मुठ्ठीभर चने और जमना जल पी-पीकर !
रात दिन एक करके हाड़-मांस पीसकर !!
कारिंदों से पिटकर चोबदारों से लुटकर !
छैनी-हथौड़ी चलाकर बनाई बेमिसाल इमारत,
लिख डाली दो प्रेमियों की कालजयी इबारत,
हम ख़ुश हुए अद्वितीय प्रेम का स्मारक बनाकर!!
तभी हाथी पर स्वर्णिम हौदे में होकर सवार !
आया शंहशाह और बोला सैनिकों से ललकार !!
मेरी मरहूम बीवी के मकबरे का न बने तोड़ कोई !
काटदो सृजनकर्ताओं के हाथ,भाग न पाए कोई !!
मेरा गुनाह क्या था ? यह तो बताए कोई !
इतिहास के पन्नों में मेरा नाम नहीं कोई!!
मिश्र के पिरामिड पीसा की झुकी-मीनार,
पेरिस का एफिल टॉवर, चीन की दीवार।
पत्थरों को काटकर अपने हाथों से सिरजे,
सम्राटों के आदेश पर मंदिर-मस्जिद-गिरजे।।
चीर डाला धरती को,बनाई पनामा-स्वेज नहरें,
मिला दी मैंने सागरों की सागरों से लहरें।
अजंता, कोणार्क, देवगिरि, मदुराई, खजुराहो,
एलोरा, आबू, देवगढ़ तंजाबूर कामाख्या हो।।
चीख-चीखकर बोल रही हैं पाषाण प्रतिमाऐं,
मेरे श्रम धैर्य चिंतन कला की सीमाऐं।
मेरे लहू का मोल न कभी कूत सका कोई,
इतिहास के पन्नों मे मेरा नाम नहीं कोई।।
महासागरों के अतल जल में गोते लगातीं पनडुब्बियां,
गगनभेदी रॉकेट चन्द्र मंगल पर मानवी अठखेलियां।
वैज्ञानिक अनवरत अविष्कार रेल दूरसंचार,
विधाता की रचना को दिया मैंने नूतन आकार,
मैं ही जग का सृष्टा, सेवक, श्रमिक, तारनहार।
खेत में, खदान में, सीमाओं पर जंग के मैदान में,
सेवा, सुरक्षा सकल तंत्र के नित्य निर्माण में।।
मेरा ही श्रम स्वेद प्रतिपल लेता रहा आकार,
मेरी ही दमित आत्मा होती रही स्थूल में साकार।
पीरों, पैगम्बरों, अवतारों में न मिला अपना कोई,
इतिहास के पन्नों में मेरा नाम नहीं कोई।
श्रीराम तिवारी
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