सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

गोधरा कांड के लिए कौन ज़िम्मेदार है? यह तय होना बाकी है ....

  जैसा की दार्शनिक, चिन्तक कहते आये हैं और प्रकारांतर से साइंस ने भी उस पर प्रमाणिकता कि मुहर लगा दी है कि बिना क्रिया के प्रतिक्रिया संभव नहीं.यह सिद्धांत लेकर हम यदि गोधरा काण्ड कि असलियत और उससे सबक सीखते तो उस  काण्ड में जो दिवंगत हुए उन्हें , और पूरे गुजरात  भर में  जो तात्कालिक  प्रतिक्रियात्मक हिंसक-दंगों में काल के ग्रास बने उनको सच्ची श्रद्धांजली अर्पित होती.
              क्या यह स्वाभाविक उत्तेजना में आकर किया गया दुष्कृत्य था ? क्या यह सोची समझी साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया थी ? क्या यह महज मानवीय त्रुटिवश  हुई लोमहर्षक घटना थी? क्या यह महज इत्तफाक था कि आधा सैकड़ा से कुछ ज्यादा जाने रेल-बोगी समेत जल जाने से हुईं ? इनमे से किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने में नौ साल भी कम क्यों पड़ रहे हैं ? हालाँकि विशेष अदालत ने गोधरा रेल-काण्ड को साजिश मान लिया है. २७ फरवरी २००२ को अयोध्या से साबरमती  जा रही एक्सप्रेस गाडी  में अधिकांश कार सेवक ही थे .उस बीभत्स अग्निसंहार में जो ५८ लोग मारे गए ;उनकी मौत के लिए कौन जिम्मेदार है ?देश कि जनता को यह हकीकत जानने की भरसक कोशिश करनी होगी . जो लोग मारे गए उनमें महिलायें और बच्चे भी थे.
विशेष-अदालत ने ३१ अभियुक्तों को दोषी माना है . ६३ लोग बरी किये गए हैं. जो अभियुक्त ठहराए गए वे उपरी अदालत में जाने का प्रयास अवश्य करेंगे. सबूतों के आभाव में जो छोड़े गए वे भी न्याय का दरवाजा खटखटाएंगे और मांग कर सकते हैं कि जब हम बेक़सूर थे तो ९ साल तक हमें जेल में क्यों रखा गया ? वास्तविक अपराधी खोजने में इतना वक्त क्यों लगा की उनमें से कई एक का परिवार तबाह  हो चूका है? कई एक का कारोबार और नौकरी जा चुकी है ,और कई एक के तो जेल में रहने से उनके परिवारों को लोकनिंदा समेत चौतरफा संकटों का सामना करना पड़ा है. जेल से रिहा हुए इन ६३ लोगों को अब नए सिरे से आजीविका तलाशनी होगी . वैसे भी उनके माथे पर ९ साल की जेल का ठप्पा तो लग ही गया है . यदि ये ६३ लोग निर्दोष हैं तो इनका जीवन बर्वाद करने वाले उन अफसरों और जिम्मेदार एजेंसियों पर कोई कठोर कार्यवाही क्यों नहीं होंना चाहिए ?
हादसा और साजिश में कोई फर्क नहीं लगता ,जिस तरह साजिश के पक्ष में सबूत जुटे उस तरह के तर्क इसके विपरीत की अवस्था में भी दिए जा सकते हैं .अभी तो यह प्रारम्भिक फैसला है , कोई आश्चर्य नहीं कि आगे कि ऊँची अदालतों में भारी चौंकाने   वाले निर्णय भी दिए जा सकते हैं . हो सकता है कि कोई बड़ी अदालत इसे साजिश मानने से ही इनकार कर दे .ये भी हो सकता है कि पूर्व में नामजद सभी ९० लोगों को इस बात के लिए दोषी करार दे कि साम्प्रदायिकता के  भावात्मक उन्माद में आकर उन्होंने रेल के डिब्बे में आग लगा दी थी और ५९ लोगों को मौत के घाट उतार दिया था  .इन सभी संभावनाओं का कारण है कि नानावटी कमीशन कि रिपोर्ट  पर आधारित इस फैसले  को बनर्जी कमीशन कि रिपोर्ट के सापेक्ष कूट-परीक्षण से गुजरना अभी बाकी है .बनर्जी कमीशन ने क्या रिपोर्ट दी थी या उसके निहतार्थ क्या हैं ?यह सब जानने के लिए उस पर उच्च न्यायालय के बहु-प्रतीक्षित फैसले का सबको बेसब्री से इन्तजार है .
       
                                                                   श्रीराम तिवारी

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

मज़बूरी का नाम मनमोहन सिंह-....देश चले भगवान भरोसे...

  यु पी ऐ प्रथम के दौर में जब -जब आर्थिक सुधारों के नाम पर देश की सम्पदा और मेहनतकशों के श्रम को मुफ्त में लूटने के लिए कार्पोरेट जगत को पूरी सफलता नहीं मिली ,तब -तब सरमायेदारों की तिजारत के संबाहक पूंजीपति परस्त मीडिया ने डाक्टर मनमोहन सिंह को मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में जनता के समक्ष पेश किया. उस दौर में चाहे पेट्रोल डीज़ल -रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि का सवाल हो , शक्कर -तुअर दाल या घासलेट की कीमतों में बढ़ोत्तरी का सवाल हो , सार्वजानिक उपक्रमों को निजीकरण करने , श्रम कानूनों में मालिक परस्त संशोधनों का सवाल हो कामन मिनिमम प्रोग्राम का सवाल हो   
या वन -टू-थ्री  एटमी करार का सवाल हो -हर जगह वामपंथ ने देशभक्तिपूर्ण भूमिका अदा की तो उन्हें रोड़े अटकाने वाले बताया गया . तब भी सत्ता से विमुख भूंखे-भेरानो ने आरोप लगाया की  प्रधानमंत्री जी तो कमजोर हैं .स्वयम प्रधनमंत्री जी ने देश की  तात्कालिक वित्तीय लूटपाट पर अंकुश लगाने के बजाय जुलाई -२००८ को संसद में अपनी  सरकार बचाने के लिए वामपंथ के तथाकथित बंधन से मुक्त होने के लिए क्या -क्या धत-करम किये वे जग जाहिर है . इस घटना में उन्हें धोखा हुआ , वे समझे की वे ताकतवर होते जा रहे हैं .जबकि बस्तुत; वे मजबूर प्रधानमंत्री के रूप में और तेजी से विख्यात {?}हुए .तत्कालीन विपक्ष के दिग्गज नेता ने उन्हें कमजोर और विवश  प्रधानमंत्री तक कह डाला .हालाकिं विपक्ष में एन डी ऐ और खास तौर से भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा चिढ वामपंथ से थी . क्यों ? क्योंकि वामपंथ ने ही एन डी ऐ को सत्ता से विमुख कराया था . २००४ के आम चुनाव में जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट  बहुमत नहीं मिला और वाम को इतनी {६२} सीटें मिल गईं की वो जिस तरफ होगा सरकार उसकी ही बनेगी .एन डी ऐ और यु पी ऐ में से किसी एक को सत्ता में  बिठाने की स्थिति में वाम ने धर्म-निरपेक्षता के आधार पर कांग्रेस के नेत्रत्व में यु पी ऐ को बिना किसी शर्त के देश और देश की गरीब जनता के हित में बाहर से समर्थन दिया था ,ये वामपंथ की मजबूरी थी .
       पूंजीपतियों ने भाजपा और कांग्रेस को विभिन्न चुनावों में पार्टी फंड में अकूत धन दिया था और ये दोनों ही बड़े दल  मजबूर थे और हैं-  कि पूंजीपतियों को भरपूर मुनाफा कमाने की खुली छूट होना चाहिए .वामपंथ मजबूर है कि मेहनतकश जनता को उसके हक दिलाने के लिए संघर्ष करे .सो अपनी-अपनी मजबूरियों के चलते यु पी ऐ का दुखद अंत हुआ .अब यु पी ऐ द्वितीय के दौरान
     माननीय प्रधान मंत्री जी  "अलाइंस पार्टनर्स " के हाथों मजबूर हैं सो भृष्टाचार परवान चढ़ा हुआ है .वहां अब कोई वामपंथ रुपी लगाम या रोक टोक नहीं है .अब तो न्याय-पालिका और वतन-परस्त मीडिया का ही सहारा है कि इस मजबूरी के निहतार्थ को जनता तक पहुंचाए. राकपा के नेता शरद पंवार कि मजबूरी है, सो वे खास मौकों पर ऐसें वयान देते हैं कि महंगाई आसमान छूने लगती  है . श्रीमती सोनिया गाँधी कि मजबूरी है सो वे स्वयम प्रधान-मंत्री नहीं बनना चाहतीं .भाजपा मजबूर है कि हिन्दुत्ववादियों और पूंजीवादियों दोनों को साधे. दोनों को साधने के फेर में एक भी हाथ नहीं आ रहा है .दुविधा में दोउ गए ....न सत्ता मिली न मंदिर बन पा रहा है .
      कार्यपालिका और व्यवस्थापिका अफसरों के हाथों मजबूर है, .अफसर और राजनेतिक दलाल  भृष्टाचार के लिए मजबूर हैं , क्योंकि रिश्वत देकर नौकरी मिली या मन वांछित जगह पोस्टिंग करानी है  मंत्री मजबूर कि जिस पार्टी के कोटे से सत्ता में हैं उसके सुप्रीमो तक माकूल धन पहुँचाना है .
     देश के बेकार, बेरोजगार, मजबूर हैं कि जिन्दा रहने के लिए कुछ तो करना होगा सो कोई मजदूर है, कोई चोर है ,कोई बाबा हो जाता है. ये सभी लोग बजाय इस व्यवस्था के खिलाफ नीतिगत विरोध के अपने कर्म या भाग्य को कोसतें  हैं .कुछ मक्कार बदमाश जो प्रमादी होते हैं वे पूंजीपतियों कि ओर से अपने ही वर्गीय बंधुओं पर कुठारा-पात करते हुए , अपना गुवार निकालते रहते हैं, पेड़ को जो कुल्हाडी काटती है उसका बेट बन जाना  उनकी मजबूरी है
       जिस   देश में  ईमानदार ,अनुशाषित  नागरिक को लल्लू और बदमाश -काइयां  आदमी को स्मार्ट कहा जाता हो वहां ये सामजिक असमानता -कदाचार ,निर्मम शोषण -उत्पीडन कि पत्नोंमुखी व्यवस्था को उखाड़ फैंकना भी जनता की मजबूरी हो जाना चाहए ....
                     श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

संयुक विपक्ष के हमलों ने कांग्रेस में ओर ज़्यादा निखार ला दिया है ......

विगत जून २०११ के बाद कांग्रेस  नीत   यु पी ऐ द्वितीय सरकार ने अपने  एक वर्ष का कार्यकाल  पूरा होने पर जैसे ही  अद्द्य्तन मीडिया के मार्फ़त   अपने  तथाकथित विकास मूलक गुणगान  प्रकाशित कराये, वैसें ही  विपक्ष के दोनों  धडों-भाजपा के नेत्रत्व में एन डी ऐ और माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा   ने  भी सत्ता शिखर  पर एक साथ हल्ला बोल दिया था . विगत दिनों माननीय प्रधानमंत्री श्री मनमोहनसिंह जी ने भारत के टॉपमोस्ट पत्रकारों -सम्पादकों के समक्ष जो कुछ बयान किया वह इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि उनके मन में   जो कुछ भी था सब पूरी पारदर्शिता से देश कि जनता के साथ  उन्होंने शेयर किया. टू-जी ,एस बैंड,कामनवेल्थ ,आदर्श सोसायटी ,महंगाई ,जे पी सी और तमाम मौजूदा दौर कि चुनौतियों को अलग-अलग परिभाषित करते हुए जब उन्होंने ये कहा कि गठबंधन सरकार चलाने कि उनकी मजबूरियों के कारण प्रासंगिक आरोपों कि नौबत आयी है, तो यह जाहिर होना स्वभाविक था कि वे टकराव के मूड में नहीं हैं.
       जी हाँ! अब किसी को शक नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस के अन्दर जो भी चल रहा है वो विपक्ष और खासतौर से भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है,  वामपंथ को भी निराशा ही हाथ आने वाली है. कांग्रेस ने जो कार्य योजना बनाई है बहरहाल विपक्ष उसे जब तक समझ पाए तब तक हो सकता है कि कांग्रेस उस चंगुल से आजाद हो जाये जिसमें उसे संयुक्त विपक्ष ने ले रखा है. यह एक करिश्मा ही होगा.
                  बेशक कांग्रेस ने इस देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन  किया है, अतीत में भी वह अनेकों बार इसी तरह के इल्जामों में फंसती रही है और फिर जनादेश लेकर सत्ता में आ जाती है .इस बार उसका बच निकलना एतिहासिक चमत्कार ही कहा जा सकता है और ये चमत्कार होने जा रहा है.  न केवल भारत की प्रबुद्ध जनता बल्कि    भारत के  अंदरूनी मामलों में दिलचस्पी रखने वाले भी हतप्रभ हैं की अभी कुछ दिनों पहले  तक 
एक व्यक्ति केबिनेट में हुआ करता था ,आज तिहाड़ जेल में बंद है ,वह आलाइन्स पार्टी द्रमुक का खासमखास  हुआ करता था  . अब द्रुमुक ने भी सत्ता की केंचुल छोड़ने से इनकार कर दिया है गठबंधन सरकार चलाने में वैसे भी यदि करूणानिधि ना-नुकर करते हैं तो कांग्रेस की चौखट पर जयललिता अम्मा सर पर अमृत कलश लिए खड़ी हैं, बस  यही कांग्रेस के इंतजाम-कारों की करामात है. लगता है कि कांग्रेस ने अपने दुर्दिनो को दूर से  ही देख लिया था . यु पी ऐ द्वितीय के विगत ६ महीने सियासी जमीन पर बेहद लज्जास्पद और घिघ्याऊ रहे हैं .लेकिन यह एक विस्मयकारी चमत्कार ही है कि सरकार चल रही है ,न केवल चल रही है बल्कि अब तो उसको उधार कि बैसाखी पर दौड़ने में मजा आ रहा है .कांग्रेस नेत्रत्व भले ही देश को आसन्न संकटों से निजात दिलाने में निरंतर असफल रहा हो, किन्तु खुद को सत्ता में विराजमान रखने कि कला में बाकई उसे महारत हासिल है .कई दफे कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों ने भी उसे रसातल में पहुँचाया किन्तु उसने तो मानो   सत्ता-सुख का अमरत्व   पी रखा है .उसके रणनीतिकार गाल नहीं बजाते ,वे परदे के पीछे व्यूह-रचना में सिद्धहस्त होते हुए भी कई बार विपक्ष के सामने बचाव कि मुद्रा धारण कर दुनिया को  उल्लू बनाते हैं .समस्त गैर कांग्रेसी विपक्ष खीसें  निपोरता हुआ जनता के बीच ऐसे शो करता है मानो कह रहा हो देखो हमने कांग्रेस और उसके नेतृत्व  को कैसा घेरा ? 'कांग्रेस आपदा प्रबंधन' कि कार्य कुशलता और कामयाबी का अंदाजा इसी घटना से लगाया जा सकता है कि ए राजा  का स्तीफा बगैर किसी राजनैतिक  संकट के मुमकिन हो गया. कांग्रेस कि जगह यदि भाजपा सत्ता में होती तो और इन्ही राजा को ठीक इसी तरह निकाल बाहर किया गया होता और कांग्रेस होती विपक्ष में तो वह संसद से लेकर गली कूंचों  तक दुष्प्रचार करती कि सवर्णवादी भाजपा ने दलित वर्ग के नेता को मंत्रीमंडल से बाहर कर दिया. भाजपा और वामपंथ कितने ही बड़े -बड़े विद्वानों की आश्रय-स्थली  हो किन्तु उनके सभी दाव असफल हो रहे हैं .कुछ महीनो पहले जब राज ठाकरे ने क़ानून तोडा तो जन -प्रतिक्रिया को ठंडा करने के लिए कांग्रेस ने राज ठाकरे को गिरफ्तार किया , एक दो रात उन्हें जेल में बितानी  पडीं .इधर टु- जी, थ्री -जी ,एस बेन्ड स्पेक्ट्रम इत्यादि के फेर में राजा को सलाखों के पीछे भेजने ,सी वी आई के सामने घंटों खड़े रहने की कवायद दिखाई जाती है .राज और राजा हमारी लोकशाही के स्थाई प्रतीक हैं ,य़े सलाखों के पीछे होने का भ्रम रचते हैं ,इस सब के  पीछे वही है जिसे सत्तानुभूति कहते हैं .य़े अनुभूति  कांग्रेस के अलावा  अन्यत्र नदारद  है , और इसीलिये वे बडबोले विपक्षी नेतागण आजीवन विपक्ष में बैठने के लिए अभिशप्त हैं .  
                                     विगत शीतकालीन सत्र से ही जिस  भृष्टाचार की पोल खोली जाती रही है वो दशकों पुराना नहीं सदियों पुराना है. विपक्ष ने भले ही उसे नए कलेवर में ,नयी चाशनी में ,नए वर्क में अधुनातन सरोकारों से जोड़कर  वर्तमान गतिशील  मीडिया के माध्यम  से  देश की आम जनता के समक्ष इस ढंग से परोसा कि मानो कांग्रेस तो रंचमात्र भी सत्ता में रहने लायक नहीं रही .इतने सारे आरोप और बिलकुल सही आरोप किन्तु कांग्रेस तो एक इंच भी नीचे नहीं आ रही ,फिर  कौनसे जीवनदायी आरोग्यवर्धक तत्व हैं जो कांग्रेस का विष चूसकर उसे चंगा कर देते हैं ?
             पिछले महीने तो अन्दर बाहर से हमले हो रहे थे तब भी इस पार्टी ने आपा नहीं खोया .कोई दूसरा दल होता तो इतने सारे विवादों कि सुनामी में स्वाहा हो जाता .कांग्रेस कि इस सादगी का कोई सानी नहीं कि माखन चुराने के बाद हांडी ज्यों कि त्यों रखना नहीं भूलती .जितनी कुशलता और नफासत से कांग्रेस ने न केवल अपने खेत को सुरक्षित रखा अपितु पडोसी के खेत में अपने ढोर-डंगर चरा दिए ;उसका पासंग भी वर्तमान विपक्ष के पास नहीं है .
           कांग्रेस के दिग्गज अपनी इस प्रतिभा से देश के ३३ करोड़ नंगे भूखों  का उद्धार करते तो आज दुनिया के सामने भारत कि इतनी किरकिरी न होती कि अमेरिका में कमाने खाने -पढने -लिखने गए भारतवंशी रेडिओ कलर की वेडियों में न जकड़े होते .कांग्रेस ने विपक्ष के आरोपों से सुधरने की बजाय उसे घेरने की रणनीति बनाई है. 'आक्रमण बेहतर होता है बनिस्बत  बचाव के',
कांग्रेस रणनीतिकार कितने चतुर हैं कि सुब्रमण्यम स्वामी 'राजा' को तो आरोपी बनाते हैं किन्तु किसी कांग्रेसी को नामजद करने से कतराते हैं ,आडवानीजी सोनिया गाँधी को ख़त लिखकर खेद जताते हैं ,संसद में पी सी चाको जब इस ख़त को पढ़ते हैं तो सोनिया जी जाहिर करती हैं कि वे आडवानीजी कि इज्जत से  खिलवाड़ पसंद नहीं करतीं. जब प्रणव मुखर्जी सुषमा स्वराज पर अभद्र टिप्पणी करते हैं तो सोनिया जी प्रणव दादा से माफ़ी मांगने को कहती हैं और सोनिया जी का कद संसद के गुम्बद को फाड़कर न केवल भारत में अपितु सारे जहां में देदीप्यमान होने लगा है .विपक्ष केवल जे पी सी का झुनझुना लेकर शांत है ...मैया में तो चाँद खिलौना लैहों ....अम्मा ने दे दिया खिलौना अब बजाते रहो. दिग्विजय के बाणों से आह़त तमाम भगवा ब्रिगेड मय बाबा रामदेव चारों खाने चित्त हैं ,जल्दी ही  इन बाबाओं और आरोप लगाने वालों को मुसीबत  में फंसाकर कांग्रेस सत्ता के कंगूरे पर अट्ठाहस  करती नजर आयेगी क्योंकि विपक्षी नेतृत्व  जिस सदाचार के ताबीज  को गले में लटकाने कि बात कर रहा है ,उसे  कांग्रेस ने छलावा  सिद्ध  करने में महारत हासिल कर रखी है .
        आम आदमी भले ही   कांग्रेस से खपा  हो , भरोसा नहीं रहा हो, किन्तु कांग्रेस को खुद पर इतना भरोसा है कि अरबों के घालमेल, कामनवेल्थ काण्ड ,आदर्श सोसायटी ,टु -जी , -विदेशों में काला धन  ,महंगाई एवं बेरोजगारी  ,किसान आत्मह्त्या इत्यादि कितने ही वार  देश पर कांग्रेस के हुए और हो रहे हों किन्तु उसे यकीन है,चूँकि  इस देश कि जनता कि स्मरण शक्ति कमजोर है ,विपक्ष कमजोर है और कांग्रेस के पास अतीत  कि धरोहर है सो सत्ता कि मलाई वो निष्कंटक खाती रहेगी .
                        श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

अरब़ राष्ट्रों में अभी तो ये अंगड़ाई है-आगे ओर लड़ाई है .....

     आजकल  लीबिया के तानाशाह कर्नल मुअममार  गद्दाफी अपने हमवतनो के आक्रोश से भयभीत होकर देश छोड़ने की फ़िराक में हैं. ससे पूर्व इजिप्ट, ट्युनिसिया और यमन में भारी विप्लवी जन आक्रोश ने दिखा दिया था कि इन अरब देशों कि जनता दशकों से तानाशाही पूर्ण शासन  को बड़ी वेदनात्मक स्थिति में झेलती आ रही थी. .विगत दो वर्षों में  वैश्विक आर्थिक संकट कि कालीछाया ने न केवल महाशक्तियों अपितु छोटे-छोटे तेल उत्पादक अरब राष्ट्रों को भी अपनी आवरण  में ले लिया था .इन देशों की आम जनता को दोहरे संकट का सामना करना पड़ा .एक तरफ तो उनके अपने ही मुल्क की सामंतशाही की जुल्मतों का दूसरी तरफ आयातित वैश्विक भूमंडलीकरण की  नकारात्मकता का सामना करना पड़ा. इस द्वि -गुणित संकट के प्रतिकार के लिए जो  जन-आन्दोलन की  अनुगूंज अरब राष्ट्रों में सुनायी दे रही है, उसका श्रेय वैश्विक आर्थिक संकट की  धमक और   इलेक्ट्रोनिक मीडिया के विकिलीक्स संस्करण तथा  सभ्यताओं के द्वंद की अनुगूंज को जाता है .
                                       द्वितीय  विश्वयुद्ध के उपरांत दुनिया दो ध्रुवों में बँट चुकी थी किन्तु, अरब समेत कई राष्ट्रों ने गुटनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया था . भारत ,मिस्र ,युगोस्लाविया , लीबिया , ईराक,  ईरान तथा अधिकांश लातिनी अमेरिकी राष्टों ने गुट निरपेक्षता को मान्य किया था. यह दुखद दुर्योग है कि पूंजीवादी राष्ट्रों, एम् एन सी और विश्व-बैंक  के किये धरे का फल तीसरी दुनिया के देशों को भोगना पड़ रहा है. इसके आलावा अरब देशों में पूंजीवाद जनित रेनेशां कि गति अत्यंत धीमी होने से आदिम  कबीलाई जकड़न यथावत बरकरार थी .इधर मिश्र ,जोर्डन को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष तथा विश्व बैंक द्वारा आर्थिक सुधार  के अपने प्रिय माडलों के रूप में पेश किया जाता रहा था. इन देशों के अन्धानुकरण में अन्य अरब राष्ट्र कहाँ पीछे रहने वाले थे, अतेव सभी ने बिना आगा पीछे सोचे विश्व अर्थ-व्यवस्था से नाता जोड़ लिया. नतीजा सब को विदित है कि जब इस वैश्विक अर्थतंत्र का तना{अमेरिका}ही हिल गया तो तिनको और पत्तों की क्या बिसात  ...विश्व  वित्तीय संकट का बहुत प्रतिगामी प्रभाव कमोबेश  उन सभी पर पड़ा जो इस सरमायादारी से सीधे  जुड़ाव रखते थे. .इजिप्ट में ३० लाख, जोर्डन में ५ लाख और अन्य देशों में भी इसी तरह लाखों युवाओं की आजीविका को वित्तीय क्षेत्र से जोड दिया गया था. सर्वग्रासी आर्थिक संकट के दरम्यान ही स्वेज-नहर से पर्यटन तथा निर्यातों में भारी गिरावट आयी .परिणामस्वरूप सकल घरेलु उत्पादनों में भी गिरावट आयी .मुद्रा स्फीति बढ़ने , बेरोजगारी बढ़ने , खाद्यान्नों की आपूर्ति बाधित होने से जनता की सहनशीलता जबाब दे गई .महंगाई और भ्रष्टाचार  ने भारत को भी मीलों दूर छोड़ दिया. हमारे ऐ.राजा या सुरेश कलमाड़ी या मायावती भी अरेवियन अधुनातन नाइट्स{शेखों}  के सामने पानी भरने लायक भी नहीं हैं .
                    यह स्पष्ट है कि शीत-युद्ध समाप्ति के बाद पूंजीवादी एकल ध्रुव  के रूप में अमेरिका ने दुनिया को जो राह दिखाई थी वो बहरहाल अरब-राष्ट्रों को दिग्भ्रमित करने का कारण बनी .अतीत में भी कभी तेल-संपदा के बहुराष्ट्रीयकरण के  नाम पर, कभी स्वेज का आधिपत्य जमाये रखने के नाम पर, कभी अरब इजरायल संघर्ष के बहाने और कभी इस्लामिक आतंकवाद में सभ्यताओं के संघर्ष के बहाने नाटो के मार्फ़त हथियारों कि खपत इन अरब राष्ट्रों में भी वैसे ही की जाती  रही, जैसे कि दक्षिण एशिया में भारत पाकिस्तान या उत्तर-कोरिया बनाम  दक्षिण कोरिया को आपस में निरंतर झगड़ते रहने के लिए की जाती रही है ;और अभी भी की जा रही है .ऊपर से तुर्रा ये कि हम {अमेरिका ]तो तुम नालायकों {भारत -पकिस्तान ,कोरिया या अरब-राष्ट्र ]पर एहसान कर रहे हैं ,वर्ना तुम  तो आपस में लड़कर  कब के मर -मिट गए होते? हालांकि इस {अमेरिका}  बिल्ली के भाग से सींके नहीं टूटा करते .सो अब असलियत सामने आने लगी है .
                        अरब देशों के वर्तमान कलह और हिंसात्मक द्वन्द कि पृष्ठभूमि में कबीलाई सामंतशाही का बोलबाला भी शामिल किया जाना चाहिए, लोकतान्त्रिक अभिलाषाओं को फौजी बूटों तले रौंदते जाने
को अधुनातन सूचना एवं संपर्क तकनीकि ने असम्भव बना दिया है. संचार-क्रांति ने आधुनिक मानव को ज्यादा निडर ,सत्यनिष्ठ ,प्रजातांत्रिक ,क्रांतीकारी, धर्मनिरपेक्ष  और परिवर्तनीय बना दिया है ,उसी का परिणाम है कि आज अरब में ,कल चीन में परसों कहीं और फिर कहीं और ....और ये पूरी दुनिया में सिलसिला तब तलक नहीं रुकने वाला  'जब तलक सबल समाज द्वारा निर्बल समाज का शोषण नहीं रुकता , जब तलक सबल व्यक्ति द्वारा निर्बल का शोषण नहीं रुकता -तब तलक क्रांति कि अभिलाषा में लोग यों ही कुर्बानियों  को प्रेरित होते रहेंगे .'हो सकता है कि इन क्रांतियों  का स्वरूप अपने  पूर्ववर्ती   इतिहास कि पुनरावृति न हो. उसे साम्यवाद न कह' 'जास्मिन क्रांति 'या कोई और सुपर मानवतावादी  क्रांति का नाम दिया जाये  ,हो सकता है कि भिन्न-भिन्न देशों में अपनी भौगोलिक -सामाजिक -धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना के आधार पर अलग-अलग किस्म कि राजनैतिक व्यवस्थाएं नए सिरे से कायम होने लगें. यह इस पर निर्भर करेगा कि  इन वर्तमान  जन-उभार आन्दोलनों  का नेतृत्व किन शक्तियों के हाथों में है ? क्या वे आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी द्वंदात्मकता कि जागतिक समझ रखते हैं? क्या वे समाज को मजहबी जकड़न से आजाद करने कि कोई कारगर पालिसी या प्रोग्राम रखते हैं ? क्या वे वर्तमान कार्पोरेट जगत और विश्व-बैंक के आर्थिक सुधारों से उत्पन्न भयानक भुखमरी , बेरोज़गारी  से जनता को निजात दिलाने का ठोस विकल्प प्रस्तुत करने जा रहे हैं?
       यदि नहीं तो किसी भी विप्लवी हिंसात्मक सत्ता परिवर्तन का क्या औचित्य है ? कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई अंध साम्प्रदायिकता कि आंधी चले और दीगर मुल्कों में तबाही  मचा दे, जैसा कि सिकंदर, चंगेज,  तेमूर ,बाबर ,नादिरशाह या अब्दाली ने किया था ....

                                                                                      श्रीराम तिवारी  

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

२३ फ़रवरी को देश के मेहनतकशों का विशाल पार्लियांमेंट मार्च....

          भारत के  संगठित और असंगठित क्षेत्र का कारखाना  मजदूर-भूमिहीन खेतिहर मजदूर -सरकारी क्षेत्र के मजदूर - सार्वजानिक उपक्रमों के मजदूर ,कर्मचारी   -छात्र -बेरोजगार  नौजवानों की राष्ट्रीय अभियान समिति ने विगत ७ सितम्बर की राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दौरान केंद्र सरकार को चेतावनी दी थी कि उनके सुझावों-प्रस्तावों पर अमल नहीं किया गया तो आगामी दिनों में संघर्ष तेज होगा , उसी कि अगली कड़ी के रूप में २३ फरवरी -२०११ को लाखों मेहनतकशों ने  पार्लियामेंट मार्च में शिरकत करने कि तैयारियां प्रारम्भ कर दी हैं.
    केंद्र    सरकार कि कार्पोरेट घरानों से यारी अब किसी से छिपी नहीं है. उसी के नक़्शे  कदम पर अधिकांश  राज्य सरकारें भी इकोनोमिक रिफोर्म के नाम पर देश कि सम्पदा दोनों हाथों से सरमायेदारों कि तरफ खिसका रहीं हैं,  इन राजनीतिज्ञों कि हिम्मत इतनी बढ़ती जा रही थी कि न्यायपालिका और मीडिया ने यदि सजगता नहीं दिखाई होती तो भारत को इथोपिया या सूडान बना डाला होता. देश का मजदूर-वर्ग सरकर की जन-विरोधी तथा मेहनतकश विरोधी-नीतियों के खिलाफ
एक बड़े संघर्ष के लिए जोरदार तैयारियां कर रहा है. सभी केन्द्रीय श्रमिक संघों ने २३ फरवरी-२०११ को संसद मार्च का आह्वान किया है .
                                                  आजकल विपक्ष के एन डी ऐ और वामपंथ दोनों ही सत्तापक्ष को नाकों चने चबवा रहे हैं ,ये तो उनकी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी  है ,किन्तु गैर राजनीती  का दावा करते रहने वाले कुछ मौसमी स्वनाम-धन्य सामाजिक कार्यकर्ता और इक्का -दुक्का बाबा -जोगी लोग भी भ्रष्टाचार  ख़त्म करने के लिए खूब जोर-जोर से व्यवस्था को कोष रहे हैं,  ईमानदारी का ढिंढोरा पीट रहे हैं .वे अरब देशों में फ़ैली बदलाव की लहर को क्रांति बताकर जनता को बरगला रहे हैं .मुख्यधारा का मीडिया भी जान बूझकर लफ्फाजों को तो हाईलाईट करता है किन्तु देश के मेहनतकश-मजदूर -किसान जब यही मुद्दे  वर्षों से उठाता रहा तो जानबूझकर नजर अंदाज किया गया .
         विभिन्न राज्यों और फेडरेशनो की ओर से दिल्ली कूच की तैयारी के समाचार मिल रहे हैं .ऐसा संकल्प व्यक्त किया गया है कि श्रमिक-संघों द्वारा आहूत 'संसद मार्च' देश के इतिहास में मील का पत्थर बनने जा रहा है .श्रमिक संगठनो ने जो मुद्दे उठाए  हैं वे देश कि ८० फीसदी जनता के हितों के पक्ष पोषक साबित  होंगे.
      उनका नारा है ....
  ' क्या मांगे मजदूर किसान ?'
    'रोटी -कपडा -और मकान' ......ही नहीं है वे इससे से काफी आगे जा चुके हैं .आर्थिक उदारीकरण ने पूँजी का तो भूमंडलीकरण स्वीकार किया किन्तु श्रम के वैश्वीकरण किये जाने पर अपने-अपने कुकर्मों का दुष्परिणाम भोग रहे पश्चिम के पूंजीवादी राष्ट्रों को आपति है ,वे तीसरी दुनिया समेत तमाम अविकसित निर्धन राष्ट्रों को अपने उत्पादों को  पाट डालने को आमादा तो है ,किन्तु इन गरीब मुल्कों के कामगारों को अपने यहाँ काम देने से इनकार कर रहे हैं, फिर भी भारत जैसे उत्तमकोटि की  विकास  दर वाले राष्ट्र अपने हितों की रक्षा करने में असमर्थ हो रहे हैं  .इसी आर्थिक तानाशाही ने दुनिया भर में कुहराम मचा रखा है. भारत में परिपक्व लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की अहिंसात्मक आजादी होनेसे  -प्रदर्शन ,धरनों और हडतालों के संघर्ष जनित अस्त्रों  की मर्यादित संघर्ष-विधा होने से लगातार धरना-प्रदर्शन-हडतालों-बंद इत्यादि से विपन्न वर्गों की आवाज पहले भी उठती रही है .
आज जो पैसे वाले धनाड्य बाबा लोग - बहती गंगा में हाथ धोने के लिए , देश के लिए ,समाज के लिए भ्रष्टाचार  के निरोध के  लिए बेताब हैं उनके पास कोई व्यवस्थापिक  विकल्प कहाँ है ? वे सिर्फ
 शासन -प्रशासन  को गरिया रहे हैं ,विदेशों में जमा काला धन उनकी आलोचना के केंद्र में आ चूका है, किन्तु वे देश की आम जनता को यह नहीं बताते कि कुएं में पडी भांग से निपटने कि क्या योजना है . दूसरी ओर देश कि मेहनतकश जनता और संघर्षरत गरीब किसानों कि ओर से केन्द्रीय श्रम-संगठनों  ने न केवल सड़कों पर संघर्ष किया अपितु अपनी बात कुछ ईमानदार सांसदों के मार्फ़त संसद में तो उठवाई ही बल्कि बजट पूरब विचार-विमर्श के लिए आमंत्रित किये जाने पर अपनी और से लगभग ३० सूत्रीय सुझाव पेश कर वर्तमान बजट सत्र के माध्यम से उनके अमल पर व्यवस्थापिका की भी नजरे इनायत का मशविरा दे दिया .
        मनरेगा का दायरा बढ़ाने, महंगाई पर काबू रखने ,असंगठित क्षेत्र के कामगारों को कानूनी सुरक्षा देने ,बैंक .बीमा, बी एस एन एल, गैल, तेल, स्टील ,पोर्ट ,बंदरगाह तथा कोयला क्षेत्र समेत देश के २५० सार्वजानिक उपक्रमों की रक्षा करने और जन-कल्याण मद में ज्यादा  वित्तीय प्रावधानों को तरजीह देने के लिए देश की सबसे बड़ी श्रमिक ट्रेड यूनियन सीटू के नेतृत्व  में -एतुक, एच एम् एस समेत अधिकांश श्रम-संगठन २३ फरवरी को संसद मार्च करेंगे .भाजपा समर्थित बी  एम् एस और कांग्रेस समर्थित इन्तुक इसमें शामिल नहीं हैं .
          श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

अरब़ देशों की जनता के संघर्षों का परिणाम इतिहास के गर्भ में छिपा है......

     मिस्र की जनता क्या चाहती है यह तो वही जाने किन्तु विगत एक महीने के दरम्यान  वहां सेकड़ों कुर्वानियों और दमनात्मक कार्यवाहियों ने इतना फल तात्कालिक तौर पर दे दिया की हुस्नी मुबारक को सत्ता से बेदखल होना पड़ा. बाकि सब ज्यों का त्यों चलेगा ;जब तक की कोई क्रांतीकारी मार्गदर्शक नेत्रत्व इस जन -अभिव्यक्ति का सिलसिलेवार जनवादी -जनतांत्रिकरन नहीं करता . उससे पहले ट्यूनीसिया  में भी जनाक्रोश फट पड़ा था .मिस्र ,बहरीन, अल्जीरिया, और यमन के बाद इस सूची में अब लीबिया का नाम जुड़ गया है.यहाँ के वेनगाजी शहर में अभी १५ फरवरी को सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों और पोलिस में हिंसक झडपें होने की खबर है .इसी बीच सरकार ने इस आन्दोलन की हवा निकालने के उद्देश्य से आन्दोलनकारियों की एक बहुत बड़ी मांग मान ली है .वर्षों से जेलों में बंद विपक्षी -विद्रोही राजनीतिज्ञों को फ़ौरन रिहा किये जाने की संभावना है.किन्तु आन्दोलन की मशाल कहीं भी बुझने वाली नहीं .
       उधर बहरीन में आन्दोलन प्रदर्शन तेज होते जा रहे हैं .राजधानी मनामा में विगत दिनों मारे गए एक प्रदर्शनकारी की शवयात्रा में शामिल सेकड़ों लोग सरकार के खिलाफ नारे लगाकर आक्रोश व्यक्त करते हुए जब कब्रगाह की ओर बढ़ रहे थे तो पोलिस से हिंसक भिडंत हो गई. प्रधानमंत्री शेख खलीफा बिन सलमान अल खलीफा के इस्तीफे की मांग उठने लगी है.मिस्र की तरह यहाँ भी जनता की आँख में धुल झोंकने के लिए बहरीन के शाह और उनके चचा हमद बिन इसा अल खलीफा को उदारवादी मुखौटे के रूप में पेश किये जाने की तैयारियां  व्हाईट हाउस में चल रहीं हैं . यमन की राजधानी साना में १५-१६ फरवरी की दरम्यानी रात को सरकार विरोधी एवं समर्थक प्रदर्शन कारियों में भयंकर झडपें हुईं पोलिस ने मूकदर्शक बने रहकर मिस्र जैसे ही हालातों के मद्देनजर अपनी आगामी भूमिका के लिए पत्ते बचाकार रखे हैं .
             ईराक की जनता भी फिरसे सड़कों पर आने को आतुर है ,अरब जगत में जारी विद्रोह और जन आंदोलनों  की लहर में अधिकांश जनता शिरकत करने लगी है सभी जगह एक ही तरह का अजेंडा है -लोकतंत्र ,आजादी , भ्रष्टाचार ,महंगाई और बेरोजगारी .उत्तरवर्ती तेल के कुओं के लिए विख्यात शहर किरकुक और दक्षिण के वसरा शहर में भी आम जनता ,विद्यार्थी ,मजदूर और किसान इन आंदोलनों में एक स्वर में क्रांतीकारी नारे लगा रहे हैं .
       ये तमाम मुल्क जहां पर जनता के आन्दोलन पनप रहे हैं , पेट्रोलियम उत्पादन पर निर्भर हैं .चूँकि पेट्रोलियम क्षेत्र की अधिकांश कम्पनियां चंद मुठ्ठी भर शेखों की ऐयाशी का साधन बन कर रह गई हैं ,अमेरिका और यूरोप के मार्फ़त एम् एन सी के कब्जे में सारी संपदा सिमिटती जा रही है ,अतेव जिन्दा रहने के लिए इन देशों का मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग अपना हिस्सा मांगने के लिए उठ खड़ा होने के लिए मचल रहा है .
       इस जनयुगीन संघर्ष की धारा कहीं जन-क्रान्ति की ओर न मुड जाए अत;अमेरिका का प्रचार तंत्र कोरे लोकतंत्र की खबरें उड़ा रहा है .उक्त आंदोलनों के मंच पर पूंजीवाद के भडेतों को भेजा जा रहा है.ये निहित स्वार्थी तत्व पहले तो जनता की हाँ में हाँ मिलते हैं -महंगाई -बेरोजगारी -भ्रष्टाचार
और दमनात्मक व्यवस्था की मुखालफत करते हैं ,ताकि सत्ता में बैठा उनका पिठ्ठू सुरक्षित बच निकल जाये और बाद में लोकतंत्र की दुहाई के रूप में अपना कोई और वैकल्पिक सम्पर्क सूत्र सत्ता में फिट किया जाए चूँकि आम जनता को उचित मार्ग दर्शन और ईमानदार नेत्रत्व के साथ साथ बेतरीन रोड-मेप की भी आवश्यकता होती है. इन सबके अभाव में पूंजीवादी साम्राज्यशाही  इस आन्दोलन के कंधे पर अपनी बन्दूक रखकर 'लाभ- शुभ' के अजेंडे को आगे बढ़ाती है .
           यही वजह है कि सारी दुनिया में जनता के संघर्ष तो निरंतर जारी हैं किन्तु इसके परिणाम वैसे ही शून्य हैं जैसे कि ऊसर जमीन में बीज बोने का हश्र होता है .संघर्षरत जनता को लोकतंत्र का लालीपाप दिखाया  जाता है. जबकि दुनिया भर कि सारी बुराइयों कि जड़ यही लोकतंत्र सावित हो चूका है .गरीबी ,भुखमरी ,असमानता ,भ्रष्टाचार  ,और श्रम की लूट जितनी इस पूंजीवादी लोकतंत्र में होती है  -उतनी सामंतशाही और तानाशाही में भी नहीं .साम्यवादी सर्वहारा कि तानाशाही में तो ये बीमारियाँ जड़-मूल से समाप्त हो जाती हैं किन्तु दुनिया में जब तक एक भी मुल्क में पूंजीवादी लोकतंत्र नामक मृगमारिचिका होगी वह फिरसे प्रतिक्रान्ती को प्रेरित करने का काम करती रहेगी .
     अरब देशों कि जनता भी उसी वैश्विक बीमारी से ग्रस्त है जिसका नाम -उद्दाम सरमायेदारी है .इस व्यवस्था में वैज्ञानिक प्रगति तो खूब होती है किन्तु इस प्रगति के लाभों पर चंद शक्तिशाली दवंगों या शासकों  का ही होता है .वैश्विक आर्थिक संकट कि बीमारी का निदान भी वैश्विक ही है .सिर्फ आन्दोलन -प्रदर्शन -हड़ताल या हिंसक झडपों से इस बीमारी को दूर नहीं किया जा सकता .जिस प्रकार मिट्टी के घड़े के छेद को मिट्टी से ,धातु के वर्तन-भांडों को धातु से और सोने के जेवर को सोने से सुधार जाता है उसी तरह वैश्विक आर्थिक संकट और प्रतिस्पर्धी व्यवस्थाओं के द्वंदात्मक संघर्ष को कठोर आर्थिक अनुशासनों  से ही रोका जा सकता है .इसके लिए मुनाफे पर आधारित निजी-संपत्ति के अधिकार कि कुर्वानी देनी होगी .सामूहिक हितों के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर हो रही अय्याशी  और  बेजा-धांधली को रोकना होगा .
      मिस्र समेत अरब राष्ट्रों की जनता जिस राह पर चल पड़ी है वह  पूंजीवादी लोकतंत्र की   चकाचोंध रुपी मृग-तृष्णा  भर है.यह दिग्भ्रम है ,भ्रान्ति है ,इसे क्रांति कहना तो क्रांति का अपमान है .इन अनगड़ झडपों से तो यथास्थिति वाद ही ज्यादा सहनीय है.जिस आग में कूड़ा करकट जले ,पाप पंक मिटे .शैतान टले-तो वह क्रांति है .किन्तु जिस आग में किसी गरीब की झोपडी जले ,खेत की खडी फसल जले ,पशु जलें -तो यह प्रतिक्रांति है .जिस आग में उसकी  प्रचेता- अर्थात संघर्षशील जनता  ही घिरने लगे-आपस में गृह युद्ध की स्थिति आ जाये और शाशक वर्ग मौज करता रहे तो इस आग को क्या कहेंगे ? सत्ता परिवर्तन में नागनाथ की जगह सापनाथ जी आजायेंगे तो जनता को मौजूदा तकलीफों से निज़ात नहीं मिलने वाली .
   जब तलक आर्थिक -सामजिक -राजनैतिक बदलाव के लिए वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित व्यवस्था परिवर्तन के लिए वर्ग चेतना से लैस मेहनतकश मजदूर किसानो और ईमानदार-अनुशाषित  पढ़े लिखे नौजवानों का मजबूत संगठन नहीं होगा ,क्रांतियों की बलि वेदी पर बलिदान व्यर्थ जाते रहेंगे ...
                 श्रीराम तिवारी .

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

बी बी सी -हिन्दी सेवा समापन पर श्रद्धांजली .....

       आमतौर पर किसी व्यक्ति  वस्तु या सुखद कालखंड के अवसान पर मातम मनाने की अघोषित परम्परा न जाने कब से चली आ रही है ,किन्तु यह वैयक्तिक ,भौगोलिक , सामाजिक , आर्थिक ,गुणवत्ता और मात्रात्म्कता से अभिप्रेरित  होती हुई भी सर्वव्यापी और सर्वकालिक परम्परा है .मान लीजिये कि किसी को ठण्ड में आनंद मिलता है तो किसी को बारिस  में ,अब ठण्ड वाले को शरद -शिशिर -हेमंत -वसंत के अवसान का दुःख तो होगा ही किन्तु जिस अस्थमा  के मरीज ने ये चार महीने बड़ी मुश्किल से गुजारे हों ;वो इस शीतकाल के अवसान पर शोकाकुल क्यों होगा ? जिस किसी को ऍफ़ एम् रेडियो या वैकल्पिक संचार साधनों को अजमाने का शौक है उसे बी बी सी कि हिंदी-सेवा के अवसान से क्या लेना देना ?
           कुछ साल पहले में अपने पैतृक गाँव पिडारुआ{सागर} मध्य प्रदेश ,गया था .तब गाँव में बिजली नहीं थी .यह गाँव तीन ओर से भयानक घने जंगलों से घिरा है ,सिर्फ इसके पश्चिम में खेती कि जमीनों का अनंत विस्तार है ,जो बुंदेलखंड और  मालवा के किनारों को स्पर्श करता है .इस इलाके में भयंकर जंगली जानवर और खूंखार डाकू अब भी पाए जाते हैं .यहाँ हर १० मील की दूरी पर पुराने किले चीख -चीख कर कह रहेँ कि-बुंदेले  हर बोलों कि ........यहीं पर पुराने किले कि तलहटी में एक शाम मेरी मुलाकात बी बी सी से हुई थी .
        में तब सीधी से सीधा सागर होते हुए गाँव पहुंचा  था.मेरी पहली पद स्थापना सीधी में ही हुई थी ,मुझे नियमित रेडिओ खबरें सुनने कि लत सी पड़ गई थी .गाँव में तब दो-तीन शौकीन नव -सभ्रांत किसान पुत्रों के यहाँ रेडिओ आ चुके थे .मुझे किले कि तलहटी में कुंदनलाल रैकुवार के पास ले जाया गया .
   कुंदनलाल जन्मांध थे ,व्रेललिपि इत्यादि का तब इतना प्रचार-प्रसार नहीं हुआ था  और गाँवों तक उसकी पहुँच तो आज भी नहीं है सो कुंदनलाल जी जिन्हें  लोग आदर से{?} सूरदास भी पुकारा करते थे ;नितांत निरक्षर थे .उनसे राम-राम होने के बाद रेडिओ पर खबरों कि हमने ख्वाइश जताई .उन्होंने हाथ से रेडिओ को टटोलकर आन किया और  हमसे पूंछा कि कौनसा चेनल लगाना है ?हमने कहा कि कोई भी लगा दो ,न हो तो आल इंडिया या रेडिओ सीलोन ही लगा दो .उन्होंने बी बी सी लन्दन लगा दिया .
   मैंने बचपन में ही गाँव छोड़ दिया था सो   वर्षों बाद जब यह देखा कि एक नेत्रविहीन व्यक्ति न केवल अपनी वैयक्तिक दिनचर्या सुचारू ढंग से चलाता है अपितु शहरी चकाचौंध के बारे  में सब कुछ जानता है .जब मुझे पता लगा कि भारत कि राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक द्वंदात्मकता के बारे में वो मुझसे कई गुना और भी बहुत सी बातें जानता है ,तो मैं हर्षातिरेक से उसका मुरीद हो गया, उत्सुकतावश  ही मैंने कुंदन से पूंछा कि अच्छा बताओ चीन का सबसे शक्तिशाली नेता कौन है ? उसने कहा देंग सियाव पिंग मैंने पूंछा सेंटर आफ इंडियन ट्रेड यूनियन का महासचिव कौन ?जबाब था वी टी रणदिवे .मेने सोचा कि कोई ऐसा सवाल पूंछू जिसका ये जबाब न दे सके और फिर इस पर अपनी बौद्धिक श्रेष्ठता साबित  कर चलता बनूँ .मैंने पूंछा कि.अच्छा कुंदन बताओ दक्षिण पूर्व कि दिशा का नाम क्या है ?उसने कहा आग्नेय ......और फटाफट ईशान ,वायव्य ,नैरुत की भी लोकेशन  बता दी .
       कुंदन के ज्ञानअर्जन में हो सकता है कि उसकी श्रवण इन्द्रयाँ का कमाल ही हो  जो सामान्य इंसानों से ज्यादा गतिशील हो सकतीं हैं किन्तु कुंदन ने अपनी बोधगम्यता का पूरा श्रेय ईमानदारी से रेडिओ को दिया.जब मैं चलने लगा तो उसने एक सुझाव भी दिया कि बी बी सी सुना करो -सही खबरें देता है ....
       इस घटना को लगभग ३५ साल हो चुकें है ,तब से आज तक मैंने भी यही पाया कि बी बी सी हिंदी सेवा ने  अपनी विश्वशनीयता को कभी भी दाव पर नहीं लगाया.चाहे इंदिरा जी कि हत्या की खबर हो,चाहे राम-जन्म भूमि -बाबरी -मस्जिद मामला हो, चाहे गोर्वाचेव काअपहरण हो और चाहे भारत -पाकिस्तान परमाणु परीक्षण हो -हमने जब तक बी बी सी से पुष्टि नहीं की , इन खबरों को अफवाह ही माना .बी बी सी  की प्रतिष्ठा समाचारों के क्षेत्र में उसके प्रतिसपर्धियों को भी एक आदर्श थी .रेडिओ के स्वर्णिम युग में भी जब आकाशवाणी  का ढर्रा नितांत वनावती और चलताऊ उबाऊ किस्म का हुआ करता था तब बी बी सी सम्वाददाता सुदूर गाँवों में ,पहाड़ों पर ,युद्ध क्षेत्रं में जाकर आँखों देखा हाल प्रेषित कराने में आनंदित होता था .आज जो विभिन्न न्यूज चेनल के संवाददाता ,फोटोग्राफर घटना स्थल पर जाकर लोगों की भीड़ से सवाल करते हैं ,सम्बंधित अधिकारीयों ,राजनीतिज्ञों से उनका पक्ष रखने को कहते हैं ये सभी उपक्रम बी बी सी ने सालों पहले ईजाद किये थे और मीडिया की विश्वसनीयता  को स्थापित करने के प्रयास  किये हैं .अब यह भरोसे मंद सूचना माध्यम आगामी ३१ मार्च को खामोश हो जाएगा ...सदा सदा के लिए .
          ११ मई १९४० को बी बी सी की हिंदी सेवा प्रारंभ हुई थी.बहुत बाद में  इसकी सिग्नेचर ट्यून हिंदी फिल्म पहचान से ली गई थी .विगत ७० सालों में बी बी सी हिंदी सेवा ने अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं को कवर किया है .चाहे वह १९७१ का भारत -पाक युद्ध हो ,आपातकाल हो ,जनता पार्टी की सरकार हो , संसद पर हमला हो,तमाम एतिहासिक घटनाओं को उनके वास्तविक रूप में जनता के सामने प्रस्तुत करने में बी बी सी की कोई सानी नहीं .
      १९६७ से १९७९ तक विनोद पाण्डे हिंदी खबरें पढ़ा करते थे बकौल उनके -बी बी सी पर किसी किस्म का दबाव  नहीं चला .उसकी तटस्थता , विश्वसनीयता ही उसकी पूँजी थी .मार्क टली, रत्नाकर भारती ,सतीश जेकब और आकाश सोनी इत्यादि नामचीन  व्यक्तियों ने इसमें बेहतरीन सेवाएं दीं हैं .
        बी बी सी हिंदी सेवा के अवसान से उत्तर भारतीय और खास तौर से हिंदी जगत को जो अपूरणीय क्षति  होने वाली है  उसका बी बी  सी के हिंदी श्रोताओं को ही नहीं बल्कि -हिंदी कवियों ,साहित्यकारों और संस्कृति कर्मियों को बेहद अफ़सोस होगा .
          
        श्रीराम तिवारी
     

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

जनवादी जनतांत्रिक क्रांति के मार्ग में सभ्यताओं के संघर्ष का सूत्रपात किसने किया ?

