रविवार, 23 फ़रवरी 2014

राहुल गांधी यदि पप्पू हैं,तो भाजपा और संघ परिवार उनको घेरने में क्यों जुटा है ?


 भारत के वर्तमान  राजनैतिक परिदृश्य पर  माथा पच्ची करने वालों  में से अधिकांस ने आर्थिक  , सामाजिक , राष्ट्रीय ,सामरिक  और  अंतर्राष्ट्रीय विमर्श से परे कुछ खास नेताओं  को विमर्श के केंद्र में प्रतिष्ठित कर रखा है।  इन लोगों के लिए नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी ,केजरीवाल और तीसरे मोर्चे के कुछ उत्साही नेताओं के नाम रग्वी घुड़ दौड़ के घोड़े जैसे हैं। आगामी प्रधानमंत्री कौन होगा ?इस सवाल के उत्तर में किसी का घोड़ा नरेंद्र  मोदी  ,किसी का राहुल गांधी , किसी का अरविन्द  केजरीवाल ,किसी का कोई और नेता  है ,अण्णा  हजारे ने तो एक घोड़ी पर ही दांव  लगा रखा है।  विभिन्न सर्वे और सूचनाओं के आधार पर कहा जा रहा है कि नरेंद्र  मोदी  बहुत आगे चल रहे हैं ,राहुल  बहुत  पीछे  बताये जा रहे हैं और बाकी  के नेता तो  केवल 'खेल बिगाड़ू'  ही बताये जा रहे हैं।  हालांकि  भाजपा और  संघ परिवार ने राहुल गांधी को  कभी चुनौती नहीं माना किन्तु फिर भी उन्हें अंदेशा है कि कांग्रेस का ऊंट कभी भी कोई अज्ञात करवट ले सकता है । चूँकि केजरीवाल ने अम्बानी के  बहाने मोदी को  तो  घेर रखा है किन्तु  संतुलन के लिए राहुल के बजाय   मनमोहन सिंह  को भी कठघरे में खड़ा कर रखा है इसलिए यह स्वाभाविक है कि  इस पॉइंट पर  मोदी की कमीज  से ज्यादा राहुल गांधी की कमीज सफ़ेद दिख रही है। इन्ही आशंकाओं के बरक्स  'संघ परिवार'ने   प्लान किया है कि कांग्रेस के सम्भावित प्रत्याशी याने राहुल गांधी  की कमीज पर जबरन कीचड उछलकर उसे भी बदरंग दिखा दिया जाए।
                    कुछ लोगों को गलत फहमी है कि राहुल गांधी को प्रधान मंत्री बनने  की बेजा खुवाइश  है। वेशक  हर कांग्रेसी चाह्ता होगा कि  राहुल  देश के प्रधानमंत्री बने। किन्तु कांग्रेस और राहुल दोनों को मालूम है कि भारत की जनता अभी बदलाव के मूड में है अतः २०१४ में न तो कांग्रेस के चांस हैं और न ही राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने  के कोई आसार हैं। वास्तव में राहुल गांधी और कुछ खुर्राट कांग्रेसी तो बहुत  पहले से ही  मिशन -२०१९ के काम पर लग चुके थे। लेकिन राहुल ने समय-समय पर अपनी ही यूपीए सरकार के खिलाफ  जो वयानबाजी की है ,उन्होंने तमाम लोककल्याणकारी मुद्दों पर अपनी जो  बेबाक प्रतिक्रया दी है और संसद के अंतम सत्र  में जो अनेक प्रगतिशील कानूनों को पारित करने  की पैरवी की है , राहुल ने यहाँ तक  कोशिश की  है कि यदि  संसद के वर्तमान शीतकालीन  सत्र  का कार्यकाल  नहीं  बढाया जा सकता तो इस  सूरत में राष्ट्रपति के माध्यम से ततसंबंधी  'अध्यादेश ' लाने की भी  वकालत की है.  राहुल की इन तमाम   सक्रियताओं से आभासित होता है कि राहुल भी प्रधान मंत्री की दौड़ में अभी भी  शिद्दत से डटे  हुए  हैं। यह सच है कि  उन्होंने  मनमोहनसिंह  सरकार के कई जन विरोधी  निर्णयों को पलटवाया है। वेशक यह राहुल को ही श्रेय जाता है कि खाद्द्य सुरक्षा - क़ानून,मनरेगा ,राजीव आवास योजना ,भृष्टाचार निरोशक बिल तथा स्वास्थ सुरक्षा  विधेयक इत्यादि अनेक मामलों में सार्थक हस्तक्षेप के माध्यम से अमली जामा पहनाये जाने की  निरंतर कोशिश की गई है। देश का जन मानस  न केवल  विबिधतापूर्ण है अपितु नित्य परिवर्तेनशील और गतिशील  भी है  इसलिए  आगामी २०१४ के लोक सभा चुनाव की रग्वी घुड़ दौड़ में कौन आगे निकलेगा ये  जनता के बहुमत की राष्ट्रीय आकांक्षा पर निर्भेर है। यदि मोदी की सम्भावनाएं हैं तो राहुल और अन्य  की सम्भावनाओं से भी अभी इंकार करना केवल शोशेबाजी है।           
                        १५ वीं लोक सभा के  शीतकालीन  सत्र का समापन मीडिया में  देखने वालों को कुछ -कुछ फील गुड  सा हुआ होगा कि चलो - कुछ हद तक  भारतीय लोकतंत्र की गरिमा अभी भी अक्षुण है ।  इस दरम्यान जहाँ  कुछ  पार्टियां और उनके  सांसद  लगातार  तेलांगना बनाम सीमांध्र तथा अन्य गैर  ज्वलंत मुद्दों पर संसद में मिर्ची पावडर  से जूझ रहे थे  और अंतिम क्षणों तक  कोहराम मचाये  हुए थे , वहीँ राहुल गांधी खाद्द्य सुरक्षा विधेयक,स्वास्थ् सुरक्षा विधेयक ,भृष्टाचार निरोधक विधेयक पर दनादन पैरवी किये जा रहे थे।  यही वह कर्त्तव्यनिष्ठा है जो  एक प्रजातांत्रिक और परिपक्व  नेत्तव कारी - व्यक्तित्व्   का निर्धारण  करती  है । राहुल  गांधी के खिलाफ  सुषमा स्वराज  इत्यादि ने  अचानक  सत्रावसान के अंतिम  क्षणों  में गजब की पैंतरेबाजी दिखाई जो सिद्ध  करती है कि राहुल गांधी को देश की जनता के समर्थन से इंकार नहीं किया जा सकता।
                 प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह ने सभी सांसदों का , मंत्रिमंडल  के सदस्यों का , विपक्ष के  सांसदों और  नेताओं का धन्यवाद ज्ञापित किया। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज  ने भी प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह  की विनम्रता ,सोनिया  गांधी की मध्यस्थता ,मीरा कुमार की बौद्धिक क्षमता और आडवाणी जी की तथाकथित   न्यायप्रियता का तहेदिल से गुणगान किया। उन्होंने सरकार -सत्ता पक्ष और विपक्ष समेत सभी की मुक्त कंठ से भूरि -भूरि प्रशंशा की। संसद की कार्यवाही  सुनने वालों को देखने वालों को लगा कि  शायद  यही खाँटी -   प्रजातांत्रिक परम्परा हो , यह चिंतनीय है कि  भारतीय राजनीति  में अब इन मूल्यों का  दिनों दिन ह्रास होता जा रहा है।  फिर भी गनीमत है कि सरकार और विपक्ष ने  दिखावटी ही सही किन्तु सत्रावसान में गम्भीरता का परिचय  तो दिया ,यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सुषमा जी ने अपने अंतिम भाषण में राहुल गांधी  पर  कोई सकरात्मक  अनुकम्पा  दर्शाने के बजाय उन पर बेहद  आक्रामक रुख अपनाया।  न केवल उन्हें अपरिपक्व सिद्ध करने की कोशिश की, बल्कि  राहुल के  संसद में दिए गए तात्कालिक बक्तव्य पर उनकी लानत-मलानत में भी  कोई कसर बाकी नहीं रखी।
                               यह निष्पक्ष चिंतन और सार्थक  सोच की बात है कि  इससे देश में क्या सन्देश जाता है ? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि सुषमा स्वराज जो कि विपक्ष की नेता हैं,  जो मन ही मन  कभी -कभार  ही सही  खुद भी  प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना भी देखतीं  होंगी ,  ये किसी से छिपा नहीं है। मोदी से भी नहीं। इस घटना के बाद  वे राहुल गांधी जैसे नौसीखियाँ  के सामने  भी  फिसड्डी राजनीतिग्य  ही  सावित हुईं हैं। सुषमा का   और  अन्य  भाजपा नेताओं का यह आचरण  'क्राइसिस  ऑफ कान्सस 'नहीं तो और क्या है ? कांग्रेस की या यूपीए की नाकामियों का ठीकरा राहुल गांधी के सर फोड़ने का मोदी का या सुषमा का या  भाजपाई  मंतव्य राजनैतिक पाखंड नहीं तो और क्या है ?
                      वेशक यूपीए सरकार अपनी अंतिम साँसे गिन रही है । लेकिन यह भी सच है कि राहुल गांधी को वैसा कोई भ्रम नहीं है  या  कोई 'फील गुड ' नहीं हो रहा है,जैसा कि २००४ में तत्कालीन एनडीए सरकार के समय भाजपा और संघ परिवार को हो  रहा था। तब भी  कांग्रेस  में कोई सुर्खाब के पर नहीं लगे थे ! तब भी राहुल गांधी या सोनिया गांधी कोई तुर्रम खां  नहीं  थे। किन्तु  उन्हें सत्ता मिली। यूपीए -१ के बाद यूपीए -२ लगातार 'राजयोग' चला आ रहा है।  जबकि तब राहुल गांधी   अब से  ज्यादा अपरिपक्व और अबोध थे ,सोनिया जी को तो  तब विदेशी  मूल की जन्मना होने के कारण  पहले ही हासिये पर धकेला जा चूका था.  यही सोचने की बात है कि  वो कौनसे तत्व हैं कि लाख बदनामियों और  नाकामियों के वाबजूद  कांग्रेस  कभी यूपीए- वन,  कभी यूपीए -२ और कभी किसी तीसरे मोर्चे के कंधे पर बन्दुक रखकर   सत्ता में पुनः -पुनः  वापिस आ  जाया करती  है ?  इस प्रश्न  का उत्तर यदि मोदी जानते तो वे  कभी 'कांग्रेस मुक्त भारत ' का नारा नहीं देते। इस सवाल का जवाव यदि सुषमा के पास होता तोअब राहुल के खिलाफ और तब  सोनिया के खिलाफ इतना जहर नहीं उगलतीं   कि  सर मुंडाने या जमीन पर सोने के संकल्प का पाखंड  करने की नौबत आये।  संघ परिवार और मोदी द्वारा  राहुल गांधी को घेरने की   कोशिशें  साबित करते हैं कि राहुल में 'दम' है। 
                                 भाजपा और संघ परिवार पुनः फील गुड में आ चुके हैं। बार-बार के  प्रायोजित सर्वे उन्हें   ललचा रहे हैं कि डॉ मनमोहनसिंह के नेत्तव में यूपीए का यह  अंतिम कार्यकाल  है और अब  यूपीए का सूपड़ा साफ़  होने  जा रहा है। यूपीए गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस को आगामी  चुनावों  में १०० सांसदों के आंकड़े से नीचे बताया जा रहा है।  मोदी फेक्टर के कारण भाजपा को अकेले ही २२० सीटों के करीब बताया जा रहा है।  अधिकांस  लोगों को यकीन है कि आगामी लोक सभा चुनावों में देश की संसद की यही सूरते- हाल होने जा रही है। चूँकि  भाजपा को यकीन है कि एनडीए की सरकार बनाने के लिए उसे  ५०-६० सीटों की और  जरुरत पड़ेगी ।  धर्मनिरपेक्षता   के नाम पर तब  यदि  कोई  सैद्धांतिक ध्रुवीकरण  नहीं हुआ तो भाजपा के मोदी  जी  सत्ता में प्रतिष्ठित हो जायेंगे।  वशर्ते कांग्रेस को १०० के नीचे कसा जा सके।
                  चूँकि राहुल गांधी ने परोक्षतः कांग्रेस की कमान संभल ली है और वे भी  फूंक-फूंककर ,छानवीन कर उम्मीदवार  खड़े करने के लिए 'पायलट प्रोजेक्ट' लांच कर चुके हैं ,चूँकि  उनकी व्यक्तिगत छवि अभी भी वेदाग है ,चूँकि वे  राजनीति  में भ्रष्टाचार उन्मूलन के पक्षधर हैं और अपनी ही सरकार को कई बार इस सन्दर्भ में रुसवा  भी कर चुके हैं इसलिए देश में कांग्रेसियों को उम्मीद है कि वे भले ही सत्ता में न लोट पाएं किन्तु  मोदी   की पत्तल का रायता तो ढोल ही देंगें। उन्होंने दिल्ली  विधान  सभा चुनाव  उपरान्त करारी हार के वावजूद 'आप' का समर्थन कर , डॉ हर्षवर्धन और भाजपा का  जैसा खेल  दिल्ली में  बिगाड़ा  था और डॉ  हर्षवर्धन को  मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया वैसा ही खेल वे  आगामी २०१४ के लोक सभा चुनाव  भी बिगाड़ सकते हैं। वशर्ते इस चुनाव में वे लगभग १५० सीटें जीतकर आयें।यदि  कांग्रेस के नेता आपस में झगड़ना छोड़ राहुल गांधी के नेत्तव में एकजुट होकर मैदान में उतर जाएँ तो ये काम और आसान हो सकता  है । चूँकि राहुल इस दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे हैं इसलिए  भाजपा,संघ परिवार और  मोदी  का चिंतित  होना स्वाभाविक है।
                   यह सार्वभौम सत्य है कि  तीसरे मोर्चे के साथ कांग्रेस की गलबहियाँ  कभी भी भाजपा के मोदी को सत्ता में नहीं आने देंगी। चूँकि राहुल की  अधुनातन कोशिशों ने कांग्रेस की बिगड़ती सेहत  को अपने  आदर्शबाद का इंजेक्शन लगा दिया है,  जो कांग्रेस को सैकड़ा पार सांसद जिताने  के लिए काफी है। यह  भी सच है कि कांग्रेसियों को  हमेशा ही संघ परिवार  से परशानी रही है किन्तु  अब  उनके निशाने पर मोदी हैं । ये लोग भले ही मोदी के खिलाफ जहर उगलते रहें  किन्तु  राहुल गांधी ने कभी भी सुषमा  स्वराज ,जेटली ,मोहन भागवत  या किसी अतिवादी हिंदुतव वादी  के खिलाफ  वैसा  विष वमन  नहीं किया। और तो और राहुल ने कभी भी सीधे  - सीधे   मोदी ,आडवाणी ,अटलजी  या  गांधी -नेहरू परिवार के अनन्य शत्रु  सुब्र्मण्यम  स्वामी  जैसों को भी उनके वाहियात आरोपों का घटिया जबाब नहीं दिया।
                                कांग्रेस  के दिग्गज यह उजागर करने में जूट हैं कि राहुल तो देश के 'हीरो' हैं। यूपीए सरकार की नाकामियों और बदनामियों से राहुल को ही  राजनैतिक नुक्सान हुआ है।  वे कांग्रेस के  वर्तमान हश्र का श्रेय डॉ मनमोहनसिंह  को देने में जत गए हैं ।  चूँकि डॉ मनमोहनसिंह  १०  वर्ष तक भारत के प्रधानमंत्री  रह चुके हैं।उन्होंने देश को  कितना आगे  बढ़ाया ,कितनी मंहगाई बढ़ी ,कितना भृष्टाचार हुआ और उनकी क्या खूबियां-खामियां रहीं ये सभी मुद्दे  प्रस्तुत  आलेख  की विषयवस्तु नहीं हैं । किन्तु यह तय है कि  आइंदा डॉ मनमोहनसिंह को अब कोई भी देश का प्रधानमंत्री नहीं बनाना  चाहेगा! याने भाजपा को या उनके पी एम् इन वैटिंग को डॉ मनमोहनसिंह से अब  कोई खतरा नहीं है। इसलिए भाजपा नेत्री और लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा  जी ने  प्रधानमंत्री की तो  खूब जमकर तारीफ़ कर डाली। जबकि राहुल को देश की दुर्दशा का जिम्मेदार बताया। उनकी  इस बात  से सच्चाई का सर शर्म से झुक जाएगा। , चूँकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल के  होने  तथा प्रधानमन्त्री बनाये जाने के  सवाल पर २००४ में इन्ही  सुषमा स्वराज  ने अपना सर मुंडवाने और जमीन पर सोने तथा   चने खाकर जीवन गुजारने का संकल्प लिया था। उनके एक नारी होने के बाबजूद  एक अन्य नारी के खिलाफ इतना सारा ज़हर उगलने के बाद यह  स्वाभाविक था कि सोनिया गांधी या तो सुषमा के बोल-अबोल को नज़र अंदाज कर वही  करती जो उनके तत्कालीन संसदीय बोर्ड ने तय किया था।  याने या तो वे  भारत की प्रधानमंत्री  बन जाती या सुषमा और उमा  भारती  जैसी महान[?] भारतीय नारियों  की 'भीष्म प्रतिज्ञाओं'   का सम्मान करते हुए प्रधानमन्त्री  पद को लात मारकर  किसी और को मौका देतीं।
                   चूँकि   डॉ मनमोहनसिंघ  तब तक दुनिया में 'नामी अर्थशास्त्री' के रूप में नाम कमा  चुके थे. अतः  सोनिया जी को इस पद के लिए वे ही उचित   लगे  और  उन्होंने  दूसरा वाला विकल्प ही  चुना। हमेशा के लिए यह  फैसला लिया कि वे प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओऱ अब आइंदा कभी  देखेंगी भी नहीं।  न केवल यूपीए प्रथम  बल्कि २००९ में जब कांग्रेस को ज्यादा सफलता मिली तब भी उन्होंने डॉ मनमोहनसिंह को ही रिपीट किया। चूँकि अब जनता बदलाव या परिवर्तन चाहती है , इसीलिए भाजपा और संघ परिवार को अब सोनिया से कोई खतरा नहीं। किन्तु युवाओं के चहेते ,ईमानदार ,उत्साही विनम्र और प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले राहुल गांधी  की धर्मनिरपेक्ष छवि से  भाजपा और मोदी को अभी भी खतरा  है ।
                       चूँकि डॉ मनमोहनसिंह ने १० साल तक सोनिया प्रसाद पर्यन्त  ही भारत राष्ट्र   का प्रधानमंत्री होने का  गौरव हासिल किया है इसलिए संघ परिवार और भाजपा के पेट में बार -बार यही  दर्द उठता है कि कांग्रेस  में गांधी-नेहरू परिवार  का वर्चस्व जब तक रहेगा तब तक संघ परिवार और उसके आनुषांगिक -भाजपा को न तो  देश  की राज्यसत्ता  मिल पाएगी और अपने साम्प्रदायिक एजेंडे को पूरा कर पाने का मौका भी  मिल पाना मुश्किल है। चूँकि गांधी नेहरू परिवार के   दो सदस्य प्रियंका बाड्रा और राहुल गांधी अभी भी कांग्रेस पर पूरा वर्चस्व रखने में सक्षम हैं और खास तौर  से  राहुल गांधी  अब भी एक ऐंसा  नाम  हैं जो  सापेक्ष रूप से   यह कहने का  हकदार है कि "मेरी  कमीज नरेद्र मोदी की कमीज से ज्यादा सफेद है "  न केवल मोदी  से , बल्कि समस्त कांग्रेसियों से , समस्त  भाजपाइयों से  ,' आप'के  केजरीवाल समेत अन्य  पूंजीवादी दक्षिणपंथी दलों के नेताओं से तथा  शेष सभी  क्षेत्रीय दलों के नेताओं से  भी उजली है। मार्क्सवादी और वामपंथी शायद दावा कर सकते हैं कि वे राहुल गांधी, मोदी और केजरीवाल इन सभी से ज्यादा  पाक -साफ़ हैं ! चूँकि राहुल गांधी लगातार देश के युवाओं से सीधा  संवाद करते हुए हरेक भारतीय  के हित में वांछित राजनैतिक उपायों पर बहस को चला रहे हैं,चूँकि उन्होंने यूपीए सरकार के अनेक अनुदार फैसलों को बदला है ,चूँकि वे  खाद्द्य सुरक्षा क़ानून के लिए  ,लोकपाल बिल  के लिए ,भ्रस्टाचार उन्मूलन वाबत सशक्त क़ानून  के लिए , देश में नयी सर्वसमावेशी व्यवस्था कायम करने के लिए,धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए  ,जनहित के मुद्दों पर पेश किये गए  बिलों को सत्रावसान के अंतिम क्षणों में भी  पारित करने  की वकालत करते रहे इसलिए वे सुषमा स्वराज और भाजपा की आँख में किरकिरी बन गए। भाजपा को अब दोहरा खतरा सता रहा है. भले ही विधान सभा चुनावों में कांग्रेस का पटिया उलाल हो गया हो किन्तु उसके बाबजूद भी  निडर निर्भीक राहुल के कान्फीडेंस से भाजपा और मोदी तिलमिलाए हुए हैं ।  बची खुची कसर  केजरीवाल ने पूरी कर दी है जो रोज-रोज,  नए-नए  स्केम खोजकर  दनादन  मोदी पर वैयक्तिक हमले  किये जा रहे हैं।
            राहुल गांधी ने ही  शेष वांछित संसदीय  कार्यवाही के लिए संसद का  सत्र बढ़ाये जाने की गुजारिस की थी । यह खेद की बात है कि देश की जनता ने मीडिया प्रायोजित वो कुकरहाव तो देखा   तो देखा जो संसद में हिंसक और शर्मनाक  गतिविधियों  के लिए कुख्यात है , किन्तु  सत्रावसान धुंधलके में विपक्ष की राहुल गांधी विरोधी  प्रस्तुति को अधिकांस लोगों ने नजर अंदाज किया। चूँकि राहुल गांधी  ने  देशहित  और जनहित के तमाम मुद्दे एक साथ और हड़बड़ी में रख दिए , इसलिए भी प्रेस-मीडिया और जनता ने उचित संज्ञान नहीं लिया। राहुल  गांधी  में वनावटी पन  या नाटकीय संस्कार नाम मात्र को नहीं है।  दरशल वे अनायास  वाले सिद्धांत में फिट बैठे हैं। जबकि व्यक्तिशः अन्य  समकालीन नेता  वर्चुअल इमेज  इसके अलावा वे जन- ध्यानाकर्षण के लटके -झटके भी   नहीं जानते इसीलिये  चाहे संसद हो या जन-सभा हर जगह वे बड़ी बात को  भी हल्के ढंग से रख देते हैं। मानवीय दृष्टी से यह मौलिक और सच्चरित्र विशेषता हो सकती है किन्तु    यही सद्गुण  राजनीति  में  अवगुण बन जाता है तथा  असफलता का कारक बन सकता  है।
                        संघ परिवार ,सुबर्मण्यम स्वामी ,रामदेव और नरेद्र मोदी  और  'आम आदमी पार्टी ' के कुमार विश्वाश हमेशा मजाक उड़ाते  रहते हैं कि राहुल गांधी 'असली गांधी ' नहीं हैं।  दूसरी ओऱ  यही नेता राहुल के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान कर देश और दुनिया में 'मशहूर' हो रहे हैं। उनका आशय क्या है यह किसी से छिपा नहीं है। ये लोग राहुल गाँधी  के सामने इतने बौने हैं कि उनसे लड़ने  मात्र से मिलने वाली शोहरत को भी चमत्कार  मानकर राजनीति  में स्थापित होने की असफल कोशिश करने में  जुटे  हैं।  सुब्रमन्यम  स्वामी के ,नरेद्र  मोदी के या कुमार विश्वाश के  घटिया तंज का जबाब  राहुल गांधी ने कभी नहीं दिया। यही महान लोगों  के धीरोदात्त चरित्र का असल प्रमाण है। यही राहुल गांधी को नरेद्र मोदी पर ,केजरीवाल पर और अन्य समकालिक नेताओं पर बढ़त दिलाता है।  संघ प्रायोजित सर्वे में मोदी नबर -वन हो सकते हैं किन्तु देश की जनता के सर्वे में राहुल बाबा नबर वन की ऒर  तेजी से अग्र्सर  होते जा रहे हैं।  किन्तु  'आप' के नेताओं ने मोदी को निपटाने के लिए कमर कस  रखी  है। उन्होंने 'असली गांधी ' याने मोहनदास करमचंद गांधी के पोते राजमोहन गांधी को पटा  लिया है और  अब मोदी में  हिम्मत हो तो उनका मजाक उड़ा लें या उनसे चुनाव लड़ लें। दरसल भाजपा, संघ परिवार  और नरेद्र मोदी को लगता है कि  उनके सत्ता में आने की सम्भावनाएँ  तो भरपूर हैं किन्तु उनकी राह में कांग्रेस  के  नेता नबर दो-कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी  आड़े आ  रहे हैं।  इसलिए  समस्त संघ परिवार राहुल को  'घेरने' और 'आप' को 'निहारने' में   जुट गया है।

                      श्रीराम तिवारी  

      

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

फेस बुक सोसल नेटवर्किंग साइट पर नेताओं से सवाल कीजिये !



  फेस बुक पर नेताओं से सवाल पूँछने  की तथा  उनके 'जबाब' पाने की व्यवस्था की गई है। अब वे सभी  जो  अभी फेस बुक अकाउंट होल्डर हैं और दुनिया के किसी भी कोने में हैं उन खास नेताओं से सवाल पूंछ सकते हैं जो इस सोसल नेट वर्किंग साइट के माध्यम से, आगामी १६ वीं लोक सभा के चुनावों के  सन्दर्भ में  अपने -  राजनैतिक अजेंडे को पेश करने  को तैयार हैं । अभी तक नरेद्र मोदी ,अरविन्द केजरीवाल ,ममता ,लालू और अखिलेश यादव ने ही फेस बुक की 'पब्लिक  पालिसी डायरेक्टर '[ भारत एवं दक्षिण एसिया ]  आखी  दास   को  इस  मंच के माध्यम से   जुड़ने  की हामी भरी है ।  भविष्य में और  भी नेता और पार्टियां  इस मंच   का इस्तेमाल  करना चाहेंगे।फेस बुक की इस नई  सर्विस -फेस बुक टॉक्स लाइव -की शुरुआत के साथ फेस  बुक  के यूजर इन राजनीतिक हस्तियों से  आसन्न चुनाव और  तत्सम्बन्धी राजनैतिक  एजेंडे पर सवाल -जवाब कर सकेंगे।
                      फेस बुक का इस्तेमाल करने वाले सभी वंदे आज से ही इस सोसल नेटवर्किंग साइट के एक विशेष पेज पर राजनेताओं के लिए अपने सवाल  डाल सकते हैं। प्रतिष्ठित पत्रकार मधु त्रेहन इस स्तर की मेजवानी  करेंगी। वे फेसबुक यूजर के सवालों को उपलब्ध नेताओं के समक्ष  रखेंगी  जिसे वेब साइट पर सीधा प्रस्तुत किया जाएगा। सभी प्रबुद्ध जन इस अवसर  पर कोशिश करें  कि न केवल लोक कल्याण के ,न केवल राष्ट्रीय निर्धनता के ,न केवल शोषण के , न केवल आर्थिक  उदारीकरण और विनाशकारी निजीकरण की  नीतियों के ,न केवल इन नेताओं के पाखंडपूर्ण आचरण के ,न केवल इन नेताओं के भ्रष्टचार की गटर गंगा में आकंठ  डूबे होने के,अपेक्षित  सवाल करें अपितु कुछ सवाल जो वर्तमान व्यवस्था के नियामकों ने ही पैदा किये  हैं वे भी पूँछने  की कृपा करें। ताकि आप सभी जागरूक भारतीय देशभक्तिपूर्ण  कर्त्तव्यपालन और उचित  उत्तरदायित्तव का निर्वहन कर देश को इन सत्ता पिपासु पूँजीवादी नेताओं से  बचाने  का एक बेहतरीन  किन्तु   आंशिक प्रयास कर सकें।
                    केजरीवाल   से पूंछा जाए कि'आप' का  फोर्ड फाउन्डेसन से  क्या रिस्ता है ? वे 'आप' पर इतने मेहरवान क्यों हैं ?'आप'  को चंदे के देनदारों में कुछ खास किस्म के एन आर आई ही  क्यों हैं ? 'आप' दिल्ली के मुख्यमंत्री होकर  दिल्ली  राज्य की सरकार चलाने में विफल होकर जब रणछोड़दास हो गए तो अब आइंदा  'आप' को भारत का प्रधानमंत्री क्यों बनाया  जाए ?  'आप' अम्बानी को भृष्ट मानते हैं वो सही हो सकता है किन्तु  देश में  और कौनसा ऐंसा पूँजीपति   है  जो ईमानदार  का पूत है ? बिजली चोरी करने वाले  यदि बिल न भरे  तो'आप'उसका बिल माफ़ करके क्या उन्हें मूर्ख सावित नहीं कर रहे जो ईमानदारी  से समय पर बिल भरने को अपना कर्त्तव्य समझते हैं ?आप ने सोमनाथ  भारती प्रकरण में ,दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगवाने में  , जनलोकपाल को विफल करवाने में जो उछलकूद की है, क्या वो अगंभीर राजनीती  नहीं  है ? क्या बाकई आप शीला दीक्षित से बेहतर प्रशासनिक क्षमता रखते हैं ?
                     नरेद्र मोदी ,लालू ,ममता और अखिलेश तो खुद ही देश के लिए  'सवाल ' हैं. उनसे कुछ भी पूंछना याने उन्हें अनावश्यक महत्व देने जैसा है।  प्रश्नकर्ता को  अपनी ही बेइज्ज्ती कराना  जैसा है। फिर भी देश  के स्वनामधन्य प्रबुद्ध जनों और वास्तविक  देशभक्त  मीडिया [यदि वह कहीं है तो !]  को  चाहिए कि  सब कुछ न तो भगवान् भरोसे छोड़ें ओर न ही इन  तथाकथित हाई टेक और  मीडिया ललचाऊ  - पूँजीवादी  -दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक  राजनैतिक दलों के  शोषणकारी  नेताओं के  रहमो करम  पर   छोड़ें। जो प्रश्नकर्ता  अण्णा  हजारे जैसे निरे निरक्षर है और  निरंतर देश  की राजनीति का सर्वस्व  छोड़कर केवल  भ्रस्टाचार विरोध की  भंग में मस्त हैं  और सवालों की  जुगाली करते रहें हैं,   वे अपने वैचारिक दिग्भ्रम से मुक्त होने के लिए  चाहें तो  निष्पक्ष होकर  राष्ट्रहित में -समाज हित में  न केवल नेताओं से बल्कि कुछ सवाल जनता से भी पूंछने की हिमाकत कर सकते हैं ।
                      वे  सवाल कर सकते हैं कि  क्या 'आप' के उदय उपरान्त   दिल्ली राज्य का वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य  और ज्यादा कुरूप और भद्दा  नहीं  हो चला है ?  क्या 'आप' का आचरण और शासन-प्रशासन ,शीला दीक्षित सरकार-  [कांग्रेस सरकार ] के कार्यकाल  से बेहतर साबित  हुआ   है ? क्या  दिल्ली राज्य की  वर्तमान राजनैतिक   नियति यही  है  कि  राष्ट्रपति शासन लागू हो  और यूपीए के नेता   ही परोक्ष र्रूप से दिल्लीश्वर बने रहें ? क्या प्रकारांतर से पुनः कांग्रेस का ही शासन स्थापित होने का इंतजाम  नहीं  हो गया है ?  क्या 'आप' का और भाजपा का  यूपीए  के  खिलाफ  लगतार  इतना सारा बिष वमन  -  किसी क्रांतिकारी परिवर्तन  का  उद्घाटक  सिद्ध   हुआ  है ?
                                               क्या  यह सम्भव  नहीं है कि  मई - २०१४  के बाद  आगामी  १६ वीं लोक सभा के गठन उपरान्त  शायद केंद्र में भी ऐंसा ही मंजर देखने को  मिले ? क्या जनता को अपने जनाक्रोश के रूप में  'आप' जैसे  अराजकतावादी और 'नमो'जैसे  छद्म साम्प्रदायिक  और ममता जैसे छद्म  अधिनायकवादी  विकल्प ही  पसंद  आने वाले हैं ? क्या सत्ता लोलुप पूँजीवादी दलालों को नहीं मालूम कि   देश के जन-गण  को  पूरा - पूरा  एहसास है कि वे  अनायास ही  भृष्टाचार   उन्मूलन  , जनलोकपाल  बिल  अवलम्बन,आर्थिक उदारीकरण   और व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर , जाने-अनजाने ही   घोर  अवसरवादी  - व्यक्तिवादी   और  खतरनाक   फासिस्ट विचारधारा  वाले दलों व उनके  नेत्तव  का  आँख मीचकर समर्थन करने  नहीं जा  रहे हैं ? क्या केवल दुष्प्रचार और झूँठ  के सहारे  राजनीति   में  अराजकता और अलोकतांत्रिकता  को स्वीकार किया  जा सकता है ?
                              क्या  निरंतर  संविधान की अवमानना करने वालों को भी  राष्ट्रनायक का दर्जा  दिया जा सकता   है  ?  क्या अपने  विराट   देश  की महानतम   धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक विरासत  को ध्वस्त करने की चेष्टा करने वालों को  भी  जनादेश देना जायज है ?जो  अंधाधुंध  उदारीकरण और मुनाफाखोरों के लिए  बाजारीकरण का मन्त्र जाप करते रहते हैं ,जो  कार्पोरेट कम्पनियों  के मुरीद होकर  कर देश की  अव्यवस्था को  अंधी सुरंग में धकेलते  रहे  हैं , जो नए कठमुल्ले भी अब  आत्मघाती वादा कर रहें हैं कि ''हम भी पूंजीवाद के विरोधी नहीं हैं " उन्हें  सम्पूर्ण राष्ट्र की  राज्य सत्ता सौपना  उचित होगा ? क्या नरेंद्र मोदी  केजरीवाल  , राहुल गांधी और अण्णा की नयी किन्तु 'घटिया पसंद' याने ममता बनर्जी  ये  सभी  नेता अपनी  कोई आर्थिक-सामाजिक या वैदेशिक  नीति ऐंसी रखते हैं जो  डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक नीति से पृथक या वैकल्पिक हो  ? क्या ये सभी प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री  देश की कार्पोरेट लाबी से,अमेरिकी लाबी से और विश्व बेंक की साम्राज्यवादी  लाबी से  संघर्ष  करने का माद्दा रखते हैं ? यदि नहीं  तो इन सभी को रिजेक्ट करने का साहस देश की जनता क्यों नहीं कर सकती ?
                         वर्तमान राजनैतिक घटनाक्रम से खास तौर  पर दिल्ली राज्य में अभिनीत  २-३ महीनों  की राजनैतिक  नृत्य नाटिका  से  यह तो स्पष्ट हो चला  है कि आगामी लोक सभा चुनाव को ध्यान में रखकर ही कांग्रेस, भाजपा और 'आप' ने ,न केवल  दिल्ली  राज्य की यह वर्तमान  दुर्दशा सुनिश्चित की है ,अपितु राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी वे मैदान मारने की फिराक में हैं। खास तौर  से 'आप' ने  तथाकथित  नामी गिरामी हस्तियों  , एनजीओ  धारकों ,और चुनाव जिताऊ चेहरों की तेजी से  तलाश शुरूं कर दी है।  वे आपा धापी में उनको  भी  लोक सभा उम्मीदवार  बनाने की कोशिस कर  रहे हैं।  जल्दी से जल्दी  टिकट बांटकर  आगामी   मई -२०१४ के लोक सभा चुनावों में अपनी ओर  खींचने में लगे हैं जो राजनीति  में तो कोरे हैं ही साथ ही नैतिक -चारित्रिक और अनुशाशन  के मामले में भी  बेहद कमजोर हैं। ये दिग्भ्रमित अराजक तत्व  अपनी अधिक से अधिक राजनैतिक शक्ति का वर्चस्व स्थापित कर राष्ट्र सत्ता में स्थापित होने के लिए व्यग्र  हो रहे हैं।
                                           वैसे तो   कांग्रेस ,भाजपा और वाम मोर्चे सहित तीसरे मोर्चे  ने अपने राजनैतिक सिलसिले को कभी भी विराम नहीं दिया किन्तु 'आप' ने  तो ज़रा ज्यादा ही बंदरकूंदनी   मचा रखी  है। उसने   दिल्ली राज्य की राजनीति  से आगे  की राष्ट्रीय राजनीति  की चालें चलना   शुरूं कर  दिया है ।  यह सर्वविदित है कि वाम पंथ को छोड़कर बाकी सभी दलों को  वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था के रहनुमाओं याने  पूँजीपति  वर्ग का आशीर्वाद  , आश्रय और सहयोग प्राप्त है। 'आप' और उनके नेता केजरीवाल को अम्बानी से शिकायत या   परेशानी केवल  अवसरवादी ब्लेकमेल के अलावा कुछ नहीं है। अम्बानी समेत तमाम पूँजीपति  वर्ग को  चाहे कांग्रेस हो  ,भाजपा  हो , या  'आप'  हों , वे किसी को भी साधने में कामयाब हो जाते  हैं।  वे केवल कम्युनिस्टों अर्थात वामपंथियों को नहीं काहरीद सकते।  इसीलिये  शोषण  कारी  ताकतों की  चिर संगनी वर्तमान पूँजीवादी  व्यवस्था से  भाजपा  , कांग्रेस  या 'आप' को भी  कोई परहेज नहीं है । चूँकि  ये तीनों  ही पूँजीवादी  विचारधारा के झंडावरदार हैं इसलिए  इनमें से किसी के भी  नेत्तव में  देश की मेहनतकश आवाम के हित  हमेशा खतरे में  ही रहेंगे हैं।  क्योंकि मेहनतकश के  खून -पसीने से विराट सम्पदा बटोरने वालो को इन सभी को साधना आता है।
              जो इनसे पृथक विचार या क्रांतिकारी सिद्धांत और सोच रखते हैं वे  राष्ट्रीय छितिज पर  बिखरे हुए हैं।  इन  गैर भाजपा और गैर कांग्रेस दलों  को एकजुट  करना अर्थात  तराजू पर मेंढक तौलने जैसा दुह्तर  कार्य है ।  क्षेत्रीय दलों सहित तीसरे मोर्चे  को बार-बार पुनर्जीवित करना केवल  वाम मोर्चे  ही प्रयास करता है बाकी सारे तो उछल-कूंद  कर ,आपस में लड़-भिड़  कर 'एक से अनेक ' हो जाने को आतुर रहते हैं।  सिर्फ वामपंथ ही है जो अपनी  बेहतर नीतियाँ  ,कार्यक्रम और संगठनात्म्क क्षमता  से सुसज्जित होकर सही अर्थों में व्यवस्था की है। अतीत की भाँति  इस बार  भी तदनुसार एकजुटता और 'कामन मिनिमम प्रोग्राम 'के  प्रयास शुरूं हो गए हैं ।  तीसरे मोर्चे की और विशेषतः वाम मोर्चे की यह शानदार विशेषता है कि वे  भाजपा ,कांग्रेस या 'आप' की तरह केवल चुनावी गठबंधन या सत्ता प्राप्ति के लिए एकजुट नहीं हो रहे बल्कि  वर्तमान पुरोगामी नीतियों को पलटकर  मानव हितेषी ,सर्व समावेशी वैकल्पिक आर्थिक - सामाजिक और राजनैतिक 'दर्शन' का विकल्प प्रस्तुत करने की क्रांतिकारी सोच  को विमर्श के केंद्र में रखते  हैं। देशी -विदेशी पूँजीपतियों -कार्पोरेट समूहों और विदेशी आवारा पूँजी के मालिकों की कोशिश  यही रहती है कि  बारी -बारी से केवल कांग्रेस या भाजपा ही  देश पर काबिज रहें। चूँकि आर्थिक घोटालों और अंधाधुंध निजीकरण से देश में व्यवस्था परिवर्तन की मांग  उठने लगी है इसलिए बहुत सम्भावना है कि   कांग्रेस और भाजपा -दोनों को ही आगामी चुनावों में सत्ता नहीं मिलने वाली। कार्पोरेट जगत और आवारा पूँजी ने कांग्रेस और भाजपा का पूँजीवादी  विकल्प खुला  रखा है जिसका नाम "आम आदमी पार्टी" है. इसीलिये अभी तो सवाल ज्यादातर केजरीवाल से ही पूंछे जा सकते हैं। वैसे भी शायद पूंजीवादी दलों में केजरीवाल ही हैं जो डॉ मनमोहनसिंग के चेले बन सकते हैं। क्योंकि काम चलाऊ अर्थशाश्त्र तो केजरी को मालूम ही होगा  . नरेद्र मोदी ,ममता ,अखिलेश और लालू  जैसे बदनाम नेता तो माशा अल्लाह केवल अपने -अपने आकाओं के  मुखौटे भर  है।
             अपने-अपने वर्ग-चरित्र के अनुसार सभी दल अपने-अपने   अलायंस के साथ सीटों का तालमेल करने , 'न्यूनतम साझा कार्यक्रम 'तय  करने  के साथ ही  अपने खुद के चुनावी अश्त्र-शस्त्र भी कार्यक्रम और नीतियों की  शान पर चढ़ाकर  धारदार बनाने में जुट गए  हैं। सवाल उठता है कि देश की  जनता क्या चाहती  है ? सवाल यह भी उठता है कि कहीं ऐंसा तो नहीं कि  देश  की  निरक्षरता -जड़ता  और मूल्यहीनता से आबद्ध  आवाम का बहुमत ही  नकारात्म्क  और  दिग्भ्रमित ही न हो ? यह  सवाल इसलिए उठ सकता है कि जनता का अपना खुद का जनमत यदि दिल्ली राज्य वाला ही है तो शीला दीक्षित सरकार को हटाकर मिला क्या ? उपराजयपाल नजीब जंग के बहाने दिल्ली की सत्ता पर तो कांग्रेस का शासन वापिस लॊट आया। क्या  यही जनादेश था ? चूँकि  जनमत बनाये जाने का दौर है,जनता को भरमाने का दौर है इसलिए प्रबुद्धजनों की जिमेदारी है कि निराला की पंक्तियाँ  यादकर  जा जाएँ :-

   "तुम लाल सोते रह गए ,शंकर से सोते रह गए ,इतना न सोना बेटो विस्तार क़ब्र  हो जाये"

                    श्रीराम तिवारी
         

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

शिवराज सरकार महा वेशर्म महाभ्रस्टम महापाखंडी ,



    भ्रस्टाचारम  मध्यप्रदेश राज्ये सर्वत्र  व्याप्तम् ,

    व्यापम अनेकम  मुन्ना  भाई  सदृश्य ख्यातनाम।


    शिवराज सरकार  महा वेशर्म महाभ्रस्टम महापाखंडी  ,

    
  प्रशासने  अपि अन्यत्रै   व्यवसायिक परिक्षा मंडलम।।

       श्रीराम तिवारी
 

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

राष्ट निर्माण -भ्रष्टाचार उन्मूलन और जन सरोकार की चर्चा बनाम व्यक्ति पूजा !



       जिन्हे अपनी ,अपने परिवार की , देश की ,  दुनिया की , मानव समाज की और भावी पीढ़ीयों की  चिंता  है , जो चाहते हैं कि  इस पतनशील सिस्टम को बदलकर एक 'अतिमानवीय', सुसंस्कृत ,उर्ध्वगामी, मानवतावादी  - समतावादी बेहतरीन व्यवस्था कायम की जाए - ऐंसे 'सुपरमैन' केवल काल्पनिक ही नहीं बल्कि  हर देश में  हर   समाज में, हर सभ्यता  में,हर मजहब -धर्म , जाति  और हर दौर में  मौजूद  रहते हैं। भले ही उनके लिए कहा जाता रहा हो कि - "हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पै रोती  है बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा "
                                     वैसे तो मन के  सच्चे , कौल के पक्के  ,सदाचारी, विवेकशील और सर्वजनहिताय वाली -क्रांतिकारी सोच के  नर-नारी  किसी खास देश,  काल ,समाज,जाति  या राजनैतिक पार्टी की वपौती नहीं  हुआ करते।  ये बेहतरीन मानव  सर्वकालिक और सार्वदेशिक और सार्वसामाजिक   हुआ करते हैं ।  वे जाति -धर्म-वर्ण और देश-काल की सीमा से भी परे  हुआ करते हैं।  किन्तु अवतार वादी लोग केवल एक ही व्यक्ति  को नायक मानकर -उसे  अपोरषेय   मानकर उसकी पूजा करने को  भी बैचेन  होते रहते हैं। इनमें केवल  वे ही नहीं हुआ करते जो घंटों पूजा-पाठ करते हैं ,प्रबचन  देते हैं और धार्मिक पाखंडियों  की तरह यौन शोषण और  व्यभिचार में भी  लिप्त रहते हैं।  इनमें केवल  वे भी नहीं होते जो पांच वक्त की नमाज पढ़ते  हैं,मस्जिदों में भड़काऊ तकरीरें देते हैं  और मुल्क को तबाह करने निकल पड़ते हैं। बल्कि वे भी हो सकते हैं जो छद्म रूप धारण कर -  स्वयं भू राष्ट्रवादी होकर -विशाल राष्ट्र का नेतत्व करने का दावा करते हैं।  वे  किसी गेंग लीडर की तरह,किसी फासिस्ट की तरह ,किसी बिगड़ेल सांड की तरह - जबरिया  भावी प्रधानमंत्री  पद की प्रत्याशा  करने  वाले ,अपनी पिछड़ी जाति  के कारण अस्पृश्यता का रोना रोने वाले  नरेंद्र  मोदी भी हो सकते हैं ।
                                                          वे कांग्रेस के युवराज याने राहुल गांधी भी हो सकते हैं. वे कोई ऐरा-गैरा नत्थू-खेरा  या अरविन्द केजरीवाल भी हो सकते हैं। जनता  को मालूम  है  कि  सभी के अपने-अपने सच हैं।  अपनी  जाति -धर्म और समुदाय  की छाती पर चढ़कर  वे न तो महान हो  सकते हैं  और न ही वे  वर्तमान से बेहतर विकल्प दे सकते हैं। यह काम तो केवल जनता के सामूहिक प्रयाशों और सामूहिक संघर्ष से ही सम्भव है। इस  महान कार्य के लिए किसी एक ख़ास नेता की या  व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि पूरी की पूरी कौम के नैतिक - चारित्रिक और भौतिक रूप से  संगठित  अनथक परिश्रम  की दरकार है।  
                         आदर्शवादी सिर्फ  एनजीओ चलाने   वाले  ही  नहीं हुआ करते। जो 'मेगसेसे' जैसा कोई  विदेशी पुरस्कार पा जाते हैं  किन्तु  अपने  वतन की हर चीज को हेय  दृष्टि  से देखने लगते हैं ,वे  आदर के पात्र नहीं हो सकते। जो संघठित समूह  का नेत्तव करते हुए व्यवस्था पर दवाव बनाकर महज अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं।  वे भी सच्चे राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते  जो  अतिसंघर्षशील  तो  होते हैं   किन्तु  बिना आगा-पीछा सोचे-समझे ; बात-बात में  केवल धरना-प्रदर्शन आंदोलन या हड़ताल  करने  को  ही आमादा रहते हैं , वे भी  सच्चे मानवीय आदर्शों  के अनुरूप  नहीं होते। जो केजरीवाल ,राज ठाकरे या नक्सलवादियों की तरह  संविधान का  अनादर करने में अपनी शान समझते हैं. विवेकहीन उत्साहीलाल  स्वयं भू  स्वामी-बाबा-समाज सुधारक और गैर राजनैतिक दर्शन  का  नित्य जाप  करने वाले  भी देश और समाज के पथ-प्रदर्शक नहीं हो सकते। बल्कि सुर्खुरू तो वे ही  होते हैं जो  हमेशा चाहते  हैं कि समाज के हर क्षेत्र में  खास  तौर  से राजनीति में   साम्प्रदायिकता  ,  जातिवाद , अप्रजातांत्रिक -अराजकता , हिंसक आलोचना  और व्यक्ति पूजा को  महिमामंडित  न किया जाए।  देश की सम्पदा को सिर्फ कुछः लुटेरों की ऐय्यासी का साधन नहीं बनने  दिया जाए।  सभी को साथ लेकर चलने की भावना  से उद्दीप्त यही  क्रांतिकारी और यही   वास्तविक  राष्ट्रवादी सोच है। वास्तविक राष्ट्रवाद वो नहीं जो बहुसंख्यकता के दम्भ से  घृणा  -नफरत और हिंसा  का बीजारोपण करता है।  अल्पसंख्यकवाद ,जातिवाद और संघठित समूहों  की ताकत का  बेजा दबाब डालकर  निहित स्वार्थों की पूर्ति  में लिप्त कोई भी -कितना भी बड़ा व्यक्ति या नेता क्यों न हो, सत्ता का लाभ   उठाने वाले ऐंसे  अवसरवादी  कभी भी 'सच्चे -राष्ट्रवादी नहीं हो सकते।
          अण्णा हजारे जैसे अनेक  स्वनाम धन्य नकली  क्रांतिकारी  तत्व  जो  वर्तमान व्यवस्था को रात-दिन  गरियाते  रहते  हैं।  वे  इसी सिस्टम के हाथों  पुरस्कृत किये जाने  की कामना से भी  आकंठ बिंधे हुए  रहते हैं। उनसे जब राजनीति  में आकर  इस पाखंडपूर्ण  सिस्टम को बदलने की बात करो  तो वे दम दवाकर या तो  व्यवस्था शरणम गच्छामी हो जाते हैं या केजरीवाल जैसे असफल आफीसर -कम -अर्धकुशल नेता को राजनीति  के चक्रव्यूह में फड़फड़ाता देख ,उसके हश्र को चटखारे के साथ वयाँ  करने लगते हैं। उन्हें कभी नरेद्र मोदी ईमानदार लगते थे अब  महा पाखंडी और दम्भी ममता बेनर्जी पाक साफ़ दिखने लगी  है। ऐंसे उजबक और ईमानदारी के ठेकेदारो को  जनता  और मीडिया जब तक सम्मान देता रहेगा तब तक देश में इसी तरहग राजनैतिक कुकरहाव मचता रहेगा। 
                                स्वामी रामदेव,किरण वेदी ,संतोष हेगड़े ,मेघा पाटकर मल्लिका सारा भाई  और अन्य  अनेक विख्यात  सामाजिक कार्यकर्ता ,एनजीओ संचालक , और राजनीति का महत्वपूर्ण एवं ताकतवर - गैर कांग्रेसवादी -गैरभाजपाई केवल  इस सोच के लोग  हैं कि देश में भगतसिंह तो पैदा हो किन्तु उनके घर में नहीं ! वे शहादत के लिए अपनी अंगुली तो क्या नाखून भी कटाने के लिए तैयार नहीं हैं। याने सच्चे -राष्ट्रभक्त होने का दम  भरने की दम्भवाणी  से  लोक-कुख्यात -स्वघोषित क्रांतिकारी कहे  जाने वाले ये लोग कल  तक   केवल  'आप' के असमय निधन की वाट जोह रहे थे ।अब देश में केंद्र की सत्ता के लिए गरेबाँ  तोड़ने को उतारू हैं।

                                          उनकी मनोकामना पूरी हो गई ।  दुर्जन राजनीति  के  दोगले लोग  ४९ दिन तक लगातार केवल  अरविन्द केजरीवाल  और 'आप'  के हजारों दोष एक सांस में गिनाते रहे किन्तु जन-लोकपाल या भृष्टाचार निरोध के बरक्स कोई सार्थक चेष्टा उन्होंने नहीं की।  क्रूर काल के इतिहास  में  ये स्थापित राजनीति  के धूर्त  चालाक  शकुनि  स्वयं निष्पाप नहीं हो सकेंगें।  जिस तरह कृष्ण के उकसावे पर संकटगरस्त कर्ण  को अर्जुन ने न  चाहते  हुए भी बाणों से बींध दिया था, जबकि उसके रथ का पहिया कीचड़ में फंसा हुआ था।  इसी प्रकार अल्पमत 'आप'  की सरकार  को  कांग्रेस +भाजपा + भृष्ट पूँजीपति +रामदेव  +किरण वेदी + पागल मीडिया +वगैरह बगैरह   . . .  ! सभी ने मिलकर उन्हें मैदान छोड़ने पर मजबूर कर ही दिया। 'आप'  को  आधी -अधूरी सत्ता  तो  मिली किन्तु बिना नख-दन्त के बिना पुलिस  प्रशाशन  पर नियंत्रण के अधिकार के  इस संकट की वेला में  'आप' का  मार्ग दर्शन करने को कोई तैयार नहीं था। सब कृष्ण की तरह उसे निरतर भड़का रहे थे कि  "चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे "चारों ओर  से उसे हांक लगाईं जा रही थी -आक्रमण  ! आक्रमण ! !  भृष्टाचार पर आक्रमण ! बिजली बिलों पर आक्रमण ! पानी बिलों पर आक्रमण ! बलात्कारियों पर आक्रमण !  किन्तु उन्हें सही राह दिखने वाले दूर से ही तमाशा देख रहे थे.उन्हें जिज्ञाषा थी  कि ये धूमकेतु कब अस्त होता है ?  कोई सार्थक या सकारात्मक मदद  कर ना  उन्हें गवारा नहीं  हुआ   हाई टेक  मध्यम  वर्गीय युवाओं को तो  किसी भी राजनैतिक विचारधारा के सार्थक विमर्श से कोई वास्ता नहीं।  यह वर्ग घोर-दासत्व बोध  से पीड़ित होकर अधिनायकवाद,  व्यक्तिवाद  ,अराजकतावाद और मौका परस्त  नेताओं के पीछे भागने के लिए मशहूर है।  वैसे तो  अपना केरियर और अपनी निजी आकांक्षाएं ही उसका  अभीष्ट है।  किन्तु बाज मर्तवा वह र्भृष्ट व्यवस्था से ठोकर खाने के बाद क्रांतिकारी लफ्फाजी के बहकावे में आ जाता है। लफ्फाजी करने  वाले नेताओं के पीछे भी  भागने लगता है।  जैसा कि इन दिनों वह कभी मोदी ,कभी राहुल और कभी केजरीवाल के पीछे भागता हुआ नजर आता है।  सर्वहारा के शोषण का ,मुनाफाखोरों का और पूँजीवादी  व्यवस्था का  राजनैतिक  दर्शन  समझने वाले किसी व्यक्ति विशेष के पीछे नहीं भागते , बल्कि वैज्ञानिक -   सिद्धांतों और क्रांतिकारी प्रगतिशील  विचारों के अनुसार सामूहिक नेत्तव और सकरात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन के समर्थक हुआ करते हैं। ऐंसे लोग वेशक  भारत में  करोड़ों  हैं. किन्तु मौजूदा दौर की राजनैतिक -सामाजिक , आर्थिक  और सांस्कृतिक विसंगतियों  के  कारण संगठित नहीं हैं। जनहितेषी - मूलगामी मुद्दों  पर, देश की जनता को एकजुट करने  और अभीष्ट की आकांक्षा पूरी करने  के रास्ते पर वे अब भी  अडिग हैं । वे देश में 'असली-लोक तंत्र'  की स्थापना और सुराज कायम करने के लिए  केवल संसदीय लोकतंत्र की   राजनीति  के कुरुक्षेत्र में  ही  अपना शोर्य  दिखाने में यकीन नहीं करते । बल्कि जल-जंगल -जमीन और समूचे  राष्ट्रीय  संसाधनों का न्यायपूर्ण बटवारा करने के प्रबल  पक्षधर भी  हैं।  उन्हें मालूम है कि केवल नकारात्मक आलोचना का  कोई   औचित्य नहीं  हो सकता है ?  बल्कि क्रांति का पथ अनवरत आबाद होना चाहिए।
                     कम्युनिस्ट या वामपंथी   कभी किसी व्यक्ति विशेष को राष्ट्र का कर्णधार ,नेता या प्रधानमंत्री जैसे पद का प्रत्याशी मानकर नहीं  चला  करते।  वे  सिद्धांतों ,नीतियों , कार्यक्रमों और निर्मम संघर्ष  के  प्रवल   पक्षधर भी   हुआ करते  हैं.  चूँकि ऐंसे विचारवान  नागरिकों  की संख्या  कम नहीं है ,और जनता के सवालों का हल केवल उन्ही के दर्शन में निहित है  इसीलिये वाम मोर्चे का  भविष्य अभी भी उज्जवल है । वर्तमान  दौर  की  पूंजीवादी  व्यवस्था ,पूंजीवादी   मीडिया ,साम्प्रदायिक घटाटोप और आवारा पूँजी ने राजनीति  को इतना गंदला कर दिया है कि पढ़े -लिखे युवा भी वैचारिक चिंतन से परे ,राष्ट्र-समाज का हित -अनहित जाने बिना केवल   व्यक्ति विशेष के पीछे भाग रहे  हैं।  यही वजह है कि  इन दिनों  क्रांति की कोई बात नहीं करता।  अधिकांस  भारतीय केवल सत्ता परिवर्तन की संसदीय राजनीति  और 'महानायकवादी' मृगमारीचिका में  ही विचरण कर  रहे हैं। कोई मोदी ,कोई राहुल और  कोई  केजरीवाल की चर्चा कर रहा है।  राष्ट्र निर्माण ,भृष्टाचार उन्मूलन  , महंगाई नियंत्रण,मुद्रा -अवमूलेन , पानी-बिजली -आजीविका  इत्यादि जुटाने  के विषय  पीछे रह गए हैं।  खुदा खैर करे !

                               श्रीराम तिवारी    

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

'आप' की असफलता से भृष्टाचार की लड़ाई कमजोर होगी !



 जिन लोगों को उम्मीद थी कि कांग्रेस के महाभ्रष्ट तथा  भाजपा के सीमान्त भ्रस्ट एवं  साम्प्रदायिक वीभत्स रूप से 'आप' का चेहरा  कहीं ज्यादा सुन्दर -सुदर्शन ,पवित्र और सकारात्मक  है उन्हें कल  की उस  घटना से गहरा आघात लगना स्वाभाविक है जो दिल्ली विधान सभा में और उसके बाहर सड़कों पर भी परिलक्षित हुई। कल याने  १४  फरवरी -२०१४ को दिल्ली विधान सभा में  जो कुछ  सम्पन्न हुआ  या जो कुछ भी  असंसदीय या अलोकतांत्रिक और अप्रिय घटित हुआ  वह भाजपा ,कांग्रेस और  'आम आदमी पार्टी' के अपने-अपने आकाओं द्वारा  पूर्व नियोजित और पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के अनुसार ही सम्पन्न हुआ है। अब इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में भृष्टाचार की गटर गंगा को साफ़ करना मुश्किल ही नहीं असम्भव सा ही है। कांग्रेस की दिल्ली विधान सभा में करारी हार के बरक्स मात्र ८ विधायकों होने पर भी उसकी  यह सीमित ताकत भी भ्रस्ट व्यवस्था के पक्ष में  शानदार राजनीति  करने में सफल  रही.  भाजपा अपनी विराट ताकत के वावजूद केवल केजरीवाल को 'अकुशल' नेता सावित करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद करती रही।
                       विगत ४९ दिनों में और कल के घटनाक्रम में  अरविन्द केजरीवाल समेत 'आप' के अधिकांस  नेता  न केवल  जल्दवाज़,अपरिपक्व   और घोर  अराजकतावादी  सिद्ध हुए   हैं बल्कि कांग्रेस और भाजपा  के खिलाफ उपजे  नकारात्मक जनाक्रोश की अल्पकालिक  परिणिति  जैसे नजर आये हैं।  अब से लगभग दो  महीने पहले सम्पन्न  विधान सभा चुनाव  के उपरान्त  दिल्ली राज्य की  त्रिशंकु विधान सभा  में भाजपा  के  सबसे बड़ी पार्टी[३२ विधायक]  होने  के वावजूद,  उसके लिए सत्ता के अंगूर  निरंतर खट्टे रहे हैं ।कांग्रेस के पास दिल्ली की सत्ता में  खोने के लिए कुछ नहीं था फिर भी  उसकी लँगोटी  बच गई. देश की राजनीति  में खास तौर  से दिल्ली राज्य की राजनीति  में  'आप' के - बतौर एक नूतन एवं  अभिनव  प्रयोग  के -दिल्ली राज्य   सत्तारोहण का अधिकांस देशभक्तों ने तहेदिल से समर्थन  ही किया था। किन्तु 'अति सर्वत्र वरजयेत्'  का सूक्त वाक्य 'आप'  ही नहीं समझ पाये तो इसमें किसका कसूर है ?कांग्रेस तो अभी भी कह रही है कि  उसका समर्थन अभी भी  'आप' को ही जारी है।
                 वेशक भाजपा ,कांग्रेस और 'आप' ने आगामी लोक सभा चुनावों के मद्देनजर अपनी-अपनी चालें बड़ी सावधानी से  चलीं हैं।  इन तीनों दलों  ने न केवल  भारतीय  संविधान की धज्जियाँ  उड़ाईं हैं बल्कि प्रजातांत्रिक कार्यप्रणाली को भी रसातल में दफन कर दिया है।जनता के सवाल तो अब  केवल नारे रह गए हैं महंगाई  , भ्रस्टाचार और लोकपाल  इत्यादि मुहावरे तो  इन पूँजीवादी  दलों के सत्ता  प्राप्ति संसाधन मात्र हैं। भाजपा ने सर्वाधिक सीटें [३२] मिलने के वावजूद सरकार बंनाने की कभी गम्भीर कोशिश नहीं की क्योंकि  'आप' के तथाकथित उज्जवल धवल चरित्र से भयाक्रांत -संघ का यही फ़रमान  था।  ऐसे भी  संघ परिवार और उसके अनुषंगी राजनैतिक संगठन भाजपा का लक्ष्य २०१४ के लोक सभा चुनाव हैं। चूँकि दिल्ली  की जनता ने  सरसरी तौर  पर  गैरकांग्रेस-गैरभाजपा  का जनादेश दिया था । इस खंडित  जनादेश की परिणिति जनाक्रोश के रूप में प्रकट हुई थी.जिसे लोगों ने आम आदमी पार्टी   के रूप में नाम  व्यक्त  किया था। अपने ४९ दिन के राजनैतिक जीवन  में  दिल्ली राज्य की 'आप' सरकार ने जो कुछ भी किया है  वो भले ही सब कुछ कूड़ेदान में फेंकने लायक हो किन्तु  'आप' का यह ऐलान पूर्णतः विश्वसनीय है  कि "अम्बानी ने कांग्रेस और भाजपा को एक जुट कर आप को असफल करने का हुक्म दिया दिया है  "  यही सच है। १९५८ में केरल की ई एम् एस नम्बूदिरीपाद   के नेत्तव में वामपंथी  सरकार  से लेकर बंगाल की  वामपंथी - वुद्धदेव सरकार को  षड्यंत्रपूर्वक गिराने और पूँजीपतियों  की समर्थक सरकार स्थापित करने का सिलसिला  आजादी के बाद से ही भारत में  चलता आ रहा है। कभी कभी तो  केवल भारत के पूँजीपति  ही नहीं बल्कि अमेरिका के राजदूत  ,सीआईए और  दुनिया भर के चोट्टे भी वामपंथ और कम्युनिस्टों के खिलाफ  यही सब करते रहे हैं जो इन दिनों 'आप' के साथ हो रहा है।  अब केजरीवाल की पीड़ा  के मार्फ़त देश की जनता को  असलियत समझने में सहूलियत होनी चाहिए।
                 हालांकि यह खबर उनके लिए कतई नई या आश्चर्यजनक    नहीं है जो विगत ६६ साल से  यही  बात दुहराते आ रहे हैं। बल्कि अकेले अम्बानी के खिलाफ  नहीं ,अकेले टाटा के नहीं ,अकेले बिड़लाओं के नहीं बल्कि सम्पूर्ण कार्पोरेट जगत और उसके साथ-साथ  हजारों एकड़ उपजाऊ जमीनों पर काबिज भूस्वामियों के निमित्त भी देश के कुछ प्रगतिशील लड़ाकू और क्रांतिकारी तत्व  अनवरत संघर्ष करते चले आ रहे हैं।  मेरा अभिप्राय वाम पंथ और   साम्यवादियों से है  .केजरीवाल और उसके समर्थकों  का ज्ञान केवल  विधि के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि भारत के राजनैतिक  - सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भी नगण्य ही है।  यही वजह है कि बेहतर और पवित्र उद्देश्य के वावजूद  आज 'आप' के नेता संदेहास्पद स्थति में पहुँच चुके हैं। यदि वे समझते हैं कि जन-लोकपाल के बहाने सत्ता से भागकर अपनी अकर्मण्यता को छिपाकर  आइंदा वेहतर राजनैतिक परफार्मेंस दे सकेंगे तो ये उनके लिए खामख्याली ही सावित होगी।  मोदी के आकर्षण  और 'आप' के विक्रर्षण में  जनता ३२ से ३६  सीटें भाजपा को क्यों नहीं देगी?
                        जिस  शीला दीक्षित ने १५ साल तक अनेक झंझावातों का मुकाबला कर दिल्ली को चमन बना दिया उसे और उसकी कांग्रेस को  पुनः  दिल्ली की जनता वापसी क्यों नहीं करा सकती ? केजरीवाल और 'आप' को समझना चाहिए कि आप' कहीं  भी किसी भी  मुद्दे पर  शीला सरकार से बेहतर नहीं कर पाये हैं।  वेशक  आप मीडिया में अंगली कटाकर  वीरगति को  प्राप्त होते रहें  किन्तु  जनता  'आप' के अनुप्रयोगों का  चारा नहीं बनना  चाहेगी।  आइंदा जो भी चुनाव होंगे जनता  'आप' से मुक्त होना चाहेगी।  वैसे भी अम्बानी या  अन्य पूँजीपति  तय कर चुके हैं कि इस बार वे मोदी को ही मौका देंगे। ये बात अलग है कि कांग्रेस के चतुर चालाक   नेता तीसरे मोर्चे की भाजी में अपने घी का तड़का मार दें और मोदी पी एम् इन वैटिंग ही रह जाएँ। जनता  तो  बदलाव चाहती है।   सुख समृद्धि और शांति चाहती है।  उसे 'आप' के  अराजकता पूर्ण  आन्दोलनों से नफरत सी हो चली है। वैसे भी  धरना -प्रदर्शन -हड़ताल अब क्रांति के नहीं बल्कि  भ्रान्ति के कारक और  रचनातमक राजनीति  को जनता से दूर होने के साधन बन गये हैं ।  आज का युवा  उसी को पसंद करता है जो उसको जाब दिलवाने  की बात करता है ,जो  कंप्यूट्रर  ,संचार क्रांति और  अधुनातन वैज्ञानिक अनुसंधनों को जन-जन तक पहुँचाने की बात  करता है। जो बहरत की नहीं 'इण्डिया ' की बात करता है।  चूँकि केजरीवाल और आप के  नेता   दिल्ली राज्य की राजनीति  छोड़ - देश  की  बड़ी राजनीति[संसद]  के तलबगार हो गए हैं इसलिए उन्हें यह जानना और करना जरूरी था।  'आप' को  शानदार  मौका मिला था किन्तु  आप जब दिल्ली राज्य  की सरकार चलानमे में ही असफल   रहे हैं  तो सम्पूर्ण भारत याने विराट   भारत की बागडोर 'आप' को कोई क्यों सौंप देगा ?
   
     श्रीराम तिवारी         
                            

देख चुनौतियाँ डर गए ,'आप' केजरीवाल !

       भृष्टाचार विरोध से ,जन्में 'आप' महान।

      दिल्ली की सत्ता मिली ,बढ़ी 'आप' की शान।।



      असमय 'आप'  के पतन से ,सुखी संघ परिवार।

         पूरे देश में  भाजपा ,कार्यालय गुलजार।।


       बिना सींग के साँड़   सी  ,सूरत भई  बदहाल।

        अंगुली कटा  शहीद  भये , 'आप' केजरीवाल।।


       व्यक्तिवाद  नेतागिरी ,बिन विचार सिद्धांत।

      'आप' लोग सावित हुए ,अधकचरे दिग्भ्रांत।।


         कांग्रेस और भाजपा ,पृथक रूप गुण धाम ।

         भृष्टाचार के कूप  हैं   ,  इसीलिये  बदनाम ।


       जब से छेड़ी 'आप' ने , भृष्टाचार से जंग।

      जनता  ने जम कर  दिया   ,खूब 'आप'  का  संग।।


     लोकपाल बिल  दुर्दशा ,देख  सभी जन- दंग।

       सब जग ने  देखा सूना ,एल जी का रंग  ढंग ।।


       भृष्टाचार विरोध का ,झूंठा मचा बबाल।

       देख  चुनौतियाँ  डर  गए ,'आप' केजरीवाल ।।


       राजनीति  में  घुल चुकी  ,पूँजीवाद  की  भंग।

       कांग्रेस और भाजपा ,दोउ अम्बानी  संग।।


                     श्रीराम तिवारी


     

    


    


      


    


     

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

भारत की मेहनतकश जनता खुद अपने वर्ग की सत्ता के लिए संघर्ष क्यों नहीं करती ?

    

  गनीमत है कि  इंटरनेसनल मॉनिटरी फंड याने 'आईएमएफ 'की वर्तमान मेनेजिंग डायरेक्टर महोदया -   क्रिस्टीना लेगार्ड की अंतरात्मा जागृत हो गई और उन्होंने वो सच कह दिया जो दुनिया के सरमायेदारों को उचित नहीं लगा होगा ! भारत और अमेरिका के पूँजीपतियों  को तो क्रिस्टीना लेगार्ड का यह  खुलासा  कतई  पसंद नहीं  आयेगा।  लन्दन में आयोजित किसी सेमीनार के अवसर पर अपने लिखित दस्तावेज  में उन्होंने आईएमएफ की गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर बजा फरमाया कि "दुनिया में अमेरिका और भारत जैसे दो बड़े जनतांत्रिक देशों में आर्थिक असमानता की खाई खतरनाक स्तर  पर जा पहुँची है.भारत में अरबपतियों के नेट बर्थ पिछले १५ सालों में १२  गुना   बढ़ी हैं, जो इस देश में दो बार गरीबी पूरी तरह से खत्म करने के लिए पर्याप्त है" उनका यह भी कथन उल्लेखनीय है कि " आर्थिक सुधारों और उन्मुक्त बाजारीकरण से  दुनिया के ज्यादातर देशों में असमानता बढ़ रही है.  किन्तु अमेरिका और भारत में असमानता की दर भयावह है। खास तौर  से  दुनिया  के १० में से ७ लोग  भारत में रह रहे हैं जो निर्धनता की मार झेल रहे हैं "  आईएमएफ की एमडी क्रिस्टीना लेगार्ड  के  द्वारा  प्रस्तुत लेक्चर पत्रिका के अनुसार भारत एक ऐंसा अमीर देश है जहां दुनिया के सर्वाधिक गरीब और पिछड़े लोग रहते  हैं। आर्थिक असमानता की इस  भयावह तश्वीर को लेकर  वाम मोर्चे ने और सीटू -एटक ने हजारों बार  धरना  -प्रदर्शन और आंदोलन किये हैं. भारत के गरीब मजदूर -किसान और सर्वहारा  बुरी तरह अशिक्षित होने, आपस में बँटे  होने से राज्य सत्ता पर अपनी पकड़ बनाने में  अभी तक सफल   नहीं हो  पाये हैं. चूँकि कांग्रेस और भाजपा का वर्ग चरित्र पूंजीवादी और अर्ध सामंती है इसलिए वे पूँजीपतियों  और बड़े किसानों की जी हजूरी करते रहते हैं। भारत में  आर्थिक असमानता का ग्राफ दुनिया में  सबसे बदतर है फिर भी यहाँ   सब कुछ शांत है. यह एक दुखांत बिडंबना है कि  भारत के गरीब और निर्धन -जन   ज़रा ज्यादा ही  कभी मोदी कभी राहुल या किसी और पूंजीवादी एजेंट  को जिताने की बात तो  करते हैं. किन्तु  भारत की मेहनतकश जनता खुद अपने वर्ग की सत्ता के लिए  संघर्ष क्यों नहीं करती ?

                      श्रीराम तिवारी    

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

मोदी -राहुल और केजरीवाल तीनों ही 'बेस्ट' नहीं हैं!



