मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

यदि बच्चों को जमाने के साथ चलना है तो खेलना जरुरी है।



   अभी-अभी दक्षिण कोरिया में सम्पन्न हुए एशियाई खेलों में  भारत  के जिन  बहादुर  खिलाडियों  ने मैडल  हासिल किये  हैं और देश का नाम रोशन किया  है ,उन्हें लख -लख  बधाई ! पदक तालिका में चीन के प्रथम  स्थान पर होने और  लगभग पौने चार सौ पदकों  का विशाल स्कोर होने के समक्ष - भारत के  ५५ पदक  और आठवाँ स्थान होना इस मायने में बहुत  लज्जास्पद है कि  हम जनसंख्या में तो  उससे आगे निकलने को भी तैयार हैं। हम  चीन से न केवल   व्यापार  में ,न केवल तकनीकि  में ,न केवल रक्षा संसाधनों में बल्कि  व्यवहार  में भी बराबरी की उम्मीद करते हैं।  किन्तु खेलों में ,शिक्षा में ,साक्षरता में  ,स्वास्थ्य में ,रोजगार में और अनुशासन में  चीन से बराबरी की कोई चर्चा करना हमारे मीडिया को या हुक्मरानों को कतई  स्वीकार नहीं। खेलों में  हम अभी भी उससे आठ पायदान नीचे हैं।   चीन के साथ  इतने विशाल अंतर के  वावजूद  हम अपने खिलाडियों के  अथक परिश्रम  को सलाम करते हैं और उनके द्वारा अर्जित  ये थोड़े से मेडल भी  हमारे  लिए बेहद कीमती  हैं।
                                    आजादी के तुरंत बाद भारत में पता नहीं किस उजबक ने  ये नारा दिया कि "पढोगे-लिखोगे बनोगे नबाब ! खेलोगे  कूंदोगे  होवगे खराब !! " एक बात मुझे सदैव सालती है कि मेरी पीढ़ी के लोग वास्तव में खेलों को बेहद हेय  दॄष्टि  से  ही देखा  करते थे। इस प्रवृत्ति ने भारत को इस कदर जकड़ा कि वो जब तक इससे उभरने की जुगत भिड़ाता  उससे पहले ही उसे  क्रिकेट रुपी विषधर ने डस  लिया। आमिर खान ने 'सत्यमेव जयते '  के मार्फ़त खेल का सच दिखाकर वाकई देशभक्तिपूर्ण कार्य किया है। इस कार्यक्रम से लोगों को जानकारी मिलेगी की 'खेल सिर्फ खिलाड़ी ही नहीं बनाता बल्कि एक बेहतर इंसान भी बनाता है 'तीसरी पारी का पहला शो शिद्दत  से आह्वान करता हुआ प्रतीत होता है कि स्कूली शिक्षा में खेल अब 'जरुरी' किया जाना चाहिए। गणित,हिंदी,अंग्रेजी,साइंस या ग्रामर की तरह खेल भी अनिवार्य किया जाना चाहिए।आमिर ने  यह सवाल बड़े मौके पर उठाया  है।
                हिन्दुस्तान के खिलाडी  चंद मेडल्स लेकर अभी-अभी दक्षिण कोरिया से लौटे हैं। वहीँ चीन की गर्दन में  सैकड़ों मैडल समा नहीं रहे  हैं। भारत और चीन के बीच न तो भौगोलिक दूरी है और न ही जनसंख्या में कोई खास अंतर ,फिर क्या कारण है कि न केवल एशियाड  बल्कि ओलम्पिक में भी चीन भारत से मीलों आगे निकल जाता  है। बहुत संभव है कि  जिन देशों के खिलाड़ी ज्यादा मेडल्स ले जाते हैं वहाँ खेल को इज्जत दी जाती हो। खिलाडी को बचपन से ही तराशा जाता हो। यह भी सुना गया है कि  चीन सरकार अपने खिलाडियों को न केवल बड़े-बड़े कॉटेज ,खेल के मैदान  और स्कूली अध्यन की सुविधाओं मुहैया कराती है बल्कि इस के साथ -साथ उन्हें कड़े अनुशासन में भी  रखती   है। चीन में प्रतिस्पर्धी खिलाडियों को बजीफा -आजीविका का इस तरह प्रावधान है.वहाँ यह धारणा  बन चुकी है कि खेलकूंद से बच्चा खराब नहीं होता बल्कि एक अच्छा इंसान भी बनता है. वहाँ स्कूलों में जिस तरह साइंस के पीरियड होते हैं वैसे ही  वहां खेलों के भी संजीदा पीरियड रखे जाते हैं।  कॅरियर के लिए भारत में जिस तरह इंजीनियरिंग,मेडिकल,या विजनिस  मैनेजमेंट  में स्टूडेंट अपना भविष्य तलाशते हैं उसी तरह चीन के युवा भी इन क्षेत्रों के अलावा खेलों में भी अपना कॅरियर  तलाश लिया करते हैं।  चीन में खेल कोई अनुत्पादक  श्रम  नहीं है  बल्कि खेल वहाँ व्यक्ति और राष्ट्र के लिए वहाँ सर्वोपरि है।
                                                भारत को अभी तो उस मानसिकता से निकलना होगा कि  खेलने  से बच्चा खराब हो जाएगा।   बरसों पहले ही चीन ,जापान ,चेक गणराज्य ,पूर्व सोवियत संघ ही नहीं बल्कि अमेरिका और यूरोप  में भी ये धारणा  विकसित की गई थी कि खेलकूंद से कोई बच्चा खराब नहीं होता बल्कि वह एक अनुशासित और बेहतर इंसान बनने  की अपनी शक्ति  में बृद्धि करता है। आधुनिक पतनशील समाज में खेल को बुराइयों से लड़ने का ,शोषण से लड़ने का  ओजार  बनाया जा सकता है। जो बच्चे खेलते नहीं वे अवश्य बहक सकते हैं  किन्तु जो किसी खास  खेल में रूचि रखते हैं और यदि उन्हें तदनुरूप कुछ मदद मिले तो वे न केवल बेहतर नागरिक बन सकते हैं बल्कि देश का नाम भी रोशन कर सकते हैं। सत्यमेव जयते ने इस पहलु को भी कुछ हद तक छुआ है।  आमिर को धन्यवाद और उनके कार्यक्रम 'सत्यमेव जयते ' को दिखाने वालों का  भी तहेदिल से शुक्रिया  !
                                         
                                           श्रीराम तिवारी 

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