बुधवार, 8 दिसंबर 2021

*जन संघर्ष और तेज होना चाहिए *

साइंस की बदौलत जगत की तमाम संहारक शक्तियों की विराट दुर्जेयता पर इंसानी जिजीविषा अब भी भारी है। पता नहीं कि यह मसल [कहावत] कब मशहूर हुई कि 'अकल बड़ी या भैंस?किन्तु यह अवश्य अनुमानित किया जा सकता है कि 'कलम बड़ी या तलवार ?' का मुहावरा जरूर सामंतयुग के ही दरबारी गैर - दरबारी बुद्धिजीवियों याने चारणों -भाटों की दैन है। अब चूँकि अंधश्रद्धावाद ने ,साम्प्रदायिक उन्माद ने ,वैश्विक आतंकवाद ने तथा मानवता के हत्यारे कोइस मौजूदा निर्मम पूँजीवाद ने सिद्ध कर दिया है कि भैंस ही बड़ी होती है। उसके अनुसार तो अब ताकत का ही जमाना है। वह 'जिसकी लाठी उसकी भेंस' का तरफदार है ।

वैसे भी पूंजीवादी प्रजातंत्र की आवारा राजनीति तो एक कदम आगे ही है। इसमें जिसको जितनी ज्यादा वोटरों याने 'मानव मुंडियों ' का समर्थन मिलता है , अंध समर्थकों की जितनी ज्यादा भेड़ें उसके अंधकूप में गिरतीं हैं वह उतना ही 'सुपर पावर सेंटर' हो जाया करता है ! वही सबसे बड़ा राजनैतिक दल या नेता होता है! भैंस तो फिर भी कम से कम दूध तो देती ही है। भले ही उसे पानी-सानी और घास वोट कबाडु अक्लमंद खिलाते -पिलाते हों। किन्तु दुग्धपान तो टाटा ,बिड़ला ,अम्बानी,अडानी ,जैसे ही कर रहे हैं। बात सिर्फ इतनी ही होती तब भी गनीमत होती , लेकिन असल खतरा उन भैंस के जायों का है,जो वैश्विक हथियार उत्पादक पाड़ों के रूप में अब समस्त भूमण्डल की हरियाली उदरस्थ किये जा रहे हैं। इन हालत में बुद्धि चातुर्य ,चिंतन मनन,दर्शन,सिद्धांत रुपी अक्ल का क्या आचार डालियेगा ? क्या अक्ल बाकई अब घास चरने के काबिल ही रह गई है ?
इस उल्लेखित दौर में - ताकतवर राष्ट्रों ने ,ताकतवर समाजों ने ,ताकतवर जातियों ने ताकतवर मुनाफाखोरों ने , ताकतवर अलगाववादियों ने ,ताकतवर कार्पोरेट घरानों ने ,जड़मति - मजहबी जेहादियों ने ,ताकतवर हथियार उत्पादक लॉबियों ने ,जातीय बहुसंख्यकवादियों ने ,वैचारिक संकीर्णतावादियों ने डंके की चोट पर, अब विवेकपूर्ण बुद्धिमत्ता पर विजयश्री हासिल कर ली है। इन शैतानी ताकतों ने अच्छे-अच्छे बुद्धिजीवियों ,दर्शनशास्त्रियों , मानवतावादियों ,मार्क्सवादियों और समाजवादियों की भी अक्ल भी ठिकाने लगा दी है । इस अधुनातन -परम -उत्तर आधुनिक दौर में ,सूचना सम्पर्क क्रांति के दौर में , कथित अतिउन्नत दूर संचार संसाधनों के दौर में ,कम्प्यूटरीकरण के दौर में , घन घोर वैश्वीकरण -उदारीकरण और बाजारीकरण के दौर में -चरमोत्कर्ष पर विराजित वैज्ञानिक उपलब्धियों के दौर में क्या इंसानियत शिथिल हो चुकी है? नहीं ! नहीं ! नहीं !
ह्रदय की विशालता ,मानवीय वैश्विक बंधुता ,अवसरों की समानता ,'जियो और जीने दो ' की सर्वजनहितकारी, सार्वदेशिक पावन उद्घोषणा अभी भी सांस ले रही है। अन्यान्य मानवीय संघर्षों - क्रांतियों की सजग संवेदना एवं ततसंबंधी मानवीय मूल्य अब भी जीवन के लिए ललक रहे हैं। वे केवल पौराणिक आख्यानों की कथावस्तु बनकर नहीं रह गए बल्कि वे विवेक का अमरत्वपान कर-क्रांति-क्रांति पुकार रहे हैं ।
