माल गपागप खा गए चोट्टे,
कसर नही हैवानी में।
मंद मंद मुस्काए हुक्मराँ,
गई भैंस जब पानी में ।।
सुरा सुंदरी में डूबे कुछ,
सत्ता की गुड़ धानी में !
जनगण मन को मूर्ख बनाते,
शासक सब आसानी में।।
लोकतंत्र के चारों खम्बे,
पथ विचलित नादानी में।
लुटिया डूबी अर्थतंत्र की,
बेरोजगार हैरानी में।।
व्यथित किसान भूँख से मरते,
क़र्ज़ की खींचातानी में।
कारपोरेट पूँजी की जय जय,
होती खींचातानी में।।
निर्धन निबल लड़ें आपस में,
जाति धर्म की घानी में।
सिस्टम अविरल जुटा हुआ है,
काली कारस्तानी में।।
बलिदानों की गाथा हमने,
पढ़ी थी खूब जवानी में।
संघर्षों की सही दिशा है ,
भगतसिंह की वाणी में।।
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें