सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

धर्म मजहबका जन्म भी मार्क्सवाद की तरह शोषण के खिलाफ भाववादी चेष्टा के रूप में हुआ है!

जो लोग रात दिन किसी व्यक्ति या विचार अथवा व्यवस्था के खिलाफ निरंतर संघर्षरत हैं,वे एकांगी होनेसे प्राय:अपना निजी जीवन नष्ट कर डालते हैं !वे यह समझने के लिये कतई तैयार नहीं कि कोई भी सात्विक और सभ्य मनुष्य जब धार्मिक होता है तो वह सिर्फ अपना ही नही बल्कि विश्व के सर्व कल्याणार्थ -श्रद्धा,भक्ति,ज्ञान,कर्म,योग और तत्व दर्शन का संधान करता है।
एक सह्रदय दर्शनशास्त्री के रूप में मनुष्य जब गौतम बुद्ध की तरह सोचता है,तब वह ईश्वर के अस्तित्व पर भले मौन हो जाता है , अर्थात वह ईश्वर के होने या न होने पर कोई घोषणा नहीं करता,किंतु मनुष्यमात्र के दुःख कष्ट-निवारण के लिये आध्यात्मिक विधियों की आंतरिक खोज को उस शिखर तक ले जाता है,जिसे 'बोध' या एनलाईटमेन्ट कहते हैं!
कोई मनुष्य जब 'नीत्से'हो जाता है तो वेशक यह घोषणा करता है कि 'मनुष्य ने ही ईश्वर को पैदा किया है!किन्तु वह ईश्वर अब मर चुका है'!और यही मनुष्य जब रूसो होता है, तब घोषणा करता है कि ''ईश्वर यदि नहीं भी है तो क्या हुआ उसे फिर से पैदा करने में ही मानवजाति का हित है!न केवल मनुष्य मात्र बल्कि जड़ -जंगम,जलचर,नभचर,थलचर के हित में ईश्वर का होना नितांत आवश्यक है।''
किंतु कोई मनुष्य जब वैज्ञानिक नजरिये से महानतम तर्कशात्री-कार्ल मार्क्स की तरह सोचता है,तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर और धर्म मजहब सिर्फ संपन्न वर्ग के हितों के पोषक हैं!"जबकि वास्तविक सच्चाई यह है कि सभी धर्म मजहबका जन्म भी मार्क्सवाद की तरह शोषण के खिलाफ भाववादी चेष्टा के रूप में हुआ है!इसी वैश्विक भाववाद की मदद से हीगेल,रूसो,फायरबाख इत्यादि पाश्चात्य दार्शनिकों ने मानवीय संवेदनाओं के भाववादी उटोपिया को परिभाषित किया है!इसी उटोपिया को सिर के बल खड़ा करके कार्ल मार्क्स ने सारी दुनिया को द्वदात्मक वैज्ञानिक भौतिकवादी दर्शन प्रदान किया!
यह सच है कि ईश्वर और धर्म-मजहब के बहाने लोकता्त्रिक व्यवस्था में कुछ चालॉक और धूर्त पूजीवादी दक्षिणपंथी राजनैतिक नेताओं ने धर्म को न केवल शोषणका बल्कि वोटका धंधा बना रखा है!अधर्म करने वाले नेताओं ने धर्म-मजहब के फंडे को सर्वहारा वर्ग के लिए बहरहाल तो अफीम ही बना रखा है!

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