दास स्वामी व्यवस्था के युग के प्रारंभ में भी पहले प्रायः युद्ध बंदियों को ही दास बनाया गया ।
आगे चल कर कर्ज अदा नहीं करने वालों को भी दास बनाया जाने लगा जो कि स्वामी के समाज के ही लोग थे।
इन दोनों तरह के दासों का व्यापार भी किया जाने लगा।
आगे चल कर कर्ज अदा नहीं करने वालों को भी दास बनाया जाने लगा जो कि स्वामी के समाज के ही लोग थे।
इन दोनों तरह के दासों का व्यापार भी किया जाने लगा।
दासों ने अपने काम के दौरान अपने अनुभव से तरह तरह के नए नए औजारों का, और कड़ी से कड़ी धातुओं के औजारों का निर्माण किया।
किन्तु ये औजार और वह जमीन ,खदान, बाग़, पालतू बनाए गए जानवर जो दासों की मेहनत के फल थे स्वामी की सम्पत्ति हो जाते थे।
यह होना स्वाभाविक था क्योंकि जब दास स्वयं ही स्वामी कि संपत्ति होते थे तब उनकी रचना उनकी संपत्ति कैसे होती।
किन्तु ये औजार और वह जमीन ,खदान, बाग़, पालतू बनाए गए जानवर जो दासों की मेहनत के फल थे स्वामी की सम्पत्ति हो जाते थे।
यह होना स्वाभाविक था क्योंकि जब दास स्वयं ही स्वामी कि संपत्ति होते थे तब उनकी रचना उनकी संपत्ति कैसे होती।
कड़ा से कड़ा और अधिक से अधिक समय का श्रम , डांट फटकार ही नहीं कोड़े के बल पर लिया जाने वाला श्रम ही प्रचलन में हो तो दास कैसे संतुष्ट रह सकता था।
दास अपने असंतोष को तरह तरह से प्रकट करते थे।जी औजारों को वह बनाते थे कुपित होने पर उनको तोड़ भी देते थे।
दासों का यह संघर्ष स्वामियों को इस बात की प्रेरणा देता था कि वह कुशल दासों से और भी अच्छे और मजबूत औजारों का निर्माण कराए।
दास स्वामी के जिन बच्चों को खेलाते, पालते पोषते,सेवा टहल करते थे उनकी या परिवार के अन्य सदस्यों की मौका देख कर हत्या भी कर देते थे।
स्वामि का राज्य और उनकी सरकार दासों को कठोर से कठोर दण्ड देने की व्यवस्था देता था।प्रायः स्वामी का ही दंड देने का अधिकार मान्य हुआ करता था।
कठोर से कठोर दण्ड को भी असफल होते देख धर्म का सहारा लिया जाने लगा।और हर तरह का धर्म दासों को एक अच्छा दास बनने की शिक्षा दिया करता था।
उनमें स्वामियों के लिए भी कुछ मर्यादाओं की बात होती थी किन्तु जैसा की आज भी देखा जाता है हर मर्यादा निर्बल पर सफल होती है न कि बलवान पर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें