शनिवार, 30 जुलाई 2022

नास्तिक होने की दूसरी अहर्ता

 यदि कोई व्यक्ति या नेता अपने आपको नास्तिक समझता है, तो तीन बातें हो सकती हैं! एक तो यह कि शायद वह उच्च कोटि का दर्शनशास्री है, अध्यात्मवाद योगशास्त्र का अध्येता है, ईमानदार कठोर परिश्रमी है! बुद्ध महावीर की मानिंद चरम मानवतावादी है! इस कोटि के लोग ईश्वर के होने या न होने पर कोई माथा पच्ची नहीं करते! इस श्रेणी के नास्तिक महान होते हैं!

इतिहास के हर दौर में बुद्ध,महावीर, पायथागोरस,आर्क मिडीज, सुकरात,रूसो,एमानुएल काण्ट, कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक ऐंगेल्स,नीत्शे,फायरबाख, सिग्मंड फ्रायड, गैरी बाल्डी,लेनिन,स्टालिन,फीडेल कास्त्रो,चे ग्वेरा भगतसिंह जैसे नास्तिक सदा से होते रहे हैं ! भारत का संविधान ऋषि मुनियों या साधू संतों ने नहीं लिखा, बल्कि हमारा संविधान परम नास्तिक पं जवाहरलाल नेहरू की सोच और संविधान सभा के प्रस्तावों को संपादित करने वाले बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर परम नास्तिक थे! बौद्ध दर्शन में दीक्षित होने से पहले भी वे अपने कट्टर नास्तिक पेरियार के सानिध्य में नास्तिक ही थे!
भारतीय संविधान वास्तव में ब्रिटिश संविधान की सार वस्तु पर आधारित है! ब्रिटिश संविधान को बनाने में पोप के घोर बिरोधी नास्तिकों,वैज्ञानिकों ,अर्थशास्त्रियों ने,चर्च विरोधी ताकतों ने ही अपने सम्राट से लड़ते हुए, सर्वोच्च धर्म गुरु पोप से (ईसाई धर्म) पंगा लेते हुए बारहवीं शताब्दी में*मेग्नाकार्टा*के रूप में ब्रिटिश पार्लियामेंट को संविधान का आकार दिया! ब्रिटिश पार्लियामेंट ने लगभग सारे विश्व को अपना संविधान प्रदत्त किया! भारतीय संविधान का उदगम इसी ब्रिटिश संविधान से हुआ है! इतना लिखने का लब्बोलुआब ये है कि भारतीय संविधान नास्तिक बौद्धिकता का प्रतिनिधित्व करता है! इसीलिए धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र हमारे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत हैं!
नास्तिक होने की दूसरी अहर्ता यह हो सकती है कि जो योगेश्वर महादेव की तरह वीतरागी है,सांख्यशास्र रचयिता कपिल मुनि की तरह पदार्थवादी है, राजा जनक-महर्षि अष्टावक्र और योगेश्वर श्रीकृष्ण की तरह स्वयं को ईश्वर तुल्य बना लेता है! झेन' कन्फ्युशियस की तरह-अज्ञात ईश्वरीय सत्ता की बनिस्पत जीव माया के भेदाभेद से परे बिना किसी जोग जग्य तप ज्ञान के खुद ही जगत वंदनीय हो जाते हैं ! कालांतर में वे ईश्वर जैसा सम्मान पाते हैं! वे अपने से पृथक किसी और सत्ता को नहीं मानते!शिव की नजर में जिस तरह देव -दानव सभी की बराबर होती है, उसी तरह इन आधुनिक श्रैष्ठ नास्तिकों को ईश्वर की नहीं, बल्कि प्राणीमात्र की चिंता रहती है और इस धरती को भी बचाने की फ़िक्र रहती है!
नास्तिकता की तीसरी अहर्ता यह है कि जो अपढ़ कुपढ़ अंधविश्वासी हैं, धर्मांध हैं, आतंकी कसाब की तरह चंद रुपयों की खातिर मरने मारने को तैयार हैं ,भक्ष अभक्ष में भेद नहीं करने वाले मजहबी फिरकापरस्त, मिलावटी खाद्य पदार्थ बेचने वाले, ड्रग्स रैकेट,खनन माफिया,उग्र पत्थरबाज,मास लिंचड़, रिस्वतखोर,धर्म को राजनीति का हथियार बनाने वाले तमाम लोग, वे चाहे कितने ही तीर्थ यात्रा और गंगा स्नान कर लें, कितने ही यज्ञ भंडारे कर लें, किंतु वे निकृष्ट जीव तब तक नास्तिक ही हैं,जब तक वे ईश्वरीय संदेशों का अनुशरण nhi krte.

ग़रीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं.

 वैसे तो धर्मों में आपस में मतभेद है. एक पूरब मुंह करके पूजा करने का विधान करता है, तो दूसरा पश्चिम की ओर. एक सिर पर कुछ बाल बढ़ाना चाहता है, तो दूसरा दाढ़ी. एक मूंछ कतरने के लिए कहता है, तो दूसरा मूंछ रखने के लिए. एक जानवर का गला रेतने के लिए कहता है, तो दूसरा एक हाथ से गर्दन साफ करने को. एक कुर्ते का गला दाहिनी तरफ रखता है, तो दूसरा बाईं तरफ. एक जूठ-मीठ का कोई विचार नहीं रखता तो दूसरे के यहां जाति के भीतर भी बहुत-से चूल्हे हैं. एक ख़ुदा के सिवाय दूसरे का नाम भी दुनिया में रहने देना नहीं चाहता, तो दूसरे के देवताओं की संख्या नहीं. एक गाय की रक्षा के लिए जान देने को कहता है, तो दूसरा उसकी कुर्बानी से बड़ा सबाब समझता है.

इसी तरह दुनिया के सभी मजहबों में भारी मतभेद है. ये मतभेद सिर्फ़ विचारों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि पिछले दो हज़ार वर्षों का इतिहास बतला रहा है कि इन मतभेदों के कारण मजहबों ने एक-दूसरे के ऊपर ज़ुल्म के कितने पहाड़ ढाए. यूनान और रोम के अमर कलाकारों की कृतियों का आज अभाव क्यों दीखता है? इसलिए कि वहां एक मजहब आया, जो ऐसी मूर्तियों के अस्तित्व को अपने लिए ख़तरे की चीज़ समझता था. ईरान की जातीय कला, साहित्य और संस्कृति को नामशेष-सा क्यों हो जाना पड़ा? क्योंकि, उसे एक ऐसे मजहब से पाला पड़ा, जो इंसानियत का नाम भी धरती से मिटा देने पर तुला हुआ था.मैक्सिको और पेरू, तुर्किस्तान और अफ़गानिस्तान, मिस्र और जावा – जहां भी देखिए, मजहबों ने अपने को कला, साहित्य, संस्कृति का दुश्मन साबित किया. और ख़ून-खराबा? इसके लिए तो पूछिए मत. अपने-अपने ख़ुदा और भगवान के नाम पर, अपनी-अपनी क़िताबों और पाखंडों के नाम पर मनुष्य के ख़ून को उन्होंने पानी से भी सस्ता कर दिखलाया. यदि पुराने यूनानी धर्म के नाम पर निरपराध ईसाई बूढ़ों, बच्चों, स्त्री-पुरूषों को शेरों से फड़वाना, तलवार के घाट उतारना बड़े पुण्य का काम समझते थे, तो अधिकार हाथ आने पर ईसाई भी क्या उनसे पीछे रहे?ईसा मसीह के नाम पर उन्होंने खुल कर तलवार का इस्तेमाल किया. जर्मनी में ईसाइयत के भीतर लोगों को लाने के लिए क़त्लेआम सा मचा दिया गया. पुराने जर्मन ओक वृक्ष की पूजा करते थे. कहीं ऐसा न हो कि ये ओक उन्हें फिर पथभ्रष्ट कर दें, इसके लिए बस्तियों के आस-पास एक भी ओक को रहने न दिया गया. पोप और पेत्रियार्क, इंजील और ईसा के नाम पर प्रतिभाशाली व्यक्तियों के विचार-स्वातंत्र्य को आग और लोहे के ज़रिए से दबाते रहे. ज़रा से विचार-भेद के लिए कितनों को चर्खी से दबाया गया- कितनों को जीते जी आग में जलाया गया.हिंदुस्तान की भूमि ऐसी धार्मिक मतांधता का कम शिकार नहीं रही है. इस्लाम के आने से पहले भी क्या मजहब ने बोलने और सुनने वालों के मुंह और कानों में पिघले रांगे और लाख को नहीं भरा? शंकराचार्य ऐसे आदमी जो कि सारी शक्ति लगा गला फाड़-फाड़कर यही चिल्ला रहे थे कि सभी ब्रह्म हैं, ब्रह्म से भिन्न सभी चीज़ें झूठी हैं तथा रामानुज और दूसरों के भी दर्शन ज़बानी जमा-ख़र्च से आगे नहीं बढ़े, बल्कि सारी शक्ति लगाकर शूद्रों और दलितों को नीचे दबा रखने में उन्होंने कोई कोर-कसर उठा नहीं रखी और इस्लाम के आने के बाद तो हिंदू-धर्म और इस्लाम के खूंरेज झगड़े आज तक चल रहे हैं. उन्होंने तो हमारे देश को अब तक नरक बना रखा है.कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बंधुत्व का धर्म कहलाता है, हिंदू धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है, किंतु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया? हिंदू मुसलमानों पर दोष लगाते हैं कि ये बेगुनाहों का ख़ून करते हैं, हमारे मंदिरों और पवित्र तीर्थों को भ्रष्ट करते हैं, हमारी स्त्रियों को भगा ले जाते हैं. लेकिन झगड़े में क्या हिंदू बेगुनाहों का ख़ून करने से बाज आते हैं?चाहे आप कानपुर के हिंदू-मुस्लिम झगड़े को ले लीजिए या बनारस के, इलाहाबाद के या आगरे के, सब जगह देखेंगे कि हिंदुओं और मुसलमानों के छुरे और लाठी के शिकार हुए हैं- निरपराध, अजनबी स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे. गांव या दूसरे मुहल्ले का कोई अभागा आदमी अनजाने उस रास्ते आ गुजरा और कोई पीछे से छुरा भोंक कर चंपत हो गया. सभी धर्म दया का दावा करते हैं, लेकिन हिंदुस्तान के इन धार्मिक झगड़ों को देखिए, तो आपको मालूम होगा कि यहां मनुष्यता पनाह मांग रही है. निहत्थे बूढ़े और बूढ़ियां ही नहीं, छोटे-छोटे बच्चे तक मार डाले जाते हैं. अपने धर्म के दुश्मनों को जलती आग में फेंकने की बात अब भी देखी जाती है.एक देश और एक ख़ून मनुष्य को भाई-भाई बनाते हैं. ख़ून का नाता तोड़ना अस्वाभाविक है, लेकिन हम हिंदुस्तान में क्या देखते हैं? हिंदुओं की सभी जातियों में, चाहे आरंभ में कुछ भी क्यों न रहा हो, अब तो एक ही ख़ून दौड़ रहा है. क्या शक्ल देखकर किसी के बारे में आप बतला सकते हैं कि यह ब्राह्मण है और यह शूद्र? कोयले से भी काले ब्राह्मण आपको लाखों की तादाद में मिलेंगे और शूद्रों में भी गेहुएं रंग वालों का अभाव नहीं है. पास-पास में रहने वाले स्त्री-पुरुष के यौन संबंध, जाति की ओर से हज़ार रुकावट होने पर भी, हम आए दिन देखते हैं.कितने ही धनी खानदानों, राजवंशों के बारे में तो लोग साफ ही कहते हैं कि दास का लड़का राजा और दासी का लड़का राजपुत्र. इतना होने पर भी हिंदू धर्म लोगों को हज़ारों जातियों में बांटे हुए है. कितने ही हिंदू, हिंदू के नाम पर जातीय एकता स्थापित करना चाहते हैं. किंतु, वह हिंदू जातीयता है कहां? हिंदू जाति तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है तो एक काल्पनिक शब्द है. वस्तुतः वहां है ब्राह्मण, ब्राह्मण भी नहीं, शाकद्वीपी, सनाढ्य, जुझौतिया, राजपूत, खत्री, भूमिहार, कायस्थ, चमार आदि-आदि.एक राजपूत का खाना-पीना, ब्याह-श्राद्ध अपनी जाति तक सीमित रहता है. उसकी सामाजिक दुनिया अपनी जाति तक सीमित है. इसीलिए जब एक राजपूत बड़े पद पर पहुंचता है, तो नौकरी दिलाने, सिफ़ारिश करने या दूसरे तौर से सबसे पहले अपनी जाति के आदमी को फ़ायदा पहुंचाना चाहता है. यह स्वाभाविक है. जबकि चौबीसों घंटे जीने-मरने सब में साथ संबंध रखने वाले अपनी बिरादरी के लोग हैं, तो किसी की दृष्टि दूर तक कैसे जाएगी?कहने के लिए तो हिंदुओं पर ताना कसते हुए इस्लाम कहता है कि हमने जात-पांत के बंधनों को तोड़ दिया. इस्लाम में आते ही सब भाई-भाई हो जाते हैं. लेकिन क्या यह बात सच है? यदि ऐसा होता तो आज मोमिन (जुलाहा), अप्सार (धुनिया), राइन (कुंजड़ा) आदि का सवाल न उठता. अर्जल और अशरफ़ का शब्द किसी के मुंह पर न आता. सैयद-शेख़, मलिक-पठान, उसी तरह का ख़्याल अपने से छोटी जातियों से रखते हैं, जैसा कि हिंदुओं के बड़ी जात वाले. खाने के बारे में छूतछात कम है और वह तो अब हिंदुओं में भी कम होता जा रहा है. लेकिन सवाल तो है – सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र में इस्लाम की बड़ी जातों ने छोटी जातों को क्या आगे बढ़ने का कभी मौक़ा दिया?हिंदुस्तानियों में से चार-पांच करोड़ आदमियों ने हिंदुओं के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक अत्याचारों से त्राण पाने के लिए इस्लाम की शरण ली. लेकिन, इस्लाम की बड़ी जातों ने क्या उन्हें वहां पनपने दिया? सात सौ वर्ष बाद भी आज गांव का मोमिन ज़मींदारों और बड़ी जातों के ज़ुल्म का वैसा ही शिकार है, जैसा कि उसका पड़ोसी कानू-कुर्मी. सरकारी नौकरियों में अपने लिए संख्या सुरक्षित कराई जाती है. लेकिन जब उस संख्या को अपने भीतर वितरण करने का अवसर आता है, तब उनमें से प्रायः सभी को बड़ी जाति वाले सैयद और शेख़ अपने हाथ में ले लेते हैं.साठ-साठ, सत्तर-सत्तर फीसदी संख्या रखने वाले मोमिन और अंसार मुंह ताकते रह जाते हैं. बहाना किया जाता है कि उनमें उतनी शिक्षा नहीं. लेकिन सात सौ और हज़ार बरस बाद भी यदि वे शिक्षा में इतने पिछड़े हुए हैं, तो इसका दोष किसके ऊपर है? उन्हें कब शिक्षित होने का अवसर दिया गया? जब पढ़ाने का अवसर आया, छात्रवृत्ति देने का मौक़ा आया, तब तो ध्यान अपने भाई-बंधुओं की तरफ चला गया. मोमिन और अंसार, बावर्ची और चपरासी, ख़िदमतगार, हुक्काबरदार के काम के लिए बने हैं. उनमें से कोई यदि शिक्षित हो भी जाता है, तो उसकी सिफारिश के लिए अपनी जाति में तो वैसा प्रभावशाली व्यक्ति है नहीं और बाहर वाले अपने भाई-बंधु को छोड़ कर उन पर तरजीह क्यों देने लगे? नौकरियों और पदों के लिए इतनी दौड़-धूप, इतनी जद्दोजहद सिर्फ़ ख़िदमते-क़ौम और देश सेवा के लिए नहीं है, यह है रुपयों के लिए, इज़्ज़त और आराम की ज़िंदगी बसर करने के लिए.हिंदू और मुसलमान फरक-फरक धर्म रखने के कारण क्या उनकी अलग जाति हो सकती है? जिनकी नसों में उन्हीं पूर्वजों का ख़ून बह रहा है, जो इसी देश में पैदा हुए और पले, फिर दाढ़ी और चुटिया, पूरब और पश्चिम की नमाज़, क्या उन्हें अलग क़ौम साबित कर सकती है? क्या ख़ून पानी से गाढ़ा नहीं होता? फिर हिंदू और मुसलमान को फरक से बनी इन अलग-अलग जातियों को हिंदुस्तान से बाहर कौन स्वीकार करता है?जापान में जाइए या जर्मनी, ईरान जाइए या तुर्की- सभी जगह हमें हिंदी और ‘इंडियन’ कहकर पुकारा जाता है. जो धर्म भाई को बेगाना बनाता है, ऐसे धर्म को धिक्कार! जो मजहब अपने नाम पर भाई का ख़ून करने के लिए प्रेरित करता है, उस मजहब पर लानत! जब आदमी चुटिया काट दाढ़ी बढ़ाने भर से मुसलमान और दाढ़ी मुड़ा चुटिया रखने मात्र से हिंदू मालूम होने लगता है, तो इसका मतलब साफ़ है कि यह भेद सिर्फ़ बाहरी और बनावटी है.एक चीनी चाहे बौद्ध हो या मुसलमान, ईसाई हो या कनफूसी, लेकिन उसकी जाति चीनी रहती है. एक जापानी चाहे बौद्ध हो या शिंतो-धर्मी, लेकिन उसकी जाति जापानी रहती है. एक ईरानी चाहे वह मुसलमान हो या जरतुस्त, किंतु वह अपने लिए ईरानी छोड़ दूसरा नाम स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं. तो हम हिंदियों के मजहब को टुकड़े-टुकड़े में बांटने को क्यों तैयार हैं और इन नाजायज़ हरकतों को हम क्यों बर्दाश्त करें?धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसीलिए अब मज़हबों के मेल-मिलाप की भी बातें कभी-कभी सुनने में आती हैं. लेकिन क्या यह संभव है? ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस सफ़ेद झूठ का क्या ठिकाना है? अगर मज़हब बैर नहीं सिखलाता, तो चोटी-दाढ़ी की लड़ाई में हज़ार बरस से आज तक हमारा मुल्क़ पामाल (बर्बाद) क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिए, आज भी हिंदुस्तान के शहरों और गांवों में एक मज़हब वालों को दूसरे मज़हब वालों के ख़ून का प्यासा कौन बना रहा है? कौन गाय खाने वालों से गोबर खाने वालों को लड़ा रहा है?असल बात यह है- ‘मज़हब तो है सिखाता आपस में बैर रखना. भाई को है सिखाता भाई का ख़ून पीना.’ हिंदुस्तानियों की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर होगी. कौए को धोकर हंस नहीं बनाया जा सकता. काली कमली धोकर रंग नहीं चढ़ाया जा सकता. मज़हबों की बीमारी स्वाभाविक है. उसको मौत छोड़ कर इलाज नहीं.एक तरफ तो वे मज़हब एक-दूसरे के इतने ज़बर्दस्त ख़ून के प्यासे हैं. उनमें से हर एक एक-दूसरे के ख़िलाफ़ शिक्षा देता है. कपड़े-लत्ते, खाने-पीने, बोली-बानी, रीति-रिवाज़ में हर एक एक-दूसरे से उल्टा रास्ता लेता है. लेकिन, जहां ग़रीबों को चूसने और धनियों की स्वार्थ-रक्षा का प्रश्न आ जाता है, तो दोनों बोलते हैं.गदहा गांव के महाराज बेवकूफ़ बख्श सिंह सात पुश्त से पहले दर्जे के बेवकूफ़ चले आते हैं. आज उनके पास पचास लाख सालाना आमदनी की ज़मींदारी है, जिसको प्राप्त करने में न उन्होंने एक धेला अकल ख़र्च की और न अपनी बुद्धि के बल पर उसे छह दिन चला ही सकते हैं. न वे अपनी मेहनत से धरती से एक छटांक चावल पैदा कर सकते हैं, न एक कंकड़ी गुड़. महाराज बेवकूफ़ बख्श सिंह को यदि चावल, गेहूं, घी, लकड़ी के ढेर के साथ एक जंगल में अकेले छोड़ दिया जाए, तो भी उनमें न इतनी बुद्धि है और न उन्हें काम का ढंग मालूम है कि अपना पेट भी पाल सकें, सात दिन में बिल्ला-बिल्लाकर ज़रूर वे वहीं मर जाएंगे.लेकिन आज गदहा गांव के महाराज दस हजार रुपया महीना तो मोटर के तेल में फूंक डालते हैं. बीस-बीस हज़ार रुपये जोड़े कुत्ते उनके पास हैं. दो लाख रुपये लगाकर उनके लिए महल बना हुआ है. उन पर अलग डॉक्टर और नौकर हैं. गर्मियों में उनके घरों में बरफ के टुकड़े और बिजली के पंखे लगते हैं. महाराज के भोजन-छाजन की तो बात ही क्या? उनके नौकरों के नौकर भी घी-दूध में नहाते हैं और जिस रुपये को इस प्रकार पानी की तरह बहाया जाता है, वह आता कहां से है? उसे पैदा करने वाले कैसी ज़िंदगी बिताते हैं? वे दाने-दाने को मोहताज हैं. उनके लड़कों को महाराज बेवकूफ बख्श सिंह के कुत्तों का जूठा भी यदि मिल जाए, तो वे अपने को धन्य समझें.लेकिन यदि किसी धर्मानुयायी से पूछा जाए कि ऐसे बेवकूफ़ आदमी को बिना हाथ-पैर हिलाए दूसरे की कसाले की कमाई को पागल की तरह फेंकने का क्या अधिकार है, तो पंडित जी कहेंगे, ‘अरे वे तो पूर्व की कमाई खा रहे हैं. भगवान की ओर से वे बड़े बनाए गए हैं. शास्त्र-वेद कहते हैं कि बड़े-छोटे को बनाने वाले भगवान हैं. ग़रीब दाने-दाने को मारा-मारा फिरता है, यह भगवान की ओर से उसको दंड मिला है.’यदि किसी मौलवी या पादरी से पूछिए तो जवाब मिलेगा, ‘क्या तुम काफ़िर हो? नास्तिक तो नहीं हो? अमीर-गरीब दुनिया का कारबार चलाने के लिए ख़ुदा ने बनाए हैं. राजी-व-रजा ख़ुदा की मर्ज़ी में इंसान को दख़ल देने का क्या हक़? ग़रीबी को न्यामत समझो. उसकी बंदगी और फ़रमाबरदारी बजा लाओ, क़यामत में तुम्हें इसकी मज़दूरी मिलेगी.’पूछा जाए जब बिना मेहनत ही के महाराज बेवकूफ़ बख्श सिंह धरती पर ही स्वर्ग का आनंद भोग रहे हैं, तो ऐसे ‘अंधेर नगरी-चौपट राजा’ के दरबार में बंदगी और फ़रमाबरदारी से कुछ होने-हवाने की क्या उम्मीद?उल्लू शहर के नवाब नामाकूल खां भी बड़े पुराने रईस हैं. उनकी भी ज़मींदारी है और ऐशो-आराम में बेवकूफ़ बख्श सिंह से कम नहीं हैं. उनके पाखाने की दीवारों में इतर चुपड़ा जाता है और गुलाबजल से उसे धोया जाता है. सुंदरियों और हुस्न की परियों को फंसा लाने के लिए उनके सैकड़ों आदमी देश-विदेशों में घूमा करते हैं. ये परियां एक ही दीदार में उनके लिए बासी हो जाती हैं. पचासों हकीम, डॉक्टर और वैद्य उनके लिए जौहर, कुश्ता और रसायन तैयार करते रहते हैं. दो-दो साल की पुरानी शराबें पेरिस और लंदन के तहखानों से बड़ी-बड़ी क़ीमत पर मंगाकर रखी जाती हैं.नवाब बहादुर का तलवा इतना लाल और मुलायम है, जितनी इंद्र की परियों की जीभ भी न होगी. इनकी पाशविक काम-वासना की तृप्ति में बाधा डालने के लिए कितने ही पति तलवार के घाट उतारे जाते हैं, कितने ही पिता झूठे मुक़दमों में फंसा कर क़ैदख़ाने में सड़ाए जाते हैं. साठ लाख सालाना आमदनी भी उनके लिए काफ़ी नहीं है. हर साल दस-पांच लाख रुपया और क़र्ज़ हो जाता है. आपको बड़ी-बड़ी उपाधियां सरकार की ओर से मिली हैं. वायसराय के दरबार में सबसे पहले कुर्सी इनकी होती है और उनके स्वागत में व्याख्यान देने और अभिनंदन-पत्र पढ़ने का काम हमेशा उल्लू शहर के नवाब बहादुर और गदहा गांव के महाराजा बहादुर को मिलता है. छोटे और बड़े दोनों लाट, इन दोनों रईसूल उमरा की बुद्धिमानी, प्रबंध की योग्यता और रियाया-परवरी की तारीफ़ करते नहीं अघाते.नवाब बहादुर की अमीरी को ख़ुदा की बरकत और कर्म का फल कहने में पंडित और मौलवी, पुरोहित और पादरी सभी एक राय हैं. रात-दिन आपस में तथा अपने अनुयायियों में ख़ून-खराबी का बाज़ार गर्म रखने वाले, अल्लाह और भगवान यहां बिलकुल एक मत रखते हैं. वेद और कुरान, इंजील और बाइबिल की इस बारे में सिर्फ़ एक शिक्षा है. ख़ून चूसने वाली इन जोंकों के स्वार्थ की रक्षा ही मानो इन धर्मों का कर्तव्य हो और मरने के बाद भी बहिश्त और स्वर्ग के सबसे अच्छे महल, सबसे सुंदर बगीचे, सबसे बड़ी आंखों वाली हूरें और अप्सराएं, सबसे अच्छी शराब और शहद की नहरें उल्लू शहर के नवाब बहादुर तथा गदहा गांव के महाराजा और उनके भाई-बंधुओं के लिए रिजर्व हैं, क्योंकि उन्होंने दो-चार मस्जिदें, दो-चार शिवाले बनवा दिए हैं.कुछ साधु-फकीर और ब्राह्मण-मुजावर रोज़ाना उनके यहां हलवा-पूड़ी, कबाब-पुलाव उड़ाया करते हैं. ग़रीबों की ग़रीबी और दरिद्रता के जीवन का कोई बदला नहीं. हां, यदि वे हर एकादशी के उपवास, हर रमजान के रोजे तथा सभी तीरथ-व्रत, हज और ज़ियारत बिना नागा और बिना बेपरवाही से करते रहे, अपने पेट को काट कर यदि पंडे-मुजावरों का पेट भरते रहे, तो उन्हें भी स्वर्ग और बहिश्त के किसी कोने की कोठरी तथा बची-खुची हूर-अप्सरा मिल जाएगी.ग़रीबों को बस इसी स्वर्ग की उम्मीद पर अपनी जिंदगी काटनी है. किंतु जिस स्वर्ग-बहिश्त की आशा पर ज़िंदगी भर के दुःख के पहाड़ों को ढोना है, उस स्वर्ग-बहिश्त का अस्तित्व ही आज बीसवीं सदी के इस भूगोल में कहीं नहीं है. पहले ज़मीन चपटी थी. स्वर्ग इसके उत्तर से सात पहाड़ों और सात समुद्रों के पार था. आज तो न उस चपटी ज़मीन का पता है और न उत्तर के उन सात पहाड़ों और सात समुद्रों का.जिस सुमेरु के ऊपर इंद्र की अमरावती व क्षीरसागर के भीतर शेषशायी भगवान थे, वह अब सिर्फ़ लड़कों के दिल बहलाने की कहानियां मात्र हैं. ईसाइयों और मुसलमानों के बहिश्त के लिए भी उसी समय के भूगोल में स्थान था. आजकल के भूगोल ने तो उनकी जड़ ही काट दी है. फिर उस आशा पर लोगों को भूखा रखना क्या भारी धोखा नहीं
है?
-राहुल सांकृत्यायन

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भाजपाईयों की नजर में कांग्रेस पार्टी एक गंदी नाली है!

 असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत विस्वा *शरमा जी* पहले कांग्रेस में हुआ करते थे किंतु भाजपा ने अपने खानदानी मुख्यमंत्री सोनोवाल को हटाकर एक भूतपूर्व कांग्रेसी को असम का मुख्यमंत्री बना दिया !

कर्नाटक के नये नवेले मुख्यमंत्री वसवराज बोम्मई पहले कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री रह चुके हैं! उनके पिता श्री आर एस बोम्मई भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री हुआ करते थे! इसी तरह श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड भाजपा में पहुँचे और केंद्रीय मंत्री बन बैठे!
लेकिन उसकी बहुत बड़ी कीमत भाजपा ने चुकाई है! रविशंकर प्रसाद,जावड़ेकर और डॉ. हर्षवर्धन जैसे खानदानी भाजपाई मंत्रियों को हटाकर मोदी जी ने दलबदलू कांग्रेसियों का सम्मान किया है!
याद रखने वाली बात यह है कि भाजपाईयों की नजर में कांग्रेस पार्टी एक गंदी नाली है! किंतु उस गंदी नाली के जीवाणु जब भाजपा रूपी राजनैतिक थाली में पहुँचते हैं,तो वे सत्ता के छप्पन भोग हो जाते हैं!

अतीत में कैसे किसने किसका शोषण किया?

 साल पहले जब मैं ट्रेड यूनियन से जुड़ा और मार्क्सवाद लेनिनवाद से परिचित हुआ, उसमें नव दीक्षित हुआ,तब अति उत्साह में आकर,मै धर्मांधता और मजहबी पाखंड से लड़ने के लिए आंदोलनों में कूंद पड़ा! तब इन्दौर मिल एरिया में केवल वामपंथ का बोलबाला था!

