कोई नागरिक पहचान  नहीं ।

       बैंकिंग लेंन -देन  व्यवहार नहीं , रोजगार  आसान नहीं।।

     
      बिना  घूस कोई  काम नहीं , काम नहीं तो जीना आसान  नहीं।

      इतने पर  भी  यदि कोई जिन्दा है ,तो वो देवता है इंसान नहीं ।।

       
      सूखा  है तो कृषि  नहीं ,कृषि नहीं तो भोजन भाजी अन्न नहीं ।

      अन्नदाता के यहाँ अन्न नहीं, तो व्यापारी के यहाँ भी पण्य नहीं।।

   
       आतंकवाद  है तो अमन नहीं ,अमन नहीं तो  विकास नहीं।

      विकास नहीं तो खुशहाली नहीं,  और  किसी की खैर नहीं।।


                               श्रीराम तिवारी


   

राष्ट्रवाद के नाम पर शुद्ध फासिज्म परोसा जा रहा है !



  सभी  देशवासियों  के लिए यह एक सकारात्मक और सुखद खबर है कि  प्रधानमंत्री  मोदी जी ने मान  लिया है कि  वे सिर्फ भाजपा या 'संघ परिवार' के प्रधान  मंत्री नहीं हैं, बल्कि वे पूरे भारत के प्रधान मंत्री हैं। संसद सत्र के  पूर्व  सर्वदलीय बैठक में विपक्ष द्वारा उठाये गए सवालों के बरक्स  पीएम मोदी  ने कल यह आश्वाशन दिया है। इसमें कोई शक नहीं  कि सम्पूर्ण  विपक्ष तो  मोदी जी को  सौ फीसदी प्रधान मंत्री मानता है। इसीलिये  उनके आमंत्रण पर इस बैठक में  सभी विपक्षी दल उपस्थ्ति हुए ! लेकिन ऐंसा आभासित हो रहा है कि सत्ता पक्ष में  कुछ  विक्षिप्त मानसिकता से ग्रस्त लोग अपने अलावा  किसी और को राष्ट्रवादी या देशभक्त नहीं मानते ! शायद  भाजपा प्रवक्ताओं  ने  तो 'अंधराष्ट्रवाद' का सर्टिफिकेट बाँटने   का काम  भी अपने हाथों में ले रखा है। कुछ  सड़कछाप भाजपा नेता[ओ पी शर्मा  जैसे ]  कोर्ट और पुलिस के सामने  ही  छात्रों और पत्रकारों की मार-कुटाई करने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझते हैं। उस  नेक बन्दे का तो यह भी कहना है कि 'यदि मेरे हाथ में बन्दूक होती तो गोली मार देता '! कोई भी पूंछ सकता है कि ' भाई  तूँ  काहे का राष्ट्रवादी और कैसा देशभक्त है ? जब अपने कानून और सम्विधान को ताक पर रखकर ,सरे राह कौड़िल्ला छाप दादागिरी से पेश आ रहा है ? गनीमत है कि अभी तो वो सिर्फ विधायक ही है । यदि कभी  देश के दुर्भाग्य से  मिनिस्टर बन गया तब क्या होगा ? तब  वो एटम बम का प्रयोग  क्यों नहीं करेगा ? और  हिटलर की औलाद कहलाने की यही तो  खास वजह  है। ढपोरशंखी भाजपा प्रवक्ताओं ने विपक्ष  के खिलाफ - इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोहराम मचा रखा है। इधर सोशल मीडिया पर  भी सत्ता के समर्थक कुछ  सपोले  लगातार विषवमन  किये जा रहे हैं। राष्ट्र - विरोधी नारेबाजी के लिए जिम्मेदार इक्का-दुक्का छात्रों   को समझाइश देने के बजाय  पत्रकारों ,छात्रों और विपक्षी नेताओं पर हमले करना -कौनसा  राष्ट्रवाद है ? विरोध की आवाज को  दबाने या  सूली पर लटकाने का पुख्ता इंतजाम किया जा रहा है। इससे  तो देश में अलगाव  और पनपेगा। इसके लिए वही जिम्मेदार होंगे जो राष्ट्रवाद के नाम पर  शुद्ध फासिज्म परोस रहे हैं ! श्रीराम तिवारी !    

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

भारत में किसी भी तरह की सर्वहारा क्रांति का मार्ग अभी भी अवरुद्ध है !

 देश का विभाजन और आधी -अधूरी आजादी मिलने के  कुछ ही महिनों बाद जहाँ एक ओर  भूतपूर्व सामंतों-जागीरदारों और बेईमान धनिक वर्ग ने संसदीय राजनीति पर कब्जा जमा लिया था। वहीँ दूसरी ओर अंग्रज प्रभु  की असीम  अनुकम्पा -प्राप्त जातीय - आरक्षणवादी  नेतत्व भी लगातार जातीयता और मजहबी आधार पर समाज  को बांटने में जुट गया था । उनकी इस फितरत को वोट कबाड़ने  का  प्रयास भी माना जा सकता है। इन जातिवादी नेताओं का राष्ट्रवाद ,देशभक्ति,धर्मनिरपेक्षता - समाजवाद से कभी कोई सरोकार नहीं रहा । ये  गैर कांग्रेसी ,गैर कम्युनिस्ट और गैर भाजपाई  जातीय नेता अपने वैयक्तिक  हितों की खेती करने में जुट गए ।

 कुंठित  मानसिकता के ये  'अराष्ट्रवादी ' नेता लोग  सामाजिक अलगाव के  आंदोलन चलाकर,तिलक-तराजू और तलवार,या वामन बनिया ठाकुर छोड़,,के नारे लगाकर ,बहुजनवाद की  भयानक खाई में खुद ही ओंधे मुँह जा गिरे ! ये छुद्र नेता  जब अकेले ही आम चुनाव जीतकर  भारत राष्ट्र के  सर्वेसर्वा नहीं बन पाये तो  फिर झक मारकर राष्ट्रीय राजनीति की मुख्य धारा के सौदेबाज  हो गए। इससे पहले आजादी से पूर्व यही काम जिन्ना ने भी  किया था और उसने अंग्रजों की शै पर पाकिस्तान भी ले लिया था।  बटवारे के दौरान सक्षम और ताकतवर हिन्दू तो भारत आ गए लेकिन  अधिकांस कमजोर वर्ग के  दलित ,आदिवासी और निर्धन ब्राह्मण वहीँ रह गए। इस्लामिक पाकिस्तान में इन बेचारों को कट्टरपंथी जमातों ने जीते जी मार दिया ! जिन लोगों ने  सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान को सता -सता कर मार डाला ,उनके परिवार को नष्ट कर दिया ,जिन्होंने जिए सिंध के बड़े नेता को ताजिंदगी जेलों में ठूँस रखा ,जिन्होंने १४ साल की बच्ची मलाला यूसफ जई  को ही नहीं बख़्शा उन्ही शैतानों ने पाकिस्तान में शेष बचे हिन्दुओं को और खास तौर से उनकी बहु -बेटियों का सर्वस्व नष्ट कर दिया।      
इधर भारत में दारुल हरब बनाम दारूल  हरम  सिद्धांत पर चलकर अधिकांस अल्पसंख्यक नेता न केवल  'इंडियन मुस्लिम' को मुस्लिम इण्डिया में  नचाते  आरहे हैं । बल्कि सत्तारूढ़ वर्ग से  टैक्टिकल वोटिंग की तालमेल बिठाकर अपना निजी हित  साधते आरहे हैं। जो ऐंसा नहीं कर सके ,सामंजस्य नहीं बिठा सके वे विपक्षी गठबंधन या विद्रोही  लाबी के बगलगीर होते चले गए। जो इन दोनों  ही रास्तों पर चलने का साहस नहीं जुटा सके  वे धर्म-परिवर्तन और जेहाद जैसे ओछे हथकंडों  पर भी उत्तर आये। और जो यह भी नहीं कर सके वे आतंकी  होते चले गये। इस वैचारिक दरिद्रता और चारित्रिक अधःपतन  के लिए वे खुद जिम्मेदार रहे  हैं। याकूब  मेमन और अफजल गुरु की फांसी के बहाने ये तत्व  भारतीय न्याय पालिका को बार-बार रुसवा किये जा रहे हैं।  इसी तरह  दलित और पिछड़ों की बदहाली पर मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले दलित नेता ,पिछड़े नेता भी इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल की शरुआत तक केवल अपनी जाति का ही जाप किये जा रहे हैं। वे उस संविधान  का ही सम्मान नहीं कर सके  जो उनके  ही 'महान आदर्श' नेता के कर कमलों द्वारा सृजित किया गया  है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र रोहित बेमुला  की 'आत्महत्यास' के प्रसंग में शायद उसी  परम्परा का निर्वाह किया  गया है।

 चूँकि मुख्यधारा का सत्ताधारी वर्ग कभी कांग्रेस और कभी गैर कांग्रेसवाद को ही आजमाता रहा है। यह वर्ग  उद्दाम आवारा पूँजी की बदौलत देश के विकास की आड़ में खुद के विकाश की कोशिश में जुटा रहता है। इस वर्ग के लिए जातीयता और मजहबी सरोकार महज लोकतांत्रिक खाद-पानी है। सामाजिक विषमता और मजहबी उन्माद तो उनके लिए चुनावी  जीत के साधन  मात्र है। कांग्रेस-भाजपा के रूप में सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग के  राजनैतिक संस्करण का लाभ केवल ,बिचोलियों  अफसरों और भृष्ट नेताओं तथा उनके पॉलिटिकल  स्टैक होल्डर्स को ही मिलता रहा है। देश के गरीबों किसानों  -मजदूरों की  दुर्दशा पर आंसू बहाने वाला कोई नहीं रहा ।  लालू  मुलायमसिंह का समाजवाद  केवल पिछड़ों -अल्पसंख्यकों के लिए है। नीतीश-ममता और मायावती के मन में केवल अल्पसंख्य्क और दलित-पिछड़े वोटों का लालच भरा हुआ है। देश  के लिए उनके मन में कोई स्थान नहीं। सिर्फ वामपंथ ही है जो सभी के हित की बात करता है. उसका नारा है 'दुनिया के मजदूरो एक हो '!

भारत में  इन दिनों देश की दक्षिणपंथी ताकतें जानबूझकर भारतीय सम्विधान ,कांग्रेस और वामपंथ को टारगेट कर रहीं हैं।  ये पूँजीवादी -सम्प्रदायिक ताकतें भूल रहीं हैं कि  कांग्रेस की सेहत पर इनके हमलों का  कोई असर नहीं पडेगा। क्योंकि वह तो 'अमरवेलि' है। ''ज्यों जहाज का  पंछी 'पुनि जहाज पै  आवे '' इसलिए ही तो उसे बिना किये धरे ही आपातकाल लगाने के वावजूद  सत्ता वापिस मिल जाती है। १९८४ के दंगे भूलकर जनता फिर उसी  कांग्रेस को सत्ता में ले आती है। अटल-आडवाणी का 'इंडिया शाइनिंग' व 'फीलगुड' भूलकर जनता पुनः 'विदेशी' सोनिया जी को स्वदेशी मान लेती है। उन्हें इज्जत से देश की सत्ता सौंप देती है। भले ही वे  सिंहासन पर खुद न बैठ पाईं हों और  'मनमोहनसिंह' जी को बिठातीं रहीं हों ! लेकिन  वामपंथ को तो उसके 'जन -संघर्षों के परिणाम का ,उसकी निष्काम कर्मयोग वाली क़ुर्बानियाँ का केवल इतिहास ही हाथ लगा है। भारतीय वामपंथ को ही क्रूर   काल की कठोर नियति क्यों  हमेशा ठगती रहती है ? जेएनयू  प्रकरण में कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है।यह  जेएनयू की वैश्विक और वामपंथी छवि के प्रति दक्षिणपंथ का सौतिया डाह  जैसा मामला है। लेकिन 'अमानक' नारेबाजी  से बौखलाकर खुद केंद्र सरकार व  संघ के सभी आनुषंगिक संगठनों ने पूरे देश में कांग्रेस और उनके  उपाध्यक्ष  राहुल गांधी पर हल्ला  बोल दिया है।  मोदी सरकार जो भी कर रही है वो कांग्रेस की वापिसी का ही इंतजाम कर रही है। किन्तु वामपंथ को क्या मिलेगा ? शायद  दो-चार वामपंथी  बुद्धिजीवी  प्रोफेसर और छात्र जरूर 'लाल झंडा -जिन्दावाद' का नारा लगाने में साथ देने लग जायेंगे  ! किन्तु भारत में  किसी भी  तरह की सर्वहारा क्रांति  का मार्ग अभी भी अवरुद्ध है ! 

