मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

मार्क्सवादी नजरिये से 'वर्ग संघर्षों' का इतिहास-


सामंतवाद के गर्भ में पल रहा पूंजीवाद उस युगमें अपना विकास करते हुएभी उस समय निर्णायक भूमिका अदा करने में सक्षम नहीं था।आर्थिक और सामाजिक स्थिति सामंती पद्धति से ही संचालित होती रहती थी।
किंतु पूंजीवाद ने पढ़े लिखे लोगों को पैदा कर दिया।शिक्षक,डाक्टर,वकील आदि पैदा होने लगे।व्यापारी,उद्योगपति,पढ़े लिखे लोग, वकील ,जज आदि अपनी विविध योग्यताओं के बावजूद अनपढ़,विलासी,अयोग्य सामंतों की नजर में उपेक्षित हुआ करते थे।
ये सभी अपने अपने कारणों से उस सामंती व्यवस्था से क्षुब्ध थे।किन्तु ये सभी सामंती राजनीतिक सत्ता के सामने असमर्थ थे।तब
पूंजीपतियों को पूंजी लगाने के लिए,मजदूरों को पाने के लिए सामंतों की जी हुजूरी करनी पड़ती थी।वह उससे मुक्ति चाहते थे।अनेक तरह की चुंगी और दूसरी वसूली से बचने के लिए उनको एक राष्ट्रीय राज्य कि जरूरत थी।पहले से ही चल रहे किसान विद्रोहियों को एक सशक्त नेतृत्व की जरूरत थी।इसे मध्यम वर्ग-जिसे बर्जुआ वर्ग कहा जाता है,ने पूरा किया।
जरूरत थी सामंती राज्य के स्थान पर एक नए राज्य की। ब्रिटेन जैसे कई देशों में यह काम टुकड़े टुकड़े की क्रांतियों द्वारा पूरा हुआ तो फ्रांस में एक ही बार की भीषण क्रांति द्वारा।इन क्रांतियों में पूंजीपति वर्ग को सामंतों पादरियोंके अतिरिक्त समाजके सभी लोगों अर्थात मजदूरों किसानों,वकीलों और शिक्षकों,दार्शनिकों,साहित्यकारों,कलाकारों आदि का साथ मिला।यह सामंती उच्च वर्ग के विरुद्ध मध्यमवर्ग के नेतृत्व की क्रांति थी।जिसका फायदा उठाकर पूंजीपतियों द्वारा धीरे धीरे सामंतों को राजनीतिक आर्थिक सत्ता से वंचित कर दिया गया।और खुद सत्ता पर काबिज होते चले गये !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें