गुरुवार, 30 मार्च 2017

रामलला टाट में और भाजपाई ठाठ में हैं।

यूपी चुनाव जीतने के दुसरे दिन ही लखनऊ में स्वामी रामदेव ने यूपी के नए नवेले मुख्यमंत्री 'योगी आदित्यनाथ' के साथ मंच साझा किया। योगी जी ने इस अवसर पर कहा कि 'सूर्य नमस्कार' और 'नमाज' की शारीरिक मानसिक क्रियाएं लगभग एक जैसी ही हैं । उन्होंने और ज्यादा कुछ नहीं बोला । लेकिन स्वामी रामदेव ने अपने 'योगबल' के आवेश में आकर न केवल यूपी बल्कि सारे 'अखण्ड भारत' में  'रामराज्य' का ऐलान भी  कर दिया है। उन्होंने हर्षातिरेक में आकर आगामी २१ जून-२०१७ के योग कार्यक्रमों का एजेंडा प्रस्तुत किया। तदनुसार वे 'रामराज्य' की चर्चा यों कर रहे थे तो मानों अपने 'पंतजलि- साम्राज्य' का ही प्रचार कर रहे हों! यह तो वक्त ही बतायेगा कि आइंदा 'रामराज्य' आएगा या 'माहिष्मती साम्राज्य' के उस 'बाहुबली' जैसा हश्र होगा,जिसे उसके ही वफादार सेवक 'कटप्पा' ने धोखे से मार दिया था । बहरहाल इस तरह के मंचों के आयोजन से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दिनों दिन बढ़ती जाती व्यक्तिगत ख्याति और उनकी संविधानेतर पलटन के तेवरों से मोदीजी को नयी चुनौती तैयार हो रही है। इससे वे लोग ज्यादा शशँकित हैं जो धर्मनिरपेक्ष हैं। इसके अलावा 'एंटी रोमियो स्काड' और बूचड़खाने नियंत्रित करने के बहाने यूपी के रोजनदारी मजदूर-कर्मचारी,छोटे कारोबारी,सीमान्त किसान,दलित और अल्पसंख्यक का जीवन संकट में आ चुका है। वे लोग भी चिंतित हैं जो किसी तरह का साम्प्रदायिक फसाद नहीं चाहते !

भाजपा के चुनावी एजेंडे में अथवा 'संघ नेतत्व' के जेहन में 'रामराज्य' की आकांक्षा कोई नयी बात नहीं है। आजादी से पूर्व 'हिन्दू महासभा'और 'संघपरिवार' ने  आजादी के उपरान्त अपने इन्ही उद्देश्यों के निमित्त 'जनसंघ' का निर्माण किया था। जिसके सिद्धांतों में 'हिन्दू अस्मिता' और 'रामराज्य' को प्रमुखता से तस्दीक किया जाता रहा है। ई.सन १९८० के मुम्बई स्थापना अधिवेशन में 'भाजपा'ने अपने घोषणापत्र में 'गांधीवादी समाजवाद' का बहुत गुणगान किया। रामराज्य को गांधीवादी रास्ते से लाने का संकल्प भी लिया गया। गाहे बगाहे उसका प्रचार प्रसार भी किया जाता रहा है। गलतफहमी या बदकिस्मती से उनके इस रामराज्य अभियान को अल्पसंख्यकों ने अपने खिलाफ मान लिया। परिणामस्वरूप उन्होंने अपनी सुरक्षाके लिए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की चुनावी राजनीति में साम्प्रदायिक ध्रुबीकरण करते हुए 'टेक्टिकल वोटिंग' का खतरनाक रास्ता चुना । धर्मनिरपेक्ष पूँजीवादी दलों और अल्पसंख्यक नेताओं ने इस वर्ग का खूब भयादोहन किया। इमाम बुखारी से लेकर लालू,मुलायम, माया ,ममता और कांग्रेस ने भी इसे सालों तक खूब भुनाया है । चूँकि हिन्दू समाज तो जातियों और भाषाई खेमों में बुरी तरह बँटा हुआ है,इसलिए जब गैरभाजपा राजनीतिक शक्तियोंने ने दलित -अल्पसंख्यक एवम पिछड़े वर्ग को एकजुट कर नकली धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की खिचड़ी पकाई, तो बहुसंख्यक वर्ग के साम्प्रदायिक नुमाइंदों को सत्ता में आने का मौका मिल गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट का अमल यदि क्रिया था तो 'कमण्डलवाद' उसकी प्रतिक्रिया रहा और कमण्डल की प्रतिक्रिया स्वरूप संघ का 'कमलदल' अब शिद्दत से खिल रहा है !लेकिन रामलला अभी भी बेघर हैं !

विगत यूपीए -दो के मनमोहन राज में जब उच्च वर्ण के गरीब मजदूरों, बेरोजगार युवाओं को लगा कि आजादी के ७० साल भी उनका किसी पार्टी के राज में कोई उत्थान नहीं हुआ तो वे अन्ना हजारे- स्वामी रामदेव के बहकावे में आ गए। उनसे कहा गया कि यदि कांग्रेसको हरा दोगे तो कालाधन वापिस सफेद हो जाएगा। यदि भाजपाको जिताओगे तो रामराज आ जाएगा। अच्छे दिन आयँगे। चूँकि मनमोहन सरकार के कुछ मंत्रियों और नेताओं ने भृष्ट-आचरण को बढ़ावा दिया था। और बहुतेरे आरक्षित वर्ग के परिवारों का नाम भी मलाईदार सूची में शामिल हो चुका था, इसलिए सवर्ण -दलित -पिछड़े वर्ग के लोगों ने भाजपा और मोदीजी को सत्ता सौंप दी! लेकिन बहुसंख्यक समाज ने  'संघ' की शरण में जाकर मोदी और योगी पर जो यकीन किया है ,उसका निर्णय आगामी इतिहास करेगा ,कि उनका यह जनादेश सही था या गलत ! मोदी इफेक्ट की बदौलत बिहार यूपी के अधिकांस युवाओं ने बहरहाल जातिय आरक्षण के मंडल अवतार पर कमण्डल को तवज्जो देना शुरूं कर दिया है । इससे आइंदा भाजपा को शेष राज्यों में भी बढ़त मिलेगी और आगामी २०१९ के आम चुनाव में भी मोदी जी को ही विजय मिल सकती है। भारत विकास का यह मोदी मॉडल रुपी 'बेड़ा'आइंदा 'मंदिर-मस्जिद विवाद' के भंवर से दूर रहता है,साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखता है तो निसन्देह भारत भी विकास की लंबी छलांग लगा सकता है। लेकिन इसके लिए हिन्दू -मुस्लिम दोनों पक्षों को बहुत सब्र से काम लेना होगा।

सुब्रमण्यम स्वामी ,स्वामी रामदेव और यूपी के विजयी उत्साहीलाल भले ही योगीजी और मोदीजीको मंदिर निर्माण के लिए उकसाने की फिराकमें हों किन्तु ये दोनों दिग्गज नेता 'सबका साथ सबका विकास' छोड़कर साम्प्रदायिक दंगों के गटर में अब शायद ही डुबकी लगाने को तैयार हों। भारतीय आशा की किरण वह गंगा-जमुनी तहजीव है जो हर संकटमें राष्ट्रीय एकता की राह दिखाती रहती है। अयोध्या का मंदिर -मस्जिद विवाद इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि दोनों पक्ष इस मामले को अदालत के बाहर द्वीपक्षीय समझौते से हल करने का प्रयास करें। कोर्ट की इस अपील के बाद कमोवेश दोनों पक्षों की संतुलित प्रतिक्रिया रही है। हिन्दू -मुस्लिम पक्षके चन्द अगम्भीर कट्टरपंथी भलेही अल्ल -बल्ल बकते रहते हैं ,किन्तु दोनों ओर के कुछ जिम्मेदार लोग बहुत सावधानी बरत रहे हैं। यह आशाजनक और सौभाग्यसूचक है। अधिकान्स मुस्लिम उलेमाओं और बाबरी मस्जिद के पक्षकारों का कहना है कि अदालत जो भी फैसला देगी हम उसे तहेदिल से मान लेंगे। उधर मुख्यमंत्री योगीजी और अन्य हिन्दू धर्मगुरु भी अब संविधान के दायरे में हल निकालने की बात कर रहे हैं। लेकिन फिर विवाद के सुलझने में अड़चन क्या है ? इस सवाल का जबाब आसान नहीं है। यह इतिहास का वह काला पन्ना है जिसे फाड़ा नहीं जा सकता।
अयोध्या मंदिर -मस्जिद विवाद पर आर्केलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निवृत्तमान सहनिर्देशक श्री केके मोहम्मद के अनुसार विवादित स्थल की खुदाई में जो अवशेष मिले हैं वे सावित करते हैं कि पहले वहाँ मंदिर अवश्य था। कायदे से श्री केके मोहम्मद साहिब के बयान और खुदाईमें प्राप्त तत्सम्बन्धी मृदभाण्डों और सबूतों के आधार पर यह उम्मीद बनती है कि फैसला मंदिर के पक्ष में होना चाहिए। लेकिन ब्रिटिश संविधान प्रेरित आधुनिक भारतीय न्याय व्यवस्था को इतना साक्ष्य पर्याप्त नहीं है। उसे लिखित प्रमाण चाहिए। शायद इस कमजोरी को दोनों पक्ष के विद्वान समझते हैं। इसीलिये स्वर्गीय अशोक सिंघल और आडवाणी जैसे लोग इस विवाद को कानून से परे,आस्था का मुद्दा मानते रहे हैं। इसी नवागन्तुक ब्रिटिश कानून की बिना पर बाबरी मस्जिद के पक्षकार मौलाना हाजी साहबका कहना है कि खुदाई में 'राम के ज़माने की कोई चीज 'नहीं मिली। गनीमत है कि उन्होंने ये नहीं कहा कि 'राम तो मिथ हैं '! वैसे भगवान श्रीराम को 'मिथ' बताने वाले नामवरसिंह और रामचन्द गुहा अब मोदीभक्त हो गए हैं। प्रोफेसर हबीब इरफ़ान शायद मस्जिद मोह के कारण 'श्रीराम' को 'मिथ' बताने में जुटे हैं। यदि वे आर्केलॉजिकल सर्वे के रिपोर्ट पढ़ेंगे तो मंदिर के पक्ष में भी हो सकते हैं। वैसे हाजी साहब की बात में दम है.उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि खुदाई में वेशक बहुत कुछ मिला है लेकिन 'श्रीराम के समय का कोई चिन्ह नहीं मिला' !उनके इस तर्कका जबाब मेरे पास है। हालाँकि मैं न तो हिंदुत्ववादी हूँ और न बाबरी मस्जिद का समर्थक!किन्तु  हाजी साहब और तमाम मित्रों के समक्ष एक सच्चा उदाहरण पेश करता हूँ !

मेरे पितामह का जन्म पुरानी 'धामोनी' रियासत में हुआ था। हैजा फैलने पर वे १९वीं शताब्दी के अंत में सपत्नीक पास के ही गांव पिड़रुवा आ वसे थे ! जब हमारी पीढी के जिज्ञासु वंशजों ने वहां की खोज खबर ली तो पता चला कि जिस जगह हमारे पूर्वजों का छोटा सा पत्थरों का मकान था,वहां अब खण्डहर भी  नहीं बचा जो बताए कि 'इमारत बुलन्द' थी! ज्ञातव्य हो कि १६वीं सदी के बादसे धामोनी स्टेटपर मुगलों के किसी अदने से सूवेदार का कब्जा रहा है उन्होंने धीरे-धीरे हमारे पूर्वजों को वहाँ से खदेड़ना जारी रखा !धामोनी में ब्राह्मण और जैन समाज के अलावा गौड़ आदिवासी और लोधी ठाकुर बहुतायत में थे। चूँकि जैन और ब्राह्मण वर्ग शुद्ध शाकाहारी थे अतएव आक्रांताओं के मांसाहारी कल्चर और युद्ध जैसे निरंतर रक्तपात से उतपन्न महामारी के कारण घबराकर धामोनी छोड़ गए। उनके खेत खलिहान मकान,दूकान सब कुछ मुस्लिम परिवारों को दे दिए गए । मेरे पूर्वजों के मकानके पत्थरों से किसी मुस्लिमने मकान बना लिया। जिस जगह  पूर्वजों का मकान था वहाँ उन्होंने किसी मरहूम को दफ़्न कर दिया ,और जहाँ मंदिर था वहां उन्होंने मस्जिद बनाली। अब यदि सुप्रीम कोर्टके आदेश पर मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि पर खुदाई की जाये तो वहाँ किसी मरहूम मुस्लिम स्त्री या पुरुष के नरकंकाल ही शेष मिलेंगे ! और हमारे पूर्वजों ने समझदारी दिखाई कि 'ठाकुरबाबा' और अन्य देवताओं को बाइज्जत  साथ लेते आये ,जो आज भी पिड़रुवा ग्राम में आबाद हैं। वर्ना वे सभी देवी देवता किसी  कुआँ बाउड़ी में फेंक दिए गए होते या धसान नदी में बहा दिए गए होते। अथवा किसी मस्जिद के द्वार पर जमींदोज कर दिए गए होते !अब प्रोफेसर हबीब इरफ़ान या रोमिला थापर कहे कि आपके पूर्वज तो मिथ हैं ,आपके पूर्वजों के खेत ,खलिहान ,मंदिर और देवी देवता मिथ हैं ,तो इससे बड़ा महाझूंठ और  पाखंड क्या होगा ?

धामोनी रियासत  पर मुगलों के आक्रमणों और महामारियों से उसके उजड़ने से पूर्व,अधिकांश निर्वासित हिन्दू आसपास के गाँवों - पिड़रुवा,सेसई मालथोन या सागर नगर जा वसे !लेकिन वे किस तारीख को उधर से इधर हुए और मूर्तियों के विस्थापन की कोई तारीख किसी सरकारी गजट में दर्ज नहीं है। वे किस जगह से उखाड़ी गइं ? कौन लाया ? कैसे लाया यह विवरण भी कहीं लिखित में उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे मूर्तियां आज भी उपलब्ध हैं। हमारे पूर्वजों के खेतों पर जिनका कब्जा है वे भी उपलब्ध हैं। और वे भी मानते हैं कि 'यह सब तुम्हारे पूर्वजों का ही है लेकिन लिखित में अब  सब कुछ हमारा है।' कोई भी ईमानदार और समझदार इंसान बखूबी सोच सकता है कि जब इस छोटी सी घटना का एक सभ्य सुशिक्षित हिन्दू ब्राह्मण परिवार के पास पूर्वजों की थाती का कोई सबूत नही है, तो पुरातन अयोध्या नगरी उर्फ़ साकेत उर्फ़ अवध के ५ हजार साल पूर्व की किसी राजसी वैभवपूर्ण की सभ्यता के अवशेषों को,लकड़ी मिट्टी,पत्त्थर के भवनों को २१वीं शतब्दी की अयोध्या में खोजने की मशक्कत कितनी बेमानी है? सोचने की बात है कि इन हालात में कोई भी न्यायालय क्या निर्णय दे सकता है ? वैसे भी अयोध्या का इतिहास सिर्फ मुगल आक्रमण का बर्बर ही इतिहास नहीं है,बल्कि उनसे पूर्व तुर्कों,अफगानों,शक ,हूण ,कुषाणों और तोरमाणों ने भी उसे बर्बाद किया है। इसके अलावा भारत के ही अनेक रक्तपिपासु राजाओं ने भी उसे लूटा होगा! जब सारी दुनिया में कुदरती उथल पुथल निरन्तर मचती रहती है तो विगत ५-६ हजार सालमें इस अयोध्याकी कितनी दुर्गति न हुई होगी ?इतनी शतब्दियों में कितने प्राकृतिक झंझावत नहीं आये होंगे ? इसलिए 'राम जन्म' भूमि का सबूत मांगने वालों से निवेदन है, कि भगवान् श्रीरामचंद्र जी के ज़माने के अवशेष खोजने की बात करके 'सत्य' का उपहास न करें !

वेशक आप धर्म -मजहब वाले हों या विधर्मी हों किन्तु मजहब -धर्म की राजनीति न करें !और धर्म -मजहब को राजनीती में न घसींटे !विगत लोक सभा चुनाव में अल्पसंख्यक टेक्टिकल वोटिंग से प्रभावित होकर ,विराट संख्या में हिन्दू समाज के निम्न मध्यमवर्ग के युवाओं ने भी एकजुट होकर मध्यप्रदेश, छग राजस्थान ,झारखण्ड और अब यूपी में खूब ताकत हासिल कर ली है । हालांकि उन्होंने पहले भी इन प्रान्तों में भाजपा को ही थोक में वोट दे दिए हैं । लेकिन अब तो मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा का समर्थन करना शुरूं कर दिया है ,यह बात जुदा है कि कुछ लोग इसे अभी मान नहीं रहे हैं। लेकिन यूपी की जीत और वोटों का गणित स्पष्ट बता रह है कि कुछ तो अवश्य हुआ है। वेशक मोदीजी और योगीजी वाली आक्रामकता धर्मनिरपेक्ष दलों में नहीं है किन्तु उनके समर्थक भी रामभक्त हो सकते हैं । इसीलिये भले ही अभी कांग्रेस की जगह भाजपा ने लेली है ,लेकिन भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप बनाए रखते हुए न केवल मंदिर -मस्जिद विवाद हल करना है बल्कि आम सहमति से रामलला का मंदिर भी बन जाये तो कोई बुराई नहीं। यदि कुछ दूरी पर मस्जिद भी हो तो सोने में सुहागा !
बहुसंख्यक सवर्णोंको एकजुट करने में साईं लालकृष्ण आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी और सुश्री उमा भारती का विशेष हाथ रहा है। उनके अरमानों को तब पंख लग गए जब गोधरा में कुछ मुस्लिम आतंकियों ने रेल में कारसेवकों को जिन्दा जला दिया। इस जघन्य घटनाके बाद जब मुम्बई बम बिस्फोट नरसंहार हुआ तो 'हिंदुत्ववादी' नेताओं को 'रामराज्य' का इल्हाम होने लगा । इसके निमित्त वे फिर से 'रामलला' की ओर मुखातिब हुए । और तब अयोध्या का मंदिर मस्जिद विवाद तेज होता चला गया !  जिसकी बदौलत मोदीजी सुर्खुरू होते चले गए ! उसी के प्रसाद पर्यन्त अब तमाम हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा का परचम लहरा रहा है। 'रामलला'की असीम अनुकम्पा से एनडीए की अटल बिहारी सरकार भी ६ सालतक सत्ताका स्वाद चख चुकी है।लेकिन वह सरकार 'शाइनिंग इण्डिया' एवम 'फील गुड' महसूस करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गयी थी ! परिणामस्वरूप २००४ से २०१४ तक मनमोहनसिंह के नेतत्व में यूपीए की गठबंधन सरकार सत्ता में रही। चूँकि कांग्रेस अल्पमत में थी ,इसलिए डॉ मनमोहनसिंहको अनेक बार झुकना पड़ा और गलत समझौते करने पड़े। वे भ्र्ष्टाचार को रोक नहीं सके तो जनता ने फिर से एनडीए को याने भाजपा को याने मोदी सरकार को सत्ता सौंप दी। इस बार यूपीमें मोदीजी की बाचालता रंग लायी और चुनाव में बम्फर जीत हुई इसीलिये अब उनके अलावा योगीजी भी उनके सहयात्री हो गए हैं। इन हालात में मंदिर वाली बात उठना स्वाभाविक है।

मंदिर निर्माण विषयक योगी जी और संघ परिवार की समझ बिलकुल स्पस्ट है। लेकिन अदालत के निर्णय को जस का तस मानेंगे या संविधान संशोधन करते हुए रामलला को टाट से निकालकर 'भव्य मंदिर' में उचित सम्मान दिलाएंगे ये दोनों ऑप्शन उनके सामने विद्यमान हैं।क्योंकि भारी जनादेश केवल विकास के लिए या केवल किसान कर्जमाफी के लिए नहीं दिया गया है। ,,,,,,,,, 

दुनिया भर में इस्लामिक आतंकवाद ने जो कहर बरपाया है और चेरिटी के नाम पर ईसाई मिशनरीज ने विगत ३०० सालमें इस भारत भूमिपर जोकुछ भी किया है ,उसका इतिहास हिंदुओं ने कभी नहीं लिखा। वास्तविक हिंदुत्ववाद में क्षमा,दया, करुणा,परोपकार और विनम्र शरणागति वाले मूल्योंको अधिक महत्व दिया जाता रहा है।किन्तु इस दौर का राजनैतिक ' हिंदुत्ववाद' और उसका काल्पनिक 'रामराज्य' केवल छलना मात्र है। उसके आभासी दुष्प्रचार मात्रसे भारत के केंद्र में मई -२०१४ से मोदी सरकार सत्ता में है,२० मार्च -२०१७ से यूपी स्टेट में योगी सरकार अपने प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में है। लेकिन रामलला अभी भी टाट में हैं और भाजपाई ठाठ में हैं। इसके अलावा आतंकवाद ,आर्थिक विकास ,शैक्षणिक- सामाजिकउत्थान ,वैदेशिक नीति में सकारात्मक सुधार, महँगाई- भृष्टाचार के मामले में  कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दृष्टव्य नहीं है। इतने लंबे अरसे बाद देश में कहीं भी 'रामराज्य' का कोई नामोनिशान नहीं है। शायद इसीलिए अब अपराधबोध से पीड़ित लोग 'रामराज्य' की चर्चा फिर करने लगे हैं। स्वामी,बाबा और योगीजन तो इस प्रयोजन में 'निमित्तमात्रम च भवसव्यसाचिन' हैं।

रामराज्य बनाम पूँजीवादी लोकतंत्र के विमर्श में बहुसंख्यक हिन्दू युवाओं को मोदीजी का अनगढ़ 'विकासवाद' खूब पसन्द आ रहा है !आम तौर पर आधुनिक युवाओं को सोशल मीडिया पर 'हर हर मोदी' कहते सुना जा सकता है। इन वेरोजगार युवाओं को पूँजीवाद के घृणित शोषण -उत्पीड़न से कोई शिकायत नहीं। अपने जीवन के निमित्त कोई आर्थिक सामाजिक चेतना और समझ कायम करने के बजाय वे 'मन्दिर मस्जिद विवाद' पर अधिक चर्चा करते हुए देखे जा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब इस मसले को बातचीत से सुलझाने की बात की तो युवा वर्ग ने तत्काल रूचि दिखाई किन्तु जबलपुर के खमरिया डिफेंस फेक्ट्री में दो हजार करोड़ का असलाह जल जाने से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। देश का अधिकांस मिल्ट्री इंतजाम ढुलमुल है पर किसी को कोई चिंता नहीं। अधिकान्स सत्तारूढ नेताओं को सिर्फ वोट की फ़िक्र है। इसीलिये वे  हिन्दू मुस्लिम दोनों पक्षों को साधनेकी दिशामें प्रयत्नशील हैं। इसके लिए उन्हें स्वामी रामदेव ,श्रीश्री रविशंकर और मोहन भागवत जी की सेवायें उपलब्ध हैं। वे सभी इस जुगाड़ में हैं कि राज्यसभा में बहुमत होने के बाद संविधान में कुछ बड़े संशोधन कर दिए जायें !इसके वावजूद यह अकाट्य सत्य है कि जबतक मोदीजी पीएम हैं ,वे पूँजीवादी विकासवाद का दामन नहीं छोडेगे। 'सबका साथ -सबका विकास'केअनुसार मोदी जी वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को स्थापित करने के पक्ष में रहेंगे क्योंकि गुजराती वणिक संस्कार यही सीख देते हैं। मोदी जी ने मुख्यमंत्री के रूप में अतीत में भी  'हिन्दुत्वाद' और 'रामराज्य' से ऊपर बाजारबाद को ही तरजीह दी थी। दरअसल  हिंदुत्व और रामराज्य तो केवल वोट कबाड़ने का मंतव्य मात्र है।

यद्द्पि 'रामराज्य' को गोस्वामी तुलसीदास जी ने खूब सराहा है। सभी जानते हैं कि 'हरि व्यापक सर्वत्र समाना' की तरह ही भृष्टाचार और अनैतिकता भी सर्वव्यापी है!और सभी जन यह भी जानते हैं कि जिस 'रामराज्य' के लिए 'संघ परिवार' वाले लालायित हैं वह भी परफेक्ट नहीं था। उसमें भी सैकड़ों विसंगतियां और हजारों असहमतियां थीं ! कैकेयी जैसी विमाता से आधुनिक महिलाओं को क्या सीखना चाहिए ? जिसने खुद तीन-तीन शादियाँ कीं हों ,जिसने शिकार के लालच में एक निर्दोष  श्रवणकुमार को मार डाला हो ,उस नरेश  आधुनिक युग के पिताओं को क्या सीखना चाहिए ?से क्या सीखना चाहिए धोबी जैसा कृतघ्न आलोचक था और लक्ष्मण जैसे कठोर हृदय देवर भी थे जो केवल बड़े भाई की आज्ञा के सामने हमेशा नतमस्तक रहते और उन्ही की आज्ञा से अपनी माँ समान गर्भवती भावी को वियावान जंगल में अकेला छोड़ने को तैयार हो गए। रामायण यदि बाकई इतिहास हैए तो 'शम्बूक बध' भी मिथ नहीं हो सकता। उसे भी स्वीकार करना होगा।  

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

इस्लामिक आतंकवाद से इस्लाम को सबसे अधिक खतरा है

२२-२३ मार्च को जब सारा संसार 'आईएसआईएस' के ब्रिटश माड्यूल्स द्वारा लंदन पर जघन्य और हिंसक हमले के खिलाफ लामबन्द हो रहा था ,एक स्वर से इस दरिंदगी की भर्त्सना कर रहा था ,तब भारतीय मीडिया शुतरमुर्ग की भूमिकामें फोकट की जुगाली कर रहाथा। भारतीय मीडिया के विमर्श के केंद्र में या तो यूपी का 'योगीराज' था या नवजोतसिंह सिद्धू और शिवसेना के कुख्यात सांसद गायकवाड़की जिद के चर्चे थे। भारतका प्रगतिशीलऔर बुद्धिजीवी वर्ग हो या राजनैतिक विपक्ष हो, इस दौर में दोनोंको मोदीजी एवम योगीजी  का राजयोग सता रहा है।

किसी इरफ़ान हबीब ने, किसी रोमिला थापर ने, किसी ओबेसी ने, किसी आजमखान ने ,किसी तीस्ता शीतलबाड़ ने, किसी लोहियावादी ने और किसी वामपंथी बुद्धिजीवी ने लंन्दन पर हुए नृसंश हमले की शाब्दिक निंदा भी नहीं की।कायदे से हरेक सच्चे मुसलमान का भी यह फर्ज था कि वह लंदन के इस हत्याकांड की निंदा करता, चूँकि अभी कुछ महीनों पहले ही लंदन की बहुमत ब्रिटिश जनताने एक अल्पसंख्यक मुसलमान को मेयर चुना है।और यह दुनिया जानती है कि 'आईएसआईएस' के कट्टरवादी इस्लामिक आतंकवाद से तमाम सभ्यताओं और कोमों को खतरा है। भारत के बहुसंख्यक हिन्दू भी इन घटनाओं से खासे प्रभावित हैं। चूँकि मोदीजी ,योगीजी और संघ परिवार वाले तथा भाजपा के अन्य नेता इस मुद्दे पर अंदर-अंदर हवा देते रहते हैं और उधर कांग्रेस,कम्युनिस्ट या अन्य धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दल -केवल मोदी-मोदी या नोटबंदी ही जपे जारहे हैं। यही कारणहै कि यूपीके इस  चुनाव में जितनी उम्मीद खुद मोदीजी या भाजापा को नहीं थी उससे अधिक सफलता उन्हें मिली है।

दुनिया जानती है कि कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद से सर्वाधिक खतरा किसे है ? अभी अभी पाकिस्तान दिवस पर भारत के कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे फहराये गए। उधर सीमा पार आतंकियों ने लाहौर कराची में भारत को खूब गालियां दीं।विपक्ष के हरल्ले जमानतखोर नेताओं को समझना चाहिए कि इन भारत विरोधी निरंतर घटनाओं की वजह से ही उत्तरभारत की हिंदी भाषी जनता का देशप्रेम और राष्ट्र्वाद हिलोरें ले रहा है। और उसी कट्टरपंथी आतंकवाद को जबाब देने के लिए यूपी की जनता ने भाजपा को प्रचण्ड बहुमत दिया है। उसी इस्लामिक आतंक का प्रतिसाद पाकर मोदी जी और योगीजी गदगदायमान हो रहे हैं। मोदीजी ने तो फिर भी लन्दन के आतंकवादी हमले की निंदा तुरन्त करदी! किन्तु सपा ,वसपा और कांग्रेस जैसे हरल्ले दलों तथा विचारशील व्यक्तियों को कुछ सूझ ही नही रहा है। वे तो केवल मोदी सिंड्रोम अथवा फास्जिम फोबिया में तल्लीन हैं।

वेशक इस्लामिक आतंकवाद से दुनिया की तमाम सभ्यताओं और कोमों को गंभीर खतरा है। लेकिन भारत के गरीब हिंदुओं को सबसे ज्यादा खतरा है। चूँकि दुनिया के अमीर लोग हमेशा दर्जनों हथियारबन्द रक्षकों से घिरे होते हैं, इसलिए उन्हें किसी से कोई खतरा नहीं।युद्ध की वस्था में या आतंकवादी भीषण नर संहार में दोनों ओर से जो सर्वाधिक नर -नारी  मारे जाते हैं वे अधिकांस असुरक्षित सर्वहारा या निम्न मध्यम वर्ग के ही हुआ करते हैं।
इसके अलावा  इस्लामिक आतंकवाद से खुद इस्लाम को ही सबसे अधिक खतरा है ! लेकिन इसका तातपर्य यह नहीं कि कट्टरपंथ से लड़नेके बजाय 'इस्लाम' को कोसा जाए ! जो लोग इस्लामिक आतंकवाद को धरतीका सबसे बड़ा खतरा मानते हैं वे सही हैं। लेकिन जो लोग सिर्फ इस्लामिक आतंकवाद को ही खतरा मानते हैं वे गलत हैं। दरसल इस्लाम का सारतत्व उतना ही मानवीय और अमनपसन्द है ,जितना कि भारत का सनातन धर्म या दुनिया का कोई और धर्म-मजहब ! वेशक हरेक धर्म मजहब की कट्टरता पर अंकुश होना चाहिए। चूँकि भारत मेंअसली लोकतंत्र है इसलिए यहाँ किसी भी कट्टरता को वोट के द्वारा खत्म किया जा सकता है। किन्तु इस्लामिक वर्ल्ड में  हर जगह न केवल आपसी मारामारी है, अपितु वे लंदन ,पेरिस ,मुम्बई कहीं भी मरने -मारने को आतुर रहते हैं !इसलिए भारत के हिंदुओं -मुसलमानों को असली खतरे को ठीक से समझना होगा। शायद यूपी की जनता ने इस बार ठीक से समझ लिया है। योगी जी और मोदीजी की किसी कार्यशैली या नीति के खिलाफ लिखना बोलना तो जैसे अब जनता के खिलाफ बोलना  हो चूका है। इसीलिये इस दौर में मोदीजी या हिंदुत्व के खिलाफ जो जितना ज्यादा बोल रहा है उसे उतने ही कम वोट मिल रहे हैं। श्रीराम तिवारी      

    

सोमवार, 20 मार्च 2017

आधुनिक युवा वर्ग और शहीद भगतसिंह

आर्थिक ,सामाज़िक ,राजनैतिक हर तरह  की स्वतंत्रता की कामना केवल कोई सचेतन मन ही कर सकता है। कोई सुसुप्त मन वाला मिडिल क्लास व्यक्ति चाहे जितना खाता -कमाता हो ,भले ही उसेअभी 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता' या व्यवस्था परिवर्तन से कोई सरोकार न हो,लेकिन हर एक दमित ,शोषित,पीड़ित,नंगा-भूंखा इंसान  किसी किस्म की आजादी चाहने से पहले अपने तात्कलिक दुखों के निवारण की भरसक चेष्टा पहले करता है। चूँकि आधुनिक युवाओं को  शहीद भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव वाले संघर्ष ,क्रांति और व्यवस्था परिवर्तन के सिद्धांत -सूत्र और साधन बहुत जटिल मालूम पड़ते हैं ,उन्हें भगतसिंह के क्रांतिकारी विचार मानों  'दूर के ढोल सुहावने' जैसे लगते हैं। इसीलिये अधिकांस आधुनिक भारतीय युवा ,खास तौर से जन्मना हिन्दू युवा मोदी-मोदी में लीन होकर भाजपाकी राजनैतिक नाव पर सवार है। मोदीजी के विकासवाद की अनजानी राह पर आगे बढ़ने का ख्वाब देख रहा है।भले ही यह मोदीयुगीन नाव कहीं भी न जाती हो, या किसी अज्ञात भंवर की ओर ली जाती हो !
इसीलिये यह बहुत जरुरी है कि आधुनिक युवावर्ग शहीद भगतसिंह को अपना आदर्श बनाये !

अफ्रिका ,यूरोप,अमेरिका,चीन रूस का तो मुझे पक्का पता नहीं,किन्तु अधिकांस छुधित-तृषित भारतीय युवा वर्ग अपने कष्ट निवारण के लिए ,सबसे उस सरल सुगम मार्ग  की ओर देखता है,जो मंदिर ,मस्जिद गुरूद्वारे अथवा चर्च की ओर जाता है। धर्म-मजहब के पारलौकिक ठिकानों पर किसी को कुछ और मिले न मिले,किन्तु अस्थायी मानसिक शांति और तसल्ली तो अवश्य मिलती है। किसी का यह लोक ही बर्बाद हो रहा हो किन्तु उसे परलोक सुधार की गारन्टी देने वाले बाबाओं, योगीयों और साम्प्रदायिक नेताओं का दामन नहीं छोड़ता । इसीलिये भारतमें इन दिनों कुछ परलोक सुधारक लोग खूब फल फूल रहे हैं। वे राजनीति में भी प्रतिष्ठित होते जा रहे हैं। आने वाला वक्त ही बताएगा कि उनके सत्ता में आगमन से देश आगे बढ़ रहाहै या अतीतके गहन अन्धकार में फिर प्रतिगामी डुबकी लगाने जा रहाहै ! भारतीय युवजन को यह ध्यान तो रखना ही होगा कि कहीं ऐंसा न हो कि 'दुविधा में दोउ गये,माया मिली न राम' ? उन्हें यह ज्ञान होना भी जरूरी है कि इस सन्दर्भ में शहीद भगतसिंह की सोच क्या थी।

हिन्दुत्वाद की लहर के प्रभाव से मंदिर -मस्जिद विवाद में देश को फिर से घसीटा जा रहा है। भारतीय युवाओं और छात्रों को सोचना चाहिए कि इस घनचक्कर में कहीं उनका भविष्य चौपट न हो जाए,या विकास धरा न रह जाए ! यदि 'सबका साथ,सबका विकास'सत्ता के हृदय की गहराई से निकला है तो वैसा आचरण भी दृष्टिगोचर होना चाहिए! वेशक मोदीजी और योगीजी अतीत में विवादास्पद रहे हैं। उन पर अतीत में बहुत से आरोप लगे हैं। जिस तरह प्रधानमंत्री बनते ही मोदीजी के ऊपर लगे तमाम आरोप खत्म हो गए ,उसी तरह योगीजी के मुख्यमंत्री बनते ही उनपर लगाईं गईं तमाम दीवानी और फौजदारी धाराएं अतिशीघ्र शून्य हो जाएंगी। यह आचरण न तो 'रामराज्य 'से मेल खाता है और न ही सत्य हरिश्चंद्र वाले 'हिंदुत्व' के उच्चतर सिद्धांत से मेल खाता है। भगतसिंह के सिद्धांतों से मेल खाने का तो सवाल ही नहीं। यदि आरोपों में दम नहीं था तो अखिलेश और मायावती की सरकार के दौरान इन 'महात्मा नेताओं' पर लगे आरोपों के लिए मानहानि का मुकद्दमा दायर होना चाहिये।

सत्तामें आनेके कारण यदि मोदी जी की तरह अब योगी जी भी 'निर्दोष' सावित हो जाते हैं ,तो वही लोग डरेंगे जो अब तक योगीजी को परेशांन करते रहे हैं या वे लोग भयभीत होंगे जो वास्तविक अपराधी हैं ! गुजरात में मोदीजी से भी वही लोग डरते रहे हैं जिन के दिल में चोर था। मोदीजी के राज में तो शेर और बकरी एक घाट पानी भले न पी सके हों किन्तु चिंदी चोर भी अब  बड़े-बड़े आर्थिक अपराधी बनकर देश और दुनिया में फल फूल रहे हैं !
युपी विधान सभा चुनाव में मोदीजी ने 'श्मशान बनाम कब्रिस्तान' वाले जुमले के अलावा विकासवाद का भी खूब   प्रचार किया था। किन्तु जब विकास वाले नेतत्व की तलाश की गयी तो ३२५ में से उन्हें एक भी नहीं मिला! अंततः आंतरिक दबाव में सत्ता सुंदरी एक योगी को सौंप दी। ऐंसा लगता है कि मोदीजी और योगी जी आइंदा दोनों नाव पर सवार होंगे। हिन्दू -मुस्लिम दोनों को खुश किया जायगा। और साथ में विकास का उपक्रम भी जारी रहेगा। यदि 'संघ' का राष्ट्रवाद असली चेहरा है, तब वे भी ऐंसा कुछ नहीं करेंगे जिससे फसाद हो। यदि अल्पसंख्यकों को विश्वास में लेकर योगीजी उत्तरप्रदेश का विकास करते हैं ,तब तो उनके 'हिंदुत्व'का सिक्का अवश्य चल जाएगा। अन्यथा अतीत में कल्याणसिंह ने जो बोया और काटा था ,वही  योगी आदित्यनाथ के दौर में भी भाजपा और संघ परिवार को काटना होगा!वे जब तक धर्मनिरपेक्षता का सम्मान नहीं करते तबतक यही बार-बार होता रहेगा ।  

यूपी चुनाव के इकतरफा परिणाम से किसी को निराश नहीं होना चाहिए। मायावती को ईवीएम मशीन में त्रुटि खोजने के बजाय मुलायम सिंह यादव ,अखिलेश यादव -पिता -पुत्र से नसीहत लेनी चाहिए। जिन्हें मोदीजी और योगी जी को साधना आता है। मुलायम परिवारतो हारने के बाद भी आश्स्वस्त है कि उन्हें  किसी से कोई खतरा नही !बहिनजी और आजमख़ाँ जैसे जातिवादी -साम्प्रदायिक नेता  कुछ ज्यादा ही शोर मचा रहे हैं। हालाँकि वे इस काबिल नहीं हैं कि मोदी या योगी  पर अंगुली उठायें ,जिन्हें प्रचण्ड जनादेश मिला है। मोदी और योगी का हिन्दू होना उसी तरह 'पाप' नहीं है,जिस तरह बहिनजी का दलित होना और आजमख़ाँ का मुसलमान होना पाप नही है ! हरेक चुनाव जीतने वाले को कुछ वक्त अवश्य मिलना चाहिये ताकि वह जनादेश की कसौटी पर टेस्ट दे सके। हारे हुए लोगों द्वारा जीते हुए दल की बेबजह आलोचना से 'संघ परिवार'के बड़बोले बयानवीरों को उपद्रव करने का मौका मिलता है। इस सूरत में देश का विकास हो न हो किन्तु आपसी कटुता का विकास अवश्य होता रहेगा। मानवता का उद्देश्य सनातन कटुता में जीना-मरना नहीं है। मौजूद जिंदगी ही वास्तविक सच्चाई है !

अभी-अभी यूपी  विधान सभा चुनाव के दरम्यान और योगी जी के मुख्य मंत्री 'मनोनीत'किये जाने को लेकर हर किस्म के मीडिया में मुख्य रूप से दो प्रकार के बोल बचन कहे सुने गए। एक तरफ हर-हर मोदी ,विकास और हिन्दुत्व का स्वर था। दूसरी ओर जातिवाद,अल्पसंख्यकवाद और परिवारवाद का शोरगुल था। किन्तु सर्वहारा वर्ग के रूप में वामपंथ का स्वर नक्कारखाने में तूती की आवाज भी नहीं था। उधर चुनाव जीतने वालों को यह गलत फहमी हो गई कि अखिलेश यादव ,राहुल गाँधी और तमाम अलायन्स वाले सबके सब वामपंथी और 'सेकुलर' हैं। और उन्हें यह गलत फहमी भी हो गई कि असली हिन्दू सिर्फ वे ही हैं जो मोदी जी [अब योगीजी]के साथ हैं। इस गलफहमी के लिए प्रगतिशील ,धर्मंनिरपेक्ष विचारों वाले लोग भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।

माना कि सत्ताधारी सपा को उसके गुंडाराज और जातिवाद ने हराया,मायावती को उनके फूहड़ व्यक्तिवाद और अहंकार ने हराया!  यह भी जग जाहिर है कि कांग्रेस को मंडलवाद और कमण्डलवाद ने मिलकर हराया। लेकिन प्रगतिशील -वामपंथी प्रत्याशियों को जनता ने क्यों हराया ?जबकि इस धारा के प्रत्याशियों को आजादी के बाद से अब तक केंद्र में या यूपी जैसे हिंदी भाषी राज्यों में कोई अवसर ही नहीं मिला। केरल,त्रिपुरा और बंगाल में जरूर वा,पन्थ को कई अवसर मिले ,किन्तु बंगाल में ममता बनर्जी ने भृष्ट पूंजीपतियों और आतंकवादियों की मदद से न केवल राज्य की सत्ता छीन ली,अपितु किसानों,मजूरों के लिए सीपीएम ने जो कुछ किया उसको दुष्प्रचार से उसने शून्य कर डाला !भाजपा और संघ ने भी सीपीएम को टारगेट करते हुए निरन्तर बदनाम किया।लेकिन उसका फायदा ममता को ही मिला। वामपंथ का इस धर्म-मजहब वाली कट्टरता के कारण ,भारत में लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव जीत पाना बहुत कठिन है। क्योंकि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर वामपंथ की समझ भले ही सही हो किन्तु धर्म-मजहब और साम्प्रदायिकता के बारे में वामपंथ की परम्परागत समझ सही नहीं है।  

धर्म-मजहब -पन्थ अब सिर्फ 'अफीम' नहीं रह गए !बल्कि बाकई स्वर्ग की सीढी बन गए हैं। जब से बाबाओं और स्वामियों ने अपने उत्पादों को  में बाजार में उतारा है ,तबसे धर्म-मजहब  सिर्फ 'अफीम ' नहीं रहे, बल्कि बाजार और राजनीति की प्रमुख ताकत हो गए हैं। यह दुहराने की जरूरत नहीं कि भारत सदियों से एक त्यौहार प्रधान देश रहा है। किन्तु लोकतान्त्रिक राजनीति और बाजारबाद ने धर्म -मजहब -पन्थ की चिन्गारी को प्रचण्ड ज्वाला में तब्दील कर डाला है। भारत के त्यौहारों से सिर्फ भारत का बाजार ही नहीं फलता-फूलता, बल्कि अब तो चीन नेपाल भी लगे हाथ कुछ न कुछ कमा लेते हैं। भारत में त्यौहार मनाने की मध्यम वर्गीय प्रतिस्पर्धा का आलम यह है कि चाहे जेब खाली हो ,घर में भुजी भांग भी न हो,चाहे कोई वेरोजगार ही क्यों न हो ,लेकिन ज्यों ही कोई तीज - त्यौहार आया कि वह भी काल्पनिक आभासी ख़ुशी की तलाश में निकल पड़ता है। नागर सभ्यता का झंडावरदार भी झाबुआ के 'भगोरिया' का भील मामा हो जाता है!जनता का यह सांस्कृतिक -धार्मिक रुझान,भाजपा और संघ परिवार के पक्ष में जाता है।

इन धार्मिक आयोजनों,तीज -त्यौहारों और मेलों-ठेलों के तामझाम से जिन लोगों के आर्थिक स्वार्थ जुड़े हैं ,वे भले ही मिलावट करते हों ,कम तोलते हों, शहद की जगह शक्कर का शीरा बेचते हों ,स्वर्ण भस्म और मोती भस्म की जगह मानव खोपड़ी का चूर्ण बेचते हों,वे भले ही धर्म का लेबल लगाकर अधर्म बेचते हों, किन्तु भारतकी धर्मप्राण जनता श्रद्धा-आस्था के वशीभूत होकर न केवल उनके घटिया उत्पाद खरीदती है, बल्कि समय आने पर इन्ही धर्म -मजहब के ठेकेदारों को वोट देकर सत्ता भी सौंप देती है। इस धार्मिक बाजारीकरण और राजनीतिकरण से ऐंसा आभास होता है कि मानों भारत भूमि पर 'सतयुग' उतर आया है। इस देश की जनता कितनी धर्मप्राण है कि जो शहर जितना बड़ा तीर्थ हैं,वह उतना ही गन्दा होगा और अपेक्षाकृत महँगा भी होगा।

भारत में सर्वाधिक वेश्यावृत्ति वहीँ होती रही है ,जहाँ पवित्रतम तीर्थस्थल हैं। अतिधर्मान्धता के वावजूद बात जुदाहै कि इस धर्मप्रधान देश में कहीं कोई अकेली दुकेली लडकी दिल्ली,मुम्बई बेंगलुरु में सफर नहीं कर सकती। नारी उत्पीड़न या निर्बलों के शोषण में कस्बों,गाँवों के हालात इससे कई गुना भयावह हैं। उत्तरप्रदेश को सपा,बसपा ने जितना बर्बाद किया उतना कांग्रेसने भी नहीं किया। उम्मीद है कि योगीजी भी उतना बुरा नहीं करेंगे जितना कभी माया और मुलायम के राज में बुरा हुआ है। तब और अब में फर्क सिर्फ इतना है कि माया और मुलायम खुद ही सुप्रीम पावर हुआ करते थे,किन्तु अब योगीजी के ऊपर मोदीजी हैं और मोदीजी के ऊपर विकास का भूत सवार है,अतः सभी को यह उम्मीद  चाहिए कि यूपी में बाकई अच्छे वाले हैं। किसानों का कर्ज शीघ्र माफ़ होने जा रहा है। गंगा यमुना स्वच्छ सुंदर होने जा रहींहैं। पहले यूपी के गाँवों कस्बों में बारदात की 'बात' वहीँ दबा दी जातीथी ! या तो रिपोर्ट नहीं लिखी जाती थी ,जो पीड़ित रिपोर्ट लिखाने का दुस्साहस करता उसे मरवा दिया जाताथा। अब जिन -यूपी में जिन्होंने आग मूती उन्हें अंजाम भुगतना ही होगा।

यूपी में विगत ३० साल से जो सिस्टम चला आ रहा है,वह भारत देश की धार्मिक और सांकृतिक विरासत नहीं है!भारत में अब तक जितने भी सच्चे समाज सुधारक और धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ हुए हैं वे दक्षिण भारत बंगाल अथवा महाराष्ट्र में ही अधिक हुए हैं। यही वजह है कि यूपी वाले 'भाइयो-बहिनों'धर्म-मजहब के परम्परागत मकरजाल में उलझे हैं। वे आजादी के ७० साल में भी पूँजीवादी -सामन्ती आर्थिक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अंतर्जाल को नहीं समझ पाए। यूपी के अधिकान्स स्वाधीनता सेनानी खुद ही धर्मभीरु रहे हैं, इसलिए बदलाव को नजर अंदाज करते रहे हैं। भारत में धर्मनिपेक्षता केवल संविधान की प्रस्तावना तक ही सीमित रही है। यही वजह है कि जिन राजनैतिक दलों के पास कोई जातीय -मजहबी जनाधार नहीं रहा वे केवल धर्मनिरपेक्षता का झुनझुना बजाते रहते हैं। इसीलिये धर्मोन्मादिनि हिंदीभाषी जनता रुपी 'मोहिनी', वेचारे नारद मुनि रुपी वामपंथियोंको कोई तवज्जो नहीं देती। जबकि धर्म -मजहब के ठेकेदार रुपी कलियुगी योगियों  को राजनीतिक सत्ता सुंदरी आसानी से वरण  कर रही है !

क्या विचित्र बिडम्बना है कि पूँजीवादी साम्प्रदायिक दल तो सत्ता में आने के बाद 'विकासवाद' और 'सबका साथ - सबका विकास' जप रहे हैं ? किन्तु जिन्हें अपने कार्यक्रमों पर नाज है ,नीतियों पर नाज है,अपने संघर्षोंकी परम्परा पर नाज है वे कहाँ हैं ?वे अपने जन संगठनों की साज संवार करने के बजाय ,नीतियों,योजनाओं -कार्यक्रमों का प्रचार -प्रसार करने के बजाय ,जनकल्याणकारी वैकल्पिक नीतियोंका खुलासा करने के बजाय केवल बहुसंख्यक -साम्प्रदायिकता पर फब्तियां कसते रहते हैं। उधर अल्पसंख्यक वर्ग को मुलायम,माया, ममता ,लालू,केजरीवाल और नीतीस जैसे अवसरवादियों से मतलब है। शायद यह भी एक  वजह  है कि धर्म-मजहब में खण्डित भारतीय जनता, वामपन्थ को गंभीरता से नही लेती ! वामपंथ की असली धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को सम्मान देने के बजाय धर्मांध जनता झूंठे वादों -जुमलों को ज्यादा महत्व देती है। भारत की जनता भूल रही है कि उसके पास जो लोकतान्त्रिक अधिकार अभी तक सुरक्षित बचे हैं ,उसके लिये वाम-धर्मनिपेक्ष लोगों ने अतीत में बहुत कुर्बानियाँ दीं हैं। और अभी भी निरतंर संघर्ष जारी है। किन्तु जब भी कोई चुनाव आता है तो जनता ढपोरशंखियों की ओर देखने लगती है। यह सर्वहारा वर्ग के लिए शुभसूचक नहीं है।  श्रीराम तिवारी !  



  

शनिवार, 18 मार्च 2017

भाग मछन्दर योगी आया !



जब तक यूपी के चुनाव परिणाम नहीं आये, तब तक मैंने तहेदिल से चाहा कि भले ही सपा ,वसपा या अखिलेश और राहुल का अस्थायी गठबंधन  यूपी की सत्ता में आ जाए,किन्तु भाजपा की हार सुनिश्चित हो !और तमन्ना की थी कि मोदी जी और उनका पूँजीवादी कुनबा कभी कामयाब न हों ! लेकिन यूपी में सब कुछ उलटा -पुल्टा ही हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है 'हर किसी को  मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता' सो वह मुझे भी नहीं मिला ! यूपी की   जनता ने भरपल्ले से -तीन चौथाई बहुमत के साथ भाजपा को जिता दिया।ऐंसा लगा जैसे दिल के अरमाँ आंसुओं में बह गए ! पुरानी भदेस कहावत याद आ गयी -'कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरते' ! अब यदि मोदी जी और भाजपा नेता किसी काले चोर को मुख्यमंत्री बनायें या किसी छद्म योगी को मुख्यमंत्री बनायें या तीन चौथाई बहुमत का मजाक उड़ाएं ,यह उनका आंतरिक मामला है।  हमें  तो गोस्वामी तुलसीदास की यह चौपाई स्मरण रखना है की ''कोउ होय नृप हमें का हानी ,चेरी छोड़ होहिं का रानी ''!  

मैं यूपी का मतदाता नहीं हूँ ,भाजपा  समर्थक नहीं हूँ ,फिर भी यूपी की जनता के जनादेश का आदर करता हूँ !लेकिन भारतीय लोकतंत्र की हत्या होते नहीं देख सकता। ३२५ में से यदि एक भी 'योग्य' भाजपाई  विधायक नहीं है तो  एक नकली योगी पर भरोसा कैसे किया जा सकता है ? वह व्यक्ति 'योग्य' कैसे हो सकता है जिसे जनादेश ही नहीं दिया गया ? जिसके खिलाफ हत्या जैसे आधा दर्जन गंभीर मुकद्दमे कायम किये गए हों !यूपी की जनता को कमसे कम इस अंधेगर्दी पर अपना आक्रोश अवश्य व्यक्त करना चाहिये ! यदि मोदी जी या उनके कारकुन यूपी के नवनिर्वाचित ३२५ विधायकों में से किसी एक को भी मुख्यमंत्री लायक या उपमुख्यमंत्री लायक नहीं पाते तो यह यूपी की जनता का घोर अपराध है ! यदि जनता का कोई अपराध नहीं तो समस्त चुने गए ३२५ विधायकों का यह घोर अपमान क्यों ? जिन ४४ विधायकों को जातिगत आधार पर समायोजित करके यूपी का  मंत्रिमंडल बनाया गया है, उसमें एक तिहाई तो वे चेहरे हैं जो चुनाव के पहले दल बदल करके कांग्रेस ,सपा,वसपा, भालोद से आये थे। जब वे भाजपा में नहीं थे तब पाप का घड़ा या घड़ियाल थे ,लेकिन अब वे भाजपा मंत्रिमंडल में शामिल हैं ,इसलिए प्रतिष्ठित हैं ,परम पवित्र हैं।

यूपी की जनता को और नव निर्वाचित  विधायकों को भी गंभीरता से सोचना होगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव में और सरकार के गठन में कहीं कोई  चूक तो नहीं हुई ? कहीं  लोकतंत्र का मजाक तो नहीं उड़ाया जा रहा है ?क्योंकि असली गोरखपंथी योगी सन्यास धारण कर घर-घर 'भवति भिक्षाम देहि'की अलख जगाता है !वह अपने आराध्य - महादेव शिवकी भांति 'अलख निरंजन' में नित्य लींन रहता है! वह सत्ताके लिए लोकतंत्र की उपासना नहीं करता!वह हिन्दू, मुस्लिम ,दलित, ब्राह्मण ,ठाकुर से भी परे होता है !क्या श्री आदित्यनाथ वाकई ऐसे ही सिद्ध योगी हैं ? यदि हाँ तो फिर उन्हें गोस्वामी तुलसीदास जी का यह आप्त वाक्य क्यों याद नहीं रहा कि- 'संतन्ह को का सीकरी सों का काम '?

जो लोग धर्म,नैतिकता और आदर्श का लबादा  ओढ़कर राजनैतिक बढ़त हासिल करते हैं ,उनकी धर्म -आस्था खोखली होती है। यदि उनका ईश्वरीय विश्वाश किसी पारलौकिक उन्नति के लिए नहीं अपितु इहलौकिक उन्नति के लिए होता है,तो फिर उनका परिव्राजक होना या योगी होना केवल ढोंग है। एक परिव्राजक या एक योगी के लिए इस धरती पर कोई भी वस्तु छद्म माया मात्र ही है। मायिक संसार का आनन्द लेने के लिए कोई व्यक्ति धर्म और आस्था का दुरूपयोग करता है तो वह पाखण्डी है। यदि कोई योगी अपना योग छोड़कर राजनीतिक पद अथवा राजसत्ता का मोह पालता है तो वह अपरिग्रही नहीं रहा । बिना अपरिग्रह के कोई मनुष्य योग को प्राप्त नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति असली योगी है तो वह 'ईशरीय इच्छा'का सम्मान अवश्य करेगा,वह अपने धर्म गुरुओं के पवित्र सन्देशों की अनदेखी नहीं करेगा और 'राग-द्वेष' में कभी नहीं फसेगा।मोदीजी कभी परिव्राजक थे, अब प्रधानमंत्री हैं। योगी आदित्यनाथ अभी भी 'योगी' की उपाधि धारण करते हैं और वे मुख्यमंत्री भी हैं। लोकतंत्र में वेशक उन्हें यह अधिकार है ,किन्तु हिंदुत्व की धार्मिक आस्था और ऋषि परम्परा के अनुसार कदाचित यह सही नहीं है। परिव्राजक होकर मोदी जा का पीएम हो जाना और योगी होकर आदित्यनाथ का सीएम हो जाना ही यदि 'हिंदुत्ववाद' है तो शंकराचार्यों को  पीएम और सभी महामण्डलेश्वरों को सीएम क्यों नहीं बना देते ?   