के पास  तो खोने के लिए कुछ  भी नहीं है। केवल त्रिपुरा की माणिक सरकार ही शेष बची है।  और वैसे भी  साम्यवादियों का लक्ष्य  इस  दोषपूर्ण  पूँजीवादी व्यवस्था में महज सत्ता प्राप्ति नहीं  है । बल्कि सर्वहारा क्रांति ही उनका अंतिम अभीष्ट है। और उस लक्ष्य को पाने के लिए  संसार का सम्पूर्ण सर्वहारा उनके साथ है। उनके पास बेहतरीन  वैज्ञानिक विचारधारा है। किन्तु देश की युवा पीढ़ी को अभी इस दौर में वैज्ञानिक  धर्मनिरपेक्ष तथा जनवादी -इंकलाबी विचार कुछ ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाये  है। चूँकि आईएसआईएस और अन्य इस्लामिक आतंकी संगठनों का दुनिया में बहुत बोलवाला है ,अपितु  उनकी देखा देखी न केवल भारत  के  बल्कि दुनिया भर के हिन्दू युवाओं में 'संघ परिवार' की हिन्दुत्ववादी विचारधारा के प्रति आकर्षण बढ़ रहा  है।

 भारतीय  वामपंथ की आवाज  इन दिनों -बुद्धिजीवियों, छात्रों ,साहित्यकारों ,दलितों  और अल्पसंख्यकों के लिए ही उठ रही है। उठनी भी चाहिए क्योंकि  वे वाकई  शोषित -पीड़ित  हैं।  इन वंचित वर्गों का समर्थन  करना बहुत  अच्छी बात है। किन्तु  निर्धन गरीब  सर्वहारा वर्ग  में तो सभी वर्ग के वंचित शामिल हैं ,वे भी वेरोजगार और गरीब  हैं जो कुदरत की गलती से ठाकुर,वामन या कोई और सवर्ण घर पैदा हो गये हैं । फिर केवल पिछड़ा,दलित और अल्पसंख्यक  राग ही क्यों छेड़ा जा रहा है ? इनकी अभिव्यक्ति की  बात  ही जुदा  क्यों उठाई जा रही है ? और यदि  उनकी बात पृथक से की जा रही है , तो गरीब बेरोजगार ,दमित ,वंचित सवर्ण सर्वहारा की बात कौन उठाएगा ? कहीं  गरीब -वेरोजगार और असहाय  सवर्णों के लिए उनकी  तथाकथित 'ऊंची जात'  ही अभिशाप  तो नहीं बन गयी है? जिन गरीब छात्रों  ने  सवर्ण होने के अभिशाप वश जेएनयू का ,हैदराबाद विश्विद्यालय का या पूना फिल्म इंस्टीटूट का नाम भी नहीं  सुना हो ,अपनी  फटेहाल माली हालत के चलते  प्रायमरी,मिडिल और मेट्रिक तक भी न पढ़ सकें हों , यदि उन्हें आरक्षण की बागड़ ने  खेत में ही घुसने न दिया हो  और हर तरफ कुत्ते की तरह दुत्कार कर भगा दिया गया हो ,उनकी लड़ाई कौन लड़ेगा ? क्या जेएनयू के सभी छात्र  बाकई  सर्वहारा हैं ? क्या हैदराबाद  विश्वविद्यालय का शोध छात्र रोहित बेमुला बाकई  यतीम था ? क्या  लम्बे -लम्बे  बालों वाले  और  फ़ेसनेबुल दाढ़ी  वाले फिल्म इंस्टीटूट  के आंदोलनकारी छात्र बाकई सर्वहारा हैं?

इन दिनों मीडिया ,राजनीती और बौद्धिक  विमर्श के केंद्र में केवल निम्न वर्ग की जातीयता और साम्प्रदायिक विमर्श की ही गूँज है। पूरी कौम ,पूरा सर्वहारा पूरा देश और पूरा का पूरा भारतीय समाज हासिये पर धकेल दिया गया है। 'वर्ग संघर्ष' की बात कोई नहीं करना चाहता। भारत का अर्धसामन्ती और अर्धपूँजीवादी शासकवर्ग यही तो  चाहता है। किसे नहीं मालूम आरक्षण का लाभ केवल कुछ मुठ्ठी भर दलित-पिछड़े और मौकापरस्त ही उठाये जा रहे  हैं ?जबकि भारत की ९०%  दलित-पिछड़ा -अति पिछड़ा आबादी अभी भी या तो निर्धन सर्वहारा वर्ग में शामिल है या निरक्षर है। सवर्ण तो दूर की बात ये  वंचित दीन -हीन दलित भी नहीं जानते कि  उनके आरक्षण का हक कौन लोग  मार रहे हैं। उन्हें लगातार भरमाया जाता रहा है कि  उनके दुखों-कष्टों और अभावों के लिए सवर्ण लोग जिम्मेदार हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि इस अपराध के लिए सवर्ण जन नहीं बल्कि वह कुटिल  शासक वर्ग जिम्मेदार है जिसमें कि अर्धसामन्ती,अर्धपूँजीवादी और आरक्षणवादी नेता शामिल हैं।  भारत की दुर्दशा के लिए अर्धसामन्ती-अर्धपूँजीवादी और आरक्षणधारी वर्ग जिम्मेदार है ।यह नापाक गठजोड़ ही भारत में वर्ग संघर्ष को पनपने नहीं दे रहा है। भारतीय दक्षिणपंथ को यही  माहोल मुफीद है।

सुखद सम्भावनाओं के द्वार इस पूँजीवादी मशक्कत से तो शायद ही खुल सकें। हो सकता है कि वर्तमान मोदी सरकार को भी विगत मनमोहनसिंह सरकार की अबूझ अनगढ़ आर्थिक नीतियों  में भारत  का  समग्र विकास या भारतीय समाज का उज्ज्वल भविष्य परिलक्षित हो रहा  हो ! इंदिरा युग की कुछ आंशिक सफलताओं के अलावा  अभी तक इस देश के पास कुछ भी गर्वोक्ति के लायक नहीं है।  वेशक  भारत की  युवा पीढ़ी में अकूत  सम्भावना मौजूद है। हो सकता है कि उदंड आवारा पूँजी और उदारवादी विकास के पैटर्न को  वैश्विक परिदृश्य पर  भारत की जलवायु  और युवा श्रम शक्ति पसंद  हो । लेकिन इसके लिए भी उसे  सुशासन और  शांति की बेहद आवश्यकता है। सुशासन और शांति तभी संभव है जब भारत में  लोकतंत्र बना रहे । सहिष्णुता बनी रहे ।  भृष्टाचार ,महँगाई  और आतंकवाद  पर सरकार का कुछ  नियंत्रण हो। यदि मोदी जी चाहते हैं कि उनके  'मन की बात' को अमली जामा  हर हाल में  पहनाया जाए तो उन्हें कम से कम अपने  संगी साथियों को तो अवश्य  नियंत्रित करना चाहिये। जो करते धरते तो कुछ  खास नहीं किन्तु उनके  फ़ूहड़ बोल-बचन  और विषयांतर से देश में अराजकता ,असहिष्णुता  और असामाजिकता का वातावरण अवश्य बना रहता हैं। जन सरोकारों के विषय गर्त में धकेल दिए जाते हैं।

 चाहे आधुनिकतम तकनीकी  इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट हो ,चाहे मानव संसाधन और स्किल डेवलपमेंट की बात हो ,चाहे सुशासन और विकास की आम जरूरत हो ,सभी मामलों में  भारत अभी  'ग्रोथ क्राईसस' से गुजर रहा है। जिस तरह कोई  सद्द प्रसूता स्त्री  ततकाल अपने घर का  चौका -चूल्हा नहीं संभाल सकती। यदि घर में उसी समय  चोर -डाकु  घुस आएं ,तो मुकाबला  भी नहीं कर सकती। इन हालात में  उस प्रसव वेदना से पीड़ित महिला से घर के विकास या  तरक्की की उम्मीद करना और  भी नादानी होगी। ठीक यही स्थिति  जातीय और मजहब पर आधारित लोकतंत्र  वाले साठोत्तरी  भारत  की भी  है। फिलहाल  भारत अर्ध पूँजीवादी  और अर्ध सामंती  ग्रोथ क्राइसस से गुजर  रहा है। एक सद्द प्रसूता स्त्री की तरह भारत को भी  चौतरफा संकट  से जूझना पड़  रहा है। देश में  व्याप्त भृष्टचार पर किसी का कोई अंकुश नहीं। विदेशों में जमा काले धन का अता -पता नहीं। बहुध्रुवीय ,बहुजातीय ,बहुधर्मीय ,लोकतांत्रिक भारत  में राजनीति  के नाम पर संसद में अनुशासन  का घोर अभाव है।

 कुछ जातिवादी लोगों को सिर्फ अपने आरक्षण और अपने हकों की  ही चिंता है। जातिगत ताकत के बल पर सत्ता हथियाने की चिंता है। इसी तरह कुछ खास मजहब के अराष्ट्रवादियों  को केवल अपने 'विशेषाधिकर की चिंता है। उन्हें देश पर हो रहे आतंकी हमले  दिखाई नहीं देते। उन्हें बाहरी दुश्मनों द्वारा  भारत पर हो रहे हर तरह के  आर्थिक हमले दिखाई नहीं देते। उन्हें पाकिस्तान प्रेषित  नकली करेंसी और ड्रग माफिया की काली करतूत दिखाई नहीं देती। देश में हो रहीं रोज-रोज  दर्जनों अकाल मौतें उन्हें दिखाई नहीं दे रहीं हैं । रोज सैकड़ों लोग  रोड एक्सीडेंट से मर रहे हैं. कुछ भूंख से मर रहे हैं लेकिन  इन के लिए वे  आह तक नहीं भरते। वोट की राजनीति का दस्तूर चल पड़ा है कि भारत में यदि कोई नकली सर्टिफिकेट बनवाकर दलित हो जाए और पोल खुलने के डर से  वो  आत्म हत्या कर ले तो उसे शहीदों की मानिंद  पेश किया जाता  है। दलित शोषण का पाखंडी ढपोरशंख बजाया जाता है। सारे संसार में भारतीय समाज व्यवस्था की जमकर खिल्ली उड़ाई जाती है। वोट के आकांक्षी नेता  भी मीडिया के सामने ,कैमरे के सामने ,मगरमच्छ के आंसू बहाने लगते हैं। छिः ! धिक्कार है !

इसी तरह यदि कोई लुच्चा-लफंगा अपना खुद का धर्म -मजहब छिपाकर किसी दूसरे धर्म-मजहब की लड़की को बहला फुसलाकर भगा ले जाए तो कुछ धर्मनिरपेक्ष लोगों को उसमें असहिष्णुता नजर आने लगेगी और कुछ  संकीर्ण मानसिकता  के लोगों को उसमें लव जेहाद दिखाई दने लगता है। जबकि यह विशुद्ध कानून और व्यवस्था का मामला है। फ्राड और लुच्चे-लफंगे  लोग  'लव जेहाद' कर ही नहीं  सकते। ये तो वे दलाल और  बदमास  हैं जो मजहब के नाम पर कलंक है। दुबई या अरब के  ऐयास शेखों के सामने  भारत की हजारों मासूम बच्चियों को परोसने वाले गुनहगारहैं।  ये ही अपने आकाओं को  डॉन कहते हैं। जब कोई देशी दलाल  कानून के चंगुल में फंस जाता है तो उसके पक्ष में ममता बेनर्जी ,केजरीवाल और जनाब ओबेसी खड़े हो जाते हैं।

 सारी  दुनिया में भारत की थू-थू होने लगती है की कितना असहिष्णु  राष्ट्र है ?  का धर्म-मजहब छुइ-मुई तो किसी की जात छुइ-मुई। मजहबी - धार्मिक  जातीयतावादी  पाखंडियों को अपने-अपने ठियों  याने पाखंड के ठिकानों  की चिंता है।  भारत का यह नव सुविधा भोगी वर्ग केवल संवैधानिक अधिकार की बात करता है। वोट की राजनीति में खुल्लेआम ब्लेकमेलिंग हो तो काहे  का लोकतंत्र और काहे  का सुशासन ? अपने हिस्से की क़ुरबानी का बक्त जब आता है तो यह वर्ग उम्मीद करता है कि  देश में भगतसिंग तो पैदा हो ,किन्तु उसके घर में नहीं ,बल्कि पड़ोसी के यहाँ पैदा हो।  वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत को अंतराष्टीय बाजारवादियों ने पहले ही किनारे कर रखा है। डॉलर की ताकत के सामने रुपया वर्षों से ओंधे मुँह पड़ा है। आयात -निर्यात का असंतुलन बर्दास्त से बाहर है। पाकिस्तान -चीन और इस्लामिक आतंक ने भारत को  चारों ओर से घेर  रखा है। इन हालात में यह देश  'स्मार्ट इण्डिया' कितना  बन पायेगा ? यदि कुछ बन भी गया तो  उसका लाभ दमित-शोषित वंचित वर्ग को  भी मिलेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। इस परिदृश्य को इस दौर के साहित्यकार ,कलाकर और बुद्धिजीवी केवल  असहिष्णुता या 'संघ परिवार' की आलोचना में ही  देख आरहे हैं। जबकि इस्लामिक  आतंकवाद को  ये धर्मनिरपेक्ष-जनवादी संगठन  बहुत  हल्के  से ले रहे हैं । यह  निराशजनक है। सम्मान वापसी के खेल से  भारत में इस्लामिक आतंकवाद के हमलों में तेजी आई है।  

 सीरिया हो या ईराक  हो ,सूडान हो या सऊदी अरब हो ,अल्जीरिया हो या अफगानिस्तान हो , भारत हो या पाकिस्तान हो, पठानकोट हो या पेशावर हो ,काबुल हो या कश्मीर हो 'वे 'हर जगह  बिना राग -द्वेष - भय या  पक्षपात के ,पूरे सम्यक भाव से  खून की होली खेल रहे  हैं। उनकी  बंदूकों से निकली हर गोली पर ,उनके द्वारा किये गए   हर  किस्म के  कत्लेआम  पर उन्हें नाज है। उस पर तुर्रा ये कि  यह कुकृत्य करते हुए वे नारा लगाते हैं 'अल्लाह इज़ ग्रेट '!  इसमें क्या शक है ? यह तो सभी जानते और मानते हैं कि  बाकई ''अल्लाह इज ग्रेट''  !लेकिन उस परवरदिगार की महानता क्या  मानवमात्र के रक्तपात में निहित है  ?

भारत के प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोग [मैं खुद भी] हमेशा यह मानते आये हैं कि भारत में साम्प्रदायिकता  , फैलाने ,अलगाववाद रोपने और देश के बटवारे  के लिए अंग्रेजों की 'फुट डालो-राज करो ''की नीति जिम्मेदार है। आजादी के बाद से हम सब  यही मानते आ रहे हैं कि भारत में साम्प्रदायिक उन्माद के लिए हिन्दू -मुस्लिम कटटरपंथी दोनों  ओर के कटटरपंथी जिम्मेदार हैं। हो सकता है कि  स्वाधीनता संग्राम को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने  भारत में  बाकई अलगाव का बीज वपन किया हो ! हो सकता है मुस्लिम लीग ,हिन्दू महा सभा और आरएसएस वाले भी  समान  रूप से मजहबी झगड़ों के लिए  कुछ हद तक कसूरवार हों ! किन्तु  यदि सऊदी अरब और ईरान में  कूटनीतिक जंग छिड़ी है  तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है ?  यदि आईएसआईएस वाले सीरिया ,इराक ,फ़्रांस ,अमेरिका और सारी  दुनिया में आग मूत  रहे हैं ,रूस का विमान ध्वस् कर रहे हैं ,तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? इक्कीसवीं सदी का सोलहवाँ साल और मेरा भारत महान

प्रगतिशील और वैज्ञानिक नजरिया झूँठ  पर आधारित नहीं हो सकता। तलवार और सुई  को बराबर मानना या हाइड्रोजन बम और दीवाली के पटाखे की तुलना करके बराबर दिखाना  ही प्रगतिशीलता या वामपंथी दृष्टिकोण है तो ऐंसा दम्भी प्रगतिशील -क्रांतिकारी कहलाना मुझे मंजूर नहीं। जिस नजरिये में खूँखार -आदमखोर बहसी  इस्लामिक आतंकियों के सापेक्ष केवल मुँह चलाने वाले ,गाल बजाने वाले ,पतली दाल और धनिया पुदीना खाने वाले हिन्दुत्ववादियों को  यदि ज्यादा खतरनाक माना जाए,तो इस असत्याचरण  को देश की जनता क्यों पसंद  करेगी ? इस इक्कीसवीं सदी के सोलहवें साल की शुरुआत में पाकिस्तान के आतंकी शिविरों मे प्रशिक्षित  और पाकिस्तान के  फौजी जनरलों के पालतू कुत्तों ने  भारत के पठानकोट एयरबेस पर ही आक्रमण कर दिया। यही नहीं  उसके तुरंत बाद  उस  आतंकी नरक के दूसरे  कीड़ों ने  चारसद्दा स्थित बाचा यूनिवर्सिटी पर भी हमला कर दिया। दरसल दक्षेस में  पाकिस्तान के आतंकियों और उसके फौजी जनरलों के अलावा कोई सुरक्षित नहीं है। इसके वावजूद  वहाँ  किसी साहित्यकार,बुद्धिजीवी ,लेखक और फिल्मे हीरो को असहिष्णुता की शिकायत नहीं।  अफगानिस्तान ,सीरिया और इराक की धरती मानव लहू से लाला हो रही है ,लेकिन वहाँ  के लोगों को किसी तरह की  कोई शिकायत नहीं है। यदि है भी तो वे सम्मानपदक नहीं लौटा रहे है ।

 वेशक जो  बाहरी ताकतें  भारत में कोहराम मचा रहीं  हैं ,देश को बर्बाद करने के मंसूबे बाँध रहीं  हैं वे ही देश के  और असहिष्णुता के  बीच द्वन्द के लिए जिम्मेदार हैं। कुछ लोग यह  दुष्प्रचार कर रहे हैं कि हिन्दुत्ववादियों  की ताकत बढ़ने से उन्हें राज्य सत्ता मिलने से यह झगड़ा पैदा हुआ है।  क्या बाकई भारत के धनिया-पालक खाने वाले  फलाहारी हिन्दूओं से  या चना-चबेना -सत्तू -खाने वाले संघियों से  किसी प्रकार की  हिंसक  और  तामसिक असहिष्णुता  का  अंदेशा है ?  कथा बाचक,भजन गायक और योग सिखाने  वाले साधुओं या उनके आश्रित लफंगों  को इस बहाने अपने व्यापारिक साम्राज्य  विस्तार  का भरपूर अवसर प्राप्त है। इन  बाबाओं की  राजनैतिक समझ ही कितनी  भौंथरी है कि  वे पाकिस्तान को  और आतंकवादियों को अपनी  मन्त्र शक्ति से भस्म करने के बजाय अपनी गर्दभ बाणी से उकसाने पर तुले हैं। क्या  इन अनंग -धडंग निहत्ते  बाबाओं की उन आतंकियों  से कोई बराबरी की जा सकती है , जो हाइड्रोजन बम की  ताकत से लेस हैं ? जो अमेरिका की वर्ल्ड ट्रेड बिल्डिंग गिरा सकते हैं। जो पेंटागन पर हमला कर सकते  हैं। और जो व्हाईट  हाउस या शार्ली एब्दो पर भी   हमला कर सकते हैं।

  भारत में अलगाव और आंतरिक विग्रह की  इस नियति के लिए केवल बाहरी ताकतें ही जिम्मेदार  नहीं हैं  . बल्कि खुद यहाँ के  सत्तारूढ़ कटटरपंथी हिन्दुत्ववादी भी बहुत  हद तक जिम्मेदार  हैं। चूँकि  पूंजीवाद की पतनशील  अधोगामी व्यवस्था के संदर्भ में  उनकी कोई रणनीति या सोच ही नहीं  है, अतएव वे वोट तो हिंदुत्व के नाम पर खूब  बटोर लेते हैं ,किन्तु हिंदुत्व के नाम पर राज नहीं कर पा रहे हैं। उनकी यह  कमजोरी किसी से छिपी नहीं है। उनसे न तो गंगा स्वच्छ हो पा रही है और न राम लला मंदिर बन पा रहा है। एक  देश भर एक कानून तो दूर की बात  केंद्र में सत्तारूढ़ होते हुए भी कश्मीर में स्थिर सरकार नहीं बना पाये हैं। एक आचार संहिता ,एक सोच तथा एक आदर्श के फासीवादी सिद्धांत को कार्यान्वित कर पाने में वे पूरी तरह असमर्थ हैं।  चूँकि वे  देश का संविधान बदल सकने में सक्षम नहीं हैं ,इसलिए हर मोर्चे पर असफल होना उनकी नियति है। वे केवल विपक्ष पर झूँठे  आरोप लगा सकते  हैं। वे केवल  राष्ट्रवाद का आभासी ढपोरशंख बजा सकते हैं ।  लेकिन वे  न तो देश का विकास  कर सकते हैं और न ही  अपनी कोई विश्वश्नीयता स्थापित  कर सकते हैं ! दूसरी ओर  भारत में सर्वहारा क्रांति के मार्ग में जातीवादी और  साम्प्रदायिक समाज चीन की दीवार बनकर खड़ा है। इसलिए वामपंथ को आर्थिक,सामाजिक या व्यवस्था गत बदलाव के लिए अभी और इन्तजार करना होगा !

   श्रीराम तिवारी !

यदि जे एनयू में पाकिस्तानी एजेंट घुसे आयें हों तो यह ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी !

 

 केंद्रीय मंत्रिमंडल के सभी मंत्रियों में संभवतः सबसे ज्यादा अनुभवी कुशल प्रशासक एक मात्र स्वयंभू 'सहिष्णु' - धर्मनिरपेक्षतावादी एवं राजनीति के  जमीनी नेता श्री राजनाथसिंह जी की बौद्धिक क्षमता का उनके विरोधी भी सम्मान करते हैं। किन्तु इतने प्रखर विद्वान व वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री को अपनी ही कही हुई  किसी बात में वजन डालने  के लिए  या कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए पाकिस्तान में छिपे  हुए किसी भारत विरोधी व  आतंकी हाफिज सईद की गवाही की दरकार क्यों आन पडी ?  हमारे लिए तो देश के गृहमंत्री का वयान  ही काफी है। यदि जेएनयू  की घटना में कोई दोषी है तो कानूनी  कार्यवाही होनी  चाहिए !  राजनाथ जी को किसी भारत विरोधी आतंकी की आग लगाऊ वयानबाजी  का सहारा नहीं लेना चाहिए।  बल्कि उन्हें इस समस्या के निदान बाबत सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिये !

  ग्रह मंत्री जी को हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि जब पाकिस्तानी आतंकी भारत के सबसे सुरक्षित पठानकोट एयरबेस में घुस सकते हैं , जब वे मुंबई के ताज होटल में घुस सकते हैं, जब वे संसद में घुस सकते हैं ,तो जेएनयू में क्यों नहीं घुस सकते ? जेएनयू के कुछ उत्साही  छात्रों ने कोई प्रोग्राम रखा और यदि  जे एनयू में पाकिस्तानी एजेंट घुसे आयें हों तो  यह तो ग्रह मंत्री की ही चूक मानी जाएगी !  यह भी समभव है कि  किसी दक्षिणपंथी छात्र संगठन के बदमास शोहदे उस कार्यक्रम में पाकिस्तानी झंडा लहराने घुसे हों !  सिर्फ मीडिया के हो हल्ले या और  'माऊथ पब्लिशिटी 'के आधार पर उस कार्यक्रम के आयोजकों कोगिरफ्तार करना उचित नहीं है ।यह  हड़बड़ी में उठाया गया एकदम हो सकता है।  हम सभी भारतीय जानते हैं कि जम्मू- कश्मीर में अभी-अभी तक  भाजपा  समर्थित पीडीएफ की मुफ्ती मुहम्मद  सरकार  रही है ।  इस दौर में अनेक बार  श्रीनगर-लाल चौक व कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लहराए गए।  पाकिस्तान -जिन्दावाद के नारे  भी  लगाये गए। तो इन हरकतों-  घटनाओं  को देशद्रोही  क्यों नहीं माना गया। और यदि माना  गया है तो अब तक किस -किस पर कार्यवाही की गयी ? यदि कोई कार्यवाही नहीं की गयी तो क्यों न पूरी भाजपा सरकार और संघ परिवार को  ही देशद्रोही मान लिया जाए ? फिर राष्ट्रवाद का  झूंठा तमगा अपने सीने पर लटकाये हुए 'बड़बोलु' भृष्ट नेताओं को क्या अधिकार है कि  गाहे-बगाहे किसी को भी 'देशद्रोही' का तमगा जबरन पहनते फिरें ?

 तब मुफ्ती मोहम्मद सईद सरकार को समर्थन देने वाले और उसमें शामिल भाजपाई मंत्रियों  की कश्मीर में उन देशद्रोही घटनाओं में क्या जिम्मेदारी थी ? उनसे  त्यागपत्र क्यों नहीं  लिया गया  ? केंद्र की मोदी सरकार ने उस राज्य सरकार को बर्खास्त क्यों नहीं किया ? यदि बर्खास्त करने की ताकत नहीं थी तो कम से कम वहाँ पर कुछ दिनों के लिए  राष्ट्रपति  शासन ही लगाकर दिखाते ! जे एन यू के जिस कार्यक्रम  को लेकर 'नकली राष्ट्रवादी  ' हलकान हो रहे हैं  और उस का जो वीडीओ सामने आया है उसमें तो एबी वी पी  के  ही विद्यार्थी चिन्हित किये गए हैं। और 'सनातन सभा ' वाले तो आरएसएस का खुलकर नाम ले रहे हैं। अब  राजनाथ सिंह जी और भाजपा के प्रवक्ताओं ने अपनों को बचने के लिए और गढ़े  हुए  झूंठ को सच  सावित करने  के  लिए  हाफिज सईद के उस  वयान का सहारा लिया है जिसमें वह 'गन्दा आदमी'जेएनयू के छात्रों के समर्थन की बात कर रहा है। क्या  'संघ परिवार' के इतने बुरे दिन आ गए  हैं ,या कि अपनी ही न्याय पालिका का भरोसा नहीं रहा और पाकिस्तानी आतंकियों के वयानों से अपनी राजनैतिक खेती करने में जुटे हैं। इतनी गंदी राजनीति तो कांग्रेस ने भी नहीं की होगी।  केंद्र सरकार  और संघ परिवार  ने 'राष्ट्रवाद 'का  जो घातक  उन्माद फैला रखा है वह आईएसआईएस के  आतंकी खतरे से भी भयानक हो सकता है। क्योंकि उसका आधार सिर्फ गप्प और  असत्याचरण ही है ? जबकि  आईएसआईएस अपनी तमाम अमानवीयताओं  के वावजूद किसी राष्ट्रीय सत्ता का भूँखा नहीं बल्कि  वैश्विक  जेहाद का तलबगार है ! उसकी मंशा से  किसी को  भी कोई शक नहीं ! किन्तु भारत के ढपोरशंखी स्वयंभू राष्ट्रवादी  केवल भरम फैला रहे हैं। 
 
 श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

अफजल गुरु,याकूब मेनन कोई शांति के मसीहा नहीं थे !


 होली का त्यौहार अभी  नहीं आया ,किन्तु हमारे जम्बूदीपे -भरतखण्डे  के विनोदी सियासतदां एक दूसरे  का मजाक उड़ाने में अभी से व्यस्त हैं। पीएम नरेंद्र मोदी जी कांग्रेस और राहुल का मजाक उड़ाते रहते हैं। राहुल गांधी  भी जब कभी केरल जाते हैं ,तो  एक सांस में  पीएम नरेंद्र मोदी जी का और केरल की मुख्य  विपक्षी पार्टी सीपीएम  का मजाक उड़ाते रहते हैं। बंगाल में ममता के तृणमूली गुंडे बात-बात  में सीपीएम ,भाजपा  तथा मोदी सरकार का मजाक उडाते रहते  हैं।  आप के नेता केजरीवाल कभी  दिल्ली पुलिस  का ,कभी  उप-राज्यपाल  नजीब जंग का और  कभी पीएम मोदी जी का  मजाक उड़ा रहे हैं। कश्मीरी अलगाववादी देश के शहीदों  का मजाक उड़ा रहे हैं। लालू-मुलायम -नीतीश -शरद यादव -ये सभी 'समाजवाद' का मजाक उड़ा रहे हैं। हिन्दुत्ववादी संगठन धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे हैं। जो किसी का मजाक उड़ाने की स्थति में नहीं  है वो खुद  का ही मजाक उड़वा  रहे हैं। जैसे कि पूना,हैदरावाद और जेएनयू के छात्र !

इसी तरह वामपंथी नेता ,कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी भी कहने को तो फासीवाद ,पूंजीवाद  और साम्प्रदायिकता से लड़ रहे हैं। किन्तु  आवाम की नजर में वे खुद अपना ही  मजाक उड़वा रहे हैं। चाहे फिदायीन इशरत जहाँ का  मामला हो , संसद पर हमले के जिम्मेदार अफजल  गुरु का मामला हो ,चाहे मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार याकूब मेमन की फाँसी का  सवाल हो , चाहे देश भर में व्याप्त आतंकी घुसपैठ का सवाल हो ,इन  माँमलों  में देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने वालों की पैरवी  क्यों ?  जब  कभी चीन की फौज विवादित क्षेत्र से भारत में घुस आती  है तो क्या  सीपीसी का कोई  भी सदस्य उस 'पीपुल्स आर्मी' का विरोध करता है ? क्या कभी  किसी चीनी नेता  या कामरेड ने लाखों  निर्वासित तिब्बतियों के लिए आक्रोशित होकर  शी जिन पिंग -मुर्दावाद का नारा लगाया ?

चीनी कामरेडों ने तो दलाई लामा 'जिन्दावाद  का  नारा  कभी  नहीं लगाया ! और नहीं लगाया तो अच्छा ही किया। क्योंकि दलाई लामा  तो अमेरिकन सम्राज्य्वाद के पिछलग्गू हो गये थे। हमारे भारतीय कामरेड क्या सीपीसी से कुछ सीखेंगे ? अफजल गुरु,याकूब मेनन कोई शांति के मसीहा  नहीं थे ! और दाऊद ,हाफिज सईद, छोटा अंकल -बड़ा अंकल -कोई दलाई लामाँ  हैं क्या ? अफजल गुरु जिन्दावाद का नारा देने वाला -जेएनयू का छात्र कन्हाईलाल  अपने आपको कामरेड बताता है। और सीपीआई की छात्र शाखा एआईएसएफ का पदाधिकारी है तो मुझे उसकी वैचारिक सोच पर दया आती  है।  यदि कोई वामपंथी  उसकी इस हरकत का समर्थन करता है ,तो उसे भी कम्युनिस्ट  कहलाने का हक नहीं। यह मेरी  निजी  या कोरी सैद्धांतिक  स्थापना नहीं है।चीनी कयूनिस्ट पार्टी  का इतिहास ही प्रमाण के लिए पर्याप्त है। उत्तर कोरिया ,वियतनाम ,क्यूबा ,चिली ,बेनेजुएला या पूर्व सोवियता संघ  की कम्युनिस्ट पार्टी  के किसी सदस्य ने ऐंसा कभी नहीं किया। सोवियत संघ या रूस में तो  क्रांति के गद्दारों -गोर्वाचेव और येल्तसिन ने  भी  इस तरह अपने देश का मजाक नहीं उडाया होगा। फिर भी  यदि किसी को मजाक उड़ाने का बहुत शौक  चर्राया  है तो 'वर्ग शत्रु' का उड़ा लो न  कामरेड ! जो अपने ही देश का मजाक  उड़ायेगा ,तो सरकार भले ही माफ़ कर दे किन्तु देश की अवाम और सर्वहारा वर्ग  क्यों माफ़  करेगा ?

क्या विवेक ,बुद्धि ,प्रगति ,राष्ट्रनिष्ठा इत्यादि  रत्न केवल उनके ही पास हैं ,जिन्हे हम पूँजीवादी -साम्प्रदायिक कहते हैं ? आज  जो  लोग सत्ता से वंचित  हैं और सत्ता पक्ष का सिर्फ अंध विरोध ही करते चले जा रहे हैं। हो सकता है की  कल वे सत्ता में हों , क्या वे  तब भी इस तरह की हरकत करेंगे ? अभी जो जो   सत्ता में हैं  उन्होंने छल-कपट ,प्रलोभन  और भावनात्मक जन-दोहन करके  देश  की सत्ता  हथियाई  है ।  किन्तु ये लोग विपक्ष में होने के वावजूद देश के खिलाफ नारे तो नहीं लगाते ! अब  जो दल या व्यक्ति हार गए हैं ,यदि  वे सिर्फ विरोध के लिए विरोध ही जारी रखेंगे तो इसकी क्या गारंटी है कि  जनता आइन्दा उन्हें अवसर देगी। क्योंकि निषेध की  नकारात्मक परम्परा वैसे भी भारत के  स्वश्थ चिंतन  के अनुकूल नहीं है।  कौन महा मंदमति  होगा जो इस तरह के प्रमादी - नकारात्मक - आलोचकों का संज्ञान लेगा ?

 श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

करे धरती श्रृंगार ,दिन वासंती चार!


  पुरवा हुम -हुम करे ,पछुवा गुन -गुन करे ,

  ढलती जाए शिशिर की जवानी हो।


  आया पतझड़ का दौर ,झूमें आमों में बौर ,

  कूँकी  कुंजन में कोयलिया कारी हो।


  उपवन खिलने लगे ,मन मचलने लगे ,

  ऋतु फागुन की आई सुहानी हो।


  करे धरती  श्रृंगार ,दिन वासंती चार,

   अली करने लगे मनमानी हो।


  फलें -फूलें दिगंत ,गाता  आये वसंत ,

  हर सवेरा नया और संध्या सुहानी हो।


               श्रीराम तिवारी

      


 

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

ये कैसा 'जेहाद ' लहू बच्चों का पीते ।



  मजहब के पाखंड  की ,चर्चा है सब ओर।

 आतंकी उन्माद का ,चला  भयानक जोर।। 

  चला  भयानक जोर , कैसे  ये दुर्दिन आये ।

  सत्य अहिंसा व्यथित , धरा पर्वत  थर्राये ।।

  ये कैसा  'जेहाद '  लहू  बच्चों का पीते ।

  आदमखोर शैतान , भेड़ियों से गये बीते  ।। 

       श्रीराम तिवारी
    
 

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

आम्र मञ्जरी खिली , रंग फागुन का छाया !



  पतझड़ की आहट सुनी ,कोयल कूँकी  भोर ।

  लता कुँज वन -बाग़ में , मादकता  चहुँ ओर।।

  मादकता  चहुँ ओर ,विकट मनसिज की माया।

  आम्र मञ्जरी खिली , रंग  फागुन का छाया ।।

  मलय पवन मदमस्त  ,राग  वासंती  गाया  ।

  मादक महुवा संग  , भ्रमर ने रास रचाया।।

                     : श्रीराम तिवारी:

  

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

तब तक भारत में फासीवाद को रोक पाना सम्भव नहीं !

एक -''देशभक्ति मूल रूप से एक धारणा ही है  कि कोई देश दुनिया में इसलिए सबसे बेहतर है क्योंकि आप वहाँ पैदा हुए हैं '' जार्ज वर्नाड शॉ

 दो-उपरोक्त  सिद्धांत को यों  भी पेश किया जा सकता है ''मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वास मूल रूप से एक धारणा ही है कि कोई धर्म-मजहब -पंथ इसलिए बेहतर है क्योंकि आप उस धर्म-मजहब  में पैदा हुए हैं '' !

तीन-चूँकि मैं भारत में जन्मा हूँ इसलिए यही सर्वश्रेष्ठ  राष्ट्र है। यदि में चीन -पाकिस्तान या किसी अन्य मुल्क में  जन्मता  तो वे मेरे सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र होते !

चार- क्योंकि मैं हिन्दू -ब्राह्मण कुल में जन्मा हूँ ,इसलिए मुझे अपने  वंशानुगत धर्म और जात के आगे कुछ नजर नहीं आता। और यदि में मुस्लिम,ईसाई,सिख ,जैन,या यहूदी कुल में जन्मता तो वे मुझे सर्वप्रिय होते !

उपरोक्त द्वैतभाव या अनेकांतवाद' तभी तक विद्द्य्मान रहता है जब तक व्यक्ति किसी खास धर्म, मजहब  , या राष्ट्र की संकीणता  में बाँध दिया जाता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति 'कम्युनिस्ट' हो जाता है तब या जब कोई व्यक्ति 'विदेह' हो जाता है तब वह इन सीमाओं से परे निकल जाता है। जिस तरह एक सांख्य योगी कर्म करता हुआ भीउसके कर्तापन से  निस्पृह रहता है ,उसी तरह एक कम्युनिस्ट को भी अपने राष्ट्ररूपी शरीर की देखभाल बिना किसी अन्य के प्रति  घृणा या बैरभाव के करनी होती है।  यहाँ चमत्कारिक रूप से  गीतोक्त सिद्धांतों और मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों में बहुत साम्य है।ईसाई ,इस्लामिक ,बौद्ध और  सिख पंथ में भी सम्पूर्ण जगत के प्रति  सांख्य भाव या सम्यकभाव का ही मूल सिद्धांत स्थापित है। लेकिन धर्म-मजहब का जब-जब राज्य सत्ता के लिए दुरूपयोग हुआ है ,तब-तब पाखंडवाद ,आतंकवाद और संकीर्ण राष्ट्रवाद ने अंगड़ाई ली है। भारत में जबसे दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी लोग सत्ता में  तबसे असहिष्णुता के दिन  फिरे हैं।

जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष -कन्हैयाकुमार का  मात्र  इतना अपराध था  कि  वह उस मंच पर उपस्थित था जहाँ कुछ 'गुमराह' छात्रों ने भारत विरोधी नारे लगाये। अब इसमें कन्हैयाकुमार का कितना क्या कसूर है ये तो अब न्यायालय  ही तय करेंगे। किन्तु 'करे कोई और भरे कोई 'की सामंतकालीन भर्राशाही  वाली लोकोक्ति चरितार्थ नहीं होना चाहिए ! भारत के  दक्षिणपंथी संकीर्णतावादी संगठनों और उनके भेड़िया धसान समर्थकों की लीला अजब निराली है। उन्हें कश्मीर में  आजादी का नारा लगाने वाले पीडीपी विधायकों और पाकिस्तान का झंडा लहराने वाले -अलगाववादी लोगों के साथ सरकार बनाने में  कोई शर्म नहीं !उन्हें हरियाणा में आरक्षण के नाम पर रेल रोकते ,पटरियाँ  उखाड़ते और  वाहन जलाते गुंडे देशभक्त दीखते हैं। जादवपुर बंगाल में तृणमूलियोँ  की मर्कटलीला उन्हें नहीं दिखती। उन्हें सिर्फ पढ़ने-लिखने वाले विचारशील लड़के -लड़कियाँ ही  देशद्रोही दीखते हैं। उन्हें बेलेन्टाइन डे  और प्यार-मोहब्बत करने वाले अच्छे नहीं लगते। उन्हें अपने धर्म के सिवाय दुसरे धर्म-मजहब के लोग सिर्फ आतंकी ही दीखते हैं। इतिहास सावित करेगा कि अनुदार लोगों का यह संकीर्ण  नजरिया ही सबसे बड़ा देशद्रोह है।

निसंदेह भारत में राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता के बनिस्पत अलगाव ,धर्म- मजहब और जाति का जोर ज्यादा है। हर धर्म-मजहब -पंथ के लोग सिर्फ अपनी पहचान और 'आस्पद'के लिए संघर्षरत हैं। हिन्दुत्ववादियों को हिंदुत्व की चिंता है,इंडियन मुजाहदीन ,सिमी और अन्य मजहबी मुस्लिम संगठनों  को इस्लाम की चिंता है। ईसाईयों ,बौद्धों,जैनों ,सनातनियों ,सिखों और आधुनिक बाजारवादी बाबाओं को अपने -अपने पंथ-धर्म और धंधे की  चिंता है। जो  आरक्षण की मलाई जीम रहे हैं ,उन्हें उस मलाई की रखवाली की चिंता है। जिन्हे आरक्षण नहीं मिला  अवसरों से  वंचित हैं उन्हें उसे हर हाल में पाने की चिंता है। ये तमाम आंतरिक संघर्ष हर देश में हो सकते हैं। लेकिन भारत में कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। अब यदि  'राष्ट्रवाद' की चिंता करने वाला कोई है ,तो उसे सिर्फ इस वजह से नजर अंदाज नहीं किया जा सकता ,कि वह तो 'संघ परिवार' से है  ! और संघ परिवार 'वालों को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि एकमात्र वे ही सच्चे देशभक्त हैं। क्या उनके तमाम अपराध सिर्फ  देशभक्ति के दिखावटी नारे लगाने से छिप जायेंगे? क्या संघ में शामिल  सब के सब देशभक्त ही होते हैं ?

 कोई युवा -छात्र यदि अज्ञानवश विदेशी एजेंसियों के बहकाबे में आकर देश विरोधी नारे लगाये ,यह तो उसका छम्य अपराध है। किन्तु इन घटनाओं में  देश की सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की क्या जिम्मेदारी है ? नारे लगाने वाले लड़कों की हरकत और उस अवसर पर महज उपस्थित रहे कन्हैयाकुमार  जैसे छात्र का जुर्म कितना है यह तो कानून तय करेगा। किन्तु इस स्थिति तक आने  देने के लिए,इस सिस्टम की प्रशासनिक असफलता के लिए किसे सजा दी जाएगी ? उच्च  अधिकारी  और बस्सी जैसे चाटुकार पुलिस अधिकारी यदि सत्तासीन नेताओं का मुँह  देखकर रिपोर्ट तैयार करेंगे तो वह कदाचरण  दुनिया से कैसे छिपेगा ? आधुनिक सूचना संचार तंत्र की अति सुगम उपलब्धता और माध्यंमों की सजगता से 'सब को सब कुछ मालूम है ' !  और पड़ोसी  मुल्क वाले  भी यदि  हमारी  परेशानियों का भरपूर मजा लेने लगे तो इसमें क्या शक है ? आज जो अपराधी  आरक्षण के बहाने रेलें रोकते हैं ,पटरियाँ  उखाड़ते हैं ,कानून को जेब में रखते हैं और देश की सम्पदा को भारी  नुकसान पहुँचाते है !उन्हें  तो केंद्र और राज्य सरकार बड़े प्यार से इकरार से ,मोहब्बत से वार्तालाप की मेज पर चाय के लिए बुलाती है। मान मनुहार ,नास्ता एवं आश्वाशन देते हैं। दूसरी ओर  पढ़ने-लिखने वाले छात्रों -छात्राओं पर   चौतरफा हमला ! वाह क्या अदा है अच्छे दिनों की  ? क्या यह अंधेर नगरी चौपट राज वाली स्थिति नहीं है ?

 देश की चिंता सिर्फ उन्हें ही हो सकती है ,जो धर्म -मजहब के पाखंड से बहुत दूर हैं और  राष्ट्रीय चेतना एवं हर क्सिम की सकारात्मक क्रांति के लिए जद्दोजहद करते आ रहे हैं।सिर्फ भारत के  ही नहीं बल्कि सारे संसार के वामपंथी  वैचारिक अंतर्राष्ट्रीयतावादी होते हुए भी असल में पक्के 'राष्ट्रवादी' ही होते हैं। दुनिया के जिन राष्ट्रों में  क्रांति हुई वे सभी राष्ट्र अपनी सीमाओं को अक्षुण रखने में सौ फीसदी सफल रहे। चीन, क्यूबा ,बेनेजुएला   नेपाल  ,वियतनाम या पूर्व सोवियत संघ के उदाहरण  सबसे अग्रणी हैं। वेशक वामपंथ की राष्ट्रनिष्ठा वैश्विक सर्वहारा के बरक्स ही हुआ करती है।

 साम्यवादियों का राष्ट्रवाद महज नदियों,पहाड़ों या समुद्रों के लिए नहीं होता। अपितु उच्चतर मानवीय  मूल्यों से युक्त उनका 'राष्ट्रवाद 'तो  मानवमात्र  के लिए उनकी  आर्थिक ,सामाजिक व  वैज्ञानिक चेतना के परिप्रेक्ष्य में होता है। वे दक्षिणपंथियों की तरह राष्ट्रवाद के खोखले नारों से संचालित नहीं होते। बल्कि वे चीन की तरह , वियतनाम की तरह ,क्यूबा की तरह अपनी राष्ट्रीय सीमाओं की सुरक्षा में अद्वितीय होते हैं। क्रांतिकारी वाम  - पंथ  को  राष्ट्रवाद सिखाना  जैसे सूरज को दिया दिखाना है ! भारत के कुछ अपढ़ ,गवाँर ,मुँहजोर और स्वयंभू राष्ट्रवादी इन दिनों यह सावित करने में जुटे हैं कि यह  भारत देश और समस्त  ब्रह्माण्ड हो उनकी 'कनिष्ठा'  पर टिका  हुआ है ! जिस तरह बेलगाडी  के पीछे-पीछे चलने वाला कुत्ता समझता है कि  वही गाड़ी खींच रहा है और गाड़ी खींचने वाले बेलों के प्रति कृतघ्न होता है। उसी तरह भारत के मेहनतकश-मजदूर-किसान ही इस देश की गाड़ी खेंच रहे हैं । पूँजीपतियों  के दलाल नकली देशभक्तों को भारी बहम है कि वे ही देश चला रहे हैं। उन्हें लगता है कि  वे न होते तो यह देश रसातल में चला जाता। यह बीमारी सिर्फ बहुसंख्यक हिन्दुत्ववादियों को ही नहीं हैं। बल्कि अल्पसंख्यक वर्ग के भी कुछ लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं। सभी धर्म-मजहब के लोग इस देश से ऊपर अपने निहित स्वार्थों को ही देखते हैं।