पूंजीवादी राजनैतिक ताकतों से मजदूरो की मजदूरी दिलाने और साथ ही सर्वहारा क्रांति की उद्दाम तैयारी के बतौर तमाम धर्म साहित्य-रामचरितमानस,भगवद- गीता और वेदांत दर्शन उपनिषद इत्यादि ग्रंथ रद्धी में बेच दिये थे ! किंतु मैने जब महाप्राण निराला,महान मार्क्सवादी चिंतक विचारक राहुल सांकृत्यायन, डॉ रामविलास शर्मा, तत्कालीन सीपीएम महासचिव इएमएस नम्बूदिरीपाद, मैक्सिम गोर्की, सीपीआई महासचिव श्रीपाद अम्रत डांगे रोजा लक्जेमबर्ग,शिव वर्मा, मार्टिन लूथर किंग जूनियर फिडैल कास्त्रो,चेग्वेरा, ग्राम्सी,गैरी वाल्डी तथा दुनिया के चुनिंदा क्रांतिकारियों को पढा,तो मुझे भारत के तमाम भाववादी लेखक ,कवि, साहित्यकार और प्राचीन-अर्वाचीन कवि भी प्रासंगिक उपयोगी और सार्थक लगे!
मैने अमीर खुसरो, कबीर, नानक,रेदास, रसखान,रहीम, केशवदास,गो. तुलसीदास इत्यादि तमाम साहित्यिक हस्तियों,कवियों और लेखकों को पुन: पढना शुरूँ किया ! ये भाववादी भक्तकवि वेशक क्रांतिकारी नही थे, किंतु वे कहीं से भी क्रांति विरोधी अथवा शोषण समर्थक नही लगे!ये तमाम कविऔर शायर सामंतवाद के खिलाफ हुआ करते थे!
गो.तुलसीदासजी ने तो बादशाह अकबर का आमंत्रण ठुकरा कर लिख भेजा थी -"संतन्ह कद कहाँ सीकरी सों काम"
अर्थात- सच्चे संत को राजभोग या सत्ता सुख से दूर रहना चाहिए!
तुलसीदास के महाकाव्य रामचरितमानस में कुछ अप्रिय प्रसंग अवश्य आते हैं ,किंतु वे कटु प्रसंग भी महाकाव्य के परिकल्पित मिथ ही हैं! ये तत्व यदि कवि के शिल्प में न होते तो हमें कैसे मालूम पड़ता कि अतीत में कैसे किसने किसका शोषण किया?
यदि कवि और शायर नकारात्मक अवयव त्यागकर केवल मीठा मीठा ही परोसते तो उनकी रचना अधूरी ही रह जाती,बिल्कुल 'बाणभट्ट की आत्मकथा' ki trah..

बाणभट्ट का साहित्य स्टेविया या गुड़मार बूटी की तरह है।जिसका स्वाद सबसे अलग और उसके हृदयंगम करने के बाद सब फीका लगता है।एक बात औऱ मार्क्सवाद की परंपरा में हमे इसकी भारतीय मुकुटमणि मानवेन्द्र राय को भी स्मरण करना चाहिए।हिंदी के सर्जकों में कबीर के … 
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राहुल सांकृत्यायन

 राहुल सांकृत्यायन महान विभूतियों की अग्रिम पंक्ति के अध्येता विचारक और इतिहासकार थे ! जिसने राहुल सांकृत्यायन को पढ़ लिया,समझो उसने घर बैठे सारे जगत का भूत वर्तमान और भविष्य जान लिया! राहुल जी कट्टर हिन्दू (कान्यकुब्ज ब्राह्मण त्रिपाठी) परिवार में जन्मे और जब वे मरे तो उनकी शवयात्रा में हिंदू मुस्लिम ईसाई, बौद्ध और मार्क्सवादी-तर्कवादी -नास्तिक सभी उपस्थित थे।

सोचो कि,अपनी बात को शिद्दत से रखने के लिए विगत सदी के महान आचार्य,दार्शनिक,प्रात: स्मरणीय परम ध्यानयोगी ओशो,( आचार्य रजनीश ) भी कभी कभी अपनी बात को बल देने के लिए राहुल सांकृत्यायन के कथन को प्रस्तुत करते थे, क्योंकि तत्कालीन विश्व के अधिकांश बुद्धिजीवी और दार्शनिक महर्षि अरविन्द और सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन के बाद राहुल सांकृत्यायन को ही सबसे बड़ा विद्वान मानते थे! पढ़े लिखे विद्वान लोग भी उनके कथन को अंतिम प्रमाण मानते थे!
युवा अवस्था में राहुल सांकृत्यायन सनातन हिंदू धर्म की दुर्दशा से आहत होकर *बुद्धम शरणम् गच्छामि " हो गये और अपने चौथेपन में वे‌ शहीद भगतसिंह की तरह कट्टर मार्क्सवादी और अंत में नास्तिक हो गए थे! उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक आते आते भारत में वैसे सभी धर्म मजहब गुलजार थे,किंतु बौद्ध धर्म दर्शन का प्राचीन इतिहास धूमिल हो चुका था। पुरातात्विक अवशेष खोजने में उत्सुक यूरोपीय पुरातत्ववेत्ता राहुल सांकृत्यायन से मार्ग दर्शन लेते रहे !
इसी दौरान राहुल सांकृत्यायन जी हिमालय स्थित तिब्बत,नैपाल, भूटान,वर्मा और लद्दाख से बौद्ध धर्म ग्रंथ खच्चरों पर लाद लाद कर जीर्ण शीर्ण हो चुकी पुरातन पांडुलिपियों को भारत लाकर, अपने देश की सांस्कृतिक आध्यात्मिक और पुरातात्विक विरासत को समृद्ध करते रहे! किंतु बौद्ध धर्म से भी उन्हें संतुष्टि नहीं मिली और अंत में वे मार्क्सवादी हो गए । और मौत नजदीक आते आते वे परम नास्तिक हो गये!उनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति से उनके समकालीन बड़े बड़े तुर्रम खां भी ईर्ष्या करते थे!

बाणभट्ट का साहित्य स्टेविया या गुड़मार बूटी की तरह है।जिसका स्वाद सबसे अलग और उसके हृदयंगम करने के बाद सब फीका लगता है।एक बात औऱ मार्क्सवाद की परंपरा में हमे इसकी भारतीय मुकुटमणि मानवेन्द्र राय को भी स्मरण करना चाहिए।हिंदी के सर्जकों में कबीर के बाद निराला,और राहुल जी ही ऐसे हस्ताक्षर हैं जिनकी करनी और कथनी में कभी अंतर नही रहा।इसिलए उन्हें वाणी का डिक्टेटर,महाप्राण और महापंडित कहा जाता है
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गुरुवार, 28 जुलाई 2022

भृस्टाचार के खिलाफ- IT,ED,CBI की सक्रियता

 वतनपरस्त लोगों को केद्र सरकार के निर्देश पर भृस्टाचार के खिलाफ- IT,ED,CBI की सक्रियता का समर्थन करना चाहिए! किंतु हमें यह जानने का हक है कि सिर्फ विपक्षी नेताओं के यहां ही छापे क्यों डल रहे हैं?एक और आश्चर्य है कि यदि कोई भ्रष्ट कांग्रेस नेता दलबदल कर भाजपा ज्वाइन कर ले,तो उसे तत्काल पाक साफ मान लिया जाता है!बहुत दिनों से किसी भाजपाई भ्रष्ट नेता के यहां IT,ED,CBI का छापा नहीं पड़ा है! लगता है कि नियम कायदा सत्ता प्रतिष्ठान अब केवल नेशनल हेराल्ड जैसे जूने पुराने म्रतप्राय अखवार और एक बुजुर्ग बीमार महिला को सताना भर रह गया है!

