बुधवार, 31 दिसंबर 2014

नया साल मुबारक हो !

        सभी को नया  साल  मुबारक हो !

        मित्रो ,बंधुओ, सपरिजनों  सभी को नया साल मुबारक हो !

        सुशासन  और विकाश का ढपोरशंख बजाने वालों  को ,

        कर -कमलों  में झाड़ू लेकर फोटो खिचवाने वालों  को  ,

         चुनावी  ध्रुवीकरण के हेतु साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने वालों  को ,

         नया साल मुबारक हो !

         कालेधन का राग सुनाने वालों को  ,

        धारा  -३७०  का गीत सुनाने वालों को ,

        दाऊद- हाफिज सईद-सिमी-मसूद आतंकी को -

        पकड़ कर -सजा दिलाने  का दम  भरने वालों को,

        नया साल मुबारक हो !

कांग्रेस के पापों की सजा- भारत की जनता को  देने वालों को  ,

साम्प्रदायिक  उन्माद बढ़ाकर वतन की सत्ता हथियाने वालों को ,

धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक जन को मूर्ख बनाने वालों को ,

 शोषण -उत्पीड़न -जहालत से  लड़ने  वालों को ,

सीमाओं पर वतन -कौम के 'काम' आने वालों को,

सूखा -पाला -ओलों  की  मार सहने वालों को ,

न्यनतम मजदूरी के हक की लड़ाई लड़ने वालों को ,

भृष्टाचार ,अंधश्रध्दा ,साम्प्रदायिकता ,अंधविश्वास से लड़ने वालों को ,

फेस बुक पर लाइक करने वालों को , 

नया साल मुबारक हो !

 श्रीराम तिवारी 

         

          

       

        

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

अशालीन गालियों में एकता ही भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है '



                    लगभग ४५ साल पहले  की बात है।  बचपन में  गाली के रूप में एक लोक मुहावरा  सुना था।  जिसका  अभिप्राय समझने में मुझे  कई वर्ष लग गए ।  वह मुहावरा मुझे  आज भी  बखूबी याद है । दरसल उसे  मुहावरा  या लोकोक्ति  कहना  उचित नहीं होगा।  विशुद्ध हिंदी में तो  वह एक ऐंसी अपमानजनक ,हिंसक  एवं    अशालीन  गाली है कि  जिसमें   न केवल किसी खास  क्षेत्रीयता  का , बल्कि व्याज - स्तुति  में नारीमात्र की  गरिमा का भी अपमान कूट-कूट कर भरा हुआ  है।  इस घातक और मारक  'गाली' में  न केवल प्रतिपक्षी महिला के लिए  बल्कि बंगाल की तो नारी  मात्र के लिए  एक किस्म  का अपमानजनक  अभिप्राय निहित है। गनीमत यही  रही कि वह गाली बुंदेलखंड के अलावा और कहीं  सुनने में कभी नहीं आई। इधर  ४० साल से इंदौर में हूँ ,किन्तु वह गाली यहाँ भी  कभी नहीं सुनी। यहां मालवी,राजस्थानी,गुजराती ,मराठी और उर्दू में  भी एक से एक अश्लील, बहुश्रुत ,मारक -घातक  गालियां  हो सकतीं हैं ,किन्तु  उस  गाली की कोई बराबरी नहीं जिसे मैंने  बचपन  में सुना था। उस गाली को शब्दश : लिखना  शोभनीय  नहीं है ,किन्तु  इतनी बड़ी भूमिका के बाद पाठकों के धैर्य का भी ध्यान रखना  भी जरुरी है। उस गाली  को सम्भाषण में  प्रयुक्त किये बिना  उसकी शब्दशक्ति की क्षमता आंकना  भी असंभव है।

इसे पूरा पढ़ने के लिए लॉगऑन  करें  ;-http/www.janwadi.blogspot.in

   'क '  नामक महिला  को  'पनघट' पर खबर मिली कि उसका पति किसी  'ख' नामक  महिला से यारी -दोस्ती का या प्यार -मोहब्बत का टाँका  भिड़ाने में मशगूल है। इसी बीच 'ख' भी पनघट पर आ गयी। 'क' ने उसको कुछ हल्की फुलकी गालियाँ  दीं। 'ख' ने जब कोई जबाब नहीं दिया तो 'क' ने  गुस्से में जोर से कहा "अरी  राँड  तेरा खसम क्या खसुआ है जो मेरे मरद  पर डोरे  डालने चली ?" 'ख' ने चुपचाप अपने  हंडे -घड़े भरे और चल दी।  लगा कि  'ग' का  अब धैर्य छूट गया और  वह  चिल्लाकर बोली -' कुतिया … छिनाल……  बंगालन …!  हरामजादी…।
                              इस  शब्द विन्यास का न तो अर्थ मालूम था और न ही उस किशोरवय में मुझे कोई  आपत्ति  ही  थी।  किन्तु अब  चूँकि उन शब्दों के न केवल अर्थ बल्कि निहितार्थ भी मुझे बोधगम्य हैं  अतः उन गालियों की मारक  शक्ति का अंदाज लगा सकता हूँ।  उस एक खास शब्द'बंगालन' पर मेरी  चेतना को तब- तब और ज्यादा 'पेनीट्रेशन' मिलता है  जब-जब  ममता बनर्जी की  निंदनीय हरकतें और उसका पाखंडपूर्ण नाटकीय राजनैतिक व्यक्तित्व  जनता के समक्ष प्रदर्शित हुआ करता  है।
    एक ख्याल भी महिलाएं गाय करतीं -

  बंगालो  रे जादू अधकार  …… माहो न जइयो मोरे बलमवा हो ! !!
   

अर्थात:- हे प्रीतम  बंगाल की महिलायें जादू जानतीं हैं।  इसलिए  तुम यदि  विदेश जाओ तो बंगाल से होकर मत जाना या आना।

  न केवल लोक गीतों में बल्कि मुहावरों और 'कहावतों' में भी इसी तरह की जनश्रुति का चलन हजारों साल से चला आ रहा है। अभी भी उस पर कोई फर्क नहीं आया है। सामंत युग की ही नहीं बल्कि इस उत्तर आधुनिक युग की कतिपय  सास  माँयें भी जब अपनी बहु को भला -बुरा कहती या कोसती है तो  सुंदर सुशील गौरवर्णीय उच्च सुशिक्षित  बहु  भी अपना धीरज खोने लगती हैं। शुरुआत में वह मन-ही मन कहती - 'बुढ़ापे में सठिया गईं  हैं सासुजी !'जब शीतयुध्द से आगे बात बढ़ती है तब स्टार वार शुरू होता है।  स्वाभाविक है कि  गालियों के आग्नेय और परमाण्विक  अश्त्रों का भण्डार  तो पेंटागन रुपी सासुजी के पास ही होगा। उधर  नए -नवेले उदीयमान सोवियत ,वियतनाम,क्यूबा या  या भारत जैसे राष्ट्रों की तरह  निरीह किन्तु आशावान सकारात्मक सोच वाली बहुरानियों को इस तरह की गालियां उनके  मायके में सिखाई ही नहीं  गईं !  वेशक सासुओं के इस पारम्परिक और  दैनिक प्रशिक्षण की बदौलत  बहुत  संभावना है कि वक्त आने पर वे भी जब कभी भविष्य में  'सास' की हैसियत में होंगीं तब  अपनी  बहु को गालियों से विभूषित करने  की कला  में पी एच डी हो चुकी होंगीं। एक दूसरे  को शर्मिंदा करने या नीचा दिखाने की  इस तरह की बानगी तो सब जगह सुनी   देखी जा सकती है. किन्तु अपनी बहु को पराजित करने के लिए कोई  सास यदि पतन की पराकाष्ठा को लांघ जाए तो मामला संगीन हो जाता है। जब  गालियाँ  -गोलियों में बदल जातीं हैं। अपनी बहु से कहे कि  'तूँ  रांड  हो जा ' तो बहु  के वैधब्य  की कामना  रखने वाली वह सास  क्रोध में यह भूल गई  कि प्रकारांतर से  वह अपने ही बेटे की मौत की  तमन्ना ही जाहिर कर रही है.
                              इस नकारात्मक और वीभत्स गाली विमर्श से भले ही कुछ सभ्रांत नारियों या पुरुषों को कोई विजुगप्सा हो किन्तु कतिपय मर्दानियों या बेंडिट क्वीन जैसी नारियों की सेहतमंदी और उनके  नारीत्व' का अलंकार तथा  आभूषण भी यह गाली मर्मज्ञता ही  है। कई  वर्षों तक मुझे यही आत्मश्लाघी  भरम कष्ट देता  रहा  कि  हिंदी की   खड़ी बोली  और उसके इर्द-गिर्द वाले इलाकों  रुहेलखण्ड ,बुंदेलखंड ,महाकौशल , या पछाँह में ही ये अशालीन गालियां क्यों प्रचलित हैं ? कालांतर में  जब अखिल भारतीय अधिवेशनों के निमित्त  मेरा जब चेन्नई ,त्रिवेन्द्रम , मुंबई , अमृतसर  जैसे शहरों में  जाना हुआ या अन्य गैर हिंदी भाषी  साहित्यकारों से मिलना जुलना हुआ तो मुझे  यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ की यह एक गाली ही नहीं बल्कि अधिकांस  गालियाँ  इन भाषाओँ में भी मौजूद हैं।  अहा ! क्या साम्य है ? भारत की सांस्कृतिक एकता के लिए  ये अपावन और अशालीन गालियाँ    न केवल हिंदी में बल्कि अन्य भाषाओँ में भी हूबहू  उसी भावार्थ  और उसी तेवर  के साथ उसी  संहारक क्षमता के साथ मौजूद  हैं।  यह सुनकर कलेजा ठंडा हो गया। क्षेत्रीय और भाषायी अपराधबोध से मुक्त होकर मैं यह दावा कर सकता हूँ कि' शायद अशालीन  गालियों  में एकता ही हमारी भारतीय संस्कृति की मूलभूत विशेषता है '
                                     
                मसल मशहूर है कि  बन्दुक से निकली गोली और जुबान से निकली बोली वापिस नहीं आती। शब्दों  या ध्वनियों  से निर्मित मन्त्रों में कोई  शक्ति निहित है या नहीं यह तो वैज्ञानिक  शोध का विषय अभी भी है। किन्तु   गाली में प्रयुक्त शब्दों  की ताकत  को खुद आजमा कर कोई भी जब चाहे देख सकता है।
यह सिर्फ एक गली या मोहल्ले की बात नहीं बल्कि पूरी दुनिया  ही इस गाली-फोबिया से पीड़ित है।  क्रिकेट का खेल तो बिना गालियों के कभी भी पूरा नहीं होता।  आस्ट्रेलिया ,पाकिस्तान ,न्यूजीलैंड ,श्रीलंका  के खिलाडी ही नहीं अपितु  भारत और इंग्लैड  के तथाकथित सभ्रांत  खिलाड़ी भी   बिना गाली दिए घर नहीं लौटते। हमारे बुंदेलखंड में तो दो दोस्त भी  अपनी दोस्ती का इजहार भी बिना  गाली दिए  नहीं कर  सकते।हमारे  रज्जु कक्का  और उनका पडोसी दोस्त  तो  सुबह की राम-राम की जगह गाली से 'गुड मॉर्निग ' किया करते थे।
                           
                           रज्जु कक्का याने  राजाराम पटेल। हमारे ही गाँव के थे।  गाँव के नाते वे हमारे काका जैसे ही थे।  गाँव में  उनकी बड़ी उपजाऊ जमीन थी। उन्होंने  सागर शहर के पास भी कई एकड़ जमीन खरीद कर फार्म हॉउस  बनाकर मय  बाल बच्चों के वे  सागर शहर  में ही रहा करते थे।  तब  मेरे गाँव में  ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सभी जाति के  लोगों के पास अच्छी जमीने थी , जो आज भी  हैं। गाँव में ब्राह्मण ४२ परिवार थे। कथा -पूजन-हवन से एक का ही पेट नहीं भरता तो बाकी  के परिवार क्या करते। इसीलिये कुछ तो काशी -बनारस  चले गए ,कुछ महेश योगी गुरुकुल में चले गए जहाँ खाना  और पढ़ना भी सम्भव हो।   चूँकि मुझे हायर सेकंडरी में साइंस विषयों में फर्स्ट  ग्रडिंग  मिली थी और मेरिट स्कालर का इंतजाम हो गया था  इसलिए घर की आर्थिक स्थति खराब  होने के वावजूद  मैं और  मेरा एक  सहपाठी शहर से  दूर बिना बिजली के इस फार्म  हाउस में जा  टिके। जो की रज्जु कक्का के  हरे-भरे  'कछवारे'  [सब्जी-भाजी  के खेत] के  बीचों  बीच  उस वीराने में अवस्थित था।   मैं और मेरा सहपाठी महेश  मकान के एक कमरे  में रहकर साइंस विषयों  का  अध्यन  करने लगे  । मैं सुबह -सुबह  नहा -धोकर रामचरितमानस और गीता का सस्वर पाठ किया करता  । अक्सर   रहीम  ,कबीर  , बिहारी  के दोहे या सूर ,तुलसी,मीरा के भजन  गाते-गाते  ही ईंटों  के चूल्हे पर मोटे-मोटे चार टिक्क्ड़ बना  लिया करते । अव्वल तो शुद्ध शाकाहारी सदाचारी  निर्धन ब्राह्मण, दूसरे संस्कृत वांग्मय तथा हिंदी महाकाव्यों के  सस्वर पाठ करने की  मेरी नैसर्गिक क्षमता  इस सद प्रवृत्ति से प्रशन्न होकर मकान मालिक ने मेरा   मकान  किराया  ही  माफ़ कर दिया । इतना ही नहीं उन्होंने मुझे  यह छूट भी   दे रखी थी  कि  मैं उनके 'कछवारे' से कोई भी सब्जी कभी भी मुफ्त में ले सकता हूँ। इसके अलावा उन्होंने   खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी   सोने के लिए एक कमरा और कुछ बर्तन भी दे रखे थे। इस के अलावा अमावस्या-पूर्णिमा  को  भी उन्होंने  श्रद्धापूर्वक  'सीधा' दिए जाने का इंतजाम भी किया।
                                       चूँकि उनके पास शहर की सीमा से लगी वेश्कीमती कई एकड़ जमीन थी. इसलिए  वे  तथाकथित 'पिछड़े'' वर्ग  के  होते हुए भी  हर तरह से असली 'अगड़े'थे ।   इस सम्पन्नता की चकाचौंध में  भी उनके पैर सदा जमीन पर ही रहे। उ नके लड़के  -लड़कियाँ हालाँकि  मुझे याने तथाकथित 'उच्चवर्ण' के  निर्धन को  उपेक्षा और हीनता की नजर से  देखते थे। किन्तु  रज्जु काका उम्र में मुझसे ४० साल बड़े होते हुए भी  रोज सुबह उठकर सबसे पहले 'पंडितजी पायँलागूं ' कहकर मेरे पैर छूकर  आशीर्वाद माँगा करते थे ।  वे शायद  वर्ण व्यवस्था और जातीय परम्परा  के जीवंत हस्ताक्षर थे। वे परम   आस्तिक प्रवृत्ति के  सम्पन्न गृहस्थ थे।    लेकिन जब कभी   कोई गलत  काम करता या गलत बात करता तो वे  गुस्से में  आकर बहुत अशालीन गालियों का प्रयोग करने लगते।  मुझे याने 'द्विज' याने गरीब ब्राह्मण को  छोड़कर बाकी सभी पर  गालियों  की बाण बरसा किए करते।  उनकी गालियों में न केवल साहित्यिक सौंदर्य बल्कि   भदेसीपन  भी हुआ करता। जब मैंने उनसे   गाली नहीं बकने का  नि वेदन किया तो उन्होंने  कहा 'हम कहाँ  गाली देत  हैं  पंडितजी ,ये तो  ससुरी  सरसुती [सरस्वती]  ही  है जो हमाये मौ से जो सब कुवात हैं '।

                                              श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

क्या 'खान्स ' ही शेष बचे हैं जो हिन्दुओं को ये समझाये कि उनका धर्म कैसा है ?