    दुनिया के सभी धर्म-मजहब -पंथ और ईश्वरवादियों को अपनी-अपनी तथाकथित विशिष्ठताओं पर बड़ा गर्व -गुमान है। किसी को अपनी हिंसक प्रवृत्ति पर ,किसी को अपनी फिजिकल ताकत पर ,किसी को अपने संख्या बल पर ,किसी को अपनी रूहानी और आध्यात्मिक चमत्कारिक शक्ति पर बड़ा अभिमान है। कोई कहता है कि हमसे ज्यादा सभ्य और सुसंस्कृत तो इस ब्रह्माण्ड  में दूसरा कोई हो ही नहीं सकता !किसी का कहना है   करुणा,दया,सेवा,परोपकार और मानवतावाद का सारा ठेका हमने ही ले रखा है। किसी- किसी को अपनी आदिम पुरातन सभ्यता- संस्कृति  पर  बड़ा नाज है। और किसी को अपनी  नूतनता,खुलेपन,आधुनिकता और खुलेपन  की नंगई पर बहुत अभिमान है। दुनिया में सभी कौम ,सभी देश ,सभी मजहब के मनुष्यों को कुछ न कुछ गर्व-गुमान जरूर है। यह कोई अनहोनी नहीं है। वामपंथ को और संघ के आलोचकों को हमेशा यह याद रखना चाहिए कि आईएसआईएस वालों को इस्लाम की जितनी चिंता है ,उतनी संघ को उनके हिंदुत्व की या भारत की  शायद नहीं है।  सऊदी,अरब ,ईराक ,सीरिया ,पाकिस्तान और यमन-सूडान के बुद्धिजीवी कहाँ गए ?इन देशों के धर्मनिरपेक्ष लोग जब तक वहाँ  कटटरवाद से नहीं लड़ेंगे तब  तक भारत में फासीवाद को रोक पाना सम्भव नहीं !

कोई कहता है कि हमारे पंथ में तो सब चंगा ही चंगा है जी ! हमारे गुरु तो जाती-पाँति के खिलाफ थे !और हमें लिखकर दे गए हैं कि  ''मानुष की जाती सबै  एकउ  पहिचानवे ''!और  ''शूरा सोई जाणिये ,लड़े दीन  के हेतु। लेकिन हकीकत यह है कि  सबसे ज्यादा स्त्री-पुरुष लिंगानुपात इन्ही के पंथ -समाज में पाया जाता है। सबसे ज्यादा  गरीबों -दीन जनों  याने दिहाड़ी मजदूरों का शोषण  पंजाब के बड़े  -बड़े जमींदार और किसान ही किया करते हैं। जबकि उनके खुद के लड़के हर किस्म के नशे में डूबने को बेताब हैं। पंजाब -हरियाणा ही नहीं बल्कि पूरे भारत में  अधिकांस  उच्च वर्ण के  सिख -जाट ,हूँण ,खत्री और  सवर्ण  ही हैं। इन सभ्रांत सिंह साहिबानों  ने कभी सरदार बूटासिंग जैसे दलित  के साथ हमेशा  ओछा  व्यवहार ही किया है।  विगत वीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कटटरता वादी निहंग सिखों ने पंजाब के अनेक निरंकारी सिखों का भयंकर कत्लेआम किया । भिंडरावाले जैसे अलगाववादी -आतंकियों ने  पंजाब में वाम पंथियों ,दलितों - पिछड़ों और निर्दोष हिन्दुओं पर जो कहर बरपाया वह दुनिया में  सबसे रक्त रंजित और बर्बर मंजर रहा है। उस दौर के ज्ञानियों,ग्रंथियों, अकालतख्त के सभी सिंह साहिवानों ने और  शिरोमणि  अकालियों ने  भी निरंकारियों को थोक में  मरवाया  था। इतना ही नहीं उन्होंने तो 'गुरमित  बाबा राम रहीम ' को भी खूब  परेशान किया। उसकी फ़िल्में -पोस्टर फाडे  और खूब धमकाया।

 उन्होंने 'बिठ्ठा' जैसे देशभक्त को महज  कांग्रेस के  समर्थक  होने के कारण सिख ही  नहीं माना। सबसे अधिक नसेड़ी और बिगड़ैल युवा इसी जमात में तैयार हो रहे हैं। सिर्फ मुठ्ठी भर युवा ही होंगे जिन्हे शहीद भगतसिंह या  कामरेड  सुरजीत  जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान की याद होगी। और उनके इंकलाबी  विचारों को समझने  की तमन्ना रखते होंगे !अन्यथा पंथिक साम्प्रदायिकता  के प्रभाव में राष्ट्रीय स्वाभिमान बहुत क्षीण  और सिखी का गर्व गुमान कुछ ज्यादा ही होगा !

कोई कहता है कि हमारे ,मजहब में तो सब बराबर हैं। कोई ऊँच नहीं -कोई नीच नहीं ! लेकिन सबसे ज्यादा गैरबराबरी का मंजर इनके ही  समाज में व्याप्त है।  शिया -सुन्नी ,शेख़ -सैयद ,मुगल-पठान ,उम्मेदिया-कुरैश ,गजनी -उजवेग  ये तो बहुत पुराने खाप या खांचे हैं। इतिहास गवाह है कि अरबी-हिन्दुस्तानी  बंगाली-पंजाबी ,सिंधी,बलूच, मुहाजिर-पख्तून भी कई पीढ़ियों से एक दूसरे की आँखें नोचने के लिए लालायित  रहे हैं। आईएसआईएस वाले सीरिया और इराक में जिनको मार रहे हैं वे भी उनके ही सगोत्रीय हैं। और  कश्मीर में हिंसक आतंकियों ने जिन पंडितों -हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा  उनके पूर्वज भी उसी खाप या गोत्र के  थे। सनातन से  हिन्दुओं में जो-जो जात -पाँत चली आ रही है ,भारतीय उपमहाद्वीप में वे  सभी जातियाँ -खापें मुसलमानों में यथावत हैं और तब तक बनी रहेंगी जब तक दुनिया के अन्य धर्म-मजहब में रहेंगी।

कोई कहता है कि हम तो अहिंसावादी हैं जी !हम  जीव हिंसा नहीं करते। लेकिन ये लोग मिलावटी खाद्य पदार्थ जरुर बेचते हैं।  कम तौलना ,सूदखोरी करना ,दूसरों से घृणा करना इनका सहज स्वभाव  है।  धर्मान्धता का मीठा जहर और  कर्मकाण्डीय पाखंड का यहां सर्वोच्च शृंगार यहीं  मिलेगा। कोई कहता है कि हम तो ''वसुधैव कुटुंबकम वाले हैं जी! हम तो इस संसार को मायामय ही मानते हैं जी !''ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या'' है जी !हमारा तो नारा ही है कि  ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,,,सर्वे सन्तु निरामया ,,,!'' याने इनसे बड़ा दयालु,कृपालु संसार में कोई नहीं। लेकिन बीफ के बहाने किसी निर्दोष की जान लेने में इन्हे हिचक नहीं !इन्हे दलितों,मुसलमानों ,ईसाइयों , और कम्युनिस्टों से बड़ी एलर्जी है। ये अम्बानियों,अडानियों ,बिड़लाओं,मित्तलों ,गोयलों, सिन्हानियों, सेठों ,के बड़े परम भक्त हैं जी ! गाय ,गंगा ,गायत्री को भी कभी -कभी याद कर लेते हैं।

कहने का तातपर्य यह है कि  सभी को अपने -अपने दड़वों -पोखरों से भरी लगाव है। कोई उससे निकलना नहीं चाहता ! जो  इस मजहबी-पाखंड के दल-दल से निकलना चाहते  हैं ,उन्हें मार दिया जाता है ,जैसे गांधी, मार्टिन लूथरकिंग  ,सफदर हासमी , दाभोलकर, पानसरे,कलबर्गी और ,,,,,,,,,,!

मजहब के संसार में ,गरज रही बन्दूक।

वे न हटेंगे लीक से ,जो हैं कूप मंडूक।।  ,,,,,,,!

         :-श्रीराम तिवारी ,:-,,,!

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

सभ्यताओं के हर दौर में नारी और पुरुष का महत्व हमेशा घटता-बढ़ता ही रहा है।

नारीवादियों का मानना है कि दुनिया के सभी धार्मिक क़ानून महिलाओं व पुरषों में भेदभाव करते हैं। जमीन-जायदाद ,धन- सम्पत्ति,विवाह , संतति संरक्षण,पालन - पोषण ,परिवार ,समाज और धर्म-मजहब के मामलों में परम्परागत रूप से महिलाओं को  तथाकथित रूप से कमतर इंसान माना जाता है। वेशक यह सब दासता की उस  सामन्तकालीन -निर्मम  व्यवस्था का चलन रहा होगा। किन्तु उससे पहले के कबीलाई दौर की अधिकांस   व्यवस्थायें मातृसत्तात्मक  ही रही हैं। जिनमें  महिला ही कबीले की प्रमुख हुआ करती थी। किन्तु जब कबीलाई समाज विकसित होकर नागर ,नदी-घाटी सभ्यताओं की ओर अग्रसर हुआ ,जब खेती का चलन बढ़ने लगा जब व्न्य प्राणियों के शिकार पर  पुरुष  का  वर्चस्व बढ़ने लगा ,जब दो या दो से अधिक कबीलों में  हिंसक युद्ध  होने लगे ,और युद्ध के बाद पराजित मनुष्यों को दास -दासी बनाने का चलन बढ़ने लगा तो 'महिलायें अपना वर्चस्व खोने लगी। लेकिन फिर भी सभ्यताओं  के हर दौर में नारी और पुरुष की साख और उनका महत्व हमेशा घटता-बढ़ता ही रहा है। फिर भी नियति ने अपना संतुलन कभी नहीं खोया। क्योंकि सृष्टि का भी यही वैज्ञानिक नियम भी है। इतिहास साक्षी है नारी ही नारी की दुश्मन साबित हुई है।

मध्ययुगीन  भारत में सौतिया डाह ,सती प्रथा सास-बहु स्पर्धा तो आम बात रही है ,लेकिन खास बात है यह रही है कि हर लड़के की माँ ने हर लड़की की माँ को हेय  नजर से ही देखा है।  वेशक हर लड़के का बाप भी हर लड़की के बाप को अपना गुलाम ही समझता रहा है। कुछ आदिवासी समाजों के अपवाद होंगे जहां लड़की  वाले को इज्जत मिलती  है और लड़के को अपनी ससुराल जाकर काम-धाम करना पड़ता है। यह व्यवस्था,अलीराजपुर  अबूझमाण्ड ,झाबुआ और निमाड़ में पाई जाती है। पहाड़ी -हिमालयी समाजों में भी महिला को भरपूर सम्मान प्राप्त रहा है। कुछ जगहों पर बहुपति वयवस्था आज भी है। पुरुष के नाम से नहीं अब्ल्कि नारी के नाम से सम्पति का निस्तारण होता है। जिन महिलाओं को लगता है कि  ज़रा सन्सार ही नारी उत्पीड़न में जुटा है वे शनि शिंगणापुर जाने के बजाय ,हिमाचल,उत्तराखंड और नेपाल की तराई में जाकर उसका अध्यन करें। 

