हमने देखा कि आदिम साम्यवादी युग की आर्थिक सामाजिक प्रणाली ,जो मानव समाज के इतिहास की वह प्रणाली थी जिसमे आज तक की सभी आर्थिक सामाजिक प्रणालियों के मूल लक्षण दिखाई पड़ जाते हैं।उन बातों को आज की पूंजीवादी प्रणाली में भी देख सकते है।
उपभोग इंसान की मूल आवश्यकता है।
उपभोग के लिए आदमी श्रम करता है।
उपभोग के लिए आदमी श्रम करता है।
कोई भी वस्तु इसलिए मूल्यवान होती है कि वह आदमी की जरूरतों को पूरा करने के काम आती है।यदि वह यह काम न कर सके तो उसके लिए श्रम में खर्च की गई ऊर्जा निरर्थक हो जाती है।
सार्थक श्रम के लिए पहली चीज आदमी का हुनर होता है।दूसरी चीज है श्रम का औजार और तीसरी चीज प्रकृति।श्रम के औजारों में युग के अनुसार परिवर्तन और वृद्धि होती रहती है।
औजार और प्रकृति श्रम या उत्पादन के साधन कहे जाते है।
आदमी अर्थात श्रमिक और उत्पादन मिलकर उत्पादन शक्तियां कहलाते हैं।
उत्पादन और उपभोग के बीच में आवश्य क रूप से एक चीज और आती है ,वह है वितरण।
इन तीन आर्थिक क्रियाओं में जब एक चौथी क्रिया जिसे विनिमय कहते हैं,का प्रवेश हुआ आदिम साम्यवादी व्यवस्था के आगे के युग में इतिहास प्रवेश कर गया।
इन तीन आर्थिक क्रियाओं में जब एक चौथी क्रिया जिसे विनिमय कहते हैं,का प्रवेश हुआ आदिम साम्यवादी व्यवस्था के आगे के युग में इतिहास प्रवेश कर गया।
आदिम साम्यवादी युग के आखिरी चरण में चार आर्थिक क्रियाएं आवश्यक बन गईं,उत्पादन,वितरण,विनिमय और उपभोग ।इन क्रियाओं के दौरान लोगों के बीच जो संबंध बनते हैं उसे उत्पादन संबंध कहते हैं।
उत्पादन शक्तिओ और उत्पादन संबंध के संयुक्त रूप को उत्पादन प्रणाली कहते हैं।
उत्पादन प्रणाली का प्रधान निर्णायक तत्व स्वामित्व का रूप होता है।
आदिम साम्यवादी युग में स्वामित्व सामूहिक था ,वितरण और उपभोग लगभग बराबरी का,अर्थात क्षमता के अनुसार काम और आवश्यकता के अनुसार उपभोग।
इसलिए आगे के युगों में जो असंतोष और संघर्ष आदमी आदमी के बीच दिखाई पड़ता है ,वह उस युग में नहीं था।
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