      सन - २००१ में ९/११  को   ट्विन टॉवर-  वर्ल्ड  ट्रेड सेंटर अमेरिका  पर हुए   आत्मघाती आतंकी हमले में जो   २९९६  लोग मारे गए थे  वे सभी कामकाजी और निर्दोष मानव थे .उनमें से शायद   ही कोई निजी तौर पर उन हमलावरों की कट्टरवादी सोच या उनके आतंकी संगठन से दूर का भी नाता -रिश्ता रखता हो .दिवंगतों के प्रति परोक्ष रूप से इस्लामिक आतंकवाद को जिम्मेदार माना गया और इस बहाने बिना किसी ठोस सबूत के ईराक को बर्बाद कर दिया गया. क्या अब दुनिया भर के शांतिकामी लोग संतुष्ट हैं कि ट्विन टावर   के दोषियों पर कार्यवाही की जा चुकी  है  ?
 क्या अब यह मान लिया जाये कि जो कुछ भी ९/११ को और ३०-१२-२००६ {सद्दाम को फांसी] को जो हुआ उसमें तादात्मयता वास्तव में पाई गई ? क्या मुद्दई, मुद्दालेह ,और गवाह सब इतिहास में चिन्हित   किये जा चुके हैं ? इन सवालों के जवाब कब  तक नहीं दिए जायेंगे, भावी पीढियां भी तब तलक इतिहास से सबक सीखना पसंद नहीं करेंगी .
         वैसे तो यह प्राकृतिक स्थाई नियम है कि  दुनिया के हर देश में ,हर समाज में ,हर मजहब-कबीले में ,हर पंथ में -उसे ख़त्म करने के निमित्त उसका शत्रु उसी के गर्भ से जन्म लेता है .यह सिद्धांत इतना व्यापक है कि अखिल-ब्रह्मांड में कोई भी चेतन-अचेतन  पिंड या समूह इसकी मारक रेंज से बाहर नहीं है .इस थ्योरी का कब कहाँ प्रतिपादन हुआ मुझे याद नहीं किन्तु इसकी स्वयम सिद्धता पर मुझे कोई संदेह नहीं .भारत के पौराणिक आख्यान तो   अनेकों सन्दर्भों के साथ चीख-चीख कर इसकी गवाही दे ही रहे हैं ; अपितु  वर्तमान २१ वीं शताब्दी में व्यवहृत अनेकों घटनाएँ  भी इसे प्रमाणित करती हुई इतिहास के पन्नों में दर्ज होती जा रहीं हैं .
          मार्क्स-एंगेल्स की  यह स्थापना  कि सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद का जन्म होता है और यह पूंजीवाद ही सामंतशाही को खत्म करता है ..इसे तो सारी दुनिया ने देखा-सुना-जाना है , इसी तरह उनकी यह स्थापना कि पूंजीवाद के गर्भ से साम्यवाद का उदय होगा जो पूंजीवाद को खा जायेगा यह  अभी कसौटी पर खरे उतरने के लिए बहरहाल तो प्रतीक्षित है किन्तु यह एक दिन अवश्य सच होकर रहेगी. अधुनातन वैज्ञानिक भौतिक-अनुसंधानों की रफ्तार तेज होने , संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी के अति-उन्नत होते जाने, लोकतान्त्रिक,अभिव्यक्ति सम्पन्न उदारवादी पूंजीवाद  के लचीलेपन ने उसे दीर्घायु तो बना दिया किन्तु अमरत्व पीकर तो कोई भी नहीं जन्मा. एक दिन आएगा तब ये व्यवस्था  भी नहीं  रहेगी .तब हो सकता है कि साम्यवादी व्यवस्था का स्वरूप वैसा न हो जो सोवियत संघ में था ,या जो आज चीन  -क्यूबा -वियतनाम -उत्तर कोरिया में है .किन्तु वह जो भी होगी इन सबसे बेहतर और सबसे मानवीकृत ही होगी .साम्यवाद से नफरत करने वाले चाहें तो उसे कोई और नाम देकर तसल्ली कर सकते हैं .किन्तु बिना  सोचे समझे, बिना जाने-बूझे पूंजीवाद रुपी कुल्हाड़ी का बेत बन जाने से अच्छा था कि अपेक्षित जन- क्रांति को एक अवसर अवश्य देते .
        यह सर्वविदित है कि एक बेहतर शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन, जाति-विहीन  समाज व्यवस्था के हेतु से दुनिया भर के मेहनतकश  निरंतर संघर्षरत हैं ,इस संघर्ष को विश्वव्यापी बनाये जाने कि जरुरत है .अभी तो सभी देशों और सभी महाद्वीपों में अलग-अलग संघर्ष और अलग-अलग उदेश्य होने से कोई दुनियावी क्रांति कि संभावना नहीं बन सकी  है .इस नकारात्मक अवरोधी स्थिति के लिए जो तत्व जिम्मेदार हैं वे 'सभ्यताओं का संघर्ष ', आर्थिक मंदी ' 'लोकतंत्र 'के  मुखौटे पहनकर  दुनिया भर के प्रगतिशील जन-आंदोलनों कि भ्रूणह्त्या करते रहे हैं .जिस तरह  कंस मामा ने इस आशंका से कि मेरा बधिक मेरी बहिन कि कोख से जन्म लेगा सो क्यों न उसको जन्मते ही मार दूं ? इसी प्रकार पूंजीवादी वैश्विक-गंठजोड़  बनाम विश्व बैंक ,अमेरिका , आई एम् ऍफ़ ,पेंटागन ,सी आई ए और चर्च की साम्राज्यवादी  ताकतों ने कभी  अपने पूंजीवाद-रुपी कंस को बचाने के लिए ;कभी चिली ,कभी क्यूबा ,कभी भारत ,कभी बेनेजुएला ,कभी सोवियत संघ ,कभी वियतनाम और कोरिया इत्यादि में जनता की जनवादी-क्रांतियों की जन्मते ही हत्याएं कीं हैं .हालाँकि श्रीकृष्ण रुपी साम्यवादी क्रांती अजर अमर है और पूंजीवाद रुपी कंस को यम लोक जाना ही होगा .
                                     पूंजीवादी साम्राज्यवाद  अपने विरुद्ध होने वाले शोषित सर्वहारा के संघर्षों की धार को भौंथरा करने के लिए समाज के कमजोर वर्ग के लोगों में अपनी गहरी पेठ जमाने की हर सम्भव कोशिश करता है .पहले तो वह संवेदनशील वर्गों में आपस का वैमनस्य उत्पन्न करता है ,फिर उन्हें लोकतंत्र के सपने दिखाता है ,जब जनता की सामूहिक एकता तार-तार हो जाती है  तो क्रांति की लौ बुझाने के लिए फूंक भी नहीं मारनी पड़ती .पूंजीवाद का सरगना अमेरिका है ;वह पहले सद्दाम को पालता है कि वो ईरान को बर्बाद  कर दे ,जब सद्दाम ऐसा करते-करते थक जाए या पूंजीवादी केम्प के इशारों पर नाचने से इनकार कर दे तो कभी  रासायनिक हथियारों के नाम पर ,कभी ९//-११ के आतंकी हमले के नाम पर सद्दाम को बंकरों से घसीटकर फाँसी पर लटका दिया जाता है .आदमखोर पूंजीवाद पहले तो अफगानिस्तान में तालिबानों  को पालता है ,ताकि तत्कालीन सोवियत सर्वहारा क्रांति  को विफल किया जा सके ,यही तालिबान  या अल-कुआयदा  जब वर्ल्डट्रेड सेंटर ध्वस्त करने लगें तो 'सभ्यताओं के संघर्ष'  के नाम पर लाखों निर्दोष इराकियों ,अफगानों तथा पख्तूनों को मौत के घाट उतार दिया जाता है . भले ही इस वीभत्स  नरसंहार में हजारों अमेरिकी नौजवान भी बेमौत मारे जाते रहेँ. इन पूंजीपतियों कि नजर में इंसान से बढ़कर पूँजी है ,मुनाफा है ,आधिपत्य है ,अभिजातीय दंभ है .
            पूंजीवादी साम्राज्यवाद कभी क्यूबा में ,कभी लातीनी अमेरिका में , कभी मध्य-एशिया में और कभी दक्षिण- एशिया में गुर्गे पालता है .हथियारों के जखीरे बेचने के लिए बाकायदा दो पड़ोसियों में हथियारों  कि होड़ को बढ़ावा  देता है जब दो राष्ट्र आपस में गुथ्म्गुथ्था होने लगें तो शांति के कबूतर उड़ाने के लिए सुरक्षा-परिषद् में भाषण देता है .जो उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाता उसे वो धूल में मिलाने को आतुर रहता है .व्यपारिक ,आर्थिक प्रतिबंधों कि धौंस देता है .
     दक्षिण एशिया में भारत को घेरने कि सदैव चालें चलीं जाती रहीं हैं .एन जी ओ  के बहाने ,मिशनरीज के बहाने ,हाइड एक्ट के बहाने अलगाववाद ,साम्प्रदायिकता  और परमाण्विक संधियों के बहाने भारत के अंदर सामाजिक दुराव फैलाया जाता है . बाहर से पड़ोसियों को ऍफ़ -१६ या अधुनातन हथियार देकर , आर्थिक मदद देकर  भारत को घेरने कि कुटिल-चालें अब किसी से छिपी नहीं हैं .
          जो कट्टरपंथी आतंकवादी तत्व हैं वे अमेरिकी नाभिनाल से खादपानी अर्थात शक्ति अर्जित करते हैं . अधिकांश  बाबा ,गुरु और भगवान् अमेरिका से लेकर यूरोप तक अपना आर्थिक-साम्राज्य  बढ़ाते हैं .ये बाबा लोग नैतिकता कि बात करते हैं .देश कि व्यवस्था को कोसते  हैं किन्तु पूंजीवाद या सरमायेदारी के खिलाफ ,बड़े जमींदारों के खिलाफ एक शब्द नहीं बोलते .कुछ कट्टरपंथी तत्व चाहे वे अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक अपने-अपने धरम मजहब को व्यक्तिगत जीवन से खींचकर सार्वजनिक जीवन में या राजनीति में भी जबरन घसीट कर देश कि मेहनतकश जनता में फ़ूट डालने का काम करते हैं .प्रकारांतर से ये पूंजीवाद कि चाकरी करते हैं .पूंजीवाद ही इन तत्वों को खाद पानी देता है इसीलिये आम जनता के सरोकारों को -भूंख ,गरीबी ,महंगाई ,बेरोजगारी ,लूट ,हत्या ,बलात्कार और भयानक भ्रष्टाचार  इत्यादि के लिए किये जाने वाले संयुक्त संघष -को वांछित जन -समर्थन नहीं मिल पाता.यही वजह है कि शोषण और अन्याय कि व्यवस्था बदस्तूर जारी है .देश कि आम जनता को ,मजदूर आंदोलनों को चाहिए कि राजनैतिक -आर्थिक मुद्दों के साथ - साथ जहाँ कहीं धार्मिक या जातीय-वैमनस्य पनपता हो ,धर्मान्धता या कट्टरवाद का नग्न प्रदर्शन होता हो ,देश की अस्मिता या अखंडता को खतरा हो ,वहां-वहां ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वर्ग-संघर्ष की चेतना से लैस होकर प्रभावशाली ढंग से मुकबला करें .कौमी एकता तथा धर्म-निरपेक्षता की शिद्दत से रक्षा करें .किसी भी क्रांति के लिए ये बुनियादी मूल्य  हैं ,पूंजीवादी-सामंती ताकतें इन मूल्यों को ध्वस्त करने पर तुली हैं और यही मौजूदा दौर की सबसे खतरनाक चुनौती है .इस चुनौती का मुकाबला  करने के लिए मेहनतकश जनता की एकता और उसके सतत संघर्ष द्वारा  ही सक्षम हुआ जा सकता है.  .
        
          श्रीराम तिवारी
   

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

आधुनिक भारत के मंदिरों (केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रमों-पी.एस.युज. ) की रक्षा कौन करेगा ?

