मंगलवार, 30 अक्टूबर 2018

हर हाथ को काम मिलना चाहिए!

नंगे -भूँखों को मंदिर प्रवेश नहीं ,
रोजगार राशन -पानी चाहिये!
मुर्दों को बैंकों का खाता नहीं,
बदन पर दो गज कफ़न चाहिए!!
स्वच्छता सदाचार सुशासन के,
नारों की राजनैतिक लफ्फाजी नहीं,
हरएक को शिक्षा का समान अधिकार,
और हर हाथ को काम मिलना चाहिए!
प्रजातंत्र में दलगत जुबानी जंग-
कोई अलोकतांत्रिक बात नहीं,
वशर्ते देश की अखंडता और जनता-
के हितों पर आंच नहीं आनी चाहिए!!
यह संभव नहीं कि इस सिस्टम में,
हर किसी के मनकी मुराद पूरी हो पाए ,
किन्तु न्यूनतम संसाधनों की आपूर्ती
देश के हर नागरिक तक पहुंचनी चाहिए!
इतना तो इस धरती पर मौजूद है कि-
उसके तमाम वाशिंदे जिन्दा रह सकें ,
मुनाफाखोरी,शोषण,उत्पीड़न और
बेकारी का उन्मूलन होना चाहिये!!
बार बार पूंजीवादी सत्ता परिवर्तन से-
अब तक जिन चोट्टों का हुआ विकास,
उन कालेधन वालों को संरक्षण नहीं,
बल्कि माकूल सजा होना चाहिए।।
श्रीराम तिवारी
तूँ तैरकर इंग्लिश चैनल पार कर सकती है,अंतरिक्ष में जा सकती है,एवरेस्ट पर चढ़ सकती है,ओलंपिक खेलों के ढेरों मेडल ला सकती है-किंतु शबरीमला(अयप्पा) मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकती!क्योंकि तुझे आस्था की जंजीरों ने जकड़ रखा है!

किसी भी राजनैतिक दल के पास सर्वसमावेशी सिद्धांत,विचार और कार्यनीतिक लाइन नहीं है!

पूंजीवादी सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जुलूस,हड़ताल और नारेबाजी करने से अव्वल तो कुछ होने वाला नही क्योंकि मीडिया पूरी तरह पूंजीपतियों के कदमों में औंधा पड़ा है!किंतु इन संघर्षों से यदि कभी कहीं कोई सत्ता परिवर्तन या कोई अस्थाई क्रांति हो भी जाये,तो भी सामाजिक आर्थिक असमानता का मिट पाना असंभव है!जब तक भारत में जाति और वर्ण है,और जातिपर आधारित आरक्षण की बैसाखी है, तब तक मेहनतकशों के बीच व्यापक एकता असंभव है!और तब तक किसी भी तरह की सर्वहारा क्रांति तथा सामाजिक समरसता भी असंभव है!इस समय इस विषयमें किसी भी राजनैतिक दल के पास सर्वसमावेशी सिद्धांत,विचार और कार्यनीतिक लाइन नहीं है!

स्वतंत्रता समानता और बंधुत्व '


अठारहवी सदी के महान फ्रांसीसी चिंतक रूसो ने मानव समाज के इतिहास में पहली बार मनुष्य के जिन तीन प्राकृतिक अधिकारों की बड़े ही स्पष्ट शब्दों में चर्चा की वह हैं,,स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व के प्राकृतिक अधिकार।
1789 की महान फ्रांसीसी क्रांति को सामंतवाद पर पूंजीवाद की निर्णायक विजय के रूप में देखा जाता है।उस क्रांति के क्रांतिकारियों ने रूसो द्वारा बताए गए प्राकृतिक अधिकारों अर्थात स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व को अपना नारा बना लिया था।
उस क्रांति कि विजय के बाद से फ्रांस ही नहीं दुनिया भर के अधिकांश देशों में जो संविधान बनाए गए उनमें किसी न किसी रूप में इन तीनों अधिकारों का उल्लेख होता आ रहा है।
विचारणीय बात यह है कि रूसो ने स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व को मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार क्यों स्थापित किया? रूसो ने मानव समाज के इतिहास के प्रारंभिक चरण अर्थात आदिम अवस्था ऐतिहासिक स्रोतों और अपनी कल्पना के द्वारा अपने आलेख में चित्रित किया। उसे उसने प्राकृतिक अवस्था का नाम दिया।प्राकृतिक अवस्था जंगली अवस्था थी।लोग जंगली थे,सभ्य नहीं थे।कपड़ा क्या होता है,वह नहीं जानते थे।किन्तु लोग बड़े नेक थे।भले मानुष थे।उस अवस्था में किसी व्यक्ति का नहीं ,बल्कि प्रकृति का कानून चलता था।उस अवस्था में सभी स्वतंत्र थे,सभी सामान थे और सबमें आपस में भाई चारा था अर्थात् बंधुत्व था।
इसीलिए रूसो ने स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व को मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार कहा।अर्थात ये वे अधिकार हैं जिन्हें मनुष्य से छीना नहीं जा सकता।
उन्नीसवीं सदी के सबसे बड़े चिंतकों मार्क्स और एंगेल्स ने इतिहास की भौतिक वादी व्याख्या की।इन्होंने अपनी व्याख्या में रूसो की अनेक बातों को सत्य पाया।इसके साथ ही इस बात को भी जोड़ा कि जब समाज शोषक और शोषित वर्गों में विभाजित हो गया तो मनुष्य की स्वतंत्रता और समानता की दो बातों का अंत हो गया।
इसके बावजूद शोषित वर्ग दास और किसान ,दस्तकार आदि ने अपने भाई चारे अर्थात बंधुत्व को कायम रखा।इतना ही नहीं सामंत वादी युग में सामंतों का किसानों ,दस्तकारों से व्यक्तिगत संबंध था और अपनी अनेक कमियों के बावजूद सामंत भी अपनी प्रजा के सुख दुख में शरीक होता था।वह भी भाई चारा रखता था।मुद्रा आधारित संबंध की निर्णायक स्थिति न होने के कारण जो पैदा होता था वह लोगों के काम आता था।सामंती क़ाल में पूंजीवाद के आगमन के कारण वह भाई चारा नष्ट होने लगा था।इसीलिए रूसो ने स्वतंत्रता और समानता के साथ ही बंधुत्व की भी रक्षा की गुहार लगाई।
पूंजीवाद ने सामंत वाद के विरुद्ध अपने संघर्ष में इन तीनों अधिकारों की रक्षा की बड़ी बड़ी बातें की किन्तु सत्तासीन होने के बाद उसकी बातें दिखावा भर ही रह गईं।इं अधिकारो में जिसको सबसे अधिक क्षति पहुंचाई गई वह ,,भाई चारे की,बंधुत्व की क्षति ,की ही बात है।
आज सारे संबंध,यहां तक कि बाप बेटे,पति पत्नी,रिश्तेदारों,गुरु शिष्य आदि के संबंध भी मुद्रा पर आधारित हो गए हैं।गोदाम अनाज से भरा हो,वह सड़ जाए तो सड़ जाए किन्तु उस भूखे को नहीं मिल सकता जिसके पाकेट में मुद्रा नहीं है। दवा एक्स्पायर भले ही हो जाए किन्तु वह मर रहे उस मरीज को नहीं मिल सकती जिसके पास मुद्रा नहीं है।
इस तरह पूंजीवाद और उसकी रक्षा में खड़ी सरकारों का आज तक उन्नीस बीस बच कर चले आए भाई चारे ,बंधुत्व पर संकट आन खड़ा है।
भारत में बंधुत्व की जड़ें बड़ी गहरी हैं किन्तु देश की सत्ता पर बैठी पार्टी,भारतीय जनता पार्टी का मूलाधार ही बंधुत्व को छिन्न भिन्न करने का है।पहले धर्म के नाम पर यह काम कर रही थी और अब जाति को भी उसमे जोड़ रही है।
देश की जनता की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह आपसी बंधुत्व को बचाने के काम में जुट जाए।

सोमवार, 29 अक्टूबर 2018

लोकतंत्रिक व्यवस्था और संविधान से चल रही है.

मध्य युग में जब अरब और यूरोप के लोग धर्म मजहब के नाम पर आक्रामक रूप से क्रूसेडर बन रहे थे,तब भारत के लोग धर्म और अध्यात्म के उच्चतम शिखर पर पहूंच कर 'वसुधैव कुटुम्बकम' और 'सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया' के साथ साथ अहिंसा और विश्वशांति का उद्घोष कर रहे थे! तब भारतके जनगण ने धर्मको व्यक्तिगत आस्था माना और धर्म ग्र्ंथों को सिर्फ मंदिरों तक सीमित रखा!तब भारत के मेहनतकश कारीगरों,शिल्पकारों और किसानों ने इसे सोने की चिड़िया बना दिया था!विज्ञान,कला व वाणिज्य में वेशक हमारे तत्कालीन पूर्वज भारतीय अग्रणी हुआ करते थे!किंतु इस दौर में जबकि सारी दुनिया लोकतंत्रिक व्यवस्था और संविधान से चल रही है,तब हमारे कुछ भारतीय बंधु पुरातन परंपराओं और आस्था की लाठी से देश को हॉंकने में जुटे हुये हैं!

70 सालों में.

जो व्यक्ति कहता है कि 'अतीत में कुछ नही हुआ,जो हुआ मैने किया या 70 सालों में कोई विकास नही हुआ' वह क्रतघ्न है!वह न सिर्फ हरित क्रांति,श्वेत क्रांति ,संचार क्रांति और डॉ. होमी भावा,डॉ. स्वामीनाथन डॉ. कुरियन,डॉ.यूआर राव जैसे वैज्ञानिकों के योगदान को भुलाकर उनका अपमान करता है,बल्कि भारत के कोटि-कोटि मजूरों और किसानों का और कारीगरों का भी अपमान करता है!

राहुल गांधी का गोत्र ?

अर्थनीति,विदेशनीति ,रोजगार नीति या आरक्षण नीति के बारे में सवाल करने के बजाय संबित पात्रा ने इंदौर में राहुल गांधी से उनका गोत्र पूंछ लिया ! अब कांग्रेस के नेता संबित पात्रा का,मोदीजीका और अमित शाह से लेकर एम जे अकबर तक का एवं रामविलास पासवान से लेकर उदितराज तक का गोत्र पूंछ रहे हैं!

असमानता का मिट पाना असंभव है.

पूंजीवादी सरकार और पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ जुलूस,हड़ताल और नारेबाजी करने से अव्वल तो कुछ होने वाला नही क्योंकि मीडिया पूरी तरह पूंजीपतियों के कदमों में औंधा पड़ा है!किंतु इन संघर्षों से यदि कभी कहीं कोई सत्ता परिवर्तन या कोई अस्थाई क्रांति हो भी जाये,तो भी सामाजिक आर्थिक असमानता का मिट पाना असंभव है!जब तक भारत में जाति और वर्ण है,और जातिपर आधारित आरक्षण की बैसाखी है, तब तक मेहनतकशों के बीच व्यापक एकता असंभव है!और तब तक किसी भी तरह की सर्वहारा क्रांति तथा सामाजिक समरसता भी असंभव है!इस समय इस विषयमें किसी भी राजनैतिक दल के पास सर्वसमावेशी सिद्धांत,विचार और कार्यनीतिक लाइन नहीं है!

रविवार, 28 अक्टूबर 2018

हिंदू और मुस्लिम

जिन मुस्लिमों को लगता है कि सारे हिंदू 'संघी'हैं,और जिन हिंदुओं को लगता है कि सारे मुस्लिम 'कसाब' हैं,वे खुद को धोखा दे रहे हैं!

-हिंदी -हिन्दू हिन्दुस्तान की पहचान !

भारत में आकर अंग्रेजों ने अपनी वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति लागू की!लेकिन उनसे पहले तुर्कों,अरबों,मंगोलों और फारसियों ने अपनी मजहबी शिक्षा को पुरातन भारतीय लोक भाषाओं और बोलियों से एकाकार करके शासन-प्रशासन की नई भाषा-उर्दू बनाकर,
इस मुल्क को प्रदान की! चूँकि भारतीय उप महाद्वीप की अपनी खुद की अनेक अर्वाचीन बोलियां औरभाषाएं थीं,जिनमें संस्कृत भाषा सबसे प्रमुखथी!किंतु आक्रमणकारी शासकों ने न केवल संस्कृत भाषा का प्रवाह अवरुद्ध किया,अपितु शिक्षा,स्वास्थ्य ,राजकाज और राजनीति का भी बंटाढार कर डाला।
गुलाम जनता की सामाजिक और भाषाई संकीर्णता ने परिष्कृत संस्कृत भाषा और ततकालीन सधुक्ड़ी हिंदी को सत्यनारायण की कथा,आरती और पूजा पाठ तक सीमित कर लिया । जबकि फारसी,उर्दू ,अंग्रेजी, फ्रेंच इत्यादि भाषायें प्रगतिशीलताका अवतार बन गईं! चूंकि ये भाषाएँ साइंस,टेक्नॉलाजी और राष्ट्रवाद,डेमोक्रेसी,साम्यवाद -क्रांति और समाजवाद जैसे आधुनिक पवित्र शब्दों से लबरेज थीं। इन्ही भाषाओँ के माध्यम से भारत ने साइंस ,टेक्लानाजी पढ़ी और ब्रिटिश समेत दुनिया के नए संविधान पढ़े और आत्मसात किये। बड़े ही विस्मय की बात है कि इन्ही भाषाओँ से भारत को -हिंदी -हिन्दू हिन्दुस्तान की पहचान मिली!
लेकिन हमें आदत सी हो गयी है कि हम हर पुरानी वस्तु ,यहाँ तक कि माता पिता और बुजुर्गों को सम्मान दिया अथवा यदि हमने संस्कृत में कुछ  बोल दिया या लिख दिया तो हम प्रगतिशील नहीं रह पाएंगे।
संस्कृत या हिंदी के क्रांति शब्द में ओज के बजाय माधुर्य भाव निहित है ! जबकि उर्दू के इंक्लाब शब्द में एक खास जोशीले अंदाज का द्वंदात्मक भाव संचरित होता है!

वर्ग संघर्ष का सिद्धांत क्या कहता है?


प्रायः यह समझा जाता है कि मजदूर या सर्वहारा वर्ग के संघर्षों का लाभ मात्र उसे ही मिलता है किन्तु सच यह है कि उसका लाभ सभी शोषित पीड़ित लोगों और सारे राष्ट्र को मिलता है।
पूंजीपति वर्ग राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति की बातें बहुत करता है किन्तु स्वयं उसका चरित्र अंतरराष्ट्रीय होता है।
जब कभी भी किसी राष्ट्र का सर्वहारा अपना संघर्ष तेज करता है तब दुनिया के दूसरे राष्ट्रों के पूंजीपति चिंतित हो जाते हैं और इस विशेष राष्ट्र के पूंजीपति वर्ग कि सहायता के लिए खड़े हो जाते हैं।
चूंकि पूंजीपति वर्ग का चरित्र अंतरराष्ट्रीय होता है इसलिए उससे अच्छी तरह जुड़े होने के कारण सर्वहारा वर्ग का भी चरित्र अंतरराष्ट्रीय होता है।
पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के अंतरराष्ट्रीय चरित्र में एक बड़ा अंतर यह होता है कि जहां पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे के लिए आपस में गलाकाट प्रतियोगिता करता है और युद्धों से लाभ दिखाई पड़े तो उसके लिए सदा तैयार रहता है।
किन्तु सर्वहारा वर्ग यह अच्छी तरह जानता है कि युद्धों में जन धन की जो हानि होती है वह मुख्यत: साधारण जनता की होती है इसलिए वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामान्यतया युद्धों का विरोध करता है।
सर्वहारा यह भी जानता है कि चाहे उसका स्वयं का राष्ट्र हो या उससे युद्ध कर रहा दूसरा राष्ट्र हो दोनों की साधारण जनता शोषित और पीड़ित होती है और युद्ध का सारा भुगतान उस साधारण जनता को ही करना पड़ता है न कि उसके शासक शोषक वर्ग  को !

भाजपा को वोट दिया जाए कि चोट किया जाए?


• वादे के मुताबिक पूरे भारत में वादे के अनुसार यदि 100 में से एक भी स्मार्ट सिटी बनी हो तो वोट बीजेपी को !
• मेरे खाते में न सही किसी गरीब के खाते में 15 लाख छोड़िये,चवन्नी भी आयी हो तो वोट बीजेपी को!
• स्किल इंडिया प्रोग्राम के तहत यदि 1% बेरोजगार युवाओं को भी केंद्र सरकार ने रोजगार दिया हो तो मेरा वोट बीजेपी को !
• डिजिटल इंडिया प्रोग्राम की सफलता का एक भी उदाहरण मिले तो वोट बीजेपी को !
• नोटबंदी से कालाधन देश को और जनता को वापिस मिला हो तो वोट बीजेपी को !
• नोटबंदी से कश्मीरी आतंकवाद या नक्सलवाद की कमर टूटी हो तो वोट बीजेपी को !
• नोटबंदी से किसी भी सरकारी विभाग में भ्रष्टाचार मिटा हो तो वोट बीजेपी को!
• पाकिस्तान से 1 के बदले 10 सिर आये हों तो वोट बीजेपी को!
• अलग से टैक्स लगाने के बाद भी अगर देश साफ़-सुथरा हुआ हो तो वोट बीजेपी को !
*जीएसटी से सरकार के अलावा किसी का भी भला हुआ हो तो वोट भाजपा को!
• हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद यदि गंगा किंचित भीसाफ हुई हो तो वोट बीजेपी को !
• कश्मीर से धारा 370 हटाई गयी हो तो वोट बीजेपी को !
• वन रैंक, वन पेंशन इमानदारी से लागू हुई हो तो वोट बीजेपी को !
• PM आवास योजना में हर बेघर को घर मिला हो तो वोट बीजेपी को !
• सांसद आदर्श ग्राम योजना में औरों का तो छोड़िये,खुद PM का गोद लिया गाँवभी यदि आदर्श बन सका हो तो वोट बीजेपी को !
• प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में बीमा कंपनियों को भारी मुनाफा और किसानों को भारी नुकसान नहीं हुआ हो तो वोट बीजेपी को !
• प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना से अगर एक भी गरीब की गरीबी दूर हुई हो तो वोट बीजेपी को!
• प्रधानमंत्री जन-औषधि योजना से भारत के गांव कस्बों के अस्पतालों में बुनियादी सुविधा हो तो वोट भाजपा को!
• मेक इन इंडिया में अगर कुछ भी मेक हुआ हो और 2 करोड़ युवाओं को रोज़गार मिला हो तो वोट बीजेपी को !
• बेटी बचाओ की जगह बेटी मिटाओ में भाजपा के नेता,मंत्री और विधायक खुद शामिल न हों तो वोट भाजपा को!
*सवर्ण गरीबों के वोट लेकर और अमीरों से नोट लेकर भाजपा और संघ नेताओं ने सत्ता हथियाकर अपनी संपत्ति न बढ़ाई हो तो वोट भाजपा को!
* राम लला टाट में और भाजपा ठाठ से न हो तो वोट भाजपा को!
***

क्षुद्र लोग अपनी ही 'सभ्यता- संस्क्रति' पर लठ्ठ लेकर पिल पड़ते हैं!

दुनिया की हर सभ्य कौम ने मौसमी बदलाव होने या फसल की उपलब्धि के अवसर पर खुश रहनेके कुछ बहाने ईजाद किये हैं,जिन्हें हम पर्व या त्यौहार कहते हैं!प्राय: देखा गया है कि हर त्यौहार पर जब आम और खास आदमी खुशी मनाने की तैयारी करताहुआ नजर आता है, तभी कुरीतियों और गलत परंपराओं को नष्ट करने के बहाने कुछ क्षुद्र प्रमादी, कूड़मगज,असभ्य और अल्पज्ञ लोग अपनी ही 'सभ्यता- संस्क्रति' पर लठ्ठ लेकर पिल पड़ते हैं!जन सभ्यता और संस्क्रति पर हमला करने वालों को गलतफहमी है कि वे क्रांतिकारी हैं! भारतीय सभ्यताऔर संस्क्रति का विरोध करने वाले यदि वामपंथी नहीं हैं, तो उन्हें भारत विरोधी,सांस्क्रतिक दुश्मन ही माना माना जाये!और किसी पर्व का या रीति रिवाज का विरोध करने वाला यदि कोई वाम पंथी है,तो निवेदन है कि जन भावनाओं का आदर करे और इन सवालों को हल करने के लिये अंध विरोध करनेके बजाय कार्ल मार्क्स और लेनिन की शिक्षाओं का अनुशरण करे!

हर किसी के मनकी मुराद पूरी हो !

नंगे -भूँखों को मंदिर प्रवेश नहीं ,
रोजगार राशन -पानी चाहिये!
मुर्दों को बैंकों का खाता नहीं,
बदन पर दो गज कफ़न चाहिए!!
स्वच्छता सदाचार सुशासन के,
नारों की राजनैतिक लफ्फाजी नहीं,
हरएक को शिक्षा का समान अधिकार,
और हर हाथ को काम मिलना चाहिए!
प्रजातंत्र में दलगत जुबानी जंग-
कोई अलोकतांत्रिक बात नहीं,
वशर्ते देश की अखंडता और जनता-
के हितों पर आंच नहीं आनी चाहिए!!
यह संभव नहीं कि इस सिस्टम में,
हर किसी के मनकी मुराद पूरी हो पाए ,
किन्तु न्यूनतम संसाधनों की आपूर्ती
देश के हर नागरिक तक पहुंचनी चाहिए!
इतना तो इस धरती पर मौजूद है कि-
उसके तमाम वाशिंदे जिन्दा रह सकें ,
मुनाफाखोरी,शोषण,उत्पीड़न और
बेकारी का इंतजाम नही होना चाहिये!!
बार बार पूंजीवादी सत्ता परिवर्तन से-
अब तक जिन चोट्टों का हुआ विकास,
उन कालेधन वालों को संरक्षण नहीं,
बल्कि माकूल सजा मिलनी चाहिए।।
श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 23 अक्टूबर 2018

अपना हिंदुस्तान देख ले!

!! कैसा है शमशान देख ले !!
!! चल मेरा खलिहान देख ले !!
!!अगर देखना है मुर्दे को !!
!!भूंंखा कोई किसान देख ले !!
!! सर्वनाश का सर्वे कर कर !!
!! पटवारी धनवान देख ले !!
!! पोर अंगूठा टिका टिकाकर!!
.!! सेठ कोई बेईमान देख ले !!
!! घावों में हैं नमक रगड़ते !!
!! सरकारी अफसरान देख ले !!
!! राम और राज दोनों रूठे हैं !!
!! मुख मलीन मुस्कान देख ले !!
!! कुर्की की डिक्री पे अंकित !!
!! गिरता हुआ मकान देख ले !!
.!! सम्मन मिला कचहरी से जो!!
!! वह अधिग्रहण फरमान देख ले !!
!! अखवारी विज्ञापन झूँठे!!
!! उजड़े गाँव उत्थान देख ले !!
!! क्या घूमता है विदेश में ?
!! खुद अपना हिंदुस्तान देख ले!!

शहीद भगतसिंह की नकल न कर बैठें!

एक ड़्रामेबाज नेताजी को महापुरषों की नकल का बहुत चस्का लगा है!वे गांधीवादी दिखनेके लिये चरखा चलाने बर्धा पहुंच जाते हैं, वे कभी नेहरु जेकैट पहिन लेते हैं, और कभी सुभाषचंद्र बोस की टोपी धारणकर वे लाल किले पर चढ़ जाते हैं!फिर भी यह सब तो ठीक है!किंतु एक अंदेशा है,कि वे कहीं शहीद भगतसिंह की नकल न कर बैठें,कि फांसी का फंदा खुद गले में डाल लें और इंकलाब जिंदाबाद बोलने से पहले ही न निपट जाएं!

मैं जातिवाद नही मानता'

भारत में 'जन्मना जातीयता' कठोर सच्चाई है !जो कहता है 'मैं जातिवाद नही मानता' वह झूँठा है ! वास्तव में महात्मा बुद्ध,बाबा साहिब अंबेडकर और कार्ल मार्क्स की सभी शिक्षाएं जातीयता और वर्ग भेद के खिलाफ हैं! उनकी शिक्षाएं कोरी आदर्शोन्मुखी नहीं बल्कि इंसानियत की पक्षधर हैं!इन शिक्षाओं के प्रकाश में जातिवाद और धर्मांधता को कुछ हद तक द्रविभूत (Dilute) किया जा सकता है !

मार्क्सवाद और वर्ग संघर्ष का सिद्धांत"


मार्क्स एंगेल्स ने इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या द्वारा इस बात को सिद्ध किया कि दास स्वामी युग में दासों और सामंती युग में किसानों के संघर्ष उनके अल्पसंख्यक हिस्सों के संघर्ष थे।
किन्तु इसके विपरीत पूंजीवादी युग में पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध चल रहा मजदूर या सर्वहारा वर्ग का संघर्ष बहुसंख्यक वर्ग का संघर्ष है।
सर्वहारा वर्ग को पूंजी वादी व्यवस्था ने ही पैदा किया है।उसी ने इस सर्वहारा वर्ग को एकत्रित भी किया है।
पूंजीवादी व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग ने ही मजदूर या सर्वहारा वर्ग को लड़ना या संघर्ष करना सिखाया है।
पूंजीवाद ने सामंतवाद के विरुद्ध जो लड़ाई लड़ी,उसमें उसने मजदूर वर्ग का भी सहयोग लिया है।किन्तु सामंतवाद पर अपनी विजय के बाद उसका सारा लाभ पूंजीपति वर्ग ने अपने खाते में कर लिया।सर्वहारा वर्ग को जो लाभ हुआ वह यह कि उसने अब लड़ना सीख लिया।
सर्वहारा वर्ग किसी नेता या किसी पार्टी के इशारे पर या उसके आदेश पर या किसी किताब को पढ़ कर संघर्ष नहीं करता।
हकीकत यह है कि सर्वहारा वर्ग के जीवन संघर्ष की दशाएं ही उसे अपना हानि लाभ समझने,सचेत होने ,संगठित होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।
सर्वहारा वर्ग के नेता और पार्टी तथा पुस्तकों की भूमिका यह होती है कि ये सब सर्वहारा वर्ग के संगठन और संघर्ष को क्रांतिकारी कार्य कुशलता प्रदान करने का मार्गदर्शन करते हैं।

कांग्रेस की उतनी तैयारी नहीं दिख रही !

जो लोग P.M.नरेंद्र मोदी की नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ हैं और वे यदि बाकई मोदीजी से बेहतर नीतियां और कार्यक्रमों से लैस होकर सत्ता में आना चाहते हैं,तो उन्हें चाहिए कि वे मोदीजी के चाल-ढाल,पहनावे की आलोचना करने के बजाय,भद्दे कार्टून बनाने के बजाय,उनकीभौगोलिक,जागतिक, और ऐतिहासिक अज्ञानता का मजाक उड़ाने के बजाय कोई आदर्श विकल्प प्रस्तुत करें! सत्ताके विरोधियों द्वारा जबतक मोदीजी की आक्रामक दक्षिणपंथी-विनाशकारी नीतियों के सापेक्ष कोई बेहतर वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम आवाम के बीच ठीक से नहीं रखा जाता तथा जब तक मुख्यधारा का मीडिया व्यक्तिगत चाटुकारिता से ऊपर उठकर देश की आवाम के प्रति न्याययिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता-तब तक हर वह नेता और दल जो मोदीजी और भाजपासे जूझ रहा है वहसिर्फ हारने को अभिशप्त है।
अभी तो मोदीजी का मजाक उड़ाने वाले लोग जनता की नजरों में विदूषक नजर आ रहे हैं !मोदीजी तो अपने आप को तेजी से बदल रहे हैं!वे चुपचाप अपने विरोधियों की हर चुनौती कबूल कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी के राजनैतिक तौर तरीके अत्यंत आधुनिक और कारगर हैं,जबकि उनके अधिकांस विरोधी निहायत लकीर के फ़कीर हैं!वे जुबानी जंग के कागजी शेर सावित हो रहे हैं।फिर चाहे कांग्रेस हो,चाहे जनता परिवार हो ,चाहे उद्धव और राज ठाकरे हों,चाहे प्रगतिशील वामपंथी हों या अल्पसंख्यक नेता हों -सभी ने मोदी की समय -समय पर खूब खिल्ली उड़ाई है। और भाजपा के क्षेत्रिय छत्रप भले जनता की नजर में गिर रहे हों ,किंतु मोदीजी की लोकप्रियता अभीभी बरकरार है?खंडित विपक्ष या अकेले कांग्रेस की उतनी तैयारी नहीं दिख रही कि 2019 में वे मोदीजी को हटाकर देश की बागडोर संभाल सकें!

स्वस्थ आलोचना स्वाकार्य

कुछ सत्ता शुभचिंतकों और दकियानूसी अंध भक्तों को हमेशा शिकायत रहती है कि कुछ लेखक,कवि,और पत्रकार सत्ता प्रतिष्ठान के प्रतिकूल अप्रिय सवाल क्यों उठाते रहते हैं ? उन्हें तकलीफ है की ये पढ़े लिखे विवेकशील लोग भी अंधभक्तों की तरह 'भेड़िया धसान' होकर सत्ता समर्थक जयकारे में शामिल क्यों नहीं हो जाते ? एतद द्वारा उन अभागों को सूचित किया जाता है कि मौजूदा शासकों से इन चंद असहमतों की कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं है। मोदीजी जब पहली बार संसद पहुंचे और सीढ़ियों पर मत्था टेका,तब वे हम सभी को अच्छे लगे!जब कभी उन्होंने समान और राष्ट्रीय विकास की बात की,शिक्षित युवाओं के भविष्य की बात की,विदेश में जाकर हिंदी का मान बढ़ाया तो हम खुश हुए! विगत वर्ष जब राजनाथसिंह के साथ नामवरसिंह जैसे वरिष्ठ साहित्यकारको प्रणाम करते दिखे तब भी मोदीजी हम सभी को प्रिय लगे ! लेकिन सवाल किसी वर्ग विशेष की अभिरुचि या विमर्श का नहीं है। सवाल समग्र राष्ट्र और समग्र समाज के सार्वजनिक हित का है !और इस कसौटी पर मोदी सरकार नितांत असफल होती जा रही है। इन हालात में भारत के प्रबुद्ध जन यदि मौजूदा शासन प्रशासन के कामकाज पर पैनी नजर रखते हैं,उसकी तथ्यपरक शल्य क्रिया करते हैं और वैकल्पिक राह सुझाते हैं तो उनको गंभीरता से लिया जाना चाहिए ! उनका सम्मान किया जाना चाहिए। बजाय इसके कि अंधभक्त लोग विपक्ष एवं आलोचकों से गाली गलौज करें !स्वस्थ आलोचना यदि स्वाकार्य है तो लोकतंत्र कायम रह सकेगा!

मानव बनकर तो देखो!!

बाहर घासफूस का रावण क्या निहारता,
अपने अंदर अट्ठहास करते रावण को देखो!
मानवता को लज्जित करती सूर्पणखा सी,
मौत बनकर खड़ी बीच रैल पटरी पर देखो।!
खूब जलाये सदियों से लाखौं मानव दानव,
असली रावण कुंभकर्ण व मेघनाद को देखो।
फिर भी कायम चारों ओर झुण्ड असुरों के,
लुटते हुये चमन और लुटती निर्भयायें देखो!!
जब राष्ट्रवाद के अहिरावण को सत्ता दे दी,
लो  अब अठ्ठहास करते सत्तादल नेता देखो ।
हे रामके बगुला भक्तो तुम ये किसे जलाते ?
तो असली रावण छुट्टा सांड सींग मारते देखो।!
कालचक्र के हवनकुंड में स्वाहा हुए अनेकों नर
भूंख गरीबी महँगाई व  बदन बढ़ाती सुरसा देखो।
यदि नर हो जाये नारायण,भूभार हरण करने को,
कैसा ईश अवतार ? तुम मानव बनकर तो  देखो!!
श्रीराम तिवारी

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

धरा बनी दुलहन,

सरसों के फूलों सजी धरा बनी दुलहन,
अलसी के फूल देख भ्रंग मन ललचात है।
व्योम बीच उड़ चली बारात अनिकेत मानों,
खग आहार बिहार ही पवन दिन रात है।।
बाजरा -ज्वार की गबोट खिली हरी भरी ,
रबी की फसल भी उगत चली आत है।
कहीं पै सिचाई होवै कहीं पै निराई होवै ,
साँझ ढले खिरका में गैया रंभात है।

बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

'रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार !'

संविधान ने सभी को समान अधिकार दिया है कि कोई क्या खाए ,क्या न खाए। और क्या पहिने ,क्या न पहिने। इस पर किसी अन्य को कोई एतराज नहीं होना चाहिए। विविधता और बहुलतावादी संस्कृति केवल आरक्षित या अल्पसंख्यक वर्गों के लिए ही नहीं है। बल्कि बहुसंख्यक वर्ग भी उतना ही बराबरी और सम्मान का हकदार है! यदि कोई स्वार्थी राजनेता बहुसंख्यक वर्ग पर झूंठा इल्जाम लगाये, अपमानित करे और चाहे कि वोट भी मिलें तो अब यह संभव नहीं!अपने आत्म सम्मान की रक्षार्थ बहुसंख्यक वर्ग को भी वोट की कीमत और उसके मार्फत अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करने का हक है।देश का कोई भी नेता या पार्टी 'बहुसंख्यक' हिन्दू समाज की अवहेलना या अपमान नहीं कर सकता। वोट के लिए जो नेता और पार्टी हिंदुत्व का झंडा थामे हुए हैं,वे भी याद रखें कि अभी तक तो शिवसेना के लोग और तोगड़िया ही भाजपा वालों का चेहरा नोंच रहे हैं। किंतु आइन्दा यदि राजनीति की हांडीके लिए सिर्फ हिंदुत्व हिन्दू धर्म या गरीब सवर्ण समाजको विकास का ईधन बनाया गया तो वो चूल्हा ही बिखर जाएगा। वे यह भी याद रखें कि:-
'रहिमन हांडी काठ की चढ़े न दूजी बार !'

फासीवाद के लक्षण क्या हैं?

फासीवाद के लक्षण क्या हैं। कब और कैसे आता है, फासीवाद की पूर्व चेतावनी पर राजनीतिक विचारक डॉ. लारेंस ब्रिट ने काफी शोध किया है।
1) बात-बात पर राष्ट्रवादी नारे लगाना, प्रतीक चिन्ह का इस्तेमाल करना, रैली-जुलूस और सार्वजनिक सभा को झंडे से पाट देना है।
2) मानवाधिकार हनन, टार्चर, हत्या, कैदियों को गायब कर देना।
3) धार्मिक अल्पसंख्यक, उदारवादी, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट को ठिकाने लगाना। 4) सेना का आधिपत्य।
5) पुलिस को असीमित अधिकार देना।
6) पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बढ़ाते हुए तलाक, गर्भपात, समलैंगिकता जैसे मामलों को दबा देना।
7) मीडिया पर साम, दाम, दंड, भेद के जरिये नियंत्रण। सरकारी नियमन के बहाने मीडिया की आजादी को समाप्त कर देना, और अघोषित सेंसरशिप लगाना।
8) राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सनक पैदा कर देना।
9) कारपोरेट के हितों की रक्षा।
10) श्रमिक संगठनों और श्रमिक कानूनौं को धीरे-धीरे समाप्त करना, क्योंकि संगठित मजदूर खतरे की घंटी हैं।
11) धर्म और सत्ता का गठबंधन बनाकर रखना।
12) बौद्धिक वर्ग, कला-संस्कृति से जुड़े लोगों का तिरस्कार।
13) चुनाव को येन-केन-प्रकारेण जीतने की जुगत।
14) मतदाताओं को कंट्रोल करने के लिए सरकारी मशीनरी और सरकार समर्थक मीडिया का इस्तेमाल करना।

तीज त्यौहार.

धुल धुँआँ धुंध भरे व्योम में बारूदी गंध घुली ,
सोमकाज तीज त्यौहार ऐंसे कैसे मनपावै है!
रोजी के जुगाड़ की नित फ़िकर लागी जिनको,
बूझो उत्सव उमंग उन्हें क्या खाक हुलसावै है?
ख़ुशी मौज मस्ती चंद अमीरों की मुठ्ठी में बंद
जहां शरद चन्द्र अमृत और लक्ष्मी धन बरसावै है।
कहाँ पै जलाएं,दिये अकिंचन.अनिकेत अनगिन ,
जीवन ही जिनका घोर अमावश बन जावै है?

!! विज्ञान चालीसा !!


(दुनिया के महान वैज्ञानिक और उनके invention (आविष्कार)
जय न्यूटन विज्ञान के आगर,
गति खोजत ते भरि गये सागर ।...
ग्राहम् बेल फोन के दाता,
जनसंचार के भाग्य विधाता ।
बल्ब प्रकाश खोज करि लीन्हा,
मित्र एडीशन परम प्रवीना ।
बायल और चाल्स ने जाना,
ताप दाब सम्बन्ध पुराना ।
नाभिक खोजि परम गतिशीला,
रदरफोर्ड हैं अतिगुणशीला ।
खोज करत जब थके टामसन,
तबहिं भये इलेक्ट्रान के दर्शन ।
जबहिं देखि न्यट्रोन को पाए,
जेम्स चैडविक अति हरषाये ।
भेद रेडियम करत बखाना,
मैडम क्यूरी परम सुजाना ।
बने कार्बनिक दैव शक्ति से,
बर्जीलियस के शुद्ध कथन से ।
बनी यूरिया जब वोहलर से,
सभी कार्बनिक जन्म यहीं से ।
जान डाल्टन के गूँजे स्वर,
आशिंक दाब के योग बराबर ।
जय जय जय द्विचक्रवाहिनी,
मैकमिलन की भुजा दाहिनी ।
सिलने हेतु शक्ति के दाता,
एलियास हैं भाग्यविधाता ।
सत्य कहूँ यह सुन्दर वचना,
ल्यूवेन हुक की है यह रचना ।
कोटि सहस्र गुना सब दीखे,
सूक्ष्म बाल भी दण्ड सरीखे ।
देखहिं देखि कार्क के अन्दर,
खोज कोशिका है अति सुन्दर ।
काया की जिससे भयी रचना,
राबर्ट हुक का था यह सपना ।
टेलिस्कोप का नाम है प्यारा,
मुट्ठी में ब्रम्हाण्ड है सारा ।
गैलिलियो ने ऐसा जाना,
अविष्कार परम पुराना ।
विद्युत है चुम्बक की दाता,
सुंदर कथन मनहिं हर्षाता ।
पर चुम्बक से विद्युत आई,
ओर्स्टेड की कठिन कमाई ।
ओम नियम की कथा सुहाती,
धारा विभव है समानुपाती ।
एहि सन् उद्गगम करै विरोधा,
लेन्ज नियम अति परम प्रबोधा ।
चुम्बक विद्युत देखि प्रसंगा,
फैराडे मन उदित तरंगा ।
धारा उद्गगम फिरि मन मोहे,
मान निगेटिव फ्लक्स के होवे ।
जय जगदीश सबहिं को साजे,
वायरलेस अब हस्त बिराजै ।
अलेक्जेंडर फ्लेमिंग आए,
पैसिंलिन से घाव भराये ।
आनुवांशिकी का यह दान,
कर लो मेण्डल का सम्मान ।
डा रागंजन सुनहु प्रसंगा,
एक्स किरण की उज्ज्वल गंगा ।
मैक्स प्लांक के सुन्दर वचना,
क्वाण्टम अंक उन्हीं की रचना ।
फ्रैंकलिन की अजब कहानी,
देखि पतंग प्रकृति हरषानी ।
डार्विन ने यह रीति बनाई,
सरल जीव से सॄष्टि रचाई ।
परि प्रकाश फोटान जो धाये,
आइंस्टीन देखि हरषाए ।
षष्ठ भुजा में बेंजीन आई,
लगी केकुले को सुखदाई ।
देखि रेडियो मारकोनी का,
मन उमंग से भरा सभी का ।
कृत्रिम जीन का तोहफा लैके,
हरगोविंद खुराना आए ।
ऊर्जा की परमाणु इकाई,
डॉ भाषा के मन भाई ।
थामस ग्राहम अति विख्याता,
गैसों के विसरण के ज्ञाता ।
जो यह पढ़े विज्ञान चालीसा,
देइ उसे विज्ञान आशीषा ।
बोलो ज्ञान-विज्ञान की जय।
नोट:- इसमें धूप,अगरबत्ती,मूर्ति, कर्मकाण्ड व दान-दक्षिणा देने की सख्त मनाही है।

बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

उनके पैशाब से चिराग जल रहे हैं!

यदि आज भाजपा (एनडीए )वाले विपक्ष में होते और किंचित मनमोहनसिंह या कोई और देश का प्रधानमंत्री होता,तो कल्पना कीजिये देश की तस्वीर क्या होती? तब शायद रामलीला मैदान पर आडवानी और मुरली मनोहर जोशी सोनिया और राहुल के खिलाफ दहाड़ रहे होते! अण्णा हजारे और रामदेव पैट्रोल की बढ़ती कीमतों और डॉलर के सापेक्ष रुपयेकी घटती कीमत के खिलाफ जंतर -मन्तर पर,धरना दे रहे होते। तब सुश्री उमा भारती, प्रवीण तोगड़िया और देश भर के बाबाओं-बाबियों,स्वामियों एवं श्री-श्री के नेतत्व में रामलला मंदिर,धारा 370 और बंगलादेश और म्यामार के शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत भर में कोहराम मचा होता! तब वेचारे डॉ मनमोहनसिंह को या जो भी 'वेचारा' प्रधानमंत्री होता,उसे स्म्रति ईरानी और सुषमा स्वराज,मीनाक्षी लेखी हरी -हरी चूड़ियाँ भेंट कर रहीं होतीं ! और सारा मीडिया देश की दुर्दशा पर चिल्ल पों कर रहा होता!
यदि केंद्र में कांग्रेसी या कोई गैरभाजपाई सरकार होती और मोदीजी गुजरात के ही मुख्यमंत्री होते तो वे या तो भाजपा अध्यक्ष पद के लिये जुगाड़ लगा रहे होते या कोई गौरव यात्रा पर होते या 56 इंच का सीना दिखला रहे होते!और जेटली सुप्रीम कोर्ट में विजय माल्या को बचाने का केस लड़ रहे होते!आज जिनके पैशाब से चिराग जल रहे हैं ,वे अमित शाह अहमदावाद, सूरत, बड़ोदरा नगर निगम के ठेके अपने बेटे को दिला रहे होते! मायावती युुपी की मुख्यमंत्री होती और लालु यादव बिहार की,मुलायम यादव परिवार यूपी की सत्तापर काबिज होनै की फिराक में होते! वेशक केवल वामपंथ की भूमिका यथावत होती,याने वह तब भी शोषण उत्पीड़न के खिलाफ लड़ रहा होता जैसे कि पहले लड़ता रहा है और अब भी लड़ रहा है!

राष्ट्रवाद एक नैतिक बाध्यता है!

मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वाश भी 'राष्ट्रवाद' की तरह मूल रूप से एक अमूर्तन अवधारणा ही है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसका धर्म-मजहब इसलिए दुनिया में श्रेष्ठ है क्योंकि वह उस खास धर्म-मजहब वाले परिवार या समाजमें जन्मा है अथवा उसे देश -काल -परिस्थितियों ने धर्मान्तरित होनेको बाध्य किया है।
उदाहरण के लिए मैं स्वयम जन्मना 'ब्राह्मण कुल' से हूँ,इसलिए मेरे पास हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जाति पर गर्व करने का आधार हो सकताहै। लेकिन इसी हिन्दू धर्मके 'पुनर्जन्म' सिद्धांतानुसार यदि कदाचित मैं आइंदा जैन, सिख,ईसाई,यहूदी अथवा मुसलमान परिवार में जन्म लेता हूँ तो स्वाभाविक है कि उस स्थिति में तब मुझे वे धर्म-मजहब ही प्रिय होंगे,जिनमें मेरा जन्म हुआ होगा ! .
गीता के अमृत सन्देश का सारतत्व भी यही है कि प्राणिमात्र के जीवन-मृत्यु का चक्र देश -काल की सीमाओं से मुक्त और कर्म स्पर्हा से आबद्ध होकर अनवरत चलता रहता है। भारत,पाकिस्तान,चीन या कोई और देशमें जन्मना तो मनुष्य की मानवीय क्षमताओं से परे हैं और राष्ट्रों का पार्थक्य भी पृथक पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं।इसीलिये हिन्दू दर्शनशास्त्रों ने और प्राच्य वाङ्ग्मय ने भी 'सबै भूमि गोपाल की '' का उद्घोष किया है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' इस दर्शन का शाश्वत नारा है। मानव सभ्यताके सार्वभौम विकास की प्रक्रिया में सभी राष्ट्रों का सीमांकन एक 'सहनीय'और आवश्यक बुराई मात्र है।अर्थात वास्तव में राष्ट्रवाद का गुणानुवाद एक नैतिक बाध्यता है।

गणतंत्र हुआ धनतंत्र -महान!

गणतंत्र हुआ धनतंत्र महान!
धर्मनिरपेक्षता हुई कुर्बान!!
सेंत मेंत में सब कोई चाहे,
संकल्प चढ़ जाये परवान!
सतत विदेशी पूँजी निवेश से ,
नहीं बनेगा देश महान।।
सीमाओं पर घोर अशांति,
जातिय संघर्ष के नए तूफ़ान।
नेताओं के सैर सपाटे ,
अमेरिका रूस जापान।।
महँगाई कालाबाजारी ,
रिश्वत का नहीं कोई निदान।
अमीर ज्यादा हुआ अमीर ,
असुरक्षित हैं मजदूर किसान।।
वापिस लाएंगे काला धन ,
विगत चुनाववमें किया बखान।।
अब पानी पी-पी कर कर रहे ,
नेता जी का फिर गुणगान!
बिक रहे जल-जंगल -जमीन ,
फलता फूलता माफिया महान !!
एकजुट संघर्ष के सिवाय अब,
और कोई विकल्प नहीं आसान!
गणतंत्र हुआ धनतंत्र -महान!!
श्रीराम तिवारी

गुजराती अस्मिता !

चिमनभाई, केशुभाई पटैल और शंकरसिंह बाघेला से मोह भंग होने के बाद गुजराती अस्मिता ने नरेंद्र दामोदरदास मोदी को गुजरात की बागडोर सौंपी!फिर गुजराती पूंजीपतियों ने मोदीजी को राष्ट्रीय लीडर प्रमोट किया!अरुण जेटली की दोस्ती, संघ के मोहन भागवत का आशीर्वाद तथा स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे इत्यादि के सतत कांग्रेस विरोधकी बदोलत 2014 में मोदीजी देश के प्रधानमंत्री बन गये!उन्होंने अमित शाह गुजराती को पार्टी अध्यक्ष और ऊर्जित पटैल गुजराती को रिजर्व बैंकका गवर्नर बना दिया !इन सबकी बदौलत नीरव मोदी जैसे लगभग 28 गुजराती भगोड़े बदमाश देश को एक लाख करोड़ का चूना लगा चुके हैं!यह घोषित लूट है,अघोषित की तो 'गुजराती'ही जाने!इन सबने अनिल अंबानी गुजराती को राफैल की फ्रेंचाईजी और 50000 करोड़ का बैंक लोन दिलवा दिया!मुकेश अंबानी गुजराती को लगभग मुफ्त में स्पेक्ट्र्म जारी करवाये गये और टेलीकाम सेक्टर में जियो लाईसेंस आनन फानन जारी कराये गये!श्री अडानी गुजराती को झारखंड में और अन्य क्षेत्रों में उत्खनन इत्यादि के लिये लाईसेंस कौड़ियों में जारी किये!अब आप चाहें तो बेधड़क यह कह सकते हैं कि 'देश की जनता का ,जनता के द्वारा सिर्फ गुजराती बनियों के लिये!'अब यूपी,बिहार और एम.पी. के युवा चाहें तो इन गुजरातियों के यहां मजूरी करें और लात जूते खाएं या भाजपा का स्थाई वोट बैंक बनकर मोदी मोदी का जाप करते रहें या चाहें तो लाल झंडा हाथ में उठाकर इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद करें!

प्रजातंत्र की सूरत डरावनी है!

इस दौर की असली सूरत बेहद डरावनी है।
वेशभूषा भले आकर्षक और लुभावनी है।।
पूंजीवादी लुटेरों की लूट यथावत कायम हैं ,
वैश्विक बाजारीकरण की तस्वीर डरावनी है!
शासन-प्रशासन,पुलिस प्रहरी-सेनाएं बढ़ रहीं,
किंतु संसदीय प्रजातंत्र की सूरत डरावनी है!!
सूचना संचार क्रांति की असीम अनुकम्पा से,
सोशल मीडिया का दुरुपयोग भयदायनी है।
जो साम्प्रदायिकताको ओढ़े और जातिको बिछाये,
लोकतांत्रिक राज्यसत्ता उसकी अंकशायनी है!!

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

'खुशी'

उन्हें मंदिर में मिलती है,
इन्हें मस्जिद में मिलती है!
मैं जब चाहूं खुशी मुझको,
मेरे ह्रदय में मिलती है!!
उसे दौलत में मिलती है,
इसे शौहरत में मिलती है!
मैं किसी के काम आ जाऊं,
खुशी सौ बार मिलती है!!
खुशी खुशबू है बागों की,
खुशी मृग नाभि कस्तूरी!
निर्मल ह्रदय की वीणा ही,
अनहद नाद सुनती है !!
अपावन चित्त की वृत्ति,
ग़मों के सिंधु भरती है!
चमन की फिक्र कर माली,
खुशी गुलशन में मिलती है !!

******************************
नादान शख्स भी जानता है,
जब दिन होता तब रैन नही!
आहवान खुशियों का हो गर,
फिर मन होता बैचेन नहीं!!
महफिल सारी बेदम होती
यदि मुखसे मीठे बैन नहीं!
हिंसा नफरत बैरभाव सब,
किंचित कुदरत की दैन नहीं!!

ख़ुशी  उसकी है जीवन साथी,
 परहित बिन जिसको चेन नहीं !

श्रीराम तिवारी 

राजनीति भी जन्मजात गन्दी नहीं होती,

मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी और ट्रेड यूनियन के साथी अक्सर कहा करते थे कि ''जिस तरह प्राकृतिक रूप से गंगा मैली नहीं है,बल्कि उसे कुछ गंदे लोग मैला करते रहते हैं,उसी तरह यह पूंजीवादी लोकतांत्रिक राजनीति भी जन्मजात गन्दी नहीं होती,बल्कि कुछ स्वार्थी लोग ही इसे गंदा करते रहते हैं। जिस तरह मूर्ख धर्मांध और संकीर्ण लोग पवित्र गंगा नदी को गटरगंगा बनाने में जुटे रहते हैं,उसी तरह फितरती और धूर्त लोग इस राजनीतिक व्यवस्था रूपी गंगाको गटरगंगा बनाने में जुटे रहते हैं। "
चालाक प्रवृत्ति के लोग सत्ता में आने के लिए पहले तो जाति,धर्म-मजहब एवम अंधराष्ट्रवाद' का वितंडा खड़ा करते हैं और लोक लुभावन वादे करते हैं। जब ये सत्ता में आ जाते हैं तो भस्मासुर बन जाते हैं। जब वे चुनावी वादे पूरे नहीं कर पाते,जब मेहंगाई उनसे नहीं रुकती,जब वे रोजगार नही देपाते, और जब वे किसानों की मदद नही कर पाते, तो वे मीडिया को गुलाम बनाकर -विपक्ष पर हमला करते हैं और कभी नोटबंदी,कभी जी एस टी,कभी सर्जिकल स्ट्राईक और कभी असंभाव्य विकास को मीडिया पर परोसने लग जाते हैं!किंतु जनता उनके झांसे में नही आती,उम्मीद की यही एक किरण बाकी है!

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

सब कुछ विदेशी है!

जिस तरह रिस्टवाच और दीवाल घड़ी,पर्श, मोबाइल,चश्मा,पैन,बैल्ट लेपटाप,कम्प्यूटर ट्रक,टैक्टर,बस,रेल,हवाई जहाज,टीवी और पनडुब्बी इत्यादि सब विदेशी हैं, जिस तरह RSS की उग्र राष्ट्रवादी नस्लवादी विचारधारा जर्मनी और इटली के नाजीवाद से प्रेरित है,जिसतरह भारतीय संविधान और लोकतंत्र का प्रत्येक लफ्ज विदेशी है, ऐलोपैथी की दवाएं और इलाज के औजार विदेशी हैं तथा इलाज की पद्धति विदेशी है ! भारत में सिर्फ निर्धनता,अशिक्षा और आरक्षण ही शद्ध देशी है बाकी सब कुछ विदेशी है! इसलिये मजूरों -किसानों की विचारधारा साम्यवाद भी यदि विदेशी है तो किसके पेट में दर्द हो रहा है?

मार्क्सवादी नजरिये से 'वर्ग संघर्षों' का इतिहास-


सामंतवाद के गर्भ में पल रहा पूंजीवाद उस युगमें अपना विकास करते हुएभी उस समय निर्णायक भूमिका अदा करने में सक्षम नहीं था।आर्थिक और सामाजिक स्थिति सामंती पद्धति से ही संचालित होती रहती थी।
किंतु पूंजीवाद ने पढ़े लिखे लोगों को पैदा कर दिया।शिक्षक,डाक्टर,वकील आदि पैदा होने लगे।व्यापारी,उद्योगपति,पढ़े लिखे लोग, वकील ,जज आदि अपनी विविध योग्यताओं के बावजूद अनपढ़,विलासी,अयोग्य सामंतों की नजर में उपेक्षित हुआ करते थे।
ये सभी अपने अपने कारणों से उस सामंती व्यवस्था से क्षुब्ध थे।किन्तु ये सभी सामंती राजनीतिक सत्ता के सामने असमर्थ थे।तब
पूंजीपतियों को पूंजी लगाने के लिए,मजदूरों को पाने के लिए सामंतों की जी हुजूरी करनी पड़ती थी।वह उससे मुक्ति चाहते थे।अनेक तरह की चुंगी और दूसरी वसूली से बचने के लिए उनको एक राष्ट्रीय राज्य कि जरूरत थी।पहले से ही चल रहे किसान विद्रोहियों को एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत थी।इसे मध्यम वर्ग-जिसे बर्जुआ वर्ग कहा जाता है,ने पूरा किया।
जरूरत थी सामंती राज्य के स्थान पर एक नए राज्य की। ब्रिटेन जैसे कई देशों में यह काम टुकड़े टुकड़े की क्रांतियों द्वारा पूरा हुआ तो फ्रांस में एक ही बार की भीषण क्रांति द्वारा।इन क्रांतियों में पूंजीपति वर्ग को सामंतों पादरियोंके अतिरिक्त समाजके सभी लोगों अर्थात मजदूरों किसानों,वकीलों और शिक्षकों,दार्शनिकों,साहित्यकारों,कलाकारों आदि का साथ मिला।यह सामंती उच्च वर्ग के विरुद्ध मध्यमवर्ग के नेतृत्व की क्रांति थी।जिसका फायदा उठाकर पूंजीपतियों द्वारा धीरे धीरे सामंतों को राजनीतिक आर्थिक सत्ता से वंचित कर दिया गया।और खुद सत्ता पर काबिज होते चले गये !

