शुक्रवार, 29 मार्च 2013

अजमेर शरीफ के 'जनाब जेनुल आबेदीन ख़ान साहेब ' सम्मान के हकदार ..

        
               ज़नाब   जेनुल आबदीन  खान साहेब   पर भारत को  नाज़ है .....!




    विगत दिनों पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री 'राजा परवेज ' जब अजमेर शरीफ पधारे तो  उन्हें एक
अप्रत्याशित स्थिति का सामना करना  पड़ा ,  जब वे 'ख्वाजा मोइनुद्दीन  चिस्ती ' याने गरीब नवाज़ के दरवार में  जियारत के लिए पूरे राजकीय सम्मान के  साथ तसरीफ  लाये तो दो  तरफ़ा प्रतिक्रिया से  सारा मीडिया
लवरेज था .एक तरफ केंद्र और  राजस्थान की  राज्य सरकार पलक पांवड़े लेकर उनकी मिजाज पुरसी या यों कहे की ' कूटनीतिक ' अतिथि सत्कार के लिए कटिबद्द थी तो   दूसरी  ओर' अजमेर शरीफ ' के गद्दीनशीन जनाब जेनुल आबदीन खान साहेब ने  पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तथा उनके साथ आये  भारी -भरकम   जाय् रीनी काफिले का स्वागत करने से इनकार कर दिया .उनका कहना था  कि  पाकिस्तानी फौज के संरक्षण में पाकिस्तानी 'हत्यारों' ने  धोखे से दो भारतीय  जवानों के सर काट कर सीमाओं  पर जो दुष्कृत्य किया है  वो  न केवल भारतीय फौज के  खिलाफ ,न केवल भारतीय गणतंत्र के खिलाफ , बल्कि  प्रत्यक्ष रूप से भारतीय-  जनता अर्थात -हिन्दू -सिख- जैन-बौद्ध-ईसाई-पारसियों और  मुसलमानों समेत तमाम मज़हबों-  जातियों सम्प्रदायों   की गंगा-जमुनी तहजीव और सम्पूर्ण  प्रभुत्व  सम्पन्न   भारतीय  जनता -जनार्दन के खिलाफ  पाकिस्तान की रक्त पिपासु फौज का  नापाक हमला  था . चूँकि राजा  परवेज प्रधान मंत्री थे अतेव वे भी इस शर्मनाक  कुक्र्त्य  के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं .
                                                  पाकिस्तान के कठमुल्लाओं , रक्त पिपासु फौजियों  और  उसको  हथियारों  की   निरंतर सप्लाई करने  वाली लाबी -  भारत विरोधी  ताकतों ने  भारतीय सीमाओं पर ,भारत के अन्दर और भारत  के   बाहर  अन्तराष्ट्रीय स्तर  पर निरंतर अघोषित युद्ध छेड़ रखा है.  भारत  के  अधिकांस  लोग  पाकिस्तान  से  दोस्ती  चाहते हैं . पाकिस्तान  की मेहनतकश आवाम को भी भारत  से कोई बैरभाव नहीं है  ,पाकिस्तान  के   प्रगतिशील  वुद्धि जीवी और मानव अधिकारवादियों की भी यही कोशिश रहती है  कि  भारत-पाकिस्तान अपनी-द्वीपक्षीय समस्याओं और सीमा विवाद को आपसी समझ बूझ से सुलझा लें और सीमाओं पर अमन शान्ति बनी रहे.  पाकिस्तानी साहित्यकार,लेखक,शायर और कलाकार  भी भारत के साथ अमन का  रिश्ता  कायम  रखना चाहते हैं , किन्तु पाकिस्तान का  मीडिया  ,पाकिस्तान  के  कठमुल्ले  और  पाकिस्तान  की सत्ता पर परोक्ष रूप से काबिज मिलिट्री  और दिग्भ्रमित भारत विरोधी मानसिकता वाली राजनैतिक दुष्प्रवृत्ति  ने पाकिस्तान को दुनिया भर  में  भारत का सनातन शत्रु ,  आतंकवाद का  जनक  और  एटमी  खलनायक के रूप में  कुक्ख्यात कर रखा  है .   पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ जब भी  युद्ध छेड़ा या इस तरह की कोई हीन हरकत- जैसी की विगत दिनों  सीमाओं  पर की है, उसके द्वारा की गई तो भारत की फौज , भारत की जनता ने एकजुट  होकर उसे  करारा जबाब दिया है ,   इतिहास गवाह है कि  भारत के मुसलमानों  ने हर दफा अपनी   बहादुरी और- भारतीय - राष्ट्रनिष्ठा  के कीर्तिमान स्थापित कर   पाकिस्तान   को उसकी औकात दिलाई  और साथ ही  अपना घर  सुधारने  की नसीहत भी  दी है .
                                    जनाब जेनुल आबदीन खान साहेब ने 'अजमेर- शरीफ' से सारे संसार के मुसलमानों को सन्देश दिया है कि अव्वल तो   पाकिस्तानी हुक्मरानों  को गरीब नवाज  'ख्वाजा मोइनुद्दीन' चिस्ती के दरबार में आने  की  पात्रता  ही नहीं है . दूसरे  उनके  और पाकिस्तानी फौज के  गुनाह  नाकाबिले  बर्दास्त  और  माफ़ी  योग्य  नहीं हैं .   अजमेर शरीफ के प्रमुख जनाब जेनुल आबदीन खान साहेब को 'भारत रत्न' मिले या न मिले वे आज के इस  भयानक अलगाववादी  और  असहनशीलता के दौर में न केवल सम्मान के हक़ दार है अपितु  विश्व शांति के अलम वरदारों  में शुमार किये जाने योग्य  है . भारत के मुसलमानों को उन पर नाज़ है  और अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए देश भर से लोग उनसे मिलने की  तमन्ना रखते  हैं .इंदौर से सेकड़ों लोग आज अजमेर  शरीफ प्रस्थान कर चुके हैं .
                                                 जनाब जेनुल आबेदीन खान साहेब  ने  पाकिस्तान के प्रधान  मंत्री के लौटने के बाद जिस तरह अजमेर शरीफ और  उस इलाके  की  सड़कों को धुलवाया ,  वो  न केवल पाकिस्तानी  हुक्मरानों के लिए बल्कि उनके लिए भी  नसीहत का सबब  है जो भारतीय मुसलमानों को संदेह की नज़र से देखा करते है। उन्हें भी सोचने को मजबूर कर दिया जो 'स्वयम्भू' राष्ट्रवादी तो बनते हैं किन्तु घृणा की राजनीति  कर सत्ता पाने की नापाक  कोशिश में लगे रहते हैं .
                   इंदौर से आज शाम कुछ  लोग अजमेर शरीफ प्रस्थान कर चुके है जो कल अजमेर शरीफ के गद्दीनशीन जनाब  जेनुल आबेदीन खान साहब का शुक्रिया करेंगे  ,उन्हें सम्मानित  भी करेंगे .इस जत्थे का नेत्रत्व कर रहे हैं जनाब आरिफ  रहीम ,नासिर  कुरैशी ....! इस जत्थे में शामिल  सभी साथियों को  क्रांतिकारी अभिवादन और जनाब जेनुल आबेदीन साहेब को नमन . ख्वाजा गरीब नवाज को सादर प्रणाम .
                        श्रीराम तिवारी 
                                          

 

सोमवार, 25 मार्च 2013

     गठबंधन की राजनीति  के दौर में राष्ट्रीय हितों पर  कुठाराघात .....!

 रात को एक एस एम् एस मिला-अवसरवादिता और गठबंधन की मनमानी वाली राजनीति  में  दम  तोड़ते  जनता के असली मुद्दे…!पर प्रकाश  डालिए ! में इस  एस एम् एस का- जो की भाषा और व्याकरण के परिप्रेक्ष्य   में  आंशिक रूप से अशुद्ध है,  इस तरह से वाक्य विन्यास करता हूँ ...!'अवसरवादिता और गठबंधन' ' दम  तोड़ते जनता के असली मुद्दे'मनमानी वाली राजनीती '....!बार-बार उसी वाक्य को दुहराने पर में इस वाक्य विन्यास को  पुनः  संछिप्तीकरण  करते हुए ,  उपरोक्त  शीर्षक के रूप में इन्द्राज करता हूँ .  याने-गठबंधन की राजनीति के दौर में राष्ट्रीय हितों पर  कुठाराघात ....!अर्थात गठबंधन की राजनीति  को राष्ट्रीय हितों के खिलाफ   मानने को बाध्य हो जाता हूँ .हालाँकि यह तय करने का अधिकार मुझे तो क्या इस देश की संसद को भी नहीं है  कि ' गठबंधन  की राजनीति  में केवल अवसरवादिता ही शेष  है और निहित स्वार्थी क्षेत्रीय पार्टनर्स का व्यवहार नितांत 'राष्ट्र विरोधी' और मनमाना है.  यह स्थापना सेधान्तिक रूप में स्वीकार करने का मतलब है - उस जनादेश की अवमानना  जो की देश की जनता ने विगत २ 0 0 9  में  आम चुनाव के माध्यम से दिया था .अर्थात यु पी ए  द्वतीय गठबंधन की सरकार को जनता का जनादेश मिला था .

         इससे पूर्व यु पी ए  प्रथम की स्थिति भी लगभग यही थी फर्क सिर्फ इतना था की तब सी पी एम् के ५ ० सांसदों  का बाहर से 'बिना' शर्त समर्थन था और तत्कालीन मनमोहन सरकार ने जब  बेहिचक अपनी आर्थिक उदारीकरण  की अमेरिका परस्त नीतियों को धडल्ले से लागू करना शुरू  किया  तो लोक सभा में सत्ता पक्ष की  स्थिति ठीक वैसी हो गई जैसी अभी डी  एम् के के समर्थन वापसी पर हुई है .  वाम के  प्रवल  विरोध  के वावजूद 1 ,2 ,3 , एटमी करार किया  गया तो वाम ने आँख दिखाई और समर्थन वापिस ले लिया .जब तक वाम का दवाव रहा तब तक -मनरेगा , सूचना का अधिकार ,और गरीबों को सब्सिडी इत्यादि   जन-कल्याणकारी कार्यक्रम और नीतियाँ जारी रहीं  ,ज्यों ही वाम ने बाहर से दिया अपना समर्थन वापिस लिया  तो न केवल मनमोहनसिंह   जी  बल्कि  एनडीए  के  अरुण  शौरी  और  अमेरिकी  राजदूत अपनी ख़ुशी को  छिपा नहीं सके .  तत्कालीन अल्पमत सरकार को बचाने के लिए दुनिया भर के चोर-लुटेरे एकजुट हो गए यही सपा -बसपा और ममता  तब भी तारणहार थे ,सरमायेदारों ने   सांसदों की खरीद फरोक्त कर जिस तरह सरकार बचाई वो सारा  संसार  जानता  है.  उसमे गुनाहगार सिर्फ वो ही नहीं थे जिन्हें क्षेत्रीय दल कहकर हिकारत से देखा जाता है बल्कि वो भी थे जो 'तथाकथित राष्ट्रवाद"  के  स्वघोषित  अलम्वर्दार हुआ करते हैं , कौन नहीं जानता की भाजपा के दर्जनों सांसद गैर हाज़िर रहे और दर्जनों को मीडिया पर नोट लहराते हुए देखा गया .  कायदे से 2 0 0 9  में उस यु पी ए  की भृष्ट तम  सरकार को सत्ता में पुनार्वापिसी का अधिकार नहीं था  किन्तु ईश्वर इस देश की  उस जनता को सद्बुद्धि दे[जिसमें से 9 0 % को  जस्टिस काटजू ने  मूर्ख कहा था]   जिसने  भाजपा नीति एनडीए की अटल सरकार से न जाने क्या खार खाई  कि   एक तरफ तो वाम पंथ का ही सूपड़ा साफ़ कर दिया और 'लाख शाइनिंग इंडिया' और करोड़ों' फील गुड 'के वावजूद 'पी एम् इन वैटिंग '  महान तम  राष्ट्रवादी हिन्दू शिरोमणि  आदरणीय लालकृष्ण  आडवाणी जी को  को घास नहीं डाली और शेयर बाज़ार के लाडले,अमेरिका के परम मित्र, वाम शत्रु  और देशी-विदेशी अमीरों के हीरो सरदार मनमोहनसिंह  के नेत्रत्व में  यु पी ए  द्वतीय के तथाकथित 'अवसरवादी गठजोड़ ' को सत्ता में पुन:  वापिसी  मिली  थी . इस घोर अलोकतांत्रिक   कुक्र्त्य  के मद्देनज़र तत्कालीन  मीडिया  रिपोर्ट्स  में सारे के सारे चेनल्स,अखवार,बेब साइट्स वगैरह वगैरह चीख -चीख कर चुनाव पूर्व घोषणा कर चुके थे कि  बस अब यु पी ए  के पापों का घड़ा भर चूका है और बस अब दस जनपथ,रायसीना हिल्स समेत  सम्पूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान पर एनडीए गठबंधन काबिज होने जा रहा है . यही हाल अभी के श्री लंका प्रकरण के बहाने डी एम् के और शेष सभी पक्ष -विपक्ष के हैं। गाँव वसा नहीं सूअर -कुत्ते पहले से  कुकरहाव करने  पहुँचने लगे  .
                          जो-जो प्रहसन, ढपोरशंख टोटके और द्वीपक्षीय कुत्सित प्रचार इन   महा  गठबन्धनों  ने 2 0 0 9  में किये थे  वे इस आसन्न आगामी 2 0 1 4  की प्रस्तावित पटकथा में भी  लिखे जा चुके हैं ,  अभी उनके घोषणा  पत्र  बिलकुल विपरीत सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित हैं,किन्तु आगामी आम चुनाव में संभावित त्रिशंकु संसद में 'वांछित बहुमत ' जुटाने के नाम पर सत्ता सुख    के लिए उनके पुनर्मिलन  से इनकार नहीं किया जा सकता .  भाजपा , कांग्रेस , वामपंथ  के अलावा शेष सभी दल लगभग जाति - धर्म , क्षेत्रीयतावाद  और  पुरोगामी आंचलिक मानसिकता  का प्रतिनिधित्व करते है ,वे अपने वोट बेंक के पोखर में आसन्न डूबकर '  भारत -राष्ट्र' का भुरता  बनाने से भी नहीं चूकते .  ये क्षेत्रीय क्षत्रप और उनके  पिछलग्गू  अर्ध शिक्षित कार्यकर्ता और  'जनतांत्रिक समझ' के लिहाज़ से अपरिपक्व उनके स्थाई वोट बेंक की  भीड़ -देश के   दूरगामी हितों  को पहचानने में असमर्थ हैं .  इस जनता जनार्दन को   यह भी याद  नहीं रहता की जिसका वो विरोध कर रहा है वो  हारकर भी सत्ता में आ सकता है और जिसे वो वोट दे कर  जिता  रहा है वो जीत कर भी  सत्ता में नहीं आने  वाला  और इसकी भी पूरी संभावना हो सकती है कि  वो सत्ता के गठ्बंध्नीय दौर में महज़ एक 'बिकाऊ माल' बन कर रह जाये.  तब कर लो 'राष्ट्रवाद ' का गुणगान . देश के जाबांज  बहादुर जवानों को शपथ दिलाने वाला , न्याय विदों को शपथ दिलाने वाला , स्वयम संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाला  'नायक' भी इन्ही बिकाऊ जिंसों के ढेर में से  प्रगट  हो सकता है .  देश भक्तों , ईमानदार मीडिया कर्मियों,ईमानदार राजनीतिज्ञों  की यह दुश्चिंता जायज़ है  कि  दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र केवल सीबी आई के सहारे या दुमछल्लों और नीतिविहीन कुकुरमुत्ता दलों के ब्लैक मेलिंग  के सहारे कब तक चल सकेगा ?
  वे इसका भी मीजान करते हैं कि  यदि 'पीपुल्स रिपब्लिक आफ चायना ' की तरह हमारे देश में यदि निष्कंटक सर्व प्रभुत्व सम्पन्न पूर्ण बहुमत प्राप्त  सत्ता केंद्र होता तो शायद जी डी पी या सकल राष्ट्रीय उत्पादन में ,आर्थिक ग्रोथ में हम चीन से आगे होते . हम पाकिस्तान ,बंगला देश श्रीलंका या इटली की धौंस धपट  में नहीं जी रहे होते .उनका अनुमान और मूल्यांकन सही भी हो सकता है किन्तु 'भारत' और चीन में लाखों समानताएं होने के बावजूद  ये कटु सत्य है की भारत में जितनी बोलियाँ ,जातियां धार्मिक विश्वाश और पंथ -मज़हब के फंदे हैं , जितनी जटिल क्षेत्रीय मानसिकताएं हैं उतनी चीन में नहीं हैं फिर वही एक सनातन गौरब भी की -
     हस्ती   मिटती  नहीं हमारी .... सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा .....!
 
हमे ऐतिहासिक विरासत में 'महान पडोसी' पाकिस्तान मिला है जबकि चीन को पड़ोस के रूप में भारत ! अब सोचो की  प्रवाह के विपरीत किसे तैरना  पड  रहा है ? हमें  एक हजार साल की गुलामी का दंश भोगना पड  रहा है जबकि  चीन को  पांच साल भी गुलाम नहीं रहना पडा . गुलामी से छुटकारा पाने में कुछ ऐतिहासिक विषाणु भारत के शरीर में प्रवेश कर गए जिसके कारण क्षेत्रीतावाद और साम्प्रदायिक अलगाव से भारत को  जूझना  पड़  रहा है . ये गठ्बंध्नीय दौर भी ऐतिहासिक  विकाश क्रम की अनवरत प्रक्रिया का अभिन्न अंग है   जिसको शिरोधार्य  कर भारत दुनिया में मानव अधिकार का , क्षेत्रीय आकन्क्षाओं  की   वकालत का  झंडावरदार है .  हमें यह कतई  नहीं भूलना चाहिए की ये भारतीय वांग्मय के शब्द है;-

             सर्वे भवन्तु सुखिनः ...सर्वे सन्तु निरामया ...
   केवल बहुसंख्यक या बहुमत ही शाशन करे ये भारतीय जन-मानस  और भारतीय संविधान दोनों को ही पसंद  नहीं . भारत के प्रतेक नागरिक  को  विना भेदभाव और क्षेत्र भाषा धर्म जाती से परे  अवसरों की समानता के पवित्र संवैधानिक आचरण में निरुपित किया गया है .अतः गठबंधन की राजनीती हो या एकल -द्वीपक्षीय राजनैतिक अवस्था हो देश की जनता अपने हितों की हिफाजत करना सीख चुकी है . जहाँ तक सपा- बसपा  द्रुमुक या अन्य क्षेत्रीय दलों की ब्लेक मेलिंग या सीबी आई की गिरफ्त का सवाल है तो    इसका      जबाब इस देश  के   बैबिध्यता पूर्ण - सामाजिक -आर्थिक- सांस्कृतिक-साम्प्रदायिक - भाषाई और क्षेत्रीयता  की मिलावट से बने भूसे के ढेर में  ढूँढना होगा। देश की जनता को कम से कम पांच साल में एक बार -सिर्फ एक बार अपनी  देशभक्ति  और विवेकशीलता का परिचय तो देना ही चाहिए और सारे के सारे कुकुरमुत्ता दलों का सूपड़ा साफ़ करते हुए सिर्फ - कांग्रेस , भाजपा या वामपंथ में से किसी एक जिम्मेदार राष्ट्रीय दल को  'गुजारे लायक' बहुमत  अवश्य देना चाहिए . जनता  द्वारा विपक्ष का चयन भी उतना ही  जिम्मेदारी और विवेकशीलता से होना चाहिए की पक्ष-विपक्ष के सारे अपराधी,हत्यारे,बलात्कारी,सत्ता के दलाल और पूंजीपतियों  के एजेंट  तो लोक सभा का चुनाव हारे किन्तु जो ईमानदार , न बिकने वाला ,नीतिवान , धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद  में आश्था वाला हो वो अवश्य लोक सभा में जीत कर पहुंचे .  इतना तो देश की आवाम से अपेक्षा की ही जा सकती है .बाबा रामदेव , अन्ना हजारे,केजरीवाल,काटजू,किरण वेदी ,और तमाम गैर  राजनैतिक  लोग  बजाय  सत्ता  और राजनीती को गली बकने के देश की आवाम [वोटर्स] को जागृत कर सकें तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए उनका अमूल्य योगदान होगा .
                                                        क्षेत्रीयता वाद तब तक बुरा नहीं जब तक वह  संप्रभु राष्ट्र की अखंडता को   नुक्सान नहीं पहुंचाता बल्कि स्थानीय  स्तर  पर क्षेत्रीय पार्टियां उनके स्थानिक सरोकारों को राष्ट्र के सकल सरोकारों से अपरूप कर सकती हैं . यह उनके   इमान दार नेत्रत्व से ही उम्मीद की जा सकती है . इस दौर में जो  अधिकांश क्षेत्रीय- भाषाई और मज़हबी  पार्टियां राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा के लिए कुख्यात हो चुकी हैं उन्हें नसीहत अवश्य दी जाए और अखिल भारतीय स्तर  के  दलों  को  ज्यादा  महत्व  दिया  जाए .    देश के बुद्धिजीवियों ,छात्रों,किसानो,नौजवानों, और सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि  उचित हस्तक्षेप करे .जरुरत हो तो खुल कर राजनीति  भी करे . राजनीती कोई अपावन  वस्तु  नहीं अपितु राष्ट्र के सञ्चालन की परम आवश्यकता है . गठबंधन राजनीती भी  इतनी अपवित्र नहीं की दुनिया के बदनाम फासिस्टों,तानाशाहों और धर्म आधारित कट्टरवादियों के सामने सीना तान के न चल सके . गठबंधन धर्म और तत्सम्बन्धी राजनीती  के भारतीय जनक कामरेड ज्योति वसु थे .  सबसे पहले उन्होंने ही 'कामन मिनिमाम प्रोग्राम ' का कांसेप्ट गठबंधन के दलों को एकजुट करने बाबत दिया था . बाद में लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने ज्योति वसु की नक़ल की . उन्होंने ही  उन्नीस सौ सडसठ में वाम मोर्चा  बना कर बंगाल की महा बदनाम सिद्धार्थ शंकर रे सरकार को उखाड़ फेंका था . बाद में इंदिरा कांग्रेस ने सत्तर के दशक में भाकपा को  , जनसंघ ने हिन्दू महा सभा को  ,जयप्रकाश ने समाजवादियों को  ,वी पी सिंह ने जन-मोर्चा को  , चन्द्र शेखर ने  जनता पार्टी को , गुजराल - देवेगौडा ने  संयुक्त मोर्चे को अटल बिहारी वाजपेई ने  एन डी ऐ  को इसी लाइन पर देश की सत्ता के काबिल बनाने का प्रयास किया और ये वर्तमान की यु पीए सरकार को  सोनिया गाँधी ने गठबंधन  से चलाकर  कोई गुनाह  तो नहीं किया .  जब खंडित जनादेश हो तो इसके अलावा विकल्प ही क्या रह जाता है .  यु पी ऐ प्रथम से ये यूपीए द्वतीय ज़रा ज्यादा ही बदनाम हो चली है .
                      जबकि यु पी ए  द्वतीय में सभी अलायन्स पार्टनर्स सत्ता में साझीदार हैं  या थे और अपने-अप ने क्षेत्रीय अजेंडे को लेकर  {जो की 'भारत राष्ट्र' के एजेंडे से मेल नहीं खाते }  निरतर आंतरिक सत्ता संघर्ष में व्यस्त   रहते हुए  इस वर्तमान सरकार के प्रमुख  घटक   दल -कांग्रेस को पूर्ण  रूपेण  'राज्य-सञ्चालन'  के  अधिकार  से  महरूम किये हुए हैं . सत्र साल बाद कोई कांग्रेसी रेल मंत्री बजट पेश कर पाया है यह गठबंधन राजनीति  की ही बलिहारी है . देश में केंद्र -राज्यों के और आपस में राज्यों के भी कई विवाद तब भी पेंडिंग थे जब केंद्र में किसी एक दल की ही  तूती  बोला करती थी और अब भी वे पुराने मुद्दे यथावत हैं जबकि केंद्र और राज्य दोनों   स्तरों  अपर आजकल गठबंधन सरकारें सत्तासीन  हैं .अर्थात देश के विकाश और अमन चेन के लिए' गठबंधन'  या एक्चाल्कानुवार्तित्व में से कोई भी  सिद्धांत अपावन नहीं हैं . वशर्ते शशक  वर्ग की कतारों  में ईमान दारी ,उत्कृष्ट  इच्छा शक्ति   हो , अधुनातन  विज्ञान  सम्मत  विजन हो  तो चाहे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय  या गठबंधन  कोई भी इस लोक तंत्र में अवांछनीय या अप्रसांगिक नहीं है है . सभी विचारधाराओं का सभी मजहबों का,और सभी संस्कृतियों का सम्मान करना हम भारतीय को आता है . माओ जे दोंग ने कहा था ;-

  "  बिल्ली काली हो या सफ़ेद , यदि चूहे मारकर खा जाए तो काम की है वरना बेकार है…"
    श्रीराम तिवारी
                                                

रविवार, 24 मार्च 2013

हिन्दी क्षेत्र की चुनोतियाँ ओर उसके अददतन विमर्श



         



     डिजिटल नेटवर्क ,इलेक्ट्रोनिक मीडिया, इन्टरनेट,ब्राड-बेंड ,सोशल-मीडिया,प्रिंट-श्रव्य-दृश्य तमाम
       तरह के परम्परागत और अधुनातन संप्रेष्य माध्यमों  के पुरजोर दोहन के वावजूद वैश्विक क्षितिज
       पर भारतीय जनता का बहुत बड़ा हिस्सा-जिसे  जन-साधारण या आम आदमी  भी कहते हैं ,अपने हिस्से के -जंगल-जमीन-और  आसमान से इस 2 1  वीं शताब्दी में भी  महरूम है. साहित्यिक परिद्रश्य में भी उसे हासिये पर धकेल दिया गया है.  बकौल डॉ रामविलाश शर्मा - 'हिंदी जाति'  के  दमन-शोषण-उत्पीडन  के कारक उसकी सामंत युगीन मानसिकता और नव्य -आर्थिक  उदारीकरण के बीजक में मौजूद हैं .....!
    
