शनिवार, 23 जुलाई 2011

गाँव का भूस्वामी ओर शहर का पूंजीपति आपस में मौसेरे भाई हैं.

 यह सर्वज्ञात है कि मरण धरमा  एवं नित्य परिवर्तनीय सृष्टि में मनुष्य सबसे अधिक सचेतन प्राणी है.इसके वावजूद कि सभ्यता के आरम्भ से ही वह एक ओर तो पृकृति के अवदानों से प्रमुदित था ही किन्तु दूसरी तरफ दुर्दमनीय प्राकृतिक अबूझ आपदाओं से पराजित होकर चुपचाप हाथ पै हाथ धरे नहीं बैठा रहा.नदी घाटी सभ्यताओं और दोआब की सभ्यताओं के उत्थान -पतन के साथ-साथ जहां जहां भी उसकी जीवन्तता सुनिश्चित संभव थी मानव समुदाय के रूप में गाँव एवं नगरों में ;उसने अपनी जेविक श्रेष्ठता के झंडे गाड़े.यूरोप ,अमेरिका ,चीन और दक्षिण अमेरिकी राष्ट्रोंमें गाँव और शहर का अंतर मिटता जा रहा है.किन्तु इस  से इतर  भारतमें  गाँवों की स्थिति बद से बदतरहोती जा रही  है.भारत में भी यदि पंजाब हरियाणा और यु पी केकुछ  गाँव समृद्ध हैं भी तो वहां खापवाद ,जातिवाद ,सामंतवाद जैसी सामाजिक विषमताएं और कन्या भ्रूण हत्या केअमानवीय कृत्यों के  चर्चे आम हैं.यदि बिहार,मध्यप्रदेश ,छतीसगढ़ और राजस्थान के गाँवों पर नज़र डालें तो सर्वत्र न्यूनतम मानवीय सुविधाओं वंचित हैं.गाँव सिर्फ शहरों के उदर भरण के निमित्त बनकर रह गए हैं.
                        सभ्यता के अधुनातन दौर में गाँव हासिये पर चला गया.है वैज्ञानिक तरक्की और संचार सूचना प्रौद्दौगिकि के अति उन्नत युग में भी आज का गाँव अपने समसामयिक नगरों से कोसों नहीं तो मीलों दूर जरुर हो गया है.  वे गाँव जो बड़े शहरों के इर्द-गिर्द  बसे हैं या किसी राष्ट्र्यीय राजमार्ग के विस्तारीकरण की जद में आये हैं उनके तो बाजारीकरण   के वरदान स्वरूप मानो  भाग्य ही खुल गए हैं.खास तौर से  इन गाँवों के चंद दवंग और जमींदार वर्ग की तो पौ बारह हो रही है. कहीं इनके लिए ममता बेनर्जी ,कहीं राहुल गाँधी ,कहीं अग्निवेश्जी,कहीं मेघा पाटकर जी और कहीं स्वयम माननीय अदालतें अपनी कृपा दृष्टी से मालामाल कर रहीं हैं. किन्तु यह सौभाग्य देश के उन आठ लाख गाँवों को प्राप्त नहीं है जो सड़क बिजली और पेयजल जैसी मूलभूत न्यूनतम सुविधाओं से आज भी महरूम हैं.शिक्षा और स्वास्थ्य में तोइन दिनों  शहरों की भी हालत चिंताजनक है तब इन उपेक्षित गाँवों की क्या बखत होगी?जबसेबाज़ार  ने भूमि अधिगृहण को पूँजी के सर्वोत्तम उत्पाद में रूपांतरित करने का फार्मूला
