मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

तानाशाही -अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।

किसी ने सही कहा है कि ''तानाशाह पैदा नहीं होते,अपितु कायर कौम द्वारा जबरन पैदा कर दिये जाते हैं।"
किसी संयुक्त परिवार में,कुटुंब-कबीले में, समाज में या मुल्कमें किसी व्यक्ति विशेष के शौर्य में,अवदान और उदात्त चरित्र में देवत्व देखने की परंपरा के कारण ही उस व्यक्ति को 'अवतार' अधिनायक या 'हीरो'मानने की परम्परा दुनिया में पुरातनकाल से चली आ रही है। लेकिन भारत में अजीब स्थिति है। यहाँ तो बिना किये धरे ही,बिना त्याग और बलिदान वाले लोगभी अपनी चालकी,धूर्तता और बदमाशी से 'हीरो' या अधिनायक बनते देखे गए हैं। प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं!
देश और समाज के तमाम वास्तविक हीरो बलिदानी और नायक इतिहास के हासिये से गायब कर दिए जाते हैं।जैसे कि मध्यप्रदेश के व्यापम सिस्टमके चलते हजारों वास्तविक 'नायक' आज वेरोजगार हैं या मनरेगा जैसे अस्थाई क्षेत्र में मजदूरी कर रहे हैं। जबकि नकली अभ्यर्थीऔर बदमाश- मुन्नाभाई लोग, अफसर- बाबू बनकर सत्ता से ऐंसे चिपक गए हैं कि उन्हें देखकर गोह भी लजा जाए।
यही स्थिति पूँजीवादी-दक्षिणपंथी राजनीति की है। यही स्थिति जातीयवादी सामाजिक आन्दोलनों की और धार्मिक आयोजनों की भी है। यही स्थिति स्वाधीनता सेनानियों की है। यही स्थिति मीसा बंदियों की है।हर क्षेत्र में चालाक और काइयाँ किस्म के लोग लाइन तोड़कर जबरन घुस जाते हैं। यही 'दबंग'लोग विद्या विनय सम्पन्न बेहतरीन युवा शक्ति को निस्तेज कर देते हैं। कुछ तो उन्हें धकियाकर जबरन किनारे लगा देते हैं और खुद ही इस व्यवस्था के 'महावत' बन जाते हैं।
बड़ेखेद की बात है कि समाज के कुछ उत्साही लोग इन बदमाशों को ही हीरो मान लेते हैं। कुछ तो कालांतर में अवतार भी मान लिए जातेहैं। इन नकली 'नायकों' के कारण, नकली अवतारोंके कारणही अतीतके तमाम झगडे पीछा नहीं छोड़ रहे हैं!जिन अवतारों पीर पैगम्बरों के कारण तमाम आधुनिक पीढ़ियाँ आपस में लड़ती -झगड़ती हैं,उन पर सवाल उठाना भी अब गुनाह माना जाता है।
भारत-पाकिस्तान के बीच जो अनवरत वैमनस्य चल रहा है,और तमाम देशों में जो सामाजिक ,जातीय संघर्ष जारी है ,भारत में आरक्षणवादियों और अनारक्षणवादियों के बीच,दलित और सवर्ण के बीच जो संघर्ष हो रहा है ,वह सब इसी अतीत की काली छाया का परिणाम है। अचेत और साधारणजन भी इस स्थिति के लिए पर्याप्त जिम्मेदार हैं , वे उन नकली नायकों' की जय-जय कार करते हैं जो इस संघर्षकी राजनैतिक फसल काटते रहते हैं! और व्यर्थ में ही अपनी ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। बेईमान-बदमाश -नायकों के पीछे जय-जयकार करने वाले भांड लोग उन बगल बच्चों की तरह होते हैं,जो हाथीकेपीछे -पीछे ताली बजाकर अपना मनोरंजन करते हैं। इतिहास साक्षी ही कि जनता की गफलत के कारण ही अक्सर धूर्त और चालाक लोग लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। तानाशाही और अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।
भारत की वर्तमान छल-छदम और सामाजिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। वैसे तो इस पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था का विस्तार विश्वव्यापी है! किन्तु जिस तरह भारतके गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए नेता -नेत्रियाँ अनैतिक पाखण्ड करते रहते हैं ,वे इस तरह अपनी वंशानुगत योग्यताको जब-तब आम सभाओं में पेश करते रहते हैं। यह विशेष राजनैतिक योग्यता दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलेगी ! यहाँ चाय बेचने से लेकर ,भैंसें चराने वाले तक ,रंगदारी बसूलने से लेकर खुँखार डकैतों की गैंग में शामिल होने वाले तक विधान सभाओं में और लोक सभा में पहुँचते रहे हैं।
यहाँ भारत में पैदायशी दलित-पिछड़े होने से लेकर धर्म-मजहब का ठेकेदार होने तक और जात -खाप से लेकर अपराध जगत का बाप होने तक की तमाम नैसर्गिक योग्यता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।आजादी के तुरन्त बाद मुबई से लेकर दुबई तक,और झुमरी तलैया से लेकर दिल्ली तक राजनीति में अपराधियों का बहुत वर्चस्व रहानहै। यहां सिर्फ कश्मीरी आतंकी -अलगाववादी ही नहीं बल्कि रतन खत्री,हाजीमस्तान,अरुण गवली,दाऊद,छोटा शकील ,बड़ा राजन ,अलां घोड़ेवाला ,फलां दारूवाला और ढिकां सट्टा वाला जैसे अनेक 'देशद्रोही'भारत की राजनीति संचालित करते आ रहे हैं। इन धरती पकड़ अपराधियों और दवंगों के आगे अधिकांस सज्जन नेता और ईमानदार पुलिस अफसर तथा कानून के रखवाले भी अपराध जगत की गटरगंगा में डुबकी लगाते रहे हैं।
बॉलीवुड वाले तमाम फिल्म निर्माता एवं निर्देशक,फायनेंसर,हीरो,हीरोइन,वितरक तो इस अपराध जगत में हमेशा टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। वैसे तो राजनीति की पूरी की पूरी हांडी ही काली है किन्तु यूपी, बिहार, महाराष्ट्र ,आंध्र,कर्नाटक ,पंजाब के अधिकांस राजनेता इस अपराध जगत में ज्यादा कुख्यात रहे हैं। तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।
भारत में 'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के लिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को बड़ी चालाकी और धूतता से हमेशा जिन्दा रखा जाता है। कुछ नेता-नेत्रियाँ न तोआर्थिक नीति जनते हैं, न विकासवाद जानते हैं ,न उन्हें 'राष्ट्रवाद' से कोई मतलब है वे तो केवल सत्ता सुख के लिए हीअपनी जातीय वैशाखी पर अहोभाव से खड़े हैं। उनके तथाकथित नॉन ट्रान्सफरेबिल वोटर्स भी बड़े खब्ती,कूढ़मगज,भेड़िया धसान होते हैं। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद,एकता -अखण्डता और देश के सर्वांगणींण वैज्ञानिक विकास से कोई लेना देना नहीं। उन्हें सिर्फ अपने नेता -नेत्री की चिंता है जो उन्हें 'आरक्षण' की छुद्र वैशाखी पकड़ाए रखने का वादा करता/करती है और एट्रोसिटी एक्ट की वकालत करता है!
कुछ दलितवादी नेताने बहुजन समाजको वर्ग चेतना[Educate,Agitate,Orgenize] से लेस करने के,उन्हें जात -एससी/एसटी के रूप में पर्मेनेंट वोटों का भंडार बना डाला है। उन्होंने शोषित-दलितवर्गके उत्थान के बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी पैदायशी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से भारतीय समाज में घोर विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे जातिवादी-मजहब परस्त बेईमान नेताओं ने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना डाला है। इन हालात मेंअभी भारत जैसे देश में किसी सकारात्मक क्रांति की या किसी कल्याणकारी पुरुत्थान की कोई समभावना नहीं है।
अतएव कभी कभी तो लगता है कि वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो 'यूटोपियाई पूँजीवाद'ही बेहतर है !कमसेकम पूँजीवदी -विज्ञानवादी व्यवस्थामें 'दान-पूण्य' धर्म-कर्म का आदर्श आचरण तो जीवित है।
विगत कुछ वर्ष पहले का वाक्या है,भारत के प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया जी सात हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं! जबकि इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को खुद के बलबूते पर अपनी हैसियत निर्माण के लिए घर से खाली हाथ निकाल दिया था। उन्होंने अपने बेटे को पाथेय के रूप में केवल स्वावलंबी होने का मन्त्र दिया था। उनका बेटा कोचीन की किसी कम्पनी में ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी करता रहा ! उसे यह नौकरी हासिल करने के लिए तकरीबन ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर ही रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने उसे घर से चलते वक्त उसे जो ७०० रूपये दिए थे,उन्हें खर्च करने की मनाही थी। वे रूपये उसके पास सुरक्षित रखे हुये थे! पिताजी ने यही आदेश दिया था की यह पैसा खर्च मत करना ! खुद कमाओ और खर्च करो ! 'स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति इस देश के नेता बन जाएँ और प्रधानमंत्री बना दिए जाएँ तो भारत के गरीब किसान-मजदूर और सर्वहारा वर्ग को शायद क्रांति की जरुरत ही न रहे!यदि ढोलकिया जैसे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के हाथों में देश की सत्ता दे दी जाए तो शायद यह देश ज्यादा खुशहाल,सुरक्षित होगा,ज्यादा गतिशील और विकासमान हो सकता है !
श्रीराम तिवारी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें