जब नेहरू ने 40,000 आजाद हिंद फौज के कैदियों की पैरवी के लिए फिर से पहना वकालत का काला चोगा
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जब सुभाष चंद्र बोस की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई और उनकी आजाद हिंद फौज के हजारों अफसर और सैनिक गिरफ्तार कर लिए गए,तो गुलाम भारतकी जनताके समक्ष चुनौती पैदा हो गई.
अपने मित्र सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस चुनौती को स्वीकार किया! पंडित जी के सामने सिर्फ यही चुनौती नहीं थी, कि वे सुभाषचंद्र बोस के बलिदान और विरासत को संभालें.
नेहरू को आजाद हिंद फौज (आइएनए) के उन हजारों सैनिकों को भी संभालना था, जो युद्ध में जर्मनी और जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेना ने बंदी बना लिए थे. इनमें से बहुत से सैनिक दिल्ली के लाल किले में बंद थे. इन बंदियों में आइएनए के तीन प्रमुख कमांडर सहगल, ढिल्लन और शाहनवाज शामिल थे. इन तीनों को अंग्रेज सरकार ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध छेड़ने के अपराध में फांसी की सजा सुना चुकी थी.
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कोर्ट परिसर में विश्वविख्यात नारा लगवाया :-
लाल किले से आई आवाज!
सहगल ढिल्लन शाहनवाज!!
किसानों, मजूरों और कांग्रेस के कठिन संघर्ष के परिणाम स्वरूप देश आजादी की दहलीज पर खड़ा था. और आजाद हिंद फौज का एक हिंदू, एक मुस्लिम और एक सिख कमांडर मौत की दहलीज पर खड़े थे! आजाद हिंद फौज के हजारों सैनिकों का भविष्य तो खैर अंधकार में था ही.
तब नेहरू ने आइएनए डिफेंस कमेटी बनाई. इस कमेटी ने देश भर से आइएनए के महान सैनिकों की मदद के लिए चंदा इकट्ठा किया. इस कमेटी में देश के नामी वकील शामिल किए गए. इस समय तक देश में नारे लगने लगे:
‘‘चालीस करोड़ की ये आवाज !
सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज!!
सुभाष के साथ देश की आजादी के लिए लड़े इन सैनिकों को बचाने के लिए देश के भावी प्रधानमंत्री ने वह काला चोगा फिर से धारण किया, जिसे वे वकालत के कैरियर की बहुत शुरुआत में छोड़ चुके थे. नवंबर 1945 में लाल किले में आइएनए सैनिकों का मुकदमा लड़ने के लिए तीन शख्स जा रहे हैं. ये तीन लोग थे:
जवाहरलाल नेहरू, सर तेज बहादुर सप्रू और हमारे समय के मौजूदा मुखर जस्टिस श्री मार्कंडेय काटजू के दादा कैलाश नाथ काटजू.
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