ईजाद किया है,बड़े किसानों और भूतपूर्व जमीनदारों की बल्ले-बल्ले हो रही है.यह तबका भले ही गाँव की कुल आवादी का १०% ही क्यों न हो किन्तु वह ग्रामीण क्षेत्र की सकल संपदा के ८०%पर काबिज है.शेष ९० % ग्रामीण आबादी के हिस्से में मात्र २०%जमीन और अन्य सम्पत्ति आती है. पहले वाले हिस्से को शहरी पूंजीपतियों,अफसरों,नेताओं,समाजसेविओं,बिचोलियों और वित्तीय संस्थानों का अन्योंन आश्रित सहयोग प्राप्त है.इन्ही के हितों को साधने में सिंगूर,नंदीग्राम,भट्टापारसौल,अलीगढ,आगरा और तमाम उन जगहों पर जमीन को लेकर मारामारी चल रही है.सभी जगह जब सत्ता से समीकरण नहीं बैठ पता तो प्रतिरोध दरसाने के लिए गाँव के उन गरीव -मजदूर किसानो और वेरोजगारों को पुलिस और क़ानून के आगे ढाल बनाकर खड़ा करने में उक्त एलीट क्लासअर्थात बड़ी जोत के मालिकों  की चालाकी का कोई सानी नहीं .यह आधुनिक सामंती प्रभु वर्ग अपने पुरातन दंड विधान से ग्रामीण क्षेत्र की निरक्षर ,निरीह और लाचार जनता का श्रम शोषण तो करता ही है साथ में आधुनिक प्रजातांत्रिक अधिकारों को,न्याय व्यवस्था को और राजनीती को अपने पद प्रक्षालन के लिए तैनात कर सकने में भी सिद्धहस्त है.दिल्ली में चाहे एन ड़ी ऐ हो ,यु पिए हो,या कोई भी सरकार राज्यों में हो यदि कोई जन्कल्यान्कारी या ग्रामीण जनता के हित की योजना सरकार द्वारा  लागू होती है तो यह गाँव के तथाकथित दवंगों और भू स्वमियों का स्वल्पाहार बनकर रह जाती  है.
      विगत दिनों एक ऐसे ही गाँव में मेरा जाना हुआ जो एक प्रख्यात राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे बसा हुआ है.उस गाँव के किनारे से होकर गुजरने बाले राष्ट्रीय राजमार्ग को ४-६ लेन में बदला जा रहा है.कहीं-कहीं काम अधूरा था.गाँव के भूतपूर्व जमींदार और वर्तमान सरपंच पति ने बड़े गर्व से बताया कि ५-६ साल पहले जब उसे इस राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण कि खबर लगी ;तो उसने उन किसानों कि जमीन को ,;सस्ते दामों पर खरीद ली , जो कि सड़क के निमित्त अधिगृहीत किया जाना संभावित थी इन महाशय ने बड़े गर्व से अपनी और शाशन  व्यवस्था कि काली करतूतकुछ इस तरह  बताई मानों उनने सिंहगढ़ विजय किया हो.उनका कहना था कि गरीव किसानो को पहले तो उन्होंने डर दिखाया कि तुम लोग सरकार से मुआवजा हासिल नहीं कर पाओगे,मुआवजा तुम्हें जितना मिलना है वो पटवारी ,रेवेनु इन्स्पेक्टरया तहसीलदार से पता कर लो.गरीब सीमान्त किसानों ने जब इन भृष्ट अधिकारीयों से पता किया तो उन्होंने वही बताया जो सरपंच पति उर्फ़ जमीन्खोर ने उन अधिकारीयों को पहले से बता रखा था.वे सब आपस में मिले हुए थे और नाते रिश्ते लेन-देन के सहभागी थे.इस तरह प्रस्तावित सडक चौडीकरण कि प्रारंभिक प्रक्रिया से बहुत पहले ही रास्ता साफ़ कर लिया गया.जब शाशन ने राष्ट्रीय राजमार्ग के चौडीकरण हेतु जमीनों के अधिग्रहण बाबत सर्वे प्रकाशित किया तो उन गरीब किसानों को भरी अफसोश हुआ.जब मुआवजे कि
दरें घोषित हुईं तो गरीब किसानो के होश उड़ गए जो जमीन उन्होंने जमींदारों को ५० हजार रुपया एकड़ में बेचीं उसकी कीमत २ लाख रुपया एकड़ हो गई.इन स्वनामधन्य जमीन दार महोदय ने एक ओर चमत्कार किया कि उनकी अत्यंत उपजाऊ और सिंचित जमीन को बचाने के लिए सर्वेयरों तक को खरीद डाला.राष्ट्रीय राजमार्ग कि दिशा और दशा ही बदल डाली.उनका गर्वोक्ति पूर्ण यह कथन भी था कि हमने" ऊपर तक सबको साध रखा है".प्रमाण स्वरूप प्रदेश कि राजधानी में भव्य बंगले से लेकर ठेठ गाँव तक दारू कि कलाली का ठेका उन्ही के पास है.उनकी एक खूबी और है वे समय के साथ चलते हैं जबराज्य कि  सत्ता में कांग्रेस होती थी  तो उसके झंडावरदार हुआ करते थे ,अब जबकि मध्यप्रदेश में भाजपा का शाशन है तो ये श्रीमानजी पक्के "भाईजी"बन बैठे हैं.उनके बारे में आम धरना है कि वे अपने निहित स्वर्थों के लिए किसी का भी गला काट सकते हैं.ये भारतीय ग्रामीण दुर्दशा के जीवंत प्रमाण हैं.गाँवों के वोटों का और विकाश के सरकारी नोटों का स्थाई ठेका इन जैसे लुच्चों लफंगों के हाथ में रहेगा तब तक अन्नाजी हों,रामदेवजी हों,लोकपालजी हों या माननीय उच्चतम न्यायालायजी हों ;कोई भी इस देश के गाँव के गरीबों का तब तक उद्धार नहीं कर सकता जब तक गाँव और शहरों में आ बसे जमीन्खोरों को हदबंदी क़ानून के तहत बेल कि तरह नाथ नहीं दिया जायेगा..चाहे मुग़ल हों अंग्रेज हों ,चाहे नेहरु युगीन कांग्रेस हो,चाहे इंदिरा युगीन कांग्रेस हो,चाहे अटल युगीन एन डी ऐ हो या वर्तमान मनमोहन सोनिया युगीन कांग्रेस सभी को साधने में माहिर यह पूरातन सामंती अवशेष अब पूंजीपती वर्ग से समन्वय स्थापित कर बाज़ार की ताकतों में शुमार हो चूका है.इस तरह गाँव से लेकर शहर और शहर से लेकर महानगरों तक और देश कि राजधानी के सत्ता केंद्र से लेकर विश्व बैंक और आई एम् ऍफ़ तक में अब भारत के बड़े भू स्वामियों के एजेंट मौजूद हैं.इसीलिये भारत के गरीब और छोटी जोत के किसानों ,खेतिहर मजदूरों,और वेरोजगार युवाओं को को वर्ग चेतना से लेस करने के प्रयासों कि महती जरुरत है. ,फ्रुस्टेशन,क़र्ज़ यातना,आत्म हत्या  और शहरों कि ओर दिग्भ्रमित पलायन से भारतीय ग्रामीण क्षेत्र पंगु होता जा रहा है.शहरों कि चकाचोंध और अधुनातन जीवन शेली कि चाह में और अपनी अल्प खेती में गुजारा न हो सकने कि सूरत में गाँव के गरीबों ने शहरों में झुग्गियों में शरण ले रखी है.चूँकि शहरों में पहले से ही महंगाई ,गरीबी भुखमरी के विकराल टापुओं का डेरा है अतेव कोई आश्चर्य नहीं कि अपराधों में बृद्धि हो रही है.ह्त्या बलात्कार ,चोरियां और सेंधमारी आम बात हो चुकी अब तो ये हालत है कि सुदूर बिहार के गाँव से आने वाला एक वेरोजगार नौजवान विगत दिनों इंदौर केदेवी अहिल्या विश्वविद्यालय का ATM  ही उखाड़ कर ले गया..शायद यह इस बात कि चेतावनी है कि गाँव हमारा और शहर तुम्हारा ...नहीं चलेगा...नहीं चलेगा... श्रीराम तिवारी
                               

