बुधवार, 15 फ़रवरी 2017

नस्लवाद और साम्प्रदायिकता - देश के दुश्मन!

भारतीय उपमहाद्वीप में 'राष्ट्रवाद' का सृजन प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान १८५७ में ही प्रारम्भ हो चुका था। मंगल पांडे ,तात्या टोपे ,स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका आर्य समाज ,स्वामी विवेकानंद और उनका पवित्र रामकृष्ण मिशन ,चाफेकर बंधू,शचीन्द्रनाथ सान्याल,बंकिमचन्द्र ,भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे अनेक हुतात्माओं के चिंतन में 'राष्ट्रवाद' समाया हुआ था। लेकिन जब अंग्रेजों द्वारा 'बंग भंग' आंदोलन जैसे क्षेत्रीय -भाषाई -मजहबी उन्माद पैदा किये गए  और 'फूट डालो राज करो' की कूट नीति अमल में लायी गयी तो परिणामस्वरूप मुस्लिम और हिन्दू एक दूसरे को संदेह से देखने लगे। साम्प्रदायिक प्रर्तिस्पर्धा अंगड़ाई लेने लगी। पंद्रह अगस्त -१९४७ से पूर्व ही इस धरती का भारतीय उपमहाद्वीप का सामाजिक ताना बाना उलझ गया। ईसवीं सन १८८५ से कांग्रेस की स्थापना के बाद स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व वास्तविक 'राष्ट्रवादी' था जो गंगा जमुनी तहज़ीब को पुष्ट करता हुआ आगे बढ़ रहा था। लेकिंन भारतीय भविष्य की नियति को शायद यह मंजूर न था। स्वतन्त्रता संग्रामके संघर्षको कमजोर करनेके लिए एवं कांग्रेसके तत्कालीन धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व को कमजोर करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने मुस्लिम लीग तथा आरएसएस जैसे साम्प्रदायिक संगठन पैदा करने में महती भूमिका अदा की!अंग्रेजों ने दलित,पिछड़े एवं तमिल भाषी अलगाववादी नेताओं को तथा देशी राजे रजवाड़ों को पूरी छूट दी थी कि जहाँ चाहो वहाँ शामिल हो जाओ !भारत निर्माण के इन गतिअवरोधकों की वजह से भारत विभाजन हुआ था। जो लोग स्वाधीनता संग्राम के संघर्षशील नेतत्व पर देश विभाजन का आरोप लगाते हैं ,उन्हें बहुत गलत जानकारी दी गयी है।

अतीत में मुस्लिम लीग ,हिन्दू महासभा,आरएसएस ,हिन्दू मुन्नानी ,सनातन सभा तथा आनंदमार्ग जैसे साम्प्रदायिक संगठन किसी धार्मिक या मजहबी आस्था के निमित्त नहीं बनाये गए ,अपितु वे भविष्य के प्रति 'अविश्वास' और भय की पैदाइश माने जा सकते हैं । यह कटुसत्य है कि 'डिवाइडेड एंड रूल' के तहत ही अंग्रेजों की प्रेरणा से ही ये साम्प्रदायिक संगठन हमेशा दंगा फसाद आयोजित करने में जुटे रहे। अंग्रेजी हुकूमत और उनके देशी पिठ्ठुओं द्वारा गुलामी के दिनोंमें किया गया साम्प्रदायिक बीजारोपण अब दक्षिण एशिया का स्थाई सिर दर्द बन गया है। उधर मुस्लिम कट्टरवाद की आग में पूरा पाकिस्तान धधक रहा है, इधर भारत में जहाँ -जहाँ साम्प्रदयिक तत्व संगठित हैं,वहाँ -वहाँ की जनता का अमन -चेन छिन गया है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश ,बंगाल,हैदराबाद और कश्मीर में कटटर पंथी मुसलमान हिंसा पर उतारू हैं तो भाजपा शासित राज्योंमें जहाँ कटटरपंथी हिन्दू संगठन हैं वहां हिन्दू आक्रामक हो रहे हैं। गनीमत है कि फिर भी भारतराष्ट्र अपने संविधानके सारतत्व -धर्मनिरेपक्षता और लोकतान्त्रिक समाजवादी गणतंत्र की अवधारणा पर मजबूती से खड़ा है। यह पक्की बातहै कि भारतमें लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को डिगाने वाले खत्म हो जायेंगे। लेकिन भारत राष्ट्र की गंगा जमुनी संस्कृति अखंड ज्योति बनकर निरंतर जलती रहेगी। नस्लवाद और साम्प्रदायिकता की राह पर यह देश कभी नहीं चल सकेगा ।

'अंधराष्ट्रवादी' और साम्प्रदायिक संगठन के लोग अक्सर लेफ्ट को और धर्मनिरपेक्ष लोगो को 'देशद्रोही' बताते हैं।जबकि वामपंथी हमेशा ही सभी धर्मजाति और सम्प्रदायों से ऊपर उठकर सभी शोषितों के पक्ष में मजबूती से संघर्ष के लिए अडिग रहते हैं। वामपंथी दल और उनके समर्थक पूंजीवादी लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया में भले ही पिछड़ जाया करते हैं ,किन्तु वे अपने एकजुट संघर्षों से वर्गीय एकता कायम करते हुए ,परोक्ष रूप से अपने राष्ट्र की एकता में योगदान भी करते हैं। जबकि वास्तव में जो अपने आपको 'देशभक्त' कहते हैं , वे नस्लवादी और साम्प्रदायिक लोग असल 'देशद्रोही' होते हैं! जो जितनी अधिक देशभक्ति दिखाने का नाटक करता है ,वह उतना ही अधिक'देशद्रोही' हुआ करता है। देश के नौजवानों को इन नकली देशभक्तों के झांसे में नहीं आना चाहिए।
  
द्वतीय विश्वयुद्ध उपरान्त ब्रिटिश जनता ने साम्राज्यवादी दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी को हराकर वामपंथी लेबर पार्टी को सत्ता सौंप दी। चूँकि उन दिनों भारत का स्वाधीनता संग्राम चरम पर था ,कांग्रेस 'अहिंसा'के रास्ते संघर्ष कर रही थी। लोकमान्य तिलक,लाला लाजपत राय,सचीन्द्रनाथ सान्याल ,विपिन चन्द पाल ,मुजफ्फर अहमद, रामप्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्लाखां,भगतसिंह ,राजगुरु और चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के नेतत्व में भारत के मजदूर -किसान संगठित होकर वोल्शेविक क्रांति की ओर बढ़ रहे थे। ब्रिटेन में जनता द्वारा विराट जनादेश मिलने पर नवनिर्वाचित लेबरपार्टी की सरकार ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को ही आजाद कर दिया। इस इलाके के जिन राजाओं ने ब्रिटेन से आजादी नहीं मांगी उन्हें भी ब्रिटश ऐटली सरकार ने आजाद कर दिया। किन्तु भारत में उस समय लार्डमाउंटवेटन वायसराय थे,वे महारानी एलिजावेथ के निकट रिस्तेदार थे ,इसलिए उन्होंने पुराने कंजरवेटिव एजेंडे के अनुसार भारत के तीन-चार टुकड़े कर दिए। भारत,पाकिस्तान,नेपाल,कश्मीर और सिक्कम को ही नहीं बल्कि उन्होंने ५६० देशी राजाओं को भी खुली छूट दे दी कि जहाँ चाहो रहो या आपस में लड़ते -मरते रहो। आजादी मिलने पर पूरे उपमहाद्वीप में अविस्वाश आधारित साम्प्रदायिकऔर जातीय संघर्ष छिड़ गया। कांग्रेस नेताओं और गाँधी जी से जितना बना उन्होंने हिंसा को रोका। लेकिन एक आस्तीन के सांप ने गाँधी जी को मार डाला। उसी हत्यारे के वंशज इन दिनों 'राष्ट्र्वादी' कहलाते हैं।

आजादी के बाद पाकिस्तान के मदरसों में बहावी धारा के इस्लामिक राष्ट्रवाद  का प्रचलन बढ़ने से शिया-सुन्नी झगड़े बढे और साथ ही भारत के विरुद्ध विषवमन भी बढ़ता गया। प्रतिक्रियास्वरूप भारत में भी 'हिन्दूराष्ट्रवाद' का गुणगान होने लगा। असल राष्ट्रवाद पीछे छूटता चला गया और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की जगह दोनों ही मुल्कों में हिटलर -मुसोलनी वाले 'राष्ट्रवाद' का गुणगान होने लगा है । १९७१ में जब 'सोवियतसंघ' के सहयोग से भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े  करते हुए बांग्ला देश बनाया ,तब इस नस्लवादी राष्ट्रवाद की फसल परही इंदिराजी ने चुनाव जीत लिया था। उस युद्ध के बाद भारत और पाकिस्तान की जनता ने बड़ी शिद्दत से 'राष्ट्रवाद' का अनुभव किया है। आजादी के ७० साल बाद भारतीय उपमहाद्वीप  में बारूदी धुंआँ बढ़ता जा रहा है। लोकतंत्र,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हासिये पर जा चुके हैं। पाकिस्तान की हुकूमत तो  नाम मात्र की जम्हूरियत पर टिकी है। उधर इस्लामिक तत्ववादी -कट्टरपंथी आतंकवादी हावी हैं।भारत के शासन-प्रशासन पर भी अब 'अनुदार'हिदुत्ववादी काबिज हैं ! चूँकि पाकिस्तान आजादी के तुरन्त बाद से ही फौजी चंगुल में फंसगया था और पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का जिम्मा आईएसआई एवम कठमुल्लों ने ले लिया । जबकि भारत में पंडित नेहरू ,शास्त्री और इंदिरा गाँधी ने  धर्मनिरपेक्षता को ही सींचा। इसीलिये भारत में पाकिस्तान के स्थाई कट्टरवाद-आतंकवाद की प्रतिक्रिया होना स्वभाविक था । हालाँकि भारत में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हैं और संविधान बहुत ताकतवर हैं किन्तु अशांत राष्ट्रके लिए चूनौतियाँ भी काम नहीं हैं। सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदयिक उन्माद जातीयतावाद और आतंकवाद हैं !

वीपी सिंह के दौर में जब मंडल-कमंडल की राजनीती का द्वंद प्रारम्भ हुआ तो उस द्वंद ने 'संघ परिवार' को ताकतवर बनाया, धीरे-धीरे यह 'हिंदुत्ववादी परिवार' सत्ता के नजदीक पहुँचने के काबिल होता चला गया। संघ परिवार ने 'विश्व हिन्दू' परिषद के मार्फ़त कई संतों ,महात्माओं ,महामण्डलेश्वरों ,शंकराचार्यों  स्वामियों, बाबाओं, बाबियों को प्रोजेक्ट किया। हिन्दू धर्म का एक सनातन  सद्गुण यह रहा है कि जब भी कोई शासक बदमाशी करता था तो ऋषि-मुनि या राजगुरु उन्हें सही राह दिखाते थे। आजकल का फैशन है कि प्राचीन उदाहरण तो मिथ  माने जाते हैं, किन्तु शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास ,पेशवाओं के गुरु रामशास्त्री के उदाहरण तो इतिहास के जीवन्त प्रमाण हैं, कि धर्मगुरु चाहें तो क्रूर शासक को भी न्याय पूर्ण शासन के लिए बाध्य कर सकते हैं।

अतीत के भारत ने बहुत धोखे खाये हैं। और चूँकि दूध का जला छाँछ भी फूंक -फूंक कर पीता है। इसलिए भारत में 'राष्ट्रवाद' की अनुगूंज स्वाभाविक है। लेकिन इस कूपमण्डूक 'राष्ट्रवाद' से श्रेष्ठ वह अन्तर्राष्टीयतावाद है जो हिन्दू धर्म के ग्रन्थों में बहुत पहले से ही उल्लेखित है कि 'वसुधैव कुटुम्बकम '!मार्क्स -एंगेल्स, लेनिन ने तो इसे धो-माँज कर वैश्विक ही किया है। यह बात अलहदा है कि पढ़े-लिखे लोग भी इस अन्तराष्टीयतावाद को समझ नहीं पाए हैं।
भारत में वीएचपी के बंधु -बांधवों ने राष्ट्रवाद का यह 'पवित्र' कार्य शायद  पाकिस्तानी,ईरानी कठमुल्लों से सीखा है। इसीलिये आधुनिक कथा वाचक 'संत' लोग  कीर्तन करते हुए 'राष्ट्रवाद' पर भी प्रवचन देने लगेहैं । श्री,श्री,योग गुरु स्वामी रामदेव  सन्त आसाराम,और अन्य अधिकान्स मठाधीश इस महायान,के हीनयान में जुटे हैं।जबसे इन  महान गुरु घंटालों ने 'देशभक्ति' का मोर्चा संभाला है, तबसे भारत में रायसीना हिल से लेकर झुमरी तलैय्या तक 'राष्ट्रवाद'का उद्घोष सुनाई पड़ रहा है। और दिल्ली सल्तनत पर अब 'रामभक्त'विराजित हैं !जय राम जी की !

वेशक प्रगतिशील और धर्मनिपेक्ष लोग भीकिसी से कम देशभक्त नही हैं ,किन्तु उनकी राष्ट्रवादी परिभाषा में देश के साथ साथ गरीब 'इंसान'की चिंता महत्वपूर्ण है। जबकि दक्षिणपंथी संगठनों के तेवर कुछ इस तरह के हैं कि वे गाय ढोरोंके मरने को भी 'राष्ट्रवाद'से जोड़ दिया करते हैं। यदि किसीने अफवाह उड़ादी कि अमुक के पास 'बीफ' है तो 'अंध राष्ट्रवाद' की बिजलियाँ किसी बेगुनाह 'अखलाख' पर गिरना अवश्यम्भावी है।इस अंधराष्ट्रवाद के उभार में सिर्फ आरएसएस या 'हिंदुत्ववादियों 'का ही हाथ नहीं है बल्कि इसमें पाकिस्तान,आईएसआईएस की भी बहुत बड़ी भूमिका है। इसके अलावा भारत में भी आस्तीन के सांप पल रहे हैं। उन सपोलों का भी 'हिंदुत्ववाद'को और अंधराष्ट्रवाद को हरा करने में बड़ा हाथ है। भारत में ऐंसे लोग बहुत हैं जो  इस थाली में खाते हैं और इसी में छेद भी करते हैं। इन दोनों दक्षिण पंथी धड़ों के द्वंद में भारत पीस रहा है। हरेक प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति का यह दायित्व है कि किसी एक साम्प्रदाय का पक्षधर न बने और  इस द्वंद का हिस्सा भी न बने। बल्कि सही राह बताये। यह तभी सम्भव है जब अतीत का सही अध्यन हो और वैज्ञानिक दृष्टि से 'राष्ट्र' को देखने समझने का विजन हो।

इन दिनों अखवारों ,टेलीविजन और सोशल मीडिया की भाषा में राष्ट्रवाद,देशद्रोह ,गद्दार ,राष्ट्रस्वाभिमान और विदेशी जैसे शब्दों का काफी चलन है। यह अचानक या अप्रत्याशित नहीं है। बल्कि बाकई आजादी के ७० साल बाद भी भारत की सीमाएं कहीं से भी सुरक्षित नहीं हैं। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सैन्य शक्ति होते हुए भी भारत अंदर -बाहर दोनों ओर से असुरक्षित है। अचरज की बात यह है कि  जिन कारणों से यह  प्राचीन राष्ट्र बार-बार गुलाम हुआ वे कारण आज भी यथावत हैं.इन कारणों की ऐतिहासिक पड़ताल पड़ताल किये जाने की जरूरत है।यदि उन कारणों का निदान किया जाए तो 'भारत राष्ट्र' और उसकी जनताको साम्प्रदायिकता से, जातिवाद से और आसन्न गुलामी के भय से मुक्त किया जा सकता है।मेरे इस आलेख की विषयवस्तु का मुख्य उद्देश्य यही है।

पुरातत्व और इतिहास का साङ्गोपाङ्ग अध्यन करने पर हम पाते हैं कि ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ही भारतीय उपमहाद्वीप में 'राष्ट्रों' के मानचित्र बनते-बिगड़ते रहे हैं। वैसे तो इस उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम में सांस्कृतिक , सामाजिक रूप से समृद्ध और सैन्य शक्ति के रूप में सबसे ताकतवर 'आर्य' लोगों ने बहुत आध्यात्मिक उन्नति कर ली थी। उन्होंने अपने वैदिक मन्त्रदृष्टा ऋषियों के श्रीमुख से अहिंसा,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की महिमा सुन रखी थी,वेदों ,उपनिषदों और आरण्यकों में इसका उल्लेख बार-बार आया है ,किन्तु कालांतर में जब उन्हें गलत फहमी हुई कि दुनिया सिर्फ उतनी है है जितनी उनके शास्त्रों में बतायी गयी है तो वे बाह्य आक्रमणों के प्रति लापरवाह होते चले गए और 'अहिंसा परमोधर्म' इस  भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे लोकप्रिय मन्त्र हो गया।जब राजा-प्रजा सब केसब यहाँ 'बुद्धम शरणम गच्छामि'उच्चरित कर रहे थे तब पश्चिम एशिया और अरब कबीले आपस की लड़ाई खत्म कर इस महाद्वीप पर चढ़ दौड़े।

साम्राज्य्वादी ताकतों ने १५ अगस्त १९४७ से पहले ही भारतीय उपमहाद्वीप का भविष्य लिख दिया था।विभाजन से बहुत पहलेही इस उपमहाद्वीप का अधिकांस इतिहास लेखन यूरोपियन साहित्यकारों और अंग्रेज 'प्रभु' वर्ग के कर कमलों द्वारा  होता रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और पोप के नुमाइंदों ने इस बात का पूरा ख्याल रखा कि इस गुलाम धरती की संस्कृति,सभ्यता,भाषा और एकता को कहीं से भी आक्सीजन न मिल पाये। प्रथम विश्व युध्द के बाद ,आजादी मिलने के पूर्व  मुहम्मद अली जिन्ना ने जब 'दो राष्ट्र' का सिद्धान्त पेश किया,तब 'अविभाजित इंडिया' के इतिहास लेखन में  हिन्दू-मुस्लिम धड़ेबंदी शुरू हो चुकी थी। चूँकि अंग्रेजों से पहले भारत के अधिकांस सूबों की राजभाषा फ़ारसी  हुआ करती थी,इसलिए अधिकांस इतिहास और साहित्य लेखन भी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ता गया।चूँकि संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं में इतिहास लेखन की कोई परम्परा नहीं थी,इन भाषाओँ में जो कुछ लिखा जाता रहा वह या तो राजाओं-सामन्तों की चमचागिरी थी या विशुद्ध आध्यात्मिक दर्शन ही था।इस भक्ति काव्य और लालित्यपूर्ण लेखन में कुछ धीरोदात्त चरित्र के नायक-नायिकाओं को 'भगवान्' होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। लेकिन शोषण -दमन के प्रतिकार का,विदेशी हमलों से निपटने का कोई चिंतन मनन नहीं था।

केवल साम्यवाद ही भारत को एकजुट रख सकता है।

कुछ बदमाश लेखक इतिहासकार सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी को ही भारतीय गुलामी मानते हैं ,वे मुहम्मद बिन कासिम,गजनी,गौरी,बाबर ,दुर्रानी,अब्दाली,मालिक काफूर,चंगेज खान ,हलाकू,तैमूर लंग इत्यादि लुटेरे-हत्यारे जंगखोरों को विदेशी नहीं मानते। कुछ लोगों ने प्रगतिशीलता के नाम पर इतना अंधेर मचा रखा है कि वे 'सत्य' को भी कंजरवेटिव और पोंगापंथ मानने लगे हैं। जिन्हें इस्लामिक कबीलों का बर्बर आक्रमण देशभक्तिपूर्ण जचता है वास्तव में यह इतिहास उन्हें सपने में डराता है। वेशक आरएसएस वाले और हिंदुत्ववादी लोग भी गलत धारणा लिए हुए हैं कि उनके मार्ग के गतिअवरोधक -इस्लाम,ईसाई और कम्युनिस्ट है। किन्तु वे आत्मालोचना के लिए जरा भी तैयार नहीं हैं। वे यह नहीं जानना चाहते कि  संस्कृत वांग्मय में और अन्य भाषाओँ के पौराणिक लेखन में आम जनता को केवल 'दासत्व' बोध ही सिखाया जाता रहा है।और 'मुहम्मद बिन कासिम' मारकाट मचाता हुआ -लूटपाट करता हुआ जब सिंध -गुजरात को मसलकर सोमनाथ मंदिर ध्वस्त कर रहा था,तब भारत में 'अहिंसा परमोधर्म:' का उद्घोष कौन कर रहा था ?

हिंदुत्वादी और धर्मनिरपेक्ष  दोनों ही तरफ के इतिहासकर यह भूल जाते हैं कि जब सम्राट हर्षवर्धन बौद्ध भिक्षु हो गया ,जब उसका सम्राज्य  खण्ड -खण्ड  हो गया ,जब भारतीय महाद्वीप पूरी तरह असुरक्षित हो गया तब किसी विदेशी खूँखार दरिंदे के लिए ,किसी बर्बर कबीलों के लिए यह देश चरागाह क्यों नहीं बन गया होगा ? भारत में 'गुलाम' शब्द के आगमन का असल इतिहास यही है। लेकिंन जब कोई इतिहासकार इस सच को छुपाकर  विदेशी हमलावरों की डायरी के पन्नों को उद्धृत करते हुए कुछ मनघडंत कहानी पेश करता है तब उस बेईमानी का पर्दाफास किया जाना जरुरी है। इसी तरह जब कोई पोंगा पंडित धर्म ग्रन्थों को इतिहास बताता है तब देख सुनकर बड़ी कोफ़्त होती है।

हिंदुत्ववादी इतिहासकार रामायण -महाभारत के नजरिये से इतिहास लिखने बैठता है तो वह भी घोर अनर्थ कर बैठता है।हिंदुत्ववादी इतिहासकार यदि लिखता है कि भगवान श्रीराम अपने पिता की आज्ञा पालन करते हुए १४ साल वन में रहे। उनकी पत्नी का पंचवटी में हरण हुआ। उन्होंने वानरों की मदद से लंका पर आक्रमण किया और सपत्नीक वापिस अयोध्या लौटे। कोई माने या न माने किन्तु इसमें कुछभी मिथ नहीं है. यह विशुद्ध इतिहास है।लेकिन जब कोई  'हिंदुत्ववादी' इतिहासकार लिखता है कि श्रीराम ने  अपने बाण से समुद्र को  झुलस दिया ,उनके नामलिखे  पत्थर तैरने लगे ,उन्होंने अहिल्या की पाषाण प्रतिमा पर पैर रखा तो वह अनिन्द्य सुंदरी प्रकट होकर उनकी स्तुति करने लगी, भगवान् श्रीराम ने दस हजार सालतक अयोध्या पर राज किया इत्यादि इत्यादि, तब यह इतिहास नहीं बल्कि आस्था बोल रही होती है। प्रगतिशील इतिहासकारों-लेखकों का यह दायित्व था कि वे इस गलत -सलत इतिहास को दुरुस्त करते। किन्तु उन्होंने इस लेखन को दुरुस्त करने के बजाय उसका उपहास किया और स्याह अतीत के फ़ारसी और धूर्त अंग्रेजी लेखकों का ही अनुकरण किया।हालाँकि उनका मन्तव्य गलत नहीं था, उन्होंने सामाजिक-समरसता-एकता के निमित्त यह सिद्धांत लिया था। किन्तु वैज्ञानिक अन्वेषण और साक्ष्य-सम्मत यथार्थ इतिहास को नजरअंदाज कर वे घूम फिरकर उन्ही दो सन्देहास्पद 'साक्ष्यों' के आश्रित होते चले गए जो विदेशी बर्बर हमलावरों -विजेताओं ने पूर्व में प्रस्तुत किये हैं।अधिकांस वामपंथी साथी अभी भी उस कड़वे सच का सामना करने को तैयार नहीं है। वे अभी भी अंग्रेजी,फ़ारसी और उर्दू में लिखे गए मध्ययुगीन इतिहास पर यकीन करते हैं.वे संस्कृत ,पाली,अपभ्रंस साहित्य को पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझते। इसी तरह कट्टर हिंदुत्ववादी लेखक और इस्लामिक विद्वान भी आत्मालोचना करने को तैयार नहीं हैं। वे एक दूसरे की खामियों ढूंढने में जिंदगी गुजार देंगे, किन्तु एक दूजे के सद्गुणों पर गौर फरमाने को तैयार नहीं हैं।

रामचन्द्र गुहा ,रोमिला थापर,प्रोफेसर इरफ़ान हबीब जैसे वामपंथी इतिहासकारों को भारतीय संस्कृत वांग्मय के बारे में शायद समुचित ज्ञान नहीं रहा होगा,उन्होंने  बाबरनामा ,अकबरनामा जहांगीरनामा,आइन -ए -अकबरी के लेखन को आधार बनाया अथवा अंग्रेज ,जर्मन, चीनी ,मध्य एशियाई  यायावर लेखकों को ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया। उन लोगों ने क्या गलत लिखा है यह पड़ताल करने की कोशिश नहीं की। इसी तरह कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी भी आत्मालोचना के लिए तैयार नहीं हैं। खैर कट्टरपंथी हिन्दू-मुस्लिम ,सिख -ईसाई तो आस्था या श्रद्धा के वशीभूत हैं ,किन्तु  प्रगतिशीलऔर वामपंथी भी केवल वही गलत-सलत खटराग क्यों बजाये जा रहे हैं ?जो अंग्रेजों या अन्य विदेशी हमलावरों ने भारत के बारे में फरमाया है।अभी तक तो सभी अपनी-अपनी सोच के अनुरूप ही इतिहास लेखन करते आये हैं।असल इतिहास लिखा जाना बाकी है। और वह तब तक नहीं लिखा जासकता जब तक उसे धर्म-मजहब के नजरिये से मुक्त नहीं किया जाता ।

यद्द्पि वैज्ञानिक साम्यवाद और कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं पर मुझे कोई सन्देह नहीं है। किन्तु भारतकी जटिलतम समाज व्यवस्था के मद्देनजर ,कभी -कभी मेरे मन में एक मुश्किल सवाल उठता है। प्रश्न यह है कि जिन देशों की पुरातन सांस्कृतिक विरासत एक है ,राष्टीयता एक है,धर्म -मजहब एक है,जाति भी कमोवेश एक ही है, भाषा एक है,जब उन देशों में क्रांति के लिए 'वर्ग संघर्ष' सफल नहीं हो पाया,तो भारत जैसे बहुसांस्कृतिक,बहुभाषाई,बहुधर्मी
बहुजातीय,बहुमजहबी और क्षेत्रीय 'बहुलतावादी' समाज में किसी एकनिष्ठ क्रांति की सम्भावनाऐं कितनी हैं ?यहाँ आशाकी एकमात्र किरण यही है कि भारतका विखण्डित 'सर्वहारावर्ग' अपने बीच मौजूद तमाम वर्गभेदों से ऊपर उठकर एकजुट हो जाए। शोषित-पीड़ित जनता, 'मजदूर-किसान,छात्र- युवावर्ग 'में व्यापक एकता कायम हो और एक संगठित  'शोषित वर्ग' की नई पृथक पहचान स्थापित हो। यदि यह संगठित जनशक्ति अपने 'शोषक वर्ग' के विरुद्ध  'वर्ग संघर्ष' का शँखनाद कर दे,तो इस अर्धसामंती-अर्धपूँजीवादी भृष्ट सिस्टम से भारत को भी मुक्ति मिल सकतीहै। अन्यथा जातीय,धर्म-मजहब,खाप,क्षेत्र,भाषा,सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव की क्रूर जंजीरों में बँधा यह शोषित पीड़ित भारतीय समाज रहती दुनिया तक शोषण का शिकार होता रहेगा ।

मुझे नहीं मालूम कि मानव सभ्यता के विकास क्रम की किस मंजिल पर भारत में वर्ण व्यवस्था कायम हुई और वह जातीयता में कब कैसे रूपांतरित होती चली गई ? अब इन प्रश्नों के उत्तर उतने महत्वपूर्ण नहीं ,जितना यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि इस जातीय विभाजन का सर्वमान्य हल क्या हो ?वर्णाश्रम धर्म, वर्ण व्यवस्था के उदभव एवम विकास क्रम में उसका उल्लेख तो भारतीय संस्कृत वाङ्ग्मय में  मिलता है किन्तु तत्सम्बन्धी सामाजिक दुराव या विभाजन उतना उन्मादी नहीं था,जितना भारत में विदेशी हमलों के बाद हो गया और अब इस दौर में हिंसक तथा उन्मादी हो चला है। अपने उद्भवकाल में  वर्णाश्रम व्यवस्था विकास क्रम की आवश्यकता के अनुरूप सभी को सहज स्वीकार्य थी ,किन्तु जब बाहरी बर्बर कबीलाई समाजके भारत पर आक्रमण हुए तब उन हिंसक विजेताओं ने  जानबूझकर आर्य बनाम स्थानीय आदिम जनजातियों और द्रविड़ सभ्यता के महीन भेद को बिकराल रूप देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।

उपमहाद्वीपीय सभ्यता के उत्थान-पतनके उपलब्ध अवशेष इंगित करते हैं कि आर्य बनाम आदिवासी और आर्य बनाम और द्रविड़ सभ्यता के आपसी द्वंद से इस धरती की नैसर्गिक सभ्यता का उत्थान-पतन होता रहा है।लेकिन बाह्य आक्रमण कारियों ने इस द्वंद की आगको हवा देकर जो गुनाह किया वह कुदरती झंझावतों से ज्यादा दुखद और भयावह रहा है। विदेशी हमलों और प्राकृतिक दुर्घटनाओं ने मिलकर भारतीय सभ्यता - संस्कृति के विकास मार्ग को सतत अवरुद्ध किया है। विकासक्रम में जो कुछ भी सामाजिक विभाजन हुआ उसमें आर्य बनाम 'अनार्य' के द्वंद ने भी खासी भूमिका अदा की है। धुर दक्षिण और धुरउत्तर भारत अवश्य अपनी नैसर्गिक सभ्यता-संस्कृति के केंद्र बने रहे ,किन्तु 'आर्य' सभ्यता के और अन्य सभ्यताओं के भारत आगमन के बाद उपमहाद्वीप के हर कोने में सामाजिक बदलाव दरपेश हुए। भारतीय क्षत्रिय वर्ण के सामन्तों के आपसी वैमनस्य से बाह्य हमले सफल हुए। क्षत्रियों के राजनैतिक पतन के बाद आर्य ऋषियों ने शक,हूणों,कुषाणों,तोर्माणों  के वंशजों को 'राजपुत्र' मानकर तत्कालीन नई सामाजिक मांगके अनुरूप एक नई जातीय,सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था की संरचना को पुनः आकार दिया। तदुपरान्त नए वर्ण जातीय समाज ने और भौगोलिक क्षेत्रीय भाषाई विभाजन ने जम्बुदीपे भरतख्ण्डे में सैकड़ों जातियों और 'राष्ट्रों'की नींव डाली।

भारत में वैदिक -सनातनी वर्णव्यवस्था लगभग १० हजार साल से चली आ रही है। महाभारत और रामायण काल से भी हजारों साल पूर्व अयोध्या के राजा 'हरिश्चन्द्र' की ख्याति सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में चर्चित रही है। कहा जाता है कि विश्वामित्र ने उन्हें 'सत्य की परीक्षा'के बहाने दर -दर की ठोकरें खानेपर मजबूर किया और अनैतिक तरीके से हरिश्चंद्र का राज्य छीन लिया गया। उनकी पत्नी तारामती और पुत्र रोहित दास बना लिए गए थे। हरिश्चंद्र के वृतांत में तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक तो यह कि तत्कालीन समाज में दासप्रथा थी और आम आदमी से लेकर 'राजा रानी ' भी खरीदे -बेचे जाते रहे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि तब  जाति प्रथा तो थी किन्तु कोई भी काम निम्न नहीं था। तीसरी बात यह कि राज्य,स्त्री,पुत्र और खुद की जान से भी ज्यादा कीमती चीज कोई और थी। जिसका नाम 'सत्य' हुआ करता था। जो इस सत्यवादी विचारधारा के थे वे 'आर्य'कहलाये और जो इस सत्य की विचारधारा को नही मानते थे वे 'अनार्य' कहलाये। तत्कालीन जातीय समाज मेंआर्थिक केमेस्ट्री कुछ ऐंसी थी कि एक 'डोम' की  कृयशक्ति भी इतनी थी कि वह 'चक्रवर्ती सम्राट'को खरीदकर अपना गुलाम बना सकता था।

हरिश्चंद्र की कहानी 'मिथ' हो या इतिहास दोनोंही रूपसे यह सत्यापित किया जा सकताहै कि पुरातन वैदिक अथवा आर्य समाजमें जाति व्यवस्था थी। किन्तु  छुआछूत अथवा आर्थिक असमानता केवल सतह पर ही थी। यदि कोई कहे कि हरिश्चंद्र कथा तो 'मिथ' है ,तो इसका जबाब यह है कि तब तो काशी के 'डोमराजा'भी मिथ हैं। जो आज भी अपनी विरासत कोसंभाले हुए हैं। यदि काशी के वर्तमान डोमराजा एक सच्चाई हैं, तो हरिश्चंद्र भी एक ऐतिहासिक सच्चाई हैं। वेशक पौराणिक कथाओंको रोचक बनाने के लिए कुछ नाटकीयता,कुछ साहित्यिक किस्म की मशक्कत की जाती रही है। किन्तु भूसे का ढेर ही सही हरेक धर्म-मजहब के पुरातन वांग्मय में कोई न कोई मणिरत्न मिल ही जाता है। इस सकारात्मक सोच के अनुसार भारतीय संस्कृत वांग्मय ,पाली साहित्य और अपभृन्स का कोई भी शब्द बेकार नहीं है।न केवल भारत अथवा वैदिक वांग्मय के बरक्स बल्कि इस संसार के बरक्स कोई भी कल्पित वस्तु अथवा विचार सापेक्ष रूप से 'असत्य' नहीं हो सकता। क्योंकि हर देश ,हर कौम और हर सभ्यता का वर्तमान स्वरूप और अस्तित्व अतीत के सत्य का ही निरूपण है। ब्रह्मांड में हर उस चीज का अस्तित्व है ,जिसकी कल्पना विवेकशील मनुष्य द्वारा की गई है !जिस विचार ,वस्तु अथवा गुण को मानव बुद्धि ने अभी तक ग्रहण नहीं किया और यदि उसका अस्तित्व है तो वह भी मानव स्मृति और विवेक की मुखापेक्षी है !  

मेरा जिनियस - ज़र्नलिस्ट बेटा डॉ प्रवीण तिवारी एक दिन अचानक दिल्ली से इंदौर आया। वह मुझसे और अपनी माँ से मिला। माता-पिता से मिलकर वह 'कुछ देर में आता हूँ' कहकर,कुंवर पुष्पेन्द्रसिंह के साथ किसी कार्यक्रम में शामिल होने चला गया। दो -तीन घण्टे बाद वह घर वापिस आया और आनन-फानन दिल्ली लौट गया। उसके दिल्ली जाने के दूसरे रोज स्थानीय अखवारों में पढ़ा और फेस बुक पर भी देखा कि मेरे सुपुत्र डॉ प्रवीण तिवारी को 'सर्व ब्राह्मण समाज 'ने  सम्मानित किया है। तत्सम्बन्धी खबरें और तद्विषयक स्मृति चिन्ह - प्रमाणपत्र इत्यादि पढ़ सुनकर अत्यंत सुखानुभूति हुई। बेटे की प्रसिद्धि पर गौरवान्वित होने का नसीब हर किसी को नहीं मिलता। चूँकि मेरा बेटा काबिल है ,विद्वान है ,मिलनसार है ,बेहतरीन मीडिया पर्सनालिटी है ,इसलिए उसे सम्मान मिलना कोई अचरज की बात नहीं। लेकिन मुझे इस सात्विक ख़ुशी में भी एक फांस सी चुभ गयी। मन में सवाल उठा कि काबिलियत का मान केवल जात -समाज विशेष तक ही सीमित क्यों है ?

इस दौर में परिपाटी सी बन गई है कि हर समाज-जाति वर्ण को केवल अपने ही विकास की फ़िक्र है। अधिकांस जातीय और मजहबी समाज,इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी,उस सामन्तकालीन कबीलाई मानसिकता से ग्रस्त हैं, जिसमें सिर्फ अपने'कबीले' की हिफाजत का मकसद हुआ करता था। गनीमत है कि हमारे प्रतिभाशाली बेटे को 'सर्व ब्राह्मण समाज'ने सम्मानित किया है। वरना दयनीय स्थिति यह है कि ब्राह्मणों में भी सैकड़ों विभाजन हैं। यदि कोई विशेष धड़ा यह आयोजन करता है तो बहुत कोफ़्त होती । भारत में जातीय विभाजन का नासूर केवल निम्न-उच्च -सवर्ण ,दलित,पिछड़े तक ही सीमित नहीं है बल्कि बंगाली, तमिल, मलयाली,नंबूदिरी चितपावन ,कोंकणस्थ राजस्थानी,कश्मीरी पहाड़ी और मैथिल जैसे स्थानिक विभाजन भी हैं। यह भेद तो स्वाभाविक और वास्तविक है किन्तु सरयूपारीण ,कान्यकुब्ज,जिजौतिया,सनाढ्य का विभाजन और पहले से ही तीन-तेरह ,और नौ ग्यारह के भेद हैं।  कुल,गोत्र,बिस्वा बैक ,पठा इत्यादि का विभाजन अलग से है। अग्रवाल समाज,जैन समाज ,सिख समाज, ब्राह्मण समाज ,क्षत्रिय समाज,के लोग सिर्फ अपने ही समाज के लिए ही फिक्रमंद रहा करते हैं। इसलिए तो सभी समाजों के अपने-अपने पृथक संगठन हैं।

काश इसी तरह सर्व भारत समाज का भी कोई संगठन होता !और उसके द्वारा  मेरे बेटे का सम्मान होता तब मुझे वास्तविक ख़ुशी मिलती,न केवल मेरे बेटे का सम्मान, बल्कि हर जाति -वर्ण के काबिल युवाओं का  सम्मान होता!जो देश और कौम के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखता है ! काश ऐंसा ही होता ! भारत में 'वर्ग संघर्ष' की राह का सबसे घातक गत्यावरोध है।

इस दौरमें यह एक परिपाटी सी बन चुकी है कि हर समाज और जाति वालों को केवल अपनेही सजातीय योग्य प्रतिभाओं के सम्मान की फ़िक्र है। पचास साठ साल पहले भारत में इतना जातीय विग्रह अथवा जातीय मनमुटाव नहीं था।  बचपन की अनेक खट्टी-मीठी ,देशज गाँव गँवारू यादों से लेकर उच्चतर सांस्कृतिक ,सामाजिक और लोक व्यवहार की अनेक घटनायें और स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर अब भी ताजा हैं। मेरे पिता पंडित तुलसीराम तिवारी एक  शुध्द सात्विक सनातनी विद्वान ब्राह्मण थे।लेकिन गाँव के उम्रदराज आदिवासी 'कुदऊँसौंर' [रावत]को सम्मान से दाऊ कहकर बुलाते थे। मेरे नाना जी मेरे जन्म से  पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे.जब कभी किसी बाल सखा के नाना गाँव आते तो  मुझे भी लगता कि काश मेरे भी नाना होते !अतः एक अदद नाना की तलाश में मैंने बचपन में ही नाते-रिस्ते जोड़ना सीख लिया। गाँव के एक लोधी ठाकुर नरसिंहपुरमें नौकरी करते थे ,उनका कोई लड़का नहीं था। उनकी इकलौती बेटी मेरी माँ को जीजी कहती थी ,इस नाते हम उन्हें मौसी कहने लगे और जब उनके पिता गाँव आते तो मैं 'नाना आ गए -नाना आ गए ' कहकर उनके पैर छू लेता। मेरे बुजुर्ग दत्तक नाना मुझे गोद में उठाकर प्यार से डांटते कि आप हमारे पैर मत पड़ा करो। जब मैं सवाल करता कि क्यों सब बच्चेतो अपने नाना के पैर पड़ते हैं तो वे कहते की वो तो ठीक है किन्तु आप महाराज [ब्राह्मण] हो ,और मैं लोधी ,मुझे पाप लगेगा। इसलिए मैं आपके पैर पडूंगा। मेरे ये दत्तक 'नाना ' बहुत साल जिए और मेरी माँ को अपनी बेटी से ज्यादा मानते थे। कहने का तातपर्य यह है कि हिन्दू समाज के बिखंडन का कारण भारतीय जातीय व्यवस्था या वर्णाश्रम परम्परा कदापि नहीं है। बल्कि  भारतीय समाज को बांटने और स्वाधीनता संग्राम की लड़ाई को भौंथरा करने की अंग्रेजी चला थी। जो लोग अंग्रेजों के जाल में उलझे उन्होंने ने 'ब्राह्मणवाद' और 'मनुवाद'का काल्पनिक मिथ रच डाला। काश आजादी के बाद भारत में जातीय उन्माद और साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने के बजाय चीन जैसी 'साम्यवादी' क्रांति का सूत्रपात हो जाता ,तब यह जातीय बिखंडन और साम्प्रदायिक उन्माद इतना वीभत्स न होता।  चीन में सैकड़ों क्षेत्रीयताएँ और हजारों जातियाँ होने के बाद भी सभी 'चीनी'ही हैं। भारतमें दलित हैं,पिछड़े हैं ,अगड़े हैं ,हिन्दू हैं ,मुसलमान हैं ,सिख हैं ,ईसाई -पारसी हैं ,क्रश्चियन हैं ,किन्तु भारतीय बहुत कम हैं।
काश यह सब न होकर चीन जैसा समाज भारत का भी होता।

सांस्कृतिक परम्परा के सौजन्य से मुझे  में दो चीजें बचपन में ही मिल गईं थीं। स्क़ूल में दाखिल होने से पहले ही मुझे भली भाँति मालूम हो गया कि गरीबी,अभाव और जातिवाद क्या बला है ? इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण चीज मुझे विरासत में मिली कि स्कूल जाने से पहले मुझे रामचरितमानस,गीता, आल्हा,गरुड़पुराण ,भागवतपुराण का अधिकांस भाग कण्ठस्थ हो चुका था। हनुमान चालीसा,बजरंगबाण इत्यादि तो लगता है कि माँ के पेट में ही याद हो गए थे। स्कूल जाने से पहले ही मुझे कबीर,तुलसी,रैदास,मलूकदास और रहीम के सैकड़ों दोहे याद थे। सवैये,कवित्त ,मत्तगयन्द छंद,लोकगीत ,राई ,ख्याल' और भजन मुझे खूब याद थे।

स्कूल में जब कभी हिंदी या संस्कृत के शिक्षक महोदय पाठ्यपुस्तक हाथ में लेकर हमें स्कूल में पढ़ाते ,तब मैं अपनी इस अतिरिक्त योग्यता से फूला न समाता। कक्षामें अक्सर अनुशासन भंग करते हुए बीच-बीच  में टोका टाकी करते हुए अक्सर कहता था कि मासाब ! 'आगे की लाइन मैं बताऊँ!' चूँकि उस दौर के मासाब 'शिक्षक]अंग्रेजों के ज़माने में भर्ती हुए थे इसलिए वे शिक्षक कम 'तानाशाह' ज्यादा हुआ करते थे। लेकिन उनकी वह तानशाही उस दौर के छात्रों के लिए वरदान सावित हुई कि कहावत चल पढ़ी थी -तनिक पढ़े तो हर से गए ,अधिक पढ़े तो घर से गए '!

