शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

चंदन मित्रा को तो प्रोफेसर अमर्त्य सेन का शुक्र गुज़ार होना चाहिए.

   
     नोबल पुरष्कार से सम्मानित ,भारत रत्न और प्रख्यात अर्थशाष्त्री प्रोफ़ेसर अमरत्य सेन ने इन दिनों  राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए , शानदार ऐतिहासिक भूमिका अदा कर देश को सही दिशा दी है .   संघ परिवार द्वारा प्रोत्साहित भाजपा चुनाव समिति के प्रमुख और गुजरात के मुख्य मंत्री  नरेन्द्र मोदी को   बचे-खुचे  एनडीए की ओर से भावी प्रधान मंत्री प्रस्तावित करने पर प्रोफेसर अमर्त्य सेन को एतराज है .  वे नरेन्द्र मोदी को  गुजरात दंगों के लिए निर्दोष नहीं मानते . वे मोदी को धर्मनिरपेक्ष भी नहीं मानते .  उन्हें मोदी का  प्रजातंत्र  के प्रति अनादरभाव भी  पसंद नहीं .  इन तीनों खामियों के अलावा एक ओर खतरनाक बुराई मोदी में है जो प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन या तो  बताना भूल गए या जान बूझकर नजर अंदाज कर गए , वो है  नरेन्द्र मोदी का अर्थशास्त्र-  जिसमें केवल अम्बानियों ,बजाजों , बिड़लाओं ,मित्तलों,जिन्दलों , रेड्डीयों ,और टाटाओं को ही नहीं बल्कि देशी -विदेशी तमाम पूँजीपतियों को भरपूर संभावनाएं और  संरक्षण सुनिश्चित है .  लेकिन  इस  खूंखार   अर्थशाश्त्र   का चेहरा तो  विश्व बेंक के आईने में , एमएनसी के आईने में विगत बीस  सालों से भारत की निर्धन जनता देखती ही  आ रही है और  और इस भयानक अर्थशाश्त्र का दिग्दर्शन कराने  वाले का नाम है डॉ . मनमोहनसिंह ! प्रोफेसर अमर्त्य सेन इसकी भी  आलोचना  करते तो एक ही  वार से यूपीए और एनडीए धुल धूसरित  नजर आते , किन्तु प्रोफेसर अमर्त्य सेन का झुकाव शायद कांग्रेस की ओर है अतएव केवल धर्मनिरपेक्षता ,प्रजातंत्र और गुजरात के दंगों तक ही  उन्होंने अपनी बात सीमित रखी. ऐंसा करने से केवल नरेन्द्र  मोदी को ही  घेरा जा सकता था और यदि विकृत पूंजीवादी -उदारीकरण की आर्थिक नीति पर भी वे अपना रोष  प्रकट करते तो मोदी और मनमोहन दोनों को झटका लगता  किन्तु प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने केवल नागनाथ को जहरीला बताया है जबकि 'सांपनाथ ' जी साफ़   बच गए जबकि आधनिक भारत में चंद अमीरों की अमीरी बढाने और ६ ० फीसदी जनता को निर्धन बनाने के लिए डॉ मनमोहन सिंह की ही आर्थिक नीतियाँ जिम्मेदार हैं  भले ही कल  को मोदी जी या कोई अन्य  भी यही नीति अपनाएँ  किन्तु अभी तो जिम्मेदारी यूपीए और कांग्रेस की है और इसके लिए वे अकेले डॉ मनमोहन सिंह को ही नहीं  बल्कि  यूपी ऐ और बाहर से समर्थन करने वालों को भी जनता के बीच 'उघाड़' सकते थे .  किन्तु प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने अकेलें  मोदी की आलोचना कर  न केवल अपना रुतवा नीचे गिराया बल्कि मोदी को कुछ ज्यादा ही 'वेटेज' दिला दिया . संघ परिवार , भाजपा और उनके खडाऊं उठाऊ चन्दन मित्र को तो प्रोफेसर अमर्त्य सेन का शुक्र गुजार होना चाहिए .  
                                    प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन ने  नरेन्द्र मोदी को  साम्प्रदायिकता ,व्यक्तिवाद और अलोक्तान्त्रिकता  के मुद्दे पर तो  भूलुंठित   किया  किन्तु वैश्विक आर्थिक संकट  के  पिछलग्गू  वाले पूँजीवादपरस्त  नरेन्द्र मोदी को  दिगम्बर नहीं किया क्यों ?  शायद प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन  को वैकल्पिक  आर्थिक नीतियों और परम्परा गत आर्थिक सुधारों के अन्तर्विरोध को  देश के सामने लेने के लिए कुछ और वक्त चाहए .जबकि आम चुनाव नजदीक है और देश आर्थिक संकट में चौतरफा फंसता जा रहा है .  यदि  यूपीए की जगह एनडीए  को सत्ता का अवसर मिलता है तो निसंदेह नरेन्द्र मोदी  की ही  ताजपोशी  होगी और तब यह प्रश्न ही नहीं उठता कि उनकी आर्थिक नीतियाँ क्या होंगी ? वे समाजवाद से  कोसों दूर हैं फिर भी गाहे -बगाहे गरीबो- मजदूरों - किसानों की चर्चा तो करते हैं किन्तु आचरण में  अटल नीति एनडीए की तरह घोर पूंजीवाद परस्त  हो जायंगे . अभी तक उन्होंने वह खुलासा नहीं किया कि जब वे प्रधानमंत्री होंगे तो किस तरीके से भ्रष्टाचार    पर अंकुश लगायेंगे ?किस तरह गाँव के गरीब को २ ६ रूपये से उपर और शहरी गरीब को ३ ६ रूपये से ऊपर  की क्रय क्षमता पर ले  जायेंगे ?  कांग्रेस और यु पी ऐ ने तो वामपंथ के सुझावों में से कुछ पर अमल करते हुए गाँव में २ २ रूपये से २ ६ रूपये और शहर में ३ २  से ३ ६ रूपये   की तरक्की  करा  दी है . ये बात अलहदा  है  कि रूपये की इतनी दुरगति हो गई है कि डालर के सापेक्ष यह तरक्की झूंठ का दस्तावेज मात्र है .
                       गनीमत है कि  चन्दन  मित्रा  और संघ परिवार के पिछलग्गुओं  ने प्रोफ़ेसर अमर्त्य सेन से  केवल 'भारत रत्न ' ही वापिस माँगा है, उनका वश चलता तो' नोबल '   भी वापिस मांग लेते . प्रोफेसर अमर्त्य सेन  साहब   ने अपने  तूणीर में अर्थशाश्त्र के जो तीर  रख छोड़े हैं वे शायद किसी खास दौर और खास मकसद के लिए होंगे वरना  वे नरेन्द्र मोदी को इतने सस्ते में नहीं निपटाते बल्कि वे चाहें तो अपनी विद्वता और विचार शक्ति से  राजनैतिक धुर्वीकरण  की दिशा भी बदल सकते हैं .

     श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

भारत में सांप्रदायिक संघर्ष नहीं ' वर्ग संघर्ष' आवश्यक है ...!

               

      कभी   मक्का से मदीने का ,कभी दमिश्क से बग़दाद का ,  कभी येरुशलम से  जॉर्डन  का ,कभी तुर्की से फारस का   एवं  फारस का रियाद से तथाकथित 'खिलाफत का संघर्ष '-  पवित्र इस्लाम की रक्षा के बहाने विशुद्ध  'सत्तात्मक संघर्ष ' था .लगभग चौदह सौ सालों के  रक्तरंजित इतिहास में 'कर्बला का संघर्ष 'अवश्य ही सत्य और न्याय के लिए था  .हालांकि  उसके मूल में भी सत्ता का ही संघर्ष विद्यमान था।उमैयाओं का कुरेशों  से  ,तुर्कों का उज्वेगों से , उज्वेगों का ईरानियों से ,  ईरानियों  का मुगलों  से और मुगलों का अफगानों से  अनवरत चलते रहने वाले संघर्ष में इस्लाम के विभिन्न मतों के आंतरिक संघर्ष  की दुहाई भले ही दी जाती रही हो किन्तु वस्तुतः  तो सत्ता का ही संघर्ष था। वेशक इस जेहादी संघर्ष में कौम की भलाई  और इस्लाम के उसूलों की  वकालत कम ,अपितु अपने -अपने क़बीलों के वर्चस्व और रीति-रिवाजों के  प्रति दुराग्रह  ज्यादा  परिलक्षित होते रहे हैं .  बाज़-मर्तबा सच्चाई पर चलने वालों   को भी  सिर्फ इस वजह से घोर कष्ट उठाने पड़े या  'हलाक़ होना पडा क्योंकि वे  इस प्रकार के  खूनी संघर्ष से गैर इस्लामिक संसार  को ध्वस्त करने के हिमायती नहीं थे .
                                               इस रक्तरंजित  संघर्ष ने न केवल इस्लामिक दुनिया में बल्कि  सारे संसार में प्रगतिशील   मानवतावादी सिद्धांतों को अपनाने के लिए  बल प्रयोग के सिद्धांत पर अमल किया . इस बलात धर्मपरिवर्तन  या किसी भी तरह के आयातित  कबीलाई सभ्यता  को   भारतीय उपमहादीप में  भी यूरोप की तरह प्रतिरोध का सामना करना पड़ा .  चूँकि यूरोपियन सभ्यता पर ईसाइयत बनाम पोप की प्रभुसत्ता को   मजबूती से स्थापित हुए सदियाँ बीत चुकीं थींऔर वे युद्ध के नए-नए हथियारों से लेस हो चुके थे, इसलिए  अरबों और तुर्कों को यूरोप में कोई  खास सफलता नहीं मिली . कई जगहों पर शिकश्त भी मिली .  किन्तु  भारत में इन आक्रान्ताओं को ज्यादा प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा . क्योंकि उस दौर में भारतीय समाज पर जैन और बौद्ध 'मतों' का प्रभाव अधिक था .  शुद्ध शाकाहारी  किन्तु  छूआछूतवादी  वैष्णव् ,ब्राह्मण-वैश्य,और शूद्र वर्ण  भी अधिकांश  अहिंसा वादी होने के साथ -साथ सहिष्णु  थे .  "सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया …" के सिद्धांत को पसंद करते थे ,अतः इस्लामिक जेहाद के नाम पर किये गए तमाम आक्रमणों के दौरान  तत्कालीन भारतीय आवाम ने यूरोपियन आवाम की तरह कोई संगठित प्रतिवाद नहीं किया . केवल राजे-रजवाड़े और सामंत  ही अपने पुरातन हथियारों और  मुठ्ठी भर सेना  के साथ  विदेशी आक्रमणकारियों से जूझते रहे .मुहम्मद-बिन-कासिम ,महमूद गजनवी ,मुहम्मद गोरी ,खिलजी  ऐबक ,,तुगलक ,तुर्क और मंगोल याने मुगल कोई भी आक्रमणकारी स्वतंत्र शासक नहीं था . अधिकांस किसी न किसी बादशाह  या खलीफा के गुलाम थे. भार त से लूटकर जो भी सम्पदा वे हासिल करते थे ,उसमें से  मय कमसिन जवान हिंदुस्तानी लड़कियों के  वे'तत्कालीन 'खलीफा'  के समक्ष पेश करने के लिए बाध्य होते थे . जो ऐंसा नहीं करता था उसे  बिन-कासिम की तरह बीच रस्ते मरवाकर टुकड़े-टुकड़े करवाकर बोर में भरवाकर 'खलीफा ' के सामने पेश किया जाता था . इन जुल्मतों को भुलाकर भी भारतीय आवाम ने हमेशा  इस्लाम को  मानने वालों  को यथोचित सम्मान दिया .
                          भारतीय सामंतों के आपसी संघर्ष और जनता में घोर जातीय विभाजन के  कारण- बाह्य आक्रमणकारी भारत के  कुछ हिस्से पर काबिज तो हो गए किन्तु वे अधिशन्ख्य जनता को अपने 'मजहब '   में शामिल करने में फिर भी  विफल रहे . संभवत : उनका मकसद भी मजहब  से अधिक  राज्यसत्ता  प्राप्ति ही हुआ करता था . कभी कभार  किसी कट्टर वादी ने भले ही कोशिश करके देख ली हो किन्तु उसे भी उतनी सफलता नहीं मिली ,जितनी प्यार-मोहब्बत   का पैगाम  देने वालों , मानवीय सम्वेदनाओं के समवाहक-सूफ़ीसंतों  , पीरों  ,औलियों और फकीरों  को  सफलता प्राप्त  हुई . भारत के तत्कालीन जातिवादी -छुआछूत से पीड़ित और सभ्रांत  समाज से बहिष्कृत लोग और   जो लोग अन्यान्य कारणों से  परित्यक्त थे वे मजबूरी में   विदेशी हुक्मरानों के नौकर-चाकर बन गए और कालान्तर में उन्होंने इस्लाम भी  स्वीकार  कर लिया। इसके अलावा यदा-कदा जोर जबरजस्ती  तथा प्रलोभन से भी भारतीय समाज के एक छोटे से हिस्से का इस्लाम में समाहित होना संभव हुआ ,किन्तु  चूँकि भारत में इस्लाम के पूर्व से ही एक शाश्वत मजहब या रिलिजन के रूप में  सशक्त     'सनातन-धर्म '   विद्यमान था  और उसका अपना व्यापक प्रभाव था इसलिए अधिकांस आवाम ने अपने धर्म या सिद्धांत नहीं बदले . इस्लामिक शासकों के दौर में जब जब सिखों ,ब्राह्मणों ,बनियों , राजपूतों और दीगर समाजों पर मजहब परिवर्तन का दवाव  बढ़ा तो  भी   इन गैर इस्लामिक जमातों ने अपना  मजहब नहीं बदला अनेकों उदाहरण हैं जो इतिहास में 'गुरु गोविन्दसिंह , गुरु तेग बहादुर'  जैसे बलिदानों से भरे पड़े  हैं . उस दौर में भारत  में निसंदेह सत्ता संघर्ष ने साम्प्रदायिक संघर्ष का रूप धारण  कर लिया था . आजादी की लड़ाई में जब हिन्दू -मुस्लिम एक होने लगे तो  अंग्रेजों ने अतीत के दुर्भाग्यपूर्ण इतिहास से गुण-स्सोत्र लेकर भारतीय समाज को जाति-धरम -मजहब में बांटने के उद्देश्य से अनेक चालें चलीं और देश का बँटवारा कर वापिस विलायत चले गए ,साम्प्रदायिकता का जो बीज  अंग्रेजों ने बोया था उसकी फसल आजादी के बाद न केवल भारत बल्कि पाकिस्तान के हुक्मरान बखूबी काटते चले जा रहे है और जनता बुरी तरह साम्प्रदायिकता के चंगुल में फंसी हुई है .                                                                                      
                           इस देश में अतीत में अनेक धर्म-पंथ -मत-दर्शन और सिद्धांत थे ,नास्तिक भी थे और नास्तिकों को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त था किन्तु  किसी तरह का साम्प्रदायिक दुराग्रह नहीं था . सभी ओर से आवाज आती  थी:-


                     " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख्भाग्वेत … "
 
            "  विश्व का कल्याण हो ,सभी प्राणियों में सद्भावना हो , ब्रह्म एको द्वतीयो  नास्ति … "

       "अयम निजः परोवेति गणना लघु चेतसाम ,उदार चरिताम तू वसुधेव कुटुम्बकम …."

 इन वैदिक या सनातन  मूल्यों और इस्लाम के सिद्ध्नातों में बेहद समानता होने से दोनों ओर के अनुयायी  एक दुसरे का सम्मान करते हुए भी  अपने-अपने सिद्धांतों पर अटल रहने को  स्वाभाविक रूप से संकल्पित थे किन्तु जिस तरह  दुनिया के अधिकांस  सत्ताधीशों ने आवाम को बांटकर राज्य संचालन के  सूत्र अंग्रेजों से ही सीखे हैं, वैसे ही भारत पाकिस्तान के हुक्मरानों ने  भी इन्ही कुटिल नीतियों को आज तक इस्तेमाल किया है  क्योंकि अंग्रेज दुनिया पर राज कर चुके हैं और इस सिद्धांत को  दुनिया भर में आजमा चुके हैं .
                                                  शेष विश्व की तरह भारतीय उपमहादीप में भी  उपनिवेशवादियों  द्वारा     इस्लामिक   और   क्रिश्चियन आक्रान्ताओं  के रूप में   अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए;साम- दाम-दंड -भेद का प्रयोग किया जाता रहा   था.  भारत में  आजादी के दौरान जब हिन्दू महा सभा ,मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ गठित हुए तो जनता को साम्प्रदायिक आधार पर  विभाजित करना और आसान हो गया .   परिणाम स्वरूप  भारत में साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ . सनातन मूल्यों  की हिफाजत और अन्ध   राष्ट्रीयतावाद  के कारण   न केवल  साम्प्रदायिक संघर्ष तीव्र होता चला गया  बल्कि नव-उपनिवेशवाद के रूप में  साम्राज्यवादियों की आर्थिक गुलामी का आगाज होता चला गया .  वैसे भी अतीत में  भारत कभी भी धर्म निरपेक्ष राष्ट्र नहीं रहा .कभी मनुवाद- ब्राह्मणवाद ,कभी  क्षत्रीय  प्रभुत्व का सामंतवाद ,कभी बौद्धवाद ,कभी जैन् वाद ,कभी 'सवर्णवाद '  कभी 'आर्य् वाद ' कभी द्रविण वाद ' कभी 'अहिंसा वाद ' को राज्य आश्रय मिलता रहा है . मुगलों और तुर्कों ने यदि इस्लाम को संरक्षण दिया तो युरोपियन कौमों ने ईसायत  के लिए सब कुछ किया . केवल हिन्दुओं का कोई उदाहरण नहीं जब किसी राजा या सम्राट ने 'हिंदुत्व ' को संरक्षण दिया हो !  आज जब दुनिया में ईसायत और इस्लामिक संसार में सभ्यताओं के संघर्ष छिड़े हैं तब  भारतीय समाज  अपने उन मूल्यों का शंखनाद पुन :  कर सकता है जो सौ साल पहले स्वामी विवेकानंद ने प्रतिपादित किये थे . उन्होंने कहा था:-

             " धर्म या मजहब का मतलब तोडना नहीं जोड़ना होता है "

   हिंदुत्व को वेशक  केवल उसके वेहतरीन सिद्धांतों और मूल्यों पर गर्व हो सकता है किन्तु वर्तमान युग में अब उसकी  भूमिका वेहद सकारात्मक हो सकती है जब -जब दुनिया में झगडे बड़े तब -तब  इसी सनातन धर्म   की ओर ही आशा की नजरों से देखा जाता रहां है .   चूँकि  इसमें जड़ता नहीं है , यह गतिशील धर्म है ,इसके वैज्ञानिक सिद्धांत और बेहतरीन मानवीय मूल्य आज  समस्त संसार को लुभा रहे हैं  किन्तु ढोंगी बाबाओं ,नकली स्वामियों ,धन्धेवाज कपटी साधुओं और राजनीती में धर्म का द्राक्षासव मिलाने  वाले राजनीतिज्ञों   ने इस सनातन धर्म को ' हिंदुत्व ' के नाम से  बार-बार  दाव पर  लगाकर इसे धूमिल ही किया है ।
                                  वे यह भूल जाते हैं कि भौगोलिक रूप   आज का भारत अतीत में कभी  भी एकजुट नहीं रहा .अधिकांस राजा -रजवाड़े इस या उस पंथ को मानने वाले थे और उनके गुरु भी  इसी तरह से विभिन्न मत के थे . नतीजा भी साफ़ था  कि  जनता याने प्रजा केवल शाशकों के 'आमोद-प्रमोद ' के लिए संसाधन जुटाने का साधन मात्र थी . ये गुलामी की इन्तहा तब थी जब भारत में न तो इस्लाम आया था और न ईसाइयत .  हालांकि        विदेशी   यायावरों-हमलावरों  के  भारत आगमन से पूर्व   भी भारत में विभिन्न सम्प्रदायों -पंथों -मतों के  आपसी संघर्ष पुरातन काल से चले आ रहे थे .  यह सब इस आलेख की विषय  वस्तु नहीं है  और वैसे भी यह सब कलुषित दास्ताँ  मध्य युगीन   भारत के  घृणित  सामंतवादी  रक्तरंजित इतिहास के पन्नों पर विद्यमान है . जिसे कुछ मूढमति भग्नावशेष दृष्टा ' भारत का स्वर्ण युग ' कहने से नहीं अघाते !  जबकि वस्तुतः भारत की मेहनतकश जनता  का  -किसानों  का  और शिल्पकारों  का    तत्कालीन शासक वर्ग  ने   जितना   शोषण  किया उतना तो मुगलों और अंग्रेजों ने भी नहीं किया .  फर्क  सिर्फ इतना  था तब शासक या राजा' विष्णु ' का अवतार हुआ करता था और सारी  जनता उसकी 'दास' हुआ करती थी .जबकि मुगलों ,तुर्को  ,अफगानों ,उज्वेगों की गुलामी में शासक चाहे  राजा हो ,महाराजा हो किन्तु वो 'खलीफा ' से रिकग्नीशन पाकर ही सत्तासीन हो सकता था .याने वो भी गुलाम और जनता याने रैयत  उसकी गुलाम .अंग्रेजों का भी यही हाल था .कहने को वे भारत में -वायसराय ,अंग्रेज बहादुर ,लाट  साहब  और श्वेत प्रभु थे किन्तु वे भी इंग्लेंड के 'राजा या रानी ' के वेतन भोगी कारिंदे मात्र थे और उनके अधीन समस्त भारत की  ही नहीं बल्कि  समस्त संसार की आवाम उनकी गुलाम थी .   भारत की विराट आबादी को नियंत्रित करने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने यहाँ की जनता  को बांटने का सबसे सरल तरीका यही अपनाया कि  'फूट डालो और राज करो ' एक तरफ उन्होंने मुसलमानों को सहलाया - मुस्लिम लीग बनवाई और दूसरी ओर कट्टरपंथी हिन्दुओं को भरमाया और 'राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ ' के वनाने में परोक्ष   रूप  से सहयोग प्रदान किया।जब-जब  कांग्रेस ने ,आजाद हिद फौज ने ,क्रांतिकारियों ने ,साम्यवादियों ने ,समाजवादियों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया तब-तब  मुस्लिम लीग और 'संघ ' ने उपनिवेश वादियों से प्यार की पीगें  बढ़ाई . जब द्वतीय महायुद्ध में इंग्लेंड की अर्थव्यवस्था  तथा  सेन्यशक्ति  जर्जर हो गई और दुनिया भर में उसके साम्राज्य का सूर्य अस्त होने लगा तो उसने भारत से भी अपना बोरिया बिस्तर बाँध लेना उचित समझा। जाते -जाते  भी उन्होंने बेहद घटिया और अमानवीय दुश्चक्र के तहत देश को साम्प्रदायिक आधार पर बाँट दिया .अखंड   भारत  में जो साम्प्रदायिकता के बीज  इतिहास ने बोये थे उनको खाद-पानी देकर अंग्रेज अपने वतन लौट गए और  हम भारत, पाकिस्तान बंगला देश ,नेपाल और श्रीलंका में साम्प्रदायिकतावाद की लहलहाती  फसल देखने को अभिशप्त हैं .सत्ता के लोभी इस फसल को काटने के लिए लगातार प्रयत्न शील हैं . भारत में अल्पसंख्यक एक वोट बेंक बन गए हैं अतएव  उनको 'तुष्ट ' करने वाले  'धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सरकार बनाते आये हैं . यदा -कदा  बहुसंख्यकों   के हितेषी बनकर 'हिंदुत्ववादी '  भी  सत्ता  प्राप्ति के निमित्त जुगाडमेंट करते रहते हैं . वर्तमान में नरेन्द्र मोदी के  नेतत्व में संघ परिवार का यही ध्येय है  .  साम्प्रदायिक राजनीती की वयान्बाजी से प्रेरित होकर कुछ गुमराह युवक आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। मुंबई ,हैदराबाद ,सूरत ,दिल्ली ,बोधगया और बेंगलोर  इत्यादि मानव कृत हिंसक कार्यवाहियों  के मूल में जिन तत्वों का हाथ है वे हिन्दुओं के ,मुसलमानों के , भारत की जनता के  और भारत के शुभचिंतक नहीं हो सकते और उन्हें प्रेरित करने वाले हिन्दुत्ववादी या' मुस्लिम फिरकापरस्त ' राजनैतिक व्यक्ति और 'दल'देश की बागडोर संभालने के योग्य नहीं हो सकते .कांग्रेस और भाजपा दोनों को यदि देश की चिंता है तो साम्प्रदायिक राजनीति  से दूर रहना होगा . कांग्रेस  ने यदि  मुस्लिम फिरकापरस्ती ईसाइवाद और जतीयतावाद    से मोह  नहीं छोड़ा   तो नरेन्द्र मोदी का 'हिन्दुत्ववादी ' अश्वमेध सफल होने से कोई नहीं रोक सकता  ,और संघ परिवार ने यदि बार-बार हिंदुत्व राग छेड़ा  तो देश का विकाश तो नहीं विनाश जरुर सुनिश्चित है . साम्प्रदायिकता की ज्वाला में सारा भारत ही नहीं बल्कि समूचा ऐशिया  धधक उठेगा .
                       विगत बीसवीं  शताब्दी में तो  साम्प्रदायिक उन्माद से दुनिया को बचाने के लिए बेहतरीन कवच थे .  महान अक्तूबर क्रांति -सोवियत साम्यवादी वोल्शैविक क्रांति हुई ,भारतीय स्वाधीनता संग्राम और उसके    क्रान्ति  जन्य मूल्य थे . चीन की लाल क्रांति  हुई  , दक्षिण अफ्रीकी क्रांति हुई . पूंजीवादी -साम्राज्वाद के आपसी द्वन्द  के शीत युद्ध जनित भय  से त्रस्त आवाम को ' विश्व  शांति '  के रूप में भारत के 'पंचशील सिद्धांत' थे . दुनिया  तब 'मोनोपोलर 'थी .अब तो एक ध्र्वीय विश्व की चौखट है और उसके डालर के आगे भारत का रुपया चीं  बोल रहा है ऐंसे  हालत में भारत को साम्प्रदायिक अलगाव  के ध्रुवीकरण की नहीं बल्कि 'धर्म निरपेक्षता ' की सख्त जरुरत है .ताकि सबको रोटी-कपडा -मकान , सभी  को अपने -अपने  मजहब-धर्म -पंथ के पालन का या  धर्मनिरपेक्ष रहने  का अधिकार हो . सभी को शिक्षा -स्वास्थय और आजीविका उपार्जन के अवसर सामान  हों . सभी को राष्ट्र निर्माण और वैश्विक चुनोतियों से मुकानले का भान हो .सभी को वास्तविक प्रजातांत्रिक स्वतंत्रता -समानता और सद्भाव का ज्ञान हो फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान हो .यह तभी संभव है जब कांग्रेस और भाजपा अपनी-अपनी साम्प्रदायिक रणनीति का राजनीती से त्याग करें .  इसकी शुरुआत बहुशंख्य्कों याने हिन्दुओं को स्वयम  करनी होगी .
                                  मानव  सभ्यता के  इतिहास में यह दर्ज किये जाने योग्य अकाट्य सत्य है कि  भारत के मुसलमान  दुनिया के अन्य मुसलमानों   के सापेक्ष हर  मायने में बेहतर हैं .इस्लाम और उसकी शिक्षाओं  को  जो आदर- सम्मान भारत  में उपलब्ध   है वो  अन्यत्र दुर्लभ है . देवबंदी ,बरेलवी ,मदनी  सहित देश के  अधिकांस मुस्लिम संस्थानों के विद्द्वानों  को  न केवल भारत अपितु  सारे 'मुस्लिम ' संसार में सम्मान प्राप्त है . भारत में जितनी मस्जिदें हैं ;उतनी दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं . भारत में  जितने  मुसलमान हैं; दुनियां में अन्यत्र कहीं नहीं। भारत में जितनी दरगाहें हैं; दुनिया में अन्यत्र शायद कहीं नहीं .भारत में वक्फ बोर्ड के पास जितनी जमीन और मिलकियत है उतनी किसी छोटे मुल्क की समस्त सम्प्दा भी नहीं  है  .   यहाँ 'गरीब नवाज'  हैं ; ख्वाजा मोयनुद्दीन चिस्ती  हैं ,  हजरत  निजामुद्दीन  ओलिया हैं ,शेख सलीम चिस्ती हैं . भारत में मुस्लिम विरासत के अनेक प्रतीक  हैं  , अनेक भव्य  कीर्तिमान  सुरक्षित हैं . यह केवल भारत ही है जहां अल्पसंख्यक होने के  बावजूद  किसी किस्म का भेदभाव नहीं किया  जाता .  सारे संसार में शायद  एकमात्र  यह  भारतीय प्रजातांत्रिक धर्मनिरपेक्ष  राष्ट्र  भारत   ही है जहां हिन्दुओं का बहुमत होने के वावजूद   एक  मुसलमान  -    भारत का राष्ट्रपति ,   उपराष्ट्रपति ,   मुख्य - न्यायधीश , मुख्य चुनाव आयुक्त विदेश मंत्री ,विदेश सचिव  और राज्यपाल भी  हो सकता है .
                                             साहित्य  -संगीत  - कला   -फिल्म, शाशन-प्रशाशन  और व्यापार के  किस  क्षेत्र में    मुसलमान पिछड़े हुए हैं ? क्या  अन्य धर्मावलम्बियों और सम्प्रदायों   के सापेक्ष मुसलमान  बेहतर स्थति में  नहीं   हैं?  इन तमाम सकारात्मक उपलब्धियों के बावजूद यदि मुसलमानो  को या उनके तथाकथित हितैषी   -  खैरख्वाहों को  लगता है कि  केवल उनके साथ ही  अन्याय  हो रहा  है; तो  उन्हें यह   जानने  में किसी आर टी आई क़ानून की आवश्यकता नहीं होगी कि  भारत के चालीस करोड़ निर्धनतम  नागरिकों में महज दो करोड़ मुसलमान ही अति-दरिद्र की श्रेणी में आते हैं बाकी अड्तीश  करोड़  गैर मुस्लिम अति दरिद्रों  की दुर्दशा पर आंसू बहाने से उन्हें किसी शरीयत क़ानून या 'कुराने -पाक' ने नहीं रोक रखा है ! यदि कौम के शुभचिंतकों को सम्पूर्ण राष्ट्र के व्यापक हितों से परे केवल अपनी मजहबी-जात- बिरादरी की ही चिंता है तो ये सरासर निहित  स्वार्थ है , नाइंसाफी  है ,   वास्तविकता तो ये है  कि  वे  न केवल जाग रहे हैं बल्कि सोने का बहाना करते हुए  जानबूझ कर  अपने हिस्से के कर्तव्यों से भी वंचित हो रहे हैं . वे जाने-अनजाने उन तत्वों को उत्प्रेरित किये जा रहे हैं जो इस्लामिक 'जेहाद' के नाम पर भारत के न केवल   हिन्दुओं  बल्कि मुसलमान सहित अन्य तमाम आवाम को भी  यदा -कदा अपने  आतंकी उन्माद से लहुलुहान करते रहते हैं .
                                                                                                 इन दिनों दुनिया भर में और खास तौर  से भारतीय उपमहादीप में  लगातार  साम्प्रदायिक आधार पर आवाम की दुरावस्था का बखान किया जा  रहा है . बेशक समेकित  के रूप से  -शोषण-उत्पीडन  की शिकार  मेहनतकश आवाम में हिन्दू-मुस्लिम -ईसाई और वे तमाम मजदूर -किसान भी  हैं जो अपने आपको किसी खास मजहब या पंथ से जोड़ना जरुरी नहीं समझते . यह देश का दुर्भाग्य है कि इस 'सर्वहारा ' वर्ग को जाति -मजहब -भाषा और क्षेत्रीयतावाद के पृथक्करण का शिकार बनाया जाता रहा है ताकि यह वर्ग एक ताकत के रूप में पूंजीवादी वर्ग को कोई चुनौती न दे सके .   यह एक जाना -माना    घ्रणित  पूंजीवादी  हथकंडा है- जिसे हिन्दुत्ववादी अपने तरीके से, मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक  अपने तरीके से  और सर्वधर्म- समभाव् वादी  [कांग्रेस इत्यादि]  अपने तरीके से निरंतर  अपनाते  रहते  हैं।कांग्रेस  अपने आपको धर्मनिरपेक्षता का प्रहरी   बताकर निरंतर सत्ता सुख भोग रही  है जबकि वास्तव में वह धर्म-निरपेक्ष है ही नहीं। वह तो धर्म सापेक्ष अर्थात सर्व धर्मं  सम -भाव याने गांधी जी के -इश्वर-अलाह तेरे  नाम ... की अनुमोदक है . वास्तविक धर्मनिरपेक्ष तो  केवल  साम्यवादी और समाजवादी ही हो सकते हैं  क्योंकि वे जिस मेहनतकश वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं - वह  धर्म-मजहब - जाति  से परे  समस्त   'शोषित सर्वहारा' वर्ग के दृष्टिकोण का पोषक  है।  जिसने  स्वामी विवेकानंद के  उस कथन को ह्रुदय्गम्य  किया है कि  - भारत की निर्धन  को  धर्म  - मजहब  -अध्यात्म ज्ञान की नहीं' रोटी '  की  जरुरत  है .
                                      मंडल कमीशन , सच्चर  कमिटी ,कांग्रेस ,सपा ,बसपा,बुखारी ,ओवेसी ,लालू ,नीतीश  और कु छ अधकचरे  प्रगतिशील वामपंथी बुद्धिजीवी भी -कई मर्तबा   मुसलमानों  और तथाकथित पिछड़ों  की  ही   दयनीय स्थति का ही बखान करते आ रहे   हैं क्यों ? यदि नरेन्द्र मोदी 'सर्वांगीण' विकाश का कोई माडल पेश करने की कोशिस कर रहे हैं तो उनकी बात सुनी  जानी चाहिए ,यदि मोदी के विचार से किसी की  कोई असहमति है तो उसे भी सामने आना चाहिए .  हम सभी जानते  हैं कि  भारत में शोषित-पीड़ित  -निर्धन  -मेहनतकश- हिन्दुओं, बौद्धों  , ईसाइयों से    मुसलमानों  की स्थति फिर भी  हर क्षेत्र में  बेहतर है . स्वाधीनता संग्राम में  और उसके बाद  भारत  राष्ट्र निर्माण में  भारत के मुसलमान किसी से पीछे नहीं रहे। भारत-पाकिस्तान  -बँगला देश का बंटवारा एक ऐतिहासिक दुह्स्वप्न था।  जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वजह से देखना पड़ा .  आजादी  के बाद जिन मुसलमानों ने भारत के साथ अपना नाता जोड़ा उन्हें  इस बात का फक्र होना चाहिए कि  वे दुनिया के सबसे  बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र में न केवल  प्रजातांत्रिक अधिकारों का भरपूर दोहन कर रहे हैं बल्कि इस्लाम के नियम-कायदों  का अनुपालन  कने के लिए वे पूर्ण स्वतंत्र हैं . यदि व्यवस्था गत दोषों,सर्र्कारों की गलत आर्थिक नीतियों  और सामाजिक बुराइयों के कारण देश में आर्थिक-सामजिक असमानता है भी तो सभी समुदायों के लोग  इस दंश को भुगत रहे हैं ,  फिर  क्यों   कुछ लोगों   को लगता है कि  भारत में  केवल  मुसलमानों  के  साथ अन्याय हो रहा है ? क्यों क्यों  केवल मुसलमान अल्पसंख्यक  ही   भारत में असुरक्षित और दोयम समझने के लिए प्रेरित किये जाते रहे  हैं? क्यों कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दल बारबार के चुनावों में मुस्लिम वोटों के लिए  उन्हें आरक्षण  ,हज ,इत्यादि का प्रलोभन देते हैं ? क्यों अल्पसंख्यक आयोग के  सारे विमर्श केवल 'मुस्लिम ' केन्द्रित हैं , इतना सब कुछ  होता रहेगा तो   क्यों नहीं  संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी  उनकी निष्ठां पर सवालिया  निशान  लगाने की  रात -दिन चेष्टा  करेंगे ? और इस बहाने उन्हें यदि  सत्ता मिलती भी है तो उसके लिए तथाकथित  साम्प्रदायिक धुर्वीकरण के लिए  अकेले मोदी या संघ परिवार को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है ?   यदि  सत्ता में आने के लिए  कांग्रेस  -मुलायम -नीतीस -लालू और  मायावती  न केवल मुस्लिम अल्पसंख्यक कार्ड खेलते हैं ;बल्कि कट्टर जातीयता वाद का 'काढा भी सत्ता प्राप्ति के लिए देश की जनता को पिलाने में अव्वल  रहते हैं; तो हिंदुत्व वादी  -  राष्ट्रवादी   -सवर्ण वादी  कार्ड खेलने से संघ परिवार और उनके वर्तमान 'ब्रांड एम्बेसडर ' नरेन्द्र मोदी  को रोकने का प्रयास तो केवल   हास्यापद ही है .  क्या  संघ परिवार और 'मुस्लिम संगठनों  की साम्प्रदायिकता  एक ही सिक्के के दो पहलु नहीं हैं ? गोधरा और गुजरात में जो हुआ वो निंदनीय और बेहद दुखदाई है किन्तु 'सितारों से आगे जहां और  भी हैं' ...! ताली क्या दोनों  हाथों  से नहीं बजा करती ?
                          विगत दिनों  पाकिस्तान  के डेरा गाजी शहर में एक मुस्लिम महिला को  सरे आम  पत्थरों से मार  डाला क्यों ? सिर्फ इसलिए कि वो महिला मोबाइल रखने की अपराधी थी !  पाकिस्तान  में ताकत् वर लोग कमजोरों का शोषण तो कर ही रहे हैं साथ ही प्रगतिशील -रोशनखयाल   लोगों को  तथाकथित ईस् - निंदा के  आरोप में मौत के घाट उतारने  में भी अव्वल हैं ,शुक्र है भारत  के मुसलमान इन आफतों से बचे हुए हैं . इस्लामिक संसार में आज के आधुनिक -वैज्ञानिक और वैश्वीकरण के दौर में भी कई जगह महिलायें टीवी कार्यक्रम भी बुर्का नशीं होकर देखतीं हैं,उन्हें डर  है कि  कहीं  टीवी में दिखने वाला पुरुष पात्र  उन्हें देख न ले ! काश  इस्लाम के रहनुमाओं  , मुसलमानों  के शुभ  चिंतकों और सच्चर  कमेटी ने   इन  बिन्दुओं  पर विचार  किया होता। भारत के अलावा शेष संसार के मुसलमानों  की बदहाली  के बरक्स यदि भारत में  सभी नागरिकों को आर्थिक्-सामाजिक -प्रजातांत्रिक समानता प्राप्ति के लिए संघर्ष किया जाता तो  तो शायद  साम्प्रदायि'क सौहाद्र कुछ ज्यादा सुनिश्चित  होता  और मजहब -जाति के आधार पर किसी खास व्यक्ति या समूह को तुष्ट' करने या  आरक्षण की वैशाखी का झुनझुना बजाने  की नौबत ही  न आती। तब शायद  नरेन्द्र मोदी का और उनके 'प्रमोटर्स ' का    दुस्साहस  इतना  नहीं बढ़ पाता . देश में साम्प्रदायिक वैमनस्य के बजाय साम्प्रदायिक सौहाद्र पर बात होती तो कुछ और बात होती . कांग्रेस का जो धडा मोदी को साम्प्रदायिकता के आधार पर घेरने की कोशिश में  जुटा  है वो मोदी  को सत्ता में बिठाने के लिए  जिम्मेदार  होगा ! जो धडा  मोदी की आर्थिक सामजिक नीति की आलोचना कर रहा है वो पहले अपने गरेवान [मनमोहनी आर्थिक नीति] में झांककर देखे .! क्योंकि नरेन्द्र मोदी की कोई आर्थिक नीति नहीं वो तो  देश के पूंजीपतियों द्वारा बनाई गई नीति   के अनुसार सोचते हैं किन्तु मनमोहन सिंह तो  अमेरिका के पूंजीपतियों के अनुसार  सोचते हैं . इस मामले में भी मोदी कम से कम  ' राष्ट्रवादी '  हैं ही ! धर्मनिरपेक्षता  में भले ही कांग्रेस को कुछ ऐतिहासिक बढ़त हासिल हो किन्तु भाजपा  ने भी  मुख्तार नकवी या शाहनवाज हुसेन जैसे  हज़ारों चेहरे तैयार किये हैं किस सोच  का प्रमाण है ये ?
                        हालाँकि प्रगतिशील विद्द्वानों ने  साम्प्रदायिक सौहाद्र को  भी एक निम्नतर सत्य ही माना   है ,  क्योंकि  यह सभी सम्प्रदायों के फलने -फूलने के  वादे  र आश्रित होकर  न केवल   उनके अनुयाइयों को   आपस में  लड़ाता है . बल्कि शोषण की ताकतों को अमृत पान भी कराता है .  प्रगति और मानवता के यह विरुद्ध है  क्योंकि यह यथास्थितीवाद का खतरनाक रहनुमा है , क्योंकि यह  धर्मनिरपेक्षता का संहारक और साम्प्रदायिक कट्टरवाद की प्रतिस्पर्धा का उन्नायक है।हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई ...!..का नारा केवल बहकाने के लिए है ,यह नारा इस बात की तस्दीक करता है कि  व्यक्ति का हिन्दू -मुस्लिम -ईसाई -बौद्ध-जैन -सिख या किसी विशेष धर्म का अनुयाई  होना आवश्यक है . लोकतांत्रिक राष्ट्र में  यह कतई  जरिरी नहीं है .याने भाईचारे की  प्राथमिक  शर्त ये है कि  आप किसी सम्प्रदाय से जुड़े हैं तो ही किसी  अन्य  सम्प्रदाय के भाई हो सकते हैं ! क्या कोई  धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति या समूह  आपस में भाईचारा नहीं रख सकता ?  क्या  एक धार्मिक या साम्प्रदायिक व्यक्ति  दूसरे धार्मिक या साम्प्रदायिक व्यक्ति से मतैक्य नहीं रखता ?क्या राज्य संचालन के लिए धर्म सापेक्षता संभव है ? नहीं ! नहीं  !नहीं !  साम्प्रदायिक  झगड़ों को देख-सुनकर ही इकवाल ने नहीं कहा था ;- मज़हब नहीं सिखाता आपस में  बैर रखना ......!   बापू को कहना पडा ;- ईश्वर -अलाह तेरे नाम ...!   हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में बिलकुल सही कहा है कि ;- हम भारत के लोग .....सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न  .....धर्मनिरपेक्ष  -समाजवादी-  गणतंत्र - भारत .....! करते हैं ...!आज़ादी के वाद सत्ता  प्राप्ति के लिए साम्प्रदायिक तत्वों से सौदेबाजी की जाती रही है और उन्ही  के दवाव में धर्मं निरपेक्षता को त्यागकर धर्म सापेक्षता को महिमा मंडित किया जाता रहा है  .यही वजह है कि  जहां अल्पसंख्यक वर्ग का नेतत्व   अल्पसंख्यको को भारतीय नागरिक मानने के बजाय   एकमुश्त वोट बैंक मानकर विभिन्न  राजनैतिक दलों से सौदेबाज़ी करने  में जुटे रहते हैं .  इस अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता  के बरक्स  बहुसंख्यक-हिन्दुओं के  स्वघोषित हितेषी 'संघ परिवार ' को भी    अपने हिस्से की  नकारात्मक भूमिका अदा करने का अवसर प्राप्त होता रहता है .
         किन्तु  ये सिलसिला अब रोक जाना चाहिए  क्योंकि  जाति ,मज़हब ,भाषा ,क्षेत्रीयता और सम्प्रदाय को राजनीति के उपादान  बनाए जाने से  इन सभी  में घोर वैमनस्यता का  स्थाई भाव पैदा हो चूका है ,जो देश को और देश की जनता को  संकटापन्न स्थति में ल सकता है .


       विगत २ ० १ १   में इजिप्ट [मिश्र] में जो कोलाहल हुआ था उसे दुनिया के तमाम  मुल्कों ने  और वहाँ के मीडिया ने लगभग संतुलित रूप से  मूल्यांकन किया था .लेकिन भारतीय दक्षिणपंथी वुद्धिजीवी या पत्रकार ही नहीं बल्कि हमारे बहुत से वामपंथी विचारक , वुद्धिजीवी भी ढेर सारी  ग़लतफ़हमी के शिकार थे और वे अब भी अपने रूढ़ अभिमत को खंडित होते  देख या तो मौन हैं  या वैज्ञानिक -निष्पक्ष विश्लेषण से इसलिए कतरा रहे हैं कि  उनकी समझ से  वे  इजिप्ट  में हो रहे तत्कालीन 'सत्ता संघर्ष ' को  प्रगतिशील जनवादी क्रांति के रूप में उभरता हुआ देख रहे थे . तब  मैने   इजिप्ट  के तत्कालीन आंतरिक 'द्वन्द '  पर - 'ये क्रांति नहीं भ्रान्ति
है ' शीर्षक से  एक आलेंख लिखा था जो  'प्रवक्त.काम .'एवं हस्तक्षेप .काम पर प्रकाशित हुआ था और जो अभी भी मेरे ब्लॉग -जनवादी . ब्लागस्पाट .काम पर उपलब्ध है .उस आर्टिकल में लिखा गया हर शब्द सत्य साबित  होता जा रहा है . विशुद्ध वैज्ञानिक और ग्लोबल दृष्टिकोण से मेरा आकलन था कि न केवल  इजिप्ट  बल्कि तुर्की  में भी तथाकथित  आर्थिक संकट या कुव्यवस्था  के बरक्स जो 'बदअमनी ' फैली है उसकी  डोर केवल   'अमेरिकन साम्राज्यवाद '  के हाथों में ही नहीं बल्कि  इस सनातन संघर्ष की जड़  को सींचने में  मज़हबी सूत्रधारों  की भूमिका को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता .
                                                        मिश्र में जो उठापटक हो रही है ,तुर्की में जो कोहराम मच हुआ है ,सीरिया  लीबिया , ईराक  सूडान ,यमन ,अफगानिस्तान ,फिलिस्तीन जॉर्डन और पाकिस्तान जैसे इस्लामिक मुल्कों  में जो भी अशांति है, उसके प्रतिक्रियास्वरूप  इन देशों के अलावा अन्यत्र भी  दिग्भ्रमित कतिपयकट्टरवादी  तत्व-यत्र-तत्र-सर्वत्र  गैर इस्लामिक राष्ट्रों-भारत ,चीन ,म्यांमार, इजरायल   अमेरिका और इंग्लॅण्ड में भी हिंसात्मक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त  करते रहते हैं .  उसके लिए केवल   'श्वेत भवन '  या  उसकी तथाकथित  पूंजीवादी  - बहुराष्ट्रीय उद्द्य्मितावादी  आर्थिक नीति का 'आम संकट '  ही जिम्मेदार नहीं है .  वास्तव में  इन इस्लामिक राष्ट्रों की आंतरिक बैचेनी के मूल में " सभ्यताओं  का संघर्ष " भी एक अहम्  भूमिका अदा कर रहा है . एक ओर अल-कायदा ,तालिवान ,इत्तेहाद -मुसलमीन ,मुस्लिम ब्रदर हुड,फिदायीन   जैसे सेकड़ों -  फंडामेंटलिस्ट संगठन दुनिया भर में अपने पुरोगामी कट्टरपंथी -आतंक और हिंसा  के लिए बदनाम हैं ,दूसरी ओर इन राष्ट्रों की सत्ताओं  पर  काबिज ' अर्ध सामन्ती और अर्ध जनतांत्रिक ' ताकतों और  उनके सैन्य  बलों के अपने सामूहिक स्वार्थ है . इन दोनों विचारधाराओं में सिर्फ एक समानता है कि   वे  शक्ति शाली वर्ग के हितों की रक्षा  के सवाल पर एकमत हैं .  इस संघर्ष को अनवरत बनाए रखना   केवल पूंजीपतियों , साम्प्रदायिक  -कठमुल्लाओं और साम्राज्यवादियों के हित में है . अतएव तमाम मुस्लिम राष्ट्रों  के ताकतवर लोगों से,सेनाओं से - अमेरिका का याराना है। जनता के  शोषण या आर्थिक दुरावस्था  के   सवाल  पर होने वाले जनांदोलनो को ,अमेरिका और उसके स्थानीय पिठ्ठू कुचल डालने में देर नहीं करते  लेकिन जिस तरह की मारामारी अभी इजिप्ट  ,तुर्की ,सीरिया ,सूडान ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रही है वो किसी जनवादी क्रांति का सूत्रपात नहीं  बल्कि इन राष्टों की स्वेच्छिक 'हाराकिरी' है।
                                      भारत में कभी मुंबई , कभी पुणे ,कभी बेंगलोर , कभी कश्मीर ,कभी गोधरा ,कभी बोधगया और कभी  हैदरावाद में किये गए हिंसात्मक उपद्रवों पर देश में   हमेशा  दो राय  बनाने की कोशिश की जाते रही है . पहला ये कि - आतंकवाद   का  कोई मज़हब नहीं होता ,आतंकवाद का कोई चेहरा नहीं होता , अल्पसंख्यक आतंकवाद से बहुसंख्यक आतंकवाद ज्यादा खतरनाक है .. मुस्लिम आतंकवाद की वजह भगवा आतंकवाद है . बगैरह ...बैगेरह ... कभी-कभी कांग्रेस अपने वोट बैंक के लिए और अन्य तथाकथित  'धर्मनिरपेक्ष' दल -सपा ,बसपा और तृणमूल कांग्रेस भी इसी तरह के भ्रामक प्रचार से अपनी ताकत बनाए रखने में कामयाब होते रहते हैं . केवल वामपंथ  ही है जो जमीनी सच्चाई से रूबरू होकर हर किस्म के साम्प्रदायिक उन्माद को देश और दुनिया के 'सर्वहारा 'वर्ग के खिलाफ मानता है .किन्तु कभी-कभी कुछ अधकचरे -नासमझ  अतिउत्साही वामपंथी  ' इस्लामिक  तत्ववाद ' को पूरी तरह  नज़र अंदाज कर केवल 'संघ परिवार ' पर  ही  हल्ला  बोलते रहते हैं ,जबकि कुछ  हैं कि  केवल और केवल इस्लामिक आतंकवाद को सारे फसाद की जड़ मानते हैं .  उनका तर्क है कि  ओसामा प्रकरण में पाकिस्तान की कोर्ट में यह जाहिर हो गया है   कि  भारत में की जा रही  अधिकांस  बिध्वंशात्मक कार्यवाहियों में पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी  आई .एस आई का हाथ है और उसे भारत में विभीषणों ,जयचंदों ने अंजाम दिया है .बाज मर्तवा कुछ पाकिस्तानी घुस्पेठिये  जो इन वारदातों में शामिल  पाए गए   उनके बारे में कुछ भी छिपा हुआ नहीं है . संघ परिवार या भाजपा भी  जब ये आरोप लगाते हैं, जो कि  सच भी हैं  तो  उसे राजनीति  से प्रेरित कहा जाता है और यह शतप्रतिशत सच है कि  कांग्रेस को   हराने   और  स्वयम भाजपा को   सत्ता में  लाने   के लिए 'संघ परिवार' के पास जितने भी हथकंडे हैं उनमें से यह  एक  सबसे शसक्त हथियार है  .  किन्तु संघ परिवार   के  निरंतर   ढपोरशंखी बयानों और उनके अनुषंगी भाजपाई नेताओं के  'पदलोलुप चरित्र ' के कारण  उन्हें ,देश का प्रबुद्ध वर्ग गंभीरता से नहीं लेता . भाजपा के सनातन विपक्ष में बने रहने के लिए  उसके नेतत्व का यही  'क्राईसस आफ कान्सस '  विशेष रूप से जिम्मेदार है . उधर गैर भाजपाई ,गैरवामपंथी राजनैतिक दलों को देश से ज्यादा  मुस्लिम वोटों की फ़िक्र  हुआ करती है  इनमें   . कांग्रेस का नम्बर पहला है .
                                                         राजनैतिक स्वार्थ के लिए  भारत  के अन्दर  पड़ोसी राष्ट्रों  द्वारा की जा रही   अवांछनीय ,निंदनीय और हिंसात्मक गतिविधियों  को पाखण्ड पूर्ण लीपापोती से  इतना अचिन्हित कर दिया जाता है कि खुद दुश्मन भी भारत की हंसी उड़ाने लगते हैं .इस्लामिक राष्ट्रों और अन्य राष्ट्रों के सापेक्ष भारत के मुसलमानों  की स्थति बहुत बेहतर है .भारतीय मुसलमान खुशनसीब हैं कि वे हिन्दुओं सहित  अन्य भारतीय नागरिकों  की तरह  उन तमाम लोकतांत्रिक  अधिकारों और संविधान   प्रदत्त अधिकारों का उपभोग तो करते  ही हैं साथ ही उन्हें अपने मज़हबी क्रिया-कलापों की पूरी-पूरी छूट  के वावजूद इस्लाम के उन भयानक और कठोर  दंडात्मक कानूनों  की मार नहीं सहनी पड़ती , जो अन्य इस्लामिक राष्ट्रों में दरपेश है . वहाँ आँख के बदले आँख  ,हाथ के बदले हाथ और हिंसा का बदला हिंसा से हो रहा है और महिलाओं की दुर्गति जग जाहिर है  जबकि भारत में  मुसलिम  महिलाओं को  हिन्दू महिलाओं से भी ज्यादा अधिकार सम्मान  और सुरक्षा प्राप्त है . भारत में किसी को किसी भी वजह से न तो  सरे  आम मजहबी अदालतों द्वारा  कोड़े लगाए जाते हैं और न ही  किसी को अपने मज़हब  से बहिष्कृत किया जाता है , ज़बर्जिना के अपराधी  पर यहाँ पत्थर नहीं बरसाए जाते  और यदि व्यवस्था गत खामियों से कमजोरों का उत्पीडन ,महिलाओं पर अत्याचार और मेहनतकश आवाम   का घोर शोषण हो रहा है तो उसमें हिन्दू और मुसलमान  दोनों कौम के नर-नारी बराबर के भुक्त भोगी हैं . इस पतनशील व्यवस्था को बदलने के लिए हिन्दू -मुस्लिम समेत सभी कौमों की एकता और संयुक संघर्ष  की बेहद  आवश्यकता है .