 इतिहास में यदि  कभी नारी मात्र दमित-शोषित -पीड़ित रही है तो पुरुष  उससे भी ज्यादा  दमन -शोषण का शिकार होता रहा है। दुनिया की किसी भी क्रांति का इतिहास उठकर देखे ,अमेरिकन क्रांति,फ्रांसीसी क्रांति   ब्रिटेन  की पूँजीवादी क्रांति ,रूस -चीन -क्यूबा -वियतनाम की कम्युनिस्ट क्रांतियों और भारत दक्षिण अफ्रीका समेत संसार के तमाम स्वाधीनता संग्रामों   में  हजारों नारियों  ने बलिदान दिया। उनके साथ अत्याचार हुआ। किन्तु इन सभी क्रांतियों में पुरुष वर्ग की तादाद करोड़ों में  रही है। अकेले द्वतीय विश्वयुद्ध में ही दो करोड़ रूसी और लाखों यहूदी पुरुष मारे गए। गुलाम भारत के लाखों सिख यूरोप के प्रथम विश्व युद्द में काम आये। जबकि उसमें एक भी महिला का जिक्र नहीं है। तब बराबरी की बात क्यों नहीं उठी ? जब  चैयरमेन माओ के नेत्तव में १० लाख मेहनतकश  किसानों -मजदूरों ने बीजिंग की ओर  लांग मार्च किया ,और रास्ते में ही आधे से जयादा  चीनी मर-खप गए तब महिला विमर्श का जिक्र क्यों नहीं हुआ ? उस लांग मार्च में  मरने के लिए ओरतें कितनी थीं ?वेशक भूंख ,कुपोषण और हत्या-बलात्कार में नारी को पहले भोगना पड़ता है ,क्योंकि वह ''माँ' है। और ''माँ' को स्त्री-पुरुष असमानता की तराजू पर  तौलना उचित नहीं। 

 भारत की महिलाओं ने भी अतीत के  कबीलाई दौर में पुरुषों के बराबर ही सब कुछ खोया और पाया है। मानव सभ्यता के विकास और 'वाहरी आक्रमणों  की दरम्यान ने'भारत की नारियों को दोहरी गुलामी की मांद में धकेल दिया गया।  वरना वैदिक काल में तो भारत में नारियों के नाम से ही कुल या वंश का निर्धारण होता था। दिति के दैत्य ,अदिति के देवताओं से तो सभी परिचित होंगे। किन्तु लोपामुद्रा,गार्गी,व मैत्रयी जैसी महिलाओं को जानने के लिए आरण्यक और उपनिषद भी पढ़ने होंगे। कैकई नदन ,सुमित्रानंदन,कौशल्या नंदन,देवकी नंदन ,यशोदा नंदन तो घर-घर में हैं ही। लेकिन गंगाप्रसाद,नर्मदाप्रसाद और सरस्वतीचन्द भी कम नहीं। ये प्रमाण है कि  पुरुष को नारी से ही पहचान मिली है। 

इस दौर में जो महिलायें गार्गी,मैत्रयी ,लोपामुद्रा जैसी हैं, वे आधुनिक  मीडिया में देश और समाज के सामने आएं।  उन्हें शंकराचार्यों के बराबर का दर्जा अवश्य मिलेगा। नहीं मिलेगा तो वे खुद छीन सकतीं हैं। जिसे यकीन न हो आगामी सिंहस्थ के लिए शिप्रा में डुबकी लगाने उज्जैन आ जाये। वहाँ राधे माताएं ,महा महामण्डलेश्वरी  और साध्वियां सम्मान विराजित मिलेंगी। लेकिन   कोई रोजा लक्जमवर्ग जैसी क्रांतिकारी  नहीं मिलेगी। इंद्रा नुई जैसी संघर्षशील  ,,कल्पना चावला जैसी कल्पनातीत बहादुर और मेरीकॉम ,सानिया मिर्जा ,नेहवाल जैसी  वहाँ  एक भी नहीं। यदि हो तो उसे किस पुरुष से बराबरी करना है?  वो तो सभी पुरषों से श्रेष्ठ है।  नारी -महिला इन शब्दों   का रूपांतरण जब ''माँ'' के रूप में होता है तो उसकी बराबरी भगवान भी नहीं कर सकता। पुरुषों के बराबर  तुलना पुरुष की माता की हो भी नहीं सकती।  वास्तव में पुरषों से भी जयादा महान और ताकतवर है नारी। शनि शिंगणापुर में जो नाटक चल  रहा है उसकी पट कथा अवश्य किसी महा धूर्त  या धूर्तनी ने लिखी है। श्रीराम तिवारी

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

बिल्ली काली हो या सफेद यदि चूहों को मारती है तो हमारे काम की है ''-माओत्से तुंग !


 किसी भी आदर्श लोकतान्त्रिक व्यवस्था में  विपक्ष और आम जनता द्वारा 'सत्ता पक्ष 'की स्वश्थ आलोचना जायज है। सिर्फ जायज ही नहीं बल्कि देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी है।किन्तु सिर्फ आलोचना ही करते रहें और आलोचक गण कोई विकल्प  भी पेश न करें तो यह अनैतिक कृत्य कहा जा सकता है । कोई और विकल्प पेश न करे पाएँ तो  कोई बात नहीं , किन्तु जो नीतियाँ और कार्यक्रम  आधी शताब्दी  में देश का भला नहीं कर सकीं, राष्ट्र संचालन के जो तौर-तरीके  देश हित में नहीं रहे ,जिनके कारण आर्थिक,सामाजिक और हर किस्म की असमानता बढ़ती ही  चली गई ,उन पर पुनर्विचार क्यों नहीं होना चाहिये ?  और यदि मोदी सरकार उन्हें पलट रही है ,तो उसका स्वागत क्यों नहीं किया जाना चाहिए  ? वेशक अतीत में जब कांग्रेस सत्ता में रही है  तब  विपक्षी भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने भी यही नकारात्मक  रोन्ट्याई का खेल खेला है । किन्तु यह सिलसिला अनंतकाल तक जारी नहीं रखा जा सकता ? अब तो इसका अंत होना ही चाहिए। क्योंकि न केवल  सिंगापुर,ताइवान ,उत्तर कोरिया ,क्यूबा जैसे छोटे-छोटे देश बल्कि सारी दुनिया ही  भारत से आगे निकल चुकी  हैं। चीन ,अमेरिका,फ़्रांस,एंग्लेंड , जापान ,जर्मनी और रूस तो पहले से ही बहुत आगे चल रहे हैं। वर्तमान मोदी सरकार शतप्रतिशत पाप का घड़ा तो अवश्य  नहीं  है ? और सारी  पुण्याई  का ठेका उनके पास  भी नही  है जो केवल मोदी सरकार की आलोचना ही किये जा रहे हैं ? क्या विचित्र बिडंबना है कि लोग खूब आलोचना किये जा रहे हैं ,और शिकायत भी कर रहे हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है। सहिष्णुता नहीं है। कहने-सुनने ,लिखने  - पढ़ने  का मौका  नहीं मिल रहा है।  क्या ये  आरोप सरासर झूंठा नहीं है ? और यदि ऐंसा कुछ देखने -सुनने में आ भी  रहा है ,तो वो दुनिया का सनातन दस्तूर है। यह कभी भी किसी भी व्यवस्था में शैतान की मानिंद अपनी हाजरी देता ही रहेगा। निर्दोष सीता का वनवास  'रामराज्य'में  ही हुआ था। इमाम हुसेन और मोहम्मद [सल्ल]के नवासे को सपरिवार  ख़लीफ़ाई इस्लाम के स्वर्णिम दौर में ही  निर्मम शहादत देनी पडी थी। कामरेड स्टालिन के दौर में नाजी हिटलर मारा गया, फासिज्म पराजित हुआ ,ठीक बात है ,किन्तु यह सब तीन करोड़ रूसी कामरेडों की शहादत से सम्भव हुआ।  

भारतीय राजनीति 'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' पर टिकी है।यहाँ राजनीति के हम्माम में लगभग सभी दल नंगे हैं। कांग्रेस ,डेमोक्रेटिक विपक्ष और वामपंथ सहित सभी गैर भाजपाई  ये आरोप जड़ते रहते हैं  कि मोदी सरकार सब कुछ गलत कर रही है। लेकिन ये नहीं बताते कि  गलत क्या है ? और सही क्या होना चाहिए  ? उनका तकिया कलाम यह है कि मोदी सरकार यदि यह करेगी तो हम संसद में विरोध करेंगे । यदि वह करेगी तो हम सड़कों पर विरोध करेंगे। चूँकि कांग्रेस ,सपा, वसपा जदयू, और अन्य पूँजीवादी  दल तो बिना सींग के साँड़ हैं  ,उन्हें देश की या देश के सर्वहारा की फ़िक्र क्यों होने लगी ? लेकिन वामपंथ को तो यह अवश्य सोचना होगा कि वे ही  इस देश के बेहतरीन विकल्प  हैं। और वे भाजपा  विरोध ,मोदी विरोध या संघ विरोध  का अमोघ अश्त्र हर मौके पर बार-बार इस्तेमाल नहीं कर सकते । विरोध की  इस निरंतरता के कारण  न केवल विश्वसनीयता खतरे में है  बल्कि अधिकांस  धर्मनिरपेक्ष जनता भी अनायास ही दिग्भर्मित होकर  वामपंथ से दूर छिटक रही है। दरसल वामपंथ को यह कहना चाहिए कि मोदी सरकार यदि देश की जनता के साथ अन्याय करेगी तो हम विरोध उसका विरोध  करेंगे। और यदि मोदी सरकार ने वामपंथ के बताये विकल्प का अनुसरण किया या जन -आकांक्षा के अनुरूप समाजहित या देशहित में काम किया तो हम [वामपंथ] इस सरकार का समर्थन करेंगे।

वेशक मोदी सरकार उन नीतियों पर कदापि नहीं चल रही जो  ९० साल पहले 'संघ' ने निर्धारित की थीं। इसका  एक सजीव प्रमाण तो  यही है कि  मोदी सरकार के  केंद्रीय पुरातत्व बिभाग ने भी कांग्रेस सरकारों की तर्ज पर  धार के भोजशाला  बनाम मस्जिद फसाद  पर अपना धर्मनिरपेक्ष रुख अपनाया है।  अपने ही 'संघी भाइयों को निराश करते हुए शिवराज सरकार और केंद्रीय पुरातत्व विभाग ने हिन्दू-मुस्लिम दोनों जमातों को एक ही नजर  से देखा है। सरस्वती पूजन या  नमाज अदा करने  की रूपरेखा पर स्थानीय प्रशासन ने धर्मनिर्पेक्षतावादियों को  ही महत्व दिया है। आरएसएस या हिंदुत्वादियों  तो केवल लाल-पीले ही हो रहे हैं। यदि  इसके वावजूद भी कुछ   लोग इस प्रकरण में  केंद्र और राज्य सरकार की आलोचना  करते हैं । तो उन्हें  मेरी ओर से सिर्फ धिक्कार ही मिलेगी। अनेक सवाल उठना सम्भव है। क्या अंध विरोध की यह प्रवृत्ति देश हित या समाजहित में है ?क्या इस तरह के असत्याचरण से कोई क्रांतिकारी  विचारधारा फलफूल सकती है  ? क्या मजहबी और साम्प्रदायिक  अल्पसंख्यकवाद  के काल्पनिक दमन  के बहाने  वोट की राजनीति करने से कोई क्रांति सम्भव है ?    

क्या विवेक ,बुद्धि ,प्रगति , राष्ट्रनिष्ठा इत्यादि  रत्न केवल उनके ही पास हैं ,जिन्हे  विपक्ष कहलाने लायक  जनादेश भी  नहीं मिला ? जो सत्ता लोग सत्ता से वंचित  हैं और सत्ता पक्ष का सिर्फ अंध विरोध ही करते चले जा रहे हैं। हो सकता है की जो आज  सत्ता में हैं  उन्होंने छल-कपट ,प्रलोभन  और भावनात्मक जन-दोहन करके  ही देश  की सत्ता  हथियाई हो ।लेकिन क्या इसमें नीतियों की असफलता और कांग्रेसी नेतत्व का कोई कसूर नहीं है ?  अब  जो दल या व्यक्ति हार गए हैं ,यदि  वे सिर्फ विरोध के लिए विरोध ही जारी रखेंगे तो इसकी क्या गारंटी है कि  जनता आइन्दा उन्हें अवसर देगी। क्योंकि निषेध की  नकारात्मक परम्परा वैसे भी भारत के  स्वश्थ चिंतन  के अनुकूल नहीं है।  कौन महा मंदमति  होगा जो इस तरह के प्रमादी - नकारात्मक - आलोचकों का संज्ञान लेगा ?