पाकस्तानी शायर यास्मीन हमीद की ग़ज़ल:-

हम सब जैसा समझते हैं पाकिस्तान सिर्फ वैसा आतंकी मुल्क नही है!वहां भी मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत इंसानियत के गीत गाये जाते हैं!वहां भी अमन और इंकलाब की निर्झरणी बह रही है!
प्रस्तुत है -पाकस्तानी शायर यास्मीन हमीद की ग़ज़ल:-
पर्दा आंखों से हटाने में बहुत देर लगी!
हमें दुनिया नज़र आने में बहुत देर लगी!!
नज़र आताहै जो वैसा,नहींहोता कोई शख्स,
खुद को यह बात बताने में बहुत देर लगी!
एक दीवार उठाई थी बड़ी उजलत में,
वही दीवार गिराने में बहुत देर लगी!!
आग ही आग थी और लोग बहुत चारोंतरफ,
अपना तो ध्यान ही आने में बहुत देर लगी !
जिस तरह हम कभी होना ही नहीं चाहते थे ,
खुद को फिर वैसा बनाने में बहुत देर लगी!!
पर्दा आंखों से हटाने में बहुत देर लगी
हमें दुनिया नज़र आने में बहुत देर लगी
(असगर वजाहत की वाल से )

तानाशाही -अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।

किसी ने सही कहा है कि ''तानाशाह पैदा नहीं होते,अपितु कायर कौम द्वारा जबरन पैदा कर दिये जाते हैं।"
किसी संयुक्त परिवार में,कुटुंब-कबीले में, समाज में या मुल्कमें किसी व्यक्ति विशेष के शौर्य में,अवदान और उदात्त चरित्र में देवत्व देखने की परंपरा के कारण ही उस व्यक्ति को 'अवतार' अधिनायक या 'हीरो'मानने की परम्परा दुनिया में पुरातनकाल से चली आ रही है। लेकिन भारत में अजीब स्थिति है। यहाँ तो बिना किये धरे ही,बिना त्याग और बलिदान वाले लोगभी अपनी चालकी,धूर्तता और बदमाशी से 'हीरो' या अधिनायक बनते देखे गए हैं। प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं!
देश और समाज के तमाम वास्तविक हीरो बलिदानी और नायक इतिहास के हासिये से गायब कर दिए जाते हैं।जैसे कि मध्यप्रदेश के व्यापम सिस्टमके चलते हजारों वास्तविक 'नायक' आज वेरोजगार हैं या मनरेगा जैसे अस्थाई क्षेत्र में मजदूरी कर रहे हैं। जबकि नकली अभ्यर्थीऔर बदमाश- मुन्नाभाई लोग, अफसर- बाबू बनकर सत्ता से ऐंसे चिपक गए हैं कि उन्हें देखकर गोह भी लजा जाए।
यही स्थिति पूँजीवादी-दक्षिणपंथी राजनीति की है। यही स्थिति जातीयवादी सामाजिक आन्दोलनों की और धार्मिक आयोजनों की भी है। यही स्थिति स्वाधीनता सेनानियों की है। यही स्थिति मीसा बंदियों की है।हर क्षेत्र में चालाक और काइयाँ किस्म के लोग लाइन तोड़कर जबरन घुस जाते हैं। यही 'दबंग'लोग विद्या विनय सम्पन्न बेहतरीन युवा शक्ति को निस्तेज कर देते हैं। कुछ तो उन्हें धकियाकर जबरन किनारे लगा देते हैं और खुद ही इस व्यवस्था के 'महावत' बन जाते हैं।
बड़ेखेद की बात है कि समाज के कुछ उत्साही लोग इन बदमाशों को ही हीरो मान लेते हैं। कुछ तो कालांतर में अवतार भी मान लिए जातेहैं। इन नकली 'नायकों' के कारण, नकली अवतारोंके कारणही अतीतके तमाम झगडे पीछा नहीं छोड़ रहे हैं!जिन अवतारों पीर पैगम्बरों के कारण तमाम आधुनिक पीढ़ियाँ आपस में लड़ती -झगड़ती हैं,उन पर सवाल उठाना भी अब गुनाह माना जाता है।
भारत-पाकिस्तान के बीच जो अनवरत वैमनस्य चल रहा है,और तमाम देशों में जो सामाजिक ,जातीय संघर्ष जारी है ,भारत में आरक्षणवादियों और अनारक्षणवादियों के बीच,दलित और सवर्ण के बीच जो संघर्ष हो रहा है ,वह सब इसी अतीत की काली छाया का परिणाम है। अचेत और साधारणजन भी इस स्थिति के लिए पर्याप्त जिम्मेदार हैं , वे उन नकली नायकों' की जय-जय कार करते हैं जो इस संघर्षकी राजनैतिक फसल काटते रहते हैं! और व्यर्थ में ही अपनी ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। बेईमान-बदमाश -नायकों के पीछे जय-जयकार करने वाले भांड लोग उन बगल बच्चों की तरह होते हैं,जो हाथीकेपीछे -पीछे ताली बजाकर अपना मनोरंजन करते हैं। इतिहास साक्षी ही कि जनता की गफलत के कारण ही अक्सर धूर्त और चालाक लोग लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। तानाशाही और अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।
भारत की वर्तमान छल-छदम और सामाजिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। वैसे तो इस पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था का विस्तार विश्वव्यापी है! किन्तु जिस तरह भारतके गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए नेता -नेत्रियाँ अनैतिक पाखण्ड करते रहते हैं ,वे इस तरह अपनी वंशानुगत योग्यताको जब-तब आम सभाओं में पेश करते रहते हैं। यह विशेष राजनैतिक योग्यता दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलेगी ! यहाँ चाय बेचने से लेकर ,भैंसें चराने वाले तक ,रंगदारी बसूलने से लेकर खुँखार डकैतों की गैंग में शामिल होने वाले तक विधान सभाओं में और लोक सभा में पहुँचते रहे हैं।
यहाँ भारत में पैदायशी दलित-पिछड़े होने से लेकर धर्म-मजहब का ठेकेदार होने तक और जात -खाप से लेकर अपराध जगत का बाप होने तक की तमाम नैसर्गिक योग्यता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।आजादी के तुरन्त बाद मुबई से लेकर दुबई तक,और झुमरी तलैया से लेकर दिल्ली तक राजनीति में अपराधियों का बहुत वर्चस्व रहानहै। यहां सिर्फ कश्मीरी आतंकी -अलगाववादी ही नहीं बल्कि रतन खत्री,हाजीमस्तान,अरुण गवली,दाऊद,छोटा शकील ,बड़ा राजन ,अलां घोड़ेवाला ,फलां दारूवाला और ढिकां सट्टा वाला जैसे अनेक 'देशद्रोही'भारत की राजनीति संचालित करते आ रहे हैं। इन धरती पकड़ अपराधियों और दवंगों के आगे अधिकांस सज्जन नेता और ईमानदार पुलिस अफसर तथा कानून के रखवाले भी अपराध जगत की गटरगंगा में डुबकी लगाते रहे हैं।
बॉलीवुड वाले तमाम फिल्म निर्माता एवं निर्देशक,फायनेंसर,हीरो,हीरोइन,वितरक तो इस अपराध जगत में हमेशा टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। वैसे तो राजनीति की पूरी की पूरी हांडी ही काली है किन्तु यूपी, बिहार, महाराष्ट्र ,आंध्र,कर्नाटक ,पंजाब के अधिकांस राजनेता इस अपराध जगत में ज्यादा कुख्यात रहे हैं। तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।
भारत में 'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के लिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को बड़ी चालाकी और धूतता से हमेशा जिन्दा रखा जाता है। कुछ नेता-नेत्रियाँ न तोआर्थिक नीति जनते हैं, न विकासवाद जानते हैं ,न उन्हें 'राष्ट्रवाद' से कोई मतलब है वे तो केवल सत्ता सुख के लिए हीअपनी जातीय वैशाखी पर अहोभाव से खड़े हैं। उनके तथाकथित नॉन ट्रान्सफरेबिल वोटर्स भी बड़े खब्ती,कूढ़मगज,भेड़िया धसान होते हैं। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद,एकता -अखण्डता और देश के सर्वांगणींण वैज्ञानिक विकास से कोई लेना देना नहीं। उन्हें सिर्फ अपने नेता -नेत्री की चिंता है जो उन्हें 'आरक्षण' की छुद्र वैशाखी पकड़ाए रखने का वादा करता/करती है और एट्रोसिटी एक्ट की वकालत करता है!
कुछ दलितवादी नेताने बहुजन समाजको वर्ग चेतना[Educate,Agitate,Orgenize] से लेस करने के,उन्हें जात -एससी/एसटी के रूप में पर्मेनेंट वोटों का भंडार बना डाला है। उन्होंने शोषित-दलितवर्गके उत्थान के बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी पैदायशी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से भारतीय समाज में घोर विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे जातिवादी-मजहब परस्त बेईमान नेताओं ने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना डाला है। इन हालात मेंअभी भारत जैसे देश में किसी सकारात्मक क्रांति की या किसी कल्याणकारी पुरुत्थान की कोई समभावना नहीं है।
अतएव कभी कभी तो लगता है कि वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो 'यूटोपियाई पूँजीवाद'ही बेहतर है !कमसेकम पूँजीवदी -विज्ञानवादी व्यवस्थामें 'दान-पूण्य' धर्म-कर्म का आदर्श आचरण तो जीवित है।
विगत कुछ वर्ष पहले का वाक्या है,भारत के प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया जी सात हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं! जबकि इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को खुद के बलबूते पर अपनी हैसियत निर्माण के लिए घर से खाली हाथ निकाल दिया था। उन्होंने अपने बेटे को पाथेय के रूप में केवल स्वावलंबी होने का मन्त्र दिया था। उनका बेटा कोचीन की किसी कम्पनी में ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी करता रहा ! उसे यह नौकरी हासिल करने के लिए तकरीबन ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर ही रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने उसे घर से चलते वक्त उसे जो ७०० रूपये दिए थे,उन्हें खर्च करने की मनाही थी। वे रूपये उसके पास सुरक्षित रखे हुये थे! पिताजी ने यही आदेश दिया था की यह पैसा खर्च मत करना ! खुद कमाओ और खर्च करो ! 'स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति इस देश के नेता बन जाएँ और प्रधानमंत्री बना दिए जाएँ तो भारत के गरीब किसान-मजदूर और सर्वहारा वर्ग को शायद क्रांति की जरुरत ही न रहे!यदि ढोलकिया जैसे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में देश की सत्ता दे दी जाए तो शायद यह देश ज्यादा खुशहाल,सुरक्षित होगा,ज्यादा गतिशील और विकासमान हो सकता है !
श्रीराम तिवारी

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

हमने भी "एक आदमी को चुना"

तीन डाक्टर एक साथ सफर कर रहे थे।
एक जर्मन, एक फ्रांसीसी और एक भारतीय।
जर्मन डॉ.- हमने एक आदमी को चुना , उसकी किडनी बदली और 6धंटे बाद वो काम धंधा ढूंढने लगा!
फ्रांसीसी डॉ.-हमने एक आदमी को चुना, उसका दिल बदला और वो 4 धंटे बाद ही काम धंधा ढूंढने लगा!
भारतीय डॉ.- भाई हमने भी "एक आदमी को चुना" और अब पूरा देश काम धंधा ढूंढ रहा है।

यहां आस्तिक- नास्तिक की भी कोई झंझट नही.

"ईशावास्यमिदं सर्वं यतकिंचित जगत्याम् जगत! तेनत्यक्त्येन भुंजीथा,मा गृध कस्वि द्धनम!!"-[ईशावास्योपनिषद १-१]
चूँकि पश्चिम के अधिकांश दर्शनशात्रियों ने भारतीय उत्कृष्ट वेदांत का अध्यन ही नहीं किया,इसलिए वे सभी एकांगी और कोरे भौतिवादी रहे हैं। जबकि वेदांत की ईश्वर संबंधी घोषणा न तो यह कहती कि ईश्वर है और न यह कहती कि ईश्वर नहीं है। बहुत सम्भव है कि महात्मा बुद्ध ने भी शायद् इसी वेदांत सूत्र को अपने चार आर्य सत्यों के साथ नत्थी किया हो। ईशावास्योपनिषद का उपरोक्त सूत्र कालजयी और विज्ञानमय है ! स्वयंसिद्ध है। इसमें न तो मनुवाद है , न कोई जातिवाद है,न ब्राह्मणवाद है !यहां आस्तिक- नास्तिक की भी कोई झंझट नही है! यह तो मनुष्यमात्र को निम्तर श्रेणी से उच्चतर श्रेणी की ओर ले जाने का शानदार दुर्लभ सोपान है।

जय जय अम्बे जय जगदम्बे।

महँगी बिजली महँगा पानी,
खाद बीज की खींचातानी
नहीं ठिकाना मानसून का,
भौंचक हैं सब ज्ञानी ध्यानी।।
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों को,
नफरत की सुरसा भायी हैं!
गांव गली उर नगर नगर में,
साम्प्रदायिक कालिमा छाई है।।
मचा बबाल जाति आरक्षण का,
मची वोट की कारस्तानी !
त्यौहारों पर होती अक्सर ,
मजहब धर्म की खींचातानी !!
सत्ता बाबत शातिर नेता,
खुद ही कराते भीड़ से दंगे।
अमन शांति की ज्योति जले माँ
जय जय अम्बे जय जगदम्बे।।


नेता मंत्री अफसर बाबू ,
इन पर नहीं किसी का काबू!
भले बुढ़ापा आ जाए पर,
तृष्णा इनकी है बेकाबू!!
नित नित नए चुनावी फंडे,
बदल-बदल कर झंडे डंडे!
राजनीति इतनी हरजाई
कि नहीं देखती संडे मंडे!!
अंधे पीसें कुत्ते खायें यह,
रीति सदा से चली आ रही!
कोटि कोटि जनता पै भारी,
सत्ता की प्रभुता बढ़ी जा रही!!
भारत की धरती पर अम्बे ,
जाति धर्म के हाथ हैं लम्बे !
भ्रस्टन से आजाद करा मॉ,
जय जगदम्बे जय जय अम्बे!!
श्रीराम तिवारी

धर्म मजहबका जन्म भी मार्क्सवाद की तरह शोषण के खिलाफ भाववादी चेष्टा के रूप में हुआ है!

जो लोग रात दिन किसी व्यक्ति या विचार अथवा व्यवस्था के खिलाफ निरंतर संघर्षरत हैं,वे एकांगी होनेसे प्राय:अपना निजी जीवन नष्ट कर डालते हैं !वे यह समझने के लिये कतई तैयार नहीं कि कोई भी सात्विक और सभ्य मनुष्य जब धार्मिक होता है तो वह सिर्फ अपना ही नही बल्कि विश्व के सर्व कल्याणार्थ -श्रद्धा,भक्ति,ज्ञान,कर्म,योग और तत्व दर्शन का संधान करता है।
एक सह्रदय दर्शनशास्त्री के रूप में मनुष्य जब गौतम बुद्ध की तरह सोचता है,तब वह ईश्वर के अस्तित्व पर भले मौन हो जाता है , अर्थात वह ईश्वर के होने या न होने पर कोई घोषणा नहीं करता,किंतु मनुष्यमात्र के दुःख कष्ट-निवारण के लिये आध्यात्मिक विधियों की आंतरिक खोज को उस शिखर तक ले जाता है,जिसे 'बोध' या एनलाईटमेन्ट कहते हैं!
कोई मनुष्य जब 'नीत्से'हो जाता है तो वेशक यह घोषणा करता है कि 'मनुष्य ने ही ईश्वर को पैदा किया है!किन्तु वह ईश्वर अब मर चुका है'!और यही मनुष्य जब रूसो होता है, तब घोषणा करता है कि ''ईश्वर यदि नहीं भी है तो क्या हुआ उसे फिर से पैदा करने में ही मानवजाति का हित है!न केवल मनुष्य मात्र बल्कि जड़ -जंगम,जलचर,नभचर,थलचर के हित में ईश्वर का होना नितांत आवश्यक है।''
किंतु कोई मनुष्य जब वैज्ञानिक नजरिये से महानतम तर्कशात्री-कार्ल मार्क्स की तरह सोचता है,तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर और धर्म मजहब सिर्फ संपन्न वर्ग के हितों के पोषक हैं!"जबकि वास्तविक सच्चाई यह है कि सभी धर्म मजहबका जन्म भी मार्क्सवाद की तरह शोषण के खिलाफ भाववादी चेष्टा के रूप में हुआ है!इसी वैश्विक भाववाद की मदद से हीगेल,रूसो,फायरबाख इत्यादि पाश्चात्य दार्शनिकों ने मानवीय संवेदनाओं के भाववादी उटोपिया को परिभाषित किया है!इसी उटोपिया को सिर के बल खड़ा करके कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया को द्वदात्मक वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन प्रदान किया!
यह सच है कि ईश्वर और धर्म-मजहब के बहाने लोकता्त्रिक व्यवस्था में कुछ चालॉक और धूर्त पूजीवादी दक्षिणपंथी राजनैतिक नेताओं ने धर्म को न केवल शोषणका बल्कि वोटका धंधा बना रखा है!अधर्म करने वाले नेताओं ने धर्म-मजहब के फंडे को सर्वहारा वर्ग के लिए बहरहाल तो अफीम ही बना रखा है!