एक गांव बन चुकी है दुनिया

 एक ठूंठ के नीचे दो पल के लिए रुके वे

फूल-पत्तों से लदकर झूमने लगा ठूंठ
अरसे से सूखी नदी के तट पर बैठे ही थे
कि लहरें उछल-उछलकर मचाने लगीं शोर
सदियों पुराने एक खंडहर में शरण ली
और उस वीराने में गूंजने लगे मंगलगान
भटक जाने के लिए वे रेगिस्तान में भागे
पर अपने पैरों के पीछे छोड़ते गए
हरी-हरी दूब के निशान
थक-हार कर वे एक अंधेरी सुरंग में घुस गए
और हजारों सूर्यों की रोशनी से नहा उठी सुरंग
प्रेम एक चमत्कार है या तपस्या
पर अब उनके लिए एक समस्या है
कि एक गांव बन चुकी इस दुनिया में
कहां और कैसे छुपाएं अपना प्रेम?

यही युगधर्म है, यही भवतव्यता है!

 भारत का राजनैतिक अतीत,वर्तमान और भविष्य:-

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केंद्र सरकार की सेवाओं में आने से पूर्व किशोराव्स्था में खेती-बाड़ी,बोनी,खाद,बीज,भूसा गोबर पानी,निंदाई-गुड़ाई से पार्ट टाइम वास्ता रहा है! वो भी इसलिए क्योंकि पढ़ाई लिखाई के अलावा मुझे रात को भैंसें चराने जंगल जाना होता था! बचपन से लेकर नौकरी में आने तक मैंने असिंचित खेती का कुदरती दंश भी झेला है! गाय बैल भैंस चारा पानी सानी लकड़ी जरेंटा जल जंगल जमीन; दतुआ,पांस कुरेरा हल बखर जुंआ निजोंना मुसीका,परेना जुताई बोनी बखरनी निदाई गुड़ाई इत्यादि हर वह वस्तु या कार्य जिससे किसान का उन दिनों वास्ता रहता था,वह मैं आज भी बखूबी जानता हूं! किंतु आधुनिक खेती ने देश की तस्वीर और गांव की तकदीर बदल डाली है! उक्त कृषि उपकरणों के नाम अब इतिहास की किताबोंमें भी दर्ज नहीं मिलेंगे!
एम.पी. के दक्षिण पश्चिमी बुंदेलखंड के जंगली पठार वाले जंगली गांवों के कम जोत वाले किसानों की ,बंजर जमीन वाले गरीब किसानों की जो स्थिति 50 साल पहले थी, वही आज बदल चुकी है! हल बैल की जगह टैक्टर और बैलगाड़ी की जगह मोटर साइकिल ने ले ली है! चूंकि हमारे गांव के सिंघई (जैन) परिवार के लड़के पढ़े लिखे और नवाचारग्राही थे,इसी कारण हमारे बीस गांवों के इलाके में एकमात्र*पनचक्की*, एकमात्र रेडियो, एकमात्र ग्रामोफोन एकमात्र फटफटी( मोटरसायकल सिर्फ सिंघई परिवार के पास थी! चूंकि उनकी आटा चक्की अक्सर खराब हो जाती थी और सागर से मेकेनिक के आने में २-३ दिन लग जाते थे, अतः गांव की महिलाएं अलसुबह उठकर घर की चकिया या जांते पर आटा पीसतीं और मधुर कंठ से समवेत स्वरों में कर्णप्रिय लोकगीत गाया करतीं थीं!
आज आधी शताब्दी बाद जो तथाकथित सुधार दिख रहा है,वह देश की हरित क्रांति ,कोआपरेटिव सोसायटी-बैंकों का लोन और किसानों की हाड़तोड़ मेहनत का परिणाम है! सरकारों की ओर से सिर्फ इतनी मेहेरवानी रही है कि चुनावी गतिविधियों का बोलबाला,आरक्षण और दल दल की राजनीति ने देश के अधिकांश गांवों की एकता खंडित कर दिया है!
चुनाव को लेकर एक ही परिवार के लोग यहां तक कि भाई भाई - पति पत्नि, साले बहनोई सब एक दूसरे के दुश्मन बन गये हैं! आजाद भारत में बने संविधान की तारीफ करने वालों का यदि हकीकत से जरा भी वास्ता हो,तो वे भी जानते होंगे कि हमारे संविधान कि यही एक सबसे बड़ी देन है कि कुछ चालाक लोगों ने सिस्टम को जकड़ लिया है! जो पहले गरीब थे, वे अब और ज्यादा गरीब हो गये हैं! मुफ़्त अनाज योजना ने करोड़ों युवाओं को मेहनत से मेहरूम कर दिया है! गांवों की युवा पीढ़ी अब देश के हालात अंग्रेजी राज से बदतर हो चुके हैं!
वेशक कानून के राज में राजनीति एक बाध्यतामूलक आवश्यक बुराई है! जाहिर है कि मौजूदा दौर का कोई भी पढ़ा लिखा, बुद्धिमान और वतनपरस्त किसी जातिवादि या साम्प्रदायिक दल का समर्थन कभी नही करेगा! किंतु
सोशल मीडिया के दुरुपयोग से चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज और लोकतंत्र दोनों को अंधेरे की ओर धकेल दिया है! जातिवादी टकराव और साम्प्रदायिकता ने भारत की एकता अखंडता और उसकी लोकतंत्रात्मकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है!
पर आम तौर पर सपा,बसपा,शिवसेना,जदयू,डीएमके जैसे क्षेत्रीय दलों को केंद्र सरकार से शिकायत है और केंद्र में विराजमान NDA(भाजपा ) और विपक्षी कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों से नफ़रत है! दूसरी और भारत का वामपंथ राष्ट्रीय पूंजीवादी दलों को कतई पसंद नही कर सकता ! वामपंथ को छोड़कर बाकी सभी दल जब विपक्ष में होते हैं तब बड़े बड़े दावे करते हैं, किंतु सत्ता में आने पर भ्रस्ट पूँजीपतियों के दलाल हो जाते हैं!