 भारत में  इन दिनों  बहुत से लोग  खास तौर से युवा वर्ग आँख मींचकर 'संघ - परिवार' अर्थात  सत्तापक्ष  के साथ खड़े  हैं।  उन्हें तो इस 'मोदी सरकार' में केवल  अच्छाई ही नजर आ रही  है। जबकि विपक्षी लोगों को इस सरकार के नाम से ही  चिड़ है। ये दोनों ही प्रजाति के भद्र नेता ,समर्थक और 'बोलू' प्राणी इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक और  सोशल मीडिया पर भी अपना  प्रचंड शौर्य दिखला रहे हैं। मेरा दावा है कि दोनों ही किस्म के  ये आधुनिक जीव राष्ट्रनिष्ठा , नैतिकता  और लोकतांत्रिकता के वास्तविक ज्ञान से वंचित हैं। दोनों ही ओर के नर-नारी घोर नकारात्मक आलोचना एवं  अन्योन्याश्रित  निंदा रस सिंड्रोम से पीड़ित हैं। क्या उन्हें  नहीं मालूम कि फासिज्म और तानाशाही  के भूत लोकतांत्रिक असफलता  के इसी अँधेरे में विचरण करते  है।

क्या ही बिडंबना है कि जो लोग प्रगतिशीलता के अलम्बरदार हैं ,जिनके कर-कमलों में सामाजिक,आर्थिक एवं  वैचारिक  परिवर्तन की मशाल  है,  वे लोग इन दिनों भारतीय  राजनीति की निर्णायक शक्ति नहीं रहे । इन्ही  दिनों मोदी सरकार सत्ता में है। मोदी सरकार हर फटी-पुरानी चीज को उल्ट-पलट रही है। वह मनरेगा योजना  आधार-योजना , ज्ञान आयोग ,पंचवर्षीय योजनाएं , बेसिक इन्फ्रस्ट्क्चर और उद्द्य्मों के लिए भूमि अधिग्रहण इत्यादि के लिए संघर्षरत  करती है ,  धारा -३७०, पर्सनल -ला ,आरक्षण और शैक्षणिक ढर्रे पर संसद  के दोनों सदनों में  कोई विधयेक पेश करती है या पुनर्विचार करने की कोई बात  करती है तो  सारे निहित  स्वार्थी तत्व  संसद ही नहीं चलने देते। जबकि इन विषयों पर नीति-निर्णय का अधिकार भारतीय संसद को ही है। वैसे भी इस सिस्टम की हर नाकाम चीज बदले  जाने योग्य है। मान लो कि  वामपंथ सत्ता में आता है ,तो क्या वह  भी इस सड़ी -गली कांग्रेसी  दवरा बनाई गयी भृष्ट व्यवस्था  को ही जारी रखेगा ? नहीं ! फिर मोदी सरकार के लिए ही  अलग मापदंड क्यों ? क्या यह  आचरण क्रांतिकारी चरित्र के अनुकूल है ?

जब इस संसदीय व्यवस्था में हर चीज सड़ांध युक्त है तो उसकी असफलता का ठीकरा मोदी सरकार के सिर  पर ही क्यों फोड़ा जा रहा है ?  यदि जनता का स्पष्ट  जनादेश मोदी सरकार के लिए हैं,तो यह भी स्पष्ट है कि भारत  की बहुसंख्यक  जनता  नीतिगत बदलाव  चाहती है ! अल्पमत  के पक्ष में नाजायज हो हल्ला मचाकर  कांग्रेस ,ममता,सपा ,वसपा यदि संसद में और सड़कों पर मोदी सरकार की हर बात का  विरोध कर रहे हैं तो उनका अनुसरण वामपंथ को कदापि नहीं करना चाहिए।  यह वोटों की घ्रणित राजनीति का शोर मचाने वाले पूँजीवादी  दल और नेता  जो कुछ ऊंटपटांग  करते हैं  वह वामपंथ को कदापि नहीं करना  चाहिए। यह देश हित में  या सर्वहारा वर्ग के  हित  में कदापि नहीं है। वैसे भी किसी भी तरह के  विपक्ष को संसद में वीटो का अधिकार नहींहै  । अतीत में जब भाजपा ,कम्युनिस्ट या जनसंघ  विपक्ष में  हुआ करते थे तब उनकी कितनी सुनवाई हुयी ? वेशक तत्कालीन संयुक्त विपक्ष ने  हर दौर  की काग्रेस सरकारों की संसद में और सड़कों पर नाक में दम  किया होगा , लेकिन अब इस परम्परा का समापन होना ही चाहिए।''वो अफ़साना जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन ,,,,,उसे इक  खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ''। संसद में पक्ष-विपक्ष का यह शत्रुतापूर्ण भारतीय पैटर्न कहीं लोकतंत्र की असफलता का कारक  ही न  बन जाये ! फासिज्म अथवा तानाशाही का भूत लोकतांत्रिक असफलता के अँधेरे से ही उतपन्न होता है।

 भारतीय आवाम के एक बड़े  हिस्से को मोदी जी के नारों पर बड़ा भरोसा है। खास कर शिक्षित युवाओं को स्मार्ट इण्डिया,डिजिटल इण्डिया ,स्वच्छ भारत ,समृद्ध भारत ,सबका  साथ -सबका विकास' पर बहुत भरोसा है। सड़क बिजली ,सिचाई, शिक्षा का निजीकरण और आर्थिक नीतियों का उदारीकरण तो डॉ मनमोहनसिंह पहले ही कर चुके थे। मोदी सरकार तो सिर्फ लेवल बदलने ,कांग्रेस का नाम पोंछने और 'संघ परिवार' का नाम लिखवाने में ही जुटी है। इन नामकरण वाले  बदलाव वाली  बातों से  कांग्रेस का खपा होना स्वाभाविक है। कांग्रेस की तो गांधी-नेहरू-इंदिरा  ही पहचान है। किन्तु  क्या किसी क्रांतिकारी चिंतक या विचारक के लिए अथवा संघर्षशील योद्धा के लिए यह सब उचित है कि  वह इस पतनशील व्यवस्था की सड़ी-गली चीजों के  समर्थन और विरोध की जूतम -पैजार में उलझ कर रह जाए ?  कोई प्रगतिशील -वामपंथी जन संगठन या कार्यकर्ता इस अधोगामी व्यवस्था की  मरी हुई  बंदरिया को  हरदम अपने सीने से क्यों चिपकाये रहे ?इससे बड़ी बिडंबना और अचरज वाली बात क्या हो सकती  है कि  जो रूढ़िवाद और यथास्थतिवाद के  नुमाइंदे हैं  जैसे कि मोदी जी ,वे  हर गयी गुजरी चीज को -नाकाम  कार्यनीति और सिस्टम को बदलना चाहते हैं । जबकि  वाम मोर्चे की पार्टियाँ  और उनके समर्थक विद्वान  इस बदलाव की खबर से कुपित होकर मोदी जी और आरएसएस पर  निरंतर  शब्दभेदी बाण चला रहे हैं। वे वैश्विक आतंकवाद को गंभीरता से नहीं लेते।  जब देश की जनता को  कोई  फरक नहीं पड़ता कि मोदी जी द्वारा उधेड़ी जा रही फाइलें या टूटी-फूटी पुरानी  चीजें -नेहरू ,गांधी के ज़माने की हैं ,या ततकालीन  नेताओं ने कोई गलत -सलत एग्रीमेंट कर लिया  तो हम वामपंथी उसके लिए हलकान क्यों होते  रहें ?किसी सामंतयुगीन कबीलाई समाज के  आज्ञाकारी  अंधश्रद्धालुओं की तरह नकारात्मक कृतज्ञता में  क्यों डूबे रहें?

भारत में लोकतंत्र का दुरूपयोग बहुत बढ़  रहा है। देशकाल के अनुरूप  स्वस्थ्य -तार्किक समालोचना का घोर अभाव  है।  हालाँकि मैं  स्वयं [इस आलेख का लेखक ] भी 'संघ' की विचारधारा से सहमत नहीं हूँ।और मोदी जी  की भी अनेक बार भूरि-भूरि किन्तु स्वश्थ  आलोचना  कर चुका हूँ। मेरे निजी ब्लॉग www. janwadi. blogspot.com  पर मोदी सरकार के विरोध में  इतनी सामग्री उपलब्ध है कि  ५० पुस्तकें प्रकाशित की जा सकतीं हैं।  और यदि वे कुछ गलत करते हैं तो  आइन्दा विरोध करता  भी रहूँगा। लेकिन  एनडीए सरकार या पी एम मोदी जी ,जब कोई देश हित का काम करेंगे ,कोई नीतिसंगत-न्यायसंगत  काम  करेंगे तो उसका स्वागत करने में पीछे नहीं रहूँगा। और जब कोई बाहरी दुश्मन भारत की ओर बुरी नजर से देखेगा ,प्रधान मंत्री को धमकी देगा तो  दुश्मन के प्रतिकार हेतु  हर देशभक्त  सरकार का पुरजोर समर्थन करंगे। ''इससे कोई फर्क नहीं पङता की बिल्ली काली है या सफेद यदि  चूहों को मारती है तो हमारे काम की है '' - चैयरमेन -माओत्से तुंग !

                                             कुछ लोग पीएम नरेंद्र मोदी को ऐंसे ट्रीट कर रहे हैं ,मानों उन्होंने  कोई तख्ता पलट करते हुए राज्य सत्ता  हथियाई  हो ! मानों  उन्होंने  चुनाव ही नहीं जीता हो ! मानों उन्होंने ,चौधरी चरण सिंह , वीपी सिंह ,चंद्रशेखर ,देवगौड़ा , गुजराल की तरह कोई जोड़-तोड़ से सरकार बनाई  हो !कुछ लोग तो उन्हें हिटलर,मुसोलनि ,ईदी अमीन जियाउलहक या परवेज मुसर्रफ  जैसा ही  मानकर  ही चल रहे हैं। ये महाज्ञानी राष्ट्र चिंतक आँख- मींचकर प्रधान मंत्री श्री मोदी जी की हर बात का मखौल उड़ाए जा रहे हैं। वेशक  मोदी जी कोई उदभट विद्द्वान,मुमुक्षु चिंतक, या साइंटिफिक दर्शनशास्त्री  नहीं हैं। वे पंडित नेहरू जैसे पूर्व-पश्चिम की समन्वित आधुनिक  विचाधारा के मूर्धन्य  प्रवर्तक या नीति द्रष्टा भी नहीं हैं। किन्तु इतना तय है कि उन्होंने कोई गेस्टापो नहीं बनाया है। और  मुझे पक्का यकीन है कि वे बनाएंगे भी नहीं। क्योंकि वे वाकई 'पैटी बुर्जुवा' हैं। आखिकार इस देश की जनता जैसी है मोदी सरकार  भी तो वैसी  ही है। बहुमत जनता  की जो सोच है उसने वैसा ही अपनी  सरकार चुनी है। जो पांच साल तक तो यों  ही चलेगी ! जो पंछी सत्ता के फलदार आम की शाख पर अभी नहीं  बैठ पाये हैं ,उन्हें फ़ालतू  फड़फड़ाने का मन करता है तो फड़फड़ाते रहें। किन्तु सत्ता के मीठे फल तभी मिल पाएंगे जब देश की जनता चाहेगी। और देश की जनता का मूड तभी बदलेगा जब मोदी सरकार कुछ गलतियां करेगी।  इसलिए विपक्ष को चाहिए की संसद चलने दे ! मोदी जी  के मन की बात चलने दे ! यदि मोदी जी गलती पर गलती किये जाएंगे तो विपक्ष को ही लाभ होगा। यदि वे सही काम करेंगे तो देश आगे बढ़ेगा  - इससे बेहतर और क्या हो सकता है  ? श्रीराम तिवारी

-:  श्रीराम तिवारी ;-