    इन दिनों  कोई 'पी के' नाम की फिल्म आई है। मुझे अभी तक इस फिल्म को  देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है । वैसे भी में केवल 'कला' फिल्मे ही देखना पसंद करता हूँ।  बीस -पच्चीस साल से किसी सिनेमाँ घर गया ही नहीं ।  किन्तु मनोरंजन चेलंस पर कभी -कभार  कोई आधी -अधूरी  फिल्म  अवश्य देख लिया करता हूँ ।  इस फिल्म के  लगने के शुरूआती हफ्ते में तो केवल उसके  मुनाफा कमाने  के रिकार्ड और सिनेमा घरों में उमड़ी  दर्शकों की भारी  भीड़  ही चर्चा का विषय रही। किन्तु अब उसकी समीक्षा के बरक्स  दूसरा  पहलु भी  धीरे -धीरे सामने आने लगा है। मेरे प्रगतिशील मित्र और प्रबुद्ध पाठक गण  कह  सकते हैं इससे हमें क्या लेना-देना।  हम तो धर्मनिरपेक्ष हैं। सभी  धर्म -मजहब को समान आदर देते हैं। सभी की बुराइओं का समान रूप से विरोध भी करते हैं। मेरा निवेदन ये है कि वैज्ञानिक समझ और प्रगतिशील चेतना के निहतार्थ यह  भी जरुरी है कि जान आंदोलन तभी खड़ा हो सकता है जब  देश की बहु संख्य 'धर्मप्राण' जनता  आप से जुड़े।  चूँकि यह बहुसंख्य जनता  की आस्था का सवाल है और इसको नजर अंदाज करने के बजाय उनके समक्ष दरपेश चुनौतियों से 'दो -चार'  होना ही उचित कदम होगा।
                    ख्यातनाम जगद्गुरु शंकराचार्य  स्वामी श्री स्वरूपानंद जी ने इस फिल्म 'पी के ' की आलोचना के  माध्यम से  एक   बहुत ही  सटीक और  रेखांकनीय  प्रासंगिक प्रश्न  उठाया है। कुछ अन्य हिंदूवादी भी इस फिल्म  में उल्लेखित कुछ आपत्तियों का विरोध कर रहे हैं। इन सभी का यह पक्ष है कि चूँकि हिन्दू धर्म बहुत उदार और सहिष्णु है इसलिए उसके नगण्य नकारात्मक पक्ष को  शिद्द्त से  उघारा जाता है। जब कभी   धर्म -मजहब में व्याप्त कुरीतियों या आडंबरों की  आलोचना  को मनोरंजनीय  बनाया जाता है या  किसी फिल्म की विषय  वस्तू  बनाया जाता है. तो 'हिन्दू धर्म' को ही  एक सोची समझी चाल के अनुरूप 'लक्षित' याने टॉरगेट  किया जाता है।  स्वरूपानंद जी का  ये भी मानना है कि  गैर हिन्दू - मजहबों के  सापेक्ष   हिन्दू धर्मावलम्बी बहुत क्षमाशील और विनम्र होते हैं। इसलिए वे नितांत समझौतावादी और पलायनवादी हैं। इसी उदारता  का   बेजा  फायदा ये फिल्म वाले आये दिन उठाया करते हैं।  किन्तु देश में हिंदुत्व वाद वालों की सरकार है और सत्ता में जो जमे हुए हैं वे अब  'हिंदुत्व' को रस्ते में पड़ी  कुतिया समझकर लतीया  रहे हैं। हिन्दुओं को समझना होगा कि  भाजपा और संघ परिवार ने 'हिंदुत्व' को चुनाव में केश' कराने का जरिया बाना लिया है। शासक वर्ग  साम्प्रदायिकता  को उभारकर असल  मुद्दे से ध्यान बँटाने  में मश्गूल है।  इनके राज में पूँजीपतियों  की लूट और मुनाफाखोरी  भयंकर बढ़ रही है। मेहनतकशों  -गरीब किसानों के श्रम  को सस्ते में लूटने की छूट देशी -विदेशी इजारेदाराओं को निर्बाध उपलब्ध है। संगठित संघर्ष की राह में धर्म-मजहब के फंडे  सृजित किये जा रहे हैं। 'पी के 'फिल्म के बहाने एक नया फंडा फिर हाजिर  है। शंकराचार्य स्वरूपानंद जी ने फिल्म के बहाने 'नकली हिन्दुत्ववादियों' को ललकारा है। उन्होंने हिन्दुओं  के सदाचार,शील ,उदारता ,सहिष्णुता और सौजन्यता का जो बखान किया है उसका वही  विरोध कर सकता है जिसमे ये 'तत्व' मौजूद नहीं हैं। चूंकि मैं तो इन मानवीय और नैतिक  मूल्यों  की बहुत कदर करता हूँ इसलिए त्वरित प्रतिक्रया के लिए तत्पर हूँ।   
                       मेरी दिक्कत ये है की  जगदुरु शंकराचार्य स्वरूपानंद जी के इन शब्दों का  चाहते हुए भी विरोध  नहीं कर  पा रहा हूँ।  क्योंकि  मैं  उपरोक्त  मानवीय गुणों को [यदि वे किसी धर्म -मजहब में हैं तो !.] मानवता के पक्ष में सकारात्मक मानता हूँ।  दूसरी ओर मैं शंकराचर्य जी के और हिंदूवादियों के इस नकारात्मक हस्तक्षेप का  भी विरोध  करना चाहता  हूँ।  क्योंकि उनका  या किसी और साम्प्रदायिक जमात का इस तरह से - फिल्म ,मनोरंजन,कला ,साहित्य  या संगीत में हस्तक्षेप ना-काबिले -बर्दास्त है। बहुत सम्भव है कि  जिसमें ये गुण-  शील,सौजन्यता और क्षमाशीलता न हो  वे 'पी के ' जैसी फिल्म से छुइ -मुई हो जाएँ।  जिन धर्मों या मजहबों में यदि विनम्रता ,क्षमाशीलता या सहिष्णुता न हो उनका अस्तित्व तो अवश्य ही खतरे ,में होगा।  जो धर्म -मजहब या पंथ - आडंबर,पाखंड ,शोषण ,उत्पीड़न ,आतंक , असत्य या झूँठ  की नीव पर टिके होंगे  उनको 'पी के' क्या 'बिना पी के ' भी निपटाया जा सकता है।
                                    मैंने बचपन से ही अनुभव किया है  और  अधिकांस फिल्मों में देखा भी  है कि  मुल्ला  -मौलवी या फादर नन तो बहुत पाक साफ़ और देवदूत  जैसे दिखाए जाते  रहे हैं। प्रायः प्रगतिशीलता या आधुनकिता  के बहाने  खास तौर  से 'हिन्दू मूल्यों ' का ही उपहास किया गया है। कहीं -कहीं अन्य मजहबों या धर्मों के गुंडों -मवालियों को -अंडर  वर्ल्ड के बदमाशों को न केवल 'महानायक' बनाया गया बल्कि हिन्दू हीरोइनों को दुबई,यूएई ,अमीरात में बलात ले जाकर अंकशायनी  भी बना  लिया गया। ऐंसा नहीं है कि समाज और राष्ट्र को यह सब मालूम नहीं है किन्तु बर्र के छत्ते में हाथ कोई नहीं डालना चाहता। शंकराचार्य ने डाला है तो  शायद सही ही किया है उनका कोई क्या बिगाड़ लेगा? अधिकांस फिल्मों में  पंडित ,ब्राह्मण, ठाकुर ,बनिया  और सनातनी हिन्दू ही बहुत बदमाश  बताये जाते हैं । किसी सलमान खान ,किसी शाहरुख़ खान ,किंसी इमरान खान ,किसी अमीर खान , किसी फरहा खान  ,किसी सरोज खान ,किसी पार्वती खान ,किसी गौरी खान ,किसी मलाइका खान ,किसी करीना खान से पूंछा जाना चाहिए कि उन्होंने किसी  ऐंसी फिल्म में काम क्यों नहीं किया जो हाजी मस्तान ,अबु सालेम ,हाफिज सईद,दाऊद खानदान जैसे [कु]पात्रों  पर  फिल्माई  गई हो  ?   क्या  यारी - रिस्तेदारी -कारोबारी  का यह शंकास्पद संजाल नहीं है ? क्या २६/११ ,क्या ९/११ क्या मुंबई बमकांड  हर जगह चुप्पी रखने वालों से यह  जरूर  पूंछा जाए कि आप को  किसने अधिकार दिया या आपको  क्या जरुरत  आन पड़ी कि   बहुसंख्यक हिन्दुओं को ही  सुधारने   का बीड़ा उठायें  ?
                    मनोजकुमार का सवाल लाजिमी है कि   क्या 'खान्स ' ही  शेष बचे हैं  जो  हिन्दुओं को ये  समझाये कि  उनका धर्म कैसा  हो  ? क्या वे दाऊद ,ओसामा बिन लादेन या आईएस आई ,हाफिज सईद इंडियन मुजहदीन   को भी कुछ समझाने   का माद्दा रखते हैं ?  क्या वे इन पर भी  'पी के ' जैसी ही फिल्म बनायँगे ?  सब जानते हैं कि आप  नहीं बनाएंगे  . क्योंकि  आपको  मालूम है कि  आप  मार दिए जाएंगे। चूँकि  हिन्दू धर्म  पर धंधा करना  आसान है।  यहाँ  कोई उग्र विरोध नहीं यहाँ तो 'पी के ' के समर्थन में लाल कृष्ण आडवाणी जी भी फौरन हाजिर हैं।  यहाँ तो हिंदुत्व का दिग्विजयी  अश्वमेध विजेता भी 'खांस' का फेंन है। तभी तो  जिसे जेल में होना चाहिए उस सलमान के साथ मोदी जी पतंग उड़ाने में गर्व महसूस करते हैं।
                                      क्या ऐंसे हिंदूवादियों से स्वरूपानंद जी जैसे शुद्ध हिंदूवादी ज्यादा ईमानदार नहीं हैं ? कम से कम वे हिंदुत्व की राजनीति  तो नहीं करते ! कम से कम वे  'मुँह   देखी  मख्खी नहीं निगलते' . हिंदुत्व के बारे में स्वरूपानंद जी से  ज्यादा न तो ये सत्तानशीं नेता जानते हैं और न ही 'पी के  फिल्म का निर्माण करने जानते हैं।  वेशक यदि स्व असगर अली इंजीनियर कहते ,स्व उस्ताद बिस्मिल्ला खां  कहते ,अमीर खुसरो कहते ,तो उनकी बात हिन्दू जरूर मानते। अभी भी  जावेद अख्तर कहें , उस्ताद अमजद अली खां  साहिब कहें या कोई प्रगतिशील जनवादी धर्मनिरपेक्ष विद्वान सुझाव दे कि  हिन्दुओं को फलाँ  चीज से जुदा  रहना चाहिए तो शायद  हिन्दू उनकी बात जरूर सुनेंगे। किन्तु  अपने स्वार्थ या धंधे के लिए केवल 'हिन्दू धर्म' को लक्षित करना ,लज्जित करना ठीक बात नहीं है।  चूँकि हिन्दू स्वभाव से ही  क्षमाशील है ,उदार है ,स्वभावतः धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए  वह दिल से 'पी 'के  देख रहा है। लेकिन शंकराचार्य की बात में भी दम  है उसे नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए !
                                                          श्रीराम तिवारी


मोदी जी को अपनी गलती सुधारने का अवसर तो दिया ही जाना चाहिए !





       'क' को अपने पडोसी से बहुत प्रॉब्लम थी। पडोसी और पड़ोसन  बहुत झूंठे ,मक्कार ,हिंसक और गाली गुफ्ता वाली  धातुओं  से बने हुए थे । 'क' ने शिवजी की घोर  तपस्या की। शंकर जी ने कहा ' माँगो वरदान '।    'क' ने  शर्त रखी  में जो  भी मांगू  उसका  डबल मेरे उस बदजात पडोसी को   देना होगा। शंकर जी ने कहा  -ओ. के  !  तथास्तु !  'क' ने अपनी एक आँख फोड़ने का वरदान माँग लिया। पड़ोसी  की दोनों आँखें  फूट गईं ।
                           एक सास को अपनी 'कर्कशा'बहु से  बहुत प्रॉब्लम थी।  क्रोध की आग में अंधे होकर सासुजी ने  किसी देवता  को  प्रशन्न किया। वरदान माँगा की  'मेरी  बहू का सर्व नाश हो  जाए'  ! 'देवताओं   के विधान में शायद  इसका तात्पर्य यह रहा होगा  कि  किसी सधवा का सर्वनाश याने  विधवा हो जाए। सास को प्रतिहिंसा की ज्वाला में यह  ज्ञान ही  नहीं रहा कि  वह बहु का सर्वनाश नहीं बल्कि  प्रकारांतर से खुद का 'सत्यानाश' करने  की भयंकर भूल कर बैठी है। वह अनजाने में अपने ही  पुत्र के विनाश  की कामना कर बैठी  ।
                                                     ऐंसी ढेरों कहानियाँ  संसार की हर भाषा में और हर कौम में हर दौर में  पढ़ने-सुनने की मिल जायेंगी ।  आम  तौर  पर दुनिया का हर ,असफल,दुर्बुद्धि और ईर्षालु  व्यक्ति ,समाज और राष्ट्र इस आत्मघाती फोबिया से पीड़ित है। वह खुद तो कुछ  बेहतर कर नहीं पाता  उलटे दूसरों का विकाश और उन्नति  देख-देख ,दुखी होकर आत्मघाती हरकतें किया करता है।  विसंगतियों , बिडम्बनाओं से आक्रान्त परिस्थतियों  में  वही सही निर्णय ले पाते हैं जो वैज्ञानिक सोच वाले हैं । सामान्यतः  विवेकी इंसान और खास तौर पर प्रगतिशील  चिंतक -लेखक या क्रन्तिकारी सोच वालों से दुनिया को उम्मीद रहती है कि  वे   देश और समाज का हर तरह से मार्ग दर्शन करे।  हर भारतीय  इस मान्यता में यकीन रखता है कि  'बुजुर्गों का सम्मान करो ' । क्या हिन्दू ,क्या सिख , क्या बौद्ध ,क्या जैन, क्या ईसाई ,क्या  मुसलमान ,क्या पारसी ,क्या नास्तिक ,क्या आस्तिक  -सभी को अपने पूर्वजों और बुजुर्गों से  प्यार है। न केवल सम्मान बल्कि उनके प्रति कृतज्ञता का भी भाव हुआ करता है। सभी को मालूम है कि सभी सभ्य समाजों में  बेहतरीन  उसूलों और नैतिक मूल्यों  का आग्रह अपेक्षित है। सभी सभ्यताओं और धर्म-मजहबों में यह नैसर्गिक विश्वाश जुड़ा हुआ है कि  अपने बुजुर्गों का सम्मान करें। अपने वरिष्ठों को इज्जत दो। यदि अटलजी और मदन मोहन मालवीय को सम्मान मिल रहा है तो किसी के पेट में मरोड़ क्यों ? वेशक ये दोनों किसी खास  विचारधारा  के हिमायती होंगे किन्तु भारी बहुमत से चुनी गई   सरकार यदि कोई काम -धाम नहीं कर पा रही है और यदि मोदी जी पर यह  आरोप है कि  वे बुजुर्गों का सम्मान नहीं करते तो  कम -से कम  मोदी जी को  अपनी गलती सुधारने का अवसर  तो दिया ही जाना चाहिए !
                             पंडित मदनमोहन मालवीय को जो लोग जानते हैं वे उनके अवदान को कदापि नजर अंदाज नहीं कर सकते।  वे न केवल काशी  हिन्दू विश्वविद्यालय  के संस्थापक , न केवल कांग्रेस के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए थे  बल्कि महानतम शिक्षाविद,समाजसेवी  और साहित्यकार भी थे।  यदि वे हिन्दू महा सभा के संस्थापकों में से थे तो  क्या वे 'गोधरा काण्ड  दोषी हो गए ? अटलजी तो तीन -तीन बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं। पहली बार तरह  दिन  के लिए. दूसरी बार तीन महीने के लिए  और तीसरी बार  ५ साल के लिए।   इसके अलावा  जो शख्स ४० साल तक संसद में विपक्ष की  भूमिका में रहा हो । जिसने  आपातकाल में जेल यातना सही  हो ,  उसे  यदि  भाजपा वाले 'भारत रत्न' दे रहे हैं तो  कोई बड़ा एहसान नहीं कर रहे हैं। यह तो कांग्रेस को भी करना चाहिए था।  अब किसी के पेट में दर्द क्यों उठने लगा। मुझे बहुत उचित  लगा  जब संसद में  वामपंथी सांसदों ने और  अन्य अधिकांस  विपक्षी दलों ने  भी अटलजी  और पंडित मदनमोहन मालवीय को  भारत  रत्न दिए जाने का  तहे दिल से समर्थन किया। कांग्रेस ने तो ५० साल में ऐसे -ऐसे  नमूनों को भारत रत्न  दिया है  जो  देश के किसी भी काम नहीं आये। अटलजी और पंडित मदनमोहन मालवीय को सम्मानित करना किसी भी दृष्टि  से अनुचित नहीं है। सोशल मीडिया पर या प्रिंट -दृश्य मीडिया पर  कुछ  नासमझ लोगों ने इस सम्मान पर अंगुली उठाई है वह उनकी न केवल अज्ञानता बल्कि  निंदनीय  हरकत है।
                                                               वेशक अटलजी और पंडित मदन मोहन मालवीय से भी श्रेष्ठ बलिदानी ,देशभक्त इस देश में हुए हैं।  कांग्रेस ने अपनी 'वलन ' के महापुरुषों को सम्मानित किया ,भाजपा ने अपनी वलन  के लोगों को सम्मनित किया ,समाजवादी आएंगे\ तो लोहिया ,मामा  वालेश्वर दयाल को नवाजेंगे।  सपा वाले तो मुलायम को ही भारत रत्न दे डालेंगे. जब  कम्युनिस्ट सत्ता में आएंगे तो  हो सकता है कि सबसे पहले शहीद भगतसिंह , बीटी  रणदिवे,श्रीपाद अमृत  डांगे ,ज्योति वसु ,नम्बूदिरीपाद ,हरकिसनसिंह  सुरजीत ,विजय लक्ष्मी सहगल ,एम के पंधे  या किसी  अन्य मजदूर नेता को भारत रत्न   दे सकते हैं ।शिवसेना वाले  यदि कभी आएंगे तो बाल ठाकरे साहिब को भारत रत्न न मिले यह  कैसे हो सकता  है !
मायावती जी यदि  केंद्र की सत्ता में आईं  तो मान्यवर कासीराम जी   को और  खुद को भी भारत रत्न दे सकतीं हैं।  जब वे अपनी मूर्तियां  वनवा सकतीं हैं तो 'भारत रत्न ' क्यों नहीं लेंगी ?
                                                      दरसल  महत्वपूर्ण चीज भारत रत्न नहीं है। यह भी महत्वपूर्ण नहीं है  कि  किसे दिया जा रहा है ?  खास बात ये है कि  देश की जनता को असली मुद्दों से भटकाया जा रहा है।  शासक वर्ग की बात तो समझ में आती है कि  वे  इन आलतू-फ़ालतू चीजों पर लम्बी बहस  चलाकर जनता को उल्लू बना  रहे   हैं।  राम लला मंदिर निर्माण , धारा  -३७०  , विदेशी बैंकों से  कालेधन  की वापसी , पाकिस्तान के   शत्रुतापूर्ण  व्यवहार  पर अंकुश  ,दाऊद जैसें  आतंकियों को  पकड़कर  भारतीय क़ानून  के हवाले करना , रुपया अवमूल्य्न  रोकना तथा वेरोजगारी जैसे मुद्दों पर  किये गए चुनावी वादों पर  मोदी सरकार  रत्ती भर का काम नहीं कर  पाई है। जनता सवाल खड़े  न कर सके इसलिए हाथ  में झाड़ू उठाकर  फोटो खिचवाना  ,धर्मांतरण विमर्श का हौआ खड़ा करना  , प्रधानमंत्री के  देशी- विदेशी सैर सपाटों का मीडिया पर प्रदर्शन  कराना , इत्यादि फंडों के मार्फ़त मोदी सरकार  अपनी असफलताओं  के कारण जनता से  नजरें  चुरा रही   है। 
                          फेस बुक गूगल जैसे सोसल साईट पर देश की प्रबुद्ध जनता का ५% भी हाजिर नहीं है। यदि ये  चंद तथाकथित पढ़े-लिखे लोग ही शासक वर्ग की  इन चालाकियों  को नहीं समझेंगे  तो फिर देश  में वही होगा जो 'मंजूरी शैतान होगा।  सरकार की  असफलताओं को उजागर करने के बजाय ,पूँजीवादी  विनाशकारी नीतियों का विरोध करने के  बजाय ,कुछ लोग मोदी जी का व्यक्तिगत विरोध  कर रहे हैं।  मानो प्रकारांतर से वे  भी संघियों की तरह मोदी जी   को चमत्कारी पुरुष  ही मान रहे हैं। जो 'खुल जा सिम-सिम ' से देश का उद्धार कर देंगे।   मोदी जी के व्यक्तिगत अंधे विरोध में  ये भी भूल गए कि  वे जिस वििमर्श में उलझ रहे हैं वह  तो शासक वर्ग  की कुचाल  मात्र है। वामपंथी  सोच के लोगों  को चाहिए कि  वर्तमान शासक वर्ग याने 'संघ परिवार' की इस चालकी को समझे। लव-जेहाद,धर्म -मजहब ,भारत रत्न या धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर सोच समझकर  ही न्याय संगत व् तार्किक  प्रतिक्रिया दें या  पक्ष प्रस्तुत करें  । जैसे की अभी वामपंथी सांसदों ने संसद में 'भारत रत्न ' के सवाल पर  सही  स्टेण्ड लेकर खुद को भी गौरवान्वित किया है ।

                          श्रीराम तिवारी
                    

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

इन चुनावों में भारतीय लोकतंत्र और ज्यादा मजबूत हुआ है।



टीवी चैनलों पर चल रही अहर्निशि राजनैतिक  चखल्लस। संसद से लेकर सड़कों तक जारी लालू,मुलायम,तथा  शरद यादव का  'यादवी'  प्रदर्शन। पूँजीवादी अनगढ़ विपक्ष का निरर्थक  प्रमाद ,  पूँजीवादी भृष्टतम सत्ता के खिलाफ  वामपंथ का  निष्प्रभावी  शक्ति प्रदर्शन। मजदूर आंदोलन की बिखरी हुई प्रतिरोधक  गतिविधियाँ। मीडिया के मार्फ़त धर्म-मजहब के धंधे में लिप्त सत्ता के दलालों  की आग्नेय वयानबाजी। इस सबसे  देश की जनता को कुछ खास लेना देना नहीं है। दरसल आवाम की नब्ज पर अभी तो केवल विकास और सुशासन का भूत  सवार है। जनता के इस रुझान में  'नमो' का  ही हाथ है। वेशक नरेंद्र मोदी की  भी कुछ वैयक्तिक कमजोरियाँ  हो सकती हैं।
                  वेशक वे एक ऐंसे गैर राजनैतिक संगठन के दवाव में हैं जो संवैधानिक उत्तरदायित्व से मुक्त है। अध्यात्म , दर्शन , साहित्य-कला -संगीत  में  भी  मोदी जी  कुछ खास निष्णांत नहीं हैं।  लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मुक्त भारत की आराधना और हिंदुत्व की वंदना  शायद सत्ता प्राप्ति विषयक उनकी मजबूरी   ही  रही होगी ।  वरना वे न तो हिन्दुत्ववादी हैं और न सम्पर्दायिक.  वे केवल  घोर पूँजीवादी  रास्ते से देश के विकाश की अवधारणा के अलम्बरदार हैं। हो सकता है  हिंदुत्वादियों  का अभी भी उन पर  कुछ दवाव   हो ! किन्तु सत्ता में आने के ९ माह बाद अब   लगता है कि  नरेंद्र मोदी  किसी की परवाह नहीं करते।  उन्हें विश्वाश हो चला है कि उन के न केवल 'नौ ग्रह' बलवान हैं अपितु  भारतीय लोकतंत्र के भी कुछ तो 'अच्छे दिन ' अवश्य ही  उन्हें  आते दिख रहे हैं। जिन्हे उनकी  बात पर यकीन न हो वे यूपीए -२ से व् उनकी तुलना कर सकते हैं।
                                      न्यूटन का 'गति का तीसरा नियम' केवल भौतिक साइंस के लिए ही नहीं है। जड़ पदार्थों ,ब्रह्माण्डीय द्रव्यों के अलावा यह नियम चैतन्य  प्राणियों ,देशों और उनकी आवाम पर भी लागू होता है।  अतीत में जो-जो  व्यक्ति ,समाज. क्षेत्र और राष्ट्र दमित रहे हैं अब उनके उत्थान का वक्त आ चला है। कांग्रेस का पराभव और मोदी का उद्भव  इसी थ्योरी का नतीजा है। मैने  भाजपा या संघ परिवार को तरजीह न देकर केवल 'मोदी' के उद्भव की धारणा को पेश किया यह  कोई व्यक्तिनिष्ठ  अवधरणा नहीं है। बल्कि यह अकाट्य सत्य है कि  'संघ' से और भाजपा से बड़े तो अब केवल मोदी ही हैं।
                   देश में   आज जो शोषण कर रहे हैं , जो भृष्ट  तरीके से  देश को लूट  रहे हैं , जो देश के साथ निरंतर  विश्वाश्घात कर रहे हैं ,आने वाला कल  उनके विनाश की  करुण  कथा का बखान करेगा।  बहरहाल कश्मीर और झारखंड के  विधान  सभा चुनावों ने यह  सावित कर दिया है कि  न केवल इन राज्यों में बल्कि सम्पूर्ण भारत की जनता ने   बहुमत से सावित कर दिया है कि वह  'बुलेट'  से नफरत करती है।  बल्कि  वह  'बेलेट' की ताकत पर भरोसा करती  है।  अभी तो  देश की आवाम का सबसे बड़ा हिस्सा  हर किस्म की असामाजिक गतिविधियों से निजात पाना चाहता है।  भले ही सभी  विचारधाराओं की सापेक्षतः अपनी-अपनी प्रासंगिकता हो। सभी को कुछ कम कुछ जयादा जन समर्थन मिला हो किन्तु  भारतीय लोकतंत्र तो निश्चय ही परवान चढ़ा है।झारखंड में वाही हारे जिन्हे हारना था। कश्मीर में  वही  जीते जिन्हे जनता ने जिताया। लेकिन इन चुनावों  से भारत का बड़ा मान हुआ है।
                                        निसंदेह भारतीय संविधान  की लोकतान्त्रिक आकांक्षा ,चुनाव आयोग  की मुस्तैदी ,युवाओं की जागरूकता से यह चुनाव रिकार्ड मतदान के लिए जाने जाएंगे। किन्तु   नरेंद्र मोदी  की भूमिका को नजरअंदाज करना  नितांत  छुद्रतापूर्ण  बेईमानी  होगी।   वेशक भारत में सभी  विचारों ,संगठनों और  संस्थानों  की अपनी -अपनी  प्रासंगिकता है किन्तु सर्वाधिक  लोकप्रिय तो अभी 'विकास और सुशासन ' का नारा ही है।  किसी को यह झुठलाने की जुर्रत नहीं करना चाहिए कि  इस दौर में तो मोदी ही इसका सर्वाधिक इस्तेमाल करते हुए देखे गए हैं। वेशक  उनकी ही  मेहनत  का नतीजा है कि  झारखंड में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला और जम्मू कश्मीर में रिकार्ड ६० % मतदान   संभव हुआ। भले ही वहां भाजपा सत्ता में नहीं आ सकी  किन्तु  यह  कटु सत्य है कि 'मोदी लहर'  से डरकर  ही उग्रवादियों ने लोकतंत्र के आड़े आना कम कर दिया है।आतंकवाद और अलगाववाद से भयभीत  बहुसंख्यक  कश्मीरियों ने न केवल  जमकर मतदान  बल्कि  न चाहते हुए भी   उमर अब्दुल्ला  को सत्ता से बेदखल कर दिया। पीडीपी को   कुछ भाव दे दिया।  भाजपा भी अपने परम्परागत जनधार को एकजुट करने में सफल रही। भले ही  कश्मीर में कोई भी बहुमत में न आया हो किन्तु कश्मीरियत तो अवश्य ही जीत गई। भारतीय लोकतंत्र जीत गया। भारत जीत गया।
                              इस चुनाव   की आदर्श स्थति से सारे संसार को , खास  तौर से भारत के हिन्दुत्ववादियों   को और  पाकिस्तान  के आकाओं  को समझ लेना चाहिए कि  झूंठ के पाँव नहीं होते। कश्मीर की आवाम ने भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया है। वे भारत में ही रहना चाहते हैं। किन्तु उनकी छोटी सी खुवाइश  है कि  नेतत्व उनका ही हो।  भले  ही  नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी , कांग्रेस ,भाजपा या मोदी जी को अपेक्षित बहुमत न मिला हो किन्तु   भारतीय लोकतंत्र  की आवाज कश्मीर में अभी भी गूँज रही है।
                                                           झारखंड विधान सभा चुनाव में हिंदुत्व की  जीत नहीं  हुई। अशोक सिंघल  ,तोगड़िया या मोहन भागवत की  भी ये जीत नहीं  है।  वेशक वहाँ  'विकास सुशासन और बाप -बेटे के चंगुल से मुक्ति' की जीत हुई है। इस  सिद्धांत के शिल्पकार निसंदेह  नरेंद्र मोदी  रहे हैं इसलिए झारखंड  में कमल की जीत   याने 'नमो ' की जीत है। इन चुनावों में सरसरी तौर  पर तो लगता है कि  'मोदी लहर ' का असर है किन्तु सटीक टिप्पणी यही है कि इन चुनावों में भारतीय लोकतंत्र और ज्यादा मजबूत हुआ है।
                                            श्रीराम  तिवारी
                                                           

