बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

राष्ट्रवाद एक नैतिक बाध्यता है!

मजहबी आस्था और धार्मिक विश्वाश भी 'राष्ट्रवाद' की तरह मूल रूप से एक अमूर्तन अवधारणा ही है। किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसका धर्म-मजहब इसलिए दुनिया में श्रेष्ठ है क्योंकि वह उस खास धर्म-मजहब वाले परिवार या समाजमें जन्मा है अथवा उसे देश -काल -परिस्थितियों ने धर्मान्तरित होनेको बाध्य किया है।
उदाहरण के लिए मैं स्वयम जन्मना 'ब्राह्मण कुल' से हूँ,इसलिए मेरे पास हिन्दू धर्म और ब्राह्मण जाति पर गर्व करने का आधार हो सकताहै। लेकिन इसी हिन्दू धर्मके 'पुनर्जन्म' सिद्धांतानुसार यदि कदाचित मैं आइंदा जैन, सिख,ईसाई,यहूदी अथवा मुसलमान परिवार में जन्म लेता हूँ तो स्वाभाविक है कि उस स्थिति में तब मुझे वे धर्म-मजहब ही प्रिय होंगे,जिनमें मेरा जन्म हुआ होगा ! .
गीता के अमृत सन्देश का सारतत्व भी यही है कि प्राणिमात्र के जीवन-मृत्यु का चक्र देश -काल की सीमाओं से मुक्त और कर्म स्पर्हा से आबद्ध होकर अनवरत चलता रहता है। भारत,पाकिस्तान,चीन या कोई और देशमें जन्मना तो मनुष्य की मानवीय क्षमताओं से परे हैं और राष्ट्रों का पार्थक्य भी पृथक पृथक सभ्यताओं का प्रतीक मात्र हैं।इसीलिये हिन्दू दर्शनशास्त्रों ने और प्राच्य वाङ्ग्मय ने भी 'सबै भूमि गोपाल की '' का उद्घोष किया है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' इस दर्शन का शाश्वत नारा है। मानव सभ्यताके सार्वभौम विकास की प्रक्रिया में सभी राष्ट्रों का सीमांकन एक 'सहनीय'और आवश्यक बुराई मात्र है।अर्थात वास्तव में राष्ट्रवाद का गुणानुवाद एक नैतिक बाध्यता है।

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