शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

राष्ट्रोंका पार्थक्य तो पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं

 सभ्य समाज में किसी श्रद्धावान मनुष्य के लिये मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वाश 'राष्ट्रवाद' की तरह मूल रूप से एक अमूर्तन अवधारणा ही है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसका धर्म-मजहब इसलिए दुनिया में श्रेष्ठ है क्योंकि वह उस खास धर्म-मजहब वाले परिवार या समाजमें जन्मा है!

दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि प्रत्येक आस्तिक या मजहबी व्यक्ति को देश -काल -परिस्थितियों ने किसी धर्म मजहब विशेष में पैदा होने या धर्मांतरित होने को बाध्य किया है। उदाहरण के लिए यदि कोई क ख ग व्यक्ति जन्मना 'ब्राह्मण कुल' से है, तो सिर्फ इस तर्क के आधार पर वह हिन्दू धर्म अथवा ब्राह्मण जाति पर गर्व करने का अधिकारी नही हो सकता! इस जातीय गर्व या आस्पद उपाधि के लिये उसे ब्राह्मणोचित गुणों और कठोर नियमों का पालन करना होगा!
इसी तरह किसी देश विशेष या शहर में पैदा हो जाने मात्र से ही कोई व्यक्ति राष्ट्रवादी नही हो जाता,कोई व्यक्ति अपने वतन के नागरिक अधिकारों के उपभोग करने से भी राष्ट्रवादी नही हो जाता ! किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रवादी होने के लिये अपने राष्ट्र के प्रति समर्पण और उत्तरदायित्व का निर्वहन बहुत जरूरी है! ठीक चीनियों,जापानियों और अंग्रेजों की तरह!
भारती़य में कदाचित यदि कोई बंदा किसी हिंदू,जैन सिख ईसाई,यहूदी अथवा मुसलमान परिवार में जन्म लेता है तो स्वाभाविक है कि उस स्थिति में उन्हें वे धर्म-मजहब ही प्रिय होंगे ,जिनमें उनका जन्म हुआ होगा !
गीता के अमृत सन्देश का सार भी यही है कि प्राणिमात्र के जीवन -मृत्यु का चक्र देश-काल की सीमाओं से मुक्त और कर्म स्पर्हा से आबद्ध होकर अनवरत चलता रहता है। भारत,पाकिस्तान,चीन या कोई और देशमें जन्मना तो मनुष्य की मानवीय आकांक्षाओं से परेहैं। राष्ट्रोंका पार्थक्य तो पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं।
इसीलिये तमाम हिन्दू दर्शनशास्त्रों ने और प्राच्य वाङ्ग्मय ने भी 'सबै भूमि गोपाल की '' का उद्घोष किया है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' इस दर्शन का शाश्वत नारा है। मानव सभ्यता के राजनैतिक विकास की प्रक्रिया में सभी राष्ट्रों का सीमांकन एक 'सहनीय' आवश्यक बुराई मात्र है।अर्थात राष्ट्रवाद का गुणानुवाद एक नैतिक बाध्यता है।

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