यूपी में इतना प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद लोगों को बहुत उम्मीद थी किशपथ ग्रहण समारोह के दरम्यान पीएम खुद कोई सार्थक घोषणा तत्काल करते। कम से कम चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने जो कुछ यूपी वालों से वादे किये ,उसका एक सहस्त्रांश वाक्य तो स्वीकार करते। किन्तु बजाय किसानों के कर्ज पर कोई बात करने के तमाम 'रामभक्त' जनता पर ऐंसे टूट पडे ,मानों पिंडारियों का गिरोह ही यूपी पर चढ़ आया हो ! टोल नाके पर मार कुटाइ,'रोमियो स्क्वाड' की असंवैधनिक गुंडागर्दी,सत्ताधारी दल के लोगों का उदण्ड स्वच्छन्द व्यवहार 'हिंदुत्व' तो कदापि नहीं है। खजुराहो,कोणार्क,अजन्ता, एलोरामें 'रति-कामदेव' की चित्र -विचित्र झाँकियाँ,नाथपन्थ -गोरखपंथ के परम आराध्य भगवान् शिव और उनकी अर्धांगनी -शक्तिस्वरूप पार्वती का रतिभाव प्रतीकात्मक विग्रह किसी 'रोमियो' या पिकासो ने नहीं बनाये हैं। भारत में फैली शैव परम्परा के खजुराहो नुमा दृश्य और राधाकृष्ण की प्रेम कहानी को अध्यात्म जागत ने सर माथे लिया है। यदि 'रोमियो जूलियट' या 'सीजर एन्ड  क्लियोपेट्रा'अथवा एंटनी एंड क्लियोपेट्रा' इस भारत भूमिमें पैदा हुए होते,तो हिंदुत्ववादी भक्त 'राधेकृष्ण' सीताराम ,शिव -पार्वती की तरह उनका भी जाप करते। गनीमत है कि इस्लाम में बुतपरस्ती का कट्टर निषेध है,वरना तमाम कामुक और अश्लील मूर्तियोंके निर्माणका ठीकराभी मुसलमानों  के माथे मढ़ दिया गया होता! हालांकि इसका आशय यह कदापि नहीं कि अतीत के हमलावर मुस्लिम शासक कोई दयालु-कृपालु संत महात्मा थे ! वे सौ फीसदी खूंखार और बर्बर थे!     
मोदी जी ने स्वेच्छा से यदि आदित्यनाथ को यूपी का सीएम  बनाया है तब और अधिक चिंता की बात है क्योंकि यूपी विजय का श्रेय इन योगी जी को कदापि नहीं है। बल्कि मोदीजी अमित शाह के प्रयत्नों की बदौलत और सपा-बसपा के कुकर्मों के कारण यह विजय सम्भव हुई है। लोकतंत्र की परम्परा के मुताबिक जीते हुए विधायकों में से ही किसी एक को यूपी विधान सभा का नेता चुना जाना चाहिए था। लेकिन एक सांसद को सीएम और एक अन्य सांसद को डिप्टी सीएम यह किसीभी दृष्टि से बाजिब नहीं है। पूर्व में कांग्रेस और अन्य दलों ने भी ऐंसा किया होगा। किन्तु 'राष्ट्रवाद' और 'देशभक्ति' का दावा करने वाली 'पार्टी बिथ डिफरेंट' को यह कतई मुनासिब नहीं था की वह गलत परम्परा का अनुगमन करे ! यदि मोदीजी ने किसी मजबूरी में योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम बनाया है तो यह भाजपा में सिर फुटौवल को बयाँ करने के लिए काफी है!इससे यह सावित होता है कि यूपी में जीते हुए नेताओं पर मोदी जी का नियंत्रण नहीं है। और जब अपनी पार्टी पर ही उनका नियंत्रण नहीं है, तो यूपी की जनता का उद्धार वे कैसे कर सकेंगे ?

प्रसिद्ध विधिवेत्ता 'फाली नरीमन ' के इस विचार से सहमत होना कठिन है कि मोदीजी ने यूपी में एक योगी को मुख्यमंत्री बना दिया तो भारतीय संविधान खतरे में पढ़ गया है । भारतीय संविधान की चिंता उन्हें बिलकुल नहीं करनी  चाहिए। क्योंकि भारतीय संविधान इतना कमजोर नहीं है कि एक मुख्यमंत्री के गेरूवे वस्त्रों से खतरे में पड़ जाए ! नरीमन साहब भारतीय सम्विधान कोई कुम्हड़े की वेलि नहीं 'जो तर्जनी देख मुरझाहीं '! वैसे भी जिन्हें इस मौजूदा संविधान की बदौलत बड़े-बड़े मंत्री पद और सरकारी पद मिले ,नौकरियाँ मिलीं और आधी शताब्दी जिन्होंने बिना योग्यता के केवल संविधान की आड़ में  ऐश किया वे  भी तो इस संविधान की  कुछ चिन्ता करेंगे !

फाली नरीमन साहब का ऐलान है कि एक योगी को यूपी का मुख्यमंत्री बना देने से भारत में हिन्दुराष्ट्र की बुनियाद रखी गई है। इसी तरह कुछ धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्रवादी भी बैचेन हैं कि भगवा वस्त्र धारण किये हुए एक योगी को ही मुख्य मंत्री बना दिया-हाय अब क्या होगा? अव्वल तो यह 'गांव वसा नहीं -मांगने वाले पहले पहुँच गए' जैसी बात हो गयी ! आलोचना गेरुए वस्त्रों की अथवा किसी योगी की नहीं, बल्कि आलोचना उन खतरनाक नीतियों की और कार्यक्रमों की होनी चहिये जिनसे देश को खतरा है। संविधान तो देशका रक्षाकबच है यदि वह रक्षाकबच ही खतरे में है तो उसे गले में लटकाये हुए उसकी असफलता का मातम मनाना बुद्धिमानी नहीं है !दरसल भारत को  मोदीजी और योगी जी से नहीं बल्कि उद्दंड पूँजीवाद ,बेरोजगारी और भृष्ट सिस्टम से खतरा है। इसके लिए सिर्फ योगी जी या मोदी जी ही जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए अतीत का हर शासक जिम्मेदार है।

यूपी चुनाव में सपा,वसपा तथा कांग्रेस की हार के बहाने पिछड़ावाद,दलितवाद और अल्पसन्ख्यकवाद के चुनावी सिद्धांत की बुरी तरह धुनाई हुई है। ऊपर से तुर्रा यह कि जले पर नमक छिड़कते हुए कट्टरपंथी हिंदुत्ववादी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया है। लेकिन इस दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद से लड़ने का माद्दा केवल उसी में हो सकता है जो धर्मनिरपेक्षतावादी हो ,जो लोकतंत्रवादी हो ! असदुददीन ओवेसी या आजमखाँ  की औकात नहीं कि वे अपनी साम्प्रदायिक जुबान से योगी आदित्यनाथ या नरेद्र मोदी का सामना कर सकें ! क्योंकि नमक से नमक नहीं खाया जाता ! ईसा मसीह का बचन भी स्मरण रखें कि पापी को पत्थर वही मारे जिसके हाँथ पाप से अछूते हों !

आजमख़ाँ  को आइंदा अब अपनी भैंसों पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि यूपी पुलिस अब दूसरे काम पर लगाने वाली है। और असदुद्दीन ओवेसी को उन भटके हुए भारतीय युवा लड़कों की फ़िक्र करनी चाहिए जो सीरिया-ईराक में आईएसआईएस  की चपेट में आकर बर्बाद हो रहे हैं ! हिन्दुत्वाद से लड़ने की तो वे बात ही ना करें !उसके लिए भारत की ७० % धर्मनिरपेक्ष जनता सक्षम हैं!जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी शामिल हैं !इस धर्मनिरपेक्ष जनता ने वक्त आने पर हर दौर में अपनी शानदार भूमिका अदा की है।अभी यूपी चुनाव की बात कुछ जुदा है! वहां ३० साल से जातीयवाद, और अल्पसंख्यकवाद का गठजोड़ चल रहा था, उसमें सड़ांध आ गई थी , इसलिए इस बार जनता की गफलत से योगी सरकार बन गयी। लेकिन ध्यान रहे कि 'रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार !' वक्त आने पर भारत की जनता शहीद भगतसिंह के वोल्शेविक सिद्धांतों को जरूर अपनाएगी !

       यूपी की राजनीति में आगामी दिनों में कुछ भी सामान्य नही रहने वाला !क्योंकी जो 30 साल से जीम रहे थे वे अब खाली बैठे हैं और खाली दिमाग शैतान का घर होता है ,इसलिये बड़ी द्वंदात्मक  स्थिति निर्मित होने वाली है !भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिलने और योगी आदित्यनाथ के सी एम बनने से धर्म -अध्यात्म की पूँछ परख बढ़ने की कोई सम्भावना भले न हो किन्तु साम्प्रदायिक वैमनस्य जरूर बढेंगा !नाथपंथ का अब तक आप्त वाक्य था -" जाग मछन्दर गोरख आया " आइन्दा नया मंत्र यह हो सकता है -" जाग बबंण्डर योगी आया " !

श्रीराम तिवारी ! 

बुधवार, 15 मार्च 2017

'एक अनार और सौ बीमार'

इस बार की होली कुछ खास रही। यूपी उत्तराखण्ड में खाँटी भाजपाई जीते यह तो उनकी ३० साल की पुन्याई हो सकती है। जो नेता- नेत्रियाँ कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल  होकर जीत गए हैं ,वे कल तक भले ही कांग्रेस रुपी 'पाप की पिटारी'में थे,किन्तु अप्रत्याशित जीत मिलने पर वे अब परम पवित्र  हो चुके हैं ! लेकिन जीतने वालों को ज्यादा इतरानेकी जरूरत नहीं है ,क्योंकि जनताकी अपेक्षाओं पर खरा उतरनेके लिए इनके पास कोई वैकल्पिक नीतियां और कार्यक्रम ही नहीं हैं।

 भारत का वोटर अब  समझदार होता जा रहा है।इसीलिए अब वह टीवी चैनल्स को ,एग्जिट पोल वालों को और राजनैतिक पंडितों को धुल चटा सकता है। मतदाता अब  चुनाव हारने वाले दलों और नेताओं का ही नहीं बल्कि जीतने वालों का भी सुख चैन छीन सकता है। क्योंकि जो चुनाव हारे हैं वे और जो जीते हैं वे दोनों ही परेशान हो रहे हैं। हारने वाले इसलिए कि अब वेरोजगार हो गए और जीतने वाले इसलिए कि सरकार बनाने में हलकान हो रहे हैं !बल्कि जीतने वाले ज्यादा मानसिक तनाव में गुजर रहे हैं। उनकी रातों की नींद हराम हो गई है। इस तरह की स्थिति के अध्येता शायर ने  कहा होगा -'ये इश्क नहीं आशां इतना समझ लीजे ,इक आग का दरिया है और डूबके जाना है '

कोई जाहिर करे या न करे किन्तु यह सच है कि अपनी अप्रत्याशित जीत से भाजपा नेतत्व बहुत परेशान हैरान है। हैरान तो खुद अमित शाह और मोदी जी भी हैं, कि 'एक अनार और सौ बीमार हैं' !इसलिए  यह अनार आखिर दें किसे ? उत्तराखण्ड में जिसे सीएम घोषित किया वह सिर्फ एक काबिलियत रखता है कि वह 'रावत' है। उन्हें कोई ऐंसा नजर ही नहीं आ रहा कि सारे 'कुनबे' को सम्भाल सके और संघ एवम मोदी जी के एजेंडे को पूरा कर सके !

चूँकि यूपी -उत्तराखण्ड में 'नौ कनवजिया तेरह चूल्हें' हैंऔर अधिकांस जीते हुए विधायक या तो भूतपूर्व कांग्रेसी हैं या जाति विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं ,इसलिए सर्वानुमति से मुख्यमंत्री तय कर पाना मुश्किल है। उत्तराखण्ड और यूपी की जीत भाजपा के लिए पचा पाना मुश्किल है। उनकी स्थिति बहुत जल्दी  'उगलत बने न लीलत केरी , भई गत साँप छछूंदर जैसी' होने वाली है।  यूपी के नवनिर्वाचित विधायकों में से किसी में दमगुर्दे नहीं हैं कि इस बिकराल जीत का सामना कर सके। यदि राजनाथ सिंह के सिर पर यूपी के काँटों का ताज रख दें तो शायद कुछ बात बन जाए। यूपी से जनता का ध्यान हटाने के लिए भाजपा के चतुर सुजानों ने गोवा -मणिपुर में लोकतंत्र की ऐंसी तैसी कर डाली। वहाँ सत्ता के लिए उन्होंने अपवित्र कांग्रेसियों को अपनी पंगत में जिमाकर पवित्र कर दिया है। जय हो !

बड़ी विचित्र स्थिति है ,यदि किसी 'सत्ताभक्त' को 'द्वेषभक्त' कहो या मणिपुर- गोवा में सरकार बनाने की बधाई दो तो  वह इसे कटाक्ष ही समझ रहा है।हालाँकि यह 'द्वेषभक्त' शब्द मैंने खुद ईजाद किया है। जिसका संधि विग्रह है- द्वेषभक्त याने द्वेष - घृणा फैलाने वाला ! यदि कोई व्यक्ति अथवा संगठन समाज में द्वेष फैलाता है तो हम उसे 'द्वेषभक्त' ही कहेंगे !अब यदि कोई अपने आपको 'द्वेषभक्त' समझता है और दूसरों को 'द्वेषद्रोही'तो इसमें मेरा क्या कसूर है ? द्वेशद्रोही याने घृणा से दूर रहने वाला याने परम संत ! हमारे शास्त्रों ने हमें 'द्वेष' अर्थात घ्रणा से दूर रहना सुखाया है। जब वामपंथी ,प्रगतिशील- बुद्धिजीवी इन शास्त्रीय मूल्यों का आदर करते हैं तो किसी 'हिंदुत्व- वादी' की यह फितरत क्यों होती है कि वह उपनिषद और गीता के सिद्धांतों को भूलकर उनकी अवमानना करे।

यूपी में यदि सपाकी जीत होती तो अब तक अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनाये जा चुके होते। यदि वसपा  की जीत होती तो बहिनजी का 'राज्यारोहण' हो चुका होता। किन्तु भाजपा की बम्फर जीतने अब मामला टेड़ा  है! यूपी में विगत ४० साल से या तो कोई पिछड़ा व्यक्ति मुख्यमंत्री रहा है या दलित नेता के रूप में बहिनजी मुख्यमंत्री रहीं हैं ! लेकिन भाजपा को हरतरफ से वोट मिले हैं ,अगड़े- ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया तो उनके खास आधार हैं ही किन्तु इस चुनाव में पिछड़े ,दलित और मुस्लिम महिलाओं ने भी वोट दिए हैं ,इसलिए भाजपा को सबकी आशाओं को साधना बहुत कठिन है। एतद द्वारा भाजपा संसदीय बोर्ड को,अमित शाह को और उनके सर्वेसर्वा नरेन्द्र मोदी जी को बिन माँगे सुझाव दिया जाता है कि राजनाथसिंह को ही उत्तरप्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया जाये ! क्योंकि वे सर्वस्वीकार हो सकते हैं और उम्मीद है कि उनके नेतत्व में लोग जातीय -साम्प्रदायिक द्वेष कतई नहीं  फैलाएंगे !

   

शनिवार, 11 मार्च 2017

यूपी में भाजपा की जीत को सकारात्मक रूप में देखें।

१९८० में जब जनता पार्टी टूटी तो उसके हिन्दुत्वादी धड़े ने मुम्बई में नई पार्टी बनाई। नाम रखा गया 'भारतीय जनता पार्टी '!तब उसके संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी बाजपेई ने पार्टी घोषणा पत्र में 'गांधीवादी समाजवाद'का सिद्धांत पेश किया था। उसके दो साल बाद हुए लोक सभा चुनाव में भाजपा को ५४० लोक सभा सीटों में से सिर्फ दो सीटें मिलीं। दुनिया ने मजाक उड़ाया। मैंने भी खूब उपहास किया। लेकिन जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू कर हिन्दू समाज के दूध में आरक्षण का नीबू निचोड़ा तो साईं आडवाणीजी 'कमण्डल'लेकर रथ यात्रा पर निकल पडे। अयोध्याकाण्ड हुआ ,गोधराकांड हुआ और हरेक साम्प्रदायिक दंगे के बाद भाजपा का राजनैतिक कद बढ़ता चला गया। लेकिन यूपी और बिहार में मंडलवाद का खासा असर होने से कमण्डल पिछड़ गया था। जब मोदी जी ने 'विकासवाद' और 'हिंदुत्ववाद' दोनों का सहारा लेकर मोर्चा संभाला तो उन्हें पर्याप्त सफलता मिली। परिणाम स्वरूप यूपी में अभी तो  सारे 'बाद' कोमा में हैं ! उम्मीद है कि भाजपा वाले अपनी इस जीत से बौरायेंगे नहीं। क्योंकि जनता का कोई भरोसा नही बड़ी जल्दी नाराज हो जाती है। १९७७ में इंदिराजी को बुरी तरह परास्त किए और जब जनता पार्टी ढाई साल में ढेर हो गई तो १९८० में फिर इंदिराजी को सत्ता सौंप दी।

आरक्षण की बढ़ती भूंख से हिन्दू समाज का अंदरूनी जातीय संघर्ष बहुत तेज होता जा रहा था। उत्तरप्रदेश की जनता ने ३० साल जो भुगता है उसके परिणामस्वरूप उतपन्न जनाक्रोश ने ही भाजपा को  विजयश्री दिलाई है।हिन्दू समाज के इस विखण्डन का फायदा सिर्फ लालू,मुलायम या ममता, मायावती ने ही नहीं बल्कि का कुछ अल्पसंख्यक नेताओं ने भी बेजा फायदा उठायाहै। सिर्फ आजमख़ाँ ,ओवेसी ही नहीं  नीतीश और केजरीवाल ने भी इसका बेजा फायदा उठाया। लेकिन यूपी की जनता ने अभी जो जनादेश दिया है ,उससे इस जातीयतावाद पर कुछ विराम लगेगा और बाकई ''सबका साथ -सबका विकास' ही भारत का मूल मन्त्र हो सकता है। इसलिए मोदी जी और अमित शाह के नेतत्व में भाजपा को मिली इस जीत का तहेदिल से स्वागत किए जाना चाहिए। इन चुनावों के मार्फ़त यूपी की जनता ने पिछड़ावाद,दलितवाद,अल्पसंख्यकवाद और गुण्डावाद पर जमकर प्रहार  किया है। बधाई ! धन्यवाद ! यदि भाजपा के नेतत्व में देश का और गरीबों का उद्धार होता है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन मेहनतकश जनता को चाहिए कि अपने वर्गीय संगठनों का निर्माण करें। ताकि जब भाजपा और मोदी जी असफल हो जाएं तो 'वामपंथ' के नेतत्व में देश का मजूर-किसान सत्ता सम्भल सके !      

जब कभी तर्कबुध्धि और विवेकबुद्धि चकरघिन्नी होने लग जाए,तो भाववाद के उस सिद्धांत को इस्तेमाल करने में कोई उज्र नहीं,जिसके अनुसार ''जो होता है अच्छे के लिए होता है ,जो हो रहा है वह भी गुजर जाएगा,आगे भी जो होगा सही होगा,कर्मफल की इच्छा मत करो,तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने मात्र पर है ,कर्मफल तो ईश्वर के हाथ में है ''! चूँकि तार्किकता - बौद्धिकता का अब भारतीय राजनीति में कोई काम नहीं ,अब तो लठैतों के अच्छे दिन आये हैं। इसलिए यूपी की उस जनता को धन्यवाद, जिसने छोटे लठैत- लठैतनियों की जगह बड़े लठैतों को चुना है। आशा है कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने से अब यूपी का उद्धार अवश्य होगा ! यदि यूपी का उद्धार होगा तो गंगा का उद्धार अवश्य होगा,यदि यूपी का विकास होगा तो बिहार भी जातिवाद से मुक्त हो जाएगा। यदि यूपी में जातिवादी- अल्पसंख्यकवादी टेक्टिकल वोटिंग असफल हो गयी तो पूरे भारत में स्वच्छ लोकतान्त्रिक चुनाव की सम्भावना बढ़ेगी। तब जातीय संघर्ष की जगह 'वर्ग संघर्ष' होने लगेगा और  वर्ग चेतना का विस्तार होगा। वर्ग चेतना से असली समाजवादी क्रांति का सूत्रपात होगा। इसलिए प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोगों को चाहिए कि यूपी में भाजपा की जीत को सकारात्मक रूप में देखें। उत्तरप्रदेश की राजनीति को जो जातीयता और साम्प्रदायिकता का काँटा लगा था ,वो निकल गया। लेकिन जख्म अभी हरा है और काँटा निकालने वालों की नियत पर कुछ लोगों को शक है !

एक नजरिया काबिले गौर है। यूपी में भाजपा रुपी दक्षिणपंथ की महाविजय को देखने सुनने के वावजूद भी यदि कोई मेरी तरह अब भी 'सर्वहारा क्रांति' के प्रति आशावान है,तो उसे यह स्वीकार करना चाहिए कि जब तक यह भारत देश असुरक्षित है ,जबतक बहुसंख्यक हिन्दू समाज को यकीन नहीं हो जाता,कि अतीत के सामंती दौर की तरह अब उनका अस्तित्व खतरे में नही है,जब तक वे यह नहीं समझ लेते कि उन्हें अब इस्लाम या ईसाइयत से नहीं बल्कि जातीयतावाद और सम्प्रदायकता युक्त पूँजीवाद से ही भयानक खतरा है ,तब तक वे सर्वहारा क्रांति के लिए तैयार नहीं होंगे। यदि किसी की तमन्ना है कि भारत में मजूरों-किसानों की और आम जनता की वास्तविक सत्ता हो,तो उसे इस दौर की राजनैतिक स्थिति का स्वागत करना चाहिए!  यदि कांग्रेस का विकल्प वामपंथ नहीं बन पाया तो इसमें किसी की कोई गलती नहीं ! क्योंकि भारत एक अर्ध सामंती अर्ध पूँजीवादी पुरातन पंथी धर्म -प्रधान राष्ट्र है। भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज अभी भी अतीत की गुलामी को भूल नही पाया है।इसलिए उसे  विदेशी शराब तो पसन्द है ,विदेशी औरत पसन्द है ,विदेशी चिकित्सा पद्धति पसन्द है ,विदेशी कम्प्यूटर,मोबाइल कपडे और जूते भी पसन्द हैं ,उसे विदेशी डेमोक्रसी और उसका संविधान भी पसन्द है ,उस विदेशी विचारधारा  आधारित पूँजीवाद भी पसन्द है ,किन्तु मजदूर -किसान की पक्षधर शोषणमुक्त साम्यवादी शासन व्यवस्था पसन्द करने में झिझक रहा है। यही वजह है कि हिंदी भाषी राज्यों में वामपंथ को उचित रिस्पांस नहीं मिल पा रहा है !देश में जब तक कोई उचित व्यवस्था परिवर्तन नहीं होता तब तक कांग्रेस और भाजपा को यदि देश सम्भालने का अवसर मिलता है तो वह उतना बुरा नही जितना कि सपा,बसपा ,तृणमूल,अकाली,जदयू,राजद,एआईडीएमके और अन्य क्षेत्रीय दलों ने देश को और समाज को बरगलाया है। इसलिए यूपी में भाजपा की जीत पर पीएम मोदी और अमित शाह को बधाई दी जानी चाहिए।

यदि इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया मनोरंजन को माइनस कर दिया जाए, तो प्रस्तुत चुनावों में किसी ने कुछ नहीं खोया। ये बात अलग है कि मायावतीजी ने आपा खो दिया है और  कुछ भाजपा समर्थक-मोदीभक्त भी आपा खोने की ओर अग्रसर हैं। इन चुनाव परिणामों से तो यही लगता है कि सबको वही मिला जो जिसके लायक था। जिनकी जमानत जब्त हुई वे उसी काबिल थे। जो भीतरघात या कम वोटिंग से कम मतों से हारे वे यह सोच कर सन्तोष करें कि 'हरि इच्छा भावी बलवाना' ! उनकी आस्था और पूजा में शायद कोई कमी रही होगी,इसलिए बाबा विश्वनाथ ने सौ -दो सौ वोटों से निपटवा दिया। क्योंकि बाबा विश्वनाथ तो इस बार अपने परम भक्त नरेन्द्र मोदीजी की झोली लबालब भरने में व्यस्त थे। इसलिए भौतिकवादी और भाववादी दोनों ही दर्शन के मुताबिक इन चुनावों में सब कुछ ठीक ही हुआ है।     

विगत २०१४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बम्फर बहुमत मिला था ,उसमें एमपी, यूपी-बिहार ,राजस्थान का सर्वाधिक योगदान रहा था।उसके कुछ समय बाद दिल्ली ,बिहार विधान सभा चुनाव में जब भाजपा और मोदीजी को बड़े बड़े झटके लगे,तो देश और दुनिया में कुछ इस तरह की धारणा बनने लगी कि नरेन्द्र मोदीके अश्वमेध का घोडा अब और आगे नहीं बढ़ सकता। मोदी सरकार की कालाधन स्कीम टांय-टॉय फीस होने पर आरोप लगे कि ये भी केवल बातों के धनी ही निकले। मोदीजी की तमाम घोषणाओं,वादों ,जुमलों और तूफानी दौरों से जनता को विगत ढाई-तीन साल में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं हुई। मोदी सरकार ने सिवाय कांग्रेसके कार्यक्रमों के नामपट्ट बदलने और नोटबंदी जैसे अदूरदर्शी फैसलों के अलावा अभी तक कुछ खास नहीं किया।किन्तु यूपी में बाबा विश्वनाथजी ने मोदीजी को उबार दिया! जयहो बाबा भोलेनाथ! इसी प्रकार देश के निर्धन शोषित जनपर भी कभी थोड़ी सी कृपा कर देना।

भारतीय लोकतंत्र की चुनावी नाव में इतने छेद हैं कि इसे वास्तविक किनारा कभी नहीं मिला। प्रस्तुत पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी ने व्यक्तिगत रूपसे बहुत बढ़चढ़कर अपनी पार्टीके लिए प्रचार किया। उनके अथक प्रयासों से अंततोगत्वा बहुसंख्यकवाद बनाम हिंदुत्ववाद की नाव को यूपी में किनारा मिल ही गया। उत्तराखण्ड और यू पी में भाजपा की बम्फर जीत का श्रेय निसन्देह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और पीएम मोदीजी को ही जाता है। उनके धुंआधार जबरजस्त प्रचार के सामने गरीबी,भुखमरी ,बेकारी,नोटबन्दी ,राममंदिर ,हिदुत्व और विकास सब मुद्दे गौड़ होते चले गए। केवल एक ही नारा जनता को याद रह गया -'हर हर मोदी '!यूपी में जो कुछ हुआ उसके निहतार्थ यह हैं कि देश की जनता को जिन राजनैतिक दलों ने  जाति ,धर्म,मजहब की राजनीती में धकेल दिया था वे अब आइंदा इतिहास के कूड़ेदान में जनर आएंगे।

देश के प्रगतिशील वामपंथी सोच वालों की हमेशा हार्दिक तमन्ना रही है कि भारत के केंद्र में और सभी राज्यों में मजूरों -किसानों की सरकार हो। और जबतक यह नहीं हो जाता तबतक  देश में कम से कम कोई ऐंसी पूँजीवादी सरकार हो जो कमजोर वर्गों और शोषित पीड़ित जनताके लिए कुछ राहत प्रदान करे। कांग्रेस ने इस बाबत बहुत कुछ किया,किन्तु वह भृष्टाचार पर अंकुश लगानेमें असमर्थ रही। कांग्रेसकी यही गंभीर चूक भाजपा और मोदीजी के लिए वरदान सावित हुई। यही स्थिति यूपी में सपा ,वसपा के लंबे कार्यकाल की रही है। विगत ३० साल से यूपी की जनता जातिवादी राजनैतिक अखाड़ों के पहलवानों की गुलाम रही है ! पीएम नरेन्द्र मोदी ने  यूपी विधान सभा चुनाव में मायावती ,मुलायम और आजमखां के उस मिथ को ध्वस्त कर दिया है कि जातीय -सम्प्रदायिक दलों के वोट अहस्तांतरणीय हैं। उत्तरप्रदेश में आरएसएस का 'सकल हिन्दू एकत्वाद' सफल रहा है। २०१४ के लोकसभा वाला अक्स अभी बरकरार है।यह सिलसिला २०१९ और २०२४ तक जारी रहेगा। जब मंदिर नहीं बनाये जाने पर अभी ये आलम है,तो मंदिर बनाये जाने पर हिन्दुत्वाद का उभार कितना प्रवल होगा? इसका अंदाज लगाना भी कठिन नहीं है।

यूपी में भाजपा को जीत मिली इससे  देश की राजनीति के कुछ सकारात्मक सन्देश भी हैं। बक्त आने पर वामपंथ को भी मौका मिलेगा। जब १९८२ में दो सीट पाने वाली भाजपा आज बुलन्दियों को छू सकती है तो केडरबेस औरविचारधारा आधारित वामपंथ को जनता क्यों अवसर नही देगी ?लेकिन जिस तरह जनता ने कांग्रेस को अवसर दिया और उनकी नीतियों से नाराज होकर सत्ता से हटा दिया ,उसी तरह भाजपा भी जब उसके एजेंडे पूरे नहीं करेगी ,जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरेगी तब वामपंथ को भी अवसर मिलेगा ,बशर्ते आप,सपा और बसपा जैसी क्षेत्ररीय पार्टियों की खरपतवार समाप्त हो ! इसलिए यदि मोदी जी और अमित शाह इस खरपतवार को खत्म कर रहे हैं तो यह कांग्रेस और वामपंथ के लिए सुविधाजनक और अनुकूल ही है। श्रीराम तिवारी

 



रविवार, 5 मार्च 2017

केवल एबीवीपी कसूरवार नहीं है!

 'संघ परिवार' और उनकी छात्र इकाई 'एबीवीपी' अक्सर कानून को अपने हाथों में लेने को तैयार रहा करते हैं। उनके इस दुष्कृत्य को ही फासिज्म कहते हैं। वे यदि वास्तव में सच्चे देशभक्त -राष्ट्रवादी होते तो हर बार कानून को ठेंगा नहीं दिखाते। यदि वे सच्चे देशभक्त होते तो उन्हें मालूम होता कि देशभक्त नागरिक अपने संविधान के अनुरूप ही आचरण करते हैं। वे सिर्फ जेएनयू -डीयू में ही नहीं बल्कि देशके किसीभी शिक्षण संसथान में बेवजह हंगामा खड़ा करते रहने के आदि हैं। हर छात्र द्वंद मामले में पुलिस ,कानून और न्याय को धता बताकर वे अपनी मर्जी से तथाकथित 'देशद्रोहियों' पर लट्ठ लेकर  टूट पड़ते हैं ! यदि  पुलिस का काम 'संघ परिवार' को ही करना है तो संविधान संशोधन क्यों नहीं कर देते कि आइंदा पुलिस और कोर्ट कचहरी का काम सिर्फ वेतन -भत्ते लेना और रिश्वत लेना ही है!और बाकी का काम 'संघ' के सभी फ्रेंचाइजी ही करेंगे !

जब कभी भी साम्प्रदायिक और संविधानेतर संस्थाओं के अलोकतांत्रिक कारनामों की मुखर आलोचना होती है , तो वे अपनी गलती स्वीकार करने के बजाय ,पुराने गढ़े मुर्दे उखाड़कर अपने फासिस्ट चरित्रको जस्टीफाई करने लगते हैं। उनके अंध समर्थक भी सोशल मीडिया पर इस अराजकता का नैतिक विरोध करने के बजाय खुद ही उस साम्प्रदायिक गंदगी में मुँह मारने लगते हैं। धर्मनिपेक्षता और प्रगतिशीलता तो उन्हें फांस की तरह चुभती है।

वेशक जेएनयू तथा डीयू के तथाकथित उपद्रव में केवल एबीवीपी ही कसूरवार नहीं है ,हालांकि वे इसी तरह गलतियां करते रहे तो उनका विनाश सुनिश्चित है। किन्तु वामपंथी छात्र संगठनों को भी अपनी कतिपय गंभीर भूलोंको नजरअंदाज नहीं करना चाहिए!उन्हें मार्क्स एंगेल्स की शिक्षाओंका यह अत्यंत आवश्यक नियम हमेशा याद रखना चाहिए कि क्रांतिकारी व्यक्ति या संगठन बिना 'आत्मालोचना' के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते!अव्वल तो यह मान लेना ही गंभीर भूल होगी कि किसी छात्र संघर्ष का कारण सिर्फ 'संघ परिवार' या एबीवीपी ही है। क्योंकि देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय और शिक्षा संसथान हैं, जहाँ एबीवीपी,एसएफआई,भाराछासं इत्यादि संघ और एक साथ संगठन चला रहे हैं। आपस में स्वाभाविक मतभेद के वावजूद कमोवेश संवाद हरजगह कायम है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि शिमला विश्वविद्यालय में वामपंथी छात्र संघ 'एसएफआई' की जो इज्जत है, जो सम्मान हासिल है उससे एनएसयूआई ,एबीवीपी वाले भी ईर्ष्या करते हैं। किन्तु जेएनयूके तथाकथित वामपंथी छात्र संगठन किस सिद्धांत को लेकर चल रहे हैं ,यह मेरी समझ में कभी नहीं आया। गैर जरुरी और विवादास्पद मुद्दे उठाकर 'वामपंथ 'का नाम बदनाम कर रहे हैं।सवाल किया जाना चाहिए कि जेएनयू के वामपंथी छात्र संघोंने देश और दुनिया के सर्वहारा वर्ग,किसान,मजदूर, शोषित वर्ग के लिए अब तक क्या किया ?उन्होंने कभी अफजल गुरु और कभी कश्मीर के अलगाववादियों को पनाह देकर कौनसा क्रांतिकारी काम किया है ?उनके द्वारा दूसरे विश्वविद्यालय के मामले में दखल देने और अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने फोकट की भाषणबाजी करनेसे प्रश्न उठता है कि उनमें और दक्षिणपंथी छात्र संगठनों में अंतर क्या है ? क्या यह आचरण देश की मेहनतकश आवाम को पसन्द है ? इस तरह के अराजक और उदण्ड व्यवहार से देश में क्रांति नहीं होने वाली है । वे सृजनात्मक क्या कर रहे नहीं ? केवल अभिव्यक्ति की 'आजादी' और हकों के पक्ष में नारे लगाना ही क्रांतिकारी का अभीष्ट नहीं है, अपितु वामपंथी क्रांतिकारी व्यक्ति और संगठन जो कुछ भी करता है वह सारे राष्ट्र और समाज को दिशा देता है।

श्रीराम तिवारी

बुधवार, 1 मार्च 2017

आमों में बौर भी नेताजी की कृपा से आये हैं।


चिकित्सा विज्ञान का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि  किसी भी तरह की बीमारी के इलाज से पूर्व उसके कारणों की जांच पड़ताल बहुत जरुरी है। अधिकांस चिकित्सा प्रणालियों का यह मानना है कि वास्तविक कारण जाने बिना उचित इलाज सम्भव नहीं। ठीक इसी तरह वर्तमान सामाजिक द्वंद के लिए ,भौगोलिक या राजनैतिक द्वंद के लिए अथवा अचानक प्राप्त उपलब्धि के लिए ,अतीत का कर्म ,अतीत का बीजारोपण ,अतीत का कोई द्वंदात्मक संघर्ष ही  जिम्मेदार होता है। वर्तमान तो इसका भोक्ता ही होता है, इसके अलावा वर्तमान का एक और महत्वपूर्ण कार्य होता है कि वह अतीत के समग्र परिणाम को अपने उचित अनुचित विवेक के साथ आगे की पीढ़ियों को सम्प्रेषित करता है। वर्तमान को अतीत के अवदान का श्रेय नहीं लेना चाहिए। वेशक वर्तमान जब खुदभी अतीत हो जाएगा, जब  उसके अवदान का प्रतिफल प्रकट होने लगेगा ,तब उसे भी भावी पीढ़ियों की कृतज्ञता अपेक्षित रहेगी ।

इस साल आमों में बौर खूब आये हैं।दस -ग्यारह साल पहले मैंने भी आम का पेड़ लगाया था ,किन्तु जब दस साल में बौर नहीं आये तो इस साल गर्मियों में उसे कटवाने की सोच रहा था। किन्तु इस साल उसमें बौर आ गए हैं।अब यह तय होना बाकी है कि इसका श्रेय किसे दूँ? क्या मेरी इस व्यक्तिगत उपलब्धि में भी मोदी सरकारका हाथ है ? क्या केंद्र सरकार के कामकाज और नीतियों का इसमें भी कोई योगदान है ? मैंने ११ साल पहले बैंक लोन लेकर एक प्लाट खरीदा ,मकान बनवाया,गार्डन बनाया,आम का पौधा लगाया ,माली लगाया ,क्या यह सब बेकार गया ? क्यों सारा श्रेय मोदी जी को ही दूँ ? यह तो सच नहीं है कि आप सत्ता में आये तो मेरी बगिया में भी बहार आ गई !आपके चेले चपाटों को भ्रम है कि आपके सत्ता में आने से न सिर्फ मेरे बल्कि सारे मुल्क के आमों में बौर आ गए ? फिर तो यह भी मानना पडेगा कि पडोसी मुल्क में  जो आम बौराये हैं , वे भी हमारे पीएम मोदी जी की महिमा से ही बौराये हैं।इस दौर में सिर्फ आम ही नहीं बल्कि  हर चेतन भगत ,हर छी न्यूज ,हर दंभित 'पात्रा'भी बौराया हुआ है। लेकिन क्या करें? ये सब तो होना ही था। यदि आप सत्ता में नहीं होते तब भी यह होता !आपके 'महापरिवार' वाले न सही कोई और परिवार वाले यदि सत्ता में आते तो वे भी इसी तरह बौरा जाते। जैसे कि इस साल मोदीजी की कृपा से आम बौराये हुए हैं। लेकिन मेहनतकश आवाम ,किसान ,मजदूर  को श्रेय तब भी नहीं मिलता!

खबर है कि नोटबंदी के वावजूद जीडीपी सिर्फ ०.२%ही घटी है। कल यूपी विधान सभा के चुनावप्रचार में भाषण देते हुए पीएम ने गद-गद होकर 'हावर्ड और हार्डवर्क'का बढियां शब्द संयोजन किया। उन्होंने चिदम्बरम और डॉ मनमोहनसिंह के साथ प्रोफेसर अमर्त्यसेन की लंगोटी भी खींच डाली । उन्होंने फ़रमाया कि ''भाइयो -बहिनों' नोट - बन्दी से किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। जीडीपी ज्योंकि त्यों है। आदरणीय हमने तो पहले ही मान लिया कि जीडीपी तो क्या पीडीपी भी छोडो,अब तो आमों में  बौर भी  आपकी असीम अनुकम्पा से ही आये हैं। 'नोटबन्दी' के दौरान बैंकों के द्वार पर और एटीएम के सामने कतार में जो सैकड़ों लोग मरे हैं ,वे आपकी नोटबन्दी योजना से नही बल्कि यमराज की इच्छा से स्वर्गलोक की महायात्रा पर गए हैं।

नयी पीढी के पढ़े -लिखे युवाओं को मोदी जी बहुत उम्मीदें हैं। यह एक सकारात्मक सोच है और आशावादी होना गलत नहीं है। उनके सामने एक सवाल अवश्य दरपेश होगा कि क्या हथेली पर आम उग सकता है ? उन्हें सलाह दूंगा कि वे किसी तठस्थ अर्थशास्त्री से अथवा 'बाजार के खिलाडी' से खुद पता करें कि ये जीडीपी -पीडीपी क्या बला है ? इसका आकलन कौन करता है ?और कैसे करता है ? यह भी पता करें कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन एवम विकास दर में क्या अन्तर्सम्बन्ध है ? किसी एक खास तिमाही में व्यक्तिगत औसत आय और जीडीपी ग्रोथ रेट के परिणाम तत्काल नहीं मिलते। क्योंकि  किसी भी नीति अथवा योजना के लागू होने के उपरान्त उनके दो तरह के परिणाम होते हैं। जैसे कि 'नोटबन्दी 'का तात्कलिक परिणाम तो जनता ने तत्काल भोग लिया गया, अब तो कुछ महीनों बाद पता चलेगा कि वास्तविक दूरगामी  परिणाम क्या हैं ? मानलें कि आगामी एक वर्ष तक जीडीपी नहीं घटेगी। तो भी यह तो बताना ही होगा कि नोटबन्दी के फायदे क्या हुए ?क्योंकि कश्मीरी आतंकवाद और नक्सली हमलों में कोई फर्क नहीं आया है।इसके विपरीत नए नोट छापने में जो अतिरिक्त खर्च हुआ उसकी वसूली जनता से ही होगी।आर्थिक क्रिया की प्रतिक्रिया केवल न्यूटन के गति के नियम से संचालित नहीं होती बल्कि पुराने नासूर की तरह अंदर-अंदर धीरे-धीरे असर करती है।बनावटी आंकड़ों से जमीनी सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता। यह तो सभी को मालूम है कि जिस तरह आमके पौधे को पेड़ बनने में बक्त लगता है और बौर आने में भी पर्याप्त समय लगता है ,उसी तरह आर्थिक नीतियों के परिणाम भी पर्याप्त समय के बाद ही दिखाई पड़ते हैं।यह कोई गेस के सिलेंडर की मेंहगाई का आंकड़ा नहीं की कंपनियों ने दाम बढ़ाये और सरकार ने चुप्पी साध ली।वेशक
हरेक वर्तमान संकट अतीत का प्रतिफल नहीं होता। लेकिन वर्तमान की हरेक उपलब्धि में अतीत का योगदान अवश्य होता है। नोटबन्दी का दुष्परिणाम अभी भविष्य के गर्भ में है !

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'ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद' 

    अतीत की सामाजिक रीतियों,विधि- विधान और सामाजिक जातीय संरचना पर समाज शास्त्रियों और विभिन्न समाज सुधारकों ने निरन्तर हमले किये हैं। भारतीय लोकतंत्र का उदय ही इस विमर्श के साथ हुआ कि अतीत का तो सब कुछ गलत ही है। शायद इसी मानसिकता के कारण आजाद भारत के रहनुमाओं ने ब्रिटिश संविधान का अधिकांस हिस्सा ज्यों का त्यों भारतीय संविधान में टीप दिया। वेशक भारतीय संविधानकी प्रस्तावना बेमिसाल है। लेकिन उसमें अंग्रेजों ने जो मजदूर और शोषित वर्ग विरोधी कानून बनाये थे वे यथावत रखे गए। कुछ जातियों को अंग्रेज सरकार जरायमपेशा मानती थी,आजादी के बाद देश की सरकारों ने उन पारदी बेड़िया और बंजारा जैसी यायावर जातियों के लिए कुछ भी नहीं किया। जिन लोगों को आरक्षण नीति से कुछ मिल गया वे सिर्फ अपनों के सुर में सुर मिलाने लगे। बाबा साहिब की जय-जयकार करते हुए कुछ जातिवादी लोग कभी -कभार सत्ता में भी पहुचते रहे। 'ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद'  उनके लिए राजनीति में जिन्दा रहने का सबसे बड़ा सहारा है।

जैसे की सभी जानते हैं कि अतीत के वैदिक कालीन भारत में 'वर्णव्यवस्था' इसलिए बनाई गयी कि कबीले के व्यवस्थित संचालन में आसानी हो। तत्कालीन समाज चिंतकों को यह अंदेशा बिलकुल नहीं था कि  भविष्य में उनकी मातृभूमि पर अलग-अलग राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण होगा, लोकतंत्र होगा या जातीय असमानता का बोलवाला होगा। उन्हें यह ध्यान भी नहीं होगा कि वे जिस 'सर्वे भवन्तु सुखिनः 'अथवा वसुधैव कुटुम्बकम' सिद्धांत पर इतराते रहे हैं, वे जिस 'अहिंसा परमोधर्म" पर गर्व करते रहे हैं,उसकी धज्जियां उड़ाते हुए 'आर्यावृत' को रौंदते हुए  बर्बर बाहरी लुटेरे गुलाम बना लेंगे ,वे सैकड़ों साल शासन करते हुए इस 'आर्यभूमि'की सभ्यता संस्कृति ध्वस्त कर देंगे और साम्प्रदायिकता-जातीयता के द्वंद में धकेल देंगे ! हर विवेकवान व्यक्ति को भूत भविष्य और वर्तमान को सत्यरूप में जानने में माहिर होना चाहिए। तभी वह प्रासंगिक विषय पर न्यायसंगत सम्मति दे सकता है।

यह स्वयम सिद्ध सिद्धांत है कि सही इतिहास का अध्यन सिर्फ गड़े मुर्दे उखाड़ना ही नहीं है। अपितु इतिहास का अध्यन किये बिना कोई भी व्यक्ति या कौम अपने वर्तमान को सत्यम शिवम सुंदरम नहीं बना सकता । उसके बिना वर्तमान चुनौतियों का निदान सम्भव भी नहीं ! यदि कुछ व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र इस आधुनिक दौर में अतीत की कुछ परम्पराओं ,रीतियों और लोकाचार को गलत मानते हैं, तो यह अनुचित नहीं। किन्तु यह जरुरी है कि उन पुरातन परम्पराओं का ,लोकाचार का अथवा पुरातन नियम कुलरीति का सही आकलन हो। क्योंकि 'सत्य' काल सापेक्ष होता है और कुछ चीजें व सिद्धांत- विज्ञानसम्मत - सर्वकालिक भी होते हैं। यदि अतीत में वे सही थे और अब गलत हैं तो कौनसी आफत आ गयी ? हम यह न भूलें कि हम आज जो कुछ भी हैं ,जैसे भी हैं वो हमारे समग्र अतीत का एकीकृत  झांकी है ! आज जो नियम कानून हमारे लिए सही है ,कल सम्भव है किसी दौर की पीढी को नागवार गुजरे और वह घोषणा कर दे कि यह सब तो बकवास है। इसलिए अतीत के राजपथ की निंदा करने के बजाय हम अपने दौर के लोह्पथमार्ग  पर ध्यान दें तो बेहतर होगा !

धर्म-मजहब के विरुद्ध आधुनिक साइंस की सबसे प्रचण्ड रिसर्च यह है कि ब्रह्मांड में कभी कुछ भी नष्ट नहीं होता। दुनिया में वेदांत दर्शन और उपनिषदों की बड़ी धाक रही है। उनका अधिकांस चिंतन विज्ञान आधारित है। आदि शंकराचार्य की यह घोषणा है कि 'ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या' भी 'ऊर्जा की अविनष्ट्ता के सिद्धांत' से मेल खाती है। जिस तरह ऊर्जा पदार्थ में और पदार्थ ऊर्जा में रूपांतरित हो सकते हैं ,किन्तु कभी नष्ट नहीं होते,उसी तरह विशिष्ठ चैतन्य और समष्टि चैतन्य भी एकदूजे में रूपान्तरित होते रहते हैं। इस रूपान्तरण को  ही जीवन मुक्ति या मोक्ष कहते हैं। वैदिक मतानुसार कर्मफल  कभी नष्ट नहीं होते। उनके अनुसार त्रिगुणमयी माया अर्थात पृथ्वी जल आकाश वायु अग्नि इत्यादि पंचमहाभूतों के मायाविष्ट चैतन्य से सृष्टि हुई है। सभी जीव समान रूप से उस एक ही 'ब्रह्मतत्त्व' के प्रतिउत्पाद हैं। अर्थात  मनुष्य तो क्या जीव जन्तु, जलचर,थलचर, नभचर सहित तमाम जड़-चेतन ही समरूप से एकहि हैं। फिर इस समतामूलक  सिद्धांत में  गलत क्या है? 

मेरे पूर्वज लगभग डेड सौ साल पहले 'धामोनी'छोड़कर 'पिड़रुवा'आ बसे !जब धामोनी में हैजा -महामारी फैली तो न केवल मनुष्य मात्र बल्कि मवेशी भी थोक में मरने लगे! जो नर-नारी आबाल बृध्द बच गए वे प्राण बचाकर इधर-उधर भागे। चूँकि मेरे पूर्वज -पितामह पंडित गुल्लीप्रसाद तिवारी की ससुराल नजदीक के गाँव पिड़रुवा के पांडेय परिवार में थी, इसलिए लड़की -दामाद याने मेरे दादा दादी को उन्होंने 'पिड़रुवा'बुला लिया। चूँकि दादीजी का इकलौता भाई बचपन में ही खत्म हो गया था,इसलिए दादाजी को शरणार्थी और 'घर जँवाई' दोनों भूमिकाएँ एक साथ अदा करनी पड़ीं। जबकि ततकालीन कुलीन परम्परा में 'घर जंवाई' बनने का घोर निषेध था। दुनिया के हर समाज और कुटम्ब में इसी तरह के उदाहरण मिलेंगे कि नियम तो बनाये ही जाते हैं तोड़ने के लिए !'वक्त का तकाजा था' सो उन्होंने अपना पैतृक गाँव छोड़ा वर्ना यह नोबत क्यों आती ?मेरे पिताजी और काकाओं ने भी वहीँ अपने ननिहाल में ही डेरा डाला, इस तरह वंशवृक्ष आगे बढ़ते हुए इंदौर,दिल्ली,मुंबई ,बेंगलूर,भोपालमें फ़ैल गया। कहने का तात्पर्य यह कि पिताजी -दादाजी के समय जो साधन ,देशकाल, परिस्थितियां थीं उन्होंने उसके अनुसार  जीवन यापन किया। अब चूँकि देशकाल परिस्थितियां कुछ और हो गईं हैं इसलिए अब हमने कुछ और तरक्की कर ली ,किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हमारे पिताजी ,दादाजी गलत थे या उनके रीति रिवाज गलत थे !अपने समय में वे उतने ही सही थे जितने अपने समय में हम सही हैं।चूँकि मेरे पूर्वज परम्परागत रूप से ब्राह्मण होते हुए भी विस्थापित गरीब मजदूर थे  अतः यह कहना मूर्खता होगी कि हमारे दादजी और पिताजी ने किसी का किसी तरह से शोषण किया होगा। गाँव के काछी,पटेल,तेली ,लुहार, जैन और कुछ अहिरवार भी हमारे पूर्वजों से बेहतर जीवन जीते थे। लंबरदारों की धन सम्पदा और उपजाऊ  जमीन की तो कोई सांनी ही नहीं।आज भी उस गांव में इन सब जातों -समाजों के मकान और जमीने ,हमारे बचे खुचे परिवार से कई गुना बेहतर हैं।मुझे यह कभी समझ नहीं आया कि 'ब्राह्मणवाद' और मनुवाद क्या बला है ? और उससे मुझे या मेरे पूर्वजों को क्या मिला ? खैर फिर भी मैं यही कहूंगा कि जाति -धर्म-मजहब नहीं बल्कि देश, काल, परिष्थितियाँ ही तय करती हैं कि कौन कहाँ कैसे जीवन जीता है।

परम्परा और तकनीक परिवर्तन का एक उदाहरण भवन निर्माण का भी है। पहले के ज़माने में गाँव के ग्रामीण लोग आम तौर पर  पत्थर-गारे की कच्ची दीवालों पर मजबूत लकड़ी की मियारी डालकर ,उसपर सतकठा के कुरवा डालकर ,कवेलू याने खपरों की छान डालकर मकान बनाते थे। उत्तर भारत के अधिकांस गरीबों के घर आज भी ऐंसे ही हैं ,जिनमें  दरवाजे इतने छोटे होते हैं कि सिर टकराये बिना आवागमन मुश्किल है।आधुनिक युग की सुविधाओं की तो वहाँ कल्पना ही नहीं की जा सकती। हाथमें लोटा लेकर 'दिशा मैदान' की परम्परा बाकायदा हर गाँव में हर गरीब के लिए अभी भी यथावत कायम है। मेरे पिता जी ने भी इसी तरह का खपरेल का ही मकान बनाया था ! घोर निर्धनता में अपने बच्चों की परवरिश की  लेकिन किसी भी अनुसूचित जाति अथवा जनजाति के ग्रामीण को कभी अस्पर्श्य नहीं माना।

भारत आजाद हुआ,शिक्षाका प्रचार-प्रसार हुआ,आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धान ने  जीवन के हर हिस्से को गति प्रदान की। भवन निर्माण में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। चूँकि गाँव के लोग खुद कारीगर थे अतएव सभी ने नए मकान बना लिए, लेकिंन मेरे पिता बृद्ध चूँकि  रहे नहीं और पुराने मकान का ढांचायथावत खड़ा है। नई पीढी के लोगों ने शहरों में ,पास कालोनियों में सर्व सुविधा सम्पन्न भवन बनवा लिए हैं। कुछ ने तो हाई प्रोफ़ाइल सोसाइटी में फ्लेट भी खरीद लिए हैं। लेकिन मैं या कोई बंधु बांधव यदि कहे कि पूर्वजों ने कुछ नहीं किया ,या गलत किया कि वे कच्चे मकानमें रहते थे या वे तो लोटा लेकर 'दिशा मैदान'जाते थे ,तो यह उचित टिप्पणी उचित नहीं होगी । इसी तरह यदि कोई कहे कि मैंने सर्वसुविधा सम्पन्न बंगला बनवा लिया ,जबकि पूर्वज कबेलू के कच्चे मकान में ही मर खप गए तो यह सरासर कृतघ्नता होगी । मानवताके लिए जिस दौर में जिस पीढी से जो कुछ भी सम्भव था वह हमारी पूर्वर्ती पीढ़ियों ने किया है। हम उनके शुक्रगुजार हैं। लेकिन जबसे मोदीजी पीएम बने हैं वे रोज अपने पूर्वजों को गाली दे रहे हैं।

इन सब बातों के जिक्र का लुब्बो लुआब यह है कि जो कुछ अतीत में सम्भव था वह हमारे पूर्वजों ने किया।उन्हें जिस दौर में लगा कि अपराध रोकने और समाज में शांति कायम रखने के लिए किसी 'बिजुके 'की जरूरत है तो उन्होंने ईश्वर खोज लिया और धर्म -मजहब बना लिये। जिस दौर के पूर्वजों को  लगा कि 'वर्णव्यवस्था' होनी चाहिए तो उन्होंने उसे बना लिया । लेकिन इस वैज्ञानिक युग में न तो कबेलू वाले मकान  की जरूरत है,न ही उस सामंत -युगीन  व्यवस्था की जरूरत है !लेकिन अनाचार अत्याचार ,बाह्य शोषण अभी भी जिन्दा हैं इसलिए धर्म-मजहब के अकूत आडम्बर की जरूरत यथावत बनी हुई है। जब कभी किसी बेहतर व्यवस्था के निर्माणका आगाज होगा तो जाति ,मजहब,धर्म,और सामन्तकालीन परम्पराएँ अपने आप खत्म हो जायेंगीं। हर युग में इस तरह के उच्च सकारात्मक बदलाव की प्रक्रिया के लिए क्रांतिकारी मनुष्यों की भूमिका रही है। आधुनिक युग में भी कम्युनिस्ट और वैज्ञानिक क्रांतिकारी लोग जो कुछ  सम्भव है वह कर रहे हैं। हमारे बच्चे हमसे बेहतर कर रहे हैं ,उम्मीद की जा सकती है कि भावी पीढ़ियाँ उनसे बेहतर परफार्मेंस देंगी ! लेकिन शर्त यह है कि अतीत के लोगों को गरियाने या यथास्थिति बनाये रखने के बजाय संघर्षों के इतिहास से कुछ सबक सीखा जाए। पूर्वजों को धन्यवाद ज्ञापित किया जाए। साइंस के अन्वेषणों का मानवीयकरण किया जाए और सामाजिक ,आर्थिक,  राजनैतिक, असमानता  को दूर किया जाए। इसके लिए अतीत के अनुभव और इतिहास का सही मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है। 

वेशक अशांत राष्ट्र और समाज की मौजूदा हालत के लिए उसका नकारात्मक अतीत जिम्मेदार हुआ करता है। जिस तरह गलत-सलत जीवन शैली ,धूम्रपान जैसे बुरी आदतों और निर्धनता जनित  कुपोषण की  मार से कोई भी व्यक्ति एक निश्चित समय के बाद अपना इम्यून सिस्टम कमजोर पाता है और बीमार पड़ने लगता है,उसी तरह एक लंबे समयांतराल के बाद समाज तथा राष्ट्र भी अपने अतीत के नकारात्मक किये धरे से बीमार होनेलगता है।  इसीलिए इतिहास का अध्यन केवल गड़े मुर्दे उखाड़ना मात्र नहीं है. बल्कि अपने समय के बवण्डरों ,अपने दौर के अभावों और अपने दौर के अशांत वातावरण को शांत करने के लिए अतीत का विहंगावलोकन करना जरुरी हो जाता है। अतीत के काले हिस्से को अलग -थलग करते हुए हमें उसके सत्य,अहिंसा,समता,करुणा,और विश्व बंधुत्व वाले हिस्से को आत्मसात करना ही होगा,तभी मानव मात्र को उचित न्याय ,आदर और सुखद जीवन का हक हासिल हो सकता है। श्रीराम तिवारी