मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

इस्लामिक आतंकी संगठनों से RSS की तुलना

 मुझे पक्का यकीन है कि*RSS वालों को अपढ़ और तमाम वामपंथियों को कुपढ़* कहने वाले कवि कुमार विश्वास ने,खुद न तो कभी संघ के पूर्व सर संघचालक 'गुरु गोलवलकर' कृत 'विचार नवनीत' (Bunch of Thoughts)"और न ही मार्क्स एंगेल्स रचित*कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो*को कभी पढ़ा होगा! क्योंकि इन पुस्तकों को पढ़ने के बाद न तो कोई अपढ़ रह सकता है और न ही कोई कुपढ़ कहा जा सकता है! दरसल श्री कुमार विश्वास को राजनैतिक विचारधाराओं का खास ज्ञान नहीं है। कुमार विश्वास ने वामपंथ और आरएसएस समर्थकों को अपढ़ -कुपढ़ कहकर अपनी ही नासमझी को उजागर किया है! यदि उनमें समझ होती तो वे RSS की तुलना ISIS से करते!

आईएसआई और इस्लामिक आतंकी संगठनों से RSS की तुलना करते हुये और उसके खिलाफ लिखते हुये हम बूढ़े हो चले हैं! किंतु अब पता चला कि इस्लामिक आतंकी संगठनों और RSS में कोई समानता नही है!सिर्फ एक इस्लामिक आतंकी पुलवामा में 46 फौजियों को मौत के घाट उतार देता है,जबकि पूरा RSS और भाजपा मिलकर भी एक पाकिस्तानी फौजी को आज तक नही मार पाये! हमने कभी नही सुना कि कराची, लाहौर,रावलपिंडी या पीओके में आर एस एस वालों ने किसी पाकिस्तानी फौजी का कत्ल किया हो!
हिंदूवादी दक्षिणपंथी केवल बातों के वीर हैं! गौ बध पर मॉब लिंचिंग भीड़ कर देती है और श्रेय RSS को दे दिया जाता है!अतएव जो लोग आर एस एस के खिलाफ लिखते हैं, बोलते हैं,वे पहले पता लगायें कि कब किसी RSS वाले ने किसी पाकिस्तानी फौजी को बम से या गोली से मारा? हाँ असीमानंद या साध्वी प्रज्ञा जैसे कुछ सिरफिरे हिंदुत्ववादी अपने ही देशमें कुछ इक्के दुक्के लव जेहादी अल्पसंख्यकों को डराने की असफल कोशिश जरूर करते रहे हैं ! किंतु गला रेतने वाले बर्बर और जल्लादों की बराबरी वे कदापि नहीं कर सकते ।
भारत को भी अमेरिका की तर्ज पर अफगान तालिवानियों से दोस्ती कर लेनी चाहिये,बशर्ते तालिवानी लोग हमें अजहर मसूद,हाफिज सईद और दाऊद जैसे आदमखोरों को सौंपने में मदद करे,तथा पाकिस्तान की सेना और ISI द्वारा ट्रेंड आतंकी घुसपैठ रोकने में मददगार साबित हो!
वेशक हर आतंकी मुसलमान नही होता ! किंतु दुनिया में इस्लामिक आतंकवादियों की बराबरी आज कोई भी साम्प्रदायिक संगठन नहीं कर सकता!RSS वाले केवल नरेटिव गढ़ते रहते हैं! वे आईएस,अल-कायदा या जैस-ए-मोहम्मद के पासंग बराबर भी नहीं हैं! वे अफवाहखोर और बेमनस्यता पैदा करने में माहिर हो सकते हैं,किंतु हिंसा और बर्बरता में सारे हिंदुत्ववादी मिलकर भी किसी एक इस्लामिक आतंकी संगठन की बराबरी नही कर सकते!
:-श्रीराम तिवारी
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 जो शख्श अपने पूर्वजों द्वारा ईमानदारी से अर्जित संपत्ति में से परिजनों के हक पर बुरी नियत रखता है,भ्रातद्रोह करता है,वह पापी है !उसको जीवन में सुख शांति नही मिलती! उसे मरणोपरांत सदगति भी नही मिलती!क्योंंकि जिसकी नियत में खोट हो,उसका यह लोक और परलोक दोंनों दुखदायी हो जाते हैं! क्योंकि *अंत मति सो गति*!