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

आस्तिक -नास्तिक कथा अनन्ता -भाग ४

द्वतीय 'विश्व युध्द' के उपरान्त भारत सहित तमाम दुनिया में, दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद और फासिज्म की लानत-मलानत होती रही है। कट्टर 'राष्ट्रवाद'  एवं 'नाजीवाद' को सभीने खूब दुत्कारा। लेकिन भारत जैसे नवस्वतन्त्र देशों के ढुलमुल पूँजीवादी लोकतंत्र में ये घातक तत्व नए-नए रूपों में फ़ैल गए। 'जातीयतावाद और साम्प्रदायिकता को अब  राष्ट्रवाद और नाजीवाद के नए प्रतिस्थापन्न [Isotopes] समझ सकते हैं। नस्लवाद और फासीवाद से दुनिया को कितना खतरा था ,ये तो इतिहास में लिखा है। किन्तु तथाकथित भाववादी आदर्शवादी व्यवस्था याने 'आस्तिक' पूँजीवाद ने हिरोशिमा नागासाकी में जो 'पुण्य' का कार्य किया था उसकी चर्चा बहुत कम होती है। और इस तरफ बहुत कम लोगो का ध्यान जाता है। इस नर संहार में  किस नास्तिक का हाथ था ,सीआईए या पेंटागन ?

अमेरिकन साम्राज्यवाद को इस भयानक नर संहार की प्रेरणा कहाँ से मिली ? ततकालीन अमेरिकन राष्ट्रपति और विदेश मंत्री दोनों कट्टर केथोलिक  थे।'आस्तिक' होते हुए भी उन दिग्गज नेताओं ने परमाणु बमके घातक प्रयोग का जघन्य नरसंहार कैसे मंजूर किया ? क्योंकि उनका धर्म और उनकी आस्तिकता से भी ऊपर ,उनके अमेरिकन साम्राज्यवादी लूट के हित ज्यादा महत्वपूर्ण थे। तब तो मार्क्स की वह घोषणा अक्षरशः सही सावित हुई कि मजहब -रिलिजन को 'शोषक शासक वर्ग' एक टूल्स के रूप में इस्तेमाल करता है।और यह छद्म आस्तिकता ही 'जनता के लिए अफीम' है।कुछ सज्जन किस्म के भाववादी लेखक विद्वान एवम सन्त खुद कहते पाए गए हैं कि 'ईश्वर उन्ही की मदद करता है जो खुद अपने हितों की हिफाजत करते हैं।तो 'क्या ईश्वर पक्षपाती है? क्योंकि जब उसने देखाकि हिटलर ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया ,जब उसने देखाकि अमेरिका ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया। बेचारे आस्तिक जापान ने ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि उसे  दूसरे विश्व युद्धमें अधमरा कर दिया।
 
स्मरण रहे कि हिरोशिमा -नागासाक़ी का भयानक नरसंहार  यदि तत्कालिन 'सोवियत संघ' के हाथों हुआ होता , तो कितना गजब हो गया होता? गनीमत रही कि उस दौर के 'सोवियत संघ' ने तानाशाह हिटलर की ताकत को ध्वस्त किया । इसीलिये तो क्रेमलिन  ही दुनिया की तमाम शांतिकामी जनता की आशाओं का केंद्र बन चुका था। यदि अमेरिका की जगह यही जघन्य अपराध इस्लामिक आतंकियों ने, नक्सलियों ने अथवा चीन जैसे कम्युनिस्ट देश ने किया होता तो कितना गजब हो गया होता?

 इस दौर के 'छद्म राष्ट्रवादी' और सांप्रदायिक तत्व सत्ता में होने के वावजूद आतंकवाद का कुछ नहीं बिगाड़ पाए! 'नोटबन्दी' का एक प्रमुख लाभ यह भी बताया गया था कि कश्मीर में आतंकवाद समाप्त हो जाएगा !लेकिन अब तो कश्मीर के हालात इतने खराब  हैं कि देश के सेना प्रमुख को खुद मोर्चा संभालना पड़ रहा है।यदि देश की चुनी हुई सरकारें अपने हिस्से का दायित्व निर्वहन में विफल हैं तो उनके होने का औचित्य क्या है ?यदि सेना को ही सब कुछ करना है, तो यह अरबों रुपया चुनावों में क्यों बर्बाद किया जा रहा है ?क्या सरकारी तामझाम केवल जुमलों और मसखरी के लिए है ? मूर्खतापूर्ण नोटबन्दी का दूसरा लाभ यह भी बताया गया था कि अब नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। सभी जानते हैं कि नक्सलवादकी वजह गरीबी और शोषणहै। इस पूँजीवादी सामंती व्यवस्था का प्रमुख लक्षण है कि शोषण होता रहेगा।और शोषण जब तक जारीहै तब तक नक्सलवाद का सफाया असम्भव है।
आईएसआई और पाकिस्तान परस्त आतंकियों का ,कश्मीरी अलगावादियों और नक्सलियों का अभी तक कोई खास निदान नहीं हुआ है। एमपी पुलिस ने अवश्य सिमी के भगोड़ों को मारकर कुछ सफलता अर्जित की, किन्तु केंद्र सरकार और उनके समर्थकों ने क्या किया? हरियाणा में एक निर्दोष अखलाख को क्या मार दिया और अपने आपको बड़ा राष्ट्रभक्त समझने लगे !केरल में हिंदुत्ववादी ,ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथी तत्व, सबके सब आये दिन हंगामा खड़ा करते रहते हैं. सीपीएम को बदनाम करते हैं। जब  बंगाल में सीपीएम का शासन था ,तब तमाम हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक गुंडों ने एक साथ मिलकर सिंगुर के बहाने ममता नामक उजबक 'बिल्ली' को खूब दूध पिलाया। विगत दिनों इस बिल्ली ने केंद्र सरकार और उसके मुखिया मोदीजी की खूब खिल्ली उड़ाई।बंगाल के आतंकियों की सरगना ममता बेनर्जी को ताकतवर बनानें में  हिंदुत्ववादियों का योगदान उल्लेखनीय है। लेकिन वह 'वीरांगना'अब मुस्लिम कट्टरपन्थियों की सरपरस्त कहलाती है।ममता बेनर्जी इन दिनों हिन्दुत्वादियों की खूब लानत -मलानत किये जा रही है। इस आस्तिक ममता ने बंगाल को बर्बाद कर दिया। जबकि सीपीएम के राज में  बंगाल 'धर्मनिपेक्षता' का पवित्र तीर्थ बन चुका था। वेशक वामपंथ ने धर्म-मजहब से कुछ दूरी बनाये रखी लेकिन राजनीति में उसका दुरूपयोग रोककर मानवीय मूल्यों की और संविधान की हिफाजत की यही क्या कम है ?

महान 'आस्तिक' एवम फ़्यूहरर एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों का जितना नरसंहार कराया ,उतना मानव सभ्यताके इतिहास में शायद भारतीय हिंदुओं के अलावा और किसी कौम का नहीं हुआ। जिस तरह हिटलर ने सत्ता प्राप्ति लिए आर्य श्रेष्ठता के बहाने विजातीय और विधर्मी यहूदियों के खिलाफ जर्मन नस्लवाद उभारा और यहूदियों को मरवाया ,उसी तरह कासिम,गजनवी ,गौरी, तुगलक,खिलजी,तुर्क,पठान,अफगान,मंगोल [मुगलवंश]हमलावरों ने  भारत की सत्ता पर काबिज रहने के लिए 'दीन-ऐ-इस्लाम' का लगातार दुरूपयोग किया। उन्होंने तथाकथित उन काफिरों को भी मरवा दिया जो वेचारे पहले से ही एक अति उन्नत मानवीय सभ्यता और संस्कृति के सम्वाहक थे। सभी इस्लामिक हमलावरों ने घोर साम्प्रदायिकता का बेजा इस्तेमाल किया।

चूँकि भारत एक महान 'आस्तिक' और अहिंसा प्रधान देश रहा है। इसके सामजिक,आर्थिक और राजनैतिक मूल्य भिक्षुकवाद ,कमण्डलवाद ,कर्मफलवाद से ही प्रेरित थे। इन मूल्यों की वजह से ही भारतीय उपमहाद्वीप सदियों तक गुलाम रहा है।कुछ लोग यह तर्क देते रहते हैं कि भारत राष्ट्र तो पहले था ही नहीं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ततकालीन दुनिया में जितने भी देश अथवा साम्राज्य थे, वे अपने तत्कालीन  स्वरूप में अब कहीं नही रहे। महान शायर इकबाल ने भी फ़रमाया है ''यूनान ओ रोम मिट गए जहाँ से,लेकिन बाकी रहा है केवल हिन्दोस्तां हमारा '' !वेशक अंग्रेजोंने और पूँजीवादी वैज्ञानिक विकास ने भारत को एक किया। किन्तु गुलाम बनाकर उन्होंने लूटा भी। सवाल यह है कि जो पहले वाले इस्लामिक हमलावर कबीले थे ,या उनसे भी पहले वाले शक हूँण और कुषाण हमलावर कबीले थे,क्या वे अमन के पुजारी थे ? क्या वे सभी अपने हाथों में तलवार की जगह फूल लेकर  प्यार लुटाने इस भारत भूमि पर आये थे ? क्या सिंध नरेश दाहिरसेन और उसके परिवार का क़त्ल केवल कोरी गप्प है ?क्या पृथ्वीराज चौहान के साथ दगा नहीं हुआ ?क्या उसका और जयचन्द का इतिहास मिथहै ?क्या बाकई लाखों हिंदुओं,सिखों,और खास तौर से ब्राह्मणों का कत्ल नहीं हुआ? इन सवालों से आँखें नहीं फेरी जा सकतीं! प्रत्येक वामपंथी और प्रगतिशील व्यक्ति को सही इतिहास का ज्ञान होना चाहिए ,तभी वह किसी तरह के अहम और सकारात्मक  बदलाव का हिसा बन सकता है।
  
भारत में इस्लाम के आगमन से पहले भले ही यह सदियों तक देशी सामन्तों और राजाओं द्वारा शासित रहा है ,   किन्तु ततकालीन सामंती भारत में भी हरिश्चंद्र श्रीराम और चोल राजाओं जैसे महान शासक हुए हैं। भले ही वे आपस में कभी महाभारत ,कभी कलिंग युद्ध ,कभी अश्वमेध ,कभी राजसूय यज्ञ के नाम पर युद्ध करते रहेहों किन्तु उन्होंने कभी किसी अन्य कौम या राष्ट्र पर हमला नहीं किया। कभी किसी का जबरन धर्मान्तरण भी नहीं कराया। वेशक कुछ बौद्ध राजाओं ने अवश्य ब्राह्मणों को मरवाया ,किन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने दूर-दूर देशों में जाकर अपनी बुद्धि और विवेक से ही धर्मचक्र प्रवर्तन किया। निसन्देह कुछ लोग मेरी इस ऐतिहासिक स्थापना से सहमत नहीं होंगे और वे प्रमाण भी मांगेंगे। उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि मैं आरएसएसका समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यदि कोई आरएसएस वाला कहेगा कि सूर्य पूर्व से उदित होता है तो मैं इतना महान प्रगतिशील या क्रांतिकारी नहीं की उसे झुटला सकूँ !और कहूँ कि सूर्य पश्चिम से उदित होता है।

मलिक काफूर लेकर अहमदशाह अब्दाली तक जितने भी हमले भारत पर हुए उनमें तीन प्रमुख तत्व रहे हैं।एक-हिदू,जैन और बौद्ध धर्म के पूजा स्थलों का ध्वस्त किया जाना। दूसरा -पराजित हिन्दू राजाओं की रानियों और राजकुमारियों को अपने हरम में शामिल करना। तीसरा -सोना,चाँदी ,हाथी, घोड़े और जमीन हथियाना। कुछ लोग कहेंगे कि आप अपने इस कथन का प्रमाण दो ! उन्हें एतद द्वारा सूचित किया जाता है कि गूगल सर्च पर   वर्नियर ,वर्नी ,अलवरुनी,ह्वेनसांग ,फाह्यान,मेगास्थनीज, यूक्लिड , बाबरनामा ,अकबरनामा,आइन -ए-अकबरी जो चाहें उसे सर्च करें।और  केवल  इतिहास के लेखक को ही नहीं बल्कि उन तमाम बदमाश और हरामखोर अंग्रेज इतिहासकारों को भी सर्च करें जिन्होंने उनके चश्में से भारतका इतिहास लिखा है। गलत इतिहास लिखने  वाले टुच्चे इतिहासकारों को सौ जूते मारे जाने चाहिए।  जिन्हें लगता है कि मेरी [श्रीराम तिवारी]की सैद्धान्तिक स्थापना का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है ,वे अपना विकल्प रखें ,उनका स्वागत है। किन्तु उनसे निवेदन है कि  जिन्होंने भारत पर हमले किये उन आक्रांताओं द्वारा लिखित इतिहास को वे कदापि उधृत न करे। क्योंकि यह कौन नहीं जानता कि विजेता व्यक्ति या कौम तो वही लिख्नेगे जो उनके 'मन' का हो। वैसे भी अतीत का सम्पूर्ण लिखित इतिहास केवल विजेता शासकों की ऐय्यासी और लूट का ही इतिहास है। विजित ,शोषित,पीड़ित और पराधीन कौम के वास्तविक इतिहास का अन्वेषण करना हरेक सच्चे प्रगतिशील साहित्यकार का दायित्व है।

जब रोम जल रहा था, पीट्सबर्ग से लेकर डायमंड हार्वर तक और हिरोशिमा से लेकर नागासाकी तक चारों ओर परमाणुविक आग की लपटें आसमान छू रहीं थीं ,तब यूरोप -अरब के धर्म-मजहब वाले खूंखार धर्मान्ध लोग उस आग से क्यों खेल  रहे थे?और तब गॉड,अल्लाह और ईश्वर एवम आस्तिकता सब मौन क्यों रहे? इस तरह की ही जघन्य घटनाओं से प्रेरित होकर 'कार्ल मार्क्स' ने कहा कि 'धर्म एक अफीम है',बादमें संसार के तमाम प्रगतिशील लेखकों, साहित्यकारों और कवियों ने मार्क्स के उस महान आप्त वाक्य की ऐंसी तैसी ही कर डाली।' धर्म एक अफीम है' के सीधे सरल वाक्य की कुछ इस तरह  सैद्धांतिक और वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की मानों नास्तिकता का बीजारोपण कर डाला हो। वास्तव में मार्क्स का यह अभिप्राय कदापि नहीं था.उन्होंने बाइबिल और कुरान तो पढ़ लिया होगा ,किन्तु वेद-वेदांत और उपनिषद उन्हेंपढ़ने को  नहीं मिले। हालांकि मार्क्स वैदिक कालीन समाज व्यवस्था के वे प्रशंसक थे। उन्होंने आदिम साम्यवादी व्यवस्था वाले चेप्टर में भारतीय  वैदिक समाज को आदिम साम्यवादी माना है। लेकिन उनके कतिपय तर्कवादी और विज्ञानवादी अनुयाइयों ने समझा, कि धर्म मजहब सब गलत हैं! या कि ईश्वरका अस्तित्व ही नहीं है। बल्कि मार्क्स ने 'धर्म -मजहब' के उस विकृत रूप और विचलन पर कटाक्ष किया था जो हर दौर में और इन दिनों भी पाखण्डवाद और आतंकवाद के रूप में दुनिया को भरमाने में जुटा है। इस दौर के अधिकांस  धर्मगुरु पूँजीवाद की चरण रज में भूलुंठित हो रहे हैं ।

दुनिया में जब-जब कोई नया धर्म-दर्शन आया तो आवाम ने उसे हाथो-हाथ सिर -माथे लिया। लेकिन अनैतिक तत्व बाकायदा  फलते फूलते रहे ।हर पढ़ा लिखा इंसान बखूबी जानता है कि अरब और पश्चिम मध्य एशियाई इस्लामिक राष्ट्रों के बर्बर लोगों ने कभी भी सच्चे 'इस्लाम' का अनुशरण नहीं किया।कभी सिया -सुन्नी ,कभी बहावी बनाम गैर बहावी का द्वंद चलता ही रहा।मुहम्मद साहब ने जो मजहब इंसान के भले के लिए और अमन के लिए बनाया था,वह इंसानियत का दुश्मन कैसे हो गया ? यूरोप अमेरिका में और समूचे ब्रिटिश साम्राज्य की हुकूमत पर महान धर्म गुरु पोप की धाक रही है ,किन्तु सारा ईसाई जगत  केथोलिक बनाम आर्थोडोक्स के बहाने दो हजार साल तक आपस में क्यों लड़ता-मरता रहा?भारत का अहिंसावाद तो सारे संसार में जाहिर है ,किन्तु वह इतना महान धार्मिक और ईश्वरवादी होते भी सदियों तक गुलाम क्यों रहा ?क्यों  भारत के सभ्य सुशील लोगों को असभ्य और बर्बर कबीलों का शिकार होना पड़ा ? इस प्रश्न का उत्तर सब जानते हैं लेकिन जिनके मन में चोर है वे  कुतर्क देंगे कि अंग्रेजों ने गलत इतिहास पढ़ाया !कुछ कह्नेगे कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा ?लेकिन अतीत में पराजित कौम से जो चूक हुई है,उसे यह अवश्य जानना ही होगा कि सच्चाई क्या है ?

आजादी के बाद भारतीय संविधान ने अहिंसा सिद्धांत पर आधारित 'धम्मचक्र प्रवर्तन 'को ही राज्य चिन्ह माना है।वेशक प्राचीन भारत में नास्तिक मत को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ,क्योंकि न केवल सत्यकाम जाबालि कणाद,कश्यप,और कपिल जैसे विद्वान 'नास्तिक'  थे। बल्कि श्रीकृष्ण ,बलराम से लेकर सारे द्वारकावासी भी नास्तिक थे ,तभी तो उन्होंने एक ब्राह्मण को अपमानित किया और कुटुंब सहित  बरबाद हो गए । किन्तु यूरोप के [एथेस्ट ] नास्तिक और इस्लाम के काफिर शब्द ने भारतीय षड दर्शन को कन्फ्यूज कर दिया। वे केवल चार्वाक को ही उद्धृत करते रहे ,जबकि दुनिया बहुत आगे निकल गई। यूरोप वाले रेल लाये टेलीफोन लाये और चाँद मंगल पर पहुँच। गए। हम केवल उनकी नकल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। किन्तु धर्म संस्कृति और इतिहास में नकल नहीं चलती ,उसे खुद गढ़ना होता है। इक्कसवीं शताब्दी में भी धर्मान्ध हिन्दू मुस्लिम 'नास्तिक' दर्शन की गलत व्याख्या करते रहते हैं। उनकी समझ इतनी भर है कि सिर्फ उनका धर्मश्रेष्ठ है और दूसरे का धर्म बेकार की चीज है।वे नहीं  जानना चाहते कि यह सब वक्त -वक्त की मानवीय ईजाद है, दूसरी कई चीजों की तरह ही धर्म- मजहब के बिना भी इंसान बेहतर जीवन जी सकता है।   

न केवल न केवल 'संघ' के लोग बल्कि  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी  यही समझ रखते हैं ,इसलिए उन्होंने अभी एक  चुनावी आम सभा में चार्वाक का मजाक उड़ाया। जबकि विगत २६ जनवरी -२०१७ को सऊदी अरबके 'प्रिंस' को चीफ गेस्ट बनाया। क्या मोदी जी को नहीं मालूम कि  चार्वाक शुद्ध हिन्दू और सनातनी सिद्धांत है ?उन्हें सऊदी अरब के प्रिंस की फ़िक्र है किन्तु सनातन धर्म के एक प्रगतिशील जनवादी सिद्धांत की फ़िक्र नहीं,क्यों ?जबकि वे आस्तिकता की और हिंदुत्व की रोजगारी पाकर  प्रधान मंत्री बने हुए हैं। इसी तरह पाकिस्तान के जेहादी संकीर्ण राष्ट्रवादियों -कट्टरपंथियों ने भी खुद तो काफिराना कुकर्म किये हैं ,भारत में पैदा हुए 'दाऊद 'जैसे  भगोड़े तत्वों को शरण दी ,हमेशा भारत की जड़ों में मठ्ठा डाला और इस्लामपरस्ती के अलंबरदार बने बैठे हैं। उन्होंने इस्लाम का कितना भला किया यह तो वे ही जाने,किन्तु उन्होंने उसे रुसवा अवश्य किया है उसकी तौहीन भी की है।
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कश्मीरी पत्थरबाज -आतंकियों ने और सिमी के बिगड़ैल तत्वोंने 'जेहाद'  और इस्लाम को बहुत बदनाम किया है। इन सभी इस्लामिक मजहबी संगठनों की करतूतों के  प्रतिक्रियास्वरूप भारत में 'हिंदुत्ववादियों' को देशकी सत्ता नसीब हुई है। इधर संघ के इंद्रेशकुमार से लेकर खुद मोहन भागवत तक अपने 'पुराने एजेण्डे' को भूल चुके हैं। अब उन्हें हर मुसलमान आतंकी नहीं दिखता,बल्कि वे तो कट्टरपंथी मुसलमानों के शुक्र गुजार हैं कि उन्ही की बदौलत  बहुसंख्यक हिन्दू समाज का राजनैतिक धुर्वीकरण हो सका। दरसल देश की बहुमत जनता का -भाजपा या मोदी जी को जनादेश नहीं मिला,बल्कि 'स्ट्रेटजिक वोटिंग'से उन्होंने बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकांस वोट हासिल किये हैं। पाकिस्तानपरस्त आतंकियोंकी 'हिन्दू विरोधी' हरकतों ने ,भारत के अंदर मजहबी कट्टरतावाद ने और भारत के  रक्तरंजित मजहबी  इतिहास ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज को भाजपा और संघ की मांद में जबरन धकेल  दिया है। 'संघ परिवार' के प्रसादपर्यंत मोदी सरकार को केंद्र में जो जनादेश मिला है, जनता ने वह विकास -वादी झाँसों , जुमलों या नेताओं के शूट-बूट को देखकर नहीं दिया है। बल्कि भारतीय युवा पीढी ने अपने दौर की साम्प्रदायिक घटनाओं और कश्मीर में हो रही पत्थरबाजी का सिंहावलोकन करते हुए यह आत्मघाती कदम आगे बढ़ाया  है। यह स्थिति चिंताजनक है !चिंताजनक इस अर्थ में कि इस दौर में रोजगार ,शिक्षा,स्वास्थ्य और व्यवस्था -जन्य दोषों पर बात करना,धर्मनिरपेक्षता औरअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करना, देशद्रोह माना जा रहा है।

डिजिटल और सोशल मीडिया पर हिंदूवादी संगठनों के लोग वामपंथ के खिलाफ बहुत लिखते हैं। किन्तु लुटेरे पूँजीपतियों के खिलाफ वे कुछ नहीं लिखते। वामपंथ के खिलाफ वे लगातार झूँठा प्रचार करते रहते हैं। जबकि मौजूदा संसदीय लोकतंत्र में वामपंथ लगभग हासिये पर आ चुका है। इसी तरह चाहे वे हिंदुत्ववादी हों, चाहे वे इस्लामिक संकीर्णतावादी हों,चाहे वे सिमी के आतंकी हों या मध्यप्रदेश में पकडे गए 'हिन्दूआतंकी ' बनाम पाक  - एजेंट हों ,इन सबके खिलाफ 'संघी बंधुओं ' ने  शायद मौनव्रत ले रखा है। वैसे तो मोदी जी ,भागवत जी और शिवराज जी बहुत बड़े 'बोलू' हैं ,किन्तु इन एजंटों पर  एक शब्द  भी खर्च नहीं किया। तथाकथित जेल तोड़कर भागे और मुठभेड़ में मारे  गए सिमी के बदमाशों में और एमपी में पकडे गए 'हिंदू ' पाकिस्तानी -एजेंटों  में क्या अंतर है ? असल चोर-चोर मौसेरे भाई तो यही हैं। इन नापाक तत्वों पर कलम चलाने के बजाय केवल मेहनतकश मजदूरों और उनके जन आन्दोलनों के खिलाफ लिखने वाले सरासर बेईमान हैं !

मजहबी ,उन्मादी धर्मांध संकीर्णतावादियों के गुनाहों की सजा तो उनकी आस्ठा अनुसार उनका ईश्वर या अल्लाह ही देगा। लेकिन  कोई 'नास्तिक' या  स्वनामधन्य प्रगतिशील क्रांतिकारी व्यक्ति यदि किसी तरह का अनैतिक कर्म करताहै ,अथवा कोई आर्थिक ,सामाजिक या सांस्कृतिक कदाचरण करता है, तो उसे नियंत्रित कौन करेगा ? और यदि इस तरह के स्वच्छन्द लोगोंका 'मानव समाज'में बाहुल्य हो जाए तो उस खतरनाक अराजक हिंसक भीड़ को नियंत्रित कौन करेगा ? अभीतो मुठ्ठीभर नक्सलियों को नियंत्रित कर पानाही मुश्किल हो रहा है। अतीत के 'नैतिक -आध्यत्मिक मूल्यों' से ही यह सभ्य संसार कमोवेश नियंत्रित तो है। क्षमा,करुणा,दया,परहित,मैत्री,भ्रातृत्व ,अहिंसा इत्यादि धार्मिक-मजहबी मूल्यों से किसी भी देश या कौम का कोई नुकसान कभी नहीं हुआ। कुछ धर्म-मजहब तो 'आत्म नियंत्रण ' की प्रेरणा भी देते हैं। ये बात अलहदा है कि 'धर्म-मजहब'का राज्यसत्ताओं द्वारा दुरूपयोग किया जाता रहा है। किन्तु यह भी सच है कि  किसी भी प्रशासन व्यवस्था में इतनी कूबत नहीं कि मनुष्य की 'पाशविक' सोचको नियंत्रित कर सके।कुछ मुठ्ठीभर 'नास्तिक'  ही लेनिन,फ़ीडेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, भगतसिंह ,नंबूदिरीपाद,बी टी रणदिवे, हरकिशन सुरजीत जैसे महान क्रांतिकारी हो सकते हैं। किन्तु आध्यात्मिक जगत में तो इन जैसे करोड़ों हो चुके हैं। अधिकान्स इस्लामिक खलीफाओं और सूफी संतों ने अपनी महान सोच से इंसानियत और इंसाफपरस्ती का ही सन्देश दिया है। अधिकांस पोप और फादर मानवतावादी रहे हैं वे प्रेम-और करुणा के झंडावरदार रहे हैं ।

भारतीय वेदांत सूत्रों के रचनाकार और चिंतक बहुत ही उच्चतर मानवीय सोच वाले हुए हैं।  कुछ महान विद्वानों[ऋषियों] ने शानदार सिद्धांत पेश किये हैं। मानवता के लिए वेदांत दर्शन का यह सर्वोच्च सिद्धांत वेमिसाल है कि  ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामय,सर्वे भद्राणि मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् ''अथवा 'वसुधैव कुटुम्बकम '!
जब कोई व्यक्ति अपने आपको नास्तिक कहता है तो उसे यह घोषित करना चाहिए कि जाने -अनजाने उसके द्वारा कोई अनैतिक कर्म हुआ है ,कोई असंवैधानिक कार्य हुआ है ,किसी व्यक्ति ,समाज,अथवा राष्ट्र का अपकार हुआ है तो उसका 'प्रायश्चित ' वह कैसे करेगा ?क्योंकि धर्म-मजहब तो दोतरफा प्रायश्चित का सन्धान रखते हैं।वे धर्म से तो शासित हैं लेकिन 'अर्जी' द्वारा भी शासित हैं। किन्तु नक्सलवादी जैसे नास्तिक तो धर्म और राज्यसत्ता दोनों के ही खिलाफ हैं। उन्हें कोई तो सिद्धांत पेश  करना ही होगा। जो लोग फेसबुक ,ट्वीटर अथवा सोशल मीडिया पर पूरी शिद्दत और निष्ठा से, प्रतिबद्धता से धर्म-मजहब का विरोध करते हैं ! वे अपने आप से सवाल करें कि वे किस नीति और नियम से संचालित हैं। यदि कोई धर्म-मजहब में आस्था रखता है तो उसे कबीर तुकाराम, नानक,गाँधी जैसा होना पडेगा। यदि कोई नास्तिक है तो उसे बुद्ध,महावीर,मार्क्स,भगतसिंह जैसा होना पड़ेगा !

जब तलक देश और दुनिया में कोई यथेष्ट सर्वजनहितकारी,जनकल्याणकारी राज्य संचालन व्यवस्था कायम नहीं हो जाती,जब तक आदर्श नयायपालिका,आदर्श व्यवस्थापिका और आदर्श कार्यपालिका सुनिश्चित नहीं हो जाती,
जब तक आदर्श और उत्कृष्ट मानव समाज व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती ,जब तलक कोई विश्वसनीय और देश के अनुकूल महान 'क्रांति' नहीं हो जाती,तब तलक धर्म-मजहब और ईश्वर की प्रासंगिकता बनी रहेगी। जब तक सभी जन गण और राजनैतिक दल विधि अनुकूल आचरण नहीं करते,जब तक मनुष्य के शैतानी -खुरापाती मन को नियंत्रित करने की कोई अन्य कारगर वैज्ञानिक विधि का आविष्कार नहीं हो जाता ,तब तक तमाम मानवीय भाववादी नैतिक मूल्यों ,पुरातन आध्यात्मिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।यही सच्चा प्रगतिशील चिंतन है।

पुराने को ध्वस्त करने से पहले नए का निर्माण करना अभीष्ठ है। अपना हित -अनहित तो पशु पक्षी भी जानते हैं। पूस की रात हो ,कड़ाके की ठण्ड हो और रजाई में लम्पा चुभते हों तो उसे आग के हवाले नहीं करते। बल्कि हर लम्पा ढूंढकर अलग करते हैं। व्यवस्था में खोट हो तो उसे तब तक समूल उखाड़ना नादानी होगी, जब तक कोई मजबूत, विश्वशनीय वैकल्पिक मानवीय व्यवस्था का इंतजाम न हो जाए। यह काम न तो केवल आंदोलन से होगा, न  पूँजीवाद और उसके स्टेक होल्डर्स को गरियाने  होगा ! यह महत कार्य या तो सर्वहारा की तानशाही से सम्भव है या कोई ऐंसा तानशाह शासक बन जाए जो 'स्टालिन'जैसा महान हो !   

भारतीय प्रगतिशील आंदोलन की परम्परा ने 'राष्ट्रवाद'के काल्पनिक खतरे के बरक्स आतंकवाद - अलगाववाद की हमेशा अनदेखी की है। ऐंसा लगता है कि वामपंथी जनवादी खेमें ने तालिवान ,अलकायदा, आईएसआईइस , सिमी ,आईएस,दुख्तराने हिन्द और जेकेएलएफ और अन्य कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों को भी प्रगतिशील और जनवादी मान लिया है ? जबकि इस्लामिक कट्टरवाद से भारत को सर्वाधिक खतरा है। 'संघ' भाजपा और मोदी जी  को तो  केवल 'वोट की और सत्ता की चिंता है। वे पूँजीवाद के पुर्जे मात्र हैं। उन्हें साम्प्रदायिक खतरे के रूप में  बढ़चढकर दिखाना कोरी कल्पना है। उन्हें विपक्ष की एकजुट ताकत' से कभी भी घर बिठाया जा सकता है। भारत को असल खतरा पाकिस्तान और उसके द्वारा प्रेरित इस्लामिक आतंकवाद से ही है। चीन से  भारत को कोई खतरा नहीं है। वह सिर्फ एक हौआ है। राजनैतिक स्तर पर वामपंथ के स्टेण्ड पर भी सवालिया निशान लग रहा है,कि इतनी कुर्बानियों के वावजूद न केवल हिन्दू बल्कि अल्पसंख्यक भी वामपंथ से दूर होते जा रहे हैं।


पिछली शताब्दी के उत्तरआधुनिक 'दलित विमर्शवादी' साहित्यकार बाज-मर्तबा पौराणिक प्रतीकों के प्रति अक्सर असंयत शब्दों का प्रयोग किया करते रहे हैं । न केवल वर्चुअल 'दलित विमर्श' को ही खाँटी प्रगतिशील मान लिया गया ,अपितु अर्ध-शिक्षित अविकसित  साहित्यकार भी उनका अंधानुकरण करते रहे हैं। 'रामायण' में उल्लेखित 'शम्बूक बध' तथा 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी' और महाभारत में उल्लेखित एकलव्य की 'गुरु दक्षिणा' या अंगूठा दान जैसे उद्धरण को 'अकाट्य' प्रमाण मानकर वे अनजाने ही सम्पूर्ण पुरातन संस्कृत वांग्मय को लतियाते रहे। चूँकि इस नकारात्मक और घृणास्पद लेखन से भारतीय समाज में 'वर्ण संघर्ष' का होना सुनिश्चित था और इस  'वर्ण संघर्ष' से ब्रिटिश साम्राज्यवाद  की स्वार्थ पूर्ती सुनिश्चित थी। इसलिए उन श्वेतवर्णी  'भारत भाग्य विधाताओं' ने दलित,सवर्ण ,अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक शब्दों का बीजांकुरण किया। एक तरफ तो अंग्रेजों ने 'सवर्णों' दलितों को आपस में उलझाया। दूसरी ओर धर्म-मजहब के बहाने राष्ट्रीयता के नामपर हिंदुओं -मुस्लिमों को भी भिड़ा दिया।

क्रांतिकारी सोच में आकण्ठ डूबे दलित विमर्शवादी और प्रगतिशील जनवादी साहित्यकार भी सम्पूर्ण भारतीय पुरातन संस्कृत वांग्मय को न केवल गया गुजरा सिद्ध करते रहे अपितु उसे 'मनुवादी',अधम ,अपवित्र और शोषण का साधन सिद्ध करने में लगे रहे।  'हंस' के कुटिल संपादक राजेन्द्र यादव की तरह मेरे जैसे अनेक युवा तुर्क भी दशकों तक सामाजिक पिछड़ावाद ,दलितवाद,नारीवाद के कुटिल अभियान का प्रचेता रहे हैं। मार्टिन लूथर किंग की तरह अथवा नेल्सन मंडेला की तरह हमें किसी ने भी नहीं चेताया कि हम  साम्राज्यवादियों की कठपुतली हैं। इसीलिये आजादी के बाद अंग्रेजतो चले गए किन्तु हिन्दू-मुस्लिम,दलित-सवर्ण के झगड़े की जड़ों को खूब मजबूत करके ही यहाँ से गए। कहने को तो भारत आजाद हो गया, किन्तु  भारतवासी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चश्में से ही अपने पूर्वजों के हजारों साल के संघर्षको नकारात्मक नजर से देखते रहे। हम भारतके जनगण अपने शानदार अतीत के तमाम वैज्ञानिक अनुभवों को ,सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर को 'मिथ'के रूप में विस्मृत करते हुए बार-बार केवल उन घटनाओं को कुरेदते रहे जिनसे समाजका विखण्डन होता रहे ! अधिकान्स प्रगतिशील कवि  - लेखक साहित्यकार उत्तरआधुनिकता के बहाने समग्र पुरातन संस्कृत वांग्मय को हेय दृष्टि सेही देखते रहे।   

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

व्यक्तिगत बनाम नीतिगत आलोचनाके निहतार्थ !

कहने को हम वेधड़क कह सकते हैं कि आजादी मिलने के बाद हमारे मुल्क भारत ने कुछ तो तरक्की अवश्य की है।और तरक्की हुई भी है। विगत शताब्दी में आजादी के फौरन बाद कांग्रेसियों की तरक्की काबिले तारीफ़ रही। सत्ता छिन जाने के बाद भी बहुतों की तरक्की अब तक दिख रही है। लेकिन जो तरक्की बेचारे कांग्रेसजन  विगत '७० साल' में नहीं कर पाए ,वो तरक्की अम्बानी-अडानी के 'संघमित्रों' ने रातों-रात कर डाली है।इन नेताओं की तरक्की तब भी खूब दिखी थी, जब एनडीए की अटल सरकार में प्रमोद महाजन सूत्रधार हुआ करते थे! तब  लालकृष्ण आडवाणी की गिद्ध दॄष्टि केवल पीएम की कुर्सी पर टिकी हुई थी । कुछ लोगों की तरक्की यूपीए-टू के दौर में खूब दिखी।तब  कुछ लोग टूजी, थ्रीजी,कोयला,गेस,तेल सब खा-पी गए। जब उस समय का एक बदमाश टॉप सीबीआई अफसर खुद भृस्टाचार में लिप्त रहा,तो बाकी के भृष्ट अधिकारियों और नेताओं का कौन हवाल ?  यह सच हो सकता है कि डॉ मनमोहनसिंह ईमानदार थे. किन्तु मौन क्यों रहे ? यदि सोनिया गाँधी अस्वस्थ रहीं या राहुल गाँधी अनभिज्ञ रहे, तो वे उस जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं, जो पार्टी हाईकमान की हुआ करती है ? यह तो प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि प्रत्येक वर्तमान हालात के लिए अतीत जिम्मेदार होताहै ! किन्तु हरेक घटित वर्तमान के लिए अतीत जिम्मेदार नहीं होता ,कुछ तातत्कालिक कारण भी निमत्त बन जाते हैं।चुनावी मौसम में  राजनैतिक सरगर्मी बढ़ना स्वाभाविक है। पक्ष -विपक्ष में राजनैतिक आलोचना की होड़ शिखर पर पहुँच जाती है। खेद है कि इस आलोचना के केंद्र में व्यक्ति बनाम व्यक्ति ही रह गये है। जबकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में व्यक्तिगत आलोचना हेय मानी जाती है। व्यक्तिगत आलोचना से ऊपर उठकर नीतियों -कार्यक्रमों के बरक्स  स्वस्थ सार्थक आलोचना ही लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए बेहतर 'पथ्य हुआ करती है।

यूपीए-दो याने डॉ मनमोहनसिंह के प्रधान मंत्रित्व काल में ऐ राजा,करूणानिधि,दयानिधि मारान ,दिनाकरन ,श्री प्रकाश जायसवाल जैसे लोग और कावेरी मारण,कनि मौजी ,नीरा राडिया जैसी लुगाईयाँ जब विभिन्न घोटालों में अपना 'सौभाग्य' निर्माण कर रहे थे, तब श्रीमती सोनिया गाँधी ने , राहुल गाँधी ने जो कुछ चूक की है ,अब उसका नतीजा आज कांग्रेस भुगत रही है।  केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि पूरा भारत और भारतीय महाद्वीप भुगत रहा है। क्योंकि  मई २०१४ में जिन लोगों को केंद्र की सत्ता मिल गयी,वे इतने अनाड़ी और अभद्र सावित होंगे यह तो खुद उनके 'अभिभावकों' ने भी नहीं सोचा होगा !सवाल सिर्फ अपने से बड़ों के सम्मान का नहीं है ,बल्कि सवाल तो 'चोरी और सीनाजोरी' का है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि अपने सहज स्वभाववश श्री नरेन्द्र मोदीने सर्वश्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी,यशवंत सिन्हा और संजय जोशी इत्यादि के साथ जो व्यवहार किया है वह  'संघ का पारिवारिक'मामला हो सकता है! वे डॉ मनमोहनसिंह,सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी,अखिलेश यादव , अमरिंदरसिंह और केजरीवाल जैसे नेताओंकी कटु आलोचना के लिए भी स्वतन्त्र हैं। किन्तु मोदी जी जिन प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते हैं ,उनका प्रयोग करते हुए तो असभ्य लोग भी झिझकते हैं।'हिन्दू समाज में 'सब का कच्चा चिठ्ठा खोलकर रख दूँगा ' जैसा आप्त वाक्य तो चाय बेचने वाले और ढोर चराने वाले भी नहीं करते। देखने की बात है कि आप राजनीति को किस स्तर तक नीचे ले जाते हैं ? श्रीमान ,आपके कुछ उदंड समर्थक एमपी में धरा गए हैं। पाकिस्तान और आईएस की जूँठन खाते हुए पकडे गए हैं। गनीमत है कि शिवराजसिंह सरकार की पुलिस ने ही पकड़े हैं। अब देशभक्तो जरा जल्दी घोषित कीजिये कि इसमें वामपंथ का क्या कसूर है ? या किस विपक्षी दल के नेता का हाथ  है ? साम्प्रदायिकता के जरखरीद उतावले समर्थक भले ही आपका नाम जपते रहें किन्तु सच्ची देशभक्त आवाम का यही मानना है कि यह स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्परा या राष्ट्रवाद कतई नहीं है।

देश के अधिकांस प्रबुद्ध जनों ने  'नोटबंदी'का प्रबल विरोध नहीं किया। आलोचकों का सवाल महज यह था कि 'रिजर्व बैंक' को किनारे क्यों किया ?  इतने व्यापक पैमाने पर व्यक्तिगत फैसले लेना राष्ट्रघाती कदम हो सकता है। इसी तरह मौजूदा बजट पर भी अधिकांस प्रबुद्ध जनों ने अंधाधुंध आलोचना के बजाय ,मोदी सरकार को 'पूरा वक्त'' दिए जाने का तर्क प्रस्तुत किया । हालाँकि वित्तीय गिरावट सबको दिख रही है। रुपया लुढ़कता सभी देखते रहे । एक नामचीन्ह अमेरिकी अर्थशास्त्री ने  फरमाया  कि 'नोटबंदी' का फैसला केवल एक दिमागी दिवालियापन की उपज हो सकता है। 'प्रत्यक्ष किम प्रमाणम' के बाद पन्तप्रधान  के मनमाने निर्णयों के पक्ष में कुछ भी शेष नहीं बचता। संसद और संसद से बाहर उनके निकृष्ट भाषणों से लगता ही नहीं कि वे महान भारत के योग्य सम्माननीय प्रधान मंत्री हैं ! उनके भाषण उन्नीसवीं सदी के  चम्बल छाप डाकू सरदारों  जैसे होते हैं और डायलॉग शोले के गब्बर जैसे !वे अच्छी तरह जानते हैं कि मौजूदा विपक्ष शक्तिहीन- श्रीहीन है, फिर भी वे उसकी आलोचना करके हास्यापद दिख रहे हैं। वे पी एम नहीं लगते बल्कि गली के नुक्कड़ पर खड़े 'शोहदे' जैसे ज्यादा नजर आ रहे हैं।

चूँकि वे प्रधानमंत्री हैं, सत्ता में हैं अतः कामकाज के दौरान उनसे भूलचूक अवश्य होगी। लेकिन अपनी कोई भी गलती उन्होंने आज तक नहीं स्वीकारी। वे कांग्रेस मुक्ति के बहाने पूरे 'असहमत' राष्ट्र पर हमला किये जा रहे हैं ? वेशक डॉ मनमोहनसिंह से भी गंभीर भूलें और गलतियाँ हुईं थीं। और उनकी गलतियों का खामियाजा  कांग्रेस भुगत भी रही है। किन्तु मोदी जी अपने कार्यों का औचित्य सावित करने के बजाय 'नहाने-धोने' के स्तर पर क्यों उतर आये यह समझ से परे है ! जो भूतपूर्व हो चुका हो ,जनता ने जिसके गुनाहों की सजा दे दी हो अब उसका जिक्र करके वे अपने गुनाहों पर पर्दा कैसे डाल सकते हैं ? यह तो वही वाक्या हुआ कि 'तुम पियो तो पूण्य और उन्होंने पिया तो पाप !' क्या २०१९ के लोक सभा चुनावों में  यही तर्क देते हुए ,विपक्ष में बैठने का इरादा है ? फिर मत कहना कि कांग्रेस ने  ७० साल में कुछ नहीं किया। हमने ५६ इंच का सीना तानकर  सिर्फ ५ साल ही वो सब कर डाला जिससे यह देश १० साल पीछे चला गया। लेकिन यह तो नेतृत्व की उच्च गुणवत्ता नहीं है।

१५ अगस्त -१९४७ को आजादी मिलने के कुछ दिन बाद ही देश की आवाम को एक शानदार संविधान भी मिला। उम्मीद की गयी थी कि गई  कि ' अब अच्छे दिन आवेंगे '। देश तरक्की करता हुआ आगे बढ़ता  चला गया,कुछ नौकरीपेशा अफसरों ,कुछ जातिवादी नेताओं ,कुछ साम्प्रदायिक तत्वों और कुछ सत्ता के दलालों -पूंजीपतियों ने  तरक्की हासिल भी कर ली । किन्तु असमानता की खाई अंग्रेजों के राज से भी कई गुना बढ़ती चली गयी। कभी कम्युनिस्टों ने ,कभी समाजवादियों ने ,कभी लोहिया ने ,कभी जेपीने ,कभी वीपी ने और कभी अन्ना हजारे रामदेव ने जनता की संवेदनाओं को स्वर दिया। लेकिन हर बार, हर आंदोलन पटरी से उतर गया। व्यवस्था को बदलने की जगह उसे दुरुस्त करने में जुट गए। जिस सिस्टम ने सितम ढाया उसी को सीने से लगाकर सो गए। न्याय की लड़ाई लड़ने के बजाय ,केवल सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य साधते रहे। परिणामस्वरूप कभी कांग्रेस सत्ता में रही तो कभी उसकी जगह 'छाया कांग्रेस' ने ले ली। केंद्र में और राज्यों में गैर कांग्रेसियों को बार-बार सत्ता मिलती रही। लेकिन ७० साल की बदनामी का ठीकरा केवल कांग्रेस के सिर फोड़ा जा रहा है ,यह सरासर अनैतिक बेईमानी और पाखण्ड है। यक्ष प्रश्न है कि यूपीए -टू याने मनमोहनसिंह की गठबंधन सरकार की असफलता की बदनामी का ठीकरा सिर्फ कांग्रेस  के सिर क्यों फोड़ा गया? जबकि कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत ही नहीं था ?विगत २५ साल के खण्डित जनादेश की अनदेखी करके केवल कांग्रेस को कोसना हद दर्जे की बेईमानी है। बड़े शर्म की बात है कि जो 'धर्मध्वज' बने बैठे हैं वे इस अन्याय को रोकने की बनिस्पत खुद बढ़ावा देते रहे ? इस दुष्टतापूर्ण बदनामी अभियान में श्री श्री ,स्वामी रामदेव,सुब्रमण्यम स्वामी,अण्णा हजारे,केजरीवाल ,ममता बनर्जी सर्वाधिक हिस्सेदार रहे हैं। वे वेशक  कांग्रेस का विरोध करें ,यह उनका अधिकार है किन्तु ७० साल वाली बात बिलकुल गलत है। कांग्रेसियों ने ७० साल में जितना कमाया होगा, उतना तो अकेले सूट-बूट वाले 'भाईजी' द्वारा एक महीने  में  खर्च हो जाता है । देश की जनता को यह जानना जरुरी है कि यह धन आता किधर से है ?  श्रीराम तिवारी !



        

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

पूँजीवादी बजट की साम्यवादी आलोचना !

आलोच्य बजट इस अर्थ में नकारात्मक है कि मोदी सरकार ने विगत ढाई सालों में जनता का कचमूर निकालकर पूँजीपतियों की मुनाफाखोर-जठराग्नि को शांत किया है !लेकिन जब उन्हें लगा कि न केवल प्रस्तुत पांच राज्यों के चुनावों में,अपितु आगामी २०१९ के लोकसभा  चुनाव में वोट तो 'भाइयो -बहिनों' से  ही लेना हैं। अतः दिखावे का   'जनकल्याणवाद' परोसा जा रहा है। इस संदर्भमें सीपीएम जनरल सेक्रेटरी कामरेड सीताराम येचुरीका यह कथन सही है कि ''आर्थिक सर्वेमें सुझाये गए मांग बढ़ाने वाले उपाय इस बजटमें नदारद हैं ,यह केवल आर्थिक संकुचन का बजट है ''! वेशक प्रस्तुत बजट में शिक्षित/अशिक्षित युवा वेरोजगारोँ का और खेतिहर मजदूर के हितार्थ कोई  उल्लेख नहीं  है ! वेशक यह बजट क्रांतिकारी नहीं है, किन्तु यह  पहले के तीन बजटों से कुछ तो बेहतर है!

जिस देश में पूंजीवादी व्यवस्था हो और जनता ने  लोकतान्त्रिक सरकार चुनी हो तो उस लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गई पूँजीवादी सरकार द्वारा प्रस्तुत बजट किसी साम्यवादी दल की नीतियों और कार्यक्रम के अनुरूप क्यों होना चाहिए ? जब कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष और मिश्रित अर्थव्यवस्था की पैरोकार पार्टी की सरकारोंने अतीतमें कभी लेफ्ट की नीतियों -कार्यक्रमों पर आधारित 'साम्यवादी' -समाजवादी बजट पेश नहीं किये। तो अब भाजपा जैसी कट्टर पूँजीवादी -दक्षिणपंथी पार्टी से जनकल्याण कारी बजट की उम्मीद क्यों की जा रही है ?मोदी सरकार किसी दीगर पार्टी के प्रति नहीं बल्कि जनता के प्रति जबाबदेह है। यदि यह सरकार जन विरोधी नीतियोंपरअमल करती है तो इसे ही भुगतना होगा। जैसे कि मनमोहनसिंह की यूपीए-२ की सरकार के समय हुआ,कि कांग्रेस की दिग्भर्मित नीतियों के भृष्ट मोह जाल में आकण्ठ डूबी डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए -दो की सरकारने कांग्रेसको ही डुबवा दिया।क्या एक महान अर्थशास्त्रीको प्रधानमंत्री बनाकर सोनियाजी ने गंभीर और ऐतिहासिक भूलकी थी ?

आधुनिक सामाजिक -आर्थिक जीवन उस दिशा में अग्रसर हो रहा है ,जिसकी सैद्धान्तिक भविष्यवाणियां मार्क्स-एंगेल्स ने कीं थीं। वैज्ञानिक-टेक्नॉलाजिकल और उन्नत सूचना संचार प्रौद्दोगिकी के चरम की ओर बढ़ते इंसान के कदम ,किसी मजबूत आधार पर नहीं टिके हैं।वेशक विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने विकास की असीम सम्भावनाएँ प्रकट कीं हैं। परन्तु विकसित पूँजीवादी देशों में बेतहाशा बेरोजगारी बढ़ चुकी है। भारत जैसे विकासशील देश में बेरोजगारों की स्थिति सबसे भयानक है और बेहद उलझी हुई है। केवल अशिक्षित अथवा अर्ध शिक्षित युवाओंको ही नहीं बल्कि उच्च शिक्षित तकनीकी ज्ञान से समृद्ध युवा बेरोजगारों को जबरन निजी क्षेत्रकी गुलामी करनी पड़ रही है। भुखमरी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है ,तीसरी समस्या 'बेघर'लोगों की है जो अपना सम्पूर्ण जीवन अभावों में गुजारने को बाध्य हैं। यह स्थिति केवल आधुनिक भारत की ही नहीं ,बल्कि विकसित पूँजीवादी दुनिया की भी है। इतनी घोर आपात स्थिति के वावजूद आधुनिक युवाओं को 'वैज्ञानिक कम्युनिज्म' के सिद्धांतों की रंचमात्र भी जानकारी नहीं है। जब आधुनिक एमबीए,एमसीए और तमाम उच्च डिग्रीधारी युवाओं को नहीं मालूम कि कार्ल - मार्क्स ने अपनी पुस्तक 'डास केपिटल' में इन्ही समस्यायों के बरक्स वैज्ञानिक हल खोजेहैं,तो अपढ़ गंवार युवाओं से क्या उम्मीद करें कि वे इंकलाब की मशाल अपने हाथों में थामेंगे। साम्प्रदायिक और पूँजीवादी नेताओं से क्या उम्मीद करें कि वे 'जनकल्याणकारी'बजट लाकर देशके 'वास्तविक गरीब'आदमी को उसका हक प्रदान करेंगे ?आधुनिक और भविष्य की दुनिया के लिए यही सबसे तकलीफदेह स्थिति है। आधुनिक युवाओं को इन मुद्दों पर एकजुट संघर्ष करना चाहिए। जिनके घर में आग लगी  वे  निश्चिन्त होकर सोते रहें और पडोसी आग बुझाते रहें यह क्राँतिकारी चरित्र नहीं है।

डॉ मनमोहनसिंह की यूपीए -दो सरकारने कांग्रेस पार्टी के खिलाफ किये गए दुष्प्रचार के षड्यन्त्र का कोई तोड़ नहीं निकाला। तब सोनियाजी ने भी अन्ना हजारे ,किरण वेदी ,केजरीवाल और अन्य आंदोलनकारियों को कमतर आँका। ये तमाम एक्टिविस्ट आरएसएस प्रायोजित मंचों पर हीरो बनते चले गए। क्षेत्रीय और वाम दलों से कांग्रेस की दूरी के कारण जब लोक सभा चुनाव हुए तो डॉ मनमोहनसिंह दो सांसद भी नहीं जितवा पाए। जितने कांग्रेसी जीते वे अपने दम पर ही जीते। मनमोहनसिंह राजनैतिक पृष्ठभूमि से नहीं थे अतएव अमेरिकासे अटॉमिक करार और एफडीआई के मसले पर वे वामपंथ को साधने में असफल रहे। यही वजह रही की मई २०१४ के लोकसभा चुनावों में बिखरे हुए गैर भाजपाई विपक्ष को वोट तो ६९% मिले किन्तु सीटें महज १५० ही मिलीं। जबकि भाजपा और उसके अलायन्स एनडीए को महज ३१% वोट हासिल हुए किन्तु ३५० से अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई।

यदि ६९% वोट पाने के वावजूद कांग्रेस और वामपंथ की यह दुर्दशा है, तो  जिम्मेदार कौन है?वेशक कांग्रेस के लिए तो खुद कांग्रेसी ही जिम्मेदार हैं। लेकिन भारतीय वामपन्थ  ने इन घटनाओं से क्या सीखा ? इतिहास से सही सबक सीखते हुए वास्तविक,यथार्थवादी और प्रगतिशील भूमिका अदा करनेमें क्या अड़चन है ? केवल पूँजीवादी बजट पर आलोचनात्मकता ही क्यों ? जन सन्देश के रूप में -अपना वैकल्पिक बजट जनता के बीच प्रस्तुत क्यों नहीं करते ?वामपंथ को अन्य विपक्षी पार्टियों अथवा दक्षिणपंथी सत्ता धारी पार्टी की तरह का सैद्दांतिक व्यवहार उचित नहीं है। वामपंथ और सम्पूर्ण संयुक्त विपक्ष को मोदी सरकार के बजट की आलोचना से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। इसलिए वैज्ञानिक सोच समझ वाले प्रगतिशील लोगों को लकीर का फ़कीर नहीं होना चाहिए !

शेष विश्व के सापेक्ष हम भारतीय हर मामलों के उद्भट जानकर एवम प्रकांड पंडित हैं। हम  भारत के जनगण -हर घटना की तात्कालिक प्रतिक्रिया में भी माहिर हैं। तभी तो हरेक ऐरा - गैरा नत्थूखैरा 'बजट' जैसे नीरस और दुरूह विषय पर फौरन अपनी नाक घुसेड़ देता है। बजट के समर्थन अथवा विरोध की आलोचनात्मक घंटियाँ  बजाना बुरा नहीं है। लेकिन 'विकल्प' नदारद हो तो कोई कैसे तय करे कि यह नहीं तो वह सही ?वास्तविकता यह है कि कोई भी आम बजट  सरकार का आलोच्य सत्र के लिए वित्तीय प्रस्ताव मात्र होता है। संसद चाहे तो इसे स्वीकार करे या रद्द करे अथवा संशोधित रूप में स्वीकार करे! जो लोग इस बजट का समर्थन कर रहे हैं ,जाहिर है उनका या तो लाभ सुनिश्चित है  या वे केवल सत्ता समर्थक चाटुकार हैं। लेकिन जो आलोचना कर रहे हैं और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नहीं हैं ,वे अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल हैं। यदि वे सच्चे वित्त विशेषज्ञ हैं तो उन्हें सार्थक और तार्किक दृष्टिकोण से  विश्लेषण करना चाहिए। जैसा कि एक अर्थशास्त्री का दायित्व हुआ करता है। जनता को यदि बजट से  रंचमात्र फायदा है तो उसे बताया जाना चाहिए। लाभकारी हिस्से को स्वीकार कर बाकी के पुलंदे पर जरूर निर्मम प्रहार किया जा सकता है।किन्तु बड़े दुःख की बात है कि जिन्हें विद्वान माना जाता है वे इसे पूरा ही ख़ारिज कर चुके हैं।

मार्क्सवादी नजरिये से बजट और तत्सम्बन्धी नीतियों की आलोचना का बेहतर तरीका यह हो सकता है कि पहले हमें यह मालूम हो कि आलोच्य नीतियों के अनशीलन में देश की बहुसंख्यक आवाम को क्या नफा-नुकसान है ?किसी बाजार नीति अथवा नई योजना के बरअक्स चीन जैसे महान सफल कम्युनिस्ट देश का नजरिया क्या है ? इस संदर्भ में अतीत का अनुभव भी याद रखा जाना चाहिए। अक्सर पक्ष-विपक्ष दोनों ओर पाया गया है कि शीर्ष नेतत्व जब गलत स्टेण्ड लेता है तब भी समर्थक केडरों में केवल उसकी पक्षधरता ही सुनाई देती रहती है। यह भेड़ चाल है। जनवादी केन्द्रीयता और अंधानुकरण में बहुत फर्क है। सिर्फ मार्क्सवाद ही यह सिखाता है कि निरपेक्ष अंतिम सत्य कुछ भी नहीं होता। जो कुछ होता है वह देश काल और परिस्थितियों के सापेक्ष ही होता है। गलती अथवा  भूलचूक मानवीय निशानी है। विगत शताब्दी के उत्तरार्ध के कुछ वाकये और वर्तमान शताब्दी के शुरआत के कुछ कडुवे अनुभव भारतीय वामपंथ के लिए स्मरणीय है।

यद्द्पि 'मार्क्स -ऐंगेल्स'की कालजयी सैद्धान्तिक स्थापनाओं का सम्मान सारा शिक्षित-सभ्य संसार करता है। यह भी अकाट्य सत्य है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में  तत्कालीन कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा स्थापित और कार्ल मार्क्स द्वारा सम्पादित 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'का प्रत्येक शब्द किसी पवित्र गृन्थ के पावन शब्दों से कमतर नहीं है। खुद कार्ल मार्क्स भी पुनः अवतरित हो जाएँ तो वेभी इस कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का एकभी शब्द गलत साबित नहीं कर सकते। इतिहास साक्षी है कि वैज्ञानिक साम्यवादी विचारधारा ने विश्व को बहुत उपकृत किया है। सन्सार की समस्त सभ्यताओं ने मिलकर अभी तक जो कुछ भी बेहतर हासिल किया है ,जो भी मानवोचित आविष्कार किये हैं ,जो भी मानवीय मूल्य समृद्ध किये हैं ,वे सब एक साथ मिलकर भी  'मार्क्सवादी दर्शन' के समक्ष पाषंग बराबर नहीं हैं। वशर्ते मार्क्स की शिक्षाओं को विश्वसापेक्षतावाद और आत्मालोचना के मद्देनजर परिभाषित किया जाए।
उद्दाम पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता की लंकाको निर्ममतापूर्वक ध्वस्त करनेके लिए अपनी नीतियों का पुनः -पुनः सिंहावलोकन करते रहना चाहिए। वामपंथ के अधिवेशन ,प्लेनम जो भी कार्यक्रम और नीति तय करते हैं उसमें भारत के स्वाभिमान और गौरव का भी उदयगान होना चाहिए ,क्योंकि आधुनिक युवा पीढी को यही पसन्द है।

भले ही पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्रकी भृष्ट चुनावी प्रतिस्पर्धा में वामपंथको वांछित चुनावी सफलता न मिल पाए  , भले ही जाति धर्म-मजहब में खंडित आवाम को अपने - अपने जातीय और साम्प्रदायिक हीरो पसन्द आते रहें , भले ही सब्सिडी ,मनरेगा इत्यादि आर्थिक सहायता के थेगड़ों से लदी -फदी लम्पट बुर्जुआ कौम में साम्यवादी - समाजवादी क्रांति की  कोई क्षीण सुगबुगाहट भी न हो ,भले ही सूर्य पश्चिम से उदित होने लगे ,भले ही धरती पर स्वर्ग उतर आये, किन्तु वैज्ञानिक सोच पर आधारित महान 'मार्क्सवादी दर्शन' की महत्ता कभी कम नहीं होगी . अतीत में मनुष्य ने इस धरती पर मानवता के पक्ष में जितने भी भौतिक और आध्यात्मिक 'दर्शन - विचार' संचित किये हैं,वे सभी अपने-अपने हिस्से की भूमिका अदा कर चुके हैं ,लेकिन यह धरती पहले से ज्यादा रक्तरंजित  , पहले से ज्यादा असुरक्षित ,पहले से ज्यादा कलहपूर्ण ,पहले से ज्यादा स्वार्थी और हिंसक मनुष्यों से भर चुकी है . धरती पर सभी धर्म-मजहब और नए-पुराने राजनैतिक सिस्टम बुरी तरह असफल हो चुके हैं. अब सिर्फ वैज्ञानिक सोच पर आधारित 'साम्यवादी' विचारधारा को अवसर दिया जाना शेष है .

वैज्ञानिक साम्यवाद केवल राजनैतिक दर्शन अथवा आर्थिक विचारधारा मात्र नहीं है .सामाजिक,आर्थिक,समानता अथवा मानवीय जीवन के विभिन्न अंगोंपर विज्ञान सम्मत नजरिया ही उसकी संचित पूँजी नहीं है .बल्कि धरती पर जो कुछभी गलत हो रहाहै ,चाहे वह कुदरती रूप से हो, चाहे वह अमानवीय लोभ-लालचके कारण पैदा हुआ हो, चाहे वह धरतीके समस्त प्राणियों की भावी पीढ़ियों के भविष्य निर्माणका सकारात्मक निर्धारण हो ,चाहे वह दृश्य- अदृश्य अप्रत्याशित जागतिक अप्रिय अनिष्ट हो ,धरती की प्रत्येक धड़कन को विवेकपूर्ण एवम क्रांतिकारी सोचसे युक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखनेकी मानवीय मेधा शक्ति व सकारात्मक सृजनशीलता का नामही 'साम्यवाद है .

सर्वहारा के हरावल दस्तों के रूप में एक वामपंथी पार्टी का निर्माण,संगठन और विकास वेशक बहुत कष्टसाध्य और दुर्लभ हुआ करता है। किन्तु अपनी मूल्यवत्ता ,गुणवत्ता में वह दुनिया के किसी भी गैर साम्यवादी राजनैतिक दलसे बेहतर ही होता है। लेकिन लंबी अवधि के बाद जहाँ पूंजीवादी पार्टियों में प्रायः एक नया आकर्षण ,नयी धुन नयी रोचकता और व्यवहारिकता की नई-नई कोंपलें पुनः उगने लगतीं हैं, वहीँ तमाम वामपंथी दल अपनी 'पवित्र' विचारधारा आधारित  पुरातन सैद्धान्तिक आलोचना और शोषित -दमित सर्वहारा के अंध समर्थन की आस पर ही आश्रित रहा करते हैं। जबकि कम्युनिज्म के आधारभूत सिद्धांत 'संघर्ष के लिए एकता और एकता के लिए संघर्ष ' को जातिवादी ,सम्प्रदायवादी नेता ले उड़े हैं। इस दौरके सत्तारूढ़ पूँजीवादी नेता और उनकी 'अमीरजादी पार्टी' मेहनतकश सर्वहारा और मध्यमवर्गीय आवाम को वादों,जुमलों घोषणाओं के रेवड बांटने का ढोंग करने में जुटी हैं। यदि पूँजीवादी मारिचि और साम्प्रदायिकता का रावण 'जन क्रांति' रुपी सीताका हरण करले,तब वामपंथ को सिर्फ अरण्यरोदन नहीं करते रहना है। अपितु निर्मम पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता की लंका को ध्वस्त करने के लिये पुनः अपनी नीतियों का सिंहावलोकन करें और कार्यक्रमों का भारतीय परिवेश में नव आह्वान करे!

१९८०-९० के दशक में जब गोर्बाचेव महाशय पेरेस्त्रोइका एवम ग्लास्तनोस्त के गुन गाने लगे ,जब 'सोवियत संघ' को सीआईए के इशारे पर  रूसके घरेलु दलालों ने जनताकी समाजवादी जनकल्याणकारी व्यवस्थाको ध्वस्त कर डाला तब भी हम [भारतीय साम्यवादी]नहीं चेते । जब चीन ने चुपके-चुपके देंगस्याओ पिंग की बाजारवादी -अर्ध साम्यवादी-पूँजीवादी नीतियाँ अपना ली,तब भी 'हम' नहीं चेते। जब क्यूबामें फ़ीडेल कास्त्रो जैसी हस्तीके होते हुए भी वहाँ की गरीबी भुखमरी की ओर से हमने आँखे मूँद लीं तब भी 'हम' नहीं चेते। जब ह्यूगो शावेज के होते हुए भी बोलीबिया अपनी क्रांति की मशाल को बुझने से नहीं रोक सका,जब ब्राजील ,तुर्की, निकारागुआ की वामपंथी शक्तियाँ श्रीहीन होतीं चलीं गईं तब भी हम नहीं चेते ! केवल बंगाल मेंअपितु पूरे देश में लाल झंडे वालों की ताकत कम हो जाने के लिए सिंगुर या ममता तो सिर्फ बहाना मात्र थे। वामपंथ के संकुचन की वजह जातिवाद और साम्प्रदायिकता यदि आठ आने रहा है तो बाकी आठ आने खुद वामपंथ का नेतत्व जिम्मेदार है। सल जैसे विकासशील देश के लिए विषम स्थिति बन चुकी थी। ततकालीन सरकार के सरपरस्त -राजीव गाँधी,नरसिंहराव,मनमोहनसिंह, सेमपित्रोदा ने निर्णय लिया कि भारतमें भी उदारीकरण ,आधुनिकीकरण की नीतियाँ तेजी से लागू कीं जायें। तब बंगाल ,केरल और त्रिपुरा में वामपंथी की सरकारें थीं। उन दिनों देश में वामपंथी ट्रेडयूनियनों का ही दबदबा था। जनता पार्टी के दौर में अवसर का फायदा उठाकर आरएसएस ने एक मजदूर विरोधी संगठन बनाया जिसे 'भारतीय मजदूर संघ' कहते हैं। इस संगठन का काम केवल पूँजीवादी भाजपा का प्रचार करना और सत्ता सुख उठाना मात्र था। जबकि वामपंथी ट्रेडयूनियन्स लगातार मजदूरों-किसानों और आवाम के सवालों पर संघर्ष कर रहीं थीं। वामपंथ समर्थक ट्रेड यूनियनों ने,मजदूरों ने संघर्षों से अपने अधिकार हासिल किये लेकिन कुर्बानियाँ भी कुछ कम नहीं दीं हैं।

मैं लगभग 35 साल तक ट्रेड यूनियन नेता रहा . युवा अवस्था में एक विशाल -मजबूत राष्ट्रीय संगठन का 'युवातुर्क' हुआ करता था। तब पोस्टल और टेलिकॉम की संयुक्त फेडरेशन एनएफपीटीई की नौ मजबूत युनियने थीं। उनमें से एक 'एआईटीटीई' का मैं स्थानीय कार्यकर्ता था। बाद में मुझे सर्कल और आल इंडिया स्तर पर चुना गया। कुल ३६ साल तक मैंने लगातार तन-मन धन से पूरी ईमानदारी और निष्ठां से कर्मचारियों/अधिकारियों और टेलिकॉम विभाग के हितों की रक्षा के लिए नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। किन्तु कुछ घटनाएं मुझे सबक सिखा गयीं। चाहे पे कमीशन का सवाल हो चाहे निजीकरण ,ऑटोमेशन अथवा कम्प्यूटरीकरण का सवाल हो अक्सर हम जमकर लडे . खूब हड़तालें कीं ,किन्तु हर बार लड़ाई लड़ने वाले घाटे में ही रहे . दोयम दर्जे के कर्मचारी वेचारे मैदान में लड़ते रहे और टॉप अधिकारी चुपके से अच्छा वेतनमान ले उड़े .इसीतरह हमें कहा गया कम्प्यूटर,ऑटोमेशन का विरोध करो और तमाम अधिकारी अद्दतन होते चले गए .लाखों की तादाद में लड़ रहे कर्मचारी अंत में हर बार घाटे में ही रहे,चूँकि हड़ताल कराने वाली यूनियन पर केवल सीपीएम का नियन्त्र था बाकी की यूनियनें सत्ता के साथ गुलछरे उड़ाया करतीं और उनके राजनैतिक नेता भी मजे करते ,केवल सीपीएम ने ही सही लड़ाई लड़ी और उसके केडर को भारी क़ुरबानी देनी पडी .शायद यही वजह है कि संगठित क्षेत्र के कर्मचारी अधिकारी के हाथ में तो लाल झण्डा तभी तक रहता है जब तक उसे हितों की चिंता है .किन्तु राजनैतिक चुनाव में जाने क्या हो जाता है ?  

विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में वामपंथ द्वारा आटोमेशन और कम्प्यूट्रीकरण का विरोध मुझे आज तक समझ नहीं आया। क्योंकि इतनी कुर्बानी के वावजूद न तो आटोमेशन रुका और न ही कम्प्यूटरीकरण रुक सका और यह तो लाभदायक ही सावित हुआ। कम्प्यूट्रीकरण से करोड़ों युवाओं को काम मिला ,आधुनिक सूचना संचार तकनीकि विकसित हुई है और भारत के युवाओं में से कोई गूगल का सीईओ है,कोई व्हाइट हॉउस में ट्रम्प की टीम में है। हमारे ततकालीन विरोध का दुष्परिणाम यह जरूर रहा कि सिंगापूर,मलेशिया थाईलैंड और श्रीलंका भी भारत से आगे निकल गए।   

जब भी तत्कालीन केंद्र सरकार  कोई बजट पेश करती ,जब भी कोई नीतिगत घोषणा होती या सरकार कुछ नया करती हमें मुख्यालय से आदेश आता कि धरना,प्रदर्शन,हड़ताल करनी है। हमने कार्यालय के सामने स्थाई रूप से लाऊड स्पीकर बाँध रखा था। जब भी 'ऊपर' से विरोध का निर्देश मिलता हम फौरन नारेबाजी करने लगते। टेलिकॉम में सीडॉट आया तो हमने विरोध किया ,ऑटोमेशन हुआ तो हमने विरोध किया, कम्प्यूटरीकरण हुआ , हमने उसका भी जोरदार विरोध किया। हर बारके संगठित विरोध का कारण 'नौकरी जाने' का भयादोहन  हुआ करता था।  लेकिन सरकार ने हर बार हर योजना पर कर्मचारियों के हितों की रक्षा का वादा किया ,अधिक वेतन भत्ते दिए और अपनी योजनाओं पर अमल किया। नतीजा यह रहा कि सरकारी क्षेत्र में योजनाएं लेटलतीफ होतीं गयीं और निजी क्षेत्र ने पूरे देशमें अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिएहैं । करोड़ों को रोजगैर भी मिलाहै । अब यदि कोई यह सवाल उठाये कि  निजी क्षेत्र में शोषण हो रहा है ,काम के घंटे बहुत ज्यादा हैं ,पेंशन बगैरह नहीं है तो इसका वैश्विक उपाय जो होगा वह भारत में लागू किया जाना चाहिए। इस बाबत उन युवाओं को एकजुट संघर्ष करना चाहिए जो हितग्राही हैं। वामपंथी ट्रेड यूनियनें ,उनकी तहेदिल से मदद करेंगीं !श्रीराम तिवारी !