शनिवार, 20 दिसंबर 2014

जातीयता या मजहब की राजनीती की नहीं बल्कि 'वर्ग संघर्ष' की राजनीति की दरकार है।

 हिन्दू  सन्यासियों -वैरागियों ने धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया।

धर्मांतरण विमर्श में हस्तक्षेप के लिए कई दिनों से मेरे मन में उथल-पुथल चल रही है । चूँकि  मैं कोई मजहबी उलेमा नहीं हूँ। चूँकि मैं सर्वधर्म शास्त्री नहीं हूँ। उदभट -समाजविज्ञानी  भी नहीं हूँ। कोई मुमुक्षु दार्शनिक  भी नहीं   हूँ। कोई नृतत्व- समाजशास्त्री  भी मैं नहीं हूँ।  मैं  इस विषय का  कोई स्कालर या शोधार्थी  भी कभी नहीं रहा । अतएव धर्मांतरण या 'घर वापिसी '  जैसे प्रासंगिक एवं ज्वलंत प्रश्न पर  तठस्थ रहना ही उचित लगा। हालाँकि सरसरी तौर  पर  यह सब  नितांत समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी तो लग ही रहा था। मनगढ़ंत खबरों और अधकचरे ज्ञान की कूबत पर इस  महा भयानक विमर्श पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अभी तक  बचता रहा।  लेकिन जब अयोध्या के साधु संतों ने ही मेरे मन की बात कह  दी  तो अपना अभिमत व्यक्त करने से अपने आप को नहीं रोक पाया।
                         मैं ' न्यूज वेब  साइट' तथा अखिल भारतीय अखाडा परिषद का शुक्रगुजार हूँ कि  इन हिन्दू  सन्यासियों -वैरागियों ने धर्मनिरपेक्षता को मजबूत किया।  यह सुविदित है कि आल इंडिया अखाडा परिषद  में कुल तरह अखाड़े हैं। सात शैव,तीन वैष्णव और तीन सिखों के अखाडे  हैं। अखाडा  परिषद के वर्तमान अध्यक्ष महंत ज्ञानदास जी ,राम मंदिर के प्रमुख पुजारी आचार्य सत्येन्द्रदास जी तथा रामानंदी साधु सम्प्रदाय के प्रमुख रामदिनेशाचार्य जी ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों को 'जबरन धर्मांतरण' या 'घर वापिसी 'कराने पर  कड़ी आपत्ति व्यक्त की है। इन सभी का कहना है कि  'हिन्दू धर्म ग्रंथों में जबरन धर्मांतरण का निषेध है '।  उन्होंने ये भी कहा कि 'संघ परिवार जिन हरकतों को अंजाम दे रहा है उनसे न केवल हिन्दू समाज  बल्कि समस्त भारतीय समाज बुरी तरह प्रभावित होगा '। साधु संतों के इस बयान के बाद, आइन्दा यह दृष्टव्य होगा कि  हिंदुत्व  का राजनैतिक झंडावरदार याने 'संघ परिवार' - हिंदुत्व के असली झंडावरदार याने विराट साधु समाज  के फैसले का सम्मान करता है या नहीं !

                                                                                              श्रीराम तिवारी

                                  भारत में दो प्रमुख परिवार हैं। जिन्हें भरम है कि  देश उनके बिना नहीं चल सकता।

           आजादी के बाद  देश की राजनीति  में  गांधी नेहरू परिवार  की भूमिका बड़ी अहम रही है। कुछ लोगों का  मानना है की इस परिवार ने भारत की आजादी में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया है । बहुत कुरबानियाँ दीं हैं।  कुछ लोगों का  मानना है कि  यदि आजादी के बाद यह परिवार देश की राजनीति  से  जुदा  जाता  तो  बड़ी मेहरवानी होती। तब शायद भारतीय लोकतंत्र ज्यादा मजबूत होता। लोग कहते हैं कि  पंडित नेहरू की जगह सरदार पटेल  प्रधानमंत्री  होते तो   भारत आज चीन से आगे होता। मैं कहता हूँ कि  यदि बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो   शायद पाकिस्तान ही नहीं बन पाता। कश्मीर विवाद का तो प्रश्न ही नहीं उठता। भारत की बर्बादी  के दो प्रमुख कारण हैं  .एक -धर्मान्धता। दो-जातिवाद। बाबा  साहिब शायद इन बीमारियों का खात्मा कर  सकते थे।
                 यदि आंबेडकर जी भी कुछ नहीं कर पाते ,तो जो लोग सवर्णों या ब्राह्मणों को अपने दुखों का -शोषण का कारण  बताकर राजनीति  कर रहे हैं , जो जातिवाद के नाम पर आरक्षण की रोटी सेंक रहे हैं, वे तो  कम से कम अपनी इस नकारात्मक ग्रंथि से मुक्त हो जाते। यदि 'ऐंसा होता तो वो होता ' का सही विश्लेषण अभी भी विलम्बित है। लेकिन  भारत  की राजनीति  को  उसकी नीतियों को प्रभावित करने वाला गांधी नेहरू परिवार अपनी  'राजशाही'  छवि से बाहर अभी भी नहीं हो  पा रहा है ।
                       भारत में एक और परिवार है  जो अपनी संगठन क्षमता और वैचारिक प्रतिबध्दता में आकंठ डूबकर न केवल धर्मनिरपेक्षता बल्कि लोकतंत्र को भी  पसंद नहीं करता। यह विचारधारा में तो एक ही है किन्तु 'बोलचाल' के लिए - भाजपा ,शिवसेना ,बजरंगदल,वीएचपी ,हिन्दू जागरण मंच ,भारत स्वभिमान ,बीएमएस, हिन्दू मुन्नानी,आदिवासी परिषद,विद्यार्थी परिषदं  इत्यादि दस -आनन  हैं। इसे  'संघ परिवार'  भी कहते हैं।  अधिकांस लोगों का मानना है कि  भाजपा  का निर्माण करने ,उसे ताकतवर बनाने , उसे  प्रचंड बहुमत के साथ  नरेंद्र मोदी के नेतत्व में सत्ता में बिठाने का श्रेय इस   'संघ परिवार'  को  ही है।  कुछ  भले लोगों का मानना है कि  'संघ' को राजनीति  नहीं करनी चाहिए।
                                   क्योंकि कहने  को तो दुनिया में हम  बहुत नामवर लोकतंत्र हैं।  किन्तु इन दो परिवारों के हस्तक्षेप के कारण  भारतीय लोकतंत्र में कहीं न कहीं कुछ कसक तो अवश्य ही बाकी है।  गांधी नेहरू परिवार की समस्या यह है कि आजादी के ६७ साल बाद भी  कांग्रेस  का नाभिनाल ही नहीं छूट रहा। संघ परिवार की  समस्या यह है कि  वे जो चाहते हैं वो हो नहीं सकता। यदि वे स्कंदगुप्त विक्रमादित्य को या साक्षात वीर  शिवाजी  महाराज को भी धरती पर उतार लायें  तो भी इस अटॉमिक युग में ,इस उत्तरआधुनिक युग में वे  भी  बिना धर्मनिरपेक्षता के ,बिना लोकतंत्र के -भारत राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकेंगे। संघ की बेजा नजरबंदी से  न सिर्फ  अल्पसंख्यक ,न सिर्फ हिन्दू -साधु समाज बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी  संभवतः असहजता महसूस  कर   रहे हैं। ईश्वर गांधी नेहरू परिवार को और 'संघ परिवार ' को सद्बुद्धि दे की वे भारतीय लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का  शील  हरण  न करें। परमात्मा  इन दोनों ही  'परिवारों ' से देश की रक्षा करें।

                श्रीराम तिवारी

        बिना व्यवस्था परिवर्तन के शोषण से मुक्ति असंभव।

  भारत में सभी जातियों-धर्मों-मजहबों के गरीब किसान [जमींदार नहीं ] मजदूर एकजुट होकर जब तक इस वर्तमान महाभृष्ट  अधोगामी पतनशील   व्यवस्था को बदलने की  मुहिम  नहीं छेड़ते ,जब तक इस व्यवस्था  पर काबिज शोषण की ताकतों के खिलाफ एकजुट संघर्ष नहीं करते तब तक अतीत के उस अपावन नाभिनाल  से मुक्ति  पाना  असंभव है,जिसे वे 'धर्म परिवर्तन' या 'घर वापिसी'  समझ रहे हैं।
                                  संघ परिवार ,हिन्दू जागरण मंच ,विश्व हिन्दू परिषद तथा शिवसेना को एक बहुत बड़ी गलतफहमी हो गई  है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतत्व में उनकी राजनैतिक बढ़त  से तथा केंद्र या राज्य  में उनकी सरकारें बन जाने से   अब धर्मनिरपेक्षता  अप्रासंगिक हो चुकी है। धर्म के आधार पर व्यवस्था या राज्य   संचालन की सामंतयुगीन रीति-नीति से शायद उनका मोह अभी भी  भंग  नहीं हुआ है।  तत्कालीन हमलावरों या लुटेरे आक्रमणकारियों  के जघन्य अपराधों  या   अत्याचारों  को इस २१ वीं शताब्दी में याद करना नितांत विवेकहीनता है।  वेशक  अंग्रेजों  द्वारा  भारत को गुलाम बनाये जाने से पूर्व  यहाँ  कोई शक्तिशाली सत्ता केंद्र नहीं था।  इसीलिए यायावर  हिंसक  आक्रान्ताओं  के  निंदनीय और अमानवीय  आक्रमण भारत की तत्कालीन  जनता को झेलने पड़े। इस्लामिक आक्रमणों से पूर्व  यूनानियों ,शकों,हूणों,कुषाणों और यवनों ने निरंतर भारत पर आक्रमण किये  किन्तु उन्होंने भारत के तत्कालीन धार्मिक ,सांस्कृतिक या सामाजिक स्वरूप को ध्वस्त करने की कोई चेष्टा नहीं की। अरबों ,तुर्कों ,अफगानों ,उजवेगों और  मंगोलों  ने अपनी  लूट खसोट को जस्टिफाई करने के लिए मजहब को ढाल बनाया।   ये आक्रमणकारी आक्रांता न केवल इस्लाम  के बहाने अपने  खजाने भरते थे। बल्कि  लूट का कुछ हिस्सा खलीफा को भी  दिया करते थे।  भारत में उन्होंने उन जातियों या समाजों को इस्लाम के आगोश में  समेटने की कोशिशें की जो यहाँ तत्कालीन सबल समाजों द्वारा शोषित किये जा रहे थे। बर्बर आक्रमण कारियों ने - निर्धन, दमित,शोषित भारतीय [ जिस अब कुछ लोग दलित-पिछड़े हिन्दू कहते हैं ] समाजों को अपने साथ मिलाने की हर संभव कोशिश की।  जहाँ तलवार  से काम नहीं चला ,वहां सूफियों को काम पर लगाया। जहाँ सूफी असफल रहे वहाँ  लालच और लोभ का सहारा लिया गया। किन्तु  स्पेन की तरह यह भारतीय  समाज  भी तस से मस नहीं हुआ।  न केवल ब्राह्मण बल्कि दुजेतर वर्ग  भी  रंचमात्र  अपने पथ से नहीं डिगा।  जबकि उसके अपने पैतृक समाज में भी उसे घृणा का पात्र ही समझा जा रहा था।
                  सैकड़ों साल बाद इसी समाज को जब बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने भी अपने साथ  बौद्धः धर्म में दीक्षित करने की कोशिश की  तो ४० करोड़ दलित -आदिवासियों में से ४० लाख भी उनके साथ नहीं गए। यह विराट हिन्दू  समाज तब भी  टस  से मास नहीं हुआ ।  इस समाज का कुछ हिसा इस्लाम  में अवश्य चला गया किन्तु वहाँ  जाकर  वे शेख ,सैयद ,मुग़ल पठान तो निश्चय ही नहीं बन सके।  इसी तरह जो चंद लोग बौद्ध बन गए वे  भी आरक्षण की वैशाखी के वावजूद आज भी  सामाजिक  रूप से दलित और हेय  ही बने हए हैं। वे आज भी कई जगहों पर सवर्ण या शक्तिशाली 'पिछड़ों' की  दवंगई के शिकार हैं। वे आज भी सम्मान  के मोहताज  हैं। मंतव्य ये है कि  कोई किसी भी अन्य धर्म में चला गया तो भी उसका उद्धार तो अवश्य ही नहीं हुआ।  वास्तविक उद्धार तो तभी संभव है जब   धर्म ,जाती के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक -सामाजिक - सांस्कृतिक -समानता     की प्राप्ति के लिए  न्याय संगत व्यवस्था  के लिए एकजुट संघर्ष किया जाए।
                                      विश्व हिन्दू परिषद या संघ परिवार जिन विधर्मियों'  की घर वापिसी करवा रहे हैं वे  उन्हें कहाँ बिठाएँगे ?  कई स्कूलों में  जो हरिजन ,दलित बच्चे पढ़ते हैं वे आज भी सवर्ण हिन्दुओं के मटके का पानी नहीं पी सकते। शादी ,व्याह या रोटी-बेटी व्यवहार तो बहुत बड़ी बात है मंदिरों में प्रवेश निषेध या 'मड  स्नान '  जैसी दकियानूसी परम्पराएँ इस युग में भी बरकरार हैं जब की आदमी मंगल पर वसने  की तैयारी  कर चूका है।  न केवल मजहब -धर्म बल्कि विज्ञान और टेक्नॉलॉजी भी इस प्रदूषित सिस्टम के संचालन में भागीदार  बन चुके हैं।   पूंजीवादी सामंती  समाज का ताना बाना तब तक अक्षुण है जब तक यह व्यवस्था बरकरार है।  इस व्यवस्था को बदलने के लिए जातीयता या मजहब की राजनीती  की नहीं  बल्कि 'वर्ग संघर्ष' की राजनीति  की दरकार है।
                                                  श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

सभी साम्प्रदायिक गटर में कूंदे यह जरूरी तो नहीं !