                                                   हो सकता है की  कुछ क्षेत्रीय भाषाओँ के उदयगान में आम आदमी और उसके  सामाजिक-राजनैतिक,आर्थिक और साहित्यिक सरोकार परवान चढ़े हों किन्तु हिंदी क्षेत्र या यों कहें की
 "हिंदी-भारत" में तो न केवल आम आदमी बल्कि तथाकथित 'खास' और  सभ्रांत लोक अर्थात ' भद्रलोकीय' जन-मानंस भी  अपने आपको  इस २ १  वीं  शताब्दी के दूसरे  दशक के  लागू होने तक -प्रतिबिंबित नहीं कर पाया है.
   इस सिलसिले में मैं अपना निजी अनुभव साझा करना  उचित समझता हूँ :-
                            
        एक राष्ट्रीय 'श्रम संगठन' को अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के साथ मिलकर   पूरे राष्ट्र के कोने-कोने में
    बाकायदा अपनी वैचारिक शिद्दत के साथ स्थापित कराने में मेरा कुछ साहित्यिक किस्म के लोगों से भी  मिलना -जुलना होता रहा  है  .सांगठनिक सम्मेलनों -सेमिनारों अथवा अधिवेशनों  में अपनी विभागीय और पूर्व घोषित कार्यसूची के आलावा 'भाषा-साहित्य-संगीत और कला' के लिए भी  हमारे आयोजक  बहुत गंभीर और उत्साही तो होते ही थे, वे यह प्राणपन से यह सावित करने में भी  जुट जाते थे कि यदि मुंबई वालों ने इतना किया ,तो हम चेन्नई वाले उनसे कम नहीं ....और कोलकाता  वाले भी  उनसे कम नहीं ...और लुधियाना वाले उनसे ज्यादा साहित्यिक -सांस्कृतिक हैं  तो इंदौर वाले या लखनऊ वाले बेंगलुरु से कम नहीं। लुब्बो-लुआब ये की कोई किसी से कम  सुसंस्कृत नहीं दिखना चाहता था .इस दीर्घकालीन देशाटन के दौरान मैंने  अनुभव किया कि  हमारी तथाकथित "राष्ट्रभाषा-इन वेटिंग"  हिंदी सबसे निचले और दयनीय पायदान पर  सहमी हुई सी बैठी  हुई   है .उत्तरप्रदेश,बिहार,राजस्थान,मध्यप्रदेश,दिल्ली,हिमाचल,छ्ग़. उत्तराखंड,झारखंड में पूर्णतः और कमोवेश   लगभग पूरे भारतीय  उपमहादीप में  बोली-समझी जाने वाली 'राजभाषा' हिंदी एक क्रीत  दासी के मानिंद अपनों के ही द्वारा बहिष्कृत- तिरष्कृत  होकर ' हिंदी  जाति "  को  वैश्विक स्तर  पर श्रीहीन करती प्रतीत हो रही है . हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषाई और साहित्यिक सृजन यथेष्ट है किन्तु जन-मानस  के सरोकारों वाला साहित्य बहुत कम है. कुछेक जनवादी-प्रगतिशील पत्र -पत्रिकाएँ  जो स्थापित वैचारिक केन्द्रों से  घाटा उठाकर निकलतीं  हैं  वे भले ही वैज्ञानिक कसौटी पर  खरी उतरती  हों   और देश की आवाम के हितों की चिंता करती हैं किन्तु उन्हें भी हिन्दी क्षेत्र की विराट आवादी तक  उनके ईमानदार प्रकाशकों  की आर्थिक मजबूरियों  या अनैतिक वित्त पोषण के अस्वीकार्य   के कारण ,सर्वत्र  पहुंचा पाना असंभव होने से इस क्षेत्र में आम आदमी की वैचारिक -सामाजिक-राजनैतिक-अंतर्राष्ट्रीय-साहित्यिक समझ का नितांत आभाव  बना हुआ है.
देश के  चंद मुठ्ठी भर संगठित क्षेत्र के कामगार अवश्य अपने-अपने जन-संगठनों के मासिक-त्रिमासिक पत्र -पत्रिकाओं को उनके प्रगतिशील और  संघर्ष कारी तेवर के साथ प्रकाशित करते हुए परम्परों के निर्वहन में साझीदार बने हुए हैं . दुर्भाग्य से देश की आवादी का  विराट अर्ध-निरक्षर- असंगठित   हिस्सा ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र"भारतीय-गणतन्त्र " के नीति-नियामक -नियंताओं का चयन करता है और आज़ादी के ६६  साल   बाद भी  अपनी बदहाली पर उन्हें ही रात-दिन कोसता रहता है जिन्हें की वो हर पांच साल में  खुद चुनता  रहता है.  इसी में वो लोग हैं जो गाँव में 2 2  रुपया और शहर में 3 2  रुपया रोज प् जाएँ तो गरीब नहीं कह्लाएंगे ? इनको सत्यजित रे  आजीवन फिल्माते रहे,इन पर तमाम मिशनरीज ऑफ़  चेरेटीज़  ने आंसू बहाए, इन पर कवियों ने गीत लिखे, इन पर शायरों ने शायरी की और इन पर 'स्लिम डॉग  मिलियेनर्स ' बनी  इन पर देश  की संसद में क़ानून बने  कुछ मनरेगा  और खाद्यान्न सुरक्षा क़ानून बनाने से राहत की उम्मीद भी बनी किन्तु 'महाभ्रष्ट व्यवस्था' ने आम आदमी को रहत दने के बजाय  महंगाई नामक नागपाश में बाँध दिया ओर उधर नव्य -उदारवादियों के झांसे में आकर साहित्य के ठेठ देशी  लंबरदारों ने आम आदमी को साहित्य के एरिना से  ही  बाहर कर दिया . इस मेहनतकश वर्ग को जाति .धर्म,खाप,और क्षेत्रीय राजनैतिक सांडों  का रातिब बना डाला .  इस प्रतिगामी दौर में भी देश के प्रगतिशील और वामपंथी  साहित्य सर्जकों ने   जन-सरोकारों के इस विमर्श  को जिन्दा रखा . हिंदी साहित्य के लिए प्रगतिशील विरादरी में हमेशा  सम्मान का भाव विराजित रहा है .
               इसका सबसे बेहतरीन प्रमाण  ये है की  जन- आकांक्षी  क्षेत्रीय भाषा साहित्य में केरल प्रथम पायदान पर है.  वहां घर-घर,गाँव-गाँव,गली-गली,न केवल  मलयालम अपितु अंग्रेजी-संस्कृत और दीगर देशी-विदेशी भाषाओँ का प्रगतिशील साहित्य  -मासिक-पाक्षिक-साप्ताहिक-दैनिक और "सर्वकालिक-जन-साहित्य'  उपलब्ध है. लगभग सभी साक्षर हैं और सभी की राजनैतिक -सामाजिक चेतना अखिल भारतीय पैमाने पर क्रमोन्नत है.  वहाँ हमेशा हिंदी सीखने -सिखाने और अखिल भारतीय सेवाओं में   अपने लिए स्थान प्राप्त करने की सदाशयता विद्द्य्मान रही है .
               निसंदेह ई .एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर बी एस अचुतानंदन तक के  साठ  सालाना  प्रगतिशील  साहित्यिक अनुशीलन का ये प्रतिफल है और भले ही राजनैतिक हेर-फेर में सत्ता कभी वामपंथ के पास तो कभी कांग्रेस के पास हुआ करती है किन्तु साहित्य के जन-सरोकार हर हाल में विमर्श के केंद्र में ही हुआ करते हैं . लगभग यही स्थिति पश्चिम बंगाल की है जहां पर साहित्य -संगीत-कला को 'इंसानियत' के लिए दशकों पहले परिभाषित किया जा  चुका  है और जहां पर 'कला-कला  के लिए' कहने  वाला  अजायबघर का या सामंत युग का प्राणी समझा जाता है.  कामरेड ज्योति वसु,बुद्धदेव भट्टाचार्य और गुरुदास दासगुप्ता  इत्यादि ने  न केवल  राजनैतिक मोर्चे पर अपितु साहित्य और समाज की नव-संरचना को नै उचाइयां प्रदान की थी . वर्तमान में  भले ही प्रगतिशील वाम मोर्चे को एक 'ब्रेक' लगा हो किन्तु प्रगतिशील - धर्मनिरपेक्ष -वर्गविहीन  समाज की  अवधारण  से  लेस जनवादी मूल्यों, साहित्यिक सरोकारों में बँगला साहित्य अभी भी भारत में बेजोड़ है. त्रिपुरा में भी प्रोग्रेशिव साहित्य प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो रहा है और  वहां  के आम आदमी और आदिवासी के बीच का  फासला खत्म होने को है. असमानता और शोषण से विमुक्ति के साधन  का दूसरा नाम वहाँ 'साहित्य' ही है भले ही वो सिर्फ बांगला ही क्यों ना हो?
                             महाराष्ट्र,गुजरात,तमिलनाड, कर्नाटक,पंजाब  में भी अपनी-अपनी  क्षेत्रीय भाषाओँ के परचम लहरा रहे हैं,भले ही इन प्रान्तों में क्षेत्रीयतावादी और कट्टरतावादी  विचारधाराएँ  परवान चढ़ रहीं है किन्तु वे अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं  को राष्ट्रीय परिदृश्य में सामंजस्य बिठाकर कोई न कोई विवेकपूर्ण राह अवश्य निकाल  सकते हैं बशर्ते क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के मद्देनज़र महज़ वोट की राजनीती से साहित्यि को दूर  रखा जाए . बहरहाल यहाँ मेरा कथन यह है कि  इन क्षेत्रीय भाषा विमर्शों के सापेक्ष हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषाई और साहित्यिक सरोकार न केवल दयनीय हैं अपितु वेहद शर्मनाक   और चिंतनीय भी हैं .  जिसे आप असली भारत -ठेठ भारत भी कह सकते है।  हिंदी भाषी पाठकों  की संख्या महज १ ० % है जबकि हिंदी  क्षेत्र की जन् संख्या ८ 0  करोड़ है . यही एक खतरनाक फेक्टर है जो ' हिंदी जाति ' को वैश्विक फलक पर सम्मान नहीं दिला पा रहा है . सिर्फ पाठकों की कमी का  सवाल नहीं तदनुरूप उत्क्रष्ट कोटि के   हिंदी -साहित्य सर्जन  की   कमी भी एक अहम् प्रश्न है .
                        अव्वल तो इस  हिंदी क्षेत्रों  की 7 0 % आबादी गाव् -देहात में -अति पिछड़े क्षेत्रों में वैसे ही उत्कृष्ट शिक्षा से और  अधुनातन वैश्विक मानको की पकड़  से कोसों दूर है,  दूसरी बात ये कि  महज अखवार भी किसी गाँव में पहुँच गया  तो कोई भी पढने वाला नहीं या किसी को अपनी खेती-किसानी,हल-बेल से फुर्सत नहीं या  कि  देश -दुनिया के  नक्से में अपनी स्थिति चिन्हित कर सके वो लियाकत नहीं।  डिजिटल नेटवर्किंग,इन्टरनेट या सोशल नेट्वोर्किंग के लिए 'दिल्ली इतनी दूर है' कि  पीने के पानी के लाले पड़े हैं तो बिजली महीने में एक -दो बार ही आती है . हिंदी क्षेत्र की इस आबादी को आप  केवल वही सर्वनाम दे सकते हैं जो जस्टिस काटजू ने कभी [नब्बे प्रतिशत मूर्ख] प्रयोग किया था .  शेष 3 0 % आबादी में से 1 0 % हिस्सा वो है जिसके सरोकार वर्तमान युगीन वैश्विक-उदारीकरण -भूमंडलीकरण और मुनाफाखोरी से है ,उसके सरोकारों से आम आम आदमी अर्थात मेहनतकश जनता के सरोकारों का टकराना स्वभाविक है.  