वर्तमान २१ वीं शताब्दी के इस प्रथम दशक की समाप्ति पर वैश्विक परिद्रश्य जिन्ह  मूल्यों ,अभिलाषाओं और जन-मानस की सामूहिक हित कारिणी आकांक्षाओं - जनक्रांतियों के लिए मचल रहा है ,वे  विगत २० वीं शतब्दी के ७०वें  दशक में सम्पन्न  तत्कालीन शीत युद्धोत्तर काल  के जन -आन्दोलनों की पुनरावृति भर हैं .तब सोवियत व्यवस्था के स्वर्णिम प्रकाशपुंज  ने एक तिहाई दुनिया को महान अक्टूबर क्रांति के मानवतावादी मूल्यों से अभिप्रेरित करते हुए सामंतवाद और पूंजीवाद को पस्त करने में आश्चर्यजनक क सफलता हासिल की थी . वियतनाम में  महाशक्ति अमेरिका का मानमर्दन हो चुका था.कामरेड हो-चिन्ह-मिन्ह के नेतृत्व  में वियेतनाम के नौजवानों, किसानो और मजदूरों ने अमेरिका से चले उस भीषण युद्ध में न केवल विजय हासिल की थी; बल्कि मार्क्सवाद -लेनिनवाद -सर्वहारा अंतर राष्ट्रीयतावाद का परचम फहराकर दुनिया भर के श्रमसंघों ,मेहनतकशों ,मजूरों ,किसानो और साक्षर युवाओं  को नयी  रौशनी -नई सुबह  से रूबरू कराया था. लेकिन अमेरिका ने इस हार को वाटरलू के रूप में लेने से इंकार कर दिया था. सोवियत-क्रांति को विफल करने के दिन तक वो चैन से नहीं बैठा .क्रेमलिन में येल्तसिन रुपी विभीषण ने उसके इस दिवास्वप्न को साकार करने में अवर्णनीय सहयोग किया था .
                       पूंजीवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्थों में द्वंदात्मक संघर्ष के परिणाम स्वरूप तीसरी दुनिया के जनमानस में सर्वहारा- क्रांती की ललक हिलोर लेने लगी थी.तत्कालीन पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों  ने सोवियत-क्रांति और उसके दुनियावी प्रभाव से आतंकित होकर ;अमेरिका समेत तमाम पूंजीवादी मुल्कों को नई गाइडलाइन दी कि वे अपने-अपने मुल्कों में अपने तई श्रमिक वर्ग को ,किसानो को कुछ लालच दें ,कुछ जन-कल्याण के नाम पर ,देश की स्वतंत्रता-प्रभुता के नाम पर ,मजहब -धरम के नाम पर और दीगर -आग -लूघर के नाम पर सरकारी कोष से जनता के वंचित-वर्गों को देने दिलाने का स्वांग या नाटक  करें. भारत समेत तीसरी दुनिया ने भी इन चोंचलों का अनुगमन किया जिससे उन्हें तत्कालीन जन-आंदोलनों को दबाने  में महती कामयाबी मिली भी .इस जन-कल्याणकारी राज्य के नाम पर किये गए पारमार्थिक खर्चों के लिए एक ओर तो जनता से विभिन्न टेक्सों के रूप में धन वसूली की जाती रही. ,फिर
 उसमें से बकौल स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी के अनुसार- १५ पैसा जनता तक पहुँचता है और ८५ पैसा  राजनीति के शिखर से होता हुआ -नौकरशाही ,राजनीतिज्ञों ,ठेकेदारों और पूंजीपतियों में बँट जाता है. सरकारी क्षेत्रों और सार्वजानिक क्षेत्र में यह एक तथ्यात्मक सच्चाई है कि सोवियत-पराभव के उपरान्त एक ध्रुवीय -विश्वव्यवस्था के परिणामस्वरूप रातों-रात यह जन -कल्याणकारी राज्य का कांसेप्ट निरस्त कर दिया गया .क्योंकि पूंजीवाद को अब किसी का डर नहीं था ,कोई चुनौती देने वाला नहीं रहा .हालाँकि नवस्वतंत्र राष्ट्रों ने अमेरिकी झांसे में आने कि कोई जल्दी नहीं दिखाई .इसीलिये पाश्चात्य आर्थिक संकट का अखिल भूमंडलीकरण होने  में देर हो रही है .
       पूंजीवादी देशों ने खास तौर से भारत जैसे विकासशील  राष्ट्रों ने उन क्षेत्रों में जहाँ पूंजीपति निवेश से बचते थे वहां जनता के पैसे से देश की तरक्की में गतिशीलता के वास्ते सार्वजनिक उपक्रमों का निर्माण कराया .चूँकि रक्षा बैंक बीमा ,दूर संचार ,खनन और सेवा क्षेत्र में तब प्रारंभिक लागतों के लिए पूँजी की विरलता  और उस पर मुनाफे की गारंटी के अभाव में निजी क्षेत्र से लेकर हवाई जहाज तक -सब कुछ विदेश से मंगाना और इसे खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा का अभाव होना , इत्यादि कारणों से भारत के तत्कलीन नेत्रत्व ने वैज्ञानिक अनुसंधानों ,श्रम शक्ति प्रयोजनों और आधारभूत संरचना  के निमित इन केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों को खड़ा किया था .तब सरकार पर जनता की जन आकांक्षा की पूर्ती का भी दबाव था- कि अब तो देश आजाद है...अब लाओ -रोटी -कपडा और मकान... हमने आपको देश का मालिक बना दिया...आप हमें कम से कम मजूरी या रोजगार ही प्रदान करने कि कृपा करें ......तब सरकारों कि गरज थी ,इसीलिये केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम- नवरत्न -महारत्न खड़े किये थे .अब इन सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में कौड़ी मोल बेचा जा रहा है भारी कमीशनबाजी हुई .क्योंकि अब पूंजीवादी नव्य उदारवादी आर्थिक नीतियों का  प्रोस्पेक्ट्स तीव्रता से लागू किये जाने का आदेश वहीं से आ रहा है ,जहाँ से जन -क्रांतियों को दबाने के निमित्त जन -कल्याणकारी कार्ययोजना जारी की गई थी .इन नीतियों और कार्यक्रमों के नियामक नियंता एम् एन सी या विश्व बैंक  के कर्ता-धर्ता ही नहीं बल्कि वे नाटो से लेकर पेंटागन तक और G -20  से लेकर सुरक्षा परिषद् तक काबिज हैं .
          भले ही इन सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार ने अपनी गरज से बनाया था किन्तु अब जनता कि गरज है सो इसे बचाने के लिए आगे आये .मैं किसी क्रांति  का आह्वान नहीं कर रहा .मैं सिर्फ ये निवेदन कर रहा हूँ कि जो लोग इस ध्वंसात्मक प्रक्रिया मैं शामिल थे या हैं उन्हें और उनके नीति निर्धारकों को आइन्दा वोट कि ताकत से सत्ताच्युत किया जा सकता है .इतना तो बिना किसी उत्पात ,विप्लव या खून-खरावे के किया ही जा सकता है .,यह सर्व विदित है{सिर्फ डॉ मनमोहनसिंह जी ,श्री प्रणव जी ,श्री मौन्तेक्सिंह जी  को नहीं मालूम } कि भारतीय अर्थव्यवस्था यदि अमेरिका प्रणीत आर्थिक महामंदी कि चपेट में नहीं आयी तो इसके लिए देश का सार्वजनिक क्षेत्र .कृषि निर्भरता  और बचत कि परंपरागत प्रवृत्ति ही जिम्मेदार है .विगत २० सालों से देश में मनमोहनसिंह जी के मार्फ़त उक्त सार्वजनिक क्षेत्र  ध्वंसात्मक  नीतियों पर जोर लगाया जाता रहा है .इसमें एन डी ए कि आर्थिक नीतियां भी शामिल हैं ,क्योंकि उनकी कोई नीति नहीं है सो मनमोहनसिंह अर्थात पूंजीवादी नीति को १९९९से२००४ तक उन्ही आर्थिक सुधारों को तवज्जो दी गई जो स्व. नरसिम्हाराव के कार्यकाल में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहनसिंह जी लाये थे .वे अमेरिका से सिर्फ यह एंटी-नेशनल वित्तीय-वायरस ही नहीं अपितु भारत में अमीरों को और अमीर बनाने  और गरीवों-किसानों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का इंतजाम भी साथ लाये थे .आजादी  के फौरन बाद टेलिकाम क्षेत्र में कोई भी पूंजीपति आना नहीं चाहता था क्योंकि तब आधारभूत संरचना  कि लागत अधिक और मुनाफा कम था .विगत ५० सालों में जब देश कि जनता और दूरसंचार  विभाग के मजदूर कर्मचरियों ने कमाऊ विभाग बना कर तैयार कर दिया तो देशी विदेशी पूंजीपतियों ,दलालों कि लार टपकने लगी.बना बनाया नेटवर्क फ्री फ़ोकट में देश के दुश्मनों तक पहुंचा दिया .भारत संचार निगम को कंगाल बना कर रख दिया .एस -बेन्ड स्पेक्ट्रम हो या टु-जी थ्री -जी सभी कुछ दूर संचार विभाग से छीनकर उन कम्पनियों को दे दिया जिनकी न्यूनतम अहर्ताएं भी लाइसेंस के निमित्त अधूरी थी .कुछ के तो पंजीयन भी संदेहास्पद पाए गए हैं .
            तथाकथित नई दूरसंचार नीति के नाम पर जितना भ्रष्टाचार हुआ उतना सम्भवत विगत ६० सालों में अन्य शेष विभागों का समेकित भ्रुष्टाचार भी बराबरी पर नहीं आता .पहले तो इस नई टेलीकाम पालिसी के तहत दूर संचार विभाग के तीन टुकड़े किये गए -एक -विदेश संचार निगम जो कि रातों रात टाटा को दे दिया .दो -एम् टी एन एल बना कर अधमरा छोड़ दिया .तीन भारत संचार निगम बनाकर -{यह पवित्र काम एन डी ए कि अटल सरकार के समय हुआ था और स्व प्रमोद महाजन जी इस के प्रणेता थे ]राजाओं ,रादियाओं ,कनिमोजिओं ,बिलालों ,स्वानों ,भेड़ियों को चरने के लिए छोड़ दिया .दूर संचार विभाग के १९९९ से ए  राजा तक जितने भी मंत्री रहे हैं वे सभी महाभ्रष्ट थे.यह स्वभाविक है कि बोर्ड स्तर का अधिकारी भी भृष्ट ही होगा और चूँकि यह भृष्टाचार कि गंगा उपर से नाचे आनी ही थी, सो आ गई ...अब भारत संचार निगम या अन्य सार्वजनिक उपक्रमों को बीमार घोषित कर इसकी संपदा भी इसी तरह ओने पौने  दामों पर देशी विदेशी दलालों को बेचीं जाने बाली है .नई आर्थिक नीति के निहतार्थ यही हैं कि सब कुछ निजी कर दो लेकिन भारत कि जनता है कि सरकारी में ही आस्था लिए डटी हुई है .२८ जुलाई -२००८ को यु पी ए प्रथम कि सरकार से जब १-२-३-एटमी करार के विरोध में लेफ्ट ने समर्थन वापिस लिया था तब ,तब नोटों कि ताकत से समर्थन जुटाने वाले हमारे विद्द्वान प्रधान मंत्रीजी ने भवातिरेक में कहा था -अब कोई अड़चन नहीं ,वाम का कांटा दूर हो गया ...अब सब कुछ बदल डालूँगा ..... अब सब कुछ बेच दूंगा ....देशी विदेशी पूंजीपतियों को सप्रेम भेंट कर दूंगा ....क्यों कि अमिरीकी लाबी ने ठानी है ...नेहरु चाचा कि हर एक निशानी मिटानी है .यही कारण है कि जब भूंख से बिलखते गरीबों को मुफ्त अनाज {जो गोदामों में सड़ रहा है }देने कि सुप्रीम कोर्ट ने सलाह दी तो केद्र सरकार ने सलाह को हवा में उड़ा दिया और अब न्याय पालिका को नसीहत दी जा रही है कि हद में रहो ...खेर देश कि जनता का भरोसा अभी भी सार्वजनिक उपक्रमों पर बना हुआ है यही एक राहत कि बात है ...
      आज भी बीमा क्षेत्र में ८० % एल आई सी पर ही भारतीयों को भरोसा है .६० %लोगों को राष्ट्रीयकृत बैंकों के काम काज पर भरोसा है और इसी तरह बेसिक दूरभाष   -ब्राडबेंड -लीज्ड सर्किट इत्यादि में ८० %लोगों को भारत संचार निगम लिमिटेड पर भरोसा है .सिर्फ मोबाइल में निजी क्षेत्र इसीलिये आगे बढ़ गया क्योंकि १९९९ में ही मोबाइल क्षेत्र के लाइसेंस सिर्फ निजी क्षेत्र को दिए गए थे ,क्योकि इसी में भारी रिश्वत और पार्टी फंड कि गुंजाइश थी बी एस एन एल ई यु ने ,वर्तमान दौर के सूचना और संचार माध्यमों ने ,सुप्रीम कोर्ट ने  ,सुब्रमन्यम स्वामी ने ,प्रशांत भूषन ने अलख जगाई थी कि देश कि संचार व्यवस्था  को बर्बाद किया जा रहा है ,भारी भ्रष्टाचार कि भी लेफ्ट ने कई बार चेतावनी दी थी .मजेदार बात ये भी है कि जो भाजपा और एन डी ए भी २-g ,स्पेक्ट्रम मामले में और विभाग को तीन टुकड़े करके बेचने के मामले में  गुनाहगार है उसी ने  देश कि संसद नहीं चलने दी .इसे कहते हैं चोरी और सेना जोरी .कांग्रेस ने  तो मानों गठबंधन सरकार चलाने कि एवज में देश को ही खतरे में डाल दिया है और न केवल खतरे में अपितु पवित्र भारत भूमि को भ्रुष्टाचार कि गटर गंगा में ही डुबो दिया है ...देश कि जनता को सार्वजानिक क्षेत्र कि चिंता करने  कि फुर्सत नहीं क्योंकि उसे-बाबाओं ने, गुरु घंटालों ने , जात -धरम .क्रिकेट,मंदिर -मस्जिद भाषा और भ्रुष्टाचार कि बीमारियों से अशक्त बना डाला है .अब इससे से पहले कि कोई विराट जन आन्दोलन खडा हो ,पूंजीवादी निजामों द्वारा कुछ नई तिकड़म  बिठाये जाने के उपक्रम किये जाने वाले हैं किन्तु ये तय है कि देश के सार्वजानिक उपक्रमों को सरकारी या जनता के नियंत्रण से छीनकर निजी हाथों में दिए जाने से तश्वीर और बदरंग होती चली जायेगी .टेलिकॉम सेक्टर में सेवाएं तभी तक सस्तीं हैं जब तक सरकारी और सार्वजनिक उपक्रमों कि बाजार में उपस्थिति है जिस दिन बी एस एन एल या एम् टी एन एल नहीं रहेगा तब निजी क्षेत्र कि दरें क्या होंगी ?इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जब १९९९ से २००५ तक मोबाइल क्षेत्र में सिर्फ निजी आपरेटर थे तो वे ने केवेल आउटगोइंग बल्कि इन कमिंग कालों के प्रति मिनिट १० से १६ रुपया तक वसूल करते थे .यही बात बैंक बीमा एल पी जी स्टील ,सीमेंट ,कोयला या बिजली क्षेत्र में दृष्टव्य है .इसीलिये सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने के लिए उसके कर्मचारियों को भी अपनी कार्य शैली में बदलाव लाना होगा .जनता को भी इन उपक्रमों की हिफाजत इस रूप में करना चाहिए कि ये स्वतंत्र भारत के वास्तविक पूजास्थल हैं .जैसा कि पंडित नेहरु ने १९५६ में संसद में कहा था .
     
    श्रीराम तिवारी
   




       
        

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

पूंजीवाद__ जी का जंजाल... महंगाई-भृष्टाचार से दुनिया बदहाल.....

         आधुनिकतम उन्नत सूचना एवं प्रौद्द्योगिकी  के दौर में विश्व-रंगमंच पर कई  क्षणिकाएं-यवनिकाएं बड़ी तेजी से अभिनीत हो रहीं हैं . २१ वीं शताव्दी का प्रथम दशक सावधान कर चुका है कि दुनिया जिस राह पर चल रही है वो धरती और मानव मात्र की  जिन्दगी को छोटा करने का उपक्रम मात्र है .जीवन के प्रत्येक  क्षेत्र में देश और देश से बाहर दुनिया के कोने-कोने में तीव्रगामी परिवर्तनों की  अनुगूंज सुनाई दे रही है .मानव-निर्मित नकारात्मक  परिवर्तनों से न केवल प्राणी-जगत का अपितु स्वयम  मानव-जाति का भविष्य ही खतरे में पड़ता जा रहा है . सबसे ज्यादा चिंता का विषय है- विज्ञान का प्रयोग . विज्ञान के प्रयोग मानवीय मूल्यों की चिंता किये बिना, विध्वंस तथा विनाश के पक्ष में ज्यादा किये जा रहे हैं .यह प्रवृत्ति विगत शताब्दी से ही परवान चढ़ रही है ;किन्तु तब दुनिया के सामने विज्ञान का एक मानवीय चेहरा भी हुआ करता था . सोवियत-साम्यवादी व्यवस्था में विज्ञान को ,कला को, और ज्ञान की तमाम विधाओं को ,मानवता के पक्ष में प्रयुक्त  किया था.
                       सोवियत व्यवस्था के पराभव ने सारे समीकरणों को एक झटके में उलट कर सारी  मानवता के विरोध में ला खड़ा कर दिया है .तथाकथित पैरोश्त्रोइका या ग्लास्त्नोस्त के आगाज से लेकर आज तक एक ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के चलते न केवल समानता ,स्वतंत्रता ,बंधुत्व  की शानदार मानवीय अवधारणाएँ संकुचित हुईं अपितु छद्म जन -कल्याण कारी प्रयोजनों को भी तिलांजलि दे  दी गई .हालाँकि ये छद्म जन-कल्याणकारी अर्थतंत्र की व्यवस्था भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ उठने वाले जन-उभार को रोकने के लिए सेफ्टी वाल्व का ही काम करती थी .किन्तु फिर भी यह मानवीय मुखौटा ही सही दुनिया भर में नव-स्वतंत्र राष्ट्रों को गाढे में खूब काम आया .
    अब तो इस मुखौटे को भी नौचा  जा रहा है .अब पूंजीवाद अपने चरम पर पहुँचने को आतुर है; इसके महाविनाश की भविष्यवाणी भले ही कभी सच हो जाये किन्तु आज तो तमाम गरीब मुल्को में ,विकाशशील देशों में यहाँ तक कि कतिपय विकसित राष्ट्रों में इसका नंगा नाच देखा जा सकता है .विगत शताब्दी के उत्तरार्ध से ही पूंजीवादी साम्राज्यवाद ने इस मुखौटे कि जगह कोई और विकल्प अजमाने कि राह खोजनी शुरूं कर दी थी दुनिया के दुर्भाग्य से और शैतान की करामात से उसे 'सभ्यताओं का संघर्ष 'मिल गया इसी दौरान उन्हें नव्य-उदारवादी चेहरे के पीछे अपनी पैशाचिक पहचान छिपाने की सूझी .इसी का परिणाम था कि जो अमेरिका दुनिया भर में आर्थिक नाकेबंदियों ,सैन्य-हस्तक्षेप के लिए बदनाम था  और हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक बन बैठा था वो इस २१ वीं शताब्दी कि उषा-वेला में भयानक आर्थिक संकट में फंसता चला गया ..
                              अमेरिकी सब प्राइम संकट को धमाल मचाये हुए ४ साल हो चुके हैं ,सेंसेक्स के चढने-उतरने को अर्थव्यवस्था का वेरोमीटर मानने वाले अर्थशास्त्री पस्त  हैं. मानव मूल्यों कि पैरवी करने वाले वाम-पंथी बुद्धिजीवी अब हासिये पर हैं ,असफल नीतियों को प्रचार माध्यमों कि विना पर कोरी लफ्फाजी से सराहा जा रहा है .भूमंडलीकरण ,वैश्वीकरण को श्रम-शक्ति से परे रखा जाता रहा है .यत्र-तत्र-सर्वत्र जन-संघर्षों को दबाने  के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी का प्रयोग किया जा रहा है. माल्थस और एडम स्मिथ फ़ैल हो  चुके हैं .जो कल तक विश्व का थानेदार था वो अब हर जगह अपने ही पालतू कुत्तों से परेशान है .
  सामान्य  वुद्धि बाला इन्सान भी जानता है कि  महंगाई और भृष्टाचार पूंजीवादी  आर्थिक-नीतियों  कि असफलता हैं किन्तु हमारे देशज भारतीय नीति-निर्माता तो उन्ही सर्वनाशी दिवालिया नीतियों कि जय-जय कर  कर रहे हैं .जैविक-खेती और व्युत्पन्नों  के लालच ने वैज्ञानिक अनुसन्धान और सूचना-प्रौद्दोगिकी को आदमखोरों की मांद में धकेल दिया है. जब अमेरिका में खाद्यान्न संकट छाया तो  जोर्ज बुश और कोंडलीजा राईस ने भारतीयों और चीनियों पर अधिक भोजन भट्ट होने का आरोप लगाया था, अब अमेरिकी युवकों की बेतहाशा वेरोजगारी से आक्रान्त बराक ओबामा जी और सुश्री हिलेरी क्लिंटन ने "नो टू बंगलुरु ....नो टू बीजिंग .".....का नारा बुलंद किया है ...
      भारत के बारे में ,भारतीय  नेताओं के बारे में , भारतीय जनता के बारे में ,भारत को संयुक-राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थाई सीट के लिए प्रस्तावित किये जाने के बारे में ,भारत के खिलाफ पाकिस्तान और अन्य दुश्मन ताकतों की साजिशों के बारे में अमेरिकन क्या सोच रखते हैं? यह जानने के लिए विकीलीक्स के खुलासे द्रष्टव्य हैं. इस सबके वावजूद की सारी दुनिया में पूंजीवादी आर्थिक उदारीकारण के दुष्परिणाम परिलक्षित होने लगे हैं .स्वयम भारत में अर्ध-सामंती, अर्ध-पूंजीवादी खच्चर व्यवस्था के परिणामस्वरूप एक तरफ तो  देश की संपदा  विदेशी एम् एन सी लूट कर ले जा रहे हैं, दूसरी ओर देश के भृष्ट नेता और पूंजीपति देश की संपदा को लूटकर विदेशी तिजोरियों में जमा कर रहे हैं. फिर भी भारत में मिस्र जैसे हालत नहीं बन पाने की वजह है की भारत में बेहतर न्यायपालिका है  ,बेहतर मीडिया और बेहतर ट्रेड यूनियन आन्दोलन है . ,बेहतर लोकतंत्र है . शानदार धर्मनिरपेक्षता -अहिंसा -पर आधारित संविधान है .संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में आम-चुनावों के माध्यम से भी पूंजीवादी व्यवस्था को बदला जा सकता है .इसमें देर भले ही हो पर मिस्र ,ट्युनिसिया ,अफगानिस्तान या पाकिस्तान जैसी गृह युद्ध की स्थिति भारत में कभी नहीं बन पायेगी और वो सुबह कभी तो आयेगी ....
         श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