    शरीफ -शराफत नहीं  दिखायेंगे यह  जरुरी  तो नहीं।

     उनपर यकीन न  किया जाए  यह जरुरी तो नहीं।।

     कितने अंगुलिमाल हो चुके हैं बुद्धम शरणम गच्छामि ,

     इनको  कभी अक्ल नहीं आएगी यह  जरूरी तो नहीं।

     चोर-उचक्के--हत्यारे -व्यभिचरी भी करते हैं हज यात्रा ,

     दीनो -ईमान  का उन पर साया न हो यह  जरुरी तो नहीं।

    धूर्त -पाखण्डी -अंधश्रद्धा से पीड़ित भी जाते  हैं तीरथ,

    गंगा स्नान से पाप धुल जाएंगे  यह जरुरी तो नहीं।

     हर पीली चमकदार धातु सोना नहीं हुआ करती ,

     लेकिन कोई भी सोना  नहीं  होगी यह जरुरी तो नहीं।

     वेशक पाकिस्तान में आतंकवाद चरम पर है आज  ,

     किन्तु सभी धर्मांध हों -हिंस्र हों  यह जरूरी तो नहीं।

     इंसानियत  की  समझ और कद्र सभी में बराबर हो ,

     कुदरत का  बनाया भेद मिट जाए यह जरूरी तो नहीं।

     सभी मोहम्मद -बुद्ध -राम कृष्ण -ईसा जैसे  हों जाएँ ,

     या   सभी साम्प्रदायिक गटर में  कूंदे  यह जरूरी तो नहीं।

     शापित हैं  जो  मासूम  बच्चों  का रक्त बहाने के लिए,

     उन्हें शर्म अपनी खता पर आये यह  जरूरी तो नहीं।

    बहुत हैं दुनिया में कवि -लेखक -चिंतक -ग्यानी-ध्यानी ,

    लेकिन सभी मेरी तरह ही  सोचें यह जरुरी तो नहीं।


                     श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

उन्हें तो पाकिस्तान के नौनिहालों का लहू चाहिए।



    जिसने  कहा था 'हम  लड़ेंगे हिंदुस्तान से-

   एक हजार साल तक'

  जो -भारत पाकिस्तान को लड़ाकर ,

 पाकिस्तान के दो टुकड़े करवाकर ,

लाखों बंगला देशियों  को मरवाकर ,

लाखों  पाकिस्तानियों को सरेंडर करवाकर ,

भारत -पाकिस्तान  में दुनिया के हथियार खपवाकर ,

हो  गया जो जन्नत नशीन ,

 वो जुल्फिकार अली भुट्टो  भी उतना जाहिल नहीं था।

 जितने ये वहशी दरिंदे हमलावर ,

धर्मान्धता की चुटकी भर अफीम खाकर ,

कारगिल -कश्मीर में छिपकर ,

अपने आकाओं के पेशाब से -

जला रहे हैं चिराग 'जेहाद' के।

 ये  आदमखोर  जाहिल - जिन्न  हैं ,

 इन्हें  हर बक्त काम   चाहिए ,

 उनकी घटिया शर्त है कि उस काम में लहू होना चाहिए।

 कभी  मुंबई ,कभी बेंगलुरु ,कभी  कोलकाता ,


कभी कराची ,लाहौर बाघा सीमा पर ,

कभी स्वात घाटी -पाकिस्तान में ,


मलाला का सर चाहिए।

उन्हें -कभी क्रिकेटरों के ,कभी पत्रकारों के ,

कभी मानव अधिकार कार्यकर्तोंओं  के ,

कभी सीमाओं  पर भारतीय जवानों के शीश चाहिए।

अमन के इन नापाक  विध्वंशकों  को ,

इंसानियत के दुश्मनों को ,

 केवल भारत की बर्बादी से संतोष नहीं ,

  उन्हें  तो पाकिस्तान के नौनिहालों का  भी लहू चाहिए।

   
   श्रीराम तिवारी







बुधवार, 17 दिसंबर 2014

जनाब शरीफ साहिब आप आस्तीन में साँप पालना छोड़ दें !




   आतंकियों से लड़ने और उन्हें नेस्तोनाबूद करने वाली अभिलाषा के लिए , यदि नवाज शरीफ  और पाकिस्तान की हकूमत बाकई संजीदा है ,यदि आतंकवाद के खिलाफ उनके इजहार-ए -इंतकाम  और मुल्क में अमन - शांति स्थापना  के इकरार के संकल्प  में जरा भी सच्चाई है, तो  वे उन आतंकियों  और उनके  आकाओं   को घर जवांई  बनाना छोड़ दें।जनाब शरीफ साहिब आप  आस्तीन में साँप  पालना छोड़ दें । यदि आप यह करना चाहें तो भारत की तमाम जनता भी आप के  साथ है। आप आतंकवादियों को  हथियार सप्लाई करने वाले  दलालों को  खोज -खोज कर मारें । पाकिस्तान स्थित - ड्रग माफिया और नकली करेंसी के मार्फ़त न केवल पाकिस्तान बल्कि भारत में भी  दहशतगर्दी के लिए खुख्यात - मोहम्मद दाऊद , हाफिज सईद, अजहर मसूद  , सिमी  , आइ. एम ,आई इस आई ,अलकायदा ,जमात-उद  - दावा , जैस -ए  - मोहम्मद इत्यादि   आतंकी  संगठनों के सरगनाओं को , मुंबई -गुजरात -मुजफ्फरनगर के आपरधिक भगोड़ों  को- पकड़ कर  ततकाल  भारत को सौंप  दें। आप कश्मीर की वादियों में आग लगाना छोड़ दें। कश्मीरी ऐयाश आतंकियों को पालना -पोषना और उन्हें  भारत में भेजना बंद  करें.  पाकिस्तान की आदमखोर सेना  द्वारा जारी निरंतर - सीमाओं पर अंधाधुंध फायरिंग बंद करें।  यदि पाकिस्तानी  आवाम ,पाकिस्तानी सेना और सरकार में इतनी कूबत नहीं कि  वे अपने यहाँ खून की होली  खेलने  वाले आतंकियों  की असलियत न पहचान सकें , तो भारत को   ही पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों को नष्ट करने का अवसरप्रदान किया जाए।  अर्थात  अमेरिका की तरह  भारत को भी  इस  संदर्भ  में  कार्यवाही करने का अधिकार दिया जाए। यदि इतना नहीं कर सकते तो हम ये मानेंगे कि  पेशावर में 'शहीद' हुए सैकड़ों बच्चों की मजार पर पाकिस्तानी नेता  और जनरल केवल मगरमच्छ के आंसू ही बहा रहे हैं।  पेशावर के मासूम बच्चों की शहादत  की कसम है तुम्हेपाकिस्तान वालो - कल जो  नवाज शरीफ ने सार्वजानिक रूप से कौल करार किया है कि ' किसी भी आतंकी को नहीं छोड़ेंगे ' उससे पलट मत जाना !

                              श्रीराम तिवारी    

जय आनंदम जय आनंदम !

    


     जीवन में नैराश्य सताये,

     चारों  ओर  अँधेरा   छाए।

     जब कोई युक्ति सूझ पड़े न ,

    तब  आनंदम  राह दिखाए।।


    सकल कलामय ये आनंदम ,

     वरिष्ठ जनों का है आनंदम।

     सुख-दुःख में  हम सदा एकजुट ,

      लक्ष्य कुशल मंगल  आनंदम।।



     रखो  न  दुर्बलता कुछ मन में ,

     करो संचरित शक्ति  तन में।

     जीवन के उत्तरार्ध हमें यह ,

     पाठ पढ़ाता  है आनंदम।।


       सामाजिक समरसता देता ,

       यहाँ  न  कोई  अफसर  नेता।

       सुधीजनों के कर कमलों में ,

       सदा सुरक्षित  यह आनंदम।।

   
      भजन गीत  संगीत कला है  ,

      साहित्यिक सृजन  क्षमता  है ।

      प्रतिभा को सम्मान दिलाता ,

     यह  आनंदम  यह  आनंदम।।


       शोक मोह संताप मिटाये ,

        एकाकीपन दूर भगाये ।

        इसीलिये मैं दिल से कहता ,

       जय आनंदम जय आनंदम।।


                      श्रीराम तिवारी

   

    
 

    

  
     

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

चकवा की छाती धर धीर धस्कत है।

    मौसम विभाग के अनुसार आज इंदौर सहित मध्यप्रदेश के अधिकांस क्षेत्रों  में  पारा अपने पूर्वर्ती   रिकार्ड से नीचे जा  चुका  है। घने नैसर्गिक कोहरे और मानव निर्मित भयानक  प्रदूषण की धुंध ने देश-काल -परिस्थितियों   की हालत ये कर दी है कि  सुबह के नौ बजे  तक  भी सूर्यदेव  के दर्शन दुर्लभ हो रहे  हैं। अखवार में एक उम्दा   कार्टून भी देखने को मिला  है -जिसमें सूर्य देव  खुद भी  रजाई में से झाँक रहे हैं।  कार्टूनिस्ट ने तो सूरज को  'टोपा '  भी पहना दिया है। इस अवसर पर महाकवि सेनापति के 'ऋतुवर्णन' की चार पंक्तियाँ समीचीन हैं या नहीं यह पाठकों  के निजी अनुभवों पर छोड़ता हूँ  :-


    शिशिर में शशि को सरूप पावे सविताहु ,

       घामहु में  चाँदनी  की दुति दमकत है।

      
       चंद के भरम  होत  मोद  है कमोदिनी  कहूँ ,

       शशि शंक पंकजनि फूल न सकत है।।

  .......... ……………… ...................

       ……चकवा की छाती धर  धीर धस्कत है। 


 नोट :- जो इन पंक्तियों का अर्थ या भावार्थ नहीं जानते   या जो महाकवि  सेनापति को नहीं  जानते , वे  हिंदी  साहित्य के  छंदबद्ध  काव्यप्रवाह और  भारतीय  ऋतू संबंधी शानदार काव्यात्मक अभिव्यंजना से वंचित हैं।   


       श्रीराम तिवारी                

लेकिन मासूम बच्चों को गोलियों से भून दे वो कौन जादा है ?



   इस वर्गीय समाज में कोई यह जादा  है ,कोई वह जादा  है।

  कोई अमीरजादा है ,कोई गरीबजादा , कोई शरीफजादा है।

  कोई आईएसआई जाँदा  है  कोई  परवेज  मुशर्रफजादा है। 

  कोई मुस्लिम जादा  है ,कोई हिन्दुजादा है कोई रामजादा है।

   लेकिन मासूम बच्चों को गोलियों से भून दे वो कौन जादा  है ?


                     श्रीराम तिवारी


              

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

वेशक केवल इंसानियत घट रही ही याने मानवता में कमी आ रही है ।



  मालवा ,बुंदेलखंड और उत्तर भारत के अधिकांस  हिस्सों में  लगातार दो-तीन दिनों तक रुक-रुक कर बारिस याने   'मावठा ' गिरने उपरान्त अब कड़ाके की ठण्ड ने दस्तक दे  दी है।  उम्मीद है की मार्च -२०१५ तक यह सिलसिला जारी रहेगा। मौसम विज्ञानी और पर्यावरणविद कितना ही आलतू-फ़ालतू लिखते रहें कि  'ग्लोबल वार्मिंग' से दुनिया खत्म हो  जाने वाली  है। पहले  शीतयुद्ध फिर स्टार वार  अब सभ्यताओं के  संघर्ष के नाम पर  या एटामिक जखीरे के नाम पर खूब धमकाया जा रहा है। इसी तरह  ठंड  के बारे में भी उनके अनुमान गलत निकल रहे हैं  कि यह अब तो इतिहास की चीज रह गई है।  लेकिन मुझे तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा ही  नजर आ रहा है।
                   जिस तरह  परिवार नियोजन ,नसबंदी  जैसे कार्यक्रमों के बावजूद  आतंकियों  ,जेहादियों  ,शैतानों  ,जमाखोरों  , मिलाबटियों और शोषणकारी ताकतों के साथ -शैतान की साठगांठ के बावजूद- दुनिया की आबादी कम नहीं हो रही बल्कि तेजी से  बढ़ती जा  रही है।  उसी तरह ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण संकट के बावजूद   ठंड भी पहले से ज़रा ज्यादा ही बढ़ रही है। न केवल    ठंड  , न केवल गर्मी , न केवल वर्षा बल्कि  हर चीज  बढ़ रही है। वह महँगाई  भी मुझे न जाने क्यों बढ़ती दिख रही है जो ओरों को   कम होती  नजर  नहीं आ रही है. जो सरकार के  आंकड़ों और मीडिया के प्रस्तुतिकरण में आज १६-१२-२०१४ को शून्य पर आ चुकी है।
               किसानों की आत्महत्या ,साम्प्रदायिक दंगे  और महँगे  स्वास्थ्य  के  बावजूद  - गरीबी  ,भुखमरी   ,प्रतिष्पर्धा ,जहालत और वेरोजगारी  खूब परवान चढ़ रही है। इसके अलावा मानवीय जिजीविषा में  भी  मुझे तो कोई कमी नजर नहीं आ रही  है।  वेशक केवल इंसानियत  घट  रही ही याने मानवता में कमी आ रही है । बाकी सब कुछ  केवल बढ़ ही रहा है। भृष्टाचार,रिश्वतखोरी , स्वार्थ ,हिंसा ,लालच, मुनाफा ,ब्याज, लूट, रेप, एफडीआई ,सूचना -संचार सोशल मीडिया और अपराधीकरण  न जाने क्या-क्या  ,सभी कुछ तो बढ़ रहा है। न केवल बढ़ रहा है बल्कि आदमी से बढ़ा  भी हो रहा है।   
              अब  ठण्ड   बढ़ रही है।  सम्पन्न वर्ग  को तो  वैसे  भी हर मौसम  में आनंद ही आनद है। सभ्रांत वर्ग यदि  अपने लोभ लालच इत्यादि अपनी उन आत्मघाती  परेशानियो को स्वयं  मोल न ले जिनका जिक्र मजहबी और धार्मिक पुस्तकों में शिद्द्त से किया गया है। तो उसे ' जीवित शरदः शतम '  नहीं बल्कि 'जीवेत  शिशर  शतम' या जीवेत  हेमंत शतम' का नैसर्गिक लाभ मिल सकता है। साथ ही  यदि  यह वर्ग   ड्रग खोरी ,नशाखोरी तथा अपने वैभवपूर्ण जीवन पर स्वानुशासन रखे ,याने   कुछ लगाम लगाए रखे तो वह इस तरह की  ठंड के  मौसम  का सौ साल तक  आनंद  ले सकता है । बशर्ते  इस वर्ग को अपने हमवतन  असंख्य उन लोगों  के  बारे में भी कुछ जिम्मेदारी का एहसास हो ,जो  इस कड़ाके की ठण्ड में  झुग्गी -झोपड़ियों में रहते हैं।  एलीट क्लास के महानुभावों से निवेदन है कि  ग्रामीण अंचलों में रहने  वालों   ,  खेतों-खलिहानों -मचानों या 'ढबुओं ' में  रहने वालों की  वेदनापूर्ण जीवन शैली  का  आंशिक एहसास करने के लिए कम से कम मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पूस की रात ' ही पढ़ ले।  गऱीबों के लिए  ठण्ड क्या ,बर्षा  क्या और गर्मी क्या मायने रखती है यह जानने के लिए गरीब होना जरुरी नहीं है। यदि आप खाते -पीते सम्पन्न वर्ग से हैं और यदि आप में  मानवीय संवेदनाएं जीवित हैं  और सर्वहारा वर्ग के  संघर्षपूर्ण जीवन से परिचित होना चाहते हैं ,उनको सम्मान देना चाहते हैं  कुछ करने से पहले   मेकिस्म गोर्की  और निकोलाई आश्त्रोव्स्की  को अवश्य पढ़ें।

                         श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

भारतीय विपक्ष नकारात्मकता और हिंदुत्व विरोध की जुड़वाँ राजनीति का शिकार हो रहा है !

 संसद में  कालधन,धर्मांतरण और रेप की घटनाओं पर  वामपंथी सांसदों की  विद्व्त्ता पूर्ण तार्किक - तकरीरें, मुलायमसिंह की पैंतरेबाजी , ममता गैंग की हुल्लड़बाजी ,  शरद यादव , रामगोपाल यादव की यथार्थ युक्तियाँ ,  मायावती  का लिखित स्यापा  और सत्तापक्ष  के जड़मति मंत्रियों-नेताओं की क्षमा याचना से देश की आवाम को  लगता है  कोई  खास लेना देना नहीं है।  विपक्ष की इतनी मशक्क़त के वावजूद  कोई आदमजात तो क्या एक अदद 'कुत्ते का पिल्ला ' भी सड़कों पर उनके समर्थन में  अभी तक नहीं उतरा! इसके विपरीत सत्ता के शीर्ष  पर विराजित अहंकारी ढ़पोरशंखी  नेताओं को  यत्र-तत्र-सर्वत्र  कन्धों पर बिठाया जा  रहा है।  उन्हें चुनावी जीत  की खबरें  एडवांस में मिल रहीं हैं।  न केवल पाखंडी बाबा बल्कि पूँजीखोर  लुटेरे भी उनके  इस सत्ता हस्तांतरण  के अश्वमेध  का राष्ट्रव्यापी अभियान  में आहुति दे रहे  हैं।  न केवल  वर्चुअल इमेज के स्तर पर ,न केवल महँगाई  कम होने के  झूंठे  प्रोपेगेंडा पर , न केवल असफलतों के अम्बार में  चमकती आशाओं पर  ,  हर जगह  देश की अधिसंख्य जनता  का सहयोग ,समर्थन और समर्पण  केवल और केवल मोदी के  ही पक्ष में जारी है।   इसकी कई  वजहें गिनाई जा सकती हैं किन्तु खास वजह एक ही है।  वो है  भारतीय विपक्ष  का लगातार हर कदम पर गलत  स्टेण्ड लेना।  जहाँ मोदी लगातार   विकाश,सुशासन ,निवेश, योजनाएं और भारत गौरव गान का   वितण्डावादद बाँट रहे हैं ,चुनावी  परचम लेकर झारखंड से  लेकर  कश्मीर की घाटी तक  विजय अभियान में जुटे हैं  ,  वहीँ विपक्ष  न केवल अपने विनाश का मर्सिया लिख रहा है बल्कि मोदी को १५ साल तक केंद्र की सत्ता में डटे  रहने का इंतजाम कर रहा है। मेरा यह अनुमान  काश गलत साबित हो ! कि भारतीय विपक्ष  हारकिरी की ओर  अग्रसर है !
                                            कहीं ऐंसा तो नहीं कि हिंदुत्ववादियों की चौतरफा  हुड़दंग से पीड़ित होकर  भारतीय विपक्ष  लकवाग्रस्त  होने जा रहा हो  ? अभी तक तो यही  सुना गया है  कि  'पैसा -पैसे को खींचता है '  याने अमीर स्वतः ही और ज्यादा अमीर होता  चला जाता है ।  गरीब और ज्यादा गरीब होता चला जाता है।  जो सत्ता में आता है उसका  पराभव या पतन भी ततकाल शुरू हो जाता है। किन्तु  मोदी सरकार की तथाकथित  अल्पकालिक  'ज्योति' के  'अटल ज्योति' में रूपांतरित होने  से लगता है कि  ये सारे सिद्धांत अब कालातीत होने जा रहे हैं। आइन्दा  एक नया   प्रमेय  या सिद्धांत बनाया जा  सकता  है कि  'महाभृष्ट  पूँजीवादी  भीड़तंत्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यदि  शक्तिशाली सत्ता पक्ष का नेता नरेंद्र मोदी जैसा  आत्मविश्वाशी  और चतुर हो  तो वह  'वानर राज सुग़ीव'की तरह अपने प्रतिदव्न्दी की ही नहीं बल्कि समस्त विपक्ष की  भी शक्ति शोख कर और ज्यादा  बलवान हो सकता  है।  वशर्ते उनके सामने  सुग़ीव की तरह भीरु और परावलम्बी -इस दौर के जैसा -निहायत ही  कमजोर और लक्ष्यहीन  विपक्ष  हो !धर्म निरपेक्ष राष्ट्र राज्य में वैचारिक और  मानसिक  रूप से सदैव बहुसंख्यक वर्ग या हिन्दू समाज के सापेक्ष  अल्पसंख्यक वर्ग के  ही हितों  के लिए आवाज  उठाना  अब एक रस्म हो गई है।  दमित-शोषित और कमजोर के  पक्ष में खड़ा  होना  न्याय संगत है किन्तु इसका  मतलब यह नहीं कि  पहाड़ से टकराकर अपने आप को खत्म कर दो ! बल्कि 'अति सर्वत्र वर्जयेत' . लगातार हिंदुत्व विरोध की इस रौ में बहते जाने से आइन्दा  न केवल अल्पसंख्यक ,न केवल कमजोरों बल्कि शोषितों के पक्ष में  आवाज उठाने  के काबिल रह जाना  भी   संभव नहीं है।  माना की  भारतीय लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता ब्रह्माश्त्र है। समाजवाद 'इन्द्रबज्र ' जैसा अश्त्र है ।  किन्तु  क्या इन अश्त्रों को आगरा ,अलीगढ या अन्य जगहों पर हो रहे  तथाकथित 'घर  वापिसी हवन कुण्ड ' में  ही स्वाहा कर  दोगे ?आगामी महांसंगाम में किस शस्त्र से लड़ोगे ? क्या लड़ने के काबिल भी रहोगे ?  वेशक  किसी को जबरन  हिन्दू बनाना गलत है। किन्तु तब ये भी  तो  मानना पड़ेगा कि  जबरन मुसलमान बनाना  भी गलत है। तब किसी को  जबरन  ईसाई बनाना भी गलत कहना होगा ।  आरक्षण का प्रलोभन , सामाजिक उत्थान के प्रलोभन तथा  दलित उद्धार के प्रलोभन  देकर जो  लाखों की संख्या में आदिवासी या दलित बौद्ध बनाये गए हैं  उसे क्या कहा जाएगा  ? चूँकि  संघ  और उसके अनुषंगी हिंदुत्वादियों ने इन सवालों को भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद  से जोड़कर   चुनावों के मौके  पर  उठाया है। चूँकि जब पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और संकीर्णता प्रेरित अलगाववाद ने भारत के एकता को चुनौती पेश की है।   ऐसे नाजुक दौर में विपक्ष अभी भी  सिद्धांतों की मरी हुई बंदरिया  चिपकाये हुए नाहक ज्ञान बघार रहा है।  चूँकि सत्ता में  रहकर कांग्रेस ने देश को खोखला कर दिया था। चूँकि   देश में जिम्मेदार विपक्ष का अभाव है इसलिए न केवल ' संघनिष्ठ 'हिन्दू   बल्कि धर्मनिरपेक्ष हिन्दू भी  मोदी  के हाथों में  भारत को सुरक्षित  देख रहा है ।  तीसरे विकल्प या वाम मोर्चे के पराभव के लिए मोदी या भाजपा  जिम्मेदार नहीं  है। बल्कि कांग्रेस , जयललिता,ममता,मुलायम, नीतीश, नवीन  लालू ,मायावती जैसे क्षेत्रीय नेता सर्वाधिक जिम्मेदार हैं।
                                                    विपक्ष को  स्मरण रखना चाहिए  कि  जिन मुठ्ठी भर दिग्भर्मित धर्मांतरण करने वालों को वह कसूरवार और धर्मपरिवर्तन करने वालों को  वेगुनाह मान रहा है, तो  वह  उन पीड़ितों के  बीच जाकर असलियत का पता लगाये न ! केवल 'पल में तोला पल  में माशा ' हो जाने वाले 'लम्पट सर्वहारा'  की किसी ततकालिक अभिव्यक्ति पर या मीडिया के एक खास हिस्से की अनुचित बात का कोई भरोसा नहीं करना चाहिए।  केवल अखवार की खबर से संसद का कीमती समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। जब - हिन्दू जागरण वालों ने  उनसे कहा कि  'आप तो हमारे वाले हो जी ! वापिस आ जाओ ! हम सब प्रकार से आपकी मदद करेंगे ' तो ये सौ-पचास' आफत के मारे उनके साथ हो लिए। फोटो भी  खिचवा  लिए। जब इस्लामिक उलेमाओं ने कहा कि  ये तो 'कुफ्र' है।  खुदा को -अल्लाहः  को क्या जबाब  दोगे  ? तो  उनके साथ हो लिए।  मुसीबत के मारे- बेहद   डरे हुए ये  निर्धन 'विधर्मी' इस  धर्मान्धता के खेल का मोहरा बना दिए गए हैं। इस खेल में जीत किसी की भी हो किन्तु हारना' इन्ही को है। जो 'धर्म परिवर्तन' की  बिशात के मोहरे हैं। वर्तमान  भारतीय विपक्ष  को इस साम्प्रदायिक ता के खेल में केवल हास्यापद  हार से ही गुजरना पड़ेगा.

               यह सर्वज्ञात है कि  बंगाल में ३५ साल तक वाम मोर्चे ने अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए , मजदूरों- किसानों की रक्षा के लिए न केवल देशी- विदेशी मुनाफाखोरों बल्कि अंतर्राष्ट्रीय  शैतानों से दुश्मनी  भी दुश्मनी मोल ली। नतीजा क्या मिला ?  सम्पूर्ण अल्पसंख्यक वर्ग ने  उस ममता  बनर्जी को अपना वोट थोक में  भरपल्ले से दिया जो किसी की भी हितेषी नहीं है। ममता बनर्जी तो देश के प्रति  भी  वफादार नहीं है वो अल्पसंख्यकों की क्या खाक हितेषी होगी ? लेकिन ममता झूंठ-मूंठ का नाटक कर संघ परिवार का विरोध करने का स्वांग रच रही है। यह बात क्या बंगाल के अल्पसंख्यकों को नहीं दिख रही ? अब  हम कितना ही जोर से और जोश से  कहते रहें कि  जनता के सवालों को लेकर संघर्ष करो    ! किन्तु साम्प्रदायिक उन्माद और  पड़ोस की घटनाओं ने भारत की जनता को मजबूर कर दिया  है कि  नरेंद्र मोदी  को सुर्खरू होने दिया जाए। हम कहते हैं कि  अल्पसंख्यकों की रक्षा करो  ! हम कहते हैं  कि वर्तमान पूँजीवादी  नीतियों को पलट दो !  हम कहते हैं कि  महँगाई  बढ़ रही है !,हम कहते हैं कि  भृष्टाचार  बढ़ रहा है ! हम कहते हैं कि  कालेधन पर चर्चा करो  !  लेकिन  जनता  इन सवालों को अनसुना कर वो सुनना  चाहती  है जो मोदीजी कह  रहे हैं !   ऊपर  से तुर्रा ये कि  बचा  खुचा  विपक्ष केवल  नकारात्मक राजनीति  की भेंट चढ़ता जा रहा है।
                       विपक्ष की कूपमंडूकता के कारण  उत्तर प्रदेश ,बिहार और बंगाल में  भी आइन्दा भाजपा को ही  अप्रत्याशित  राजनैतिक बढ़त मिलने  के आसार  बढ़ रहे हैं।  जिस अल्पसंख्यक वर्ग के लिए बचा-खुचा विपक्ष संसद में हलकान हो रहा है।  वे अल्पसंख्यक वोट भी आइन्दा -मोदी को ,संघ परिवार को या भाजपा को ही मिलने लग जाएँ तो कोई अचरज की बात नहीं।अधिकांस  वहुसंख्य्क वर्ग को लग रहा है कि  भारतीय विपक्ष नकारात्मकता और हिंदुत्व विरोध  की  जुड़वाँ  राजनीति का शिकार हो  रहा है.वेशक विपक्ष का और खास तौर  से भारतीय वामपंथ का उद्देश्य तो यही है कि  देश के शोषित-पीड़ित मजदूर -किसान  एकजुट होकर इस  पूँजीवादी  व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन  करें। इसके लिए यह जरुरी है कि  यह मेहनतक़शवर्ग  धर्मान्धता और  साम्प्रदायिक  खंतियों में न  बट जाए।  किन्तु केवल अल्पसंख्य्क वर्ग के लिए आवाज उठाने  से बहुसंख्यक हिन्दू मेहनतकश में नकारात्मक संदेश जा रहा है।  जिन मजदूरों ने अतीत में  एकजुट संघर्षों से अपने सामूहिक हितों की रक्षा की वे अब 'हिन्दू' या 'मुसलमान ' के रूप में विभाजित किये जा रहे हैं।  सभी अपने  साम्प्रदायिक दड़वों  की ओर  खिच रहे हैं।  संघ परिवार के जो काम शेष थे , जो  भाजपा  या मोदी  जी नहीं कर पाए वो अब भारतीय  विपक्ष खुद  पूरे कर  रहा है।  समस्त विपक्षी दल -अपनी-अपनी विचारधाराओं का ,सामाजिक  -आर्थिक  प्रतिबद्धताओं   का कितना भी दर्शन  बघारते रहें किन्तु यह अटल सत्य है कि  भारत का  वर्तमान राजनैतिक विपक्ष जिस रास्ते पर  चल पड़ा है उसका  अवसान सुनिश्चित है।   मेरी इस सैद्धांतिक स्थापना  को असत्य सिद्ध करने के लिए  विपक्ष को आइन्दा वहाँ -वहाँ  जीतकर बताना होगा जहाँ -जहाँ साम्प्रदायिक उन्माद जगाया गया।  मेरा दावा है कि  जीतना तो दूर  की बात  है , एकजुट होकर केवल जमानत  भी बचा कर दिखाए तो जाने !  मैं अपनी इस धारणा को निरस्त  करने को उत्सुक हूँ  कि  काश मैं गलत साबित ही जाऊं। दुंर्भाग्य से मैं असल तस्वीर देखने की तक्नीक  जनता हूँ। मैं देख रहा हूँ कि  भारतीय सम्पूर्ण विपक्ष हारकिरी की ओर  अग्रसर है !   
                                       दरसल नरेंद्र मोदी जी और संघ परिवार को तो  भारत के वर्तमान  राजनैतिक विपक्ष का आभारी होना चाइये। क्योंकि  निरंजना ज्योति, साक्षी   महाराज   ,नवमान  ,कटियार  ,तोगड़िया बाबा   ,रामदेव ,आचार्य धर्मेन्द्र  तथा अशोक  सिंघल  जैसे  'जड़मति मित्रों' के  सापेक्ष   -सीताराम येचुरी , आनंद शर्मा , मायावती  ,शरद यादव ,  रामगोपाल यादव ,गुलाम नबी आजाद ,दिग्विजयसिंह ,आनद शर्मा ,सोनिया  गांधी,राहुल गांधी ,डी राजा तथा मुलायम सिंह  जैसे सनातन प्रतिद्व्न्दियों [शत्रुओं नहीं ] की वाग्मिता से नरेंद्र मोदी लगातार  और ज्यादा मजबूत होते जा रहे हैं।  भारतीय  लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष तो जरुरी है ही साथ ही भाजपा जैसी साम्प्रदायिक पार्टी को सत्ता से बाहर करना भी जरुरी है किन्तु  सिर्फ  विपक्ष की या  कुछ नेताओं की  राजनैतिक इच्छाओं से कुछ नहीं होता  जनता  की इच्छा ही सर्वोपरि है।  वेशक अभी   तो जनता को मोदी  जी का व्यक्तित्व , संघ परिवार का  घर वापिसी , भाजप नेताओं का बड़बोलापन और बाबाओं का पाखंड  ही पसंद आ रहा है। यकीन ने हो तो जनता से पूंछ लो !