वतनपरस्त

 जो लोग पूंजीवादी व्यवस्था अंतर्गत शोषण के खिलाफ हैं, हिंसक अलगाववाद,आतंकवाद के खिलाफ हैं, किसान मजदूर के साथ हैं,ऐंसे नर नारी यदि अपनी ही सरकार पर आलोचनात्मक नजर रखते हैं और सरकार की उपलब्धियों को भी स्वीकारते हैं, तो वे सच्चे वतनपरस्त हैं!

जो शख्श अपने पूर्वजों द्वारा ईमानदारी से अर्जित संपत्ति में से परिजनों के हक पर बुरी नियत रखता है,भ्रातद्रोह करता है,वह पापी है !उसको जीवन में सुख शांति नही मिलती! उसे मरणोपरांत सदगति भी नही मिलती!क्योंंकि जिसकी नियत में खोट हो,उसका यह लोक और परलोक दोंनों दुखदायी हो जाते हैं! क्योंकि *अंत मति सो गति*!

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रविवार, 26 फ़रवरी 2023

दो कौड़ी की शायरी

 जो कवि, लेखक,पत्रकार, साहित्यकार अपने राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता पर नहीं लिखता, वो व्यर्थ ही अपना समय और कागज खराब करता रहता है। भारत के पड़ोसी देश हमेशा इस कोशिश में लगे रहते हैं कि किस तरीके अलगाववाद और आतंकवाद को बढ़ावा देकर भारत को कमजोर किया जाए।इस विषय पर न लिखकर कुछ लोग फोकट के जुमले और चुटकले सुनाकर मंचीय कवि बन जाते हैं।

अधिकांश शायर जो थोड़ी बहुत उर्दू समझते हैं,वे अपने बाप दादों की आधी अधूरी जूनी पुरानी व अप्रकाशित शायरी की धूल झाड़कर जिंदगी भर अपने नाम से सुनाते रहे।
यूक्रेन की सरहदों पर तनाव है क्या?
कुछ पता करो, यूक्रेन में चुनाव है क्या??
:-आफत इंदौरी उर्फ सूतियानंदन
इसी तरह की दो दो कौड़ी की शायरी सुनाकर अधकचरे साम्प्रदायिक शायरों ने न केवल भारतीय शोषित समाज का बल्कि अल्पसंख्यक समाज का भी अहित किया है! इन्होंने मुख्य मुद्दों से बाक़ी समाज का ध्यान हटाया है:-
आप का जाति, धर्म, समाज, घर, नौकरी, सड़क, बिजली, पानी, ज़मीन आदि तभी काम दे सकती है जब आपका राष्ट्र सुरक्षित हो. हारे हुए नागरिकों और शरणार्थियों की कोई जात नहीं होती.
राष्ट्र को प्रथम एवं आख़िरी प्राथमिकता बनाइये!!🌹

घोर व्यक्तिवादी और यशेषणा के मनोरोगी:

आर्थिक उदारीकरण और बाजारीकरण की नयी नीतियों के प्रारम्भिक दौर में जब पूर्ववर्ती पी एम द्वय नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह की पूंजीवादी जुगलबंदी ने देश और दुनिया के पूँजीपतियों -कार्पोरेट घरानों के लिए ,मल्टिनेसनल कम्पनियों के लिए भूमि अधिग्रहण की शुरुआत की थी तब भी देश की संसद में और देश की सड़कों पर सिर्फ वामपंथी ही इसके खिलाफ संघर्ष किया करते थे।
बाद में २०१४ के आते आते अण्णा हजारे और केजरीवाल जैसे अन्य सोशल एक्टिवस्ट ने मैदान पकड़ा। तो राजनैतिक नतीजे बहुत बाद में २० साल बाद दिल्ली और पंजाब में प्रकट हुए। जहां उन्होंने पहले केवल 'लोकपाल' की ही ढपली ही बजायी थी, वहां पूंजीपतियों के नाम पर उन्होंने मनमोहनसिंह को 'महाखलनायक' बना डाला। यूपीए को सत्ता से और कांग्रेस को भारत से मुक्त कराने का नेक काम किया गया ।उस 'लोकपाल' नामक ' बिजूके ' का तो अब चीथड़ा भी गायब हो चुका है । वेशक अन्ना के कर्मों का प्रति फल भाजपा और मोदी जी और केजरीवाल को ही भरपल्ले से मिला।
अन्ना आंदोलन का कुछ फल केजरीवाल और 'आप' को भी मिल गया । किन्तु देश की जनता को क्या मिला ? 'ठन-ठन गोपाल ! देश के किसानों को क्या मिला ? 'भूमि अधिग्रहण बिल'। मजदूरों को क्या मिला ? 'श्रम संशोधन बिल' । अण्णा हजारे को मिला अपयश। इसलिए अन्ना हजारे अब की बार जंतर-मन्तर पर ' मोदी विनाशक' मंत्र पढ़ रहे हैं। कुछ दिन बाद 'रामलीला' मैदान में वे कुछ और भी 'लीला' करेंगे।
विगत यूपीए के राज में भी कई बार संसद में और संसद से बाहर गैर कांग्रेस -गैर भाजपा विपक्ष ने भी ' भूमि अधिग्रहण बिल' का विरोध किया है। तब भाजपा विपक्ष में हुआ करती थी। उस ने भी बड़े वेमन से कई मौकों पर संसद से 'वाक् आउट' में शेष विपक्ष का साथ दिया है। ततकालीन यूपीए की नितांत मनमोहनी -चिदंबरी नकारात्मक नीतियों से परेशान जनता ने उसे विगत मई २०१४ में केंद्र की सत्ता से बेदखल कर दिया। अब भाजपा सत्ता में है। किन्तु वह यूपीए की उन्ही विनाशकारी नीतियों पर चलने पर आमादा है। खुद भाजपा की मातृ संस्था 'संघ' भी इस बिल पर दबी जबान से असहमति जता रही है। इधर संसद में नाम मात्र के विपक्ष - कांग्रेस , वामपंथी , जदयू ,सपा और क्षेत्रीय दलों की सीमित ताकत ने भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर सही स्टेण्ड लिया है । वेशक मोदी सरकार की सभी जगह थू-थू हो रही है। उनकी राह संसद से लेकर सड़कों तक कहीं भी आसान नहीं है। इस किसान विरोधी बिल को लेकर उसकी स्थिति 'साँप -छछूंदर' की हो चुकी है।
मोदी सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत किये जा रहे मौजूदा 'भूमि अधिग्रहण बिल' के खिलाफ सत्र के प्रथम कामकाजी दिवस पर ही संसद से 'सम्पूर्ण विपक्ष ' ने वाक् ऑउट ' किया। यह बहुत शानदार एकता है। यह एकता अस्थायी ही सही किन्तु उस सोच को प्रतिध्वनित करती है कि भारत में एकमात्र कृषि सेक्टर ही है जो १२५ करोड़ लोगों को भूँखों नहीं मरने देता। कृषि योग्य सिचित और दो-फसली , तीन फसली जमीन को किसी 'यूनियन कार्बाईड' जैसे मानवहंता के सुपुर्द करने का तात्पर्य 'सबका विकाश ,सबका साथ कैसे हो सकता है ? इसीलिये सम्पूर्ण विपक्ष ने संसद से बहिर्गमन कर बहुत अच्छा किया। देश की सड़कों पर और देश की संसद में जो भी इस बिल का विरोध कर रहे हैं वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं। उन सभी का यह देशभक्तिपूर्ण कार्य काबिले तारीफ़ है।
पहले ततसंबंधी अध्यादेश और अब इस 'भूमि अधिग्रहण बिल' की आज चारों ओर मुखालफत हो रही है। देश के १६० संगठनों सहित वामपंथ ने भी प्रमुखतः के साथ धरना दिया। प्रदर्शन भी किया। सभी संगर्षरत साथियों को लाल सलाम ! हालाँकि मीडिया को यह सब नहीं दिखा। सम्भव है कि लोक सभा में अपने प्रचंड बहुमत के मद चूर होकर सरकार इस 'भूमि अधिग्रहण बिल ' को वापिस ही न ले या आंशिक संशोधन ही करे किन्तु किसान विरोधी छवि तो उसकी बन ही चुकी है। हो सकता है कि भारतीय मध्य मार्गी मीडिया को केवल अण्णा की नौटंकी और केजरीवाल का नाटक ही दिखाई दिया हो ! उसे यूनियन गवर्मेंट या भाजपा के प्रवक्ता ही दिखाई दे रहे हैं। जो किसान आत्महत्या कर रहे हैं वे इस अपरिपक्व मीडिया को नहीं दिख रहे। जो किसान संगठन और वामपंथी ट्रेडयूनियन्स तथा कार्यकर्त्ता लगातार 'जल -जंगल-जमीन ' बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जेल जा रहे हैं , हिंसा शिकार हो रहे हैं वे इस वर्तमान मीडिया को कम ही दिख रहे हैं। सीपीआई नेता कामरेड पानसरे जैसे सैकड़ों क्यों मारे जा रहे हैं ? मीडिया को नहीं मालूम। वे तो अन्ना हजारे को भी नहीं देखते। यदि अण्णा दिल्ली कुछ नहीं करते।
मीडिया की ही कृपा से जनता के एक खास हिस्से को लगने लगता है कि मोदी जी देश के 'कर्णधार' हैं। कभी मीडिया की ही कृपा से 'आप' को लगता है कि केवल अण्णा हजारे ही देश का तारणहार है। जबकि मोदी जी एक साधारण राजनैतिक प्राणी मात्र हैं। अण्णा हजारे तो उनसे भी गए गुजरे हैं। वे घोर व्यक्तिवादी और यशेषणा का मनो रोगी है। अण्णा को जब भी लगने लगता है कि वह मीडिया से ओझल हो रह हैं या जनचर्चा से दूर हो रहे हैं , तो उनका दिल " हूम्म -हुम्म ' करने लगता है। बेकाबू होने लगता है। उनका दिल फौरन से पेस्तर दिल्ली कूच करने को मचलने लगता है। अण्णा को अपने पठ्ठों की कीर्ति भी रास नहीं आती। वे केजरीवाल से भी ईर्षा करते हैं । क्योंकि केजरवाल को अण्णा का इस्तेमाल करना आता है। अन्ना हजारे तो मन ही मन किरण वेदी की जीत चाहते थे। किन्तु जब किरण वेदी हार गयी तो अण्णा को क्रोध आ गया। अण्णा हजारे को अपने गुप्त सहयोगी 'आरएसएस' की भी अब उतनी जरुरत नहीं। इसीलिये 'संघ' के विगत अवदान को भूलकर वह दिल्ली में मोदी विरुद्ध अनुष्ठान का आह्वान कर रहे हैं। अन्ना को अपना नालायक चेला केजरीवाल अब काबिल पठ्ठा नजर आने लगा है। इसीलिये ही तो अपना वादा तोड़कर अन्ना ने जंतर-मन्तर पर 'आप' नेता केजरीवाल से मंच साझा करने की छूट दी। अब यदि वामपंथी नेता नाराज हों तो होते रहें। अण्णा सफाई देते रहें किन्तु केजरी का लड़कपन तो जाहिर हो ही गया।
अखिल भारतीय किसान सभा के जुझारू कामरेड हन्नान मौलाह [सीपीएम] और कामरेड अतुल अनजान [सीपीआई] भीअपने हजारों वामपंथी कार्यकर्ताओं के साथ अन्ना के इस धरने में शामिल हुए थे । चूँकि देश के किसानों के खिलाफ और इजारेदार पूंजीपतियों के पक्ष में मोदी सरकार द्वारा आहूत इस 'भूमि अधिग्रहण बिल' के खिलाफ राष्ट्रव्यापी एक जुट आंदोलन बहुत जरुरी है। इसलिए न केवल वामपंथ बल्कि हर देशभक्त भारतीय इस आंदोलन का आज समर्थन कर रहा है। इस आलेख के लेखक ने अपने पूर्व के कई आलेखों में - विगत बर्षों में मैंने अण्णा के व्यक्तित्व को और उनके आंदोलन को "अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल माना है''। हमेशा आशंका व्यक्त की है कि अन्ना का विचारविहीन अस्थिर मन और अनियंत्रित आंदोलन शायद ही किसी क्रांतिकारी बदलाव के लिए मुफीद हो ! अन्ना के 'मन में भावे मूड़ डुगावे ' से कौन परिचित नहीं है ? वे अपने आपको गांधीवादी कहते हैं किन्तु गांधीवाद का 'ककहरा' भी नहीं जानते। अण्णा व्यक्तिशः किसी राजनैतिक बन्दूक के खाली कारतूस से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मैं आज भी अपने उस पूर्ववर्ती स्टेण्ड पर अडिग हूँ। जिसे आज २४ फ़रवरी -२०१५ के धरने पर अरविन्द केजरीवाल ने सही साबित कर दिखाया। अरविन्द केजरीवाल को मंच साझा करने की इजाजत देकर अण्णा ने अपनी राजनैतिक अपरिपक्वता ही प्रदर्शित की है।
अण्णा और केजरीवाल की इस अप्रत्याशित हरकत का विरोध करते हुए जंतर- मंतर से कामरेड अतुल अनजान और कामरेड हन्नान मौलाह ने सही निर्णय लिया। इस अवसर पर जिन वाम पंथी किसान संगठनों , सिविल सोसायटी के साथ अण्णा हजारे ने धरना दिया उनकी अनदेखी की गयी। यह निंदनीय कृत्य है। न केवल अरविन्द केजरीवाल को मंच से तक़रीर का अवसर देकर सामूहिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा की गई। बल्कि उनके इस कृत्य में फासिस्ज्म की बू आती है। अण्णा हजारे और उनके चेले भूमि अधिग्रहण बिल का विरोध करें यह सभी को स्वीकार्य है। किन्तु वे इसकी आड़ में किये जा रहे आंदोलन का राजनैतिक समर्थन केवल अपने लिए जुटाएँ यह कदापि उचित नहीं है ।
केजरीवाल और अन्ना हजारे भले ही साहित्यकार न हों , भले ही उनके पास कोई क्रांतिकारी दर्शन नहीं है किन्तु कम से कम वे शब्दों का चयन तो ढंग से करें ! इस संदर्भ मेंआज का ही एक उदाहरण काबिलेगौर है। मीडिया को बाइट देते हुए केजरीवाल ने और मंच से अन्ना हजारे ने कई बार 'खिलाफत' शब्द का प्रयोग किया। उनके अधिकांस वाक्य इस प्रकार हैं। " हम केंद्र सरकार के इस किसान विरोधी बिल की खिलाफत करते हैं" या 'हम भृष्टाचार की खिलाफत करते हैं " आम आदमी इस खिलाफत शब्द का सत्यानाश करे तो माफ़ किया जा सकता है। किन्तु 'आम आदमी पार्टी ' का नेता केजरीवाल और अपने आप को गांधीवादी कहने वाले बड़े समाज सेवी अन्ना हजारे द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द की दुर्गति नाकाबिले - बर्दास्त है। केजरीवाल को , अन्ना हजारे को और उन सभी को जो सार्वजनिक जीवन में काम करते हैं - मेरा यह सुझाव है कि वे 'खिलाफत' शब्द का इस्तेमाल ही न करें तो बेहतर है। दरअसल खिलाफत का मतलब है 'इस्लामिक बादशाहत '।या "धर्मगुरु की सर्वोच्च सत्ता" । दरशल इस खिलाफत शब्द पर तो बहुत बड़ा ग्रन्थ भी लिखा जा सकता है। कुछ लोग हिंदी के 'विरोध' शब्द की जगह अरबी-फारसी का या उर्दू का यह 'खिलाफत' शब्द जबरन घुसेड़ देते हैं। यदि किसी को उर्दू या फ़ारसी का इतना ही शौक चर्राये ,तो उसे चाहिए कि उस जगह ' मुखालफत' शब्द का प्रयोग करे , जहाँ वह 'विरोध' शब्द कहने सुनने या लिखने से कतराता है।
श्रीराम तिवारी
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भारत की गुलामी का एक मात्र कारण अहिंसा नीति ही नही है!