                              श्रीराम तिवारी       

सोमवार, 22 जुलाई 2013

Guru binu hoy na gyaan ...!

        गुरु पूर्णिमा पर देश के विद्द्वत जनों को नमन …!

     सभी' दर्शनों' मतों और सभ्यताओं पर सरसरी नज़र डालने से ही स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है  कि दुनिया  के तमाम धर्म-मजहब   और पंथ किसी न किसी प्राचीन कबीले या सभ्यमानव समूह  द्वारा  तत्कालीन दौर की  आवश्यकताओं  के मद्देनजर स्थापित  किये गए जाते रहे होंगे . कबीलों के मुखिया या  उस कबीले में उपलब्ध आध्यत्मिक चेता और उदात्त चरित्र के जिन व्यक्तियों ने  अपने पूर्वजों के सार्थक अनुभवों को अपनी तात्कालिक  -लौकिक -पारलौकिक और सामूहिक जिजीविषा के अनुभवों को कबीले के कल्यार्थ संहिताबद्द किया होगा वे 'गुरु' कहलाये ,और उनके जिन  उत्तर्वर्तियों ने इस मानवीय विधा को सातत्य  प्रदान किया होगा  वे 'शिष्य'  कहलाने  लगे . याने गुरु शिष्य परम्परा  का प्राकट्य सार्वभौम और सर्वकालिक है . भारत में यह परम्परा  'वेदों ' से ही प्रारम्भ हो चुकी थी . उपनिषद कल में यह'गुरु-शिष्य 'परम्परा परवान चढ़ी और आज तक बरकरार है .
                  'भारत'में आषाढ़ की पूर्णिमा को 'गुरु पूर्णिमा ' के रूप में मनाया जाता है . यह महर्षि व्यास की पूजा -अर्चना के लिए भी सुविदित है . मैंने ' भारत ' की   जगह  हिन्दू' जानबूझकर नहीं लिखा, क्योंकि 'हिन्दू' शब्द की उत्पत्ति अर्वाचीन है और यह संज्ञा सूचक नाम समस्त भारतीयों के लिए  था , जिसे  पश्चिम एशिया से आये यायावरों या हमलावरों और खास तौर से तुर्कों और फारसियों ने  दिया था . जबकि 'गुरु पूर्णिमा ' के मनाये जाने की परम्परा पांच हजार साल से भी ज्यादा   पुरानी है . जैसा कि जर्मन दार्शनिक मक्स्मूलर ने निर्धारित किया है कि दुनिया का सबसे प्राचीन  ग्रंथ ' ऋग्वेद ' है और चूँकि इस में उपलब्ध मन्त्रों के 'मंत्रदृष्टा '  ऋषियों ' को ही कालान्तर में 'गुरु '  माना गया है .  चूँकि महर्षि वेद व्यास ने चारों वेदों , अठारह  पुराणों,सेकड़ों उपनिषदों,आरण्यकों और ब्राह्मण ग्रंथों का पुन्रसम्पादन किया था और वे श्रीमद्भागवत-पुराण तथा 'महाभारत ' के रचनाकार थे अतएव उनकी विराट शिष्य मण्डली ने  उनकी विराट' साहित्यिक धरोहर ' को अक्षुण बनाए रखने के लिए 'गुरु -शिष्य ' परम्परा को सुध्रुढ़ बनाया . उन्हें पांडवों के वंशजों  का राज्याश्रय प्राप्त था और उनके महान क्रन्तिकारी तपोनिष्ठ पुत्र 'शुकदेव ' का मार्ग दर्शन प्राप्त था .

                                     भारत में वैदिक वाङ्ग्य्मय के अलावा अधिकांस धार्मिक ,आध्यात्मिक और दार्शनिक साहित्य  का सृजन   गैर ब्राह्मण कवियों ,संतों ,ऋषियों और समाज सुधारकों ने ही किया है . ऋषि नारद दासी पुत्र थे  जिन्होंने 'नारद संहिता ' की रचना की थी . महर्षि बाल्मीकि अपनी जवानी के दिनों में 'रत्नाकर डाकू ' थे जो ' मरा-मरा ' के कहते -कहते ' कविकुल गुरु ' हो गए . ऋषि अगस्त , विश्वामित्र ,जाबाली और काग्भुसुंड में से कोई  भी ब्राह्मण नहीं था किन्तु ये तमाम 'गुरु जन ' समस्त भारत की जनता के न केवल पथ प्रदर्शक अपितु वन्दनीय भी थे  और आज भी है . महर्षि वेद व्यास की माँ 'सत्यवती' एक मछुआरे की बेटी थी  जो कुँआरे में ही
' पराशर '  के पुत्र की माता बनी थी .  पराशर भी ब्राह्मण नहीं थे वे  शैव मत के अनुयाई होकर 'वाम मार्गी' थे जो  कि'कन्या पूजन ' के लिए कुख्यात थे .  ब्राह्मण या वैष्णव परम्परा और दर्शन तो इस अघोरपंथी कर्मकांड के विरुद्ध था. अतः यह बहुत स्पष्ट है कि महर्षि वेद व्यास 'ब्राह्मण' कतई नहीं थे . भले ही उनका समग्र   ज्ञान  भण्डार  किसी को ब्राम्हण वादी लगता हो किन्तु यह  तथ्यान्वेषण  अकाट्य है .   जिस पुस्तक को लोग ब्राम्हण  वादी   कहा करते हैं ,जिसे  लेकर आधनिक समाज में भी अलगाव की कोशिशें की जातीं रहीं हैं, जो 'मनु स्मृति ' के नाम से प्रसिद्ध है , उसके रचनाकार और उद्घाटक'स्वायम्भुव  मनु ' इक्ष्वाकु वंश केप्रतापी क्षत्रिय राजा थे जिनकी रानी 'शतरूपा थी . उन्होंने अपनी रचना में तत्कालीन'भारतीय ' समाज के लिए कुछ दिशा निर्देश और आचार-विचार  संपादित किये  थे .  जो अधिसंख्य भारतीय यथावत पालन करते चले जा रहे हैं . इस पुस्तक को भले ही ब्राह्मण वादी कहा  जाता है किन्तु यह किसी ब्राह्मण की कृति नहीं है . भारतीय [हिन्दू ] परम्परा में मनु को भी ऋषि तुल्य याने'गुरु ' माना गया है .
                                                भारतीय स्थापित मूल्यों को जाने बिना ही कुछ लोग भारत के 'संत साहित्य ' या कहें भारतीय दर्शन से प्रेरित  मेथोलाजी ' में  विद्द्य्मान 'अप्रिय '   प्रशंगों और  मान्यताओं को ब्राह्मण वादी बताकर उस सत्य को भी ध्वस्त करते आये हैं जो अधिकांस गैर ब्राह्मणों द्वारा ही  स्थापित किये गए हैं .  कुछ लोग   कबीर को शायद इसलिए मुफीद मानते हैं कि वे हिन्दू-मुसलमान दोनों की खिल्ली उड़ाते थे .  कबीर ने तत्कालीन समाज की कुरीतियों और शोषण कारी ताकतों का मान मर्दन किया है , वे वेदों और कुरआन का भी सम्मान  नहीं करते थे क्योंकि वे पढ़े -लिखे नहीं थे और  वेद तो क्या वे 'गायत्री मन्त्र ' भी नहीं  पढ़ सकते थे .  चूँकि वे सभ्रात्न्त वर्ग से इतर अधिसंख्य जनता के जैसे थे और उसी की भाषा में बात करते थे अतएव जन-मानस में छा गए . घोर ब्राह्मण विरोधी कबीर ने भी अपना 'गुरु ' बनाया और ब्राह्मण को ही बनाया और जिद से धोखे सेगंगा घाट पर रात के अँधेरे में सीढ़ियों पर लेटकर ,स्वामी रामानन्द' के पैरों की ठोकर खाकर कबीर ने दीक्षा ली' . रामानंद के मुख से निकले शब्द 'राम-राम'  को ही तो कबीर ने आजीवन गुरु माना .कबीर ने 'गुरु' को भगवान् से भी बड़ा बताया है ;-

        गुरु गोविन्द दोउ खड़े ,काके लागुन पाय ;

       बलिहारी गुरु आपकी , गोविन्द दियो   मिलाय . .

       जो लोग कबीर को जनवादी ,प्रगतिशील  मानकर उन्हें चने के झाड पर चढ़ाकर 'वर्ण -संघर्ष ' की चेष्टा करते आये हैं उन्हें शायद ये सब मालूम ही न हो . कबीर आज दुनिया में सबसे  ज्यादा लोकप्रिय 'गुरु' हैं और उनके शिष्यों की तादाद भारत में करोड़ों में है , जब 'गुरु परम्परा ' ब्राह्मण वादी है  तो इसतथाकथित        ब्राह्मणवादी '  परम्परा का अनुशरण  क्यों किया जा रहा है ? गीता 'श्रीकृष्ण के श्रीमुख से  निकली और वेद व्यास ने अपने विराट ग्रन्थ' महाभारत ' के भीष्म पर्व ' में  उसे यथावत उद्दृत किया है या संपादित किया है . भगवान् श्रीकृष्ण 'पिछड़े वर्ग याने 'यादव' वंश के थे और  वेद व्यास 'वर्णशंकर ' समाज से थे. ये दोनों ही ब्राह्मण नहीं थे फिर क्यों लोग'भगवद गीता ' को ब्राह्मण वादी मानते हैं ?पुरातन पंथी या सामंतवादी ठप्पे के  डर से हमारे  प्रगतिशील साहित्यकार और विचारक भी सच लिखने और कहने से बचते हैं ,क्या कोई मार्क्सवादी गीता को पढ़े बिना बता सकता है किवो तो ब्राह्मण वादी सिद्धांतों  की पोथी है ? मनुस्मृति के आद्द्योपांत पढ़े बिना ही उसके कुछ उद्धरण पेश कर उसे 'अवांछनीय ' पुस्तक करार कर दिया गया और हमारे  प्रचंड क्रान्तिकारी विचारक 'हंस जैसी पत्रिकाओं  में उस पर निरंतर हल्ला बोलते रहते हैं .  क्या यह जातीय पक्षधरता और अन्याय नहीं है ?
                                    ज्ञान केवल ब्राह्मणों की बपौती नहीं है और अतीत का सब  कुछ जो साहित्य उपलब्ध है  वो सब ब्राह्मणों  के द्वारा ही  नहीं रचा गया . दक्षिण भारत में ,महारष्ट्र में और आंध्र  में अनेकों सुप्रसिद्ध विचारक ,संत कवि और  साहित्य कार हुए हैं जो ब्राह्मण नहीं थे किन्तु वेदों ,पुराणों , रामायण , महाभारत पर उनकी टीकाएँ संसार भर में प्रसिद्ध हैं . वेशक आज भारत में जो  कुछ भी मानवीय  है ,प्रगतिशील है वह निसंदेह प्रजातंत्र के रूप में सर्वमान्य है और यह भारत  में फ्रांसीसी क्रांति ,अमेरिकन क्रांति और ब्रिटेन की पूँजीवादी क्रांति  का 'सारतत्व ' है . लेकिन इसके कुछ नैतिक और राजनैतिक मूल्य  मध्ययुगीन भारत में 'बौद्ध और जैन ' युग से पूर्व  'महाजनपदों ' के रूप में विद्द्य्मान थे. इन नए  पंथों के आगमन के बाद भारत 'अहिंसा' की 'अँधेरी सुरंग में चल पड़ा और जब बाहर निकला तो देखा की वो तो गुलाम हो चूका है .  भारतीय इतिहास की इन भयंकर भूलों पर  किसी का ध्यान शायद न गया हो किन्तु अंग्रेजों को ये सब मालूम था अतएव  भारत की जनता को बाँटने-लड़ाने के लिए भारतीय वाङ्ग्मय-आगम-निगम -  पुराणोंऔर उसके खास रक्षकों याने ब्राह्मणों को गैर ब्राह्मणों की दुर्दशा का कारण घोषित किया और हर समाज और जात से इन अंग्रेजों ने  अपने बफादार तैयार भी किये . इन्ही चापलूसों को उन्होंने इस्तेमाल कर देश को बाँटने का काम किया . अंग्रेज तो बचे खुचे भारत को भी कई और टुकड़ों में बांटने के लिए प्रयासरत थे किन्तु 'महात्मा गाँधी ' और तत्कालीन धर्मनिरपेक्ष नेतत्व की बदौलत मामला शांत किया गया .
                                                     भारत में  निसंदेह प्रगतिशील तत्व जर्मन ,अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा के माध्यम से ही आये . किन्तु उससे पहले  भारत में फारसी और  उर्दू इंकलाबी भाषा थी जिसने शहीद भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारियों को  तराशा  इन भाषाओँ के बरक्स हिन्दी और उसकी जननी 'संस्कृत ' केवल अतीत के गुणगान में लगी रही , दुनिया बहुत आगे निकल गई और भारत के 'गुरु ' केवल  पाद पूजन करवाने में लगे रहे . राजनीतिग्य और विचारक  अपनी प्रगतिशीलता  का शौर्य  दिखाने के लिए 'ब्राह्मणवाद' के काल्पनिक तराने  गाते रहे . इसीलिये आज भारत की खुद की कोई राह नहीं है . पहले वो सामन्तवाद के पैरों में कुचला जाता रहा ,अभी पूँजीवाद के शिकंजे में कराहता हुआ ओउंधे मुँह पड़ा है . अब तो समाजवादी समाज और जनवादी जनतंत्र के लिए आज के गुरुओं को सोचना चाहिए .

      श्रीराम तिवारी
   १ ४ -  डी , एस-४  स्कीम -७ ८
   इंदौर -४ ५ २ ० १ ०
                                                 

रविवार, 21 जुलाई 2013

देश की दुर्दशा के दोहे ....!

       


     यूपीए के 'हाथ ' में , असुरक्षित     है    देश  .

    चोर विदेशी  कर रहे ,शतप्रतिशत विनिवेश ..



       नीति नियत  नेताओं की ,निजीकरण का खेल .

       सरकारी सिस्टम किया  , जान बूझ कर फ़ैल ..


       कालेधन  -मेंहगाई  से ,मुल्क हुआ हलकान .

      सीमाओं पर देश की , खतरे में    है    आन ..


     ' मिड डे मील 'की योजना ,निर्धन छात्रों के हेत .

      ' भ्रष्ट्र तंत्र '  सब खा गया ,बच्चों को विष देत . .


      सार्वजनिक उपक्रमों   के  , शत्रु  मुनाफा खोर .

      नेता -अफसर -बिचोलिये ,लूटत रिश्वत खोर ..


     राजनीति  के व्योम में , रहे गिद्ध  मंडराय .

      भारत के धन-धान्य  पर , चोंचें रहे  गड़ाय ..


       श्रीराम तिवारी

  


 

      

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

        
                विचार विहीन खंडित और अपरिपक्व व्यक्तित्व   से क्रांतियाँ  नहीं हुआ करतीं ...!


      मैंने अन्ना हजारे को तब भी गंभीरता से नहीं लिया था जब पिछले साल  जंतर-मंतर और राम लीला मैदान में उनके बागी तेवरों से घबराकर  कांग्रेस हाई कमान ने अपने चार-चार मंत्रियों को उनकी चिरोरी के निमित्त नियुक्त किया था .देश-विदेश के मीडिया ने जब 'अन्ना 'के दिल्ली वाले अनशन से प्रभावित होकर उन्हें 'राष्ट्रीय हीरो 'का दर्ज़ा दिया था तब भी मुझे अन्ना की योग्यता पर संदेह था और मेरा संदेह सच निकला जब अन्ना   कल इंदौर पधारे  तो कोई उन्हें पलक पाँवड़े  विछाने को  तैयार नहीं था और आज  के स्थानीय अखवारों में या तो अन्ना गायब  हैं  या सिंगल कालम न्यूज़ के रूप में  तीसरे  -चौथे पेज पर उन्हें बमुश्किल चार लाइनों में निपटा दिया गया है . याने अन्ना अब हीरो नहीं जीरो हो चुके हैं . लेकिन  प्रभुता का जो  मद अन्ना को तत्कालीन विराट जन-समर्थन  से व्याप्त होना प्रारम्भ  हुआ था वह अभी उतरा नहीं है . हालाँकि   पहले-पहले   अन्ना को' संघ-  परिवार ' का  परदे  के  पीछे से पुरजोर समर्थन था  किन्तु अब अन्ना संघ से दूरी बनाने की स्वयम कोशिश करते दिखाई दे रहे हैं .
                              स्वामी रामदेव  ने भी  अन्ना के सापेक्ष  अपनी बढ़त बनाए  रखने के लिए 'संघ परिवार' का भरपूर सहयोग लिया था और  वे अब भी बेधड़क   लिए  जा रहे हैं .इसके पीछे उनका मकसद किसी  से छिपा नहीं है ,रामदेव को अपनी दस हजार करोड़ के आर्थिक साम्राज्य की चिंता है .उन्हें राजनैतिक संरक्षण के लिए 'संघ परिवार'मुफीद है .किन्तु अन्ना की समस्या केवल उनके 'अहं ' की है  जिसे कांग्रेस ने ठेस पहुंचाई और जिसे भाजपा ने सहलाया है .अन्ना टीम के कुछ  जागरूक और गंभीर किस्म के लोगों को जब लगने लगा की उनके 'आन्दोलन ' का चरित्र कांग्रेस विरोध के रूप में स्थापित होता जा रहा है  और उनके तथाकथित 'जन-लोकपाल '  को रद्दी की टोकरी में फेंकने वालों में न केवल कांग्रेस बल्कि संघ परिवार  की अनुषंगी  भाजपा भी शामिल है ,और जनता भी  कांग्रेस-भाजपा को एक सामान मानकर ,' चोर-चोर मौसेरे भाई ' का नारा लगाने लगी है  तब अरविन्द केजरीवाल के नेतत्व वाले धड़े ने   अन्ना को राजनीती में उतरने के लिए सुझाव दिया। प्रारम्भ में अन्ना मान  भी गए थे  किन्तु   इस खबर से भाजपा और संघ परिवार  के होश उड़ने लगे    उन्हें  लगा कि उनके जनाधार याने वोट बेंक पर डाका पड़ने जा रहा था . क्योंकि   जो कुछ जमावड़ा  टीम अन्ना या स्वामी रामदेव के इर्द-गिर्द देखा गया वो तो 'संघ परिवार'का ही  उधार का माल था। अन्ना या रामदेव  के पास 'संगठन ' नाम  का  वास्तव में कुछ भी नहीं था और न  हैं बल्कि उनके धुर कांग्रेस  विरोधी तेवर और 'भ्रष्टाचार -उन्मूलक 'छवि के  आभा मंडल का उपयोग करने के उद्देश्य से 'संघ परिवार ' ने ही   अपनी  'फौज '  इन लोगों को जब-तब   उपलब्ध कराई है .अन्ना टीम के इस निर्णय से कि  वे एक नया राजनैतिक दल बनाने जा रहे हैं ,संघ परिवार ' ने अन्ना टीम में शामिल अपने  शुभचिंतकों को रायता ढोलने के  काम पर लगा दिया। नतीजा सामने है .अब अन्ना और केजरीवाल की राहें जुदा-जुदा हैं .केजरीवाल प्रशांत भूषण ,मनीष सीसोदिया और अधिकांस सुशिक्षित सहयोगियों ने 'आम आदमी पार्टी ' का गठन किया है  और कांग्रेस- भाजपा  दोनों  के  भ्रष्टाचार पर आक्रामक रुख अख्त्यार किये हुए हैं .जबकि अन्ना के पास न  तो  संगठनात्मक    क्षमता   है और न कोई दर्शन या सिद्धांत है .वे केवल कांग्रेस विरोध और दो-तीन घिसे पिटे नारों से आगे कुछ भी देख सुन और समझ नहीं पा रहे हैं .जिन  मूर्खों को  अन्ना में  ' दूसरा गाँधी  दिखता  था वे स्वयम नहीं जानते कि  'गांधीवाद ' क्या है ? 'केवल शेर की खाल ओढ़ लेने से गर्दभ शेर नहीं हो  जाता' बाली कहावत  अन्ना हजारे  पर चरितार्थ हो रही है , जिन्होंने  अन्ना को कंगूरे  पर  बिठाया  वे  उन्हें  छोड़कर  सक्रिय राजनीति  के रास्ते  पर चल पड़े हैं और अन्ना का तथाकथित गैरराजनैतिक जनांदोलन का  घिसा -पिटा  खटराग  अब धीरे-धीरे जनता के कानों को भी  खटकने लगा है।  भ्रष्टाचार विरोधी  देशभक्तिपूर्ण जनांदोलन की  भ्रूण ह्त्या के लिए कांग्रेस और भाजपा  तो जिम्मेदार हैं ही लेकिन स्वयम अन्ना भी इस 'हाराकिरी' के लिए जिम्मेदार हैं .
                                         अन्ना का जन -आन्दोलन और उसकी आवाज का असर अब समाप्ति की ओर  है।ज्यादा दिन नहीं हुए जब अन्ना ने देश भर से 6  करोड़ कार्यकर्ता जुटाने का ऐलान किया था .वे कई शहरों का भ्रमण कर कल इंदौर पधारे . मंच से आवाज लगाईं 'मुझे बस आपका एक साल चाहिए ,देश से भ्रष्टाचार मिटा दूंगा , जनतंत्र लाना मेरी जिम्मेदारी  है '..... बगैरह ..बगैरह…! उनके इस आह्वान पर इस शहर से जिन 6 5  लोगों ने   रजामंदी दी उनमें से अधिकांस 'आप ' के थे .यह आश्चर्य की बात है कि  अन्ना न केवल कांग्रेस बल्कि 'आप' को भी पानी पी -पीकर कोसते रहे . कांग्रेस का कुशासन और नीतियाँ तो जग जाहिर हैं और निंदनीय भी   हो सकती हैं  किन्तु 'आप' ने अन्ना का या देश का क्या बिगाड़ा यह किसी को भी पल्ले नहीं पडा। वेशक  मुझे अन्ना  से  यही उम्मीद थी क्योंकि मेरी नज़र में अन्ना वो मित्र हैं जिनसे मित्रता करने पर 'आपको ' किसी शत्रु की  जरुरत नहीं  ऐंसे .अन्ना से कांग्रेस को  क्या खतरा हो सकता है?  और भाजपा को क्या फायदा  हो सकता है ?  जो  'बरसाती गोबर ' से ज्यादा कुछ नहीं याने न लीपने  का  और न  पाथने  का  !
                                                      अन्ना  हजारे   रालेगन सिद्धि का एक 'एन जी ओ ' कार्यकर्ता  तथाकथित  जनसेवक  जो अपने आपको दूसरा गाँधी कहलाना पसंद करता है ,  जिसे  नरेन्द्र मोदी तो  'धर्मनिरपेक्ष 'नजर आ रहे हैं .  किन्तु  उसे मध्यप्रदेश में बलात्कार ,हत्याएं ,लूट और  भ्रष्टाचार नजर नहीं आया .  उसे राघवजी जैसे भाजपाइयों पर शायद गर्व है !उनकी राजनैतिक तटस्थता की पोल खुल चुकी है और उनमें क्रांतिकारिता का दिग्दर्शन करने वालों का मोह भंग होने लगा हैं .दो साल पहले 'जन-लोकपाल 'बिल को लेकर देश में अच्छी  -खासी जागृति आती दिखाई दी थी . अन्ना टोपी तो भृष्टाचार विरोध का प्रतीक बन चुकी थी . किन्तु न तो लोकपाल  का चमत्कार काम आया और न ही कोई 'ईमानदार राजनीती' की जन-क्रांति के आसार दिखाई दिए .सब कुछ वैसा ही  चल रहा है जो इस 'व्यवस्था ' को मंजूर है।  एक बार फिर अन्ना ने शंखनाद किया है , वे जो कुछ भी अब बोल रहे हैं उसमें अब प्रभावोत्पादकता नहीं रही .जनता अब उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करती इसीलिये  उनके इंदौर आगमन पर कुछ  गिने -चुने लोगों ने ही संज्ञान लिया ,उनमें भी 'आप' के  वही कार्यकर्ता  दिखाई दिए जो सभा स्थल पर माइक से अन्ना के श्री मुख से 'आप' और  केजरीवाल के खिलाफ 'आप्त बचन ' सुनते हुए सर धुन रहे थे . उन्हें उम्मीद थी कि  उनकी सदाशयता से अन्ना पिघल जायेंगे और शायद आगामी चुनावों में 'आप ' को समर्थन देंगे .किन्तु अन्ना को केवल आलोचना करना आता है .  उनकी योग्यता सीमित है ,उनकी समझ बूझ सीमित है और  राजनीती में तो वे   जीरो हैं। केजरीवाल के नेतत्व में  'आप ' के पवित्र उद्देश्य को संशय से देखने और राजनीती से परहेज करने का उनका नजरिया हास्यापद है .  अन्ना तो  गुड़  खाकर गुलगुलों से परहेज करने वालों से भी  गए बीते हैं  उनका राजनीती से हमेशा न-न करना और राजनीतिज्ञों   को ही कोसते जाना एक अपरिपक्व  किन्तु मह्त्वाकांक्षी व्यक्ति की मानसिकता का द्वेतक है .

        श्रीराम तिवारी
        

बुधवार, 10 जुलाई 2013

वर्तमान दौर का भारतीय ' तंत्र' आत्मघाती है ..![kavita]

         

       सरसरी तौर  पर कोई सामान्य बुद्धि का मानव -

      भी समझता है कि कौन सा वर्ग है इस देश में  दानव ,

       जो  केवल  आवारा वित्तीय पूँजी का गायक है .


       पूंजीवादी -दक्षिणपंथी -जातिवादी - क्षेत्रीयतावादी -            

       दलों का  विध्वंशक द्वन्द  केवल वर्चस्व वादी और ,

       नितान्त सत्ता हस्तांतरण  का अभीष्ट  फलदायक है  .


     नव-धनाड्य उच्च मद्द्य्म् वर्ग का सभ्रांत लोक ,

     प्रतिक्रियावादी-साम्प्रदायिक निहित स्वार्थी भद्रलोक ,
   
     एवं भूस्वामियों के लिए यह  भ्रष्ट  तंत्र बेहद आरामदायक है .


      सत्ता के दलालों का वित्तपोषक-सरमायेदार वर्ग ,

      जिसके  लिए यत्र-तत्र -सर्वत्र केवल स्वर्ग ही स्वर्ग ,

     ' भारत दुर्दशा ' के दुखांत नाटक का ये वर्ग  खलनायक है .