इस वर्ग का साहित्यिक विमर्श और रुचियाँ 'कला-कला के लिए' से अभिप्रेरित हुआ करती है  अतेव इस सभ्रांत लोक का साहित्यिक स्वाद वाल स्ट्रीट  के जायके से मेल  खाता  है   ,इस वर्ग का शब्द कोष-शेयर बाज़ार,मंदी,रेपो-रेट ,वायदा बाज़ार, से शुरू होकर नितांत निजी  स्व्राथों के   र्शुभ -लाभ  की देहलीज पर समाप्त होता है. यह प्रभु वर्ग देश के हितों को  दाँव  पर लगा सकता है, चारा  ,2 -G  ,स्पेक्ट्रम,बोफोर्स,सुखोई,हेलीकाप्टर, सब कुछ खा  सकता है,  गरीबों की जमीने हड़प सकता है,घटिया पुल , घटिया  सड़कें और घटिया समाज के निर्माण में सहभागी हुआ करता है .  मनरेगा   का पैसा खा सकता है . सम्पूर्ण  भ्रष्ट व्यवस्था के संचालन में बेइमान ब्यूरोक्रेट्स नेता और दलालों की तिकड़ी का जून्टा यह वर्ग अपने लिए सारा का सारा आसमान और धरती सुरक्षित चाहता है .  इस वर्ग को ' भूस्वामी-सरमायेदारों का गठजोड़" भी कह सकते हैं . इस वर्ग का पतनशील अधोगामी  साहित्य 'सूरा-सुन्दरी-नव-वित्त पूंजी " के  विमर्श में   रचा  जाता है . मध्यप्रदेश में तो  एक मामूली पटवारी पर छापा पड़ने पर चार सौ करोड़ की सम्पत्ति निकलती है तो पता  लगता है  कि   वो कोई पत्रिका और वो भी हिंदी की कभी नहीं पड़ता वो सिर्फ  और सिर्फ रिश्वत के लिए पैदा हुआ है , पत्रिका खरीदने का तो सवाल ही नहीं . उसे अंग्रेजी नहीं आती  शायद हिंदी में कर्ता  और कर्म का फर्क भी वो नहीं जानता  किन्तु वह सिस्टम का प्रजा होकर इस राष्ट्र को घु न की तरह निगल रहा है . हर महकमें 9 5 % महाभ्रष्ट काबिज हैं . सबको मालूम है किन्तु जब कलम या तो मौन हो या बिक चुकी हो तो  इतिहास गवाह है न तो देश की सीमायें सुरक्षित रह सकेंगी और न मुंबई, हैदरावाद,गोधरा,कांड रुकेंगे . जब चीजें बेकाबू हो जाएँ कोई रह न सूझे तो वहाँ पर साहित्य अपनी क्रन्तिकारी भूमिका में अवतरित होकर राष्ट्र का उद्धार करता है .  इतिहास साक्षी है कि अपने-अपने दौर के युवाओं ने साहित्य के माध्यम से  इस तथ्य को जाना और देश समाज के लिए कुर्वानी दी . इस दौर के युवा क्या चाहते हैं वे ही तय करें .मार्ग दर्शन के लिए स्वामी विवेकानंद ,शहीद भगतसिंह  महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स और लेनिन मौजूद हैं .
                 हिंदी क्षेत्र की शेष 2 0 % आबादी  जो की शहरी ओरे कस्वाई  युवाओं से संपृक्त है वो आधुनिकतम सूचना एवं संचार क्रांति का सम्बाहक तो है किन्तु उसे उस साहित्य का ककहरा भी नहीं मालूम जिससे फ्रांसीसी क्रांति  ,वोल्शैविक क्रांति,युरोपियन पुनर्जागरण,भारतीय स्वाधीनता -संग्राम , चायनीज क्रांति, और  विश्व सर्वहारा  का मेनिफेस्टो-"कम्मुनिस्ट घोषणा-पत्र "  तैयार  हुआ . जिस साहित्य को पढ़कर स्वामी विवेकानंद जी , खुदीराम बोस ,उधमसिंह,फेज़-अहमद फेज़, शहीद भगत सिंह विश्व वन्दनीय हुए , जिसे पढ़कर शहीद गणेश शंकर विद्द्यार्थी और लोकमान्य बाल गंगा धर तिलक  धन्य  हुए,  जिसे पढ़कर गाँधी जी,जयप्रकाश,जी नेहरु जी,डॉ राधा कृष्णन जी  तथा तमाम जनवादी-प्रगतिशील साहित्यकार धन्य  हुए,  जिसे पढ़कर सारे संसार ने - भ्रातत्व-समानता-मुक्ति  का शंखनाद किया उस साहित्य से हिंदी क्षेत्र का  वर्तमान युवा वर्ग कोसों दूर है .  जबकि केरल, बंगाल त्रिपुरा, ही नहीं बल्कि देश के अंदरूनी भागों सुदूर छग और अंतरवर्ती उडीसा-झारखंड  में विश्वस्तरीय  साहित्य पढने वाले  हाजिर हैं ,हालांकि वे अपने इस ज्ञान  को गलत तरीके से परिभाषित कर भारत गणराज्य के खिलाफ  हथियार उठा लेते हैं , जो की भारतीय जमीनी सच्चाइयों से मेल नहीं खाता.  लेकिन यह कटु सत्य है कि  यह आधुनिकतम सुशिक्षित युवा वर्ग इलेक्ट्रोनिक मीडिया,डिजिटल नेटवर्क,जिएसेम ,इन्टरनेट  इत्यादि अधुनातन उन्नत सूचना एवं संचार प्रोउद्द्गिकि  का जानकार ओर  उपभोक्ता  होने के वावजूद  तब तलक  आधा अधुरा इंसान ही है  जब तक की वो अपने - सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक और राष्ट्रीय सरोकारों को को नहीं जान लेता और ये जानने के  लिए -प्रगतिशील- धर्मनिरपेक्ष और जनवादी साहित्य का अनुशीलन जरुरी है .युवा वर्ग को चाहिए कि  वे मुंशी प्रेमचंद को जाने, गजानंद माधव मुक्तिबोध को जाने,शहीद भगत सिंह को जाने,स्वामी विवेकनद को जाने ,दुष्यंत कुमार ,रामविलाश शर्मा ,राहुल साङ्क्र्त्यायन को जाने.  न केवल इन  चन्द प्रगतिशील  महापुरषों को बल्कि वे कबीर,नानक,तुलसी रहीम,रसखान ,निराला और निदा फाजली को भी जाने.  वे महात्मा भीमराव आंबेडकर को भी जाने, बी ती रणदिवे और ई एम् एस को भी जाने .   भारतीय वांग्मय में कहा है :-०
    
