क़ानून व्यवस्था और सुरक्षा पर लाखों करोड़ रुपये जनता के पैसे से ही ख़र्च होते हैं। इसके बाद भी किसी भी बात पर लोग किसी को घेर कर मार देते हैं। धर्म के नाम पर और अन्य कारणों से भी। ठीक है कि मुख्यमंत्री खट्टर ने बयान वापस ले लिया लेकिन वे अपने कार्यकर्ताओं से लाठी उठाने की बात तो कर ही रहे थे। कोई भी धर्म संविधान से ऊपर नहीं है, इस घटना की निंदा में मैं यह बात लाखों बार लिख सकता हूँ और लिखा भी है। मगर उनसे कौन पूछे जो आए दिन हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं और सरयु में डूब जाने की नौटंकी भी। ऐसे लोग भी सिंघु बोर्डर की घटना के बहाने धर्म के नाम पर राजनीति और कट्टरता के ख़तरनाक पक्ष को उभार रहे थे भले ही उनका मक़सद किसान आंदोलन को बदनाम करने और लखीमपुर खीरी की हिंसा का हिसाब बराबर करने के रूप में देखना था लेकिन कुछ तो दिखा।
सोमवार, 18 अक्तूबर 2021
सिंघु बोर्डर पर हुई निर्मम हत्या की कड़ी निंदा !
मुझे अच्छा लगा कि जो लोग किसानों को कुचल कर मार देने की घटना पर चुप थे वे मुझसे पूछने आ गए कि मैं क्यों चुप हूँ। इसका मतलब है कि हिंसा की किसी घटना पर चुप नहीं रहना चाहिए। उससे ज़्यादा उसका मुखर या मौन समर्थन नहीं करना चाहिए। मंत्री अजय मिश्रा के साथ खड़ी होने वाली मोदी सरकार और उनके समर्थकों ने चुप्पी का माहौल बनाया और मुखर समर्थन का भी। किसी ने मोदी से नहीं पूछा कि वे चुप क्यों हैं। पहले दिन नहीं बोल सके लेकिन अब तो कई तथ्य सामने आ चुके हैं, अब बोल लीजिए। ख़ैर मुझसे पूछा अच्छा किया। उन्हें पता है छुट्टी पर भी रवीश कुमार को बोलना है और जो बिना छुट्टी लिए काम करने का प्रचार करे उसकी चुप्पी पर कोई सवाल नहीं। ये और बात है कि कम सोने वाले और दिन रात देश के लिए काम करने वाले मोदी हर मोर्चे पर फेल हो चुके हैं तभी तो उनके समर्थक भी 117 रुपया लीटर पेट्रोल भरा रहे हैं। बेरोज़गार घूम रहे हैं।
सिंघु बोर्डर की घटना क्रूरता की इंतेहा है।शर्मनाक है। धर्म के पुजारी के हत्या में शामिल होने से हत्या धार्मिक कार्य नहीं हो जाती है। हर हत्या बर्बर होती है। धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी पर भड़कने की संस्कृति ख़तरनाक है। कोई भी इसका लाभ उठा कर किसी समाज को हिंसक बना सकता है। 2015 के बिहार चुनाव में मंदिरों पर गाय का मांस और मस्जिदों पर सुअर का मांस फेंकने की कई सौ घटनाएँ कराई गईं थीं ताकि लोग भड़क जाएँ और दंगा करें और फिर राजनीतिक लाभ किसे मिलता आप जानते हैं। एक्सप्रेस की पुरानी रिपोर्ट निकाल कर पढ़िए। बहुसंख्यक धर्म के नाम की जाने वाली राजनीति, आई टी सेल और उनकी गुलाम गोदी मीडिया ने ऐसी कितनी ही हत्याओं को कई तरीक़ों से सही ठहराया है और किसी अपराध में आरोपी का धर्म विशेष देखकर उकसाने का प्रयास किया है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने न सिर्फ़ हत्या की निंदा की बल्कि यह भी साफ़ किया कि उनका आंदोलन धार्मिक नहीं है। निहंग यहाँ से चले जाए यह सुनकर किसान आंदोलन में शामिल सिख किसानों ने आंदोलन से बग़ावत नहीं कर दी बल्कि ऐसा कहने वालों में वे भी थे।
ग्रंथी हों, मौलवी हों या पंडित हों, धर्म के अपमान के नाम पर किसी को छूने तक का अधिकार नहीं होना चाहिए। लेकिन कितने लोग मार दिए गए। अब तो नाम भी भूल चुके होंगे। अख़लाक़ से लेकर जुनैद और तबरेज़ अंसारी। नजीब का तो पता ही नहीं चला। इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को किसने मारा किसी जाति का गौरव वाला ख़ून भी नहीं खौला।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें