मनुष्य जब धार्मिक होता है तो व्यक्ति और विश्व के कल्याणार्थ श्रद्धा भक्ति ज्ञान ,कर्म योग और ईश्वर का संधान करता है। लेकिन दर्शनशास्त्री के रूप में मनुष्य जब गौतम बुद्ध की तरह सोचता है तब वह ईश्वर के अस्तित्व पर मौन हो जाता है।
अर्थात वह ईश्वर के होने या न होने पर कोई घोषणा नहीं करता !अपितु मनुष्य के दुःख कष्ट निवारण की विधियों की आंतरिक खोज को 'बोध' (एनलाईटमेन्ट) कहता है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वे स्वयं तो परजीवी हैं ही,किंतु भिक्षुक होकर खुद परजीवी जीवन गुजारते है, ऊपर से तुर्रा यह कि वे दूसरों को आत्मबोध का ज्ञान बांटते फिरते हैं,ईश्वर के होने या न होने से उदासीन सन्यासी और ज्ञानी के लिये ईश्वर का अस्तित्व कोई मायने नहीं रखता!
इसीलिये कालांतर में साइंस की बजह से मनुष्य जब 'नीत्से' हो जाता है तो वह गंभीर घोषणा करता है,कि 'मनुष्य ने ईश्वर को पैदा किया था ! किन्तु अब *ईश्वर मर चुका है*!
आगे चलकर यही मनुष्य जब रूसो होता है, तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर यदि नहीं भी है तो क्या हुआ उसे फिर से पैदा करो क्योंकि मानवता के हित में ईश्वर का होना तब तक नितांत आवश्यक है, जब तक आदर्श राज व्यवस्था कायम नही हो जाती ''
यही मनुष्य जब एक वैज्ञानिक नजरिये वाला महानतम तर्कशात्री -कार्ल मार्क्स की तरह सोचता है तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर सिर्फ मानवीय संवेदनाओं के भावजगत का विषय है, ईश्वर के बहाने कुछ चालॉक धूर्त लोगों ने धर्म को शोषण का धंधा बना रखा है ,याने धर्म -मजहब सर्वहारा वर्ग के लिए सिर्फ अफीम ही है!"
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