    "साहित्य संगीत कला विहीनः  मनुष्य साक्षात् पशु पुच्छ  विषाण  हीनः "
   
        जिन लोगों ने पहले वेद -उपनिषद-पुराण-बाइबिल-कुरआन पढ़ी है वे माल्थस-एडाम स्मिथ डार्विन , रूसो , बाल्तेयर ,तालस्ताय, मार्क्स लेनिन, गोर्की और स्टीफन हाकिंस को पढ़ें और जिन्होंने सिर्फ साइंस तकनोलाजी या आधुनिक ज्ञान-विज्ञान  या तकनीकी में महारत हासिल कर ली है वे उस  भारतीय वांग्मय का अनुशीलन करें जो भारतीयता की बुनियाद है।
                                                  
       हिंदी क्षेत्र के युवाओं को वेशक कतिपय एतिहासिक कारणों से न केवल आजीविका के लिए , न केवल जिजीविषा के लिए अपितु अपने श्रम के उचित मूल्य और मानव कृत  असमानता से जूझना पड़ता है.  उन्हें इस हीन ग्रुन्थी से उभरने में  केवल और केवल 'प्रगतिशील" साहित्य सृजन -अनुशीलन और तदनुरूप जन-संघर्षों में शिकत ही बढ़त  दिला  सकती है.  इस हेतु  हिंदी साहित्य -कविता,नाटक,निबन्ध,लघु-कथा,इतिव्र्त्तात्मक,आलेख,और रिपोर्ताज इत्यादि की महती उपलब्धता,तथा  साहित्यिक विमर्श के उद्देश्य  से  किये जाने वाले उपक्रम स्तुत्य है।
                                                
       स्थापित पत्र -पत्रिकाओं में से आज  अधिकांस वे ही जीवित हैं जिनके सरोकार साहित्य के माध्यम से जन-हित- कारी अर्थात देशभक्तिपूर्ण थे. हंस,कादम्बनी  , वीणा और देशाभिमानी जैसी पत्रिकाओं के कलेवर कितने ही बदरंग हों किन्तु उन्होंने  अपनी 'अंतर्वस्तु' को सहेज रखा था इसलिए वे आज भी न केवल जीवित हैं बल्कि प्रगतिशील साहित्य में शुमार है। हिंदी क्षेत्र के लिए खुश खबर है  कि  नितांत नूतन प्रयोग करते हुए  मीडिया  और ज्ञान-विज्ञान में दक्ष कुछ  भारतीय युवा  नए प्रकाशनों को लेकर गंभीर हैं .इनमे "समृद्ध जीवन परिवार " की  पत्रिका 'लाइव इंडिया'प्रमुख है जिसके सी एम् डी -श्री महेश मोतेवार जी है  और  प्रधान संपादक  डॉ  प्रवीण  तिवारी हैं . जो की  "लाइव इंडिया" न्यूज़ चेनल के एग्जीक्यूटिव    डायरेक्टर  भी है। पत्रिका का कार्य क्षेत्र पूरा भारत है, यह  -1 , मंदिर मार्ग  नै दिल्ली से निकल रही है  उसमें कुछ युवा भारतीय एन आर आई वैज्ञानिकों  के अलावा देश-विदेश के श्रेष्ठतम  विद्वान  जुड़ रहे हैं . इस पत्रिका ने आउट-लुक और इंडिया टुडे की  वानगी  से भी आगे का सफरनामा शुरू किया है . विगत दिनों दिल्ली में इसके विमोचन  के शुभ अवसर पर सभी राजनैतिक दलों के दिग्गज नेता, मीडिया पर्सोनालिटी और जस्टिस काटजू इत्यादि उपस्थित थे .
                                  एक और उल्लेखनीय पत्रिका "फालो अप "  भी इसी तरह के तेज तर्राट तेवर के साथ  इंदौर  से  प्रकाशित होने लगी है। इसके एडिटर इन चीफ श्री श्री वर्धन त्रिवेदी हैं जो की जाने-माने सनसनी स्टार हैं। इस पत्रिका के एग्जीक्यूटिव एडिटर  कुंवर पुष्पेन्द्रसिंह जी चौहान और असोसिएट  एडिटर अमित तिवारी  हैं . इन दोनों मासिक पत्रिकाओं ने न केवल साहित्य बल्कि समाज के हर क्षेत्र में हल चल पैदा करने का शानदार आगाज किया है .  आशा करता हूँ की जनता के सवालों को, देश के सम्मुख उपस्थित  चुनौतियों को और 'आम आदमी ' की अपेक्षाओं को देश और दुनिया के सामने पेश करने की क्षमता  इन नए प्रकाशनों में अवश्य प्रतिध्वनित होगी .  हिंदी  और  हिन्दुस्तान की सेवा में जुटे इन युवाओं को कोटिशः शुभाशीष ....!
                                                श्रीराम तिवारी ......
                                                 
                                       अध्यक्ष -जन-काव्य-  भारती ...इंदौर [म.प्र]
                    
                                        




                                               

       


                                                                              




    

   

मंगलवार, 19 मार्च 2013

kshetreeyta ki bheer....[kavita]

  

     अखिल भारतीय  फलक पर ,  क्षेत्रीय दलों की भीर .

     मात्र बिहार के नाम पर,नितीश हुए अधीर ..



   निशि -वासर  मोदी जपें, म्हारो देश गुजरात .

   तमिल अस्मिता के लिए,करूणानिधि कुख्यात ..


  कांग्रेस बसपा- सपा,   नूरा  कुश्ती -जान .

  एन  डी ऐ की   फूट  को ,  जाने सकल जहान  ..



   यु पी ऐ  प्रवक्ता, बहुमत रहे बताय .

   बी जे पी के भाग से  , छींका  टूट  न पाय ..



        श्रीराम तिवारी 

karunaanidhi kyon roye ?




      पहले द्रुमुक -मुरासोली -दयानिधि- कावेरी और बाद में,

          ए  राजा ने भृष्टाचार के बीज बोये .

     जब मौका मिला  तो  जय् ललिता की सामंतशाही-

      ऐयाशी  को लांघकर सत्ता शिखर पर जाकर सोये ..

     अब  श्रीलंकाई तमिलों  पर सिंहली अत्याचारों  के बहाने,

       कुनवे  को बचाने के अपने  सपने संजोये .

      अब  संयुक राष्ट्र मानव अधिकार द्वारा निंदा प्रस्ताव पर,

        मगरमच्छ के आंसू    करुणा  करके करूणानिधि रोये ..



                         श्रीराम तिवारी


    

मंगलवार, 12 मार्च 2013

हमारी पुज्य माता जी श्रीमती राजमती तिवारी का लगभग ९५ वर्ष की दीर्घ आयु में ११ मार्च २०१३ को निधन हो गया है वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड़ गई है...  श्रीराम तिवारी एवं शोकाकुल परिवार.