रविवार, 31 मई 2015

असली बारहमासा [घनाक्षरी छंद]-श्रीराम तिवारी

 


        चैत्र गावे चेतुवा ,वैशाख गावे बनिया ,

       जेठ गावे रोहिणी ,अगनि  बरसावे  है।

      भवन सुलभ जिन्हें  शीतल  वातानुकूल ,

      बृष  को तरणि तेज उन्हें न सतावे है।।

      नंगे पैर धरती पै भूँखा प्यासा मजदूर ,

      पसीना बहाये  थोरी  छाँव को ललावे है।

      अंधड़  चलत उत   झोपड़ी उड़त जात ,

      बंगले से  ध्वनि इत  टीवी की आवे है।।


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बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,

 निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।

आज  भी न बरसे  कारे कारे  बदरा ,

 आषाढ़ के दिन सब सूखे बीते जावे हैं ।

अरब की खाड़ी से न आगे  बढ़ा मानसून ,

 बनिया बक्काल दाम दुगने  बढ़ावे  है।

वक्त पै  बरस  जाएँ कारे-कारे  बदरा ,

दादुरों की धुनि पै धरनि  हरषावे  है।।

कारी घटा घिर आये ,खेतों में बरस जाए ,

सारंग की धुनि संग सारंग भी गावै  है।

बोनी की बेला में जो देर करे मानसून ,

 निर्धन किसान मन शोक उपजावे है ।।

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बन बाग़ खेत मैढ़ चारों ओर हरियाली ,

उद्भिज गगन अमिय झलकावै  है।

पिहुँ -पिहुँ  बोले पापी पेड़ों पै  पपीहरा ,

चिर-बिरहन मन उमंग जगावै है।।

जलधि मिलन चलीं इतराती सरिताएँ,

गजगामिनी मानों पिया घर जावै है।

झूम-झूम वर्षें  गरज गहन घन ,

झूलनों  पै गोरी मेघ मल्हार गावै  है।।

         ....  अपने प्रथम काव्य संग्रह [अनामिका ] से  उद्धृत ;-श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 29 मई 2015

क्या उनके जघन्य अपराधों से भी बड़ा अपराध आईआईटी मद्रास के छात्रों का है ?

'आईआईटी मद्रास' में अध्यनरत छात्रों के 'आम्बेडकर -पेरियार स्टडी सर्कल पर' अभिव्यक्ति के शत्रु  वर्ग  - शनिश्चर की बकरदृष्टि पड़  चुकी है। किसी भी पार्टी की सरकार को उसकी नीतियों की आलोचना' के बरक्स  इस तरह अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध  पूर्णतः अलोकतांत्रिक है। मद्रास आईआईटी के छात्रों का गुनाह क्या है  ? इस प्रश्न का उत्तर तो कोई सच्चा देशभक्त और नहीं बिकने वाला  न्यायविद ही  दे  सकता है। जिन्होंने सलमान खान  जैसे  बिगड़ैल  बेवड़े को आधे घंटे में जमानत दे दी  हो , जिन्होंने ७ हजार करोड़ के गबन के अपराधी  चोट्टे -रामलिंगम राजू को एक घंटे में ही जमानत दे दी  हो , जिन्होंने अकूत सम्पदा की भूंखी जय ललिता को ५ मिनिट में ही तमाम तरह  के  अपराधों से बरी  कर दिया  हो  ,ऐसे  न्यायविद  तो शायद इस तरह  से  अभिव्यक्ति की  निर्मम हत्या  पर मुँह  खोलने लायक नहीं रहे। वे तो अवसर आने पर केंद्र सरकर के इस तानाशाही रवैये  को उचित ही  ठहराएंगे ! वे स्मृति ईरानी और उनके आकाओं के फासीवादी चरित्र के खैरख्वाह ही होंगे ! वेकसूरों पर राज्य सत्ता के जुल्म पर न्याय पालिका का मौन और धनिक वर्ग  के अपराधों पर न्याय पालिका की उदात्त पक्षधरता- वस्तुतः पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र में  न्याय व्यवस्था  की यही असल पहचान है।  इसीलिये कहा गया  है कि  इस व्यवस्था में  न्याय पालिका  शक्तिशाली व्यक्तियों  की क्रीत  दासी मात्र है।
                                                             माना कि  आईआईटी मद्रास के छात्र वाकई कसूरवार हैं !तो क्या उन छात्रों का अपराध  उस मुफ़्ती सरकार से भी बड़ा है  जिसकी शह  पर जम्मू - कश्मीर में  रोज-रोज  पाकिस्तानी झंडे फहराये जा रहे हैं? और  क्या मुफ़्ती सरकार को सत्ता में बिठाने के लिए खुद भाजपा और 'मोदी सरकार' भी  बराबर की गुनहगार नहीं हैं ? क्या इससे बड़ा अपराध किया है आईआईटी मद्रास  के स्टूडेंट्स ने ?क्या अमित शाह ,राम माधव और उनके सर्वेसर्वा 'नमो' से कश्मीर नीति पर भयंकर  भूल नहीं हुई ? क्या इन भाजपा नेताओं का यह अपराध  हिमालय जितना बड़ा नहीं है ? क्या इस जघन्य  अपराध से भी  बड़ा अपराध आईआईटी मद्रास के छात्रों  का है ? क्या इन छात्रों का अपराध  'झीरम घाटी'  हत्याकांड  से भी बड़ा   है ? जब छग की रमन सरकार और केंद्र  की मोदी सरकार उन हिंसक तत्वों का अभी तक बाल बाँका नहीं कर सकी हो ! तो आईआईटी के छात्रों -  बौद्धिक समूह को नाथने का तातपर्य क्या है ?
                   जब देश  भर में और राजस्थान में  जातीय आधार पर आरक्षण की मांग मनवाने के लिए रेल की पटरियाँ उखाड़ने वाले और रेलवे को सौ करोड़ से जयादा का फटका देने वाले हुड़दंगिये जातिगत आधार पर आरक्षण की मलाई छानने में सफल हो रहे हों , और ये  रेल की पटरियां उखाड़ने  वाले  इस राष्ट्रद्रोह  के बाबजूद सीना  ताने राजनीति  के बियावान में सैर कर रहे हों ! यदि  राजस्थान की वसुंधरा  सरकार और केंद्र की मोदी सरकार इन राष्ट्र द्रोहियों  को जेल में ठूंसने के बजाय  बड़े चाव से 'चाय' पर बुला रही हो ! माननीय  राजस्थान हाई  कोर्ट  के निर्देशों की  यदि धज्जियाँ  उड़ रहीं हों ! तो आईआईटी मद्रास के चिंतनशील छात्रों पर ही व्ज्रपात  क्यों  ?
                 जबसे कश्मीर में भाजपा और 'मुफ्ती एंड अलगाववादियों' की गठबंधन सरकार सत्ता में आईहै।  तब से  पूरे  कश्मीर में  कभी गिलानी के पठठे  , कभी मीर  वाइज  उमर के पठ्ठे ,  कभी यासीन मलिक  के पठ्ठे और कभी  पाकिस्तान में बैठे आकाओं के 'नापाक'  पठ्ठे ,रोज-रोज पाकिस्तान का झंडा लहरा रहे हैं । जबकि  भारतीय तिरंगा  झंडा  निरंतर  पददलित   किया जा हो रहा है ।  क्या मद्रास आईआईटी के छात्रों का अपराध इससे भी बड़ा है ? जब  भाजपा के टेके वाली 'मुफ्ती'  सरकार  आतंकियों का गुणगान कर रही हो ! जब  केंद्र सरकार किसी एक  भी पाकपरस्त आतंकी को सबक सिखाने में असफल रही हो ! जब केंद्र के मंत्री पाकिस्तान  को सबक सिखाने की दम्भात्मंक डींगे हाँक रहे हों !जब  हिंदुत्ववादी केंद्र सरकार के मंत्री गौ मांस' खाने की वकालत कर रहे हों ! जब भाजपा के नेता  और मंत्री  आपस में कुकरहाव कर रहे  हो !  जब सैकड़ों सांसदों और दर्जनों मंत्रियों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे हों ,तब  केंद्र सरकार  और खास तौर  से मानव संसाधन मन्त्राणि जी को यह कतई  शोभा नहीं देता कि  मद्रास आईआईटी के एक मामूली से 'स्टेडी सर्कल ' पर प्रतिबंध लगाकर दुनिया  भर में अपनी 'इकन्नी' करवाती फिरें  ।
                     वेशक मद्रास आई आई टी के छात्रों  की हिंदी विरोधी मानसिकता और उनके सामाजिक संकीर्ण विचारों से  मैं  भी सहमत नहीं हूँ। किन्तु उन दिग्भर्मित छात्रों की 'अभिव्यक्ति की आजादी' का मैं शिद्दत  से  समर्थन करता हूँ। इस घटना से यह भी  सिद्ध होता है कि वर्तमान मोदी सरकार  अभिव्यक्ति की आजादी को कुचल देना चाहती है।  इससे यह भी साबित होता है कि यह  सरकार अपने खिलाफ कुछ  भी कहना - सुनना पसंद नहीं करती। तब इस 'नमो' सरकार  पर लग रहा  'फासिस्टवाद' का आरोप  गलत  कैसे हो सकता है ?


                                                 श्रीराम तिवारी
    

गुरुवार, 28 मई 2015

आनन्दम् इंदौर को नमन !



           देश के सामाजिक ,साहित्यिक ,राजनैतिक और आर्थिक नीति संबंधी सरोकारों के बरक्स  हमारे इंदौर    शहर में  'अभ्यास मंडल'  के  भगीरथ प्रयत्न  और  ततसंबंधी  वैचारिक  विमर्श के आयोजन बड़े सार्थक और सुविचारित हुआ करते हैं। लेकिन इस  अभ्यास मंडल  से इतर भी अन्य अनेक संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत हैं।  उन्ही में से एक है वरिष्ठजनों' की ख्यातनाम संस्था 'आनंदम' इंदौर। विगत कुछ वर्षों में ही इस नवोदित संस्था ने  अपनी चौमुखी  सार्थक भूमिका से सभी का ध्यानाकर्षण किया है।इसके प्रमुख कर्ता -धर्ताओं  में आदरणीय  सर्वश्री  नरेन्द्रसिंह जी ,कैलाशचन्द्र  पाठक जी ,सूरज  खण्डेलवाल जी ,सुरेन्द्र जैन साहब ,वासुदेव लालवानी जी  ,बिल्लोरेजी,कांति  भाई, ज्योत्स्ना जी, मांडगेजी , डॉ करुणा शर्माजी  ,डॉ रमा शाश्त्रीजी बड़जात्या जी ,पटैरिया जी ,और एम के मिश्र जी है। 'आनंदम' के द्वारा न केवल वरिष्ठ नागरिकों  के  हितों की देखभाल की जाती है बल्कि यहाँ  समाज के हितों ,शहर के हितों और देश के हितों की भी परवाह की जाती है।आनंदम इंदौर के मार्फ़त   तमाम किस्म  की  साहित्यिक , शैक्षणिक  ,वैचारिक गतिविधियों  और सृजनशील  सामाजिक सरोकारों  को साधने के प्रयास भी किये जाते हैं । अशक्त  महिलाओं और  निर्धन बच्चों   के  हितार्थ  शशक्तिकरण  के प्रयास निरतंर जारी रहते हैं। ये तमाम बहुउद्देश्यीय और बहुआयामी जनहितैषी कार्य  बिना किसी सरकारी इमदाद के   आनंदम  इंदौर के  स्वेच्छिक अनुदान और श्रमदान से किये जा रहे हैं। आनंदम इंदौर के संचालक और सभी सदस्य  हर किस्म की पापुलरटी  और हर किस्म की  निहित स्वार्थी  भावनाओं से परे  हैं ।

            आनंदम  के मंच से समूह - देशाटन ,योगशिवर,एवं वरिष्ठजनों के  दैनिन्दिन और स्वास्थ  संबंधी सरोकारों को बखूबी साधा जाता है। इस  मंच से जैविक खेती ,प्राणिक हीलिंग ,जन -सफाई अभियान सतत जारी रहते हैं। भूकम्प,प्राकृतिक -आपदा तथा निर्धन -गरीब-मजदूर वर्ग के लिए वस्त्र  इत्यादि के मद में सभी  सदस्यों  द्वारा  यथा संभव आर्थिक सहायता का भी प्रयास किया जाता है।  प्रत्येक  बुधवार को आध्यात्मिक सतसंग ,गीत ,संगीत , भजन और माह के प्रत्येक दूसरे शनिवार  को समग्रगामी विषयों पर  सार्थक 'परिचर्चा और गोष्ठी ' आयोजित की जाती  है।'आनदंम ' के मंच से  हर महिने  के तीसरे शनिवार को 'कथा -कहानी-कविता -अनुभव आपके' नामक  सुरूचपूर्ण - काव्यात्मक  कार्यक्रम का भी सतत आयोजन किया जाता है।

                 इन गोष्ठयों एवं परिचर्चाओं की खूबी यह होती है कि ये हर किस्म के मिजाज़ एवं रूप रंग से सरावोर हुआ करतीं हैं। यहाँ किसी एक खास  विचारधारा या सिद्धांत की प्रतिबध्दता वाला फंडा नहीं है। सभी को अपनी तार्किक प्रस्तुति के लिए बराबरी का अवसर दिया जाता है।यदि आप किसी खास विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं या  या किसी खास राजनीतिक  विचारधारा से संबद्ध हैं  भी हैं तो भी आप का  इस 'आनंदम' में हार्दिक स्वागत है। यह 'आनंदम ' की अद्भुत विशेषता है कि यदि आप आदर्श वादी  सहृदयता से ओतप्रोत हैं, यदि  आप रंचमात्र भी सुहृदय है तो इस  'आनदंम ' में आप को वह सब मौजूद है, जो किसी भी सीनियर सिटीजन को आनंद से जीने के लिए आवश्यक है।   चूँकि यहां प्रत्येक आमंत्रित विशेष वक्ता  अथवा सदस्य वक्ता को  अपने तयशुदा सब्जेक्ट  पर बहुत अल्प और सीमित  समय में ही   बात रखनी होती है। इसीलिये आम तौर  पर  गोष्ठियों के चयनित विषय पर समयाभाव के कारण विमर्श का अधूरापन खटकता है। कुछ विषय जो सामाजिक या राष्ट्रीय हित में    भी बहुत महत्वपूर्ण हुआ करते हैं और जिन  पर किसी खास विशेषज्ञ -वक्ता -अध्येता की खासी  विज्ञता हुआ करती है उसके लिए भी समय सीमा का बंधन होता है।

  हालाँकि  जब  एक से अधिक वक्ता या प्रस्तोस्ता हों ,जब सभी सदस्यों को अपनी बात कहने की अधीरता हो तब भी  कुशल  संचालन से  प्रत्येक वक्ता  को  पांच से सात मिनिट का समय आराम से  दिया जा सकता  है।   लेकिन   कभी-कभार किसी  धरती पकड़  सूत्रधार   की वाचालता के  कारण  अनावश्यक समय सिर्फ 'विषय प्रवर्तन' में ही जाया कर दिया जाता है।  इस तरह के अपरिपक्व  विषय प्रवर्तन  में सदस्यों का अमूल्य  समय जाया करना उनके साथ नाइंसफी जैसी ही है। विशेकर तब जबकि उस विषय का कोई खास विशेषज्ञ विषय को  वैज्ञानिकता और तार्किकता से प्रस्तुति  के लिए तैयार  हो ! बाज मर्तबा पेशेवर व्यक्ति भी समयाभाव के कारण अपनी बात कहने से वंचित  रह जाता  है। प्रायः एक-डेढ़  घंटे  की इन  'परिचर्चाओं ' का दो तिहाई वेश्कीमती  समय संचालन करता के सम्बोधन में ही चला जाता है।
                       बिना तैयारी वाले आकस्मिक वक्ता भी अनावश्यक  समय  जाया करते हैं  वे संदर्भित  विषय से परे अनावश्यक  अनर्गल प्रलाप के  आदि  होते  हैं। इनके कारण भी अन्य सुधि वक्ताओं को अपनी बात या पक्ष रखने का पर्याप्त अवसर  नहीं  मिल पाता । श्रोताओं को भी अपनी शंकाओं- जिज्ञाषाओं की अभिव्यक्ति केलिए   पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। इसीलिये  आनंदम  के साथियों को मेरा सुझाव है कि  इन परिचर्चाओं की आधी  -अधूरी प्रस्तुति से पूर्व संबंधित विमर्श का विस्तृत आलेख  तैयार  कर  'Anandamindore पर पोस्ट करें।  ताकि उनके समग्र आलेख को सभी सदस्य अपनी -अपनी रूचि और सुविधा से पढ़ सकें।  हरेक परिचर्चा या गोष्ठी से संबंधित  ये आलेख  फेस बुक ,ट्विटर एवं  समग्र सोशल मीडिया पर उपलब्ध  कराये  जाएँ  तो सोने में सुहागा।  अथ -शुभस्य शीघ्रम !

                                                                   श्रीराम तिवारी

                                                           
 

बुधवार, 27 मई 2015

राज्य सत्ता के व्यक्तिवादी निरंकुश निजाम में तीन प्रकार के 'स्टेक होल्डर्स ' हुआ करते हैं ।


  •  यदि ईमानदार  पड़ताल की जाए तो स्पष्ट परिलक्षित होगा कि शासन प्रणाली  चाहे जो भी हो किन्तु सामूहिक नेतत्व के अभाव में देवता भी मनमानी करने लगते हैं। प्रायः पाया गया है कि किसी भी प्रकार की राज्य सत्ता के व्यक्तिवादी निरंकुश  व् वर्चस्ववादी निजाम में तीन प्रकार के 'स्टेक होल्डर्स ' हुआ करते हैं । एक तो वे जो व्यवस्था में  समानता -न्याय -स्वतंत्रता  का प्रवेश वर्जित मानते हैं। ऐंसे क्रूर  शासक   प्रायः  विज्ञान के पैदायशी शत्रु हुआ करते हैं।  इन्हें  जनतंत्र, बहुलता ,तार्किकता  ,वैज्ञानिकता   और सकारात्मक परिवर्तनीयता से घोर चिढ है। इस कोटि के शासक - नेता, मंत्री ,अफसर इस भूतल  के तयशुदा  वैज्ञानिक विकाशवादी  सिद्धांत का कहकहरा भले ही न जानते हों किन्तु  होते  महाचालू   हैं।  ये आधुनिक  शासक इस पूँजीवादी लोकतंत्र में अपने आप को जनता  का  'जनसेवक'  भी  कहते  हैं। उनकी इस कृतिम विनम्रता में अपने देश की जनता को उल्लू बनाने का मनोरथ  साफ़  झलकता है। ऐसे 'जनसेवकों' की कीर्ति पताका दिग्दिगंत में फहराने और चुनाव में 'हर किस्म की मदद' के लिए इस पतनशील व्यवस्था में उन्हें भृष्ठतम् अधिकारी और कर्मचारी भी इफरात से मिल जाते हैं। वर्तमान में जो नेता भारत भाग्य विधाता बन बैठे है वे इसी श्रेणी में आते हैं। इससे पहले वाले भी इसी श्रेणी के थे  किन्तु उनका 'मौन ' इन 'बड़बोलों'  के सामने टिक नहीं सका।  

       वर्तमान  सत्तासीन  नेताओं की बीसों अंगुलिया घी में हैं। इस आधुनिक पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र में इन  धनबली ,बाहुबली , भीड़ जुटाऊ , ढ़पोरशंखी ,अगम्भीर और चालू क्सिम के खतरनाक तत्वों को सत्ता में पहुँचने के भरपूर अवसर प्राप्त हैं। इसीलिये ऐंसे लोग अक्सर नेता ,सांसद, मंत्री  या प्रधानमंत्री बनकर "प्यादे से फर्जी ' हो जाया करते हैं। उच्च शिक्षित काइंयाँ  किस्म के भृष्ट आला अफसरों- 'लोकसेवकों' से कामकाजी ओपचारिक  इंटरेक्शन के दरम्यान  अल्पशिक्षित नेता अर्थात सत्ताशीन  'जनसेवक' को परमुखपेक्षी होना ही  पड़ता है। तब   स्वाभाविक है कि ये  मंत्रियों से ज्यादा पढ़े-लिखे तथा जानंकार अफसर  भृष्टाचार करने-कराने  में , बदमाशों   और नेताओं से  ज़रा ज्यादा ही  चतुर -चालाक  होते हैं।  इसीलिये इन भृष्ट अफसरों के बलबूते  पर ही यूपीए  , एनडीए या किसी अन्य खास नेता या पार्टी  की सफलता या असफलता  निर्भर हुआ करती  है ।

             आजादी के बाद इन  ६८ सालों में  देश का कुछ  तो विकास अवश्य हुआ है । लेकिन  जो कुछ भी अच्छा  -बुरा  हुआ उसके भागीदार  हम सब है।  उसका कुछ  श्रेय संघर्षशील जनता को  भी है की उसने शासन-प्रशासन पर निरंतर दबाव बनाये रखा। यह जन-दबाव अभी भी जारी है। वर्तमान मोदी सरकार का एक वर्ष  केवल विदेश  यात्राओं और 'मन की बातों' में ही  गुजर गया ।  इस प्रतिगामी स्थति के लिए सिर्फ मोदी जी या एनडीए को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जब भारत की तुलना दुनिया  के तमाम  विकसित  देशों  -यूरोप,अमेरिका, जापान या चीन से होती है तो हर  सुधि देशभक्त भारतीय का चिंतित होना स्वाभाविक है। लेकिन यह यक्ष प्रश्न  बाजिब है कि आखिर क्या वजह है कि  भारत से बाद में आजादी पाने वाले चीन  , ताइवान ,सिंगापुर ,मलेशिया और वियतनाम मीलों आगे निकल गए।  यदि भारतीय संसदीय लोकतंत्र में  कोई खोट नहीं तो फिर इस राष्ट्रीय पिछड़ेपन  का जिम्मेदार कौन है ? वेशक मंत्री और सरकारें तो  इसके लिए जबाबदेह हैं  ही , किन्तु  इन अपढ़  , अयोग्य ,भृष्ट नेताओं को सत्ता में चुनने वाली तो जनता ही  है ! इसीलिये चाहे मनमोहन सरकार हो चाहे मोदी सरकार हो विकाश  नहीं होने की जिम्मेदारी  मतदाताओं की भी है !

जिन्हे कांग्रेस की असलियत मालूम है ,उसके शीर्ष नेताओं की शैक्षणिक योग्यता मालूम है ,उनकी भूलें और उनके कदाचरण मालूम हैं  वे कांग्रेस से  नफरत करने यह जायज है । लेकिन उन्हें मोदी जी के भाषणों पर ताली बजाने का  कोई हक नहीं।क्योंकि इस 'मोदी सरकार' और उस यूपीए सरकार में फर्क सिर्फ 'बोतल' का है वरना शराब तो  वही है।  
                       भारत के वर्तमान  संसदीय लोकतंत्र में नेताओं' की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय न होने से कोई भी ऐरा-गैर नथ्थुखेरा चुनाव में खड़ा हो जाता है। चुनाव जीत भी जाता है। मंत्री भी बन जाता है। कुछ तो मुख्य मंत्री और प्रधानमंत्री  भी बन जाते हैं। व्यापम काण्ड जैसे अपवित्र साधनों द्वारा, नकली डिग्री जुगाड़ने वाले यदि मंत्री ,अफसर-बाबू , डाक्टर,इंजीनियर जिस देश में होंगे , वहां का  विकास  सिंगापुर या आस्ट्रलिया   जैसा तो दूर की बात  चीन जैसा भी कैसे सम्भव होगा ?  वेशक  विकास सिर्फ उनका होगा जो इस सिस्टम के स्टेक होल्डर्स होंगे ।  जो अम्बानी, अडानी  के कद के होंगे।  कभी -कभार  कुछ राजनेताओं और अफसरों का भी विकास सम्भव है। कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं और बिलडर्स का विकाश भी अपेक्षित है।
           हालाँकि  नेताओं  की भूल-चूक पर तो जनता उन्हें चुनाव में हराकर हिसाब बराबर आकर लेती है। किन्तु   'सरकारी सेवकों' अर्थात नौकरशाही का बाल भी बांका नहीं कर सकती। यदि किसी ने कुछ चूँ -चपड़ की भी तो 'शासकीय कार्य में बाधा'  पहुंचाने के बहाने जेल में डालने का विकल्प खुला है। वर्तमान मोदी सरकार ने  भी जब  उसी  यूपीए वाली सनातन भृष्ट अफसरशाही पर अपने मंत्रियों से ज्यादा भरोसा किया है तो किसका विकास और  कैसा विकास ?  जब उन्होंने एक भी भृष्ट अधिकारी को जेल नहीं भेजा , किसी भी धूर्त नेता और अफसर   पर कोई नकेल नहीं कसी तो कैसा विकास और किसका विकास ?
                  केवल ताश के पत्ते फेंटकर उनकी पोजीशन  बदलने या टाइम पर आओ-टाइम पर जाओ का नारा लगाने से स्किलनेस या कार्यदक्षता में तीब्रगामी बदलाव सम्भव नहीं है ।  गलत ट्रेक पर कितना भी तेज दौड़ो , परिणाम शून्य ही होगा ! जब  आर्थिक नीतियां वही 'मनमोहनी' यूपीए वाली हैं और अफ़सरशाही भी वही परम  महाभृष्ट है  ,तो कैसा विकास -किसका विकास ? 

           वैसे तो भारतीय नौकरशाही में अंग्रेजी अफसरों के रौबदाब वाली ठसक के सभी 'गुणसूत्र विद्यमान हैं।  किन्तु अंग्रजों का अनुशासन ,अंग्रजों जैसी पब्लिकनिष्ठा ,राष्ट्रनिष्ठा और ईमानदारी का भारत की जड़वत -  नौकरशाही में घोर अभाव  है।  कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की नौकरशाही नितात्न्त  सत्ता परमुखापेक्षी है।कुछ  लोग रिश्वत देकर या आरक्षण की वैशाखी के बलबूते  अफसरी पा जाते हैं। वे सिर्फ  'काम के ना काज के ,दुश्मन अनाज के' हो कर रह जाते हैं। कोई भी सरकार हो ,कितना ही दवंग और डायनामिक प्रधानमंत्री हो  , यदि वह इस अफसरशाही को नाथ  भी ले  तो भी देश का भला वह कदापि नहीं कर सकता। क्योंकि यह मलिन  अफसरशाही देश का भला करने के लिए नहीं बल्कि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए 'सेवाओं' में आयी है।उसकी चमड़ी भले ही भारतीय हो किन्तु मष्तिष्क में 'अंग्रेजियत' का करेंट दौड़ रहा है।

                   दूसरे खतरनाक प्रवृत्तिवाले 'स्टेक होल्डर्स' वे  हुआ करते हैं जो प्रत्यक्षतः  शासक नहीं दीखते । किन्तु  शासक बदलवाने या सत्ता परिवर्तन में इनकी परोक्ष भूमिका हुआ करती है। शासन -प्रशासन बदल  जाने पर भी  वे अपनी सम्पदा और अपने निजी वैभव को अक्षुण  रखने के निमित्त  अनैतिक  उपायों का उपयोग करने में नहीं सकुचाते। हालाँकि ये लक्ष्मीपति  स्वयं तो कोई उत्पादक कार्य नहीं करते, किन्तु अपने बुद्धि चातुर्य से  अवसर का लाभ उठाकर राष्ट्र की  प्राकृतिक सम्पदा का  सर्वाधिक दोहन भी यही लोग किया करते हैं। ये लोग सीधे सीधे शासन-प्रशासन नहीं संभालते बल्कि व्यवस्था को खरीदकर अपनी जेब में रखते हैं। ये  कार्पोरेट पूँजी के देशी-विदेशी  धन्नासेठभी  हो सकते हैं।  ये  शराब माफिया ,ड्रग माफिया ,कॉल माफिया ,निर्माण माफिया  और व्यापम माफिया  जैसे कुछ  भी हो सकते हैं।
                तीसरे खतर्नाक  प्रवृत्ति वाले 'स्टेक होल्डर्स' वे हैं जो धर्म -मजहब रुपी अफीम की खेती करवाते हैं। किन्तु  जिन्ना  की तरह वे स्वयं उसका सेवन नहीं करते।  सुना है कि मुस्लिम लीग के नेता और पाकिस्तान के सह  - संस्थापक कायदे आजम मिस्टर  जिन्ना न मस्जिद  जाते थे और न नमाज पढ़ते थे।  वे अंग्रेजी शराब और अंग्रेजी चुरुट पिया करते थे। इसी तरह हिन्दुत्वादी कतारों में  जैचंद व् गोडसे जैसे  सैकड़ों शख्स होंगे जो मर्यादा पुरषोत्तम  नहीं होंगे। जो सत्य हरिश्चंद्र नहीं होंगे। जो  "धृति क्षमा दमोअस्तेयं ,शुचतेंद्रिय  निग्रह।  विद्या बुद्धि च अक्रोधम ' का अनुशीलन नहीं करते होंगे। ये तत्व किसी भी शासन प्रणाली में राहु-केतु' की तरह दुखदायी  है। इनकी  तादाद सीरिया ,पाकिस्तान ,सूडान ,यमन ,अफ़ग़निस्तान में ही बेहिसाब नहीं है  बल्कि   इनकी तादाद  अमेरिका रूस चीन और भारत में भी बेशुमार  है।

         उपरोक्त इन तीनों श्रेणियों में जो  मनुष्य नहीं आते, वे शेष बचे  हुए नर-नारी इस धरती के मूल्यबर्धित  असेट्स [सम्पदा ]  मात्र है। वे पाने -अपने राष्ट्रों की 'वेल्थ आफ नेशन' मात्र हैं। वे सिर्फ  रॉ मेटेरियल [कच्चा माल] मात्र हैं। वे सिर्फ आम आदमी  भर हैं। वे  मतदाता या वोटर  मात्र हैं। उन्हें आप  पब्लिक भी कह सकते हैं.
जिस देश की यह पब्लिंक जाग जाती है तो उपरोक्त शासकों का विकल्प सामने आता है।  पब्लिक अर्थात आवाम  अर्थात जनता  जनार्दन के जागने और नवनिर्माण की हुंकार भरने की क्रिया को ही क्रांति कहते हैं।    

 पूँजीवादी  समाज व्यवस्था  का  शासक वर्ग उपरोक्त तीनों श्रेणियों  के भौतिक और  रासायनिक समीकरणों से परिभषाशित किया जा सकता है। इस शासक वर्ग के डीएनए में साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा जनता को भरमाने या आपस में लड़ाने के लिए किये गए निरंतर दु ष्प्रचार  के प्रभाव  को  सत्ता प्राप्ति के निहित स्वार्थ में स्पष्ट देखा जा सकता है।  इसमें छिपे अर्ध पूंजीवादी /अर्धसामन्ती तत्वों को  किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक सोच-विचार  से नफरत  रहती है।  इनके  स्वार्थ अपराधियों से भी अनायास जुड़ जाते हैं। जो  चोरी  -डकैती  -लूट  - शोषण और पाप की कमाई से धन दौलत  के जखीरे भरते रहते हैं।   किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन या  क्रांति के नाम से ही इनकी  नींद उड़ जाती है। इनमें से  जिन्हे अपने देश का कुछ भी अच्छा नहीं दीखता। जिनकी जुबान अपनी असफलताओं पर लड़खड़ाने के बजाय और ज्यादा आक्रामक और ढ़पोरशंखी हो जाए ,जिसकी जुबान अपने अपराधों पर  लड़खड़ाये ,जिनमे  नक्सलवाद या माओवाद के खिलाफ स्पष्ट बोलने का माद्दा न हो ,जिन्हें अपने  देश  का इतिहास ,संस्कृति और पुरातन मूल्यों  का बेसिक ज्ञान भी न हो ,जिन्हे अतीत के क्रांतिकारी मूल्यों में  भी  में  सिर्फ  शोषण  का इतिहास ही दीखता हो ,वे  चाहे जितने प्रगीतिशील हों किन्तु यायावर हिंसक  आक्रान्ताओं  के आचरण में यदि उन्हें  सौजन्यता दिखती है तो  वेन केवल साम्प्रदायिकता बल्कि  भारत को  भी  ठीक से कदापि नहीं समझ सकते।  इसीलिये  भारत के बहुसंख्यक वर्ग को अनावश्यक  ही साम्प्रदायिक सिद्ध कर देना  न तो न्याय संगत है और न देशभक्तिपूर्ण है।आक्रान्ताओं को भले ही माफ़ कर दिया जाए , किन्तु देश को गुलाम बनाने वालों की दूषित मानसिकता को कभी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये  !  आक्रमणकारियों के वीभत्स और जघन्य अपराधों पर पर्दा डालना धर्मनिपेक्षता नहीं है। अपितु यह भौंडी  दासत्व -मानसिकता ही कही जाएगी।

                  चाहे कोई राष्ट्रवाद का ,समाजवाद का या साम्यवाद का कितना ही जाबांज झंडावरदार क्यों न हो ,बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता  और हिंसक प्रवृत्ति का अल्पसंख्यक आतंकवाद  दोनों  ही यदि प्रकारांतर से   देश  के पूँजीपतियों  और साम्प्रदायिक तत्वों को सत्ता में  बिठाने का  साधन बनते हैं , इस पूँजीवादी  नव्य  - उदारवादी दौर  में इस लोकतांत्रिक कॉकटेल को अलोकप्रिय  कैसे बनाया जा सकता है ? वेशक  इसे  लोकतंत्र  और  धर्मनिरपेक्षता से भी  पदच्युत नहीं  किया जा  सकता । इस दौर में  भारत के  श्रेष्ठियों और  साम्प्रदायिक   तत्वों को यदि 'नमो' जैसा  'प्रतिभाशाली  रोनाल्ड रीगन  मिल गया है तो  भले ही भारत  अमेरिका न बन पाये किन्तु सऊदी अरब भी वह  बनने वाला नहीं है। मोदी सरकार  चाहे  भी तो  भारत को पाकिस्तान जैसा 'आतंकी मुल्क  नहीं बना सकती !इसलिए भारत में साम्प्रदायिकता के विमर्श में राजनैतिक स्वार्थ से परे  सामाजिक  स्वार्थ का भाव अर्थात 'कबीर ' वाला भाव  ही सफल होगा। अभिप्राय यह है कि दोनों ओर  के साम्प्रदायिक तत्व यदि देश और समाज को दूषित कर रहे हों तो दोनों ही खराब हैं. किन्तु  प्रगतिशीलता के नाम पर हमला सिर्फ बहुसंख्यक पर या सिर्फ अल्पसंख्यक पर यदि  किया जा रहा है तो यह यूनिफार्म लेवल प्लेइंग फींद कैसे कहा जा सकता है ?
           राष्ट्रीय   स्वयं सेवक संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के खिलाफ तो देश के आदिसंख्य हिन्दू भी हैं। भले ही वे  भयवश कुछ नहीं बोलते।  किन्तु वे 'संघ' की राजनीति  को धीरे-धीरे समझ रहे हैं। लेकिन तमाम  धर्मनिरपेक्ष  ताकतों का दायित्व  यह नहीं कि  केवल शांतिप्रिय हिन्दुओं की या बहुसंख्यक वर्ग की लानत-मलानत करते रहें।  जो प्रगति शील -जनवादी लोग साम्प्रदायिकता पर लिखते बोलते हैं ,उसके दुष्परिणामों पर जनता को आगाह करते हैं वे स्वीकार्य हैं किन्तु जो लोग इधर-उधर अल्पसंख्यकों के बीच जाकर बहुसंख्यकों को गरियाते हैं वे  वास्तव में  न्याय नहीं करते।  यह उनकी नासमझी या राजनैतिक स्वार्थ को सकता है।

                     कश्मीर में बाढ़  आती है या कोई विपदा आती है तो देश का प्रगतिशील तबका एक स्वर में कश्मीरी जनता के लिए उठ खड़ा होता है। यह अच्छी बात है। केंद्र सरकार से सहायता का आह्वान करता है।व्यवस्था पर नजर रखता है।  किन्तु जब  कश्मीरी[अल्पसंख्यकों]पंडितों  की घर वापिसी की बात आती है और  मुस्लिम[बहुसंख्यक]अलगाववादी पथ्थर फेंकते हैं या पाकिस्तानी झंडे लहराते हैं और  कश्मीरी पंडितों को कश्मीर में घसने से रोकते हैं तो उन अलगाव वादीयों की आलोचना करने में कोताही या कंजूसी क्यों ?  क्या यह वास्तविक  वैज्ञानिक प्रगतिशीलता है ? यदि यह क्रांतिकारी आचरण  का आवश्यक  गुण है तो फिर बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का क्या होगा ? संसदीय लोकतंत्र में वे समाजवादियों ,साम्यवादियों और लोकतंत्रवादियों  को छोड़कर मोदी जैसे 'निरंकुश' नेता के आकर्षक व्यक्तित्व के साथ  क्यों नहीं जाएंगे ?

 हाफिज सईद ,लखवी ,गिलानी और उनके जैसे लाखों की करनी पर कुछ न कहना और केवल मोदी -मोदी रटते रहने या  दो-चार हिन्दू साध्वियों या लम्पट हिन्दुत्ववादियों पर हो हल्ला करने से कोई धर्मनिरपेक्षता परवान  नहीं  चढ़ने वाली।साम्प्रदायिकता  और [अ]धार्मिक पाखंड की  आलोचना तो  कबीर  ओए नानक की मानिंद होना चाहिए।   जिन्होंने हमेशा एक ही सांस में पाखंडी हिन्दू और ढोंगी मुसलमान को भी नसीहत दी है।
पश्चिम के सभ्य और संगठित मानव समाज  ने जब से 'क़ानून का राज्य' या लोकतंत्र का अमृत फल चखा है , जबसे उसने बंधुता ,समानता और स्वतंत्रता का सिद्धांत अंगीकृत किया है ,जबसे उसने आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक परिभाषाओं को वैज्ञानिकता की कसौटी  से परिष्कृत किया है ,जबसे उसने  सोशल डेमोक्रेसी  समाजवाद , साम्यवाद ,धर्मनिरपेक्षता ,लोकतंत्र और जनतांत्रिक क्रांतियों  के  झंडे गाड़े हैं जबसे उसने भौतिक  वैज्ञानिक अर्थशास्त्र और मानवीय  दर्शन का प्रतिपादन किया है तभी से पश्चिम के तमाम राष्ट्रों ने ,वहाँ की तमाम पिछड़ी  कौमों  ने  कितनी चमत्कारिक तरक्की की है यह किसी से छिपा नहीं है।  न केवल अमेरिका  ने , न केवल कनाडा ने , न केवल आस्ट्रेलिया ने  या पश्चिम के  यूरोपियन देशों ने बल्कि  पूर्व के  भी अनेक राष्ट्रों  - वियतनाम , थाईलैंड ,मलेशिया ,सिंगापूर ,जापान ,कोरिया और  चीन ने चहुमुंखी विकास के चौतरफा झंडे गाड़ रखे हैं। हमारे प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी विगत एक बर्ष से अपने अतीत के नॉस्टेलजिया-व्यामोह का शव अपने कंधे पर लादकर  सारी दुनिया में दर -दर भटक रहे हैं। क्या इसी मांगनहारी  योग्यता के  दम पर भारत को वैश्विक शक्ति बनाया जाएगा ? विगत चुनावों में भारत की जनता से वादा किया गया था कि हम कालाधन वापिस लायेंगे।  हर गरीब के खाते में  लाखों रूपये [पता नहीं कितने] जमा कर  दिए जावेंगे।  हम कश्मीर से आतंक को मार  भगाएंगे।  हम धारा  -३७० हटाएंगे। हम बेघर कश्मीरी पंडितों को ससम्मान वापिसी कराएंगे। हम किसानों का भला करेंगे। हम मजदूरों का भला करेंगे। हम राम लला  का भव्य मंदिर बनाएंगे। हम  भृष्टाचार खत्म कर देंगे। हम  पाकिस्तान  में पल रहे  भारत विरोधी आतंकियों को  खत्म कर देंगे। हम हाफिज सईद ,दाऊद और लखवी को दंड देंगे। हम चीन से अपनी जमीन वापिस  छीन लेंगे।

   चीन से मोदी जी अभी तक क्या हासिल कर पाये ये तो वे ही जाने किन्तु मोदी सरकार के कार्यकाल में चीन ने भारत का बहुत नुक्सान किया है। पाकिस्तान को अभी तक अमेरिकीद्वारा दी जाती रही  मदद का मीजान भारत से संतुलन बनाकर या अपने वैश्विक हित  साधकर  किया जाता रहा है। जबसे भारत में 'नसीबवालो' की सरकार  बनी है  ,चीन ने लगातार रुसवा ही  किया है। जब फ़रवरी में शी  जिनपिंग भारत आये थे तो चीन सेना ने ठीक उसी समय लद्दाख और शियाचिन्ह में सीमा का अतिक्रमण किया था। आज जबकि मोदीजी चीन में इधर उधर मत्था टेकते फिर रहे हैं तब चीन के मीडिया ने और उसके कूटनीतिक हलकों ने भारत की गर्दन[कश्मीर] को ही उड़ा  दिया। उधर अरुणचल प्रदेश का नक्शा भी  चीन के औपचारिक विमर्श से गायब है। केवल चीन के पक्ष में व्यापार  मानसरोवर तीर्थ  यात्रा ' का अलटर्नेट रुट पर  सैद्धांतिक सहमति के अलावा मोदी जी को चीन से कुछ नहीं मिलने वाला।

र पूंजीवाद की विजय के उपरान्त पूर्व के  देशों में  भी यह प्रवृत्ति भी परवान चढ़ती  रही है कि  साम्राज्यवाद से मुक्ति मिले। कोई किसी का हक न मारे। कोई किसी का शोषण न करे। कोई किसी पर अत्याचार न करे। वेशक पुरातन  भारतीय उपमहादीप  में भी इन उच्चतर मानवीय मूल्यों की चर्चा अवश्य होती रही है कि ;-

            सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया।  या  अयं  निजः  परोवेति गणना लघुचेतसाम् ,उदार चरितानाम्  तू वसुधैव कुटुम्बक।   इत्यादि … इत्यादि।

 लेकिन  भारत के  ये तमाम पवित्र  उद्घोष ,सात्विक मानवीय मूल्य  धर्मग्रंथों के भोजपत्रों में ही सिमिट कर रहे गए। सामंतों ,राजाओं ,जमींदारों ,श्रेष्ठियों और राज्याश्रय प्राप्त धर्म -मजहब के मठाधीशों ने आम जनता को  कभी भी अपना इतिहास खुद लिखने का मौका ही नहीं दिया। बाज मरतबा  कृष्ण ,बूद्ध ,महावीर जैसे सामंतपुत्रों या 'असंतुष्ट' राजकुमारों  ने अवश्य ही तत्कालीन व्यवस्था पर चोट  कीथी।  किन्तु वे न तो आवाम  को सामंतवाद के शिकंजे से मुक्त  करा  पाये। न ही वे भारत राष्ट्र का निर्माण करा पाये। उलटे उन्होंने 'आर्य धर्म' पर चोट करके ततकालीन आवाम को -जो जरूरत से ज्यादा अहिंसा  का पाठ  पढ़ाया- उसीकी बदौलत भारतीय  उपमहादीप की बहुसांस्कृतिक जनता को  सदियों की गुलामी  भोगनी पडी। पददलित अंधश्रद्धालु दासत्वबोध से पीड़ित आवाम इसी खास वजह से  आर्यावर्त में कभी  कोई क्रांतिकारी मिशाल कायम नहीं सकी।

                                        श्रीराम तिवारी
               

सोमवार, 25 मई 2015


 आज की ताजा किन्तु दुखद रेलवे खबर नंबर-एक  :- अवंतिका एक्प्रेस आज रात को गुजरात में लूट ली गयी।

 रेलवे खबर नंबर-दो :-मुरी एक्सप्रेस कौशाम्बी [यूपी] में पटरी से उतरी।  इससे पहले कि तीसरी कोई दुखद

रेलवे खबर सुरेश प्रभु  की ओर  से आप तक पहुंचे,  एतद द्वारा हर आम और खास को सूचित  किया जाता है

कि मोदी एक्सप्रेस का इंजन विगत एक साल से केवल धुँआ ही छोड़े जा रहा है ! इस इंजन का शोर न केवल 

भारत बल्कि  दुनिया में  भी सुनाई दे रहा है। चूँकि मोदी सरकार विगत एक वर्ष में एक इंच भी अपने प्रस्थान

बिंदु से आगे नहीं बढ़ी ! इसलिए इस मोदी एक्सप्रेस  को  ढपोरशंख द्वारा धक्का देकर आगे बढ़ाने की कोशिश

जारी है। भाजपा और उसकी सरकार द्वारा  मथुरा में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के जश्न  को

दरशल' 'धक्का मारो अभियान'  के लिए ही प्रायोजित किया गया है। अपनी असफलता पर पर्दा डालने की यह 

नाकाम  कोशिश है या अच्छे दिनों की आतिशबाजी है या शुतुमुर्गी चाल  ये तो देश की जनता ही तय करेगी।

इस एक्सप्रेस का  ड्राइवर सिर्फ  हार्न बजाये   जा रहा है ,गाडी आगे बढ़ाना भूल गया है।  यह मोदी एक्सप्रेस

 विगत २६ मई को जहाँ थी, वह आज भी वहीँ  छुक-छुक कर  रही है !

       श्रीराम तिवारी
   

जब मोदी जी ने भारत के अतीत को शर्मिंदगी भरा बताया तो भाई जी खपा क्यों हो गए ?


   मेरे एक पुराने सहपाठी हुआ करते थे । विश्व विद्यालयीन जीवन में ही वे अपने 'जनसंघी 'पिता के प्रभाव में 'शाखाओं ' में जाने लगे थे। मेरी उनसे तब भी  पटरी नहीं बैठती थी। उनके अधिकांस साथी उन्हें भाई जी कहकर ही बुलाया करते ।  कुछ गैरसंघी युवा  उन्हें मजाक में  'चड्डा' कहकर भी बुलाते थे । मुझे बहुत बाद में मालूम पड़ा कि वे जाति  से नहीं बल्कि खाकी नेकर पहनने के कारण 'चड्डा' मशहूर हुए। दरसल जातिसूचक सरनेम तो वे लगाते ही नहीं थे । पिछड़ी जाति  के जन्मना होते हुए भी  वे  कट्टर मनुवादी थे  !उन्होंने अपंना  जीवन सम्पूर्ण निष्ठां से 'संघ' को समर्पित कर दिया।  वे आज भी संघ के  कटटर  समर्थक हैं। स्वाभाविक है कि वे  'संघी' विचारधारा के ही  हैं। वेसे तो वे  मुझसे भी  बहुत प्रेम और स्नेह रखते हैं। उन्हें मुझसे एक व्यक्तिगत शिकायत सदा रही है कि मै एक  कुलीन   ब्राह्मण कुल में  जन्म लेने के वावजूद उनकी  'ब्राह्मणवादी' सोच का सम्मान नहीं करता !  भाई जी ने मुझे  बृहद  संस्कृत वांग्मय,उपनिषद ,कल्याण ,गीता ,तत्त्वचिंतामणि  और  तमाम   पौराणिक 'मिथ' साहित्य  मुफ्त में उपलब्ध करवाया। किन्तु यह सब पढ़ने- घोंटने  के वावजूद  में भाई जी  के काम  न आ  सका।  याने 'संघी ' नहीं बन सका । दीन दयाल  विचार 'समग्र' साहित्य,गुरु गोलवलकर कृत 'विचार नवनीत '  चरैवेति , पाञ्चजन्य,ऑर्गेनाइजर,कमल संदेश  जैसे 'संघ' मुखपत्रों को पढ़ने का सौभग्य  भी मुझे भाई जी के कारण ही मिला।  भाई जी ने  भी बचपन में ही  इन सबका सांगोपांग  अध्यन  कर लिया  था । चूँकि  मैं तर्कवादी और वैज्ञानिक भौतिकवाद  से प्रभावित हुआ, इसलिए  न केवल  'संघ' से  बल्कि हर कौम  हर धर्म -मजहब के तमाम साम्प्रदायिक संगठनों को संदेह की नजर से देखता रहा हूँ।  संसार के सभी धर्मों-मजहबों में व्याप्त पाखंड  उनके काल- कवलित  सिद्धांतों और  निदेशों से असहमत हूँ।
                   इन्ही  भाई जी के  समक्ष   हिन्दुत्ववादी बनाम ब्राह्मणवादी बनाम मनुवादी  'संघ'  को जब  कभी   कोई फासिस्ट या नाजीवादी कहता  है  तो उन्हें बड़ी पीड़ा होती है। वे आवेश में आकर दाऊद इब्राहीम , हाफिज   सईद, लखवी से लेकर बाबर -ओरंगजेब तक  तमाम मध्यकालीन  विदेशी बर्बर आक्रान्ताओं के जघन्य हिंस्र  अपराधों को गिनाने लग जाते हैं। जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है ,तभी से भाई जी लगातार कहते आ रहे हैं कि  " देखना अब पाकिस्तान की ऐंसी - तेंसी  होने वाली है ! अब बनेगा अयोध्या में  भगवान श्री राम लला का भव्य मंदिर !  अब लिखा  जाएगा भारत का सही इतिहास ! कश्मीर में  आइन्दा धारा -३७० नहीं रहेगी ! अब देश का कालाधन और विदेशी बैंकों का कालाधन जल्दी ही गऱीबों के अकाउंट में ऑटोमेटिकली जमा हो जाएगा ! अब हम चीन से  अपनी जमीन वापिस लेकर  रहेंगे ! अब  देश में जनता के सारे काम बिना रिश्वत लिए -दिए समय पर होंगे,अब अच्छे दिन आये हैं ! अब 'नसीबवालो' की सरकार है ! बगैरह बगैरह .......!
                  मोदी सरकार की तारीफ़ के साथ -साथ वे अकारण  ही प्रगतिशील ,धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद पर आक्रमण करने लगते  हैं। कांग्रेस ,कम्युनिस्ट , समाजवादी और अन्य गैर 'संघी' विचारधारा  वाले व्यक्तियों को वे पाकिस्तान समर्थक और भारत विरोधी  मानते हैं। वे अक्सर लोकतंत्र -न्याय   मीडिया - धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आजादी को भी कोसने लगते  हैं। जब कभी  कोई उनसे दबंगों - भूस्वामियों - पूँजीपतियों  की मुनाफाखोरी या सार्वजनिक सम्पदा की लूट पर सवाल करता है,माफिया पर सवाल करता है  या  अन्याय से मुक्त होने के लिए सर्वहारा क्रांति  का उल्लेख करता  है तो  भाई जी को मिर्गी आने लगती है। वे 'नमो-नमो' का जाप करने लगते हैं !
                       भाई जी कभी अटलजी के  परम  भक्त हुआ करते  थे। जब १९७१  के भारत -पाक युद्ध में भारत की महान विजय हुयी ,जब बांग्ला देश  का उदय हुआ ,जब संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ और पाकिस्तान के पक्ष में अमेरिका के पांच वीटो  नाकाम हुए  , जब तत्तकालीन सोवियत संघ ने  अमेरिका के भारत विरोधी  पांचों  वीटो ख़ारिज कर भारत की इज्जत आबरू बचाई ,  जब इंदिरा गाँधी की कूट नीति और भारतीय सेनाओं के  शौर्य से  बांग्ला देश मुक्ति वाहिनी के अन्नय  सहयोग की कीमत पर भारत की विजय हुई ,जब पाकिस्तान के ९६ हजार फौजियों को  भारतीय सेनाओं के समक्ष हथियार डालने पड़े ,जब तत्कालीन 'जनसंघ' अध्यक्ष श्री    अटल बिहारी बाजपेई ने मुक्तकंठ से तत्कालीन  प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को 'दुर्गा  का अवतार' बताया , तब  भाई जी ने  'अटल वंदना ' छोड़कर  लालकृष्ण आडवाणी का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया था। आपातकाल में माफ़ी मांगकर जेल से  बाहर आये भाई जी  'मीसा बंदी' कहलाये !
                                               नब्बे के दशक में  जब श्रीराम लला  का अयोध्या में  मंदिर निर्माण कराने के लिए  ,शाह्वानो  केश बनाम मुस्लिम तुष्टीकरण  को रोकने के लिए , बाबरी मस्जिद बनाम ढांचा ध्वस्त करने के लिए , मंडल को दबोचने और कमंडल के उद्धार के लिए, सिर्फ  दो सांसदों वाली भाजपा  के उद्धार के लिए जब साईं लालकृष्ण आडवाणी ने देश भर में हिंदुत्व का तुमुलनाड किया तो भाई जी भी सिंहनाद करते हुए देखे  गए। उन  रथ यात्राएं  के समय  ' भाई जी ' आडवाणी के  खड़ाऊं उठाऊँ हुआ करते थे। तब  वर्तमान 'परिधान 'मंत्री  जी  भी उन रथारूढ़ आडवाणी की  कृपा कटाक्ष  के लिए लालायित रहते थे।  हमारे ' भाई जी' भी रथ के पथ पर अपने हाथों से नाना प्रकार के पुष्प और रामरज बिछाया करते थे। लेकिन  २०१४ में जबसे देश में  मोदी लहर चली है तबसे भाई जी ने  आडवाणी को छोड़कर 'नमो-नमो' जपना चालू कर रखा है  !

                  हालाकिं  विगत लोक सभा चुनाव के दरम्यान जब अफवाह उड़ी कि मोदी जी के नेतत्व में एनडीए को बहुमत नहीं मिलने वाला। तो भाई जी ने कभी  शिवराजसिंह चौहान , कभी  राजनाथ सिंह , कभी सुषमा स्वराज ,कभी मोहनराव  भागवत और कभी 'केशवकुंज'  के दरवाजे पर मत्था टेकना जारी रखा।  वे सार्वजनिक रूप से  तो सिद्धांतवादी हैं किन्तु व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिनिष्ठ ही उनका आराध्य है। वेशक अभी तक तो भाई  जी  मोदी भक्त  हैं। किन्तु यदि कल को मोदी जी का सिंहासन डोलता है  और उनकी जगह किसी और अन्य  'संघनिष्ठ  ' को सत्ता मिलती है तो भाई जी   फौरन अपनी आश्था  की घंटी उसके नाम पर बजाने लगेंगे। इसीलिये  आजकल भाई जी का स्वर पुनः  बदला-बदला सा लग रहा है।  क्या यह किसी खतरे का आभास है ?

                   विगत एक साल में मोदी जी ने देश के लिए क्या- क्या नहीं किया ? दर्जनों विदेश यात्रायें  कीं , जनता से 'मन की बातें'  कीं। हाफिज सईद ,दाऊद और लखवी  जैसें आतंकी भले ही नहीं पकडे जा सके किन्तु  उनके  चर्चे जारी रहे  ! कालेधन  की एक  पाई  भी भारत सरकार को नहीं मिली किन्तु उसे लाने का प्रस्ताव  पारित हुआ ! भले ही 'संघ' के सरपरस्त,-मोहनराव भागवत ,अन्ना- हजारे ,स्वामी रामदेव ,सुब्रमण्यम स्वामी ,प्रवीण तोगड़िया ,आचार्य धर्मेन्द्र तथा हिन्दुत्ववादी कतारों में मोदी जी के कामकाज को लेकर बैचेनी  हो किन्तु अम्बानी-अडानी एवं कार्पोरेट सेक्टर में तो फीलगुड  का जबदस्त माहौल अवश्य रहा  है ! शिवसैनिक  या  हिन्दुत्वादी  भले ही कसमसाते रहें  लेकिन अभी तो मोदी जी के राजयोग  पर खुशनसीबी' कीवसंत आमद है।मोदी जी ने जब चुनावी वादे भूलकर  ,विकास-सुशासन  की तान छेड़ी ,मंदिर और अन्य हिंदुत्ववादी मुद्दे छोड़े  तो भाई जी अब बैचेन हो रहे हैं।  मोदी जी ने जो व्यक्तिगत छवि निर्माण की राह चुनी है उससे  भी भाई जी के तेवर ठीक नहीं लगते। जबसे  मोदी जी ने  विदेशी  धरती पर भारत के अतीत को शर्मिंदगी भरा बताया है  भाई जी अपने आप से ही   बेजा  खपा हो रहे  हैं !
              विगत सप्ताह जब मोदी जी बीजिंग और शंघाई  पहुंचे तो इन' भाई जी '  को मोदी की इस तरह  किसी कम्युनिस्ट देश से   यारी -दोस्ती ही  पसंद नहीं आयी। उन्हें तो मोदी जी की  वह  'हरकत'  भी पसंद नहीं आयी  जिसमें मोदी जी ने किसी सार्वजनिक  मंच से यह  कहा है  [जो  मैंने  केवल इन्ही सज्जन के मुँह  से सुनाहै ] कि 'पहले लोग भारत में जन्म लेने पर शर्मिंदा होते थे ,किन्तु अब [मेरे सत्ता में आने के बाद]गर्व महसूस करते हैं। इन 'संघी भाई'  की पीड़ा यह है कि क्या मोदी जी अब  डॉ मुन्जे,  हेडगेवार  ,गोलवलकर , देवरस, दीनदयाल उपाध्याय  से  ज्यादा समझदार हो गए  हैं ? क्या हम हिंदुत्वादियों और 'संघियों' का यह सनातन सिद्धांत गलत है कि  अतीत में भारत सोने की चिड़िया  हुआ करता था  और हम सभी आर्यपुत्र अर्थात  हिन्दुत्वादी देवपुत्र हैं।

                              भाई जी की व्यथा और  वेदना मुझे भी कदाचित  स्पंदित करने में सफल रही। किन्तु उन्हें चिड़ाने के मकसद से मैं ने जड़ दिया कि  यदि सचमुच मोदी जी ने यह कहा है तो मेँ अब मोदी  जी का मुरीद हूँ और उन  के साथ हूँ ! मैंने उनसे यह भी  कहा कि वैसे  मुझे नहीं मालूम  कि मोदी जी ने वास्तव में क्या कहा ? किन्तु चूँकि आप 'संघ परिवार' से हैं इसलिए हम  आपको  इस  संदर्भ का अधिकृत प्रवक्ता मान लेते हैं।  हाँ  भाई जी से मेने यह निवेदन  भी किया है  कि  हम वामपंथी  सोच के अध्येता,मजदूर ,किसान और प्रगतिशील तबके  के लोग  यह  जरूर मानते हैं कि  वर्तमान पूँजीवादी लोकतंत्र  से अतीत की निरंकुश राजशाही,राजतन्त्र   और  सामंतवाद  बहुत घटिया ,शोषणकारी ,दमनकारी  हुआ करता था।  उस दौर में पैदा होने वाले अन्यायी - अत्याचारी वर्ग के सापेक्ष किसी शोषित-पीड़ित का तत्कालीन  भारत में पैदा होना कोई 'गर्व' की बात तो अवश्य नही थी । यदि यही बात मोदी जी ने कही तो गलत क्या कहा ? पूँजीवादी लोकतंत्र  भले ही शोषणकारी ही है किन्तु इसमें  मेहनतकश आवाम को उचित न्याय और श्रम  का उचित  मूल्य  की मांग उठाने एवं अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अधिकार तो मिला। 
            हालाँकि हम सर्वहारा वर्ग के लोग  इससे बेहतर व्यवस्था की कामना करते हैं। यदि मोदी जी का यही आशय है तो मैं  भी मानूँगा कि वे कुछ तो सुधार पर हैं।  भले ही वे  चीन जाकर ही यह इल्हाम हासिल कर सके।  हो सकता है कि  चीन  की आबादी और उसके अनुपात में उसका विराट आकर और तदनुसार उत्तरोत्तर विकाश देखकर   शायद हमारे भारतीय  प्रधानमंत्री -याने हिन्दुत्वादी परिब्राजक मोदी जी अपने काल्पनिक स्वर्णकाल के  मोह से मुक्त होने को  छटपटा रहे  हों ! मोदी जी के  इस इल्हाम परतो  देश को नाज होना चाहिए। यदि 'संघी ' भाई दुखी  हैं तो यह समस्या हिंदुत्व की है  भारत की नहीं !   मोदी जी की भी नहीं !
          
                 लेकिन यदि  मोदी जी का आशय  आजाद भारत के विगत ६५ सालों  के अतीत से  है तो मैं मोदी जी के साथ नहीं बल्कि उस दुखी 'संघी' भाई के दूख में शामिल हूँ ! इसलिए मैंने उसे ढाढ़स  बंधाया और कहा कि आजादी के बाद हमारे देश ने  बहुत कुछ किया है। और अभी उससे भी बहुत जयादा करने को बाकी  है।   आर्थिक -सामजिक असमानता का मुद्दा और भृष्टाचार का मुद्दा  ज्वलंत है।  मोदी जी ने जो भारतीय अतीत पर शूल चलाये हैं उससे आहत  उन संघी मित्र  को मैंने याद दिलाया कि  भले ही हम शकों से हारे  ! भले ही हम हूणों से हारे ! भले ही हम तुर्कों से हारे ! ,भले ही हम बिन-कासिम ,गजनबी-गौरी से हारे ,भले ही हम मंगोलों [मुगलों] पठानों -अफगानों से हारे ! भले ही हम नादिर शाह, अब्दाली और  चंगेजों से हारे ! भले ही हम फ्रेंच -पुर्तगीज-डच और अंग्रेजों से हारे ! भले ही हम  १९४८ में कबाइलियों से हारे !  भले ही हम १९६२ में हम चीन से हारे ! किन्तु १९७१ में तो भारत ने सारे संसार को दिखा दिया कि  वो जीत भी सकता है ! क्या 'संघियो' को नहीं मालूम कि   भारत को यह स्वर्णिम ऐतिहासिक  जीत इंदिरा गांधी के नेतत्व में मिली थी ! क्या मोदी जी भूल गए कि   इंदिरा गाँधी  को 'दुर्गा का अवतार' किसने  कब और क्यों कहा था ?

                                    वेशक उस समय 'सोवियत यूनियन' का भी बेजोड़ सहयोग हमें मिला था।  लेकिन इस जीत में 'नमो' का या उनका कोई हाथ नहीं था जो  भारत के अतीत को स्वर्णिम बताया करते हैं। मोदी जी ने यदि भारतीय सामन्तकालीन अतीत  की बात की है तो मैं उनसे सहमत हूँ। किन्तु यदि वे केवल आजाद  भारत के अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों से अपने आपको  बेहतर सिद्ध करने के लिए  ६५ साल के भारत का अतीत ही 'जन्म न लेने योग्य' बता रहे हैं तो मैं उन्हें सुझाव दूंगा कि  हमेशा  याद रखना चाहिए  कि १९७१ में डेढ़  लाख पाकिस्तानी फौजों ने किस प्रधानमंत्री के सामने हथियार डाले थे ।  भारत में  'दुघ्ध क्रांति'  'संचार क्रांति ''हरित क्रांति ' को सम्पन्न हुए १५ साल हो चुके हैं।  विगत ६५ साल में भारत ने अपने  रक्षा क्षेत्र में ,पनडुब्बियों में और अंतरिक्ष में जो उपलब्धियां हांसिल की हैं क्या वे सब पिछले एक साल में मोदी जी  की हैं ?  वे   उस उचाई पर सौ जन्म में नहीं पहुँच पायंगे जिस पर बकौल अटल बिहारी बाजपेई 'दुर्गा  'याने इंदिरागांधी पहुंच चुकी थी।
                 भाई जी की मौन स्वीकरोक्ति बता रही  थी कि 'संघ' परिवार द्वारा उन्हें  वास्तविक तथ्यगत जानकारियों के बरक्स  भ्रामक और काल्पनिक इतिहास ही अब तक पढ़ाया जाता रहा है।

                             श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 21 मई 2015

पुरवा गाती रहे ,पछुआ गुन -गुन करे ,मानसून की जरा मेहरवानी हो ! !


 भारतीय  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जब चीन समेत अधिकांस पूर्व 'एशियन टाइगर्स' देशों  के नेताओं के साथ गलबहियाँ डालकर सेल्फ़ी ली रहे थे ,जब उन्होंने चीन,मंगोलिया और कोरिया  के बौद्ध मंदिरों और पगौडों की  रणनीतिक एवं भावात्मक  रोमांचक यात्राएँ सहर्ष  सम्पन्न की ,तब पश्चिम के धनि-मानी देशों की छाती पर सांप लोटने लगे ।विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष  विशेष रूप से  चिंतित  होने लगे । उन्हें लगा कि मोदीजी की   "लुक ईस्ट एंड एक्ट ईस्ट' पालिसी से भारत का  भला भले ही न हो. किन्तु  उसका विशाल मध्यवित्त - बाजार  पश्चिमी लुटेरों  सम्पन्न राष्ट्रों के  हाथों से फिसलकर साम्यवादी  चीन के हाथों में जरूर चला जाएगा !

                                              अमेरिकी सम्राज्य्वाद के पिठ्ठूओं एवं यूएनओ को भी इस  भयानक गर्मी में  ठंड लगने लगी । जब मोदी जी चीन में १७ सूत्री समझोते पर हस्ताक्षर  करने जा रहे थे , तो पेंटागन से लेकर  विश्व बैंक तक और  टाइम्स से लेकर 'द  इकोनॉमिस्ट मेग्जीन' तक और 'संघ' के बौद्धिकों से लेकर आचार्य धर्मेन्द्र तक सभी अपने  समवेत स्वर में मोदीजी  को याद दिला रहे थे कि उन्हें  चीन से   दूर ही रहना  चाहिए । क्योंकि   चीन तो आपका दुश्मन है। चीन ने तो आपकी जमीन हड़प ली।  चीन तो पाकिस्तान से प्यार  करता है। चीन ने तिब्बत जीम  लिया। चीन का भारत के प्रति व्यवहार शत्रुतापूर्ण है। इसीलिये मोदी जी आप तो फ़क्त हमारे याने यूएस - अमेरिका ,फ़्रांस ,जर्मनी - यूरोडॉलर या पेट्रोडॉलर ताकतों के चंगुल में ही सदा-सदा  निमग्न रहो।
   
                                     याने हमारे  वित्त्तीय गुलाम बने रहो ! हमसे याने  पश्चिम से कर्ज लेते रहो। पहले हम [ पश्चिमी राष्ट्र] आपको  मर्ज देंगे फिर उसके निस्तारण के लिए कर्ज देंगे।  इसी सोच के वशीभूत  होकर विश्व पूँजीवादी ताकतों ने   मोदी  जी की चीन  यात्रा के दरम्यान 'संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के मार्फत भारत के लोगों को डराया।  मोदी जी  को भरमाया,सहलाया और भाजपा नेताओं को याद भी  दिलाया कि आप लोग नाहक ही चीन की ओर  या 'पूर्व' की ओर  देख रहे हो। आपको तो  सिर्फ पश्चिम की ओरही देखना है।इसके साथ ही यूएनओ की ओरसे यह भी   प्रचारित किया गया कि  भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से उभरने वाली है।यूएनओ   का ततसंबंधी आकलन और आंकड़े भी जग -जाहिर किये गए।  बताया  जा रहा है कि  २०१५-१६ में भारत चीन को  पीछे छोड़ देगा। यह सुखद सूचना पाकर हम प्रमुदित होने को ही थे कि  आरवीआई गवर्नर श्री रघुराम राजन बोल पड़े कि अर्थ व्यवस्था में निवेश के आंकड़े भ्रामक और कपोलकल्पित हैं। उन्होंने तो नेताओं और सरकार को आगाह भी किया कि वे  वोट कबाड़ने के चक्क्र में बढ़ -चढ़कर  लोक  लुभावन घोषणाओं से बचें। जो लोग यूएनओ की खबरों  से गदगदायमान  हुए वे रिजर्व बैंक गवर्नर की वास्तविक सूचना से निराश हो गए।
                                    जिन्हे  अपनी दुरवस्था का ज्ञान नहीं ,जिन्हे किसान आत्महत्या पर कोई मलाल नहीं , जिन्हे  देश के अंदर  डगर-डगर फैली घूसखोरी और अव्यवस्था का एहसास नहीं ,जिन्हे डॉलर के सापेक्ष तेजी से गिर रही रूपये की कीमत का ख्याल नहीं और जिन्हे  अनाबृष्टि  से बरबाद देश की खेती  नहीं दिख रहीं वे मंदमति ही इस वक्त किसी खामख्याली में 'फील गुड महसूस' कर  सकते हैं। जिन्हे अपने हितों की परवाह है ,वे उन्नत -विकसित   पश्चिमी राष्ट्र तो केवल अपने गए -गुजरे उत्पादों  की बेचवाली  के लिए हलकान हो रहे हैं। ताकि आसन्न आर्थिक  मंदी  उनका गला न घोंटे दे ! इसीलिये वे अंतर्राष्ट्रीय  बाजार अक्षुण रखना चाहते हैं। चूँकि उनके अपने देश में या यूरोप -अमरीका में तो बाजार 'संतृप्त' हो चुका है ,इसलिए अब वे एशिया के पिछ्डे एवं विकाशशील -  उभरते बाजार पर गिद्ध निगाहें डाले हुए हैं। उनके गए-गुजरे आउट डेटेड उत्पादों  की मांग  अब उन्नत राष्ट्रों में नहीं रही। रक्षा और ऊर्जा क्षेत्र में  गलाकाट प्रतिश्पर्धा  का दौर है।

                      ऐंसी स्थिति में भारत  का उभरता हुआ विराट बाजार कहीं पश्चिम को छोड़ पूर्व के हाथों में न आ जाये ,इसलिए आईएमएफ  और विश्व बैंक ने  बड़ी चतुराई से मोदी जी  की पूर्वी देशों की यात्राओं  के  एन  वक्त पर  'यूएन विश्व आर्थिक-सांख्यिकी  विश्लेषण एवं संभावनाओं  ' नामक  परिपत्र जारी किया। जिस में विश्वकी  अर्धवार्षिक रिपोर्ट जारी करते हुए खास तौर से भारत  की अर्थ व्यवस्था का भविष्य उज्जवल बताया गया है।    इसमें  भारत की आगामी बजट  सत्र के लिए जीडीपी ग्रोथ को 7. 7  तक पहुँचने की संभावना व्यक्त की गयी है।  बड़ी चालाकी  से चीन की विकाश  दर इससे कुछ कम दर्शायी गयी है। यह खबर पढ़ने के बाद किसी भी सच्चे  देशभक्त  भारतीय का मन  मयूर  नाचने  लगेगा ।  किस  वतन परस्त का मन मयूर नही  गाने लगेगा   - "भारत  हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है ?" में भी अपने पहले काव्यसंग्रह  -अनामिका  की 'बारहमासा'  शीर्षक  कविता  की दो पंक्तियाँ उद्धृत कर  रहा हूँ !

     पुरवा गाती रहे ,पछुआ गुन -गुन  करे ,मानसून की जरा  मेहरवानी हो !

    यमुना कल-कल करे ,गंगा निर्मल बहे ,कभी रीते न रेवा का पानी हो !



                                  श्रीराम तिवारी

 

देश में यदि सही राजनैतिक विकल्प नहीं है तो उसका निर्माण किया जाना चाहिए !


 देश में यदि सही राजनैतिक  विकल्प नहीं है तो उसका निर्माण किया जाना चाहिए !

        कुछ सुधि देशभक्तों का प्रश्न है कि  जब  कांग्रेस असफल रही है ,भाजपा भी अम्बानियों-अडानियों  की सहचरी बन चुकी है ,'आप' वाले भी अधकचरे ही निकले हैं  और जनता परिवार  का तो कोई पता ठिकाना ही  नहीं है तो देश की जनता के समक्ष सही राजनैतिक विकल्प क्या है ? इस सवाल का जबाब है  कि देश में यदि सही राजनैतिक  विकल्प नहीं है तो उसका निर्माण किया जाना चाहिए ! आधुनिकतम  तकनीकि क्रांति की  उत्तरोत्तर समुन्नत अवस्था के  उत्तर आधुनिक दौर में  प्रबुद्ध व्यक्ति एवं सभ्य- सजग-समाज अपने निजी और सामूहिक हितों को लेकर व्यग्र है। वह मन ही मन कसमसा भी  रहा है।लेकिन संसदीय चुनावों में इस जन  आक्रोश को उसकी  संगठित  ताकत  के रूप में सहेज पाने की  क्षमता अभी  भी बहुत दूर है। इसीलिये जीर्ण-शीर्ण बीमार पूँजीवाद की भृस्ट फफूँद के रूप में समाज का शक्तिशाली - सम्पन्न वर्ग  बड़ी चालाकी से बार-बार संसदीय लोकतंत्र  पर काबिज हो जाता है।
                      निहित स्वार्थियों  का बहुत  बड़ा हिस्सा तो वर्तमान   उपभोक्ता संस्कृति का प्रिय - भाजन पहले ही बन चुका है। नैतिक मूल्यों से विमुख यह अर्थलोलुप  समाज ही उत्तर आधुनिक ओउद्द्योगिकरण के बरक्स  इस नव उदार पूँजीवाद   को शह  दे रहा है। तमाम वेतनभोगी  सरकारी अफसर -बाबू-चपरासी ,रेलवे तथा रक्षा  समेत केंद्र सरकार के समस्त प्रतिष्ठानों के कर्मचारी , राज्य सरकारों के अधिकारी  - कर्मचारी ,सार्वजनिक उपक्रमों - निगमों -मंडलों  के करता-धर्ता और बैंकिंग  क्षेत्र के अधिकारी  - कर्मचारी , सभी  अर्धशासकीय  कर्मचारी,न्याय क्षेत्र के सभी सरकारी वकील -जज -रजिस्टार -लिपिक  -दफ्तरी - पेशकार इत्यादि  समस्त कारकून  जब इस वर्तमान व्यवस्था में फीलगुड महसूस कर  रहे हों तो वे किसी क्रांतिकारी संघर्ष में साथ क्यों देंगे ?  यदि  सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र के अधिकारी -कर्मचारी रिश्वत लेना छोड़ दें ,भृष्ट नेताओं की दलाली करना छोड़ दें ,सर्वहारा के शांतिपूर्ण संघर्षों में पूँजीपतियों  की अनैतिक  चाकरी छोड़कर मजदूरों -किसानों का साथ दें  तो ही  देश का सही  राजनैतिक विकल्प तैयार होगा।  केवल क्रांतिकारी  पार्टी का दफ़्तर  खोल लेने से या कुछ मुठ्ठी भर कारखानों में भूंख हड़ताल -धरना करने से  या दो-चार बुजुर्ग बहादुर साथियों के हाथ में लाल झंडा पकड़ा देने से विचारधारा का मान तो बढ़ेगा किन्तु  देश में   समाज में कोई असाधारण क्रांति कभी नहीं होने वाली। 
                      सूखा -ओला -बाढ़ और  कर्ज पीड़ित किसान आत्महत्या का इरादा छोड़कर जब एकजुट संघर्ष करेंगे तो विकल्प उभर कर सामने आएगा।  जब निजी क्षेत्र के  हाई -टेक- उच्च शिक्षित -पढ़े -लिखे युवा जब  संगठित होकर अपने श्रम  का सही मूल्य मांगेंगे तो देश में विकल्प उभरेगा। भारत के वामपंथ ने विगत ८० साल में  देश के सर्वहारा के लिए खूब संघर्ष किये किन्तु जनता ने उसे अब तक नहीं  पहचाना । जिस दिन    भारत के आधुनिक युवाओं को यह भी  मालूम  हो जाएगा की  शहीदे आजम भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने तत्तकालीन  अंग्रेज सरकार के किस कदम से नाराज होकर  असेम्ब्ली में बम  फेंके थे ? उस दिन से ही  देश में सही राजनैतिक विकल्प बनना शुरू हो  जाएगा। लाला लाजपत राय पर लाठियाँ  किसने और क्यों बरसाईं ? जिस दिन देश के आधुनिक युवा  लूट और शोषण का रहस्य  जान जाएंगे उस दिन नरेंद्र मोदी  ,ममता  , केजरीवाल या अण्णा  हजारे उनके हीरो नहीं  होंगे । तब शायद  वे भगतसिंह ,कास्त्रो ,हो-चिन्ह-मिन्ह, लेनिन  चेगुएवेरा ,मैक्सिम गोर्की  ,मार्क्स  -एंगेल्स और रोजालक्जमवर्ग को अपना आदर्श  मानने लगेंगे । जब वे भारत के  वामपंथ  को अपना अमूल्य प्रतिदान देंगे तब सही विकल्प तैयार होगा। तमाम झंझावातों के  बावजूद   यदि  भारत के वामपंथ ने अभी भी  हार नहीं मानी तो यह  देश के  सर्वहारा वर्ग के लिए एक सुखद सूचना है।
                   
                           यही  वामपंथ की अतिरिक्त विशेषता  भी है। मुठ्ठी भर तपोनिष्ठ कामरेड और बमुश्किल एक दर्जन सांसदों की हैसियत से प्रारम्भ हुए इस हरावल दस्ते के  इरादे आज  पहले से भी ज्यादा मजबूत  हैं। अपने पवित्र संकल्प के लिए ,मानवता के उथ्थान के लिए 'कम्युनिस्ट'  दुनिया के सर्वोत्तम इंसान  हैं , वे इस पतित  पूँजीवादी  पतनशील व्यवस्था से  देश की शोषित -पीड़ित आवाम को मुक्ति दिलाने के लिए कृत संकल्पित हैं। वे शोषण की ताकतों के आगे घुटने टेकने या हार मानने को कदापि  तैयार नहीं है।
                                      लेकिन क्रांति कोई  मुठ्ठी भर लोगों के  वश की बात नहीं है। इस मौजूदा भृष्ट निजाम   को बदल सकें इसके लिए विराट नर मेदिनी का इंकलाबी भोर अपेक्षित हैं । वेशक दुनिया में वैज्ञानिक  रूप से  परिष्कृत  साम्यवादी विचारधारा का कोई विकल्प नहीं है। इसी के कारण लाल झंडे  की ताकत भी असीम है। किन्तु भारत में तो अभी  साम्प्रदायिक और कार्पोरेट जगत के अच्छे दिनों का आगाज  है। जब जनता की किसी  जनवादी या सर्वहारा क्रांति की उम्मीद एक दिवा स्वप्न मात्र हो । तब सत्ता पक्ष को कोसने में ताकत लगाना बेमानी है। क्योंकि हर बार होता यह है कि  नाचे कूँदे  बांदरी हलुआ खाए मदारी।  वामपंथी बुद्धिजीवी  और किसान -मजदूरों के   संघर्ष का प्रतिफल या तो यूपीए को मिलता  है  या एनडीए को मिल जाता  है।  -कभी कभी तो ज्योति वसु जैसे महानतम  भारत रत्न [?] टापते  रह जाते हैं और कोई 'उंघने वाला' ही प्रधान मंत्री बन जाता है।   अभी भी  भारतीय  वामपंथ  की साढ़े साती  उतरी  नहीं है। उसका अढ़ैया अभी भी चल रहा है।

 देश के पूंजीपतियों और उनके चाटुकारों के मुताबिक़ रहती दुनिया तक भारत में किसी साम्यवादी क्रांति की कोई गुंजाइश नहीं है।  जब ज्योति वसु बनने की हैसियत में थे तब जिस वजह से वे  वंचित किये गए वो वजह आज  मौजूद है। जब यूपीए वन के  कामकाजी  दौर में वामपंथी निर्णायक हैसियत में थे तब  भी चूके। अब संघ  के हमलों  का प्रतिकार करने से यदि सत्ता परिवर्तन  होना असम्भव है।  संघ और मोदी जी पर निशाना साधने से आइन्दा भी वामपंथ को नहीं  कांग्रेस को  ही फायदा  होगा।  क्या बाकई  कांग्रेस उतनी धर्मनिरपेक्ष है जितनी की प्रचारित की जाती रही है ?  क्या बाकई मोदी जी उतने साम्प्रदायिक हैं कि उन्हें आईएस और तालिवान के समकक्ष खड़ा किया जाए  ?  इन सवालों को नजर अंदाज कर आइन्दा भारत  के  साम्यवादियों को अपनी ऊर्जा  और  ताकत   व्यर्थ के दाँव  पर  नहीं लगाना  चाहिए । जहाँ तक वोट  बटोरने की बात है तो मोदी जी अवश्य ही साम्प्रदायिक कार्ड खेलते रहे हैं. किन्तु  सत्ता में आने के बाद उनके आचरण  से मुझे नहीं लगता कि  वे रंचमात्र भी साम्प्रदायिक या हिन्दुत्वादी हैं !  झूंठ -मूंठ ही सही लेकिन जब मोदी जी  हाथों में झाड़ू लेकर  सड़कों पर निकले तो किस साम्प्रदायिकता का प्रदर्शन किया ?  बंगाल ,केरल या त्रिपुरा में उन्होंने वामपंथ को नहीं कांग्रेस को जी भरकर कोसा तो फिर हम क्यों उनपर फोकट ही हलकान होते रहें ?
        
              जब  नितांत  कोरा और  मूल्य  विहीन तथाकथित सभ्रांत  मध्यवित्त  वर्ग कदाचित समष्टिगत और सचेतन रूप से संसदीय प्रजातंत्र में  प्रचार-प्रसार वाली तड़क-भड़क संस्कृति का अनुगमन करने में अग्रगण्य है। पूँजीवादी शासकवर्ग के प्रति यदा -कदा इस वर्ग की तात्कालिक असहमति या नाराजगी केवल उसके निहित स्वार्थों के बँटवारे  तक ही सीमित है। इस वर्ग क आचरण तो बाजारबाद के खिलाडियों की 'चियर्स गर्ल्स' जैसा ही है।  चैतन्यता  या सामूहिक हितसाधन पर कोई  सार्थक  विमर्श कराने  के बजाय  सिर्फ  व्यवस्थागत दोषों को उजागर करने में  जुटा हुआ  है। हमें सोचना ही होगा कि व्यवस्था से असहमत या आक्रान्त लोगों का रोष   सत्तापक्ष पर दनादन  निरंतर  विषवमन  वावजूद  बेअसर क्यों  सावित हो रहा है  ? वामपंथ के संघर्ष और प्रगतिशील तबकों के संघर्ष से उतपन्न जनाक्रोश का प्रतिफल वामपंथ की संसदीय ताकत में इजाफा करने में असफल क्यों हो जाता है ?  वामपंथ का पुण्यफल कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों को  क्यों मिल जाता है ?
     
      यह बक्त की पुकार है , युग की मांग है कि  विवेकीजन सिर्फ अपने निजी स्वार्थ के लिए  ही नहीं अपितु - राष्ट्रीय ,सामाजिक ,आर्थिक, साहित्यिक ,  दार्शनिक, आध्यात्मिक और शांति-सद्भाव इत्यादि सरोकारों  के प्रति भी सजग रहें । हालाँकि  जनवादी - प्रगतिशील  मंचों से अवश्य  इन विषयों पर  परिचर्चाएँ-संगोष्ठियां   आयोजित की जाती  रहीं  हैं. किन्तु  यह समझ से  परे  है कि  कांग्रेस -भाजपा और तीसरा मोर्चा सबको  २२ पसेरी धान की तरह तौलकर सीपीएम की विशाखापटनम कांग्रेस ने अपने आप को पुनः शुध्दतावादी ही साबित किया है।  इस  कांग्रेस ने उपरोक  सवालों को अनुत्तरित ही छोड़ दिया है। जन -हितकारी सामूहिक उद्देश्यों की पूर्ती के निमित्त  लिए गए निर्णयों को कार्यान्वित करने के  प्रयत्न  यदि मोदी सरकार करती है तो उसका   सम्मान  क्यों नहीं किया जाना चाहिए? क्या केंद्र के सहयोग के बिना सीपीएम की त्रिपुरा सरकार कुछ कर पाएगी ?  आइन्दा यदि बंगाल या केरल में वामपंथ की वापिसी होती है तो क्या  केंद्र से उसके रिश्ते केजरीवाल की तर्ज पर होंगे ? 

                                       श्रीराम तिवारी 

अम्बानी की जांच का आदेश देने वाला अभी तक सही सलामत है यही क्या कम है?

भले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों  की विफलता से कोई तातकालिक पूँजीवादी राजनैतिक विकल्प  कभी-कभार  सत्ता में आ  जाए , भले ही किसी को दिल्ली में शीला  दीक्षित या  'आप' के केजरीवाल का शासन प्रशासन रास न आये , भले ही केंद्र में लोगों को एनडीए -यूपीए या 'मोदी सरकार' का शासन-प्रशासन  रास न आये , भले  ही  वर्तमान [कु] व्यवस्था  की बदौलत 'आँधियों के बेर'  जैसा अप्रत्याशित प्रचंड बहुमत सत्ता  में आने के बाद जनता की नजरों में बदनाम होते रहें  , भले ही विपक्ष और मीडिया इनकी  कितनी ही आलोचना  करता रहे ,भले ही काठ की हांडी बार-बार सत्ता के चूल्हे पर चढ़ती रहे , किन्तु जब तक देश  के इस उत्तर आधुनिक वर्गीय   समाज  में भृष्ट -लम्पट और घूसखोर नौकरशाही का बोलवाला है ,जब तक धनबल-बाहुबल -सम्प्रदायबल -जातिबल की निहित स्वार्थी मानसिकता  का वर्चस्व है; तब तक  केंद्र में या राज्यों में 'नसीबवालो 'को या 'आप' के जैसे अनाड़ी -उजबक  नेताओं को चुनावी सफलता मिलती रहेगी। लेकिन शासन -प्रशासन की सफलता के  सूत्र 'ब्युरोक्रेट्स' के हाथों में है ही सुशोभित होते रहेंगे  
                       दिल्ली जैसे आधे -अधूरे राज्य में  नीतिविहीन 'आप' की  सफलता का तो सवाल ही नहीं उठता । वेशक केजरीवाल जैसा  कोई व्यक्ति अथवा 'आप' जैसा कोई  दल यदि  तथाकथित क्रान्तिकारी परिवर्तन के निमित्त  भृष्टाचार विरोध के  इंकलाबी तेवर अपनाता  भी  है  तो  भी उससे इस सिस्टम की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने  वाला। प्रशासनिक मशीनरी और नजीब जंग जैसे  कार्पोरेट परस्त  हुक्मरानों  की नीयत पर  'आप' की  'था-था थैया' से  कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। चूँकि   व्यक्ति -समूह- कौम- दल और समाज के भीतर मौजूद  स्वार्थियों की ताकत अन्योन्याश्रर्तित है। समाज के वंचित वर्ग के  जायज हितों को साधने के लिए 'आप' के  केजरीवाल अनगढ़ तरीके अपना रहे हैं। तथाकथित 'आम आदमी' के स्वार्थों को साधने के मोह में 'आप' के नेता  लगातार  असफल  हो रहे हैं।  यदि खुदा -न -खास्ता वे कुछ बेहतर करना भी  चाहें तो भारतीय प्रशासनिक सेवा के घिसे हुए  चतुर चालाक अधिकारी और उनके 'आका'  व्यवस्था पोषको द्वारा उसे  असहाय बना दिया जाएगा।
                   दिल्ली में केजरीवाल के नेतत्व में 'आप' को मिले  प्रचंड बहुमत और मोदी जी के नेतत्व में एनडीए या भाजपा को भारत की लोक सभा में प्राप्त  प्रचंड बहुमत  के बरक्स दोनों में एक  चमत्कारिक समानता है। 'आप ' के  केजरीवाल जब  कुछ  भी करना चाहते हैं तो उनके नौसीखिएपन की  'बिल्ली' तत्काल  रास्ता काट जाती है '। केजरीवाल की राह में 'गतिअवरोधक '  निर्मित  वाले  भी चौतरफा बिघ्न संतोषियों से घिरे हैं। उधर  मोदी जी पर  भी  खुद उन्ही के एनडीए ,भाजपा और  'संघ परिवार'  के ही अधिकांस  दमित -कुंठित लोग  घात लगाए बैठे हैं।  कुछ तो अभी  सदाबहार राजनीती के अभ्यारण्य में सर्वाइव कर रहे हैं।  जिस तरह कांग्रेस को कांग्रेस ने मारा , जिस तरह  'आप' के सिरफिरे लोग ही 'आप'  के केजरीवाल  को सफल  नहीं  होने दे रहे हैं । उसी  तरह मोदी जी  को  भी  न केवल कांग्रेस से , न केवल शिवसेना से  , न केवल राजयसभा में संयुक्त विपक्ष से ही परेशानी  है। बल्कि उन्हें  भाजपा के ही अपने कतिपय वरिष्ठ नेताओं से  भी  वास्तविक  खतरा है। वे यदि वास्तव में  कुछ  अच्छा या बेहतर करना  भी चाहते  हैं  तो वह  केवल उनकी व्यक्तिगत चूकों से ही विफल नहीं होंगे ! बल्कि खुद एनडीए के अलायन्स  पार्टनर  [शिवसेना ,अकाली और मुफ़्ती जैसे ] व् भाजपा के अंदर छिपे मोदी विरोधियों  की कुंठित मानसिकता के कारण  भी  वे असफल होंगे।
                          इसके अलावा  ये 'संघ' वाले ,मंदिर- वाले  , जेहाद वाले ,साम्प्रदायिक उन्माद  वाले ,जातीय आरक्षण  वाले ,कार्पोरेटपूँजी वाले तथा अधोगामी -पतनशील  व्यवस्था वाले जब तक सलामत हैं  तब तक क्या केजरीवाल क्या मोदी जी बल्कि  'ब्रह्मा' भी इस देश की तकदीर नहीं बदल सकते। सुशासन और विकाश की कामना एक अहम सोच है किन्तु उसके अनुशीलन का रास्ता वह नहीं जिस पर मोदी जी ,केजरीवाल जी और नजीब जंग चल रहे हैं।  अच्छे दिन जब आएंगे -तब आएंगे किन्तु अभी तो इन सबने मिलकर दिल्ली कीजनता का कीमा बना दिया है।
                                   वेशक कांग्रेस और यूपीए की खामियों  को  गिनाकर , जनता के बीच सपनों के इंद्रजाल  का प्रायोजित दुष्प्रचार करके ये लोग सत्ता में आये  हैं। किन्तु मूल्यों की परवाह करने वाले कर्तव्यनिष्ठ वतन  परस्त- प्रशासनिक क्षमता  के अभाव में ,निस्वार्थ देशभक्त अधिकारिओं -कर्मचारियों के बिना ,ईमानदार जन - नेतत्व  के बिना, मजदूरों -किसानों को साथ लिए बिना कोई भी तीस मारखां इस देश की तस्वीर और तकदीर  नहीं बदल सकता। चूँकि  बाजारीकरण ,निजीकरण ,  कारपोरेटीकरण तथा साम्प्रदायिक उन्माद की बढ़त  के फलस्वरूप  इन  दिनों   जनता के बीच  क्रांतिकारी शब्दावली का चलन बंद हो चुका  है । आजकल सामूहिक हितों और राष्ट्र हितों की चर्चा का भी  घोर अभाव है। शोषित-पीड़ित  तबकों  में एकता और जागरूकता का घोर अभाव है। इसीलिये वैचारिक शून्यता को भरने के लिए साम्प्रदायिक या अंधश्रद्धा के अंधड़ मुँह  बाए खड़े हैं ।                              चूँकि संसद और विधान  सभाओं में याने  संसदीय प्रजातंत्र में  इन दिनों साफ़  सुथरे और क्रांतिकारी सोच के लोग  बहुत कम मात्रा में ही चुने जाते हैं। क्योंकि चुनावों में पैसा  अहमियत रखता है।  पैसे की ताकत से भले ही स्वयं पूँजीपति खुद ही सत्ता में न आ सकेँ ,किन्तु  जो  निर्वाचित  हुए हैं उन से अडानी या  अम्बानी  जैसे पूंजीपति अपनी भक्ति तो  करवा  ही सकते हैं। इन पूँजीपति  भक्तों से यह उम्मीद  कैसे की जा सकती है कि वे इंकलाबी हो जायेंगे ?  क्या ऐंसे नेता  किसानों -मजदूरों या  देश की आवाम के  पक्ष  में नीतियां और कार्यक्रम  बनाएंगे ? जो नजीब जंग कभी अम्बानी की तेल कम्पनी में नौकरी किया करते थे, जिन्हे कांग्रेस ने ही एक खास तबके का शख्स होने और  'निजाम' खानदान से ताल्लुक रखने की एवज में पहले तो  जामिया - मिलिया का वाइस  चांसलर  बनाया और बाद में मोदी सरकार ने भी 'अम्बानी' के निर्देश पर उनका ओहदा बरकरार रखा। वरना देश के तमाम राज्यपालों को बदलने के बाद ये लेफ्टिनेंट गवर्नर ही क्यों बच  गए ?  ये  नजीव जंग अपनी एलजी की कुर्सी की खातिर अब यदि  मोदी भक्ति में लीन नहीं हैं  और यदि केजरीवाल को नाकों चने चबवा रहे हैं तो  उनकी 'राज भक्ति' में किसे शक है ?  ऐंसे नजीब जंग  उस केजरीवाल को सरकार कैसे चलाने दे सकते हैं, जिसने पिछ्ली बार अपने -४९ दिवसीय कार्यकाल में  मोदी जी के भामाशाह मुकेश  अम्बानी  के भृष्टाचार  को उजागर किया था। अम्बानी की जांच का आदेश देने वाला  अभी तक सही सलामत है यही क्या कम है?

