प्रातः पसर चले धुंध धूल ओसकण,
पता ही न चले कब दिन ढल जावे है।
अगहन की रातें ठंडी गुदड़ी में काट काट,
खेत पै किसान को शीत लहर सतावे है।
टूटी फूटी झोपड़ी और घास फूस छप्पर ,
आशंका उजाड़ की नित जिया घबरावे है।
भूत वर्तमान या भविष्य का हरएक क्षण,
मौसम जान लेवा सर्वहारा को सतावे है।
गर्म ऊनी वस्त्र पहिने बुर्जुवा अमीर वर्ग,
वातानकूलित कोठी में गुलछर्रे उड़ावै है!
भ्रस्ट ब्युरोक्रेट्स और सत्तारूढ़ नेता गण,
कोई वेदना किसान की समझ नही पावे है!
श्रीराम तिवारी
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