सुकरात और अरस्तु जैसे महान दार्शनिकों का कहना था -कि *यह राज्य के शासन प्रशासन की महत जिम्मेदारी है कि कोई व्यक्ति उस राष्ट्र में भूँखा न रहे!*
हजरत अली ने कहा था कि "यदि किसी बादशाह के राज में एक भी व्यक्ति भूखा या दीन दुखी है, तो उस बादशाह को राज करने का कोई हक नही!
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है :-
* जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी!
सो नृप अवश्य नरक अधिकारी!!
कार्ल मार्क्स और एंगेल्स भी कह गये हैं कि
"दुनिया में अन्न जल धरती और जीवन के संसाधन इतने हैं कि कोई भूखा नही रहे, किंतु ताकतवर लोग ज्यादा उत्पादन पर काबिज हैं, इसलिये बंचितों, कमजोरों और अनाथों को उनका बाजिब हक दिलाना राज्य का काम है! यदि राज्य की व्यवस्था ठीक नही तो उस सिस्टम को जबरन बदला जाए.. यही सर्वहारा क्रांति का मूल मंत्र है! "
खैर यह सब तो गुजरे जमाने की सैद्धांतिक बातें हैं, किंतु आजाद भारत के संविधान निर्माताओं ने भी 26 जनवरी 1950 को स्वीक्रत संविधान में *डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स आफ स्टेट पॉलिसी * के अंतर्गत कहा है कि "कोई भी नागरिक भूखा नहीं मरेगा यह शासन की जिम्मेवारी है साथ ही शिक्षा स्वास्थ्य और न्याय समान रूप से सभी को उपलब्ध कराने का काम स्टेट का है. " यह सवाल जुदा है कि संविधान का पालन कौन कर रहा है? वोट की राजनीति ने सबकुछ कबाड़ कर दिया है!
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