                                श्रीराम तिवारी         

रविवार, 17 मई 2015

चूँकि चीन की नीतियाँ और विकास के कार्यक्रम क्रांतिकारी हैं इसलिए वह विश्व शक्ति का दूसरा ध्रुव बन चुका है.।



     भारत के  स्वनामधन्य  एवं तथाकथित परम  देशभक्त - घोषित यायावर प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र मोदी  की अद्द्यतन  चीन यात्रा से भारत को  धेले  भर का फायदा नहीं हुआ। यह कोई अचरज की बात नहीं। यह तोपूर्व  संभावित ही था। किन्तु इस यात्रा से भारत की जनता को खास तौर से 'देशभक्तो'  को यह उम्मीद अवश्य थी कि 'नसीब' वाले  कुछ करिश्मा करेंगे ! चीन की सेना आइन्दा भारतीय सीमा का अतिक्रमण नहीं करेगी। चीन सरकार द्वारा भारत के नक़्शे से [पीओके] कश्मीर ,अरुणाचल को गायब नहीं किया जाएगा। आइन्दा चीन की ओर से पाकिस्तान को घातक हथियारों की आपूर्ति में कुछ कमी होगी । वेशक  ये दिवास्वप्न ही हैं।  किन्तु जब कोई सकारात्मक सोचवाला  ,आशावादी ऊर्जावान नेता देश का नेता  प्रधानमंत्री हो और किसी पड़ोसी राष्ट्र से दोस्ती की बात करे तो उसकी सफलता और उम्मीद की कामना किसे नहीं होगी ?
                       किन्तु मोदी जी की इस चीन यात्रा  के दौरान तो  केवल निराशा और असफलता का ही पसारा है। चीनी मीडिया की  चालाकी और चीनी  नेताओं की कूटनीतिक चाल से नतीजा यह रहा कि  चौबे जी गए तो थे   छब्बे  बनने  किन्तु  दुब्बे  होकर  स्वदेश वापिसी कर चुके हैं। सत्ता में आने से पहले और सत्ता में आने के बाद  भाजपा और 'संघ' परिवार  द्वारा एक महा झूंठ हमेशा प्रचारित किया जाता रहा है कि सच्चे राष्ट्रवादी  और  देशभक्त तो केवल वे ही हैं  ! नेहरू  से लेकर अटलबिहारी तक सभी को इन्होने  असफल  बताने में कभी संकोच नहीं किया।  नसीबवाले  प्रधानमंत्री श्री  मोदी जी को एक गलतफहमी थी कि  वे अपने  पूर्ववर्ती  भारतीय प्रधानमंत्रियों और नेताओं से ज्यादा चतुर और ऊर्जावान हैं। वास्तव में चुनावी जंग में मिले प्रचंड बहुमत ने यह कारिस्तानी की है  वर्ना  मोदी जी तो निहायत ही धीरोदात्त चरित्र और राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत हुआ करते थे। लेकिन  चीन को साधने मे  मोदी जी अपने पहले वाले नेतागणों  जैसे ही चुके हुए सावित हुए। वे  देश की आवाम की नजर में अटल,नेहरू ,राजीव और इंद्रा गाँधी  जैसे ही असफल  सिद्ध हुए।  बल्कि पूर्ववर्ती नेता  उतने असफल नहीं रहे जितने कि अब  मोदीजी असफल होकर भारत  लौट  रहे हैं।
                     मोदी जी की चीन यात्रा के दौरान  पश्चिमी प्रचार माध्यमों और चीन -भारत  के साझा शत्रु- सभी संचार माध्यमों द्वारा  यह खबर शिद्द्त से  फैलाई  गयी कि  चीन ने न सिर्फ 'पीओके' बल्कि पूरा कश्मीर भी   मय  लद्दाख  और  अरुणाचल  प्रदेश  सहित  मानचित्र से  गायब कर दिया गया ।  ये सिर्फ अफवाह  ही नहीं थी।  याने  कि  हकीकत में  भारत  के नक़्शे  की सूरत ही बिगाड़ दी गयी । चीन पर आरोप है कि उसने  भारत के मानचित्र  से  कश्मीर ,अरुणाचल और आक्साई चीन का हिस्सा  जानबूझकर गायब किया गया।  शायद चीनी नेताओं का मकसद यह रहा हो कि इस बहाने ही सही  मोदी जी की ख्याति का कुछ तो मानमर्दन किया जा सके।  हुआ भी वही। खबर है कि जब भारत के जागरूक मीडिया और जानकारों ने  भारत  सरकार और विदेश मंत्रालय का इस ओर  ध्यानाकर्षण किया तब भारतीय प्रधान  मंत्री जी  चीनी राष्ट्रपति  शी  जिनपिंग और चीनी प्रधानमंत्री   किक्यांग से इस बाबत अपनी विनम्र नाराजगी जाहिर  की।  तो चीनी नेताओं ने उनसे  कुटिलतापूर्वक प्रतिप्रश्न किया कि  मोदीजी आपने गुजरात में "वो सब कैसे किया ?" आश्चर्य है कि   मोदी जी ने चीनी नेताओं का  गुजरात में हुए साम्प्रदायिक नरसंहार वाला  व्यंग नहीं समझा।  अनुवादक की गलती या कहने-सुनने की चूक जो भी हो किन्तु मीडिया को खबर दे दी गयी कि  शी  जिनपिंग तो 'गुजरात के विकास की तारीफ में प्रश्न कर रहे थे। यह सब होता रहा इसके वावजूद हुआ कि  चीन ने रंचमात्र भी भारत के नक़्शे में अब तक  कोई  सुधार  नहीं किया ।
             आजादी के  ६८ साल से लगतार  चीन के संबंध  में कांग्रेस केया सत्ता पक्ष के  नेता जो गलती दुहराते आ रहे हैं वही गलती  श्री नरेंद्र मोदी ने भी कर डाली  है।  भारत के नेता  हमेशा से ही विदेशों में जाकर अपनी  व्यक्तिगत छवि चमकाने के लिए अपने ही वतन  की गरीबी , दुर्दशा और पड़ोसियों द्वारा सीमाओं के सतत  अतिक्रमण  का अरण्यरोदन करते रहते हैं। हमारे नेता  एक तरफ तो अमेरिका ,जापान , कोरिया  और दुनिया के तमाम साम्राज्य्वादी  गिद्धों से प्यार की पेगें बढ़ाते रहते हैं । दूसरी ओर इन के  चिर प्रतिदव्न्दी  विशालकाय ड्रेगन  से सदाशयता की मांग करते रहते हैं।  खुद के देश में जो लूट मची है ,जो अव्यवस्था कायम है ,जो शोषण  -उत्पीड़न कायम है ,उसकी अनदेखी कर भारतीय नेतागण सत्ता में आते ही विदेशों के सामने अपनी  गरीबी , जहालत और पिछड़ेपन का रोना रोने लगते हैं।  एक समान  सर्वसमावेशी  विकास , लोकतान्त्रिक  राष्ट्रीय  स्वाभिमान , समाजवादी  धर्मनिरपेक्ष -  राष्ट्रवाद , सामाजिक समता ,सर्व सुलभ  न्याय  को भूलजाते हैं।    भारत जैसे अमीर राष्ट्र की अधिसंख्य    निर्धन  जनता  का प्रधान मंत्री या सत्तासीन  नेता दुनिया में  यदि इस तरह देश की छवि धूमिल करते रहेंगे तो न केवल  रुसवाई बल्कि अपनी जग हँसाई  ही करवाते  रहेंगे ।  चूँकि  चीन की नीतियाँ और विकास के  कार्यक्रम  क्रांतिकारी हैं इसलिए वह विश्व शक्ति का दूसरा  महत्वपूर्ण  ध्रुव  बन  चुका  है.।
              चूँकि भारत की कोई ठोस  नीति - प्रगतिशील -कार्यक्रम या क्रांतिकारी सोच  स्थापित  नहीं हो पाई है और इसके  नेता केवल अपनी व्यक्तिगत छवि चमकाने में  ही व्यस्त रहते हैं ,इसके लिए  मीडिया का भरपूर   इस्तेमाल किया जाता है। मीडिया के वित्त पोषण के लिए और सत्तारूढ़  राजनैतिक  पार्टी के भरण-पोषण के लिए सत्ता के दलालों  भृष्ट   पूँजीपतियों  से चुनावी चंदा लिया जाता है। चूँकि भृष्ट समाज और भृष्ट लोगों के योग से भारत की भृष्ट राजनीति  अधोगामी हो चुकी है, इसलिए  भारत चीन से ज्यादा धनवान होते हुए भी दुनिया  के निर्धनतम देशों में शुमार किया जा रहा है। हमारे नेता जब  विपक्ष में  होते हैं तो  आसमान के तार तोड़ लाने के वायदे करते हैं ,क्रांतिकारी भाषण देते हैं  किन्तु सत्ता में आते ही भूल जाते हैं किकेवल  ढपोरशंख   बजाना कोई  क्रांतिकारी दर्शन नहीं है।  यह राष्ट्रधर्म भी नहीं है।

   वे अपने शहीदों की वाणी और वह कथन भी  भूल जाते हैं जो याद दिलाता है कि  ;-

    खुदी  को कर  बुलंद इतना कि हर तदवीर से पहले ,

   खुदा  वन्दे से ये पूंछे  बता तेरी रजा क्या है ?


    श्रीराम तिवारी
                                                                         

शनिवार, 16 मई 2015

विगत एक साल के कार्यकाल को 'मोदी उवाच' वर्ष नाम दिया जाना चाहिए !



   यदि आप सुबह की शुरुआत बीते हुए कल के किसी झगड़े या कलह से करेंगे तो आप का आज का दिन बिना
 उमंग -उत्साह के ही बीत जाएगा। इस नकारात्मक स्थति में आने वाले कल की सुबह खूबसूरत कैसे हो सकती
है ? यदि आप  असत्य और पाखंड की  भित्ति पर  देश की ,समाज की या खुद के घर  की  बुनियाद डालेंगे तो
इसकी क्या गारंटी है कि आपके सपनों का  महल  ताश के पत्तों की मानिंद अचानक  ही  बिखर नहीं  जाएगा ?
 
          एक साल पहले भारत की १६ वीं  लोक सभा  के चुनाव में एनडीए याने भाजपा को नरेंद्र मोदी के नेतत्व में
अप्रत्याशित महाविजय प्राप्त हुयी थी। अपने धुआँधार  चुनाव प्रचार और  सुविचारित साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण
के बलबूते पर हुई बम्फर विजय के बरक्स  मोदी जी ने  भारतीय  बहुसंख्यक  हिन्दू जन मानस  सहित तमाम 
अधिसंख्य जनता के   मनोमष्तिष्क  में  सुशासन ,विकास और भृष्टाचार विहीन सुराज का दावा  किया था।
महज एक साल में ही उनके हाथों के तोते उड़ने लगे हैं । हर राज्य सरकार को आर्थिक संकट से जूझना पड़  रहा है।  यहाँ तक की खुद भाजपा के अधिपत्य वाली राज्य सरकारों को भी बार-बार  माँगने पर भी फंडिंग नहीं हो पाई  है।
                मोदी जी द्वारा  आम चुनावों में जनता को दिखाए गए सब्जबाग अब भाजपा  के गले पड़ने लगे हैं। हीरोपंती वाली लहर अब जन -आक्रोश की सुनामी में बदलने को बेताब है। मोदी सरकार के कामकाज को लेकर केवल किसान -मजदूर या मध्यमवर्ग में ही आक्रोश नहीं है ।  बल्कि अम्बानी-अडानी  जैसे  दो-चार 'खुशनसीब' को छोड़कर अधिकांस उद्यमी और  व्यापारी  भी  इस सरकार के कामकाज से  संतुष्ट नहीं हैं । लोक सभा और  राज्य सभा में  विपक्ष  का तो मोदी सरकार से खुश होने का सवाल ही नहीं है।  किन्तु अंदरखाने की हलचल है कि विगत एक साल में हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर कुछ  नहीं किये जाने के कारण मोहन भागवत और  'संघ'सहित  उसके अनुषंगी भी मोदी सरकार से नाराज हैं । जिन्हे इस तथ्य  बात पर यकीन ने हो वो तोगड़िया या आचार्य धर्मेन्द्र से तस्दीक कर सकते हैं ।
                                                                       स्वामी निश्चलानंद , शंकराचार्य स्वरूपानंद ,सुब्रमण्यमस्वामी  , गोविंदाचार्य,अन्ना हजारे  , स्वामी रामदेव , ओ राजगोपाल  हर कोई इस सरकार से नाखुश है।   खैर ये तो दूर  के रिस्तेदार हैं किन्तु  आड़वाणी ,राजनाथ ,सुषमा ,गडकरी और वसुंधरा तो उसी खानदान के  ही हैं ! फिर  इन सबको कोई न कोई प्रबलम  क्यों है ? यदि सब कुछ ठीक ठाक है । विकाश  और सुशासन है तो ये सभी मोदी जी से खुश क्यो
                                 २ ६ मई -२०१५ को  भारत की वर्तमान  'मोदी' सरकार  को सत्तारूढ़ हुए ठीक  एक  साल 
पूरा हो रहा है ।   विगत एक साल पहले  वर्तमान सत्तापक्ष याने 'मोदी सरकार' को  ऐतिहासिक  रूप से प्रचंड
बहुमत प्राप्त हुआ  था  ।  देश के नीम  दक्षिणपंथी बुर्जुआ और साम्प्रदायिक तत्वों  के अपावन गठजोड़ की इस 
इकतरफा  विजय में  यूपीए-२ की घोर असफलताओं की महती भूमिका  प्रमुख रही है।हालाँकि  यूपीए और एनडीए के  वर्गीय  स्वार्थों में  साम्प्रदायकता का एक महीन सा फर्क ही है , वरना आर्थिक नीतियों में तो ये दोनों ही सहोदर हैं। इसीलिये   कार्पोरेट जगत की चरम मुनाफाखोरीके अलम्बरदार भी  हैं।  पूँजीवाद से प्रेरित विदेशी पूँजी और उसकी क्षुद्र आकांक्षाओं  की पूर्ती के लिए  मोदी सरकार ज़रा ज्यादा  समर्पित हैं।

अपनी  निर्मम पराजय के उपरान्त  राजनैतिक रूप से हासिये पर आ चुकी कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी अब भले ही किसान -मजदूर के पक्ष में  वकालत करते  दिखाई दे  रहे हैं ,वरना  यूपीए के १० साल के राज में तो  उनकी यह  बानगी कभी कहीं भी  देखने को नहीं मिली । उलटे हुड्डाजी  के हरियाणे में तो किसानों की जमीने छीनकर [जीजाश्री] रावर्ट वाड्रा को  ही समर्पित की जाती रहीहैं । यह उदाहरण तो उस हांडी का एक अदना सा चावल मात्र है वरना  मनमोहनसिंह की यूपीए  सरकार तो  भृष्टाचार की खीर मलाई बांटने के लिए दुनिया भर में बदनाम रही  है।
                        यूपीए के  भृष्टतम  निजाम और आकंठ महँगाई से त्रस्त जनता  के दिलों में उम्मीदों के  दीप जलाकर ,जातीय -साम्प्रदायिक चासनी पिलाकर ,हिंदुत्व की दूरदशा  पर किंचित मगरमच्छ  के आंसू बहाकर  , आवाम  को विकास और सुशासन के  सपने दिखाकर ,युवा  वर्ग   को लच्छेदार मुहावरों में  बरगलाकर  मोदी जी , एनडीए  और भाजपा द्वारा विगत एक बर्ष पूर्व  सत्ता  हस्तांतरण किया गया था । 

                             साल  भर तक बाद चौतरफा असफलताओं से  जनता का ध्यान डायवर्ट करने के निमित्त
योजनाओं और कार्यक्रमों के बरक्स पूरा साल गुजरने के बाद अब कालेधन का  अध्यादेश रुपी झुनझुना बजाया जा रहा है। अब एक नए 'महाझून्ठ' का सहारा लिया जाता रहा है। विगत एक साल की  उपलब्धियों  का सार संक्षेप यह है कि प्रधान मंत्री  जी ने  विदेशों में भारत की छवि को बुरी तरह धूमिल किया है।भारत के गौरवशाली अतीत को स्याह और भारत को 'गन्दा' देश निरूपित किया है।  खुद की वर्चुअल इमेज और वैश्विक पहचान बनाने के लिए इस निर्धन राष्ट्र का अरबों रुपया हवाई यात्राओं और प्रधानमंत्री की तीर्थ यात्राओं में बर्बाद किया गया है ।  विदेशों में देश को कंगाल और बीमार बताया गया है और इन्ही  यात्राओं के बहाने  अपना व्यक्तित्व महिमा मंडित किया जाता रहा है।  विगत वर्ष सिर्फ'मन की बातें ' ही होती रहीं हैं। कभी हवा में  बातें -  कभी 
जमीन पर बातें , कभी समुद्र में  बातें , कभी भूटान में बातें ,कभी आस्ट्रिलिया  में बातें ,कभी जापान में बातें , कभी कनाडा में बातें ,  कभी जर्मनी -फ़्रांस - इंग्लैंड में बातें , कभी चीन में बातें ! मोदी सरकार  की विगत एक साल की उपलब्धि - बातें ! बातें !! बातें !!!.  सिर्फ बातें !  केवल लच्छेदार  बातें  ही  -आवाम के कानों में गूँज रही हैं।
            शायद बातों का वर्ल्ड रिकार्ड  बनाया जा चुका  है। लेकिन बातों का  नतीजा  अब तक केवल ठनठन गोपाल ही है।  अपने पूर्ववर्तियों  की गफलत  , चूक-नासमझी  और  आपराधिक कृत्यों  के कारण नाराज जनता ने मोदी सरकार कोएक साल पहले  सत्ता में पहुँचाया था। किन्तु इस प्रचंड राजनैतिक महाविजय के वावजूद, हर तरह से निष्कंटक - निरंकुश सत्ता  हासिल करने के  वावजूद ,भारत की  यह अब तक की सबसे असफल और निकम्मी सरकार साबित हुयी है।  वैसे भी  जो लोग भरम फैलाकर सत्ता में  आ जाते  हैं  उनसे किसी भी  तरह के सकारात्मक बदलाब ,सुशासन या   क्रांतिकारी विकाश  की  उम्मीद करना  नितांत मूर्खता ही है।  ! यदि आप साल भर  तक केवल अपने पूर्ववर्तियों की असफलताओं का या  उनके गिरते राजनैतिक जनाधार  का दुनिया भर में  सिर्फ ढिंढोरा ही पीटते  रहे हैं ! यदि आप अपनी व्यक्तिगत खुशनसीबी  पर  विगत साल भर  केवल  इतराते  ही रहे  हैं ! यदि  आपने देश में अभी तक एक फुट भी नयी रेललाइन  नहीं बिछाई ! यदि आपने देश के लाखों गाँवों में से कहीं भी  एक कुंआँ  भी नहीं खोदा ,यदि सिचाई या  शुद्ध  पेय जल की व्यवस्था नहीं की ! यदि आप कालेधन का एक रुपया भी देश में  नहीं ला  पाये , यदि आप किसानों को आत्महत्या या  बेमौत मरने से नहीं रोक पाये , यदि आप कश्मीर में अमन  नहीं ला पाये , यदि आप राम लला का मंदिर  नहीं बना पाये , यदि आप घोंगालगांव [निमाड़]के जलमग्न  हजारों किसानों के आंसू नहीं पोंछ पाये , यदि आप  राज्यों के बीच जल बटवारे का न्यायिक  निर्वहन नहीं कर पाये , यदि आप बलात्कार ,हत्या और अपराध पर नियंत्रण नहीं कर पाये , यदि आप पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकी हाफिज सईद तो क्या आपने लाडले दाऊद को भी वापिस नहीं ला पाये , यदि आप श्रीलंका ,नेपाल बांग्लादेश के सामने लगातार झुकते रहे  हैं, यदि आप  चीन की  चिरौरी करते रहे और उसकी दादागिरी के सामने खीसें निपोरते रहे। यदि आप किसी भी विषय पर देश की जनता का दिल नहीं जीत पाये तो  आने वाले ४ साल में  क्या  आसमान के तारे तोड़ लेंगे।  विगत  एक साल के कार्यकाल  को 'मोदी उवाच' वर्ष नाम दिया जाना चाहिए !

प्रचंड बहुमत है तो यह सरकार ५ साल अवश्य चल जाएर्गी।  लेकिन सत्ताधारी नेतत्व को नहीं भूलना चाहिए कि  ''जिन्दा कौम पांच साल इंतज़ार नहीं करती " ।  जो लोग  इतिहास  की भूलों से कोई  सबक  नहीं सीखते और  केवल प्रतिगामी प्रयोग करने के फेर में रहते हैं ,उनको  न तो  'माया मिलती है और न राम ! जिन्हे लगता है कि  बाकई अच्छे दिन आ गए हैं उनसे निवेदन है कि अपने  बचत  खाते  में आये काले धन में से थोड़ा सा उन भृष्ट अफसरों और मंत्रियों को जरूर दें जिनकी छुधा अभी भी शांत नहीं हुई है  ? यदि अच्छे दिन आये  हैं तो बच्चों का रिजल्ट खराब क्यों आ रहा है। किसान आत्म हत्या क्यों कर रहे हैं ?कुकिंग गैस की किल्ल्त क्यों है ?युवाओं को काम क्यों नहीं मिल रहा है ?

    श्रीराम तिवारी
                       
      


 

सोमवार, 11 मई 2015

मैया जय ललिता अम्मा !






 सकल विधायक चरण पखारत ,चाकर विधायिका।

 पन्नीरसेल्वम चंवर डुलावत ,सेवक कार्यपालिका।। 

 जज-वकील  सब करें आरति, जपत 'घणी खम्मा '।

 हर्ष विभोर  भये अपराधी ,मैया जय ललिता अम्मा  ।।


                                       श्रीराम तिवारी
  

शनिवार, 9 मई 2015

मुँह देखकर तिलक लगाना ही तो इस व्यवस्था का दस्तूर है !


    धन याने रूपये -पैसे की महिमा का बखान- केवल चाणक्य,एडम स्मिथ ,मैक्स बेबर  और कीन्स इत्यादि अर्थशास्त्री  ऐसे  ही नहीं कर गए।  उनके सिद्धांत और विचारधारा भले ही पैसे वालों का ही पक्षपोषण करते हों किन्तु उनकी स्थापनाएं तो आज भी मानव समाज के सर पर चढ़कर  अठ्ठहास  कर रहीं हों। फिल्म एक्टर  सलमान खान के 'हिट एंड रन'केस पर जिन्होंने विहंगम दृष्टिपात किया होगा उनको तो आइन्दा 'पैसे पर पूरा भरोसा' कायम रहेगा ।कुछ लोगों का कहना है कि  यदि सलमान को जमानत नहीं मिलती तो उनका पैसे पर से विश्वास उठ जाता। पूंजीवादी कल्चर का यही  तात्विक गुण है कि  "बाप -बड़ा न  भैया -सबसे बड़ा रुपैया।।" 
                                  चूँकि आस्तिक किस्म  के  धर्मप्राण तथा अंधश्रद्धालु मानव का भगवान -गॉड -अल्लाह - यहोबा या किसी  ख़ास मजहब के  गुरु घंटाल - इष्टदेव  पर परिश्थिति के अनुसार विश्वास व्  भरोसा  नित्य परिवर्तनशील हुआ करता है।मुझे भगवान या ईश्वर  में  तो बहुत  कम आश्था रही है  किन्तु उनके एक परम  भक्त कवि गोस्वामी तुलसीदास की इस अवधारणा  पर पूरा विश्वास  है कि -;

  "कोउ  न काउ सुख कर दाता।  निजकृत करम  भोग सब  भ्राता।।  [रामचरितमानस ]


अर्थात भगवान पर भरोसा करो या न करो अपने-अपने कर्मों का अच्छा -बुरा परिणाम  तो  प्राणिमात्र को स्वयं ही भोगना होगा।लेकिन जब कभी किसी खास 'दवंग' अपराधी को इस सिद्धांत से मुक्त देखता हूँ ,रुपया -शोहरत  या आस्पद की ताकत से क़ानून को धता बताते हुए देखता हूँ तो बरबस ही  मुझे  न्याय प्रियता के  प्रवंचकों से सहमत होना ही पड़ता है।  जो कहते हैं कि   'पैसा बोलता है "।

 शहीद  भगतसिंह ,लेनिन ,कार्लमार्क्स , हो -चीं- मिन्ह , आंबेडकर , बीटीआर ,ईएमएस ,गोपालन ,ज्योति वसु सहित  दुनिया के तमाम साम्यवादी  चिंतकों ने शिद्द्त से प्रतिपादित किया है कि राष्ट्र या  समाज में जब तक आर्थिक ,सामाजिक या  राजनैतिक असमानता है तब तक न्याय शक्तिशाली व्यक्ति  का ही  पक्षधर रहेगा।  पूंजीवादी समाज में जहाँ एक ओर  धन दौलत के पहाड़  खड़े हो गए  हैं वहीँ दूसरी ओर  कंगाली और निर्धनता की खाईंयां भी गहरी हो गयीं  हैं।  'हिट एंड रन' घटना के शिकार  जिन  निर्धन सर्वहाराओं को सलमान की कार से कुचलकर मार दिया गया ,जिनके  बारे में   पूंजीवादी व्यवस्था से संचालित न्याय  के मंदिर में एक आह तक नहीं सुनी  गयी वे वास्तव में अभागे ही हैं। व्यवस्था से निराश ,ईश्वर से निराश ,न्याय मंदिर से निराश , चौतरफा विपत्ति के मारे ,एक दारूखोर और पैसे वाले एक्टर  की लापरवाही के शिकार, ये अभागे  यदि कहीं  अपराधी बन जाएँ तो इसमें तो किसी को  कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । इसकी महती  जिम्मेदारी न्याय पालिका की होगी। जिसने  सावित किया है कि मुँह  देखकर तिलक  लगाना ही  तो इस  व्यवस्था का दस्तूर है !
                                  
 वेशक सलमान के वकीलों की सूझबूझ  से , सलमान की  पारिवारिक -सामाजिक हैसियत  के प्रभाव से  मुंबई हाई  कोर्ट ने सलामन खान को एक घंटे के लिए  भी जेल नहीं जाने दिया । सलमान की तुरंत  जमानत  के लिए पैसे  की महिमा से कोई इंकार नहीं कर सकता। धन की ताकत से ही जमानत की  पूर्व पटकथा तैयार थी।  सैशन कोर्ट में उसके  खालिस  अपराधी होने के वावजूद इन वक्त पर बिजली गुल होना ,केस की  सर्टिफाईड कापी न मिलना और उधर तत्काल हाई कोर्ट में जमानत की अर्जी स्वीकृत होना ये तमाम चीजे देश और दुनिया में लम्बे समय तक बहस का मुद्दा रहेंगी।  यदि सलमान खान को सजा मिलने के ही दिन सम्मान अपने घर जाना नसीब हुआ तो यह  विचारणीय है कि और  ताकतवर लोगों को जेल जाने पर पैसा शक्तिशाली साबित क्यों नहीं हुआ ?  बिना जेल गए घर जाने का  सौभाग्य ,संजय दत्त ,अबु सालेम , जय ललिता ,येदुरपा ,लालू यादव , पप्पू यादव  को क्यों नहीं दिया गया। आज भी  सुब्रतो राय सहारा ,आसाराम एंड संस   जैसे ऐयास लक्ष्मीपति  करोड़ों नहीं अरबों रुपया फूंकने के बाद भी जेल के सींकचों में ही फड़फड़ा रहे हैं. क्यों ? कहावत है  कि  पैसा सब कुछ नहीं होता लेकिन पैसा बहुत कुछ होता है।  पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता जूदेव ने क्या कहा था ?  पैसा  भगवान तो नहीं लेकिन पैसा भगवान से कम भी नहीं !
                 
  सलामन  'हिट एंड रन '  के शिकार हतभाग्य लोग आज भी मुआवजे के लिए तरस रहे हैं। इतना  ही नहीं देश की जेलों में भी ऐंसे  लाखों लोग  हैं जो कई सालों से  बिना अपराध सिद्ध हुए ही पैसे के अभाव में सड़ रहे हैं।  कुछ तो   मामूली से अपराध में ही और  कुछ  तो निरपराध ही हैं जो जमानत के आभाव में जेल भोग रहे हैं। क्या केंद्र  की  वर्तमान मोदी सरकार इस तरफ अपना ध्यान देगी ?क्या मुंबई हाई  कोर्ट जैसी  सजग  न्यायिक सक्रियता   देश के  गरीबों -मजलूमों को भी प्राप्त होगी ?   देश की वह जमात और  तरुणाई  जो सलमान के लिए नाटकीय   सौजन्यता दिखा रही थी क्या वह अपनी थोड़ी सी  सदाशयता  उन शोषित -पीड़ित और जेल भोग रहे  बेकसूरों के आंसू पोंछने के लिए भी  दिखाएगी ?

                                                   श्रीराम तिवारी