जन-क्रांति की रक्षा करना भी जनता का कर्तव्य है

       एक लोक कथा है ......एक गाँव में खेती किसानी करने वाले किसान रहते थे, उस गाँव में एक जमींदार हुआ करता था . गाँव में दो कुए थे, एक कुआं पूरे गाँव के लिए दूसरा सिर्फ जमींदार के लिए .जमींदार का कुआं उसकी बड़ी-सी हवेली की चहार दीवारी के अंदर था . इसीलिये जमींदार के कुएं का पानी सुरक्षित था . गाँव वाला याने जनता का कुआं सभी गाँववालों को उपलब्ध था ,बाहर से आने वाले राहगीर भी उसी कुएं के पास जामुन के पेड़ की छाँव में विश्राम करते और जनता के कुएं का पानी पीते ,वहीं नहाते धोते. एक बार एक महात्मा जी उस गाँव से गुजरे ,वहीं कुएं की जगत पर बैठ कर हुक्का गुडगुडाया और कोई जडी-मूसली चुटकी भर फांकी और आगे की ओर चल दिए .बाबाजी ने जो जडी बूटी फाँकी उसका थोडा सा हिस्सा कुएं के पानी में जा मिला .गाँव वालों ने जब पानी पिया तो वे सभी असमान्य {पागलपन} व्यवहार करने लगे .जो  किसान कल तक जमींदार को आदाब करते थे ,उसकी चिरोरी करते थे वे सभी अब इस कुएं के पानी में मिली बाबाजी की  जडी-बूटी के प्रभाव से निडर होकर जमींदार का तिरस्कार करने लगे ,उसकी बेगारी से इंकार  करने लगे, वे आपस में चर्चाओं में जमींदार को पागल कहने लगे .जमींदार से डरने के बजाय उसे डराने लगे .यहाँ तक नौबत आ पहुंची कि जब जमींदार ने अपने लाठेतों की मार्फ़त जनता को दबाना  चाहा तो गाँव के किसान मजदूर-आवाल- वृद्ध सभी के सभी जमींदार की हवेली को चारों ओर से घेरकर आग लगाने को उद्धृत हो गए .
       किस्सा कोताह ये कि जमींदार की हालत हुस्नी मुबारक जैसी होने लगी तो उसके चतुर सुजान कारिंदों ने जमींदार के नमक का हक अदा करते हुए यह अनमोल सुझाव दिया कि श्रीमान जमींदार साहब -ये किसान स्त्री -पुरुष -बच्चे -बूढ़े इसलिए  बेखौफ हो गए हैं कि इन्होने गाँव के जिस कुएं का पानी पिया है उसमें किसी बाबाजी कि जादुई भस्म उड़ कर मिल गई थी ;सो उस पानी को पीकर ये सभी जो कल तक आपके गुलाम थे; वे बौरा गए हैं .अब यदि आप उनसे बुरा बर्ताव करेंगे या उन पर घातक आक्रमण करेंगे तो वे आपको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे . जमींदार ने अपने विश्वसनीय कारिंदों से गंभीर सलाह मशविरा किया और निर्णय लिया कि जनता के कुएं का पानी मंगाया जाये .जनता के कुएं का पानी पीकर जमींदार जब जनता के सामने आया तो उसे सामने अकेले निहत्था खड़ा देखकर भी जनता ने उस पर आक्रमण करने के बजाय जमींदार- जिंदाबाद के नारे लगाए ..गाँव वाले सब आपस में कहने लगे कि हमारा जमींदार अब अच्छा हो गया है .अब हम जमींदार कि बात मानेगे .बेगारी करेंगे ,जमीदार जुग-जुग जियें ...... दुनिया के जिस किसी भी मुल्क कि जनता-वैचारिक जडी-बूटी खा-पीकर  जब इस तरह से बौरा जाती [क्रन्तिकारीहो जाती}है तो सत्ता-शिखर कि सुरक्षा में ,क्रांती को दबाने  में उन्ही  मूल्यों कि जडी-बूटी पीकर
शासक  वर्ग सुरक्षित बच निकलने कि कोशिश करता है .बराक ओबामा का भारत और चीन के विरुद्ध अमेरिकी युवाओं का आह्वान, दिवालिया कम्पनियों को वेळ आउट पैकेज ,अपने निर्यातकों को संरक्षण और विदेशी आयातकों पर प्रतिबन्ध- ये सभी व्यवहार ह्रदय-परिवर्तन या जन-कल्याण के हेतु  नहीं हैं .यह सरासर धोखाधड़ी है . अपने वित्त पोषकों {राजनैतिक पार्टी कोष में चंदे का धंधा) को उपकृत करना ही एकमात्र ध्येय है .जमींदार ने गाँव के कुएं का गंदा पानी इसलिए नहीं पिया कि वो गाँव की जनता को भ्रातृत्व  भाव से चाहने लगा था बल्कि गाँव के लोगों को ठगने के लिए ;क्रांति को कुचलने के लिए यह सत्कर्म किया था .वर्तमान पूंजीवादी-साम्राज्यवाद भी इसी तरह कभी चिली में ,कभी क्यूबा में ,कभी वियतनाम में ,कभी कोरिया में ,कभी अफ्गानिस्तान  में और कभी इजिप्ट में ऐसे  ही प्रयोग किया करता है ....
       पाकिस्तान का  परवेज मुशर्रफ- जिसने  पाकिस्तान का सत्यानाश तो किया ही भारत के खिलाफ भी अनेको घटिया हरकतें  कीं थीं , यह आज दुनिया के सबसे महंगे जर्मन हॉस्पिटल का लुफ्त उठा रहा है .ट्युनिसिया का भगोड़ा राष्ट्रपति ,फिलिपीन्स का मार्कोश , उगांडा का ईदी अमीन -सबके-सब अपने-अपने दौर में  जीवन-पर्यन्त सत्ता सुख भोगते रहे और जब जन-विद्रोह के आसार नजर आये तो अमेरिका या ब्रिटेन में मुहँ छिपा कर बैठ गए या जनता के बीच में आकार खुद ही छाती पीटने लगे और कभी-कभार अपनों के हाथों तो कभी विदेशियों के हाथों सद्दाम कि मौत मारे गए .वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट से तब तक निजात मिल पाना असम्भव है, जब तक कि  श्रम के मूल्य का उचित वैज्ञानिक  निर्धारण नहीं हो जाता  और असमानता कि खाई पाटने की ईमानदार कोशिश नहीं की जाती .शासक वर्ग यदि अपने पूर्ववर्ती शासकों  की "लाभ-शुभ" केन्द्रित राज्य-संचलन  व्यवस्था को नहीं पलटता और उसके  नीति-निर्देशक सिद्धांतों में सम्पत्ति के निजी अधिकार से ऊपर जनता के सामूहिक स्वामित्व को प्रमुखता  नहीं देता तब तक  वर्गीय समाज रहेगा .जब तक वर्गीय समाज है तो उनमें अपने हितों के लिए संघर्ष चलता रहेगा .इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप यदि सत्ता वास्तविक रूप से जनता के हाथों में नहीं आती तो आंतरिक उठा-पटक की मशक्कत बेकार है .इतिहास के  अनुभव बताते हैं कि अंधे पीसें कुत्ते खाएं ...कई मर्तबा  ईमानदार क्रांतीकारी नौजवानों ने शहादतें दी और सत्ता पर कोई और जा बैठा .ईराक ,अफगानिस्तान कि तरह कहीं मिस्र में भी अमेरिकी एजेंट सत्ता न संभाल लें ? अन्याय और शोषण से लड़ने , अपने हक के लिए संघर्ष करने जैसे पवित्र और पुनीत कार्य दुनिया में अन्य कोई भी नहीं किन्तु जोश के साथ-साथ जनता के नेतृत्व  का होश भी बहुत जरुरी है , नेतृत्व-निष्ठां  पाकिस्तानी शासक  जैसी सम्राज्य-परस्त  और भारत-विरोधी हो तो वो दुनिया में कितनी भी पवित्र हो हमें मंजूर नहीं करना चाहिए .दुनिया में किसी भी जन-आक्रोश या जन-उभार के प्रति भारतीय जन-गण की प्रतिक्रिया उसके राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हितों के परिप्रेक्ष्य में ही दी जानी चाहिए .
         भारत के स्वाधीनता-संग्राम का इतिहास  साक्षी है कि देश के लिए कुर्बान  होने वाले किसान-मजदूर-नौजवान जिस विचारधारा से प्रेरित होकर हँसते- हँसते फांसी के तख्ते पर चढ़े उसको विदेशी शासकों  के देशी एजेंटों ने हासिये पर धकेल दिया है .भारतीय संविधान-निर्माताओं ने तो  उन अमर शहीदों के सपनों  को साकार करने वाले नीति-निर्देशक सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है, किन्तु स्वातन्त्रोत्तर काल में परिवर्ती शासकों  ने विदेशी श्वेत प्रभुवर्ग की जगह स्वदेशी भूस्वामियों, सरमायेदारों की प्रतिमा का चरणवंदन ही किया है .भारत में आइन्दा जो भी राजनैतिक बदलाव हो वह  यकीनी तौर पर सुनिश्चित हो कि धर्म, जाति ,वर्ण ,भाषा या रूप रंग से परे आर्थिक समानता के निमित्त वास्तविक  संवैधानिक गारंटी हो .इजिप्ट या अन्य विकासशील देशों से इतर भारत में जन उभार धीमें-धीमे परवान चढ़ता है वैसे तो वर्तमान में  बेतहाशा महंगाई ,बेरोजगारी ,भयानक भृष्टचार सारी दुनिया में व्याप्त  है ,सारा विश्व उसी मांद का पानी पिए हुए है जिसका कि मिस्र ने पी रखा है यह जन-उभार कि आंधी किसी भी राष्ट्र को बख्शने  वाली नहीं .बारी-बारी  सबकी बारी .जनक्रांति कि भी जनता को ही करनी होगी रखवारी . 

       श्रीराम   तिवारी -संयोजक -जन -काव्य -भारती
जन कवि -एवं साहित्यकार                      

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

पूंजीवाद से बेहतर है साम्यवाद -रूमानियाई रिफ्रेंडम का सार .......

         वैश्विक आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप जनांदोलनों  की दावाग्नि वैसे तो सारी धरती को अंदर से धधका रही है . आधुनिकतम सूचना एवं संचार माध्यमों की भी जन-हितकारी भूमिका अधिकांश मौकों पर द्रष्टव्य रही है.  इस  आर्थिक संकट की चिंगारी का मूल स्त्रोत पूर्वी यूरोप और सोवियत  साम्यवाद के पराभव में सन्निहित है .
       दुनिया भर में और खास तौर से पूर्वी यूरोप में 'बाज़ार व्यवस्था 'के अंतर्गत जीवन का जो अनुभव आम जनता को हो रहा है ;उससे उनको बेहद आत्मग्लानि का बोध होने लगा है जिन्होंने तत्कालीन प्रतिक्रान्ति में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था . वे अपने देशों में छिपे हुए पूंजीवादी साम्राजवादी -सी आई ए के एजेंटों को पहचानने में भी  असफल रहे . उन देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी शायद यह समझ था कि सर्वहारा कि तानाशाही का अंतिम सत्य यही है .अब वर्तमान सर्वनाशी ,सर्वग्रासी ,सर्वव्यापी पूंजीवादी आर्थिक संकट से चकरघिन्नी हो रहे ये पूर्ववर्ती साम्यवादी और वर्तमान में भयानक आर्थिक संकट से जूझते राष्ट्रों कि जनता स्वयम आर्तनाद करते हुए छाती पीट रही है -काश.इतिहास को पलटा न गया होता ,काश साम्यवाद को ध्वस्त न किया होता ..
               हाल  ही में रूमानिया के २०१० के सी एस ओ पी /आई आई सी एम् ई आर सर्वे के सम्बन्ध में विशेषकर यह तथ्य उल्लेखनीय है कि जैसे- जैसे इस पतनशील बाजारीकरण -उधारीकरण और धरती के बंध्याकरण
 कि व्यवस्था कि असफलता का साक्षात्कार  होने लगा वैसे -वैसे पूर्ववर्ती साम्यवादी व्यवस्था के प्रति सकारत्मक जिज्ञासा परवान चढ़ने लगी है .इस सर्वे में अपनी राय जाहिर करने वालों में से अधिकांश  ने कहा है कि उनके देश में जब कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में थी -तो उस समय उनका जीवन ,आज कि पूंजीवादी व्यवस्था के सापेक्ष कई गुना बेहतर था .६०%जनता ने साम्यवादी व्यवस्था के पक्ष में अपनी राय जाहिर की  है .चार साल पहले भी ऐसा ही सर्वेक्षण हुआ था उसके मुकाबले  इस दफे चमत्कारिक रूप से  बृद्धि उन लोगो कि हुई जो साम्यवाद को पूंजीवाद से बेहतर मानते है .
       यह रोचक तथ्य है कि सर्वेक्षण कराने वाले संगठन सी एस ओ पी द्वारा किये गए सर्वे में पता चला  कि जिस रूमानियाई अंतिम साम्यवादी शासक  निकोलाई च्सेस्कू को उसी के देशवासी  पांच साल पहले तक जो खलनायक मानते आये थे वे भी दबी  जुबान से कहते हैं कि इससे {वर्तमान बेतहाशा महंगाई -बेरोजगारी -भृष्टाचार की पूंजीवादी व्यवस्था से } तो चासेश्कू का शासन  भी अच्छा था .सर्वेक्षण  के प्रायोजकों को सबसे ज्यदा निराशा उस सवाल के जबाब से हुई; जिसमें सर्वे में शामिल लोगों से पूछा  जा रहा था कि क्या उन्हें या उनके परिवारों को तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था में कोई तकलीफ झेलनी पडी थी? उत्तर देने वालों में सिर्फ ७% लोगों ने साम्यवादी  शासन में तकलीफ स्वीकारी ,६% अन्य लोगों ने माना कि उन्हें स्वयम तो नहीं किन्तु उनके सप्रिजनों में से किसी एक आध को तत्कालीन साम्यवादी शासन में तकलीफ दरपेश हुई थी .सर्वे में नगण्य लोग ऐसे भी पाए गए जिनका अभिमत था कि "पता नहीं" अब और तब में क्या फर्क है ?`६२ % लोग आज एक पैर  पर साम्यवादी शासन कि पुनह अगवानी के लिए लालालियत हैं .
       इस सर्वे का प्रयोजन एक पूंजीवादी कुटिल चाल के रूप में किया गया था, रूमानिया के अमेरिकी सलाहकारों और "इंस्टिट्यूट फार इंवेस्टिगेसन- द क्राइम्स आफ कम्युनिज्म एंड मेमोरी आफ रुमानियन एक्साइल्स "ने कम्युनिज्म को गए-गुजरे जमाने की कालातीत व्यवस्था साबित  करने के लिए भारी मशक्कत की थी .प्रतिगामी विचारों की स्वार्थी ताकतों ने इस सर्वेक्षण के लिए वित्तीय मदद की थी .कम्युनिज्म के खिलाफ वातावरण स्थायी रूप से बनाए  रखने की कोशिश में सर मुड़ाते ही ओले पड़े, जनता के बहुमत ने फिर से कम्युनिज्म की व्यवस्था को सिरमौर बताकर  और वर्तमान नव-उदारवादी निगमीकरण   की पतनशील व्यवस्था को दुत्कारकर सर्वे करने वालों को भौंचक्का कर दिया है . अब तो सर्वेक्षण के आंकड़ों ने सारी स्थिति को भी साफ़ करके रख दिया है .
         तत्कालीन कम्युनिस्ट व्यवस्था से तकलीफ किनको थी ? यह भी उजागर होने लगा है. चूँकि साम्यवादी शासन में निजी संपत्ति की एक निश्चित अधिकतम और अपेक्षित सीमा निर्धारण करना जरुरी होता है .ऐसा किये बिना उनका उद्धार नहीं किया जा सकता जिनके  पास रोटी-कपडा-मकान-आजीविका और सुरक्षा की गारंटी नहीं होती .
अतएव न केवल रोमानिया बल्कि तत्कालीन सोवियत संघ समेत समस्त साम्यवादी राष्ट्रों में यह सिद्धांत लिया गया की एक सीमा से ज्यादा  जिनके पास है वो राष्ट्रीकरण के माध्यम से या तो सार्वजनिक सिस्टम से या न्यूनतम सीमा पर निजीतौर से उन लोगों तक पहुँचाया जाये जिनके पास वो नहीं है .तब उन लोगों को जो कमुनिस्ट शासन में खुशहाल थे ,कोई कमी भी उन्हें नहीं थी किन्तु उनकी अतिशेष  जमीनों या संपत्तियों को राज्य के स्वामित्व में चले जाने से वे भू-स्वामी और कारखानों के मालिक साम्यवादी शासन और साम्यवादी विचारधारा से अंदरूनी अलगाव रखते थे .वर्तमान सर्वेक्षणों के नतीजों की समीक्षा में आई आई सी एम् ई आर ने यह दर्ज किया है कि २० वीं सदी के कम्युनिज्म का आमतौर पर धनात्मक आकलन करने वाले अकेले रूमानियाई ही नहीं हैं .२००९ में अमेरिका-आधारित प्यु रिसर्च सेंटर ने मध्य-पूर्वी यूरोप के कई देशों में जो सर्वे किया था उसमें पता चला था कि
पूर्ववर्ती समाजवादी या साम्यवादी देशों कि आबादी में ऐसें लोगों का अनुपात तेजी से बढ़ रहा है जो यह मानते हैं कि आज कि वर्तमान पूंजीवादी-मुनाफाखोरी और वैयक्तिक  लूट कि लालसा से लबरेज व्यवस्था कि बनिस्बत  साम्यवादी शासन  कहीं बेहतर था .
           श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

घर-आँगन में वसंत बहार हो.........

      शब्द  गीत  छंद में , प्रबंध लालित्य में ,
     नियति नटी की , मधुर झंकार  हो .
     साधना  समष्टि की , चेतना अभीष्ट की ,
    विरही -मिलन  संयोग श्रंगार हो ..
    सुबह अलसाई सी ,शाम हरषाई सी .
    घर आँगन में वसंत बहार हो ..
    ========,,,,,,,--------.......========
    लेखनी की मार  हो ,नौ रस धार हो
    रति संग ऋतू  की मदन मनुहार हो
     कभी चलें व्यंग्य बाण, मनसिज नेन बाण ,
     हस परिहास की प्रणय पुकार हो ..
     वन उपवन फूले अमुआ पै बौर झूले ,
      फूल रहे बगिया में जूही कचनार हो ..
                श्रीराम तिवारी
    
       

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तीसरी दुनिया बनाम साम्राज्यवाद का चरागाह ........

     विगत दिनों मुंबई पोर्ट से दो समाचार एक जैसे आये.एक -विदेशी आयातित प्याज बंदरगाहों पर सड़ रही थी .कोई महकमा या सरकार सुध लेने को तैयार नहीं ;परिणामस्वरूप देश में निम्नआय वर्ग की  थाली से प्याज लगभग गायब ही हो चुकी थी . दूसरा समाचार ये था कि पश्चिमी विकसित राष्ट्रों का परमाण्विक कचरा भारतीय बंदरगाहों से ; रातोंरात ऐसे उतारवा लिया कि किसी को भी कानों कान भनक भी नहीं लगी .वह खतरनाक परमाणुविक रेडिओ-धर्मी कूड़ा करकट कहाँ फेंका गया? मुझे नहीं मालूम ,उसके नकारात्मक परिणामों का सरकार और जनता ने क्या निदान ढूंढा वह भी मुझे नहीं मालूम .जिस किसी भारतीय दिव्य-आत्मा को मालूम हो सो सूचित करे .....
    यह नितांत सोचनीय है कि एक ओर देश के बंदरगाहों पर विदेशी औद्योगिक  कचरे को उतारा जा रहा है ,दूसरी ओर खुले आम कहा जा रहा है कि तीसरी दुनिया के देशों को प्रदूषण-निर्यात से अमेरिका को तो भारी लाभ होगा ही आयातक राष्ट्रों को भी  विकसित राष्ट्रों -G -२०  से आधुनिकतम तकनालोजी और विश्व बैंक की कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्धि कि गारंटी का प्रलोभन .विश्व बैंक के आर्थिक सलाहकार सामर्स का कहना है कि ' हमें तीसरी दुनिया को प्रदूषण निर्यात करने कि जरुरत है'  यह पूंजीवादी पश्चिमी राष्ट्रों कि क्रूरतम मानसिकता और उद्द्योग-जनित  प्रदुषण  संकट को विस्थापित करने की साम्राज्यवादी  दादागिरी नहीं तो और क्या है ? उनका तर्क है की तीसरी दुनिया के अधकांश देश अभी भी औद्योगीकरण   से कोसों दूर हैं, उनके समुद्रीय किनारों पर यदि किसी तरह का परमाणु कचरा फेंका जाता है तो इससे होने वाला वैश्विक पर्यावरण प्रदूषण उतना घातक नहीं होगा जितना कि उस सूरते-हाल में संभावित है; जब वो उन्नत राष्ट्रों की सरजमी पर ही  पड़ा रहे या यूरोप अमेरिका के सामुद्रिक तटों पर दुष्प्रभावी विकिरणों  से धरती को नष्ट करता रहे .उनका एक तर्क और भी है कि तीसरी  दुनिया में मौत कि लागत कम है याने जिन्दगी सस्ती सो विषाक्त कचरा तीसरी दुनिया के देशों कि सर-जमीन पर उनके समुद्र तटों पर भेजना युक्तिसंगत है . प्रदूषित पदार्थों के सेवन से चाहे मछलियाँ मरें या इंसान उन्नत देशों के रहनुमाओं को लगता है कि यह सस्ता सौदा है क्योकि इन उन्नत देशों में मौत महंगी हुआ करती है .
           पूंजीवादी मुनाफाखोरों की  सभ्यता के निहितार्थ  स्पष्ट हैं .२०० सालों से यह सिलसिला जारी है .ये तब भी था जब अधिकांश तीसरी दुनिया गुलाम थी .ये तब भी है जबकि लगभग सारी दुनिया आजाद है . प्रारंभ में तो व्यापार और आग्नेय अश्त्रों कि बिना  पर यह पूंजीवादी निकृष्ट रूप सामने आया था ; बाद में निवेश ,कर्ज और अब प्रौद्योगिकी हस्तांतरण ने विकासशील देशों को पूंजीवादी सबल राष्ट्रों का लगभग गुलाम ही बना डाला है -यही नव्य उदारवाद की बाचिक परिभाषा हो सकती है .तीसरी दुनिया को एक ओर तो आउटडेट तकनीकी निर्यात की जाती है, दूसरी ओर जिन नकारात्मक आत्मघाती शर्तों पर विकासशील राष्ट्रों में औद्द्योगीकरन थोड़े हीले-हवाले से आगे बढ़ा उनमें ये शर्तें भी हैं की आप तीसरी दुनिया के लोग अपने जंगलात ,नदियाँ पर्वत स्वच्छ रखें ताकि हम पश्चिम के उन्नत राष्ट्र तुम्हारे देश में आकर  उसे इसलिए गन्दा कर सकें की हमारे हिस्से के विषाक्त कचरे का निस्तारण हो सके और पर्यावरण संतुलन की जन-आकांक्षा के सामने हमें घुटने न टेकने पड़ें . विकासशील देशों के पर्यावरण संगठन जंगल बचाने या विकसित देशों के कचरे आयात करने से रोकने के अभियान को मजबूत बनाने के लिए विश्व-व्यापार संगठन पर न तो  दबाव  डाल रहे हैं और न ही इसमें निहित असमानता ,अन्याय एवं खतरनाक आर्थिक -राजनैतिक दुश्चक्र के खिलाफ कोई क्रांतीकारी सांघातिक प्रहार कर पा रहे हैं .यह विडम्बना ही है कि विकसित देशों के पर्यावरण संगठन अपनी सरकारों पर बेजा  दबाव  डालते हैं कि वे उनके देशों कि जिजीविषा कि खातिर विकासशील राष्ट्रों से अमुक-अमुक आयात बंद करें .उनके लिए कोस्टारिका ,भारत या बंगला देश कि शक्कर और  शहद भी कडवी है, सो इन गरीब देशों के कपड़ों से लेकर खाद्यान्न तक में उन्हें जैविक-प्रदूषण नज़र आता है ये पर्यावरणवादी पाश्चात्य  संगठन ये भूल जाते हैं कि तीसरी दुनिया के गरीब मुल्कों के पिछड़ेपन ,अशिक्षा और तमाम तरह के प्रदूषण के लिए सम्पन्न और विकसित राष्ट्र ही जिम्मेदार हैं ;उन्ही के राष्ट्र हितैषियों कि करतूत से तीसरी दुनिया में कुपोषण ,भुखमरी ,जहालत और प्रदूषण इफरात से फैला पड़ा है .
      विकाशशील  देश इस भ्रम में हैं कि उनके यहाँ प्रौद्द्योगिकी आ रही है ,उनका आर्थिक उत्थान होने जा रहा है किन्तु वे प्रदूषण-समस्या के साथ-साथ बेरोजगारी और विषमता ही आयात कर रहे हैं .विकासशील देशों को ऐसा रास्ता ढूँढना होगा जो इस  परिवर्तन  कि प्रक्रिया को न केवल रोजगार मूलक बनाए अपितु धरती के स्वरूप को और ज्यादा हानि  न पहुंचाए . तब अमेरिका में इंसानी-जिन्दगी महंगी और भारत में इतनी सस्ती न होगी कि भोपाल गैस काण्ड कि २५ वीं वर्षगाँठ पर असहाय अपंगता को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करनी पड़े .....
                                                            श्रीराम तिवारी


C:\WINDOWS\hinhem.scr