कांग्रेस कहती कुछ है और करती कुछ है!संगठन में भी लोकतंत्र की जगह राजतंत्र का माहौल है!सब सोनिया गांधी शरणम् गच्छामि! राहुल गांधी,प्रियंका वाड्रा पढ़ते लिखते कुछ नही, केवल उधार के स्टेटमेंट देकर मानों अगंभीर राजनीति की पंचर गाड़ी धकिया रहे हैं! इसी कारण २०१४ में ऐसा पटिया उलाल हुआ कि एक सड़े से मुद्दे-नेशनल हेराल्ड अखवार बनाम गांधी नेहरु परिवार पर उन्हें ई डी को ज़बाब देने में पसीना आ रहा है !
भाजपा वाले भ्रस्टाचार में कांग्रेस के अग्रज हैं!राज्यों में भले उनकी सत्ता आती जाती रहती है, किंतु कांग्रेस में कुकरहाव और विपक्ष का अहंकार ही है जो भाजपा को केंद्र की सत्ता से आगामी 10 साल तक कोई नही हटा सकता!संघ परिवार की बल्ले बल्ले है! सारे विपक्षी एक होकर,लगातार विरोध कर न तो मोदी सरकार को हरा पाए हैं और न हरा पाएंगे!क्योंकि भाजपा और संघ परिवार वाले विगत 30 -35 साल से दमित हिंदु जनों को प्रलोभन देते आ रहे हैं,कि हम यदि सत्ता में आयेंगे तो उनके निम्नांकित काम शिद्दत से करेंगे! अतः जिन लोगों ने विगत ५०-६० साल तक देश को लूटा है, उन सबकी खैर नहीं! अब चाहे संसद में लड़ो या सड़कों पर,२०२४ के लोकसभा चुनाव तक कानून का डंडा बजता रहेगा!
तीन तलाक,गरीब सवर्ण आरक्षण,धारा 370,राम मंदिर निर्माण काशी मथुरा में मंदिरों की पुनः स्थापना विदेशी घुसपैठियों की समस्या और नब्बे के दशक में अटल आडवानी जिंदगी जो कुछ बोलते रहे, वादे करते रहे,उसी उसी को आधार बनाकर,जनता से पुनः प्रचंड बहुमत पाकर भाजपा सत्ता में आएगी! जिन्होंने मोदी सरकार को दोबारा जिताया है,वे उन्हें तिवारा जिताना चाहेंगे! वैसे भी अपने तमाम वादे पूरा कर दिखाने में मोदी सरकार माहिर है! उनके प्रतिबद्ध वोटर टस से मस नहीं हो रहे हैं!
सोशल मीडिया पर और टीवी चैनलों पर मोदी सरकार की आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण की विनाशकारी नीति, मेंहगाई,वेरोजगारी की कहीं चर्चा नहीं, यदि कोई चूं चपड़ करेगा, तो ED CBI IT हैं न! यदि वे ऐंसा नही करते तो बहुसंख्यक हिंदू नाराज हो जाएंगे!और यदि आगामी पांच वर्षों में ये पेंडिंग काम हो जाते हैं,तो हिंदू समाज को कुछ संतुष्टि अवश्य मिलेगी,फिर उसे संघ या भाजपा की शायद जरूरत नही पड़ेगी!तब जनता भी वामपंथ जैसे किसी अन्य बेहतर विकल्प की तलाश करेगी!तब बहुसंख्यक वर्ग उनके साथ सदियों से हुए अन्याय को भुलाकर गरीबी-अमीरी के मद्दे नजर,समानता बंधुता की तरफ देखेंगे! तब उन्हें एहसास होगा कि स्वतंत्र भारत के हिंदू मुस्लिम बाकई सब एक हैं!
वास्तव में मोदी अमित शाह तो निमित्त मात्र हैं,समग्र भारतीय अस्मिता ही स्वयं उस घड़ी का इंतजार कर रही है,जब हर भारतवासी वास्तविक रूप से धर्म,मजहब की राजनीति या आजीविका-के बरक्स हर चीज में वास्तविक समान हक और समान कर्तव्य का हकदार होगा!
इसलिये आज सत्तापक्ष जो कुछ भी कर रहा है,वह उन ऐतिहासिक भूलों का मानवीयकरण और लोकतांत्रिक दुरुस्तीकरण मात्र है! वेशक यह कार्य कितना ही दुरुह या अवरोधमूलक क्यों न हो,वक्त आने पर स्वत: पूर्ण होकर रहेगा! इस कार्य की पूर्णाहुति किये बिना अर्थात भारत विरोधी ताकतों को नाथने की पक्की गारंटी के बाद ही किसी किस्म की सर्वहारा क्रांति संभव है!
अभी राष्ट्रपति चुनाव में एक सुसभ्य विनम्र आदिवासी महिला सुश्री द्रौपदी मुर्मू का विरोध करने वालों की जो फजीहत हुई है,उसके कारण और ममता केजरीवाल जैसे नेताओं के संगी साथियों के पास जो रिश्वत खोरी का काला धन मिल रहा है, उसकी आड़ में पूंजीवादी मीडिया ने जनता के मुद्दे हासिये पर धकेल दिए हैं!
विपक्षी दल भले ही दस जन्म ले लें किंतु जब तक अहिंसा परमोधर्म वाली जनता को सुरक्षा की गारंटी नहीं मिलती ,तब तक हिंदू समाज के राजनैतिक ध्रवीकरण को कोई नहीं रोक सकता! इसीलिए भाजपा को पुनः सत्ता सीन होने से,ये जाति संप्रदायवादी दल तो नही रोक सकते!
जेएनयू वाले,जामिया वाले, AMU वाले, हैदराबाद वाले और AIMM,PFI जैसे खतरनाक संगठन और ओवैसी जैसे वोट कटवा नेता, मुसलमानों का नहीं बल्कि भाजपा की जीत सुनिश्चित करने में जुटे हैं! अब चाहे कोई भी तुर्रम खां हों,उस होनी को नही रोक सकते, जो इतिहास ने खुद तय कर रखी है ! यही युगधर्म है, यही भवतव्यता है! यही भारत का तात्कालिक भविष्य है!जय हिन्द
:- श्रीराम तिवारी