जब कभी हम भारतीय उपमहाद्वीप के अर्थात 'अखण्ड भारत' के राजनैतिक सामाजिक,आर्थिक सरोकारों वाले इतिहास पर नजर डालते हैं तो हम तत्सम्बन्धी इतिहास के अधिकांस हिस्से में गजब की 'धर्मान्धता' और बर्बर-विदेशी आक्रांताओं की सदियों लंबी गुलामी का इतिहास अपने ललाट पर लिखा पाते हैं!
ऐंसा लगता है कि इस भूभाग के'सुधीजनों' को परलोक की चिंता कुछ ज्यादा ही सताती रही है। हालाँकि भारतीय वेदांत दर्शन और सांख्य दर्शन ने अवश्य ही ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त किया है! इसमें मानवीय चिंतन का प्रकृति और पुरुष से तादात्म्य स्थापित किया है! वैदिक परंपरा में नैतिक मूल्यों, मानवीय मर्यादाओं और सर्वमान्य आचरण पर बल दिया गया है ! मानवीय जीवन के उच्चतर मूल्यों और आदर्शों वाले धर्म मजहब से किसी को कोई इतराज नही होना चाहिये! किंतु विचित्र बिडम्बना है कि जब यूनानी और चीनी दर्शन मनुष्य जाति से ऊपर राष्ट्र को तरजीह दे रहा था, तब हमारे भारतीय दर्शनों में अहिंसा अस्तेय ब्रह्मचर्य और यम नियम आसन ध्यान धारणा समाधि को मोक्ष का मार्ग बताया जा रहा था!
इसके साथ साथ 'धर्मअर्थ काम-मोक्ष' का खूबसूरत सब्जबाग भी दिखाया जा रहा था! भारतीय दर्शनमें विक्रत 'सिस्टम' को बदलने की कोशिश करने के बजाय भारतीय मनीषी कवि साहित्यकार 'आत्मकल्याण' अर्थात आत्मोद्धार पर जोर देकर स्वयं 'बैकुंठवासी होते चले गए।
इस भूभाग के निवासी दस हजार साल से वेद पढ़ रहे हैं ,सात हजार साल से वेदांत-उपनिषद, आरण्यक पढ़ रहे हैं,पाँच हजार साल से गीता,रामायण,महाभारत पढ़ रहे हैं,ढाई हजार सालसे त्रिपिटक, महापिटक, अभिधम्मपिटक,सुत्तपिटक, पदमपुराण
और उत्तराध्ययन सूत्र पढ़ते आ रहे हैं !दो हजार साल से बाइबिल 'टेस्टामेंट' पढ़ रहे हैं,!चौदह सौ साल से हदीस-कुरआन पढ़ रहे हैं! 1000 साल से समयसार, 400 साल से रामचरितमानस, रामचन्दजशचन्द्रिका, प्रबोधचंद्रोदय,साँख्यकारिका, कबीरवाणी, गुरुग्रन्थ साहब को पढ़ते आ रहे हैं।
धरम -करम ,अध्यात्म-दर्शन का सर्वाधिक बोलवाला भारत में ही रहा है। किंतु यह घोर आश्चर्य की बात है कि सर्वाधिक गुलामी इस 'अखण्ड भारत' को ही झेलनी पडी ! सैकड़ों साल की गुलामी से भारत की किसी पीढी ने यह नहीं सीखा कि उस गुलामी का और देशके खंड खंड होने का राजनीतिक,वित्तीय सामाजिक पतन का वास्तविक कारण क्या था?
भारत में राजाओं का इतिहास ही ईश्वरीय महिमा का गान हुआ करता था। बाद में यही काम चारण भाट भी करते रहे। लुच्चे राजे राजवाड़े अपने आपको चक्रवर्ती सम्राट और दिग्विजयी सम्राट की पदवी से नवाजते रहे! जबकि असभ्य बर्बर कबीले आ-आकर इस भारत को चरते रहे। भारत की जनता को हर दौर में डबल गुलामी भोगनी पड़ी! यहां पर कार्ल मार्क्स की तरह किसी ने भी 'जनता का इतिहास' नहीं लिखा !
आजाद भारत के संविधान निर्माताओं को कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं का ज्ञान था,उन्हें मालूम था कि 'धर्म'-मजहब' के नाम पर उस सामन्तयुगीन इतिहास में किस कदर अत्यंत अमानवीय और क्रूर उदाहरण भरे पड़े हैं। वे इतने वीभत्स हैं कि उनका वर्णन करना भी सम्भव नहीं ! पंडित नेहरु और संविधान सभा के सहयोग से बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर ने धार्मिक -मजहबी उन्माद प्रेरित अन्याय जनित असमानता आधारित शोषण उत्पीड़न की रक्तरंजित धरा के पद चिन्हों पर न चलकर साइंस,आधारित और पाश्चात्य भौतिकवादी दर्शन आधारित विश्व के अनेक संविधानों का सार स्वीक्रत किया!
लेकिन पुरातन परंपराएं और उस दर्शन की गहरी जड़ें अब भी मौजूद हैं । अपने राज्य सुख वैभव की रक्षा के लिए न केवल अपने बंधु -बांधवों को बल्कि निरीह मेहनतकश जनता को भी 'काल का ग्रास' बनाया जाता रहा है । कहीं 'दींन की रक्षा के नाम पर, कहीं 'धर्म रक्षा' के नाम पर, कहीं गौ,ब्राह्मण और धरती की रक्षा के नाम पर 'अंधश्रद्धा' का पाखण्डपूर्ण प्रदर्शन किया जाता रहा है। यह नग्न सत्य है कि यह सारा धतकरम जनता के मन में 'आस्तिकता' का भय पैदा करके ही किया जाता रहा है।
क्रूर इतिहास से सबक सीखकर भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष -सर्वप्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया । यह भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति है। हमें हमेशा ही बाबा साहिब अम्बेडकर और ततकालीन भारतीय नेतत्व का अवदान याद रखना चाहिए और उन्हें शुक्रिया अदा करना चाहिए। भारत के राजनैतिक स्वरूप में धर्मनिपेक्ष लोकतंत्र ही श्रेष्ठतम विकल्प है। श्रीराम तिवारी
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