'कलम बड़ी या तलवार' वाले जुमले को तो विज्ञान के चौतरफा आक्रमण ने वैसे भी बहरहाल कालकवलित ही कर दिया है। कलम की जगह 'की बोर्ड' या 'टच स्क्रीन ' ने बर्षों पहले ही ले ली है। अब तो सुपर कंप्यूटर या मोबाइल- 6 जनरेशन से भी आगे की 'पलक झपक' या 'नाड़ी स्पंदन' की अगली पीढ़ी की नूतन तकनीकि के आगमन की तयारी चल रही है। आइन्दा कलम दवात या प्रिंट संसाधनों की कितनी महत्ता रहेगी यह अभी से कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह तय है कि भविष्य का इंसान न केवल अपनी आयु बल्कि मालगत -भौतिक संसाधनों और तदनुरूप उत्पादों से लेकर जीवन के क्षेत्र की हर चीज और उस की उम्र को भी अब बाजार की प्रतिदव्न्दिता से ही परिभाषित करने जा रहा है।
चाकू तलवार और इस जाति के मध्ययुगीन सामंती हथियार अभी भी गली मोहल्लों में लुच्चे -लफंगों और गुंडों के 'शौर्य प्रदर्शन ' का माध्यम बने हुए हैं। शादी विवाह में ,दशहरे की पूजा में या पुराने जमींदारों -राजे -रजवाड़ों के चित्रों में सुशोभित अश्त्र-शस्त्र अब 'कलम बड़ी या तलवार' वाले मुहावरे के लायक नहीं रह गए। क्लाशिन्कोव ,ए.के -47 ,मोउजर , जैसे हथियार तो पहले ही तलवार को मात दे चुके हैं।अब रॉकेट लांचर ,परमाणु बम और एटीएम बम , उद्जन बम भी विगत शताब्दी के ओल्ड फैशन के हथियार हो चुके हैं अब रासायनिक ,जैविक ,रोबोटिक, मारक हथियारों के उत्पादन और विक्रय का जमाना है। इन्ही की तिजारत की होड़ मची है।
सरकार के पास भले ही न हों ,किन्तु आईएसआई , नाटो,तालिवान,अलकायदा सिमी और नक्सलवादी संगठनों के पास ये हथियार जरूरत से ज्यादा मिल जाएंगे। वो जमाना कब का खत्म हुआ जब कलम तलवार से बड़ी हुआ करती थी. अब तो कलम भी तलवार के सामने नतमस्तक है।
फिर भी हर दौर की तरह इस दौर में भी बुद्धिबल और मानवीय विवेक का हौसला पस्त नहीं हुआ है।उसके नेक इरादे भी कम बुलंद नहीं हैं। एक मामूली सी चिप या एक मामूली सा 'स्ट्रिंग आपरेशन सेट ' किसी भी शक्तिशाली शासक को धूल चटा सकता है। वेशक यह एक आशाजनक संभावना है कि तमाम संहारक शक्तियों की विराट दुर्जेयता पर इंसानी जिजीविषा अब भी भारी है। जिस तरह उन्मत्त हाथी को काबू में करने के लिए इन्सानी हाथों में छोटे से अंकुश की बखत है उसी तरह मानवता की रक्षा के लिए ,क्रांतियों के मूल्यों और शहादत के अवदान की सुरक्षा के लिए तड़प अभी भी विद्द्य्मान है। पैशाचिक ताकत को नियंत्रित करने के लिए वैचारिक विवेकशीलता ,मानवीय सह्रदयता अभी भी हिलोरें ले रही है। युवा चेतना से भरपूर सोशल मीडिया का साहचर्य अब शोषित -बंचित वर्गों को भी मिलने लगा है। टेक्नॉलॉजी अब केवल रोजगार या मनोंरंजन का साधन मात्र नहीं रह गई बल्कि इसके शशक्त सहयोग से शोषणकारी ताकतों की भृष्टतम व्यवस्था के खिलाफ न केवल कलम की धार ,अपितु जन संगठनों के एकजुट संघर्ष की धार आइंदा और ज्यादा तेज होना चाहिए!

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