 अतीत में कुछ लेखक इतिहासकार सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी को ही भारतीय गुलामी का इतिहास बताने की भयंकर भूल करते रहे हैं! खास तौरपर इस्लामिक और अंग्रेज इतिहासकारों के प्रभाव में हमारे इतिहासकारों ने हलाकू,चंगेज खान,तैमूर लंग, मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनबी, मुहम्मद गौरी,बाबर,दुर्रानी,अब्दाली,मलिक काफूर,इत्यादि लुटेरे-हत्यारे महा जंगखोरों को विदेशी नहीं मानना

कुछ लोगों ने प्रगतिशीलता के नाम पर इतना अंधेर मचा दिया कि वे 'शाश्वत सत्य' को भी कंजरवेटिव,पोंगापंथ मानने लगे।जिन्हें बर्बर कबीलों का आक्रमण देशभक्तिपूर्ण जचता हो, वास्तव में यह वीभत्स इतिहास उन्हें सपने में डराता है। कट्टर हिंदुत्ववादी भी गलत धारणा लिए हुए हैं कि उनके मार्ग के गतिअवरोधक -इस्लाम,ईसाई और अन्य धर्म पंथ मजहब हैं!
किन्तु वे अपनी आत्मालोचना के लिए जरा भी तैयार नहीं हैं। वे यह नहीं जानना चाहते कि संस्कृत वांग्मय में और अन्य भारतीय भाषाओँ के पौराणिक लेखन में आम जनता को केवल मूक 'दासत्व' बोध ही क्यों सिखाया जाता रहा है।और यदि'मुहम्मद बिन कासिम' मारकाट मचाता हुआ -लूटपाट करता हुआ सिंध -गुजरात को मसलकर सोमनाथ मंदिर ध्वस्त कर किस भारतीयता का परिचय दिया है। दूसरा यक्ष प्रश्न है कि तब भारत में 'अहिंसा परमोधर्म:' का उद्घोष कौन कर रहा था ?
दरसल भारत की गुलामी का एक मात्र कारण अहिंसा नीति ही नही है! माना कि अहिंसा तो देवत्व का,स्वर्ग प्राप्ति का साधन है,किंतु बर्बर यायावर, आक्रमणकारी हिंसक लुटेरे नही जानते थे कि अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह का पालन करने वाले ऋषियों मुनियों की धरती पर हमला करके उन्होंने भारत भूमि के देवत्व पर हमला किया है। दरसल वे सिर्फ नर संहार जानते थे। वे अल्लाह के बाद सिर्फ अपने खलीफा को सुप्रीम मानते थे!
जबकि महान भारतीय सनातन सभ्यता का पालन करने वाले नर नारी जीव मात्र को ब्रह्ममय देखते थे!वे अपने बचन का पालन करने के लिये प्राण भी न्यौछावर कर दिया करते थे! नारियां अपने सतीत्व की रक्षा के लिए यमराज से लड़ने की हिम्मत रखतीं थीं।
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You, K.k. Dubey, Umesh Jain and 9 others