                            श्रीराम तिवारी
 

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

मध्यप्रदेश के मंत्रियों को नहीं मालूम भारत में नोबल किसे मिला ?

 राष्ट्रीय अखवारों और चैनलों में  आज यह खबर तो खूब चली कि कर्नाटक विधान सभा में भाजपा के कुछ विधायक  पोर्न साइट में  विजी  पाये गए।  लेकिन मध्यप्रदेश के भाजपा नेताओं और मंत्रियों  के हिन्दुत्ववादी,  प्रखर राष्ट्रवादी 'अखंड भारतवादी' ज्ञान की किरकिरी -शायद इन  राष्ट्रीय चैनलों और अखवारों तक नहीं पहुंची।  जिन्हे यह अधोलिखित  वाक्यात   मालूम है  कृपया वे इसे न पढ़ें।  जिन्हे इस  आख्यान में  कुछ असत्य या अनुचित  लगे वे पहले  भोपाल स्थति 'समिधा'  भवन  में किसी भी भाजपाई नेता से पूंछ तांछ कर प्रमाणीकृत कर  लें।  जिनका ईमान और जमीर नहीं मरा हो ,जिन्हे सत्यनिष्ठा और विवेक का ज़रा भी आत्माभिमान हो , वे इसे शेयर करें.पसंद  करें।

 आज  सुबह -सुबह चाय के साथ अखवार पढ़ते हुए मैंने बिना किसी भूमिका के ही  अपने १२ बर्षीय  नाती अक्षत से  दनादन तीन  सवाल पूंछ लिए।
                    पहला सवाल :-   उस  भारतीय का नाम बताओ - जिसे मलाला युसूफ जई  के साथ संयक्त रूप से आज  ओस्लो में नोबल पुरस्कार  मिला है ?

  उसका जबाब :- अरे आपको नहीं मालूम  ? वो तो अपने एमपी के ही कैलाश सत्यार्थी  अंकल हैं  न !
 मैंने आश्चर्य से पूंछ लिया तुम्हें कैसे मालूम ? उसका जबाब था  इसमें क्या मुश्किल -आपके हाथ में  जो पेपर है उसके सबसे ऊपर उनका फोटो दिया है और नाम भी लिखा है।


 दूसरा सवाल :- रूस का राष्ट्रपति कौन है ?  उसका  जबाब था 'पुतिन' .  मैंने आश्चर्य से  पूँछा  अरे वाह तुम्हें कैसे मालूम ? उसका जबाब था टीवी पर दो दिन से  यही तो आ रहा है , हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी साथ में हैं।

[ ये तो नहीं बता पायेगा यह सोचते हुए ] मैंने  तीसरा सवाल किया  :- इस बार २६ जनवरी  गणतंत्र दिवस को लालकिले के  ध्वजारोहण समारोह में  मुख्य अतिथि कौन होगा ?

  नाती का  जबाब था :- ओसामा ! मैंने कहा वो कौन है ? उसका जबाब था - प्रेसिडेंट  ऑफ़ अमेरिका ।

 बहरहाल  मैंने उसकी भूल सुधारते  हुए  उसे बताया कि बेटा वो  ओसामा नहीं 'ओबामा' हैं  जो अमेरिका के राष्ट्रपति  हैं !   'ओसामा जी' तो कबके जन्नतनशीन  हो चुके हैं । पुनः कौतूहलवश मैंने पूंछा लिया कि  बेटा  तुम पढाई में तो बहुत फिसड्डी हो और ये दुनिया भर की फ़ालतू बातें कैसे  जानते हो ? उसका उत्तर लाजबाब था ;- हर चैनल पर  रात  -दिन यही तो दिखाया - बताया जा रहा है। मैंने सूचना सम्पर्क क्रान्ति  का शुक्रिया अदा करते हुए  नाती को अपना होम वर्क करने के निर्देश दिए और खुद टीवी के सामने जा डटा। टीवी चैनलों पर नजर दौड़ाई तो  एक  विचित्र किन्तु सत्य खबर   ने अचम्भित कर दिया। खबर यह थी कि  किसीलोकल चैनल के   मजाकिया  किस्म  के खोजी पत्रकार ने मध्यप्रदेश सरकार के  कुछ मंत्रियों और भाजपा विधायकों  की इज्जत को तार-तार कर दिया है। पत्रकार ने सेकेट्रिएट और वल्ल्भभवन  परिसर में मंत्रियों,विधायकों और नेताओं  से इस नोबल प्राइज बाबत पूंछ लिया । इन नेताओं का आईक्यू , सामान्य ज्ञान और परम्परागत भड़ैती  की बानगी   देखकर मैं   दंग  रह गया। न्यूज - पत्रकार  ने बड़े ही चालाकीपूर्ण  अंदाज में   मंत्री  श्रीमती कुसुम मेहंदेले से जब पूंछा कि  'कैलाश जी  ' को नोबल मिला है ,आप कैसा महसूस कर रहीं हैं ?  मंत्री महोदया   ने  अपने मंत्रिमंडलीय साथी 'कैलाश विजयवर्गीय की शान में विजयवर्गीय चालीसा पढ़ डाला । जब पत्रकार ने  बताया  कि  उसका आशय किसी और 'कैलाश ' से है  जो 'सत्यार्थी' है और बच्चों को शोषण से मुक्त कराने के लिए ३० साल से संघर्ष कर रहा है , तो उन मंत्री महोदय ने इस संदर्भ में अपनी अनभिग्यता जताई।गनीमत यह रही कि  इस अज्ञानता और विवेकहीनता में  किसी 'विपक्षी' का हाथ  नहीं पाया गया।  इस पत्रकार ने किसी  दूसरे मंत्री श्री ज्ञानसिंह जी से भी यही प्रश्न किया। वे  कैलाश नाम सुनते ही उन पर  हमारे  प्रख्यात  इंदौरी शान,दो  -नंबरी  कद्दावर भाजपाई नेता और भावी मुख्यमंत्री कैलाश विजयवर्गीय की 'सवारी ' आ गई। उनका जबाब बहुत मजेदार था। ' कैलाश जी  बहुत  मेहनती हैं ,उन्होंने  नगरीय और स्थानीय प्रशासन मंत्री  की हैसियत से प्रदेश के कई शहरों में बड़े-बड़े काम किये हैं। हरियाणा की जीत का श्रेय भी उन्ही को है। इत्यादि,,, इत्यादि।  शायद  इस तरह के जबाब सुनने के आदि पत्रकार  ने जितने भी  विधायकों और नेताओं से  'कैलाश जी' के नोबल प्राप्त करने  बाबत सवाल किया ,लगभग सभी ने कैलाश विजयवर्गीय की शान में  रिदम के साथ  सस्वर चरण वंदना के गीत गा  दिए।  वेशक कैलाश विजयवर्गीय  हैं भी  इस काबिल।  कि  वे चाहें तो नोबल उन्हें भी मिल सकता है।  वैसे भी ये नोबल  पुरुष्कार  वैश्विक राजनीती का ही  प्रतिफल है। नोबल कमिटी ने शांतिस्वरूप जो  नोबल पुरुष्कार -कैलाश और  मलाला को दिया है  वह सही पात्रों को दिया गया है. किन्तु कमिटी के ये उदगार कि  'एक  भारतीय ,एक पाकिस्तानी  ,एक हिन्दू -एक मुस्लिम ,एक किशोरी और एक बृद्ध ,एक बच्चों को शोषण  से मुक्ति के लिए -एक साक्षरता के लिए नोबल के हकदार हैं '  इस शब्दावली में भारत को  जबरिया  पाकिस्तान के समकक्ष खड़ा करने की जो मंशा छिपी है वो  उचित नहीं है।  कहाँ विराट भारतीय लोकतंत्र और कहाँ पाकिस्तानी हिंसक आतंकवाद? 'कहु रहीम कैसे बने ,केर -बेर को संग ' !
                    बहरहाल इस विमर्श का आशय हमारे उन नेताओं की असलियत बताना है जो जनता  को मूर्ख बनाकर सत्ता में पहुँच जाया करते हैं।  अपने देश को  नोबल पुरुष्कार  से गौरवान्वित करने वाले 'कैलाश सत्यार्थी 'का नाम जो नेता  नहीं जानते हों  उन की बुद्धि पर क्या ख़ाक वक्त जाय किया जाये.  ,क्या ये  भारतीय संस्कृति  के रक्षक  कहलाने के हकदार हैं ? क्या ये  प्रदेश का शासन चलाने के लिए उपयुक्त हैं ? जिन्हें आज की सबसे  महान राष्ट्रीय उपलब्धि के बारे में रंचमात्र ज्ञान नहीं  वे  क्या खाक राष्ट्रवादी हैं ? ये निरे स्वार्थी, पदलोलुप और भृष्टाचारी नेता कदापि सम्मान या सत्ता के हकदार नहीं हैं?
                   

    श्रीराम तिवारी

 

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

गीता का राष्ट्रीयकरण या भारतीयकरण करने का प्रयास निंदनीय है।



  वर्तमान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को धन्यवाद कि उनके मार्फ़त देश और दुनिया में 'श्रीमद्भगवद्गीता'  की हैसियत के बारे में नया विमर्श जारी है।  वेशक  स्वामी विवेकानंद , जे कृष्ण  मूर्ति ,शिवानंद योगी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक , गोखले , लाला लाजपत  राय ,गांधी , चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, सुखदेव ,रामप्रसाद  बिस्मिल   ,भगतसिंग ,आचार्य कृपलानी, अरविन्द, गोविंदबल्ल्भ पंत , बिनोबा ,जयप्रकाशनारायण,  और पंडित मदन मोहन मालवीय  जैसे अनेकों राष्ट्रसन्तों और क्रांतिकारियों  ने इस गीता के अध्यन  -मनन से अपने व्यक्तित्व को निखारा  था।
 
इस आलेख को पूरा पढ़ने के लिए लॉगऑन  करें -http//janwadi.blogspot.in

            उपरोक्त में से   कुछ तो  परम्परागत पैदायशी संत थे. सो उन्होंने यदि गीता की महिमा का बखान किया तो  कोई बेजा  बड़ी बात  नहीं है ?  यह तो आध्यात्मिक जगत की स्वाभाविक परम्परा है।  भारत के सभी धर्मोपदेशकों और दार्शनिकों के लिए गीता एक मार्ग दर्शक की तरह रही है।  किन्तु जब रजनीपाम दत्त , मानवेन्द्र   नाथ राय , महापंडित राहुल सांकृत्यायन  ,रवीन्द्रनाथ टैगोर, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, स्वामी श्रद्धानन्द ,जार्ज बर्नाड शा , गणेशशंकर विद्द्यार्थी, मुक्तीबोध , दुष्यंतकुमार ,लोहिया  जैसे प्रगतिशील  -  क्रांतिकारी कवियों,शायरों,  चिंतकों -लेखकों  से लेकर श्रीपाद अमृत डांगे, ए. के.गोपालन ,ई एम एस  नम्बूदिरीपाद और ज्योति वसु  जैसे खाँटी  साम्यवादी  विचारकों ने  भी भगवद्गीता को  मानवतावादी और अन्याय के खिलाफ   संघर्ष के लिए उपयोगी ग्रन्थ   माना है.  तब यह एक अनोखी बात हो सकती है।  डॉ  अल्लामा इकबाल , डॉ रामविलास  शर्मा और डॉ राही  मासूम रजा जैसे अधिकांस भारतीय वामपंथी लेखक ,बुद्धिजीवी  अपने लेखन में ही नहीं बल्कि  सार्वजनिक   जीवन में भी भगवद्गीता   को   'वर्ग संघर्ष' के निमित्त अनुकूल पाते रहे हैं।
                    जिस तरह  कार्ल मार्क्स की  शिक्षाएं केवल किसी खास कम्युनिस्ट पार्टी या किसी खास देश के लिए नहीं हैं, उसी तरह  गीता के अठारह  अध्याय  केवल भारत के लिए या हिन्दुओं के लिए ही सम्बोधित नहीं किये गए बल्कि वे  समूची मानवता के लिए 'संहिताबद्द' किये गए हैं।  यह महान तम विज्ञानमय कोष  न  सिर्फ हिन्दुओं की , न सिर्फ  संघ परिवार 'की, न सिर्फ भारतियों  की ,न सिर्फ धार्मिक या  आस्तिकों की  बल्कि यह तो  सारे संसार  की धरोहर  है।
                             दुनिया के सभी धर्मों,मजहबों,के  महानतम पवित्र और  दिव्य ग्रन्थ है । सभी सबके लिए हैं। सभी का उद्देश्य मानव कल्याण है।  सभी का घोर दुरूपयोग भी हुआ है। अब भी हो रहा है। सुषमा स्वराज या अशोक सिंघल ही नहीं और भी हैं जो नाहक गीता के लिए 'हलकान' हो रहे हैं।  'संघ परिवार' की यह  सदिच्छा हो सकती है   कि भगवद्गीता को  भारत का राष्ट्रीय ग्रन्थ होना  चाहिए। लेकिन यह  महज एक राजनैतिक शोशेबाजी है। जो लोग   सुषमा स्वराज के इस वयान से  इत्तफाक रखते हैं वे शायद गीता को ठीक से पढ़े ही नहीं हैं। जो सिर्फ इसलिए  खफा हैं कि  उन्हें   इस वयान में  हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता की बू आ रही है, वे स्वनामधन्य धर्मनिरपेक्षतावादी  भी केवल  सनातन अंध विरोध  के सिंड्रोम से पीड़ित हैं.  वे गीता के बारे में  या उस की क्रांतिकारी शिक्षाओं के बारे में कुछ नहीं जानते।  जो  लोग सुषमा स्वराज के बयान से प्रशन्न हैं  या गदगदायमान  हो रहे   हैं , वे तो केवल  हिंदुत्व  के  नास्ट्रेलजिया के  और अंधश्रद्धा रुपी फोबिया के शिकार हैं।
                           वास्तव में  भगवद्गीता की आध्यात्मिक समृद्धि  केवल ज्ञानयोग,कर्मयोग,सांख्ययोग या  'तस्मात योगी भवार्जुन'  तक  ही सीमित  नहीं  है।  बल्कि उसमें वो सब  कुछ है जो अन्याय  ,शोषण  ,उत्पीड़न  , असमानता और अभाव  को परास्त करने के लिए जरुरी है। उसमें न केवल कार्ल मार्क्स ,न केवल बाबा  साहिब भीमराव आंबेडकर, न केवल सामाजिक ,न केवल आर्थिक  ,बल्कि हर किस्म की असमानता के विरुद्ध  संघर्षशीलता के  मूल्य और  सिद्धांत  मौजूद हैं।  महर्षि  कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने  प्रकारांतर से  जिस वेदांत दर्शन और उपनिषदों  के सारतत्व  का भगवद्गीता के रूप में   पुनर्सम्पादन   किया है. उसे उनसे भी पूर्व राजा जनक के गुरु ' अष्टाबक्र' जी कर भली भाँति  प्रकाशित कर चुके थे। कालांतर में वेद व्यास ने या  उनके पुत्र शुकदेव ने   इस 'गीता' को  'महाभारत '  के भीष्म पर्व में  समाहित  किया है।  व्यास जी ने अपने स्वरचित महाकाव्य 'महाभारत' में सन्निहित इस   'भगवद्गीता' के उद्घोषणा का श्रेय 'वासुदेव श्रीकृष्ण' को दिया है।  बकौल उनके -श्रीकृष्ण के द्वारा ही -१८ दिन   चले उस राष्ट्रव्यापी  महाभीषण  युद्ध के  रक्तपात   और स्वजनों की हिंसा से दुखी  -  विरक्त  अर्जुन को  अन्याय से लड़ने के लिए इस गीता के माध्यम से  'पेनिट्रेट'  किया गया  है ।  विश्व के सभी धर्मों के अधिकांस ग्रन्थ  जिन मूल्यों और सिद्धांतों की पैरवी करते हैं ,गीता  में भी  वही सब   बेहतरीन और सुसंस्कृत ढंग से  छन्दोबद्धय  किया  गया है।  गीता  तो  अंतर्राष्ट्रीय ग्रंथ  है । गीता का  राष्ट्रीयकरण या भारतीयकरण  करने का प्रयास निंदनीय  है।  श्रीमद भगवद्गीता तो अंध श्रद्धा और अकर्मण्यता  के खिलाफ अचूक अश्त्र है।   दुनिया में शायद  यही एक ऐंसा ग्रन्थ है जो संकीर्णता ,कूपमंडूकता ,जातिवाद  तथा अवैज्ञानिक अवधारणों   को नष्ट करने में सक्षम है।
                    जो -जो  भगवद गीता में लिखा है वही सब कुछ  कार्ल मार्क्स ,लेंनिन ,गोर्की, स्टालिन, रोजा  लक्जमवर्ग ,हो चिन्ह -मिन्ह , फीदेल कास्त्रो और चे  गुवेरा  इत्यादि क्रांतिकारियों  ने भी अपने शब्दों में न केवल दुहराया है, बल्कि  अनुशरण भी किया है।  हम भारतीय तो केवल उसका सस्वर पाठ ही किया करते हैं।  दुनिया की अनेक हस्तियों और सभ्यताओं ने  तो गीता से बहुत कुछ सीखा है।   चीन , जापान जर्मनी  और रूस  के विश्व विद्यालयों में दर्जनों नहीं सैकड़ों लड़के लड़कियां मिल जायँगे  जो गीता पर अपना शोध प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त हैं।   बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत के  साम्प्रदायिक नेता गण  गीता को  हिंदुत्व की राजनीति   में याने वोट की राजनीति  में घसीट रहे हैं।  कुछ प्रगतिशील तत्व -भाजपा की राष्ट्र विरोधी  नीतियों ,साम्प्रदायिक धूर्तता , पूँजीवादी चाल , हिंसक चेहरा और दूषित  चरित्र  से देश को बचाने के बजाय गीता की 'महत्ता' को ही  आनन-फानन  अस्वीकार करने में जुट जाते हैं।
                      यह  मान्यता  कोई कपोल कल्पना नहीं है कि  पूर्व वैदिक काल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था  मौजूद  थी।  भगवद्गीता  चूँकि वेदांत याने उपनिषदों का सार तत्व है  इसलिए वह साम्यवादी दर्शन  के बहुत करीब है। कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में जो कुछ भी  कार्ल मार्क्स द्वारा सम्पादित किया गया है वह सब कुछ गीता में भी है। फर्क इतना है कि  कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो  सारे संसार  में क्रांति और संघर्ष के लिए सहज सुलभ है। उसी की वजह से दुनिया के मजदूर वर्ग को अन्याय से लड़ने का एक शसक्त ओजार  मिला है। जबकि  गीता सदियों तक एक खास वर्ग के पास केवल पूजा -आरती की  आराध्या   ही  बनी  रही ।  उसे शोषण से मुक्ति का ओजार  नहीं बनने दिया गया।  न केवल व्यक्तिगत  बल्कि समस्त वैश्विक मानवीय मूल्यों और संघर्षों के निमित्त अधिकांस  वैज्ञानिक सूत्र  कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और 'भगवद्गीता' में   सामान रूप से उल्लेखित है। जिन्हे कोई शक हो वे इन दोनों  को  एक साथ - एक बार अवश्य  पढ़ें।  वेशक गीता  , कुरआन  ,बाइबिल  ,जेंदावेस्ता और गुरुग्रंथ साहिब   इत्यादि सभी  महान पावन ग्रन्थ है।  किन्तु इसके वावजूद  किसी भी  देश का  'राष्ट्रीय ग्रन्थ ' तो  उसका  संविधान ही हो सकता है।  जो लोग सुषमा स्वराज के बयान से  इसलिए  अभिभूत हैं कि  यह सब उनके 'गुप्त अजेंडे' के अनुसार  हो रहा है। उन्हें यह जान लेना चाहिए कि  वे  अपनी संकीर्ण  मानसिकता के वशीभूत होकर ही  'भगवद्गीता'  जैसे  धर्मनिरपेक्ष ग्रन्थ को केवल  हिन्दुओं ,केवल आस्तिकों या केवल  भारतीयों  तक ही  सीमित करने का महापाप  कर रहे हैं।   गीता  का  इस तरह राजनैतिक दुरूपयोग कदापि स्वीकार्य नहीं बल्कि घोर निंदनीय और अमानवीय।

                         श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

तमाम संहारक शक्तियों की विराट दुर्जेयता पर इंसानी जिजीविषा अब भी भारी है।



       यह तो  पता नहीं  कि कब  यह मसल [कहावत] मशहूर हुई  कि  'अकल  बड़ी  या   भैंस ?'  किन्तु यह अवश्य अनुमानित किया जा सकता है कि 'कलम बड़ी या तलवार ?' का मुहावरा जरूर सामंतयुग के ही  दरबारी गैर - दरबारी बुद्धिजीवियों  याने चारणों -भाटों की दैन  है।   अब चूँकि अंधश्रद्धावाद ने ,साम्प्रदायिक उन्माद ने ,वैश्विक  आतंकवाद   ने तथा   मानवता के हत्यारे इस मौजूदा  निर्मम पूँजीवाद ने सिद्ध कर दिया है कि  भैंस  ही बड़ी होती है।  उसके अनुसार तो अब ताकत का  ही जमाना है।  वह 'जिसकी लाठी उसकी भेंस' का तरफदार है ।  वैसे भी  पूंजीवादी प्रजातंत्र  की आवारा राजनीति तो एक कदम आगे ही है।
  इस  आलेख  को आगेपढ़ने की लिए लॉगआँन करें -https//www.janwadi.blogspot.in  
   इसमें  जिसको जितनी ज्यादा  वोटरों याने 'मानव मुंडियों ' का समर्थन   मिलता है , अंध समर्थकों की जितनी ज्यादा  भेड़ें उसके अंधकूप में  गिरतीं हैं वह  उतना ही  'सुपर पावर सेंटर'    हो जाया  करता है  ! वही सबसे बड़ा  राजनैतिक दल या नेता  होता है!  भैंस तो फिर भी  कम से कम दूध तो देती ही है। भले ही उसे  पानी-सानी  और घास  वोट कबाडु अक्लमंद खिलाते  -पिलाते हों।  किन्तु दुग्धपान तो टाटा ,बिड़ला ,अम्बानी,अडानी ,जैसे ही कर रहे  हैं।  बात सिर्फ इतनी ही होती तब भी गनीमत  होती , लेकिन  असल खतरा  उन भैंस  जायों का है जो  वैश्विक हथियार उत्पादक  पाड़ों  के रूप में अब समस्त भूमण्डल  की  हरियाली  उदरस्थ किये जा रहे हैं। इन हालत में  बुद्धि चातुर्य ,चिंतन मनन,दर्शन,सिद्धांत  रुपी  अक्ल का क्या आचार डालियेगा ? क्या अक्ल बाकई  अब घास चरने  के काबिल  ही रह गई है ?
                                 इस उल्लेखित दौर में - ताकतवर राष्ट्रों ने ,ताकतवर समाजों  ने ,ताकतवर जातियों  ने  ताकतवर मुनाफाखोरों ने , ताकतवर अलगाववादियों ने  ,ताकतवर कार्पोरेट  घरानों ने ,जड़मति - मजहबी जेहादियों  ने ,ताकतवर हथियार उत्पादक लॉबियों ने ,जातीय बहुसंख्यकवादियों ने ,वैचारिक संकीर्णतावादियों ने  डंके की चोट पर, अब विवेकपूर्ण बुद्धिमत्ता पर विजयश्री हासिल कर ली है। इन शैतानी ताकतों ने अच्छे-अच्छे  बुद्धिजीवियों ,दर्शनशास्त्रियों  , मानवतावादियों  ,मार्क्सवादियों और समाजवादियों की  भी अक्ल  भी  ठिकाने लगा दी  है । इस अधुनातन -परम -उत्तर आधुनिक दौर में ,सूचना सम्पर्क क्रांति के दौर में , कथित  - अतिउन्नत दूर संचार संसाधनों के दौर में ,कम्प्यूटरीकरण के दौर में , घन घोर वैश्वीकरण -उदारीकरण और बाजारीकरण के दौर में -चरमोत्कर्ष पर विराजित  वैज्ञानिक  उपलब्धियों के दौर में क्या  इंसानियत शिथिल हो चुकी है?  नहीं ! नहीं ! नहीं !  ह्रदय  की विशालता ,मानवीय वैश्विक बंधुता ,अवसरों की समानता , 'जियो और जीने दो '  की  सर्वजनहितकारी ,सार्वदेशिक  पावन उद्घोषणा  अभी भी सांस ले रही है। अन्यान्य  मानवीय संघर्षों - क्रांतियों की सजग संवेदना एवं  ततसंबंधी  मानवीय मूल्य  अब  भी जीवन के लिए ललक रहे हैं।  वे केवल पौराणिक आख्यानों की कथावस्तु बनकर  नहीं रह गए  बल्कि  वे  विवेक का अमरत्वपान कर-क्रांति-क्रांति  पुकार रहे हैं ।
                              'कलम बड़ी या तलवार'  वाले  जुमले   को तो विज्ञान के चौतरफा आक्रमण ने वैसे भी  बहरहाल कालकवलित  ही  कर दिया है। कलम की जगह 'की बोर्ड' या 'टच स्क्रीन ' ने बर्षों पहले ही ले ली है। अब तो  सुपर कंप्यूटर या मोबाइल- 6  जनरेशन से भी आगे की 'पलक झपक'  या 'नाड़ी  स्पंदन' की अगली पीढ़ी की  नूतन तकनीकि  के आगमन  की तयारी चल रही है।  आइन्दा कलम  दवात  या प्रिंट संसाधनों की कितनी महत्ता रहेगी यह  अभी से कुछ  कहा नहीं जा सकता।  लेकिन  यह तय है कि  भविष्य का   इंसान  न  केवल अपनी  आयु   बल्कि  मालगत  -भौतिक संसाधनों और तदनुरूप उत्पादों से लेकर जीवन के क्षेत्र की  हर चीज  और उस की उम्र को भी  अब बाजार की प्रतिदव्न्दिता से ही परिभाषित  करने जा रहा  है।
                             चाकू  तलवार  और इस जाति  के मध्ययुगीन सामंती  हथियार अभी भी  गली मोहल्लों में लुच्चे -लफंगों और गुंडों के 'शौर्य प्रदर्शन ' का माध्यम बने हुए हैं। शादी विवाह में ,दशहरे की पूजा में या पुराने जमींदारों  -राजे -रजवाड़ों के चित्रों में सुशोभित अश्त्र-शस्त्र अब 'कलम बड़ी या तलवार' वाले मुहावरे के लायक नहीं रह गए।  क्लाशिन्कोव ,ए.के -47 ,मोउजर , जैसे हथियार  तो पहले ही तलवार को मात दे चुके हैं।अब   रॉकेट लांचर ,परमाणु बम और एटीएम बम , उद्जन बम   भी विगत शताब्दी के ओल्ड फैशन के हथियार  हो चुके हैं  अब तो  रासायनिक  ,जैविक ,रोबोटिक, मारक हथियारों के उत्पादन और विक्रय का जमाना है। इन्ही की तिजारत  की होड़ मची है। ये हथियार पुलिस या सरकार के पास भले ही न हों , किन्तु आईएसआई , नाटो  , तालिवान, अलकायदा ,सिमी और नक्सलवादी संगठनों के पास  ये हथियार जरूरत  से ज्यादा  मिल जाएंगे।  वो जमाना कब का खत्म हुआ जब कलम  तलवार से बड़ी हुआ करती थी. अब तो कलम भी तलवार के सामने नतमस्तक है।
          फिर भी हर दौर की तरह इस दौर में भी बुद्धिबल और मानवीय विवेक का हौसला पस्त  नहीं हुआ है।  उसके नेक इरादे भी कम बुलंद नहीं हैं।  एक मामूली सी चिप या एक मामूली सा 'स्ट्रिंग आपरेशन सेट '  किसी भी शक्तिशाली शासक को  धूल   चटा  सकता है। वेशक यह एक आशाजनक संभावना है कि तमाम संहारक शक्तियों की विराट दुर्जेयता पर इंसानी जिजीविषा  अब भी   भारी है।  जिस तरह उन्मत्त  हाथी  को  काबू में करने के लिए इन्सानी  हाथों में  छोटे से अंकुश  की बखत  है उसी तरह मानवता की रक्षा के लिए ,क्रांतियों के  मूल्यों और शहादत के अवदान की सुरक्षा के लिए तड़प अभी भी विद्द्य्मान है। पैशाचिक ताकत को नियंत्रित करने के लिए  वैचारिक  विवेकशीलता ,मानवीय सह्रदयता   अभी भी हिलोरें ले रही है।  युवा चेतना से भरपूर    सोशल मीडिया  का साहचर्य अब  शोषित -बंचित वर्गों  को   भी   मिलने लगा है।  टेक्नॉलॉजी  अब केवल रोजगार या मनोंरंजन का साधन मात्र नहीं रह गई बल्कि  इसके शशक्त सहयोग से  शोषणकारी ताकतों की  भृष्टतम व्यवस्था के खिलाफ  जन संगठनों  के   एकजुट  संघर्ष   की धार अब और ज्यादा तेज हो रही है।

                    श्रीराम तिवारी