किसी गाँव में एक किसान का कच्चा मकान रास्ते के किनारे कुछ इस तरह बना था कि गली से आने जाने वालों को असुविधा होती थी।इसमें किसान की कोई गलती नहीं थी ,क्योंकि मकान खुद उसने नहीं बल्कि उसके पूर्वजों ने बनाया था। जब यह मकान बनाया गया होगा तब उसके बाजू से कोई सड़क या आम रास्ता नहीं गुजरता था। केवल सकरी सी पगडंडी अर्थात 'गैल 'हुआ करती थी। बाद में जब गाँवकी आबादी बढ़ीऔर तरक्की हुई तथा किसान लोग बैलगाड़ी ,हल बख्खर की जगह टेक्टर ट्राली लेकर वहाँ से गुजरने लगे, तब उस कच्चे मकान की बाहरी दीवाल बार-बार गिरने लगी। गली की तरफ का छप्पर रोज-रोज छतिग्रस्त होने लगा। उस कच्चे मकान का मालिक- गरीब किसान दुखी होकर कभी दीवाल ठीक करता, कभी टूटा छप्पर सुधरता। और कभी गुस्से में गालियाँ देता रहता। जब उसकी परेशानी बहुत बढ़ गयी, तब किसी बुजुर्ग की सलाह पर उस मकान मालिक ने एक रात अपने मकान के छतिग्रस्त हिस्से से सटाकर गली के किनारे एक पत्थर गाड़ दिया।
रविवार, 26 दिसंबर 2021
किसान का मकान सुरक्षित
सयाने बुजुर्ग की सलाह पर किसान ने उस पत्थर पर सिन्दूर भी पोत दिया, वहीं सुबह एक अगरबत्ती जलाकर लगादी ,और एक नीबू भी उस पत्थर पर रख दिया। सुबह गाँव के लोग जब उधर से निकले तो यह दृश्य देखकर आश्था और कौतूहल से उस पत्थर को शीश नवाया। अब जो भी उधरसे गुजरता वह दीवालसे दूरी बनाकर अपने वाहन सावधानी से निकालते हुए आगे बढ़ता । इस तरह अब उस किसान का मकान सुरक्षित था,क्योंकि उसके रक्षक अब सिन्दूर संपृक्त रुपी पत्थर के रूप में साक्षात् 'भेरू बाबा' अवतरित हो चुके थे। अब सवाल यह है कि किसान ने जिस तरह धार्मिक पाखण्ड और भयादोहन द्वारा अपने मकान रक्षा की ,क्या वह धर्मानुकूल या नैतिक आचरण कहा जा सकता है ? क्या उस किसान को और उसके द्वारा रखे गए सिन्दूरी पत्थर को नमन करने वाले पढ़ देहातियों को 'आस्तिक' कहा जा सकता है ? वेशक तमाम धर्म-मजहब और पंथ अपनी-अपनी जगह सही हो सकते हैं ,लेकिन पाखण्ड अंधश्रद्धा और ढोंग के आगे झुकना क्या बाकई 'आस्तिकता' है ?
जिस तरह एक किसान कागभगोड़े याने 'बिजूके' का आश्रय लेकर अपने खेतमें खड़ी फसल की रक्षा करता है, उसी तरह मानव सभ्यताओं के दीर्घ इतिहास में पहले 'सामन्तवाद' ने और कालांतर में आधुनिकउद्दाम पूँजीवाद ने अपनी 'सत्ता' कायम रखने के लिए धर्म-मजहब' और पंथ के 'बिजूके' गाड़ रखे हैं। इनकी आड़ में आवाम को लगातार मूर्ख बनाया जाता रहा है। सदियों से ही अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबे लोग और शोषित- पीड़ित मेहनतकश जनता को धर्म-मजहब के नाम पर बरगलाया जाता रहा है। जब कभी किसी क्रांतिकारी व्यक्ति ने अथवा संगठित समूह ने शोषण -अन्याय और अत्याचार के खिलाफ शँखनाद किया तब शोषक शासक - वर्ग ने धर्म-मजहब' का 'बिजूका' दिखाकर जनाक्रोश और जनांदोलन को दबाया है। बड़ी चालाकी और धूर्तता से जनान्दोलन का नेतत्व करने वाले को कभी ईश्वर ,कभी अवतार' ,कभी पैगम्बर और कभी पंथप्रवर्तक बनाया जाता रहा है ।
सैकड़ों साल पहले जब नीत्से ने कहा था कि ''ईश्वर मर चुका है '' तब फेसबुक ,ट्विटर और वॉट्सअप नहीं थे, वरना भारतके आधुनिक स्वयम्भू देशभक्त 'गुंडे'उसे भी दाभोलकर ,पानसरे और कलिबुर्गी की तरह मार डालते !साइंस पढ़े -लिखे युवा और 'शॉर्टकट'को ही आजीविका बना चुके नसेड़ी और धर्मांध युवा उस 'नीत्से' को भी डसे बिना नहीं छोड़ते। आज चाहे आईएसआईएस के खूंखार जेहादी हों ,चाहे पाकिस्तान प्रशिक्षित कश्मीरी आतंकी हों ,चाहे जैश ए मुहम्मद ,तालिवानी या सिमी के समर्थक हों या वे 'सनातन सभाई जिन्होंने उड़ीसा में ईसाई फादर को जिन्दा जलाया और जिनकेही भाई-बंधुओं ने दाभोलकर,पानसरे ,कलबुर्गी,अखलाख को भी मार डाला। ऐंसे स्वयम्भू कट्ररपंथी हिंदुत्ववादी हों या सबके सब 'नीत्से' को जिन्दा जमीन में गाड़ देते क्योंकि स्थापना के जीवन्त प्रमाण हैं।
मेरे ब्लॉग www.janwadi.blogspot.com से अनुदित
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