चूँकि भारतीय वामपंथ के लिए चीन,क्यूबा या यूरोप और अरब राष्ट्रोंकी तरह सामाजिक यूनिफॉर्म लेविल प्लेयिंग फील्ड मौजूद नहीं है। इसलिए यहां कोई एक संगठित सर्वहारा का हरावल दस्ता बना पाना बहुत कठिन है!जो प्रगतिशील लेखक,कवि और विचारक -ज्ञानवान अर्थात मेधाशक्ति से ओत -प्रोत रहे हैं,उनकी विध्वंशक क्रान्तिकारी सोच यह रही कि मार्क्सवादी किताबों ने उन्हें जो कुछ रटा दिया,वे उससे आगे कुछ भी कहना -सुनना कुफ्र समझते हैं ! स्वर्गीय हरिशंकर परसाई और रामविलास शर्मा ने इस पर ध्यानाकर्षण किया है!जबकि कथाकार राजेन्द्र यादव की तरह महावज्र जड़मतियों ने हमेशा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सनातन विरोध किया है!यह किस प्रगतिशीलता का द्वेतक है ? इस तरह की ही घोर 'अराष्ट्रवादी' चेतना ने भारतीय जन-मानस को वामपंथ से दूर कर दिया और कट्टरपंथी संगठनोंकी ओर धकेल दिया! यही वजह है कि केरल में चर्च मंदिर और मस्जिद से वामपंथ को जूझना पड़ रहा है। यही वजह है कि प. बंगाल में ज्योति वसु और कॉम प्रमोददास जैसे कर्मठ ईमानदार नेताओं की पुण्यायी को ममता बेनर्जी जैसी 'उजबक ' महिला हजम कर गयी ।यही वजह है भारत में पहले तो देश में केवल भूस्वामियों-पूँजीपतियों का ही वर्चस्व था,किन्तु अब तो भारत में साम्प्रदायिकता और क्रोनी पूँजीवाद की जुगलबंदी से भी ज्यादा जातीय राजनीति मजबूत हो चुकी है। जो लोग यूपी-बिहार में समाजवाद का मुखौटा लगाकर जातीयत की राजनीति कर रहे हैं और इस भृष्ट सिस्टम के ही बगलगीर हो चुके हैं।उनके कारण वामपंथ का गणित फैल हो जाता है! सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की बात करने वाले दलों में भी केवल एस सी एसटी विषयक गीत गाये जा रहे हैं!
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