     धनबल-बाहुबल-छल-बल से  चुने गए जन -प्रतिनिधि -

      नहीं जानते नीति-रीति  और राष्ट्र विकाश की -विधि ,

      नैतिकता विहीन ये  वर्ग गैरजिम्मेदार और नालायक है .


       इतिहास के किसी खास दौर में भले ही बन जाए कोई ,

       ऐरा - गैरा -नत्थुखेरा किसी खास गेंग का नायक कोई ,

      अन्ततोगत्वा तो देश की  प्रबुद्ध जनता  ही महानायक है .


       लोकतंत्र  में हुआ करती आवाम-  धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र -आकांक्षी ,

        कार्यक्रम और नीतियाँ  हुआ करती  कौम  के लिए महत्वाकांक्षी ,

       खेद है   कि  इस दौर में  इन मूल्यों की अनुपस्थती  वेहद कष्टदायक है .


                  श्रीराम तिवारी

    


     

     

    

Face of Dirty Politics....!

     न्यूटन के सिद्धांत-'गति के तीसरे नियम' का साइंस के अलावा भी कोई  जीवंत उदाहरण देखना हो तो वर्तमान दौर के राजनैतिक परिद्रश्य पर दृष्टिपात  कीजिये .खास तौर  से मध्यप्रदेश के वर्तमान  क्षितिज पर।
    वर्जनाओं के कंगूरे पर  बैठकर 'हिन्दुत्व ' और राष्ट्रवाद का हो हल्ला मचाने वाले देश को , दुनिया को , और मीडिया को   जितना  ही भरमाने की कोशिश   कर रहे हैं 'संघ परिवार 'की आंतरिक विकृति उतनी ही तीब्रता से दिन-प्रतिदिन उन्हें सांस्कृतिक कुपोषण और अनैतिक मानसिकता का शिकार बता रही है .वेशक कांग्रेस इन दिनों जातिवाद ,साम्प्रदायवाद ,आर्थिक उदारवाद और महाभ्रष्ट 'सिस्टम' के दल-दल में आकंठ डूबी एक नितांत जर्जर पार्टी हो चुकी है। इस कांग्रेस को तो सबने देखा -परखा है ,किन्तु देश  के ' व्हाईट कालर्स ' खनन माफिया ,क्रिमिनल्स और साधू वेश में ढपोर शंख्यियो -यथास्थ्तीवादियों  को यदि एक साथ देखना हो तो केवल 'संघ परिवार' और मध्यप्रदेश में   उसकी अनुषंगी  -भाजपा  की ओर  अवश्य देखें .
                                   संघ परिवार और उसकी राजनैतिक दुहिता 'भारतीय जनता पार्टी ' चाहे नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार की  कमान सौंपे ,चाहे आडवाणी जी को एनडीए की  कमान सौंपे ,चाहे  तथाकथित  गुजरात माडल के विकाश को फोकस करे ,चाहे मध्य् प्रदेश के शिवराज  माडल  को पूरे देश के सामने फोकस करे  ,चाहे  अयोद्धया  में 'श्रीराम  लला  जू ' के भव्य मंदिर निर्माण  की कितनी ही   उदघोषनाएँ  की जातीं रहें , चाहे कांग्रेस एवं यूपीए  सरकार  की  आर्थिक -सामाजिक - वैदेशिक इत्यादि   प्रतिगामी  नीतियों  और  उसके  कुशासन   की बिना पर जन-समर्थन जुटाने के लाख  जतन  करते रहें  लेकिन बात "हनोज दिल्ली  दूरस्त " से आगे  नहीं बढ़  पा रही है अन्दर की खबर है कि कुछ  भाजपा  वालों ने कांग्रेस की कुंडली  वनवाई  है,शायद राहुल गाँधी की भी कुंडली बनवाई है और  बनवाने वालों के  लिए  और पूरे देश के लिए  प्रशन्नता की बात है कि कांग्रेस और राहुल दोनों को ही 2 0 1 4  के  आम चुनाव में केंद्र की सत्ता का  राजयोग नहीं है .

                                                              किन्तु 'पार्टी विथ डिफ़रेंस ' ,'चाल-चेहरा -चरित्र ', देशभक्ति-राष्टवाद   और 'रामराज्य की उद्घोषक पार्टी-  भाजपा की कुंडली में राजयोग है या नहीं ?एनडीए बचेगा या नहीं ?मोदी बनाम आडवाणी का द्वन्द थमेगा या विकराल रूप धारण करेगा ?ये सभी सवाल जनता के समक्ष  अनुत्तरित  क्यों रखे जा रहे हैं ? कार्पोरैट घरानों द्वारा संचालित एवं देशी-विदेशी पूँजी द्वारा नियंत्रित मीडिया इन सवालों को इस बहाने हवा में  नहीं उड़ा सकता कि  कांग्रेस चूँकि अब अलोकप्रिय हो चुकी है और अपने वर्गीय हितों के संरक्षण के लिए पूँजीवादी  वैकल्पिक  सत्ता प्रतिष्ठान जरुरी है !  इसीलिये भाजपा के किसी कद्दावर नेता विशेष   को महिमा मंडित कर उनके पक्ष में जन- मानस तैयार कर अपने वर्गीय स्वार्थों की हिफाजत का इंतजाम किये चलो .देश जाए भाड़ में!देश में गरीबी बढती है तो उनके ठेंगे से!  देश आर्थिक संकट में फंसता है तो फंसा करे ! चूँकि अभी तो कांग्रेस की कुंडली में ग्रहयोग सत्ता पुनर्प्राप्ति के  अनुकूल नहीं हैं इसीलिये शातिर दलबदलू नेता की तरह  पूंजीवादी लाबी की पुरजोर कोशिश है कि  देश  की राजनीती में उनकी पकड यथावत   बनी रहे  इसलिए 'जहां दम वहाँ हम ' के अनुसार अपनी सेटिंग  की गई है . चूँकि  संघ परिवार ने 'नमो जाप ' चला रखा है सो ये हिंदुत्व वादी  पूंजीपति वर्ग भी उधर ज़रा ज्यादा ही    झुका   हुआ है .इस  के बावजूद  भाजपा और एनडीए में रंच मात्र निखार नहीं आ पा रहा है .  वास्तव में  यदि  भाजपा की कुंडली वनवाई  जाए तो  भाजपा   समर्थकों और नेताओं को भी  कुछ खास ख़ुशी नहीं  होगी  . सुधीजन स्वयम   निष्पक्ष होकर सार्वदेशिक  और राजनैतिक वैबिद्ध्ता के दृष्टिकोण से  सोचें कि ऐंसा   क्या लिखा  होगा  भाजपा की कुंडली में जिसे  जान लेने के बाद फिलवक्त तो हताशा ही हाथ लगेगी ?
                                                  यदि कुछ न सूझ पड़े तो   मध्यप्रदेश के दिग्गज भाजपा   नेता'राघवजी' से पूंछो,अरविन्द  मेनन से पूंछो ,अजय विश्नोई से पूंछो ,ध्रुब नारायण सिंह से पूंछो  उनके बगलगीर तरुण विजय से पूंछो ,संजय जोशी से पूंछो और यदि इनसे उत्तर न मिले तो जूदेव ,बंगारू लक्षमन ,येदुरप्पा  तथा कल्याण सिंह से भी   पूंछो  कि ' राम लला  अभी तक टाट में क्यों है ?और भाजपाई नेता  एवं नेत्रियाँ ठाठ में क्यों हैं ? 'इसके  बरक्स वेशक  कांग्रेस पार्टी या यूपीए ने कभी दावा नहीं किया कि  वे दूध के  धुले हैं ! निसंदेह कांग्रेस एक बूढी बीमार पार्टी हो चली है,उसकी  स्वाधीनता संग्राम की पुण्याई  लगभग खत्म होने को है , उसके कई नेताओं पर समय -समय पर भृष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं,    उसकी मनमोहनी आर्थिक नीतियाँ देश को बर्बाद कर रहीं हैं    किन्तु  यह अकाट्य सत्य है  कि  तमाम  कांग्रेसियों ने  देश को पैंसठ साल में जितना लूटा होगा उतना तो अकेले मध्यप्रदेश के भाजपाइयों ने 'शिवराज '  के नेतत्व में सिर्फ आठ साल में ही लूट  मारा है . इतना ही नहीं नैतिकता  के मामले में  तो  भाजपाई कांग्रेस से  कोसों दूर  आगे निकल गए हैं , हालांकि  'जर  -जोरू  -जमीन  ' का अप  हरण तो कांग्रेसी और  भाजपाई दोनों ही  बड़ी दबंगई से करते  ही आ  रहे हैं किन्तु' शुचिता ' का नारा लगाने वाले 'संघ 'अनुशाषित  - भाजपाइयों का चारित्रिक पतन   बेहद शर्मनाक है  .
                                                                                                       संघ -जनसंघ और भाजपा के संस्थापकों में से एक  पुराने  चार्टर्ड अकाउंटेंट,मध्प्रदेश के वित्त मंत्री - उन्यासी वर्षीय केविनेट मंत्री राघव जी ने न केवल कई महिलाओं  के साथ  बल्कि अपने पुरुष नौकरों के साथ  भी कुक्र्त्य  किया है . भले ही उनकी बीस से अधिक   सी डी देखकर शिवराज ने उन्हें मंत्री परिषद् से हटा दिया है किन्तु पार्टी पर लगे दाग को धोने की हडबडाहट में  वे भारी  भूलें कर चुके  हैं . जिस नोकर ने इस अत्याचार से  निजात पाने  के लिए पुलिस  और सरकार की शरण माँगी उसके प्राणों पर आ बनी है . पोलिस ठाणे में ही उस पर प्राणघातक हमला हो चूका है .उधर राघव जी  अपने धनबल ,जनबल और बाहुबल से अपनी अग्रिम जमानत जुटाने में लगे हैं .  शिवराज अब स्वयम संदेह के घेरे में आते जा रहे हैं .  वे न्याय के साथ नहीं दिख रहे बल्कि पार्टी और सरकार की छवि को बचाने के 'डेमेज कंट्रोल ' में अपनी पूरी ताकत से  जुट गए हैं ,आपाधापी में वे जनता की मनोदशा  और न्याय प्रक्रिया की अवहेलना  करते हुए न केवल राघव जी बल्कि अन्य तमाम दुराचारियों को भी इसी तरह से लगातार पालते -पोषते रहे हैं . एक केविनेट मिनिस्टर  वर्षों  से अपने नौकर के साथ अप्राकृतिक कुक्र्त्य  करता रहा और मुख्य मंत्री को कुछ भी मालूम न हो यह संभव नहीं . यदि संभव है तो फिर मुख्य मंत्री के योग्य नहीं .  शिवराज की वर्तमान दुर्दशा से  श्री लाल कृष्ण आडवाणी  जी को सबसे ज्यादा धक्का लगेगा. उन्होंने ही सबसे पहले   शिवराज में  राष्ट्रीय नेत्रत्व क्षमता  देखी  थी . इतना ही नहीं हर रोज उन्होंने शिवराज सिंह चौहान को नरेद्र मोदी से बेहतर बताकर संघ परिवार और उसकी आनुषांगिक भाजपा में बैचेनी पैदा कर दी थी.आज जब मोदी 2 0 1 4   के   अश्वमेध के लिए  - अमित शाह ,बाब रामदेव , राजनाथ , अशोक सिंघल ,जेटली जैसे योद्धाओं   और संघ परिवार  को अपने पक्ष में   राष्ट्र व्यापी  प्रचार अभियानचलाने  में  लगा  चुके हैं तब शिवराज उनके सामने पासंग  भी नहीं  लगते .
                                     इन दिनों मध्यप्रदेश में रोज 6 0  महिलायें गायब हो रही हैं . हर रोज ओसतन 5  महिलाओं की  ह्त्या होती है .ओसतन हर माह 2 0  नाबालिग लड़कियों से रेप हो रहा है .विगत त्रिमासिकी में एक सौ सत्तर महिलाओं और छोटी बच्चियों से दुश्क्र्त्य  किया गया .विगत एक वर्ष में गरीबी और  भूख मरी से पीड़ित 4 0 2  किसानो ने आत्म ह्त्या की ,3 2  युवतियां ज़िंदा जलाई गईं .8 3  नाबालिग  किशोरियों से दुश्क्र्त्य किया गया .यह जानकारी मध्यप्रदेश के गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता  ने 8  जुलाई को स्वयम विधान सभा में दी .एक कांग्रेसी विधायक के पूरक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने तत्सम्बन्धी जो जानकारियाँ दीं उसकी एक झलक ही हांडी के चावल के रूप में यहाँ प्रस्तुत की गई  है .सम्पूर्ण व्रतांत इस प्रदेश का और सता रूढ़ भाजपा का बेहद शर्मनाक है . जहां तक विकाश के दावे का प्रश्न है  विकाश तो हुआ है! लेकिन  केवल  नेताओं ,अफसरों और अमीरों का ,दिलीप सूर्यवंशियों का , सन्नी गौर एंड  ब्रदर्स जैसे सत्ता के दलाओं का , ठेकदारों का , संघ और भाजपा से जुड़े  अधिकांस 'स्टेक -होल्डर्स ' का . खायापिया सबने लेकिन पाप का घडा फूटेगा सिर्फ  शिवराज के सर .उन्हें आगामी विधान सभा चुनाव में  हेट्रिक बनाने की पूरी उम्मीद थी और अभी भी वे आशान्वित हैं किन्तु प्रदेश के मंत्री , और पार्टी  पदाधिकारी  जिस तादाद में बदनाम हो रहे हैं उसमें  उन्हें अपने ही दल के  किसी विभीषण  के हाथ होने का अंदेशा  सा होने लगा है . कहाँ तो चौवे चले  थे छब्बे बनने  किन्तु अब तो दुबे बनने की संभावना बढ़ती जा रही है .  नरेन्द्र मोदी  का हर प्रति द्वन्दी  पिटता  जा रहा है .बिहार में नीतीश  संकट में हैं ,दिल्ली में आडवानी -सुषमा -यशवंत सिन्हा शोकग्रस्त हैं , मध्यप्रदेश में आडवाणी -सुषमा और अटल के खासमख़ास शिवराज सिंह चौहान  पर भारी विपदा आन पडी है इस खबर से सबसे ज्यादा खुश मोदी ही हो सकते हैं !  शिवराज को अब दिल्ली की नहीं मध्य प्रदेश की चिंता सता रही होगी . शायद भाजपा के इस संकट से मध्प्रदेश में कांग्रेस का वनवास खत्म हो जाये.
         भाजपाई   कर्नाटक खो चुके हैं ,बिहार में भाजपा और जदयू की  फूट  से  दोनों का पराभव निश्चित है ,राजस्थान और छ ग में भाजपा और कांग्रेस 'नेक्टू नेक ' है, इन राज्यों में   एनडीए  के अलायन्स पार्टनर हैं ही नहीं . केरल बंगाल त्रिपुरा में वाम पंथ के कारण  भाजपा का  अभी तक खाता भी नहीं खुला है,. तमिलनाडु में भी कोई खास उपस्थति  नहीं है महाराष्ट्र में गडकरी  और मुंडे  जैसे महान नेता हैं जिनके कुख्याति से सब परिचित हैं , आंध्र में वेंकैया जी तब कुछ नहीं कर पाए जब वे खुद भाजपा अध्यक्ष थे अब क्या कर पायेंगे ? उधर अकेले गुजरात के दम पर भारत भूमि के सर्वे सर्वा बनने के लिए व्यग्र नरेन्द्र मोदी न केवल  कांग्रेस की आर्थिक नीतियों को दुहरा रहे हैं बल्कि कांग्रेस की तर्ज पर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सहला रहे हैं  यह देश का सबसे बड़ा  दुर्भाग्य .  एनडीए की कुंडली में क्या लिखा है ये तो आदरणीय आडवाणी जी' नागपुर वालों' को पहले से ही बता आये हैं! अब यदि गोस्वामी तुलसीदास लिख गए हैं कि :-

            फूलहिं फलहिं  न बेत ,जदपि सुधा बरसहिं जलधि ....

 तो क्या गलत लिख गए ? गुजरात में मोदी जी लाख कोशिश कर लें आधी सीटें भी लोक सभा की गुजरात में बचा पायें तो गनीमत ,क्योंकि  उनके अतीत की काली परछाई पीछा छोड़ने  को तैयार नहीं , गुजरात विकाश का ढपोरशंख केवल दो-चार शहरों में  तो बजाया  जा सकता है किन्तु  गुजरात  के गावों की हालात देश के अन्य प्रान्तों के गाँवों से जुदा नहीं है .  भूंखमरी  वेरोजगारी और शोषण जितना गुजरात में है उतना तो बिहार में भी नहीं . गुजरात की और देश की  कारपो रैट  लाबी  भाजपा  और मोदी के लिए  रुपया तो  जुटा  सकती है किन्तु जनता को बेबकूफ बनाकर   वोटों में इजाफा नहीं कर सकती . यदि  ऐंसा संभव होता तो आज़ादी के बाद   टाटा  -बिडला -डालमियां और आज के इस दौर में -अम्बानी बन्धु ,अजीम प्रेमजी ,नारायनमूर्ती या सुनील मित्तल भारती  देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति होते   . नरेन्द्र मोदी हों ,राजनाथ हों ,कल्याणसिंह हों ,उमा भारती हों , अमित शाह या कोई भी तीस मार खां  हों उत्तरप्रदेश में आज तो  सेंध नहीं लगा सकता ! क्योकि  कट्टर हिन्दू वोट दो-दो बार संगठित  रूप से 'राम लला ' के नाम पर भाजपा को दिए जा चुके हैं . हो सकता है कुछ प्रतिबद्ध लोग अभी भी हों किन्तु उतने से  हिंदुत्व के नाम की काठ की हांडी  द्वारा नहीं चढने वाली . विगत बीस सालों में गंगा का पानी    उतना  गन्दला नहीं हुआ जितना  उत्तरप्रदेश का सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकृतीकरण हो चूका है। इसके लिए कांग्रस ,भाजपा और जातीवाद की राजनीती करने वाले तत्व भी बराबर के जिम्मेदार है .यूपी में हिन्दू  हैं ,मुसलमान हैं , सवर्ण हैं ,यादव हैं ,पिछड़े हैं ,दलित हैंकिन्तु अब भारतीय बहुत कम हैं .हैं भी तोउनके लिए  जात -पांत धरम-मजहब पहले देश बाद में .  हिन्दू कट्टरवाद तो न के बराबर ही है , बहुत कम  होंगे  जो राम  लला के नाम पर  या हिंदुत्व के नाम पर वोट करेगें .  वैसे भी अब तो सपा-बसपा के बीच यु पी की जनता का बटवारा हो चूका है . कांग्रेस को और खास तौर  से भाजपा और मोदी  को यूपी से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये. मध्यप्रदेश से भी अब शायद उतना रिस्पान्स  नहीं मिलने वाला कि  'दिल्ली सुलतान'बन सकें ...!

                                             श्रीराम तिवारी     

शनिवार, 6 जुलाई 2013

uttrakhand prakrut aapdaa se kya sabak seekha ... hamne...?

     कुदरत  का कहर कुछ सन्देश भी देता है   ..!  क्या भारत के नेता और जनता सबक  सीखने  को तैयार  हैं  ?

   उत्तराखंड   की सद्द्जनित  प्राकृत आपदा   के दो हफ्ते बाद    भूंखे- प्यासे, डरे-सहमे , और बचे -खुचे जीवित लोग जब   अपनी घोर ह्रदय विदारक  आपबीती सूना रहे हों ,  जब इस खंड-प्रलय  जैसे  कुदरती  कहर    में मारे गए लगभग 1 0  हजार मानवों  की  दारुण व्यथा ,  देश और दुनिया  को मीडिया के मार्फ़त  दिखाई  जा रही हो ,  तो समाज और देश को  क्या करना चाहिए ? क्या  जीवित लोटे  बंधू-बांधवों को बधाई और दिवंगतों को शोक संवेदना  व्यक्त कर  देना ही कर्तब्य परायणता है ? सिर्फ इतने मात्र से  अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी कर ,जिन्दगी के 'भारतीय ढर्रे 'पर पुनः  चलने को तो  हम भारतीय  अभिशप्त   नहीं हैं ?. यदि   हमें अपने हिस्से की जमीन ,अपने हिस्से का  आसमान , अपने हिस्से का सूरज ,अपने हिस्से का स्वाभिमान ,अपने हिस्से की आजादी  और अपने हिस्से का जीवन चाहिए तो, अपने हिस्से की कुर्बानी न सही , अपने हिस्से का योगदान  देने की मंसा तो हमारे मनोमश्तिस्क में होनी ही  चाहिए! चाहे विदेशी आक्रमण हो ,प्राकृत आपदा हो ,वैज्ञानिक  अधुनातन विकाश हो  या देश और दुनिया  में   हो रहे प्राकृतिक , मानवीय , तकनीकी -आर्थिक - सांस्कृतिक  सामाजिक  ,नीतिगत और राजनैतिक परिवर्तन हों , भारत  के  जागरूक जन- गण  को चाहिए कि  इन  सभी  सरोकारों को सदैव  अद्द्य्तन करते रहें।
                    .हमें न केवल  उत्तराखंड की प्रस्तुत प्राकृत आपदा से बल्कि  हर उस घटना से  सबक सीखना होगा जो हमारे देश को ,समाज को या अपरोक्ष रूप से  हमारे व्यक्तिगत  या सामूहिक हितों को  प्रभावित करती हो। जिस तरह  रूस ने चेर्नोबिल से सबक सीखा ,जापान ने भूकंप -सुनामी और हिरोशिमा-नागाशाकी पर हुए परमाण्विक हमले से सबक  सीखा .अमेरिका ने 9 -1 1  के आतंकी हमले से सीखा ,चीन ने  अपने अतीत  की विपन्नता ,भय ,भूंख ,भृष्टाचार को मिटाने वाली 'लाल-क्रांति' से सीखा . दुनिया  के  हरेक जागरूक व्यक्ति -समाज और राष्ट्र ने  अपने अतीत के अनुभवों से वर्तमान को सुखद बनाया और भविष्य  को  निरापद बनाने का भरसक प्रयास किया है . भारत में भी  व्यक्तिगत  स्वार्थों  को पूरा करने में माहिर नर-नारियों  की कोई  कमी नहीं है . किन्तु भारत की जनता ने एक 'राष्ट्र 'के रूप में ,समग्रता के रूप में सामूहिक हितों   को कोई खास तवज्जो नहीं दी। इसीलिये इतिहास में कई मर्तबा इसे  ठोकर  खानी पडी .चाहे विदेशी आक्रमण हो , साम्प्रदायिक वैमनस्य हो ,क्षेत्रीयतावाद हो , अलगाववाद हो ,प्राक्रतिक आपदा हो  या  राजनैतिक -सामाजिक  नकारात्मकता हो - हम भारतीयों ने किसी भी संकटापन्न   स्थिती  से सबक सीखने की कोई खास   कोशिश  नहीं  की .हर साल ब्रह्मपुत्र ,गंगा और  अन्य नदियों में बाढ़ आती  ही  है सेकड़ों की जाने जाती  ही हैं ,लाखों बेघर हो जाते हैं हमारा आपदा प्रबंधन और समस्त सिस्टम क्या जानता नहीं कि  इस साल भी यही होने वाला है ? फिर  बचाव की तैयारी  या स्थाई बन्दोबस्त  क्यों नहीं किया जाता ? अधिकारी वर्ग  केवल ,वेतन भत्ते,मेडिकल क्लेम  इत्यादि निहित स्वार्थों में या सैर -सपाटों में ही  व्यस्त रहता है,  केंद्र और राज्य सरकारों  और राजनैतिक पार्टियों से उम्मीद करना  तो नितांत  मृगमारिचिका  ही है .सूखा ,ओले-तुषार और पाला पीड़ितों  का मुआवजा भी किसानों तक बहुत कमपहुँच पाता  है ,  लेकिन  इस  महा भृष्ट शाशन -प्रशासन के पेट में अधिकांश  समा  जाता है

                                                      भारत में  अमेरिकी  कम्पनी 'यूनियन कार्बाइड 'जब  भोपाल के नज़दीक  खतरनाक जहरीली गेसें उत्सर्जित करने वाला  उर्वरक  कारखाना  डाल  रही थी तब भारतीय जनता  और  खास   तौर  से भोपाल की जनता मौन व्रत  धारी  क्यों बनी रही ? यूनियन कार्बाइड या उसके मालिक एन्डरसन   का तो भोपाल के लोग कुछ नहीं उखड पाए किन्तु जब हजारों मर गए और  सेकड़ों  अपंग हो गए तो उनके नाम पर  गिद्धों की तरह' मरे हुए' का  खाने को टूट पड़े ,भोपाल  के वास्तविक   गैस  पीड़ित लोग तो कबके  मर मरा गए किन्तु  उनके नाम पर राजनीती करने वाले शोहदे और लालची  लोग अभी तक  देश  को लूट रहे हैं . गैस पीड़ितों की ओट  में  निहित स्वार्थियों -दलालों ,नेताओं और दवंगों ने सरकारी  खजाने से लगभग सौ अरब रूपये खींच कर डकार लिए। जबकि  इस दुखद  घटना से कोई सबक सीखने का प्रमाण अभी तक देश की या भोपाल की जनता ने नहीं दिया .  देश  का राजकोषीय घाटा उनका भी घाटा है ये चेतना यदि  लोगों में  होती तो सरकार के उस नीतिगत फैसले का विरोध  अवश्य करते  जिसके कारण जहरीली गेस का कारखना भोपाल में लगाया गया।  क्या अमेरिका ,यूरोप  या जापान के लोग ऐंसा होने देते ?
                                                       इन दिनों कई देशी विदेशी  कम्पनियों को भारत एक उभरता हुआ बाज़ार  नज़र आ रहा है  सो वे केंद्र-राज्य सरकारों की मेहमान नवाजी का लुत्फ़ उठाते हुए एक ओर प्रचुर प्राकृत संपदा के दोहन का लायसेंस हथिया रहे हैं दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण और घातक बीमारियों   का आयात कर रहे हैं .  दूर संचार के क्षेत्र में कहने को तो 'संचार क्रांति ' हो रही है किन्तु देश की जनता को आने वाले समय में इसकी जो कीमत चुकानी होगी उसका अभी बहुत कम लोगों को अंदाज है . आर्थिक  उदारीकरण   के नाम पर विगत दस-पंद्रह सालों में सरकारी क्षेत्र की ,सार्वजनिक क्षेत्र की संपदा को न केवल ओने-पोने  दाम पर देशी -विदेशी 
पूंजीपतियों  को सौजन्यता पूर्वक परोसा जा रहा है बल्कि देश की सुरक्षा के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है .
 जिन सार्वजनिक उपक्रमों को पंडित नेहरु देश के नौरत्न या नए राष्ट्रीय 'मंदिर' कहा करते थे उन्हें कांग्रेस  और  एनडीए दोनों ने  ध्वस्त कर दिया है . इस उदारीकरण की नीति के परिणामस्वरूप आज देश पर सौ लाख करोड़ डालर से अधिक  का  विदेशी क़र्ज़ चढ़  चुका  है ,भारतीय रूपये का निरंतर अवमूल्यन होता जा रहा है . भारतीय बीमा क्षेत्र ,सरकारी बैंक की  जमा पूँजी इस अवमूल्यन से स्वतः ही आर्थिक रिसन की शिकार है .इतना ही नहीं इस आर्थिक  उदारीकरण ने जबसे निजी क्षेत्र को  टेलीकॉम  सेक्टर में घुसने की छूट दी तभी से देश को न केवल सीमाओं पर, न केवल अंदरूनी नक्सल पीड़ित क्षेत्रों पर बल्कि  अखिल  भारतीय स्तर पर  एक   नई  भयानक  आपदा का सामना करने को मजबूर होने की पूरी संभावना है .सरकारी क्षेत्र में  दूर संचार के विकाश को देश की  सुरक्षा के   अनुरूप किया जाता रहा है  अब .निजी आपरेटरों  ने गलाकाट प्रत्स्पर्धा के चलते न केवल  ट्राई   द्वारा  निर्धारित नार्म्स   की  अनदेखी की  है  बल्कि देश के हर शहर गाँव-गली में उच्च फ्रिक्वेंसी के टावरों का जाल बिछा डाला है जो मानव  स्वास्थ्य ही नहीं  बल्कि प्राणिमात्र और वनस्पतियों पर  प्रतिकूल प्रभाव के लिए सारी  दुनिया में कुख्यात हो चुके हैं  .टू -जी ,थ्री -जी के बारे में जो केग की रिपोर्ट सरकारी भृष्टाचार की पोल खोलती नज़र आती है वो तो सिर्फ उस हांडी का एक चावल भर है जो निजी क्षेत्र की राष्ट्र विरोधी हांडी से निकाला गया था . जहां एक ओर  मानव स्वास्थ्य  के लिए टावरों के विकिरण कुख्यात हो रहे हैं , वहीँ दूसरी ओर  निजी आपरेटर्स द्वारा आतंकवादियों ,नक्सलवादियों से लेकर जेलों में बंद अपराधियों तक मोबाइल सिम 'घर पहुँच 'सेवा के रूप में पहुंचाई जा रही है .इसका खुलासा विकिलीक्स से लेकर भारतीय सेनाओं तक किया है  किन्तु कमीशन और रिश्वत  के भूंखे उच्च अधिकारियों  और कांग्रेस -भाजपा के  पूर्व संचार मंत्रियों ने  देश के साथ सरासर  गद्दारी की है , इस पर देश की जनता मौन क्यों क्यों है ?       
                                     आजादी के  तुरंत बाद पंडित नेहरु के   नेतत्व में   भारत  ने  दुनिया के साथ कदम ताल करते हुए  'पंचशील ' के सिद्धांतों के अनुरूप वैश्विक सम्मान अर्जित किया  था .पंडित नेहरु  एक विश्व नेता के रूप में तो उभर रहे थे किन्तु वे अपनी राष्ट्रीय और तात्कालिक आवश्यकताओं  की आपूर्ति करने में  कुछ शिथिल रहे .  खास तौर  से  देश की सीमाओं की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम और आक्रामक कूटनीति में
 वे  अपने पड़ोसियों से पिछड़ गए . सीमा के सवाल पर जब भारत -चीन सम्बन्ध कटुतापूर्ण हो गए तो  युद्ध की स्थिति बन गई . भारतीय  नेताओं की रणनैतिक  अकुशलता  के कारण भारतीय फौज को   चीनी सेनाओं  के  हाथों  शहादत देनी पड़ी .1 9 6 2  में  अंग्रेजों के जमाने  के जंग लगे हथियारों  से, लगभग भूंखे -प्यासे भारतीय सेनानियों ने उन्नीस सौ बासठ की लड़ाई में   हिमालय की बर्फीली चोटियों पर  चीन की उस   'लाल - सेना '    से युद्ध किया  जिससे अमेरिका ,रूस ,जापान और इंग्लॅण्ड भी कांपता है . चीन के हाथों लुटे -पिटे भारत ने अपने राष्ट्रीय  स्वाभिमान और राष्ट्रीय एकता-अखंडता के लिए  रूस से मित्रता की।  जिसने संयुक्त राष्ट्र में' सात बार ' भारत के पक्ष में 'वीटो' का इस्तेमाल किया . सोवियत संघ के सहयोग से  भारत  बाद में इतना शक्तिशाली बना कि  उन्नीस सौ  इकत्तर में पाकिस्तान की एक लाख सेना से न केवल हथियार डलवाए बल्कि 'बांग्ला देश ' भी बना डाला  ये सब देश की  जागरूक  जनता और बहादुर सेनाओं ने किया  एकजुट  होकर किया था फिर अब क्यों नहीं कर सकते ?  हालांकि उस समय  यह सब कराने के लिए तब देश  के   पास  अतीत की पराजय का दंश  अवश्य था ,  सेन्य  बलों  को आधुनिकतम अश्त्र -शश्त्र  से लेस किया जा चूका था , श्रीमती इंदिरा गाँधी के रूप में शानदार   नेतत्व भी  था . सिर्फ इतना ही नहीं  भारतीय विकाश गाथा के  इतिहास में  परमाणु शक्ति  सम्पन्नता-पोकरण परमणु बम विस्फोट ,श्वेत  क्रांति ,हरित क्रांति  और संचार क्रांति का श्रेय भी इसी  नेतत्व को दिया  जाता है  उन्नीस सौ इकहत्तर के बाद से  अब तक भारतीय जन- मानस ने  भले ही दुनियावी  तौर  पर  पाकिस्तान  को माफ़ कर दिया हो   किन्तु यह कटु सत्य है कि   हमारे ही कुछ आधुनिक जैचंद और  सरमायेदार उस विजय के बलिदान को भुलाकर देश को लूटने में जुटे हैं .  कुछ  नादान  नासमझ अंधराष्ट्रवाद   की आग में जल रहे हैं ,कुछ अलगाववाद की भट्टी में झुलस रहे हैं।सरकार और विपक्ष केवल वोट की राजनीति  में उलझे हुए हैं . देश की आवाम ने भी उस जज्वे को भुला दिया जो विपत्ति  के दिनों में अनुभूत हुआ था .इसलिए रहीम कवि  का दोहा  आज भी  स्मरणीय है कि -
   
     रहिमन विपदा हु भली , जो थोरे दिन होय .

     हितु - अनहितू  या जगत में , जान  परत सब कोय ..

         यदा - कदा  आपदा या विपत्ति आती भी हो तो उसका स्वागत है ,क्योंकि विपत्ति के दौरान  मालूम पडेगा  कि  कौन हितेषी है और कौन केवल छुद्र स्वार्थी ...!  इस विपदा से भविष्य में सावधानी के सबक भी मिलते ही हैं . हमें इस दौर में न केवल उत्तराखंड जैसी प्राकृत आपदाओं बल्कि अतीत की भूलों और वर्तमान  के समष्टिगत प्रमाद से न केवल सबक सीखना होगा अपितु सावधान भी रहना होगा . बाजारीकरण -उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर   में  देश  खस्ताहाल है . डालर के सामने रूपये की  दुर्गति किसी सामंत युगीन गुलाम की तरह हो  चुकी   है  रिश्वतखोरी और निम्न मानकों के  सेन्य उपकरणों   की खरीदी पर  रक्षा मंत्रालय  के नौकरशाह और उच्च सेन्य अधिकारी सदैव  संदेह के घेरे में रहे  हैं .  आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीति ने देश  के पूंजीपति या  सभ्रांत वर्ग ही नहीं बल्कि  नव-धनाड्य के रूप में उच्च  मध्यम  वर्गीय देशवासियों को   स्वार्थी ,लालची और निर्लज्ज बना डाला है . आज स्थिति 1 9 6 2  जैसी है तब भी भारत के नेता अमेरिकी  नीतियों और  सिफारिशों पर  लट्टू थे और आज  का नेतत्व भी अमेरिकन साम्राज्यवाद  की आर्थिक नीतियों के  सामने घुटने  टेक कर ,एन-केन  -प्रकारेण  यूपीए द्वतीय  की जीर्ण-शीर्ण  नाव खे रहा है . विपक्ष  के   प्रमुख अलायन्स एनडीए  की  भी कोई पृथक  आर्थिक नीति नहीं है .इसके प्रमुख घटक  भाजपा  और उसके तथाकथित नए ब्रांड  नेतत्व को देश के पूंजीपतियों की ओर से पहले से ही आशीर्वाद  प्राप्त है .  वामपंथ के पास अवश्य ही ठोस आर्थिक-सामाजिक  वैकल्पिक नीतियाँ हैं किन्तु वर्तमान   संसदीय प्रजातंत्र  की कुछ खास खामियों के चलते वे सत्ता  के लिए   जन-समर्थन जुटा पाने में असमर्थ हैं . शेष  क्षेत्रीय दल केवल दल-दल ही हैं ,उन्हें देश के  विकाश का भले ही ककहरा न मालूम हो किन्तु वे अपने - अपने उल्लू सीधे करने में  कामयाब  तो अवश्य हो ही  जाते  हैं . देश पर बाहरी आक्रमण हो,आंतरिक आतंकवाद हो देश में बदअमनी  हो ,शोषण हो ,महँगाई  हो ,ह्त्या -बलात्कार हो  या प्राकृतिक आपदा हो इन सवालों पर -क्षेत्ररीय  छुद्र राजनीतिज्ञों के पास इन तमाम  चुनौतियों का कोई समाधान नहीं है . उनके पास  किसी  तात्कालिक - दूरगामी नीति या तत्सम्बन्धी दिशा निर्देशों का नितांत आभाव है . वे हतप्रभ होकर- मीडिया के समक्ष ' आएं -बाएँ  ' करने लगते हैं .  उनकी इस सूरते -हाल पे जनता 'कुछ करने ' के बजाय  सर धुनती रहती है . इन स्वनामधन्य  जन-नेताओं  और  तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' को  इस बात की चिंता नहीं की देश  में फासिज्म  के आसन्न खतरे  क्या हैं ? वे जातीय, भाषाई ,साम्प्रदायिक आधार पर वोटों की  खेती करते रहते  हैं . अलगाववाद नक्सलवाद  ,सम्प्रदायवाद ,जाति वाद, ने राजनीती में कितना घालमेल कर रखा है ? इतना ही नहीं देश  को संचार क्रांति के नाम पर सीधे-सीधे सामूहिक कब्रगाह  बनाये जाने के  दुश-प्रयोजनों को भी  समझ पाने में देश के नेता और वुद्धिजीवी सभी असफल रहे हैं .
                                                         देश में 2 -जी ,थ्री -जी और अब फोर जी की तो बहुत चर्चा है  किन्तु इन  ग्लोबल सर्विस मोबाइल सेवाओं   के  विस्तार और सर्विस प्रोवाइडरों  की अंधाधुन्द मुनाफाखोरी के चलते देश की  आवाम को एक भयावह अंध कूप की ओर धकेला जा रहा है जिसका नाम है 'विद्दुत चुम्बकीय तरंग ' क्षेत्र .  इसके दायरे में  आने वाले प्राणिमात्र  के जीवन को खतरा है ,जो लोग  आरोप लगाते हैं कि  उत्तराखंड आपदा के आगमन की सूचना उन्हें नहीं मिली, मैं उन सभी को इस सम्पादकीय के मार्फ़त पूर्व में ही आगाह करता हूँ  कि  आप अनजाने ही दूर संचार के टावरों से उत्सर्जित घातक   विकरणों  के शिकार होते जा रहे हैं .

                                               विगत  सोलह-सत्रह जून के   दरम्यान  हिमालय की चोटियों पर विकराल  -प्रलयंकर  बादलों का फटना और एक  विशेष ग्लेशियर  के प्राकृतिक तट - बन्ध  का टूटना कोई अनोखी और अप्रत्याशित घटना नहीं है। इस पर ये शोर मचना कि  ये तो कुदरत से छेड़छाड़ का परिणाम है ,ये एक अर्ध-सत्य  हो भी  सकता है, वो भी किसी अन्य भूभाग की किसी और प्राकृतिक आपदा के सन्दर्भ में . यह ज्ञातव्य है कि  पहाड़ों पर बाँध बनाना या नदियों का रास्ता बदलने का सिलसिला भारत में तो  'भागीरथ ' के जमाने से  जारी है . सुशिक्षित इंजीनियर या भूगर्भ वेत्ता यदि  जन-हित में ,राष्ट्र हित में धरती  से   ,नदियों  से  , महासागरों   या पहाड़ों   से छेड़छाड़ नहीं करते तो पनामा-स्वेज नहरें नहीं होती ,नेपोलियन आल्पस पार नहीं कर पाता , तिब्बत हिमालय की गोद में नहीं   वसता  बिना प्रकृति से छेड़छाड़ किये   इंसान न तो चाँद पर पहुचता और न ही  मंगल पर पहुँचने की कोशिश करता .  पहाड़ों से छेड़छाड़ किये बिना  कोंकण रेलवे ,जम्मू रेलवे की कल्पना भी नहीं  की जा सकती थी . धरती को खोदे बिना  दिल्ली की मेट्रो रेल ,पंजाब का  भाखड़ा   नंगलबाँध , कोलकाता का हावड़ा ब्रिज   कैसे बन पाते  ?  चकमक पत्थर से लेकर एलपीजी  गैस के दोहन तक सभी तो प्राकृतिक दोहन के प्रमाण हैं .  कुआँ  खोदना  , नलकूप  खोदना ,खेती करना ,नदी -नालों पर बाँध बनाना   जीवन उपयोगी पानी संरक्षित करना ये सभी कार्य प्रकारांतर से प्रकृति से छेड़- छाड़  के प्रमाण हैं।किन्तु फिर भी  मानव -सभ्यता के  विकाश में इन सभी  मानवीय  चेष्टाओं  को जन-हित  की   सशर्त स्वीकृति मिलती रही है . इन शर्तों को जब किसी देश की सरकार और उसके राजनैतिक दल ही दर-किनार करते रहें तो आम जन- मानस  से क्या अपेक्षा की जा सकती है ?
                                                मिश्र के पिरामिड ,भारत के अजन्ता- एलोराऔर अनेक पर्वत कंदराओं के अन्दर मानवनिर्मित गुफाएं आज भी विद्द्य्मान हैं  इन   कार्यों से न तो धरती हिली और न आसमान में  जलजला आया और न ही पहाड़ों पर बादल फटे .! किन्तु इक्कीसवीं सदी को 'सुपर मुनाफाखोरी' का रोग लग गया है,बिना सोचे -विचारे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन केवल 'लाभ-शुभ ' के निमित्त किया जा रहा है   अतएव सार्वजनिक संकट और प्राकृतिक आपदाओं का आब्रजन अब सहज हो गया है . अतएव  अब  जन-हस्तक्षेप जरुर हो   गया है .  आधुनिकतम तकनीकी और अधुनातन   विज्ञान के आविष्कारों से  प्रश्रय प्राप्त   कतिपय  कारपोरट  घरानों और वेदेशी निवेशकों द्वारा बाजारीकरण के दौर मैं निहित  स्वार्थों  के लिए ,सुपर मुनाफों के लिए भारत जैसे  अविकसित राष्ट्रों की संपदा का निरंतर  दोहन   किया जा रहा है . न केवल धरती ,न केवल पहाड़ अपितु  महासागरों का भी  अंधाधुन्द दोहन जारी है .  वर्तमान  केंद्र सरकार की  तत - सम्बन्धी  नीतियों को प्रमुख विपक्षी दल -भाजपा और उसके सर्वोच्च नेतत्व का समर्थन प्राप्त है। वे समझते हैं कि  बढ़ती जनसंख्या  के दवाव को झेलने ,उसकी आकाँक्षाओं  को पूरा करने  और  राजकोषीय घाटा  पाटने  का और कोई शार्टकट नहीं है .    मुनाफाखोरों को   जो   प्रकृति के छेड़छाड़ का लाइसेंस दिया गया है  वो अब प्रकृति भी वर्दास्त करने को तैयार नहीं है।   उत्तराखण्ड की प्राकृतिक आपदा तो  आसन्न खात्र का सिग्नल  मात्र है .
                                                  
                                                       उत्तराखंड की प्रकृत आपदा ने देश की आवाम और  नीति -निर्माताओं को आगाह भर किया   है .इस आपदा के बहाने कुछ  ज्वलंत प्रश्न भी  देश और दुनिया के सामने  दरपेश हुए हैं .पहला प्रश्न यह  है कि-  विकाश का जो माडल मैदानों,रेगिस्तानों या समुद् तटीय क्षेत्रों में प्रयुक्त किया   गया है, क्या वह पहाड़ों पर या नदियों के  उद्गमों  पर भी प्रयुक्त   किया जा सकता है? दूसरा प्रश्न यह   है  कि -देश में जो तीर्थ स्थल हैं ,  क्या उन्हें पर्यटन केन्द्रों - सैरगाहों के सामान विकसित कर, पर्यटकों को मौज-मस्ती के लिए, वहां जमावड़े के रूप में प्रेरित किया जाना चाहए ?तीसरा प्रश्न ये है कि  यदि इस तरह के  आपातकालीन  दौर में नागरिक प्रशाशन या तथाकथित 'आपदा प्रबंधन 'अकर्मण्य या लापरवाह सिद्ध होते हैं और मुसीवत के वक्त  यदि 'सेना ' से ही मदद लेना है तो सरकारों के इस लम्बे चौड़े खर्चीले आपदा प्रबंधन,मौसम विभाग  तथा पक्ष -विपक्ष के 'गगन बिहारी ' नेताओं की खर्चीली  यात्राओं के निहितार्थ क्या हैं ? क्या  नरेन्द्र मोदी के   मगरमच्छी  आंसू और राजनैतिक   बयानबाजी सही है कि  'गुजरात के लोगों चिंता मत करो हम तुम्हारे लिए   मदद भेज रहे है ?  क्या गुजरात के अलावा शेष भारत के लाखों पीड़ित जनों और गुजरातियों में फर्क करना उस व्यक्ति के लिए शोभनीय है,जो अपने आपको भावी  प्रधानमंत्री के  रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए  अपने ही गुरुजनों -वरिष्ठों   को भी भूलुंठित करने को तैयार है ? क्या राहुल गाँधी ,सोनिया गाँधी का 'गगनबिहारी ' होना जरुरी था ? क्या उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के परिवार को केवल   इसी समय  पहाड़ों पर हेलीकाप्टरों से सैर सपाटा करना जरुरी था ?
                                                      इसके अलावा और भी सवाल हैं!जो देश की  जनता को उनसे पूंछना चाहिए,जिन्होंने भृष्ट अफसरों और नेताओं से  साठ गाँठ कर,  अवैध रूप  से  पहाड़ों की गोद में ,नदियों के उद्गमों पर ,मंदाकिनी अलकनंदा और भागीरथी  और उनके पवित्र तीर्थ स्थलों की छाती पर तमाम  एश्गाह बना डाले?क्या मानसून के आगमन के ठीक पहले या एन वक्त पर इस तरह लाखों लोगों का इन दुर्गम और असुरक्षित क्षेत्रों में  एक साथ   टूट पड़ने के कोई सार्थक कारण हैं ? क्या इस आपदा से सरकार और जनता सबक सीखेगी ? क्या सरकार को कोसने मात्र से हजारों दिवंगतों की आत्मा को संतुष्टि मिल जाएगी ?
                                                      इस देश की बिडम्बना है कि  यह 'तदर्थवाद' नामक बीमारी का शिकार है ,जब पानी सर से ऊपर गुजरने लगता है तो तात्कालिक उपाय के रूप में जहां सुई से काम चल सकता है वहाँ तलवार लेकर टूट पड़ता है और  जहां तलवार चाहिए वहाँ शान्ति ..शान्ति ...की  रट  लगाने लगता है .हमारी आदत है कि  बरसात  गुजर जाने के बाद छप्पर ठीक करेंगे अभी तो  जहां पानी  चूं  रहा है वहाँ थाली ,कटोरा या बाल्टी लगा देते  हैं। दर्जनों  मंत्री ,सेकड़ों नौकरशाह ,हजारों एनजीओ लाखों  मंदिर -मस्जिद -गुरुद्वारे  और   अनगिनत  साधू -संत ,महात्मा ,बाबा -स्वामी  सभी  इस 'यथा स्थतिवाद'  की नियति के पोषक हैं . बड़े-बड़े तीरंदाज ,ग्यानी-ध्यानी ,तत्ववेत्ता ,मीडियाविज्ञ ,किसी भी आपदा  या घटना -दुर्घटना विशेष  का विश्लेषण  करते हुए बड़ी-बड़ी बातें  करेंगे .कुछ दिन बाद  उसे भुला दिया जाएगा और फिर किसी नए विमर्श पर बोद्धिक  जुगाली के लिए पुनः मैदान संभाल लेंगे .हम जख्म होने पर मलहम बनाने के आदि है,हम अँधेरा होने पर माचिस या टार्च  या अब मोबाइल  अँधेरे में टटोलने के आदि हैं ,हम प्यास  लगने पर कुआँ  खोदने वालों में से हैं . जापान ,अमेरिका  चीन और यूरोप के लोग शायद  भूकंप सुनामी ,भू स्खलन ,सूखा -बाढ़ ,आंधी -तूफ़ान पर नियंत्रण  का कोई उपाय खोज लें तब तक हम भारत के लोग इन आपदाओं से बचाव की कोई  स्थाई  योजना  और तत्सम्बन्धी नीति ही बना लें !  यही उन दिवंगतों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी जो चारधाम -उत्तराखंड की प्राकृत  आपदा में काल कलवित हो  गए हैं ...! उत्तराखंड प्राकृतिक आपदा में दिवंगत हुए तीर्थ यात्रियों  के प्रति शोक सम्वेदना सहित ...श्रद्धा सुमन अर्पित ...!

                                      श्रीराम तिवारी