आगामी लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आते जा रहे हैं,त्यों-त्यों लगातार मीडिया प्रायोजित सर्वे में  भावी प्रधान मंत्री हेतु - नरेंद्र मोदी अव्वल , अरविन्द केजरीवाल  दूसरे  और राहुल गांधी तीसरे नंबर पर आम  जनता की  पसंद बताये जा रहे हैं. कहीं-कहीं कभी-कभार लाल कृष्ण आडवाणी ,शिवराजसिंह, नीतीश ,मुलायम, शरद पंवार ,नंदन निलेकणि  या किसी अन्य व्यक्ति विशेष  को  भी  इन तथाकथित सर्वे में भारत  के   भावी  प्रधानमंत्री पद  का सपना देखने को उकसाया   जा रहा है।डॉ मनमोहनसिंह  की , सोनिया गांधी की या  किसी अन्य कांग्रेसी की  नेत्त्व कारी भूमिका की  अब कोई चर्चा नहीं करता।  आगामी लोक सभा चुनाव उपरान्त  केंद्र सरकार के गठन  और उसके मुखिया याने प्रधानमन्त्री के चयन में  जिस तीसरे मोर्चे की सबसे  अहम भूमिका होगी उसकी - या जो  वास्तव में २०१४ के संसदीय चुनाव उपरान्त भारत का प्रधान मंत्री बनेगा-उसकी चर्चा  अभी तक तो बहुत कम ही  हो रही है।
          अपवाद स्वरुप  सिर्फ वाम मोर्चा ही है जो व्यक्तिवादी सोच से परे  विशुद्ध प्रजातांत्रिक तौर -तरीके से  सभी गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई पार्टियों को एकजुट करने का सतत प्रयाश करता  रहा है।  विगत दो दशक से निरंतर  वाम मोर्चे ने  तीसरे मोर्चे को  न केवल  'रूप -आकार' देने  में - एकजुट करते हुए  बल्कि  'सार रूप' में  भी   हमेशा  नीतियों  के बदलाव की भी  बात  की  है । वाम मोर्चे की अगुआई में  ही  दिल्ली में सम्पन्न  ११ दलों का सम्मेलन- केवल आगामी लोक सभा चुनाव में अपनी  संसदीय ताकत को बढ़ाने  तक ही सीमित नहीं है बल्कि देश को सही नेत्तव देने -महँगाई  -भृष्टाचार पर अंकुश लगाने ,अमीर-गरीब के बीच बढ़ रही खाई को कुछ कम करने ,साम्प्रदायिक उन्माद पर रोक लगाने , वैशविक परिप्रेक्ष्य में भारत की गरिमा पूर्ण उपस्थिति हेतु प्रयास करने के साथ-साथ अन्य और भी महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये हैं। वाम दलों  -सीपीआई  [एम्]  , सीपीआई ,सपा,जदयू,जदएस ,एआईडीएमके, बीजद असम  गण परिषद् , आरएसपी ,फॉर बर्ड ब्लाक  तथा झारखंड विकाश मोर्चा इत्यादि दलों ने अपनी बैठक में निर्णय लिया है कि  वर्तमान  चालू सत्र  में यूपीए सरकार द्वारा प्रस्तुत  बिलों को देश हित में ही पारित कराएंगे। संसद को  सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का ' चुनावी लांचिंग  पैड ' नहीं बनने  देंगे। कोई भी बिल बिना चर्चा के  हो-हल्ले या  अँधेरे में पारित नहीं होने दिया जाएगा तीसरे मोर्चे में मायावती ,ममता इत्यादि भी शामिल होना चाहते हैं किन्तु मायावती  सपा से और ममता को माकपा से  परेशानी है इसलिए उन्हें अभी तो इस अलायंस में आमंत्रित ही नहीं किया गया। 
                    भाजपा  के  पीएम इन वेटिंग -   नरेंद्र मोदी , 'आप' के अरविन्द केजरीवाल  और  कांग्रेस के  राहुल गांधी  - ये  तीनों ही शख्स सकारात्मक सोच में या शैक्षणिक योग्यता में   जब सीधे सादे -  डॉ मनमोहनसिंह के घुटनों तक  भी नहीं आते   तो  वाम मोर्चे के  क्रांतिकारी सोच वाले,ईमानदार छवि वाले ,दिग्गज  कामरेडों  के समक्ष  या  नीतीशकुमार ,शरद यादव  ,नवीन पटनायक , मुलायम  सिंह या  जय ललिथा  जैसे  खुर्राट नेताओं  के  सामने ये क्या खाक  टिक पाएंगे।  राजनीती से बाहर देश के सभ्य समाज  में तो सैकड़ों नहीं  हजारों ऐंसे हैं जो इन अधकचरे  - अपरिपक्व नेताओं याने मोदी ,केजरीवाल और राहुल  से कई गुना बेहतर राजनैतिक सूझ- बूझ और नीतिगत समझ रखते हैं।लेकिन  भारत का जन-मानस  खंडित होने से  एकजुट नहीं हो पाता। इसी- लिए जनादेश भी खंडित मिलने की पूरी सम्भावनाएं निरंतर मौजूद  हैं। भारत का आम आदमी - वर्तमान व्यवस्था  से इतना  उकता  चूका है कि  वर्तमान विनाशकारी नीतियों को  नहीं बदल पाने की कुंठा में केवल एक  - दो  नेताओं  को ही  बदलते रहने  के सनातन  विमर्श में फिर से उलझ  गया है। यही वजह है कि विभिन्न सर्वे में नीतियों -कार्यक्रमों ,मूल्यों या  सिद्धांतों पर नहीं व्यक्ति विशेष या नेता विशेष  पर मीडिया का  फोकस जारी है.
            सर्वे में उभारे जा रहे इन  तीन नामों -मोदी ,अरविन्द और राहुल  से तो  डॉ मनमोहनसिंह  ही  बेहतर  हैं।  वेशक यूपीए -१ के समय चूँकि वामपंथ का बाहर से समर्थन था इसलिए घोर पूँजीवादी -सुधारवादी मनमोहनसिंह  को भी तब  'वाम मोर्चे ' के दवाव में ही सही मनरेगा ,आरटीआई ,खद्यान्न सब्सिडी इत्यादि लोकोपकारी निर्णय लेने पड़े।   लेकिन  यूपीए -२ का कार्यकाल वेहद  निराशाजनक ही  रहा है. केवल भ्रष्टाचार  , मॅंहगाई  और रेप ही देश को कलंकित नहीं कर रहे बल्कि और भी गम हैं जमाने में इनके सिवा।  जनता ने यूपीए को विगत दिनों सम्पन्न विधान सभा चुनावों में अच्छी नसीहत दी और तब कांग्रेस और उसके नेता नंबर -दो  राहुल गांधी ने कमान अपने हाथ में ले ली। यही वजह है कि  विगत दो सप्ताह में यूपीए सरकार ने अनेक  लोक -लुभावन और  वोट-पटाऊ  निर्णय लिए हैं। सब्सिडी वाले एलपीजी  गेस सिलेंडरों की संख्या - पहले ६ फिर ९ और अब १२ करने ,सीएनजी  पीएनजी के दाम घटाने ,सब्जियों का प्याज का निर्यात रोकने और रिजर्व बेंक के मार्फ़त मौद्रिक नीतियों में साहस पूर्ण बदलाव करने  से  निसंदेह महँगाई  कुछ  कम हुई  सी लगती है। विगत दो सप्ताह से  मध्यप्रदेश के मालवा और खास तौर  से  इंदौर मण्डी  में २ रुपया किलो टमाटर और ४ रुपया किलो आलू -प्याज  के लेवाल नहीं मिल रहे। इंदौर  की चोइथराम मंडी से  अधिकांस सब्जियां  १० रुपया किलो से कम में  बिक रहीं  हैं। किराना खेरची भाव तो कम नहीं हुए किन्तु थोक में  शक्कर ,तेल  तुअर दाल  ,  चना ,गेंहूं, मूंग,मोटा अनाज , सोयाबीन  और अन्य खाद्द्यान्न  के भाव या तो स्थिर हैं या कम हुए हैं।
                   दूसरी ओऱ यूपीए -२  सरकार ने केंद्रीय कर्मचारियों और सार्वजनिक उपक्रमों समेत तमाम संगठित क्षेत्र के  मजदूरों-कर्मचरियों को  बम्फर महंगाई भत्ता का अबाध  भुगतान  किया  है। सातवें वेतन आयोग की  स्थापना भी  कर दी गई है।  इसके परिणाम स्वरुप निजी क्षेत्र में भी मजदूर -कर्मचारियों के वेतन -भत्तों में बृद्धि का जोर दिखने लगा है। अकेले आई टी सेक्टर में ही लगभग ४०% युवा अपने  वर्तमान  रोजगार को महज इसलिए छोड़ने पर आमादा हैं कि उन्हें ३० से ४० % बढे हुए वेतन की दरकार है। ये बदलाव केवल वैश्विक या युगांतकारी परिवर्तनों से ही नहीं बल्कि  केंद्र सरकार  की तात्कालिक  सुधारात्मक क्रियाओं से भी सम्भव हुआ है।  यह सच है कि विगत विधान सभा चुनाव में बुरी तरह हार का मुँह  देखकर कांग्रेस के खुर्राट नेताओं ने राहुल गांधी के मार्फ़त  मनमोहनसिंह पर इन जन-कल्याणकारी नीतियों के अमल का दवाव बनाया  होगा । वेशक इन सकारात्मक परिवर्तनों का  श्रेय राहुल गांधी को ही दिया जाएगा क्योंकि वे ही  कांग्रेस की ओर  से भारत  के अघोषित 'भावी  प्रधान मंत्री' हैं ।    किन्तु  फिर भी  देश की अधिसंख्य जनता को राहुल गांधी पर अभी  उतना भरोसा  तो नहीं  है कि उनकी पार्टी कांग्रेस को या यूपीए को रिपीट कर सकें। 
                            मैं सलमान खान के उस बक्तव्य का स्वागत करता हूँ जो उन्होंने मकर संक्रांति के अवसर पर अपनी फ़िल्म 'जय हो' के प्रमोशन के अवसर पर दिया था।  जिसमें उन्होंने कहा था  कि  'नरेंद्र मोदी गुड मेंन  हैं ' किन्तु   जब उनसे पूंछा गया कि मोदी प्रधान मंत्री के काबिल हैं या नहीं तो सल्लू मियाँ का  जबाब था  कि  'देश का प्रधान मंत्री तो 'बेस्ट' मेन ही   होना चाहिए' ।   क्या शानदार जबाब है ! लाजबाब ! उस समय मोदी जी की सूरत जिस-किसी ने भी  देखी हो बिलकुल पिटे हुए मोहरे जैसी या चल चुके कारतूश  जैसी हो गई थी। सलमान खान ही नहीं हर देशभक्त और समझदार नागरिक यही चाहेगा कि देश का प्रधानमंत्री ही नहीं  , राष्ट्रपति ही नहीं, मुख्य चुनाव आयुक्त ही नहीं ,लोकपाल ही नहीं ,प्रधान न्यायधीश ही नहीं , बल्कि तमाम  प्रमुख पदों पर विराजमान  समस्त नेता , अफसर  ,न्यायविद् और सिस्टम संचालक भी   'बेस्ट' ही हों ! न केवल मोदी , राहुल और केजरीवाल  बल्कि जो भी देश का नेत्तव करेगा उस को भी सिद्ध करना होगा कि  वो सवसे 'बेस्ट' है. 
                 जो नेता ,अफसर  और राजनयिक  देश और दुनिया का भूगोल और इतिहास ही नहीं जानते ,देश की सामाजिक -सांस्कृतिक विविधताओं के अंतरसंबंधों को ही  नहीं जानते  वे भले ही लोक सभा में,शाशन-प्रशासन में , सत्ता के समीकरण में  अपनी पेठ बना लें  किन्तु भारत जैसे विशाल राष्ट्र  का नेतत्व करने की काबिलियत के लिए 'बेस्ट' होना जरूरी है। नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल - इन तीनों में  ही'बेस्ट' होने का  माद्दा  नहीं है। साझा सरकारों या गठबंधन के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का  महत्व जाने बिना ,रोजगार के अवसरों की तलाश  , बढ़ती आबादी  पर नियंत्रण , पर्यावरण की समस्या ,पड़ोसी राष्ट्रों समेत विश्व की चुनौतियाँ ,  महँगाई  पर  नियंत्रण का सूत्र ,ऊर्जा संकट  का निदान और   मौजूदा जातीय -साम्प्रदायिक उन्माद की  चुनौतियों  के समाधान प्रस्तुत किये  बिना ये तीनों ही अधूरे नेता हैं।  केवल एक- दूसरे  की लकीर को पोंछने में लगे ये तीनों नेता -मोदी ,राहुल और केजरीवाल - खास तो क्या 'आम नेता ' भी नहीं हैं।
                               सर्वे करने वाले और करवाने वाले याद रखें  कि उनके निहित स्वार्थ और उनकी चालाकियों  को भी जनता खूब समझने लगी है. जनता ने  जिस तरह  २००४ में ,२००८ में सर्वे फेल किया था वैसे ही २०१४ में भी भारत की जनता आगामी लोक सभा चुनाव में इन  प्रायोजित पूर्वानुमानों को फेल  कर देगी।नरेद्र मोदी को सिर्फ उतना ही बोलना -करना और लिखना  आता है जितना  वे 'संघ की शाखाओं ' में सीख पाये  हैं । इसके अलावा जब भी वे बढ़चढ़कर  भाषणबाजी या शाब्दिक लफ्फाजी करते हैं तो वाकई  'फेंकू' जैसे ही लगने लगते हैं। जबसे वे  गुजरात के मुख्यमन्त्री बने हैं तबसे उन्हें ये इल्हाम सा  हो गया है कि वे पूरे भारत को गुजरात बना देनें [गोधरा नहीं ] की क्षमता रखते हैं।आधुनिक युवाओं  को  लुभाने  , एनआर आई को लुभाने ,कांग्रेस  - राहुल और सोनिया गांधी  की निरंतर आलोचना करने,मीडिया को मेनेज करने  की अतिरिक्त  योग्यता के होने के वावजूद मोदी अभी तक देश को ये नहीं बता पाये कि  यदि  वे वास्तव में ईमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ नेता हैं तो  लोकायुक्त ,सीबीआइ , लोकपाल  जैसे शब्दों से   चिढ़ते क्यों  हैं? वे किसी  खास महिला की जासूसी क्यों करवाते  फिरते हैं ? उनके मुख्य्मन्त्रित्व  में -गुजरात में चोरी-चकारी  , हत्याएं -लूट ,बलात्कार क्यों हो रहे हैं ?  गुजरात में गरीबी क्यों बड़ी ? १७ रुपया रोज कमाने वाला नंगा -भूँखा गुजराती  अमीर कैसे हो गया ? यदि उनका ये कथन मान भी लिया जाए कि  गुजरात में ये गरीब  तो यूपी -बिहार के हैं, तो मोदी  जी इन गुजरात स्थित  गरीबों का भला करने के बजाय यु-पी बिहार में वोट कबाड़ने  की नौटंकी  पर अरबों रूपये क्यों  फूंक रहे हैं ? इतना ही नहीं जब  मोदी के  गुजरात में  केशु भाई पटेल ,काशीराम राणा , आनंदी बेन, तथा शंकरसिंह बघेला  जैसे धाकड़ नेता   तथा अनेक अफसर -कर्मचारी  भी  डर -डर  कर  जी रहे हैं तो  समझा जा सकता है कि अल्पसंख्यकों का  हाल क्या होगा  ?  जसोदा बेन जोकि मोदी जी की धर्म पत्नी हैं ,मोदी जी जब उनके साथ ही न्याय  नहीं कर सके तो देश के करोड़ों नर-नारियों को वे क्या न्याय दे सकेंगे ?जब गुजरात ही भय के साये में जी रहा है तो पूरे भारत को क्या पडी कि आ बैल [मोदी] मुझे मार ? स्वयं मोदी भी- कभी आडवाणी  , कभी सुषमा स्वराज ,कभी शिवराजसिंह चौहान , कभी राजनाथसिंह और कभी गडकरी  से   सशंकित रहते हैं क्यों   ?  यह सर्वविदित है कि नरेद्र मोदी  भारत के पूँजीपति  वर्ग के सबसे पसंदीदा पी एम् इन वैटिंग ' हैं। यही उनकी सबसे बड़ी  पूँजी है.  प्रधानमन्त्री बनने  के  लिए यदि सिर्फ  इसी पूँजी की दरकार होती तो आजादी के बाद  नेहरू,-शास्त्री  या इंदिराजी प्रधानमंत्री नहीं होती बल्कि  टाटा-बिड़ला और अम्बानी  या अजीम प्रेमजी जैसे लोग प्रधानमन्त्री होते। यदि केवल कट्टर हिंदुत् से प्रधानमन्त्री बनना सम्भव होता तो लाल कृष्ण आडवाणी कब के प्रधानमन्त्री बन गए होते!  उन्हें तो फिर भी साम्प्रदायिकता के सवाल पर  संदेह का लाभ एक बार  दिया  ही जा सकता  था. आडवाणी से अधिक  नरेद्र मोदी में ऐंसी  क्या  अतिरिक्त  योग्यता है जिसे देखकर देशवासी उन्हें 'बेस्ट' मानकर उनकी पार्टी भाजपा  को २७२  सांसद चुनकर  दे देंगे ? अर्थात  मोदी  पी एम् इन वेटिंग  ही हो सकते हैं 'बेस्ट' नहीं ! याने प्रधान मंत्री नहीं बन सकते  !
                            राहुल गांधी को गम्भीरता से कांग्रेसी ही नहीं ले रहे हैं  तो देश की जनता को क्या  पड़ी  कि  उन्हें प्रधानमंत्री  बनाकर  याने  यूपीए  को तीसरी बार देश का बेडा गर्क करने का मौका  दिया जाए ! जब तक राहुल ने 'टाइम्स  नाउ' के पत्रकार  अर्णव गोस्वामी को इंटरव्यू नहीं दिया था।  तब तक तो संदेह का लाभ देने को भारत के असंख्य नौजवान फिर भी तैयार थे किन्तु इस इंटरव्यू के बाद न केवल कुछ  सिख नाराज हुए ,  न केवल कुछ  मुसलमान निराश हुए    बल्कि करोड़ों  कांग्रेसी  भी  हताश  हैं कि इस इंटरव्यू को फेस करते हुए  राहुल गांधी ने सिद्ध कर दिया कि उनमें नेत्तव का माद्दा नहीं है।
                             केजरीवाल के बारे में कुछ भी कहना सुनना अब समय की बर्बादी है।  वे गरीबों -मजदूरों और कामगारों के  दुश्मन और सफ़ेद पोश  मलाइदार सभ्रांत वर्ग के ज्यादा खेरखुवाह तो हैं ही साथ ही वे राष्ट्रीय राजनीती में पुराने खिलाड़ी   की तरह पेश आ रहे हैं। उनके कथनी और करनी में अंतर है। उनके  संगी साथी ही अधकचरे और उच्चश्रंखल हैं. अकेले योगेन्द्र यादव और आशुतोष क्या कर पाएंगे। केजरीवाल और 'आप' के  साथ  अराजकतावादियों का जो  हुजूम था वो भी बिखर चूका है। एनआरआई  सावधान हो गए हैं। केजरीवाल  को रोज-रोज  नई -नई  मुसीबतें दरपेश हो रहीं हैं। किसी को उम्मीद नहीं कि  वे दिल्ली के मुख्यमंत्री ५ साल  तक  बने रह सकेंगे। कुछ तो ६ माह की गारंटी भी नहीं ले रहे हैं।  भारत  का प्रधानमंत्री   बनने अर्थात 'बेस्ट'  मेन   बनने की  क्षमता नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल में तो  नहीं है। उम्मीद है कि आगामी मई-२०१४ तक देश की जनता ही  न केवल   अपना 'बेस्ट मेन ' याने अगला प्रधानमंत्री [संसद के मार्फ़त] चुनेगी  बल्कि उसकी नीतियां -नियत भी  ठोंक  बजाकर पहले  देख लेगी।

                    श्रीराम तिवारी  

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

श्रीराम तिवारी [दोहे-मुक्तक ]

    

      यू  पी के अखिलेश की ,खाक है गुड गवर्नेस।

      वी आई पी हो गई ,आजम खां  की भेंस।।



      मोदी के गुजरात की , खुल गई जग में पोल।

      सत्रह रुपया रोज  है  , निर्धनता  का मोल।।


       मध्य प्रदेश  मशहूर  है ,व्यापम  भ्रष्टाचार।

       बहुमत मद में चूर है  ,  'मामा' की  सरकार।।


           नए  नवेले 'आप' के ,नेता करें धमाल।

          चक्रव्यूह में फंस  चुका ,वंदा केजरीवाल।।


         जब तक मुठ्ठी बंधी थी , तो पप्पू   जी थे शेर।

          घटिया  इंटरव्यू दिया ,कि  चोर  मचाएं शोर।।


                     श्रीराम तिवारी [दोहे-मुक्तक ]

    

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014


    एक 'आप' ही  पाक  हैं,  बाकी सब बेईमान।

     'आप'  ही   जज  कैसे  हुए  ,फालोवर   हैरान।। 


     परनिंदा ही पाप है ,जाने सकल  जहान।

     खुद कुछ तो ऐंसा करो ,बढे देश की शान।।


    राजनीति  में तब तलक ,कोई नहीं अपवाद।

    जब तक ये  सिस्टम  मुआँ ,  पापी -पूंजीवाद।।

 
      नैतिकता ईमान की   , पूँजी  केजरीवाल।

     थोड़ी तेरे पास है तो  , क्या बाकी सब कंगाल। ।


          श्रीराम तिवारी [दोहे]