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

चेत  गावें चेतुए वैशाख गावें  वानियाँ ,
जेठ गावें रोहिणी  अग्नि बरसावे  है!
भवन सुलभ जिन्हें शीतल वातानुकूल,
वृषको तरणि तेज उन्हें ना सतावे है!!
नंगे पैर धरती   पे भूंखा प्यासा मज़दूर,
पसीना बहाए थोरी   छाँव को ललावे है!
अंधड़  चलत इत झोपड़ी उड़त जात,
बंगले से धुन उत डिस्को की आवे है!!

बुआई की वेरियाँ में देर करे मानसून,
निर्धन किसान मन भय उपजावे है!
बंगाल की खाड़ी से ना आगें बढे इंद्रदेव,
वानियाँ बक्काल दाम दुगने बढ़ावे है!!
वक्त पर बरस जाएँ  आषाढ़ के बद्ररा,
तो दादुरों की धुन पे  धरणीहरषावे है!!
                              Shriram Tiwari

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

तथाकथित अपवित्र राजनीतिज्ञों के आगे अब क्यों गिड़गिड़ा रही है अन्ना एंड कंपनी...

 भारत के मध्यम वित्त वर्ग में इन दिनों एक बृहद बैचेनी स्पष्ट परिलक्षित हो रही है.वर्तमान पूंजीवादी प्रजातंत्र ने देश के तीनों राजनैतिक समूहों {यूपीए,एनडीए और तीसरा मोर्चा} को उसी तरह हेय दृष्टि से देखना शुरू कर दिया है;जिस तरह अतीत में उसने बर्बर सामंती या विदेशी आक्रान्ताओं के शाशन तंत्र को देखा था. राजनैतिक नेताओं को अविश्वाश से देखने के लिए राजनैतिक लोग जितने गुनाहगार हैं,उससे ज्यादा देश की वह जनता भी जिम्मेदार है जो तमाम शोषण-दमन और भय-भूंख-भृष्टाचार से पीड़ित होने के वावजूद उन्हीं नेताओं और दलों को ६५ साल से चुनती आ रही है जो उसके इस मौजूदा दयनीय हश्र के लिए परोक्ष रूप से जिम्मेदार है. आइन्दा जब भी कोई चुनाव होंगे तब पुनः वे ही दल और नेता फिर से जीत कर संसद में पहुंचेंगे जिन पर यह अराज्नैतिकता की आकांक्षी जनता,बाबा-लोग, ,अन्ना एंड कम्पनी और मीडिया के लोग नाना प्रकार से सच्चे -झूंठे आरोपलगाने में एक दुसरे से बढ़-चढ़कर हैं.  अपनी बैचेनी को अभिव्यक्ति देकर ये  समझते  है की इस तरह कोई  गैरराजनैतिक अवतारी पुरुष,कोई बाबा कोई योगी ,कोई गांधीवादी या कोई चमत्कार उनके दुःख दारिद्र दूर कर देगा?जहां तक निम्न आय वर्ग-,रोजनदारी मजदूरों,भूमिहीन-किसानों,आदिवासियों,दलितों,कामगार-महिलाओं,निजी क्षेत्र में कार्यरत कम वेतन और ज्यादा मेहनत करने वाले मजबूर नौजवानों की आम और सनातन चिंता का सवाल है तो उसको वाणी देने के लिए गोस्वामी तुलसीदास बाबा  ने शानदार शब्द रचना की है..

      कोऊ नृप होय हमें का हानी ! चेरि छोड़ होहिं का रानी !!

 इन दिनों दो तरह के लोग अपने-अपने ढंग और अपने-अपने मिजाज़ के अनुरूप भृष्टाचार,कालेधन ,महंगाई,और कुशाशन के खिलाफ लड़ रहे हैं. एक तरफ उन लोगों की विशाल कौरवी सेना है जो  या तो राज्यों की सत्ता में है या केंद्र में काबिज़ है.ये लोग वर्तमान व्यवस्था पर घडियाली आंसू बहाकर अपने पापों को छिपाने  की सफल कोशिश कर रहे हैं.धनबल-बाहुबल-राजबल और मीडिया का इन बदमाशों को भरपूर समर्थन प्राप्त है.राजनीती की पतित पावनी गंगा को मैला करने में इसी वर्ग का हाथ है.इस वर्ग को रोटी-कपडा -मकान की फ़िक्र नहीं बस उनकी चिंता है कि लूट की वर्तमान भृष्ट व्यवस्था कहीं नंगी न हो जाए अतेव उसे आड़ में छिपाने के लिए कभी -कभी इन तथाकथित गैरराजनैतिक पाखंडियों, शिखंडियों का उपयोग करते रहते हैं. जब अन्ना एंड कम्पनी ने जंतर-मंतर पर ६-७ अप्रैल कोअनशन का  स्वांग रचाया था तो सुश्री उमा भारती और अन्य उन राजनीतिज्ञों को मंच के पास नहीं फटकने दिया गया था;जो अन्ना के समर्थन{भले ही अपने मतलब के लिए }में वहाँ आये थे.अब -जबकि अन्ना एंड कम्पनी को  मालूम पड़ा की   देश की संसद में पारित किये बिना उनकी सारी मशक्कत बेमतलब है, चाहे जन-लोकपाल बिल हो या कोई भी क़ानून के समापन या संधारण का काम हो उसका रास्ता रायसीना हिल से जाता है. ये लोग कभी-कभी वर्गीय अंतर्विरोध के चलते आपस में भी टकरा जाते हैं.लोकपाल के दायरे में कौन-कौन होगा?कौन नहीं होगा?इन तमाम नकली सवालों में देश की आवाम को उलझाए रखकर अपने वर्गीय हितों को बड़ी चालाकी से सुरक्षित रखा जाता है.
   जब तक अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे स्वतः स्फूर्त जन-नायक खुले आम राजनीति में नहीं कूंदते तब तक वे वर्गीय अंतर्विरोध में महज फूटवाल की तरह कभी कांग्रेस,कभी भाजपा,कभी माकपा,कभी सपा  जैसे राष्ट्रीय दलों और कभी क्षेत्रीय दलों की चौखट पर समर्थन की भीख मांगते नज़र आयेंगे.राजनीती को कल तक बुरा बताने वाले आज राजनीतिज्ञों के सामने सिर्फ इसलिए नहीं गिडगिडा रहे की लोकपाल पास हो जाए,बल्कि इसलिए शरणम गच्छामि हो रहे हैं कि राजसत्ता की  वर्तमान भृष्ट और शैतानी व्यवस्था  के अजगर ने इन स्वतः स्फूर्त जनांदोलनो में शामिल कतिपय बाबाओं,वकीलों,सामाजिक कार्यकर्ताओं  की वैयक्तिक कमजोरियों का कच्चा-चिठ्ठा तैयार कर रखा है.यदि ये आन्दोलन वर्तमान व्यवस्था से समझौता नहीं करेंगे तो धूमकेतु की तरह दोपहर में अस्त हो जायेंगे. उनके प्रणेता भी -जयप्रकाश नारायण,लोहिया,दीनदयाल और वी टी रणदिवे की तरह इतिहास में असफल विभूति के रूप में याद किये जायेंगे.जनता भी इन्हें भूलकर रोटी-कपडा-मकान की सनातन आकांक्षा लेकर फिर से नागनाथ्जी या सांपनाथ जी को वोट देकर  उसी भृष्ट, अपवित्र ,राजनैतिक  सिस्टम को दुलारने लगती है जिसे अन्ना या रामदेव के सामने बड़े जोश -खरोश से गरियाती हुई खीसें निपोरती रहती है.
   भृष्टाचार मुक्त देश की कामना हर देश भक्त और सभ्य समाज को है  मैं भी उसका अभिलाषी हूँ किन्तु  कालाधन देश में  वापिस आये, यह तो वैसे ही है कि मेरे घर में गंदगी आये... श्रीराम तिवारी