बैसाखी' एक कहानी..... जो हरएक भारतीय को जातीय आरक्षण के बारे में सोचने पर मजबूर कर देगी....
रात के समय एक आदमी को उसके घर वाले अस्पताल ले कर आये,शायद उसके पैर की हड्डी में फ्रैक्चर था.मरीज का फ्रैक्चर गंभीर नहीं था,अत: कुछ दिनों बाद उसे छुट्टी दे दी गयी! पर घर पर ही रहने की सलाह दी गयी !चूंकि वो बिना सहारे के चल पाने में असमर्थ था अतएव डॉक्टरों ने इस समस्या के हल के रूप में उसे सरकारी अस्पताल से मुफ़्त में मिलने वाली एक बैसाखी देते वक़्त समझाया कि -
" यह बैसाखी सरकारकी तरफ से है इसलिए इसकी संख्या व सीमा निर्धारित है!जब आप खुद से चलने में समर्थ हो जाएं तो इसे लौटा दें ताकि यह भविष्य में आने वाले आप जैसे अन्य लोगों के भी काम आ सके".
" यह बैसाखी सरकारकी तरफ से है इसलिए इसकी संख्या व सीमा निर्धारित है!जब आप खुद से चलने में समर्थ हो जाएं तो इसे लौटा दें ताकि यह भविष्य में आने वाले आप जैसे अन्य लोगों के भी काम आ सके".
तदुपरांत वह आंशिक अपंग दवा की पर्ची लेकर दवाएं लेने सरकारी दवाखाने पंहुचा! वहां लाइन में लग गया!लाइन में लगे बाकि लोगो ने जब उसके पैर में प्लास्टर बंधा देखा और बैसाखी के सहारे विवश खड़े देखा तो मानवता के चलते उसे सबसे आगे भी जाने दिया और उसे दवा जल्द मिल गयी !
अब उसे स्टेशन जाना था तो ऑटो पकड़ने पंहुचा. ऑटो रुकी तो ऑटो वाले ने उसकी लाचारी देखते हुए उसका सामान उठा कर आटो में रख दिया और उसको भी चढ़ने में मदद कि और हिफाजत से स्टेशन छोड़ा!
ट्रेन में चढ़ते वक्त बहुत भीड़ थी,बैठने की जगह ना होने से खड़ा रहना पड़ा!किंतु कुछ लोगो ने देखा कि बेचारा अपंग बैसाखी के सहारे खड़ा है,तो एक आदमी ने उठ कर उसे तत्काल अपनी सीट दे दी और वह अपंग व्यक्ति अपने घर आराम से पहुच गया !
कुछ दिनों में उसकी मेडिकल लीव भी ख़त्म हो गई,चूंकि ऑफिस जाना था,अतएव सुबह तैयार हो के बाहर निकला और बस का वेट करने लगा. पड़ोसी ने देखा कि एक बेचारा बैसाखीके सहारे चल रहा है तो उसेऑफिस तक अपने स्कूटर पर छोड़ दिया!
इतने दिन बाद ऑफिस पंहुचा था तो काम बहुत था! लेकिन ऑफिस सहकर्मियों ने भी उसके लाचारी पर सहानभूति दिखाई और उसके ज्यादातर काम करके उसका भी हाथ बटाया!ऑफिस में भी उसको आराम रहा !
घर लौटा तो साथ वालेने घर तक छोड़दिया!
चूंकि उस आंशिक चोटग्रस्त का यह दिन बड़े आराम से बीता था,इसलिए उसके दिमाग में कुछ उपद्रव पनपने लगा!
वह सोचने लगा....
"अगर मैं ठीक ना होने का नाटक करूं तो ऐसे ही लोगों की सहानभूति मिलती रहेगी".
"या फिर ये बैसाखी ही ना छोड़ूं तो ?? तो सारे काम आसानी से होते रहेंगे".
और फिर ये बैसाखी अपने बच्चे को दे दूं तो..??वो भी मेरी तरह फायदा उठा पायेंगे!
उसके दिल में कपट आ गया और फिर उसने अस्पताल में बैसाखी वापस नहीं की !
घर लौटा तो साथ वालेने घर तक छोड़दिया!
चूंकि उस आंशिक चोटग्रस्त का यह दिन बड़े आराम से बीता था,इसलिए उसके दिमाग में कुछ उपद्रव पनपने लगा!
वह सोचने लगा....
"अगर मैं ठीक ना होने का नाटक करूं तो ऐसे ही लोगों की सहानभूति मिलती रहेगी".
"या फिर ये बैसाखी ही ना छोड़ूं तो ?? तो सारे काम आसानी से होते रहेंगे".
और फिर ये बैसाखी अपने बच्चे को दे दूं तो..??वो भी मेरी तरह फायदा उठा पायेंगे!
उसके दिल में कपट आ गया और फिर उसने अस्पताल में बैसाखी वापस नहीं की !
ऐसे ही और भी कई मरीजों ने किया होगा! और कुछ दिनों में ही सरकारी बैसाखियां जो लोगो के मदद के लिए थी ख़त्म हो गयी !तनाम बैसाखियां चंद लोगो की व्यक्तिगत सुख साधन बन चुकी थी! और वे अपने बच्चों को भी यह बैसाखी थमाने का प्लान बना चुके थे!जबकि उनके बच्चे अपंग या असहाय नही थे!दूसरी ओर हजारों लाखों उसके जैसे दूसरे मरीज़ अब भी बैसाखियों के आस लगाये बैठे हैं!सहज ही प्रश्न उठता है किआखिर कब तक लोग उसके झूठ को सहते रहेंगे और अनदेखा करते रहेंगे!अत: एक न एक दिन विरोध तो होना ही था!
फिर आगे क्या हुआ वो हम सब ( याने देश की जनता) देख भी रहे हैं !और महसूस भी कर रहे हैं.(साभार उल्हास दिनकर रानाडे)
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